________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
sons
01ms
MA
र
पञ्चम संस्करण दो-चार बातें।
पर
भक्तवत्सल भक्तभयहारी आनन्दकन्द भगवान् कृष्णचन्द्रको अनेकानेक धन्यवाद हैं, जिनकी असीम कृपासे "चिकित्सा-चन्द्रोदय" भी आज "स्वास्थ्यरक्षा"की तरह घर-घरकी रामायण होता जा रहा है। उनकी कृपा बिना, जनता इस नगण्य तुच्छातितुच्छ लेखकके लिखे ग्रन्थोंका इतना आदर करती हुई इन्हें न अपनाती। जनताकी कृपाका ही फल है कि इस ग्रन्थके संस्करण-पर-संस्करण हो रहे हैं। सन् १८३४ ई० में इस पाँचवें भागका तीसरा संस्करण हुआ। सन् १६३६ में चौथा संस्करण हुआ और सन् १९३७ के आरम्भमें ही इसका पाँचवाँ संस्करण हो गया है । मुझे आशा नहीं थी कि मैं इस भागका पाँचवाँ संस्करण भी अपनी आँखोंसे देख सकूँगा। गत १५ मार्च १६३७ को मुझे यमसदनसे बुलावा आ गया था। घण्टे-आध-घण्टेकी देर थी कि अचानक फिर होश हो गया। यमदूत मुझे ले जाते हुए भी छोड़ गये । मालूम नहीं, भक्तवत्सलकी क्या इच्छा है। मैं उस इच्छामयकी इच्छामें ही सन्तुष्ट हूँ। अब मुझे संसार और संसारी पदार्थोंसे एकदम विरक्ति हो गई है । अब जितने दिन शेष हैं उतने दिन उनकी आराधना और जनता-जनार्दनकी सेवामें बिताऊँगा। लोग चाहे जो समझे, मैं तो परोपकार-जन्य पुण्यको सर्वोपरि समझकर ही, इन दोतीन सालोंमें कई बार अपनी पुस्तकों और दवाओंको आधी कीमतमें दे चुका हूँ। अब मुझे मोटा कपड़ा पहननेको और बेझरकी रोटी खानेको चाहिये। इससे अधिकके लिए तृष्णा नहीं । आशा है, जनता मुझपर और मेरे चिरञ्जीव राजेन्द्रपर इसी तरह दयादृष्टि बनाये रखेगी और इन पुस्तकोंके संस्करण-पर-संस्करण होते रहेंगे।
विनीत निवेदक मथुरा ५-४-१९३७ }
हरिदास ।
For Private and Personal Use Only