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चिकित्सा-चन्द्रोदय। तस्यातिवृत्तौं दौर्बल्यं श्रमोमूर्छा मदस्तृषा ।
दाहः प्रलापः पाण्डुत्वं तन्द्रा रोगश्च वातजाः ॥ बहुत खून चूने या गिरनेसे कमज़ोरी, थकान, बेहोशी, नशा-सा बना रहना, जलन होना, बकवाद करना, शरीरका पीलापन, ऊँघ-सी आना और आँखें मिचना तथा बादीके रोग--आक्षेपक आदि उत्पन्न हो जाते हैं।
प्रदर रोग भी प्राणनाशक है । - आजकल स्त्री तो क्या पुरुष भी आयुर्वेद नहीं पढ़ते । इसीसे रोगोंकी पहचान और उनका नतीजा नहीं जानते । कोई विरली ही स्त्री होगी, जिसे कोई-न-कोई योनि-रोग या प्रदर आदि रोग न हो। स्त्रियाँ इन रोगोंको मामूली समझती हैं, इसलिये लाजके मारे अपने घरवालोंसे भी नहीं कहती। अतः रोग धीरे-धीरे बढ़ते रहते हैं। रोगकी हालतमें ही व्रत-उपवास, अत्यन्त मैथुन और अपने बलसे अधिक मिहनत वगैरः किया करती हैं, जिससे रोग दिन-दूना और रात चौगुना बढ़ता रहता है। जब हर समय पड़े रहनेको दिल चाहता है, काम-धन्धेको तबियत नहीं चाहती, सिरमें चक्कर आते हैं, प्यास बढ़ जाती है, शरीर पीला या सफ़ेद-चिट्टा होने लगता है, तब घरवालोंकी आँखें खुलती हैं। उस समय सवैद्य भी इस दुष्ट रोगको आराम करने में नाकामयाब होते हैं। बहुत क्या-शेषमें मूर्खा अबला इस कठिनसे मिलने-योग्य मनुष्य-देहको त्यागकर, अपने प्यारोंको रोता-विलपता छोड़कर, यमराजके घर चली जाती है। इसलिये, समझदारोंको अव्वल तो इस रोगके होनेके कारणोंसे स्त्रियोंको वाकिफ़ कर देना चाहिये। फिर भी, अगर यह रोग किसीको हो ही जाय, तो फौरनसे भी पहले इसका इलाज करना या करवाना चाहिये । देखिये आयुर्वेदमें लिखा है:-- . .
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