Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. पूज्य गुरुदेव श्री जोरावरमलजीमहाराज की स्मृति में आयोजित CAKE MORE Ans. Fi2533 संयोजक एवं प्रधान सम्पादक- | युवाचार्य श्री मधुकर मुनि प्रज्ञापनासूत्र (मूल-अनुवाद-विवेचन-टिप्पण-परिशिष्ट-युक्त ) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम-ग्रन्थमाला : ग्रन्थाङ्क २० ॐ अर्ह [ परमश्रद्धेय गुरुदेव पूज्य श्री जोरावरमल जी महाराज की पुण्य स्मृति में आयोजित ] श्रीश्यामार्यवाचक- संकलित चतुर्थ उपाङ्ग प्रज्ञापना सूत्र [ द्वितीय खण्ड, पद १०-२२] [ मूलपाठ, हिन्दी अनुवाद, विवेचन, टिप्पणयुक्त ] प्रेरणा उपप्रवर्त्तक शासनसेवी स्व. स्वामी श्री व्रजलालजी महाराज आद्य संयोजक तथा प्रधान सम्पादक स्व. युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' अनुवादक - विवेचक - सम्पादक श्री ज्ञानमुनिजी महाराज [ स्व. जैनधर्मदिवाकर आचार्य श्री आत्मारामजी म. . के सुशिष्य ] प्रकाशक श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान ) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम-ग्रन्थमाला : ग्रन्थाङ्क २० 0 निर्देशन महासती श्री उमराकुँवरजी म० अर्चना' - सम्पादक मण्डल अनुयोगप्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' आचार्य श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री श्री रतनमुनि - सम्प्रेरक मुनि श्री विनयकुमार 'भीम' - संशोधन श्री देवकुमार जैन - तृतीय संस्करण वीरनिर्वाण संवत् २५२८ विक्रम संवत् २०५९ जुलाई, २००२ प्रकाशक श्री आगम प्रकाशन समिति, श्री ब्रज-मधुकर स्मृति भवन पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) ब्यावर - ३०५९०१ फोन : ५००८७ 0 मुद्रक विमलेश जैन, अजन्ता पेपर कन्वर्टर्स, लक्ष्मी चौक, अजमेर-१४२०१२० D लेजर टाईप सैटिंग ट्विंकल कॉमर्शियल हाउस, अशोक भवन, सुन्दर विलास, अजमेर - २००६५० - मूल्य : ११० )रुपये Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवाचार्य श्री मधुकर मुनीजी म.सा. Adaptat ॐ महामंत्र णमो अरिहंताणं, णमो सिध्दाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोएसव्व साहूणं, एसो पंच णमोक्कारो' सव्वपावपणासणो ॥ मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं ॥ Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published on the Holy Remembrance occaasion of Rev. Guru Shri Joravarmalji Maharaj Fourth-Upanga PANNAVANA SUTTAM [Second Part, Pad 10-22] Original Text, Hindi Version, Notes, Annotations etc.] Inspiring Soul Up-pravartaka Shasansevi Rev. (Late) Swami Shri Brijlalji Maharaj 0 Convener & Founder Editor (Late) Yuvacharya Shri Mishrimalji Maharaj 'Madhukar' Translator & Annotator Shri Jain Muni Publishers Shri Agam Prakashan Samiti Beawar (Raj.) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jinagam Granthmala Publication No. 20 O Direction Mahasati Shri Umaravkunwarji 'Archana' Board of Editors Anuyogapravartaka Muni Shri Kanhaiyalalji 'Kamal' Shri Devendra Muni Shastri Shri Ratan Muni O Promotor Munishri Vinayakumar 'Bhima' O Corrections and Supervision Shri Dev Kumar Jain O Third Edition Vir-Nirvana Samvat 2528 Vikram Samvat 2059, July, 2002. O Publishers Shri Agam Prakashan Samiti, Shri Brij-Madhukar Smirti Bhawan Pipaliya Bazar, Beawar (Raj.) [India] Pin-305 901 Phone : 50087 O Printer Vimlesh Jain, Ajanta Paper Converters, Laxmi Chowk, Ajmer - 420120 Laser Type Setting Twinkle Commercial House Ashok Bhawan, Sunder Vilas Ajmer - 8200650 Price : 110/- Rs. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण वर्त्तमान में जिन्होंने अर्द्धमागधी भाषा की अनुपम सेवा की, अर्द्धमागधीव्याकरण और कोश की तथा संस्कृत, गुजराती एवं हिन्दी भाषाओं में अनेक मौलिक ग्रन्थों की रचना कर के जैन साहित्य के भण्डार की श्रीवृद्धि की, जो सरलता और सौम्यभाव के साकार अवतार थे, अपने महान् और विशिष्ट व्यक्तित्व एवं वैदुष्य से जिन्होंने जैन- जैनेतर विद्वानों को प्रभावित किया, उन भारतभूषण शतावधानी स्व. मुनिश्री रत्नचन्द्रजी स्वामी की पुण्य स्मृति में सादर समर्पित (प्रथम संस्करण से ) Page #9 --------------------------------------------------------------------------  Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय अंग-आगमों में व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के समान ही उपांग-आगमों में प्रज्ञापनासूत्र भी विविध-विषयक एवं विशालकाय है । वर्ण्यविषयों की दृष्टि से भी व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के जैसा ही है। संक्षेप में कहा जाये तो इसमें जैन दर्शन के तात्त्विक विवेचन-चिन्तन-मनन को सारगर्भित शब्दों में समाहित कर दिया है। इसलिए जिज्ञासु पाठकों के स्वाध्याय-अध्ययन-अध्यापन के लिए इस महत्वपूर्ण सूत्रग्रन्थ का तृतीय संस्करण प्रकाशित किया जा रहा है। . ग्रन्थ में कुल ३६ अध्ययन हैं। इन सबको एक साथ प्रकाशित किया जाना शक्य नहीं था। अतः प्रथम भाग में १ से ९ अध्याय, द्वितीय भाग में १० से २२ अध्याय और तृतीय भाग में २३ से ३६ अध्याय प्रकाशित किये गये थे। इसी क्रम से तृतीय संस्करण भी प्रकाशित है। यह द्वितीय भाग है। प्रथम भाग प्रकाशित हो गया है और तृतीय भाग प्रकाशित हो रहा है। समिति का उद्देश्य आगम-साहित्य का अधिकाधिक प्रचार-प्रसार एवं पाठक वर्ग को सुगमता से तात्त्विक बोध करने में सहकार देना है। इसीलिये अपने पूर्व प्रकाशित अप्राप्त सूत्र ग्रन्थों के तृतीय संस्करण प्रकाशित कर रही है एवं प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप में इस प्रयास के लिये सहयोग देने वाले सज्जनों का सधन्यवाद आभार मानती है। साथ ही हम यह अपेक्षा करते हैं कि भविष्य में भी इसी प्रकार सहयोग देकर समिति की यशोवृद्धि करेंगे एवं हमें कार्य करने के लिये प्रोत्साहित एवं प्रेरित करते रहेंगे। सरदार मल चौरड़िया ज्ञानचन्द बिनायकिया सागरमल बेताला रतन चंद मोदी कार्यवाहक अध्यक्ष अध्यक्ष मंत्री महामंत्री यवाहक अध्यक्ष श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञापना सूत्र द्वितीय भाग (प्रथम संस्करण) के अर्थ सहायक श्री हुक्मीचन्दजी सा. चोरडिया (प्रथम संस्करण से ) आगम प्रकाशन समिति का एकमात्र उद्देश्य वीतरागवाणी के निर्देशक जैन आगमों को सर्वसाधारण के लिये कम कम मूल्य में पठन-पाठन के लिए सुलभ करना है। अतएव समिति की न कोई प्रादेशिक सीमाएं है और न साम्प्रदायिक। वह सभी अंचलों, प्रान्तों एवं देशों के लिए तथा समस्त गणों, गच्छों एवं सम्प्रदायों के लिए समान है। यही कारण है कि भारत के विभिन्न अंचलों में निवास करने वाले आगमप्रेमी सज्जनों का सहयोग समिति को प्राप्त हो रहा है। तथापि यह उल्लेख करना उचित होगा कि नोखा (चांदावतों) के वृहत् चोरडिया - परिवार का योगदान अतिशय महत्वपूर्ण और सराहनीय है। इस परिवार के विभिन्न सदस्यों ने आगम-प्रकाशन के इस भगीरथअनुष्ठान में जो आर्थिक सहयोग प्रदान किया है, वह असाधारण है। इससे पूर्व अनेक आगमों का प्रकाशन इसी परिवार के श्रीमन्तों की आर्थिक सहायता से हुआ है और प्रस्तुत आगम भी इसी परिवार के प्रतिष्ठित सदस्य एवं श्रीमन्त सेठ हुक्मीचन्दजी चोरड़िया के विशेष अर्थसहयोग से हो रहा है 1 श्री हुक्मीचन्द जी चोरड़िया स्व. सेठ जोरावरमलजी सा. के चार सुपुत्रों में सब से छोटे हैं। आप सन् १९५४ से १९५८ तक अपने बड़े भ्राता श्रीमान् दुलीचन्दजी सा., जिनका परिचय हम औपपातिकसूत्र में दे चुके हैं, के साथ भागीदार के रूप में व्यवसाय करते रहे । तत्पश्चात् आपने स्वतन्त्र रूप से फाइनेन्स का व्यवसाय प्रारम्भ किया, जो आज आपकी सूझबूझ और लगन के कारण पूरी तरह फल-फूल रहा I श्री हुक्मीचन्दजी सा. युवा हैं और युवकोचित उत्साह से सम्पन्न हैं, पर आपके उत्साह का प्रवाह एकमुखी नहीं है । वह जैसे व्यवसायोन्मुख है, उसी प्रकार सेवोन्मुख भी है । अपने व्यवसायकेन्द्र मद्रास में चलने वाली शैक्षणिक, साहित्यिक एवं सामाजिक अनेक संस्थाओं के साथ आप विभिन्न रूप से जुड़े हुये हैं और उनके माध्यम से समाजसेवा का पुनीत दायित्व निभा रहे हैं । निम्नलिखित संस्थाओं आपका सहयोग मिला और मिल रहा है - - (१) जैनभवन (५) जैन सेवासमिति, नोखा (२) मानव- राहतकोष (६) श्वे. स्वा. जैन महिला संघ (३) श्री एस. एस. जैन एज्यूकेशन सोसायटी (७) अहिंसा प्रचार संघ (४) मुनि श्री हजारीमल स्मृति प्रकाशन (८) राजस्थानी यूथ एसोसियेशन आप जैन मेडिकल रिलीफ सोसायटी, श्री गणेशीबाई गर्ल्स हाईस्कूल, श्री देवराज माणकचन्द हॉस्पीटल आदि अनेक संस्थाओं के सदस्य हैं । इनके अतिरिक्त जनहित की प्रशस्त भावना से 'जोरावरमल हुक्मीचन्दजी चोरडिया ट्रस्ट' स्थापित किया है । 'हुक्मीचन्द चोरड़िया रोलिंग ट्राफी' आपके द्वारा प्रदान की जाती है। इस प्रकार आपका जीवन सेवामय है । हम आपके दीर्घ और मंगलमय जीवन की कामना करते है । - मन्त्री Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि-भवन __ (प्रथम-संस्करण से) विश्व के जिन दार्शनिकों-दृष्टाओं/चिन्तकों ने "आत्मसत्ता" पर चिन्तन किया है, या आत्म-साक्षात्कार किया है उन्होंने पर-हितार्थ आत्म-विकास के साधनों तथ पद्धतियों पर भी पर्याप्त चिन्तन-मनन किया है । आत्मा तथा तत्सम्बन्धित उनका चिन्तन-प्रवचन आज आगम/पिटक/वेद/उपनिषद् आदि विभिन्न नामों से विश्रुत है । जैनदर्शन की यह धारणा है कि आत्मा के विकारों-राग-द्वेष आदि को साधना के द्वारा दूर किया जा सकता है, और विकार जब पूर्णतः निरस्त हो जाते हैं तो आत्मा की शक्तियां ज्ञान/सुख/वीर्य आदि सम्पूर्ण रूप में उद्घाटित-उद्भासित हो जाती हैं । शक्तियों का सम्पूर्ण प्रकाश-विकास ही सर्वज्ञता है और सर्वज्ञ/आप्त-पुरुष की वाणी, वचन/कथन/प्ररूपणा- "आगम' के नाम से अभिहित होती है आगम अर्थात् तत्त्वज्ञान, आत्म-ज्ञान तथा आचार-व्यवहार का सम्यक् परिबोध देने वाला शास्त्र/सूत्र/आप्तवचन । सामान्यतः सर्वज्ञ के वचनों/वाणी का संकलन नहीं किया जाता, वह बिखरे सुमनों की तरह होती है, किन्तु विशिष्ट अतिशयसम्पन्न सर्वज्ञ पुरुष, धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं, संघीय जीवन पद्धति में धर्म-साधना को स्थापित करते हैं, वे धर्मप्रवर्तक/अरिहंत या तीर्थकर कहलाते हैं । तीर्थकर देव की जनकल्याणकारिणी वाणी को उन्हीं के अतिशयसम्पन्न विद्वान् शिष्य गणधर संकलित कर "आगम" या शास्त्र का रूप देते हैं अर्थात् जिनवचनरूप सुमनों की मुक्त वृष्टि जब मालारूप में ग्रथित होती है तो वह "आगम" का रूप धारण करती है। वही आगम अर्थात् जिन-प्रवचन आज हम सब के लिए आत्म-विद्या या मोक्ष-विद्या का मूल स्रोत हैं। "आगम" को प्राचीनतम भाषा में "गणिपिटक" कहा जाता था । अरिहंतों के प्रवचनरूप समग्र शास्त्रद्वादशांग में समाहित होते हैं और द्वादगांश/आचारांग-सूत्रकृतांग आदि के अंग-उपांग आदि अनके भेदोपभेद विकसित हुए हैं । इस द्वादगांगी का अध्ययन प्रत्येक मुमुक्षु के लिए आवश्यक और उपादेय माना गया है । द्वादशांगी में भी बारहवाँ अंग विशाल एवं समग्र श्रुतज्ञान का भण्डार माना गया है, उसका अध्ययन बहुत ही विशिष्ट प्रतिभा एवं श्रुतसम्पन्न साधक कर पाते थे । इसलिए सामान्यतः एकादशांग का अध्ययन साधकों के लिए विहित हुआ तथा इसी ओर सबकी गति/मति रही । जब लिखने की परम्परा नहीं थी, लिखने के साधनों का विकास भी अल्पतम था, तब आगमों/शास्त्रों/को स्मृति के आधार पर या गुरु-परम्परा से कंठस्थ करके सुरक्षित रखा जाता था। सम्भवतः इसलिए आगम ज्ञान को श्रुतज्ञान कहा गया और इसीलिए श्रुति/स्मृति जैसे सार्थक शब्दों का व्यवहार किया गया। भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के एक हजार वर्ष बाद तक आगमों का ज्ञान स्मृति/श्रुति परम्परा पर ही आधारित रहा। पश्चात् स्मृतिदौर्बल्य, गुरुपरम्परा का विच्छेद, दुष्काल-प्रभाव आदि अनेक कारणों से धीरे-धीरे आगमज्ञान लुप्त होता चला गया। महासरोवर का जल सूखता-सूखता गोष्पद मात्र रह गया। मुमुक्षु श्रमणों के लिए यह जहाँ चिन्ता का विषय था, वहाँ चिन्तन की तत्परता एवं जागरूकता को चुनौती भी थी। वे तत्पर हुए श्रुतज्ञान-निधि के संरक्षण हेतु । तभी महान् श्रुतपारगामी देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने विद्वान् श्रमणों का एक सम्मेलन बुलाया और स्मृति-दोष से लुप्त होते आगम ज्ञान को सुरक्षित एवं संजोकर रखने का आह्वान किया। सर्व-सम्मति से आगमों को लिपि-बद्ध किया गया। [९] Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवाणी को पुस्तकारूढ करने का यह ऐतिहासिक कार्य वस्तुतः आज की समग्र ज्ञान-पिपासु प्रजा के लिए एक अवर्णनीय उपकार सिद्ध हुआ । संस्कृति, दर्शन, धर्म तथा आत्म-विज्ञान की प्राचीनतम ज्ञानधारा को प्रवहमान रखने का यह उपक्रम वीरनिर्वाण के ९८० या ९९३ वर्ष पश्चात् प्राचीन नगरी वलभी (सौराष्ट्र) में आचार्य श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में सम्पन्न हुआ । वैसे जैन आगमों की यह दूसरी अन्तिम वाचना थी; पर लिपिबद्ध करने का प्रथम प्रयास था । आज प्राप्त जैन सूत्रों का अन्तिम स्वरूप-संस्कार इसी वाचना में सम्पन्न किया गया था। पुस्तकारूढ होने के बाद आगमों का स्वरूप मूल रूप में तो सुरक्षित हो गया, किन्तु काल-दोष, श्रमणसंघों के आन्तरिक मतभेद, स्मृति दुर्बलता, प्रमाद एवं भारतभूमि पर बाहरी आक्रमणों के कारण विपुल ज्ञानभण्डारों का विध्वंस आदि अनेकानेक कारणों से आगम ज्ञान की विपुल सम्पत्ति, अर्थबोध की सम्यक् गुरु-परम्परा धीरे-धीरे क्षीण एवं विलुप्त होने से नहीं रुकी । आगमों के अनेक महत्त्वपूर्ण पद, सन्दर्भ तथा उनके गूढार्थ का ज्ञान, छिन्न-विछिन्न होते चले गए । परिपक्व भाषाज्ञान के अभाव में, जो आगम हाथ से लिखे जाते थे, वे भी शुद्ध पाठ वाले नहीं होते, उनका सम्यक् अर्थ-ज्ञान देने वाले भी विरले ही मिलते । इस प्रकार अनेक कारणों से आगम की पावन धारा संकुचित होती गयी । विक्रमीय सोलहवीं शताब्दी में वीर लोंकाशाह ने इस दिशा में क्रान्तिकारी प्रयत्न किया । आगमों के शुद्ध और यथार्थ अर्थज्ञान को निरूपित करने का एक साहसिक उपक्रम पुनः चालू हुआ । किन्तु कुछ काल बाद उसमें भी व्यवधान उपस्थित हो गये । साम्प्रदायिक-विद्वेष, सैद्धान्तिक विग्रह, तथा लिपिकारों का अत्यल्प ज्ञान आगमों की उपलब्धि तथा उसके सम्यक् अर्थबोध में बहुत बड़ा विघ्न बन गया । आगम-अभ्यासियों को शुद्ध प्रतियां मिलना भी दुर्लभ हो गया । उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में जब आगम-मुद्रण की परम्परा चली तो सुधी पाठकों को कुछ सुविधा प्राप्त हुई । धीरे-धीरे विद्वत्-प्रयासों से आगमों की प्राचीन चूर्णियाँ, नियुक्तियाँ, टीकायें आदि प्रकाश में आईं और उनके आधार पर आगमों का स्पष्ट-सुगम भावबोध सरल भाषा में प्रकाशित हुआ । इससे आगम-स्वाध्यायी तथा ज्ञान-पिपासु जनों को सुविधा हुई । फलतः आगमों के पठन-पाठन की प्रवृत्ति बढ़ी है । मेरा अनुभव है, आज पहले से कहीं अधिक आगम-स्वाध्याय की प्रवृत्ति बढ़ी है, जनता में आगमों के प्रति आकर्षण व रुचि जागृत हो रही है । इस रुचि-जागरण में अनेक विदेशी आगमज्ञ विद्वानों तथा भारतीय जैनेतर विद्वानों की आगम-श्रुत-सेवा का भी प्रभाव व अनुदान है, इसे हम सगौरव स्वीकारते हैं। __ आगम-सम्पादन-प्रकाशन का यह सिलसिला लगभग एक शताब्दी से व्यवस्थित चल रहा है । इस महनीय श्रुत-सेवा में अनेक समर्थ श्रमणों एवं पुरुषार्थी विद्वानों का योगदान रहा है । उनकी सेवायें नींव की ईंट की तरह आज भले ही अदृश्य हों, पर विस्मरणीय तो कदापि नहीं । स्पष्ट व पर्याप्त उल्लेखों के अभाव में हम अधिक विस्तृत रूप में उनका उल्लेख करने में असमर्थ हैं, पर विनीत व कृतज्ञ तो हैं ही । फिर भी स्थानकवासी जैन परम्परा के कुछ विशिष्ट-आगम श्रुत-सेवी मुनिवरों का नामोल्लेख अवश्य करना चाहेंगे । आज से लगभग साठ वर्ष पूर्व पूज्य श्री अमोलकऋषिजी महाराज ने जैन आगमों- ३२ सूत्रों का प्राकृत से खड़ी बोली में अनुवाद किया था । उन्होंने अकेले ही बत्तीस सूत्रों का अनुवाद कार्य सिर्फ ३ वर्ष १५ दिन में पूर्ण [१०] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर अद्भुत कार्य किया । उनकी दृढ लगनशीलता, साहस एवं आगमज्ञान की गम्भीरता उनके कार्य से ही स्वतः परिलक्षित होती है । वे ३२ ही आगम अल्प समय में प्रकाशित भी हो गये । इससे आगमपाठन बहुत सुलभ व व्यापक हो गया और स्थानकवासी-तेरापंथी समाज तो विशेष उपकृत हुआ । गुरुदेव श्री जोरावरमल जी महाराज का संकल्प मैं जब प्रातःस्मरणीय गुरुदेव स्वामीजी श्री जोरावरमलजी म० के सान्निध्य में आगमों का अध्ययनअनुशीलन करता था तब आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित आचार्य अभयदेव व शीलांक की टीकाओं से युक्त कुछ आगम उपलब्ध थे । उन्हीं के आधार पर मैं अध्ययन-वाचन करता था। गुरुदेवश्री ने कई बार अनुभव कियायद्यपि यह संस्करण काफी श्रमसाध्य व उपयोगी हैं, अब तक उपलब्ध संस्करणों में प्रायः शुद्ध भी हैं, फिर भी अनेक स्थल अस्पष्ट हैं, मूलपाठों में व वृत्ति में कहीं-कहीं अशुद्धता व अन्तर भी है। सामान्य जन के लिए दुरूह तो हैं ही। चूंकि गुरुदेव श्री स्वयं आगमों के प्रकाण्ड पण्डित थे, उन्हें आगमों के अनेक गूढार्थ गुरु-गम से प्राप्त थे। उनकी मेधा भी व्युत्पन्न व तर्क-प्रवण थी, अतः वे इस कमी को अनुभव करते थे और चाहते थे कि आगमों का शुद्ध, सर्वोपयोगी ऐसा प्रकाशन हो, जिससे सामान्यज्ञान वाले श्रमण-श्रमणी एवं जिज्ञासुजन लाभ उठा सकें। उनके मन की यह तड़प कई बार व्यक्त होती थी। पर कुछ परिस्थितियों के कारण यह स्वप्र-संकल्प साकार नहीं हो सका, फिर भी मेरे मन में प्रेरणा बनकर अवश्य रह गया। : इसी अन्तराल में आचार्य श्री जवाहरलालजी महाराज, श्रमणसंघ के प्रथम आचार्य जैनधर्म-दिवाकर आचार्य श्री आत्मारामजी म०, विद्वद्रत्न श्री घासीलालजी म० आदि मनीषी मुनिवरों ने आगमों की हिन्दी, संस्कृत, गुजराती आदि में सुन्दर विस्तृत टीकायें लिखकर या अपने तत्त्वावधान में लिखवा कर कमी को पूरा करने का महनीय प्रयत्न किया है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक आम्नाय के विद्वान् श्रमण परमश्रुतसेवी स्व० मुनि श्री पुण्यविजयजी ने आगमसम्पादन की दिशा में बहुत व्यवस्थित व उच्चकोटि का कार्य प्रारम्भ किया था । विद्वानों ने उसे बहुत ही सराहा किन्तु उनके स्वर्गवास के पश्चात् उस में व्यवधान उत्पन्न हो गया । तदपि आगमज्ञ मुनि श्री जम्बूविजयजी आदि के तत्त्वावधान में आमम-सम्पादन का सुन्दर व उच्चकोटि का कार्य आज भी चल रहा है । वर्तमान में तेरापंथी सम्प्रदाय में आचार्य श्री तुलसी एवं युवाचार्य महाप्रज्ञजी के नेतृत्व में आगम-सम्पादन का कार्य चल रहा है और जो आगम प्रकाशित हुए हैं उन्हें देखकर विद्वानों को प्रसन्नता है । यद्यपि उनके पाठनिर्णय में काफी मतभेद की गुंजाइश है, तथापि उनके श्रम का महत्त्व है । मुनि श्री कन्हैयालाल जी म० "कमल" आगमों की वक्तव्यता को अनुयोगों में वर्गीकृत करके प्रकाशित कराने की दिशा में प्रयत्नशील हैं । उनके द्वारा सम्पादित कुछ आगमों में उनकी कार्यशैली की विशदता एवं मौलिकता स्पष्ट होती है । आगम-साहित्य के वयोवृद्ध विद्वान् पं० श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल, विश्रुत मनीषी श्री दलसुखभाई मालवणिया - जैसे चिन्तनशील प्रज्ञापुरुष आगमों के आधुनिक सम्पादन की दिशा में स्वयं भी कार्य कर रहे हैं तथा अनेक विद्वानों [११] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का मार्ग-दर्शन कर रहे हैं । यह प्रसन्नता का विषय है । इस सब कार्य-शैली पर विहंगम अवलोकन करने के पश्चात् मेरे मन में एक संकल्प उठा । आज प्रायः सभी विद्वानों की कार्यशैली काफी भिन्नता लिये हुए है । कहीं आगमों का मूल पाठ मात्र प्रकाशित किया जा रहा है तो कहीं आगमों की विशाल व्याव्यायें की जा रही हैं । एक पाठक के लिये दुर्बोध है तो दूसरी जटिल । सामान्य पाठक को सरलतापूर्वक आगमज्ञान प्राप्त हो सके, एतदर्थ मध्यम-मार्ग का अनुसरण आवश्यक है । आगमों का ऐसा संस्करण होना चाहिये जो सरल हो, सुबोध हो, संक्षिप्त और प्रामाणिक हो । मेरे स्वर्गीय गुरुदेव ऐसा ही चाहते थे । इसी भावना को लक्ष्य में रखकर मैंने ५-६ वर्ष पूर्व इस विषय की चर्चा प्रारम्भ की थी, सुदौर्ध चिन्तन के पश्चात् वि.सं. २०३६ वैशाख शुक्ला दशमी, भगवान् महावीर कैवल्यदिवस पर यह दृढ़ निश्चय घोषित कर दिया और आगमबत्तीसी का सम्पादन-विवेचन कार्य प्रारम्भ भी । इस साहसिक निर्णय में गुरुभ्राता शासनसेवी स्वामी श्री ब्रजलालजी म. की प्रेरणा/प्रोत्साहन तथा मार्गदर्शन मेरा प्रमुख सम्बल बना है । साथ ही अनेक मुनिवरों तथा सद्गृहस्थों का भक्ति-भाव भरा सहयोग प्राप्त हुआ है, जिनका नामोल्लेख किये बिना मन सन्तुष्ट नहीं होगा । आगम अनुयोग शैली के सम्पादक मुनि श्री कन्हैयालालजी म. "कमल", प्रसिद्ध साहित्यकार श्री देवेन्द्रमुनिजी म० शास्त्री, आचार्य आत्मारामजी म० के प्रशिष्य भण्डारी श्री पदमचन्दजी म० एवं प्रवचनभूषण श्री अमरमुनिजी, विद्वद्रत्न श्री ज्ञानमुनिजी म०; स्व० विदुषी महासती श्री उज्ज्वलकुंवरजी म० की सुशिष्याएँ महासती दिव्यप्रभाजी, एम. ए., पी-एच. डी.; महासती मुक्तिप्रभाजी तथा विदुषी महासती श्री उमरावकुंवरजी म० 'अर्चना', विश्रुत विद्वान् श्री दलसुखभाई मालवणिया, सुख्यात विद्वान् पं० श्री शोभाचन्द्र जी भारिल्ल, स्व० पं० श्री हीरालालजी शास्त्री, डा० छगनलालजी शास्त्री एवं श्रीचन्दजी सुराणा 'सरस' आदि मनीषियों का सहयोग आगमसम्पादन के इस दुरूह कार्य को सरल बना सका है । इन सभी के प्रति मन आदर व कृतज्ञ भावना से अभिभूत है । इसी के साथ सेवा-सहयोग की दृष्टि से सेवाभावी शिष्य मुनि विनयकुमार एवं महेन्द्र मुनि का साहचर्य-सहयोग, महासती श्री कानकुंवरजी, महासती श्री झणकारकुंवरजी का सेवाभाव सदा प्रेरणा देता रहा है । इस प्रसंग पर इस कार्य के प्रेरणा-स्रोत स्व० श्रावक चिमनासिंहजी लोढ़ा, स्व० श्री पुखराजजी सिसोदिया का स्मरण भी सहजरूप में हो आता है, जिनके अथक प्रेरणा-प्रयत्नों से आगम समिति अपने कार्य में इतनी शीघ्र सफल हो रही है । चार वर्ष के अल्पकाल में ही पन्द्रह आगम ग्रन्थों का मुद्रण तथा करीब १५-२० आगमों का अनुवाद-सम्पादन हो जाना हमारे सब सहयोगियों की गहरी लगन का द्योतक है। मुझे सुदृढ़ विश्वास है कि परम श्रद्धेय स्वर्गीय स्वामी श्री हजारीमलजी महाराज आदि तपोपूत आत्माओं के शुभाशीर्वाद से तथा हमारे श्रमणसंघ के भाग्यशाली नेता राष्ट्र-संत आचार्य श्री आनन्दऋषिजी म० आदि मुनिजनों के सद्भाव-सहकार के बल पर यह संकल्पित जिनवाणी का सम्पादन-प्रकाशन कार्य शीघ्र ही सम्पन्न होगा । इसी शुभाशा के साथ, -मुनि मिश्रीमल "मधुकर" (युवाचार्य) [१२] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका दसवाँ चरमपद प्राथमिक आठ पृथ्वियों और लोकालोक की चरमाचरमवक्तव्यता परमाणुपुद्गलादि की चरमाचरमादि-वक्तव्यता संस्थान की अपेक्षा से चरमादि की प्ररूपणा गति आदि की अपेक्षा से जीवों की चरमाचरम-वक्तव्यता ग्यारहवाँ भाषापदः प्राथमिक अवधारिणी एवं चतुर्विध भाषा विविध पहलुओं से प्रज्ञापनी भाषा की प्ररूपणा अबोध बालक-बालिका तथा ऊंट आदि की अनुपयुक्त-अपरिपक्व दशा की भाषा एकवचनादि तथा स्त्रीवचनादि से युक्त भाषा की प्रज्ञापनीयता का निर्णय .. विविध दृष्टियों से भाषा का सर्वागीण स्वरूप पर्याप्तिका-अपर्याप्तिका भाषा और इनके भेद-प्रभेदों का निरूपण समस्त जीवों के विषय में भाषक-अभाषक-प्ररूपणा जीव द्वारा ग्रहणयोग्य भाषाद्रव्यों के निःसरण तथा ग्रहण-निःसरण संबंधी प्ररूपणा सोलह वचनों तथा चार भाषाजातों के आराधक-विराधक एवं अल्पबहुत्व की प्ररूपणा १०१ १०३ १०४ १०५ - __ बारहवाँ शरीरपद प्राथमिक पाँच प्रकार के शरीरों का निरूपण चौवीस दण्डकवर्ती जीवों मे शरीरप्ररूपणा पाँचों शरीरों के बद्ध-मुक्त शरीरों का परिमाण नैरयिकों के बद्ध-मुक्त पंच शरीरों की प्ररूपणा भवनवासियों के बद्ध-मुक्त शरीरों का परिमाण एकेन्द्रियों के बद्ध-मुक्त शरीरों की प्ररूपणा द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रियतिर्यचों तक बद्ध-मुक्त शरीरों का परिमाण मनुष्यों के औदारिकादि शरीरों का परिमाण वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों के बद्ध-मुक्त औदारिकादि शरीरों की प्ररूपणा १११ ११४ ११६ ११९ १२२ तेरहवाँ परिणामपद प्राथमिक परिणाम और उसके दो प्रकार १३१ [१३] Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशविध जीवपरिणाम और उसके भेद-प्रभेद नैरयिकों में दशविध परिणामों की प्ररूपणा असुरकुमारादि भवनवासियों की परिणामसंबंधी प्ररूपणा एकेन्द्रिय से तिर्यचपंचेन्द्रिय जीवों तक के परिणाम की प्ररूपणा मनुष्यों की परिणामसम्बन्धी प्ररूपणा वाणव्यन्तर, . ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की परिणामसम्बन्धी प्ररूपणा अजीव परिणाम और उसके भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा चौदहवाँ कषायपद प्राथमिक कषाय और उसके चार प्रकार चौबीस दण्डकों में कषाय की प्ररूपणा कषायों की उत्पत्ति के चार-चार कारण कषायों के भेद-प्रभेद कषायों से अष्ट कर्मप्रकृतियों के चयादि की प्ररूपणा प्रथम उद्देश प्राथमिक प्रथम उद्देशक के चौवीस द्वार इन्द्रियों की संख्या प्रथम संस्थानद्वार पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद द्वितीय-तृतीय बाहल्य-पृथुत्वद्वार अवगाहनादि की दृष्टि से अल्पबहुत्वद्वार चौवीस दंडकों में संस्थानादि छह द्वारों की प्ररूपणा सप्तम अष्टम स्पृष्ट एवं प्रविष्ट द्वार नौवां विषय (परिमाण) द्वार दसवाँ अनगारद्वार ग्यारहवाँ आहारद्वार बारहवें आदर्शद्वार से अठारहवें वसाद्वार तक की प्ररूपणा उन्नीसवाँ - बीसवाँ कम्बलद्वार - स्थूणाद्वार इक्कीस-बाईस - तेईस - चौवीसवाँ - थिग्गल-द्वीपोदधि-लोक- अलोकद्वार द्वितीय उद्देशक के बाहर द्वार प्रथम इन्द्रियोपचयद्वार द्वितीय तृतीय निर्वर्त्तनसमयद्वार चतुर्थ - पंचम - षष्ठ लब्धिद्वार, उपयोगद्वार - उपयोगाद्धाद्वार [ १४ ] १३२ १३६ १३७ १३७ १४० १४१ १४१ १४७ १४८ १४९ १५० १५२ १५३ १५७ १५८ १५९ १६० १६१ १६३ . १६६ १७२ १७४ १७६ १७८ १८२ १८३ १८४ १८८ १८८ १८९ १९० Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ सातवाँ, आठवाँ, नौवाँ, दसवाँ, इन्द्रिय-अवग्रहण-अवाय-ईहा-अवग्रह द्वार ग्यारहवाँ द्रव्येन्द्रियद्वार बारहवाँ भावेन्द्रियद्वार १९७ २२५ सोलहवाँ प्रयोगपद प्राथमिक प्रयोग और उसके प्रकार समुच्चयजीवों और चौवीस दंडकों में प्रयोग की प्ररूपणा समुच्चय जीवों में विभाग से प्रयोगप्ररूपणा नारकों और भवनपतियों की विभाग से प्रयोगप्ररूपणा एकेन्द्रियों, विकलेन्द्रियों और तिर्यच पंचेन्द्रियों की प्रयोगप्ररूपणा मनुष्यों में विभाग से प्रयोगप्ररूपणा गतिप्रपात के भेद-प्रभेद एवं उनके स्वरूप का निरूपण २३० . २३२ २३४ २३६ २३८ २३९ २४१ २५० २६३ २६५ २६६ २७२ २७७ २७९ २८० २८१ सत्तरहवाँ लेश्यापद प्रथम उद्देशक प्राथमिक प्रथम उद्देशक में वर्णित सप्त द्वार नारकों में समाहारदि सात द्वारों की प्ररूपणा असुरकुमारदि में समाहारादि सात द्वारों की प्ररूपणा मनुष्य में समाहारादि सात द्वारों की प्ररूपणा वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिकों की आहारादि-प्ररूपणा सलेश्य चौवीसदंडकवर्ती जीवों की आहारादि सप्तद्वार-प्ररूपणा कष्णादिलेश्याविशिष्ट चौवीसदंडकों में आहारादि सप्तद्वार-प्ररूपणा द्वितीय उद्देशक लेश्या के भेदों का निरूपण चौवीस दण्डकों में लेश्यासम्बंधी प्ररूपणा सलेश्य अलेश्य जीवों का अल्पबहुत्व विविध लेश्याविशिष्ट चौवीस दण्डकवर्ती जीवों का अल्पबहुत्व सलेश्य सामान्य जीवों और चौवीस दण्डकों में ऋद्धिक अल्पबहुत्व तृतीय उद्देशक चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में उत्पाद-उद्वर्तन-प्ररूपणा लेश्यायुक्त दण्डकवर्ती जीवों में उत्पाद-उद्वर्तन-प्ररूपणा कृष्णादि लेश्या वाले नैरयिकों में अवधिज्ञान-दर्शन से जानने-देखने का तारतम्य कृष्णादि लेश्यायुक्त जीवों में ज्ञान की प्ररूपणा [ १५ ] २८६ २८६ २९० २९१ ३०५ ३०९ ३१० ३१७ ३२० Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२३ ३२३ ३२३ ३२७ ३३२ ३३६ ३३७ चतुर्थ उद्देशक चतुर्थ उद्देशक के अधिकारों की गाथा लेश्या के छह प्रकार प्रथम परिणामाधिकार द्वितीय वर्णाधिकार तृतीय रसाधिकार चतुर्थ गन्धाधिकार से नवम गति-अधिकार तक का निरूपण दशम परिणामाधिकार ग्यारहवें प्रदेशाधिकार से चौदहवेंस्थानाधिकार की प्ररूपणा पन्द्रहवाँ अल्पबहुत्वद्वार पंचम लेश्यापद लेश्याओं के छह प्रकार छठा उद्देशक लेश्या के छह प्रकार मनुष्यों में लेश्याओं की प्ररूपणा लेश्या को लेकर गर्भोत्पत्ति संबंधी प्ररूपणा ३३८ ३४० ३४४ ३४८ ३४८ ३५१ अठारहवाँ कायस्थितिपद ३५४ ३५६ ३५६ ३६१ ३६५ ३७३ ३७५ ३७६ प्राथमिक कायस्थितिपद के वाईस द्वार प्रथम-द्वितीय जीवद्वार-गतिद्वार तृतीय-इन्द्रियद्वार चतुर्थ कायद्वार पंचम योगद्वार छठा वेदद्वार सातवाँ कषायद्वार आठवाँ लेश्याद्वार नौवाँ सम्यक्त्वद्वार दसवाँ ज्ञानद्वार ग्यारहवाँ दर्शनद्वार बारहवाँ संयतद्वार तेरहवाँ उपयोगद्वार चौदहवाँ आहारकद्वार पन्द्रहवाँ भाषकद्वार सोलहवाँ परीतद्वार ३८१ ३८४ ३८६ ३९० ३९१ ३९२ ३९३ ३९७ ३९८ [१६] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० ४०१ ४०२ ४०३ ४०४ सत्तरहवाँ पर्याप्तद्वार अठारहवाँ सूक्ष्मद्वार उन्नीसवाँ संज्ञीद्वार बीसवाँ भवसिद्धिद्वार इक्कीसवाँ अस्तिकायद्वार बाईसवाँ चरमद्वार उन्नीसवाँ सम्यक्त्वपद प्राथमिक समुच्चय जीवों के विषय में दृष्टि की प्ररूपणा चौवीस दण्डकवर्ती जीवों और सिद्धों में सम्यक्त्वप्ररूपणा ४०५ ४०६ ४०७ ४०७ बीसवाँ अन्तक्रियापद ४०९ ४१२ ४१३ ४१५ ४१७ ४२० ४२६ प्राथमिक अर्थाधिकार प्रथम-अन्तक्रियाद्वार . द्वितीय-अनन्तरद्वार तृतीय-एकसमयद्वार चतुर्थ उद्वृत्तद्वार असुरकुमारादि की उत्पत्ति की प्ररूपणा पंचम तीर्थकरद्वार छठा चक्रिद्वार सातवाँ ब्लदेवत्वद्वार अष्टम वासुदेवत्वद्वार । नवम माण्डलिकत्वद्वार दशम रत्नद्वार भव्य द्रव्यदेव-उपपात प्रपरूणा असंज्ञि-आयुष्यप्ररूपणा ४३७ ४४१ ४४२ ४४३ ४४३ ४४८ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्यानपद प्राथमिक अर्थाधिकारप्ररूपणा विधि-संस्थान-प्रमाणद्वार औदारिकशरीर में विधिद्वार औदारिकशरीर में संस्थानद्वार औदारिकशरीरों की संस्थानसंबंधी तालिका, [ १७ ] ४५२ ४५२ ४५४ ४६१ ४६६ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औदारिकशरीर में प्रमाणद्वार वैक्रियशरीर में विधिद्वार वैक्रियशरीर में संस्थानद्वार वैक्रियशरीर में प्रमाणद्वार आहारकशरीर-भेद-स्वामी आहारकशरीर में संस्थानद्वार आहारकशरीर में प्रमाणद्वार तैजसशरीर में विधिद्वार तैजसशरीर में संस्थानद्वार तैजसशरीर में प्रमाणद्वार कार्मणशरीर में विविध संस्थान - प्रमाणद्वार पुद्गलचयनद्वार शरीरसंयोगद्वार द्रव्य-प्रदेश - अल्पबहुत्वद्वार शरीरावगाहना-अल्पबहुत्वद्वार बाईसवाँ क्रियापद प्राथमिक क्रिया- भेद-प्रभेदप्ररूपणा जीवों के सक्रियत्व - अक्रियत्व की प्ररूपणा जीवों की प्राणातिपातादिक्रिया तथा विषय की प्ररूपणा क्रियाहेतुक कर्मप्रकृतिबन्ध की प्ररूपणा जीवादि के कर्मबन्ध को लेकर क्रियाप्ररूपणा जीवादि में एकत्व और पृथक्त्व से क्रियाप्ररूपणा चौवीस दण्डकों में क्रियाप्ररूपणा जीवादि में क्रियाओं के सद्भाव की प्ररूपणा जीवादि में आयोजिताक्रिया की प्ररूपणा जीव में क्रियाओं के स्पृष्ट- अस्पृष्ट होने की चर्चा प्रकारान्तर से क्रियाओं के भेद और उनके स्वामित्व की प्ररूपणा चौवीस दण्डकों में क्रियाओं की प्ररूपणा जीवों में क्रियाओं के सद्भाव की प्ररूपणा जीव आदि में पापस्थानों से विरति की प्ररूपणा पापस्थानविरत जीवों के कर्मप्रकृतिबन्ध की प्ररूपणा पापस्थानविरत जीवादि में क्रियाभेद निरूपण आरम्भिकी आदि क्रियाओं का अल्पबहुत्व [१८] ४६८ ४७६ ४८५ ४८९ ४९६ ५०३ ५०४ ५०४ ५०६ ५०७ ५१५ ५१६ ५१८ ५२१ ५२४ ५२६ ५२९ ५३१ ५३२ ५३६ ५३८ ५४० ५४७ ५४७ ५५१ ५५२ ५५३ ५५५ ५५५ ५५९ ५६१ ५६५ ५६८ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिसामजवायग-विरइयं चउत्थं उवंग पण्णवणासुत्तं [बिइयं खंडं] श्रीमत्-शामार्य वाचक-विरचित चतुर्थ उपांग प्रज्ञापनासूत्र [द्वितीय खण्ड] Page #23 --------------------------------------------------------------------------  Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - + दसमं चरिमपयं दसवां चरमपद प्राथमिक यह प्रज्ञापनासूत्र का दसवाँ 'चरमपद' है । जगत में जीव हैं, अजीव हैं एवं अजीवों में भी रत्नप्रभादि पृथ्वियां, देवलोक, लोक, अलोक एवं परमाणु-पुद्गल, स्कन्ध, संस्थान आदि हैं ; इनमें कोई चरम (अन्तिम) होता है, कोई अचरम (मध्य में) होता है। इसलिए किसको एकवचनान्त चरम या अचरम कहना, किसे बहुवचनान्त चरम या अचरम कहना, अथवा किसे चरमान्तप्रदेश या अचरमान्तप्रदेश कहना? यह विचार प्रस्तुत पद में किया गया है। वृत्तिकार ने चरम और अचरम आदि शब्दों का रहस्य खोलकर समझाया है कि ये शब्द सापेक्ष हैं, दूसरे की अपेक्षा रखते हैं। इस दृष्टि से सर्वप्रथम रत्नप्रभादि आठ पृथ्वियों और सौधर्मादि, लोक, अलोक आदि के चरम-अचरम के ६ विकल्प उठाकर चर्चा की गई है। इसके उत्तर में ६ ही विकल्पों का इसलिए निषेध किया गया है, जब रत्नप्रभादि को अखण्ड एक मानकर विचार किया जाये तो उक्त विकल्पों में से एक रूप भी वह नहीं है, किन्तु उसकी विवक्षा असंख्यात प्रदेशावगाढ़रूप हो और उसे अनेक अवयवों में विभक्त माना जाए तो वह नियम से अचरम-अनेकचरमरूप चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश रूप है। इस उत्तर का भी रहस्य वृत्तिकार ने खोला है। इसके पश्चात् चरम आदि पूर्वोक्त ६ पदों के अल्पबहुत्व का विचार किया है। वह भी रत्नप्रभादि आठ पृथ्वियों, लोक-अलोक आदि के चरमादि का द्रव्यार्थिक, प्रदेशार्थिक एवं द्रव्य-प्रदेशार्थिक तीनों नयों से विचारणा की गई है। इसके प्रश्चात् चरम, अचरम और अवक्तव्य इन तीनों पदों के एकवचनान्त, बहुवचनान्त ६ पदों पर से असंयोगी, द्विकसंयोगी, त्रिकसंयोगी २६ भंग (विकल्प) बना कर एक परमाणु पुद्गल, द्विप्रदेशी से अनन्तप्रदेशी तक स्कन्ध आदि की अपेक्षा से गहन चर्चा की गई है कि इन २६ भंगों में से किसमें कितने • . १. (क) पण्णवणासुत्तं १ (मूलपाठ), पृ. १९३ (ख) पण्णवणासुत्तं २ प्रस्तावना, पृ.८४ (ग) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक २२९ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र भंग पाए जाते हैं और क्यों? इसके बाद परिमण्डल आदि ५ संस्थानों, उनके प्रभेदों, उनके प्रदेशों तथा उनकी अवगाहना और उनके चरमादि की चर्चा की गई है। तदनन्तर गति, स्थिति, भव, भाषा, श्वासोच्छ्वास, आहार, वर्ण, भाव गन्ध, रस और स्पर्श इन ११ बातों की अपेक्षा से चौवीस दण्डकों के जीवों के चरम-अचरम आदि का विचार किया गया है। अर्थात्-गति आदि की अपेक्षा से कौन जीव चरम है, अचरम है? इत्यादि विषयों पर गंभीर विचार किया गया है।' १. (क) पण्णवणासुत्तं २ प्रस्तावना, पृ.८२-८४ (ख) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक २२९ से २४६ तक Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमं चरिमपयं दसवां चरमपद आठ पृथ्वियों और लोकालोक की चरमाचरमवक्तव्यता ७७५. कति णं भंते । पुढवीओ पण्णत्ताओ? गोमा ! अट्ठ पुढवीओ पण्णत्ताओ । तं जहा - रयणप्पभा १ सक्करप्पभा २ वालुयप्पभा ३ पंकप्पा ४ धूमप्पा ५ तमप्पभा ६ तमतमप्पभा ७ ईसीपब्भारा ८ । [७७४ प्र.] भगवन्। पृथ्वियां कितनी कही गई हैं ? [ ७७४ उ.] गौतम । आठ पृथ्वियां कही गई हैं, वे इस प्रकार हैं- (१) रत्नप्रभा, (२) शर्कराप्रभा, (३) बालुकाप्रभा, (४) पंकप्रभा, (५) धूमप्रभा, (६) तमःप्रभा, (७) तमस्तमः प्रभा और (८) ईषत्प्राग्भारा । ७७५. इमा णं भंते । रयणप्पभा पुढवी किं चरिमा अचरिमा चरिमाई अचरिमाई चरिमंतप-देसा अचरिमंतपदेसा ? गोयमा । इमा णं रतणप्पभा पुढवी नो चरिमा नो अचरिमा नो चरिमाइं नो अचरिमाइं नो चरिमंतपदेसा नो अचरिमंतपदेसा, णियमा अचरिमं च चरिमाणि य चरिमंतपदेसा च अचरिमंतपएसा य । [७७५ प्र.] भगवत् । क्या यह रत्नप्रभापृथ्वी चरम है, अचरम है, अनेक चरमरूप (बहुवचनान्त चरम) है, अनेक अचरमरूप (बहुवचनान्त अचरम) है, चरमान्त बहुप्रदेशरूप है अथवा अचरमान्त बहुप्रदेशरूप है ? [७७५ उ.] गौतम। यह रत्नप्रभापृथ्वी न तो चरम है, न ही अचरम है, न अनेक चरमरूप और न अनेक अचरमरूप है तथा न चरमान्त अनेकप्रदेशरूप है और न अचरमान्त अनेक प्रदेशरूप है, किन्तु नियमत: (वह एक ही पृथ्वी) अचरम और अनेकचरमरूप है तथा चरमान्त अनेक प्रदेशरूप और अचरमान्त अनेक प्रदेशरूप I ७७६. एवं जाव अहेसत्तमा पुढवी । सोहम्मादी जाव अणुत्तरविमाणा एवं चेव । ईसीपब्भारा वि एवं चेव । लोगे वि एवं चेव । एवं अलोगे वि। [७७६] यों (रत्नप्रभावीपुथ्वी की तरह) यावत् अधः सप्तमी ( तमस्तम: प्रभा) पृथ्वी तक इसी प्रकार Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र प्ररूपणा करनी चाहिए। सौधर्मादि से लेकर यावत् अनुत्तर विमान तक की वक्तव्यता भी इसी प्रकार समझ लेनी चाहिए। ईषत्प्राग्भारापृथ्वी की वक्तव्यता भी इसी तरह (रत्नप्रभापृथ्वी के समान) कह लेनी चाहिए। लोक के विषय में भी ऐसा ही कहना चाहिए और अलोक (अलोकाकाश) के विषय में भी इसी तरह (कहना चाहिए।) विवेचना - आठ पृथ्वियों और लोकालोक की चरमाचरम सम्बन्धी वक्तव्यता - प्रस्तुत तीन सूत्रों में से प्रथम सूत्र में रत्नप्रभादि आठ पृथ्वियों का नामोल्लेख करके द्वितीय सूत्र में रत्नप्रभापृथ्वी के चरमअचरम आदि के सम्बन्ध में प्ररूपणा की गई है तथा तृतीय सूत्र में शेष पृथ्वियों, सौधर्म से अनुत्तर विमान तक के देवलोक एवं लोकालोक के चरम-अचरमादि की वक्तव्यता से सम्बन्धित अतिदेश दिया गया है। चरम, अचरम की शास्त्रीय परिभाषा - वैसे तो चरम का अर्थ अन्तिम है और अचरम का अर्थ हैजो अन्तिम न हो, मध्य में हो। परन्तु यहाँ समग्र लोक के रत्नप्रभादि विविध खण्डों तथा अलोक की अपेक्षा से चरम-अचरम आदि का विचार किया गया है। इसलिए चरमादि यहाँ पारिभाषिक शब्द हैं, इसी दृष्टि से वृत्तिकार ने इनका अर्थ किया है। चरम का अर्थ है-पर्यन्तवर्ती यानी अन्त में स्थित । चरम शब्द यहाँ सापेक्ष है, अर्थात् दूसरे की अपेक्षा रखता है। उससे कोई पहले हो, तभी किसी दूसरे को चरम कहा जा सकता है। जैसेपूर्वशरीरों की अपेक्षा से चरम (अन्तिम) शरीर (पूर्वभवों की अपेक्षा से अन्तिम भव को चरमभव) कहा जाता है। जिससे पहले कुछ न हो, उसे चरम नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार अचरम शब्द का अर्थ है-जो चरमअन्तवर्ती न हो. अर्थात मध्यवर्ती हो। यह पद भी सापेक्ष है, क्योंकि जब कोई अन्त में हो, तभी उसकी अपेक्ष से बीच वाले को अचरम कहा जा सकता है। जिसके आगे-पीछे दूसरा कोई न हो, उसे अचरम यानी मध्यवर्ती (बीच में स्थित) नहीं कहा जा सकता। जैसे चरम शरीर एवं तथाविध अन्य शरीरों की अपेक्षा से मध्यवर्ती शरीर को अचरम शरीर कहा जाता है। जिस प्रकार यहाँ दो प्रश्न एकवचन के आधार पर किये गए हैं, उसी प्रकार दो प्रश्न बहुवचन को लेकर किए गए हैं। 'चरिमाइं अचरिमाइं' दोनों चरम और अचरम के बहुवचनान्त रूप हैं । उनका अर्थ होता है-अनेक चरमरूप और अनेक अचरमरूप। ये चारों प्रश्न तो रत्नप्रभादि पृथ्वियों को तथाविधि एकत्वपरिणाम विशिष्ट एक द्रव्य मान कर किये गये हैं। इसके पश्चात् दो प्रश्न उसके प्रदेशों को लक्ष्य करके किए गए हैं - 'चरिमंतपदेसा, अचरिमंतपदेसा' (चरमान्तप्रदेशा अचरमान्तप्रदेशा) । अर्थ होता हैचरमरूप अन्तप्रदेशों वाली और अचरमरूप अन्तप्रदेशों वाली। इसका अर्थ हुआ क्या रत्नाप्रभा पृथ्वी चरमान्त बहुप्रदेशरूप है, अथवा अचरमान्त बहुप्रदेशरूप है? इसका स्पष्ट अर्थ हुआ-क्या अन्त के प्रदेश रत्नप्रभापृथ्वी हैं, अथवा मध्य के प्रदेश रत्नप्रभापृथ्वी हैं ? पूर्ववत् चरमान्त और अचरमान्त ये दोनों शब्द सापेक्ष हैं। न ही अकेले कोई प्रदेश चरमान्त हो सकते हैं, और न ही अचरमान्त।' पूर्वोक्त छह प्रश्नों का उत्तर-गौतम स्वामी के पूर्वोक्त प्रश्नों का उत्तर भगवान् पहले निषेधात्मकरूप से १. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक २२९ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ चरमपद] [७ देते हैं-यह रत्नप्रभापृथ्वी चरम नहीं है, क्योंकि वह तो द्रव्य की अपेक्षा एक और अखण्डरूप है। उसे चरम नहीं कहा जा सकता (चरमत्व तो सापेक्ष है, रत्नप्रभापृथ्वी से पहले कोई हो तो उसकी अपेक्षा से उसे चरम कहा जाए। मगर ऐसा कोई दूसरा नहीं, क्योंकि रत्नप्रभापृथ्वी तो एक अखण्ड और निरपेक्ष है, जिसके विषय में तुमने (गौतमस्वामी ने) प्रश्न किया है। इसी प्रकार पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार रत्नप्रभापृथ्वी अचरम भी नहीं कही जा सकती, क्योंकि अचरमत्व अर्थात् मध्यवर्तित्व भी किसी दूसरे की अपेक्षा रखता है, इसलिए सापेक्ष है। यहाँ कोई दूसरा ऐसा है नहीं, जिसकी अपेक्षा से रत्नप्रभापृथ्वी को अचरम कहा जाए। इसके पश्चात् किये हुए बहुवचनात्मक प्रश्नों का भी भगवान् निषेधरूप में उत्तर देते हैं।- रत्नप्रभापृथ्वी न अनेक चरम है और न ही अनेक अचरमरूप है। क्योंकि पूर्वकथनानुसार जब रत्नप्रभापृथ्वी एकत्वविशिष्ट चरम और अचरम नहीं है तो बहुत्वविशिष्ट चरम-अचरम भी कैसे हो सकती है? अर्थात् रत्नप्रभापृथ्वी न तो बहुत चरम द्रव्यरूप है और न ही बहुत अचरमद्रव्यरूप है। __इसी प्रकार रत्नप्रभापृथ्वी को न तो चरमान्तप्रदेशों के रूप के कह सकते हैं और न ही अचरमान्तप्रदेशों के रूप में कह सकते हैं। क्योंकि जब रत्नप्रभापृथ्वी में चरमत्व और अचरमत्व संभव ही नहीं है, तब उसे चरमप्रदेश या अचरमप्रदेश भी नहीं कहा जा सकता। प्रश्न होता है कि रत्नप्रभापृथ्वी चरम, अचरम आदि पूर्वोक्त छह विकल्पों वाली नहीं है तो क्या है ? उसे किस रूप में कहना और समझना चाहिए ? भगवान् ने इसके उत्तर में कहा – रत्नप्रभापृथ्वी अचरम और अनेक चरमरूप (चरमाणि) है तथा चरमान्तप्रदेश और अचरमान्त प्रदेशरूप है। इसका आशय यह है कि ज एक और अखण्डरूप में विवक्षित रत्नप्रभापृथ्वी के विषय में प्रश्न किया जाए तो वह पूर्वोक्त छह भंगो में से किसी भी भंग में नहीं आ सकती, किन्तु जब रत्नप्रभापृथ्वी को असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ और अनेक अवयवों में विभक्त मानकर प्रश्र किया जाए तो उसे अचरम और अनेक चरमरुप (चरमाणि) कहा जा सकता है। क्योंकि रत्नप्रभापृथ्वी इसी प्रकार के आकार में स्थित है। ऐसी स्थिति में इसके प्रान्तभागों में विद्यमान प्रत्येक खण्ड तथाविध-विशिष्ट । एकत्वपरिणाम परिणत हैं, उन खण्डों को अनेक चरम रूप (चरमाणि) कहा जा सकता है और जो उन प्रान्तभागों के मध्य मे बड़ा खण्ड है, उसे तथाविधएकत्वपरिणाम होने से एक मान लिया जाए तो वह अचरम है। इस प्रकार रत्नप्रभापृथ्वी प्रान्तवर्ती अनेक खण्डों और मध्यवर्ती एक महाखण्ड का सम्मिलित समुदायरूप है, ऐसा न मानने पर रत्नप्रभापृथ्वी के अभाव का प्रसंग आ जाएगा। इस प्रकार एक ही पृथ्वी को अवयव-अवयवीरूप में मान लेने पर जैसे उसे अचरम-अनेक चरम रूप (चरमाणि) अर्थात्-अखण्ड और एक निर्वचनविषय कहा जा सकता है, उसी प्रकार प्रदेशों की विवक्षा करने पर उसे 'चरमान्त अनेकप्रदेशरूपा' तथा 'अचरमान्त अनेकप्रदेशरूपा' भी कहा जा सकता है, क्योंकि इसके बाह्यखण्डों में रहे हुए प्रदेश चरमान्तप्रदेश कहलाते हैं और मध्यवर्ती एक महाखण्ड में रहे हुए प्रदेश १. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक २२९ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ ] अचरमान्तप्रदेश कहलाते हैं। इस प्रकार मुख्यता एकान्तदुर्नय का निराकरण करने वाले भगवान् के उत्तर से रत्नप्रभा आदि वस्तुएँ अवयव - अवयवीरूप हैं, अवयव और अवयवी में कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद है, यह अनेकान्त सिद्धान्त सूचित हो गया। इस प्रकार जैसे रत्नप्रभापृथ्वी के विषय में प्रश्न और निर्वचन का ( युक्तिपूर्वक विश्लेषण) करके प्ररूपणा की गई, वैसी ही प्ररूपणा शर्कराप्रभापृथ्वी से लेकर तमस्तम: पृथ्वी तक तथा सौधर्म से लेकर अनुत्तर विमान तक एवं ईषत्प्राग्भारापृथ्वी और लोक के विषय भी प्रश्न एवं उत्तर का युक्तिपूर्वक विश्लेषण करके करनी चाहिए। अलोक के विषय में भी इसी प्रकार प्रश्नोत्तररूप सूत्र बनाकर प्ररूपणा करनी चाहिए। अलोक के लिए लोक के निष्कुटों में प्रविष्ट जो खण्ड हैं, वे चरम हैं, शेष सब अचरम हैं तथा चरमखण्डगत प्रदेश चरमान्तप्रदेश हैं एवं अचरमखण्डगत प्रदेश अचरमान्तप्रदेश हैं । [ प्रज्ञापनासूत्र चरमाचरमादि पदों का अल्पबहुत्व ७७७. इमीसे णं भंते । रयणप्पभाए पुढवीए अचरिमस्स य चरिमाण य चरिमंतपसाण य अचरिमंतपसाण य दव्वट्ठाए पएसट्टयाए दव्वट्ठपएसट्टयाए कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा। सव्वत्थोवे इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए दव्वट्टयाए- एगे अचरिमे, चरिमाइं असंखेज्जगुणाई, अचरिमं च चरिमाणि य दो वि विसेसाहियाई । पदेसट्टयाए - सव्वत्थोवा इमीसे रयणप्पा पुढवीए चरिमंतपदेसा, अचरिमंतपएसा असंखेज्जगुणा, चरिमंतपएसा य अचरिमंतपएसा य दो वि विसेसाहिया। दव्वट्ठपदेसट्टयाए - सव्वत्थोवा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए दव्वट्टयाए एगे अचरिमे, चरिमाइं असंखेज्जगुणाई, अचरिमं च चरिमाणि य दो वि विसेसाहियाई, परसट्टयाए चरिमंतपसा असंखेज्जगुणा, अचरिमंतपएसा असंखेज्जगुणा, चरिमंतपएसा य अचरिमंतपएसा य दो विविसेसाहिया । [७७७ प्र.] भगवन्। इस रत्नप्रभापृथ्वी के अचरम और बहुवचनान्त चरम, चरमान्तप्रदेशों तथा अचरमान्तप्रदेशों में द्रव्यों की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से और द्रव्य-प्रदेश (दोनों) की अपेक्षा से कौन, किससे अल्प हैं, बहुत हैं, तुल्य हैं अथवा विशेषाधिक हैं ? [ ७७७ उ.] गौतम । द्रव्य की अपेक्षा से इस रत्नप्रभापृथ्वी का एक अचरम सबसे कम है। उसकी अपेक्षा १. २. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक २२९ प्रज्ञापना. मलय वृत्ति, पत्रांक २२९ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ चरमपद] [९ (बहुवचनान्त) चरम (चरमाणि) असंख्यातगुणे हैं । अचरम और (बहुवचनान्त) चरम, ये दोनों विशेषाधिक हैं। प्रदेशों की अपेक्षा से इस रत्नप्रभापृथ्वी के चरमान्तप्रदेश, सबसे कम हैं। (उनकी अपेक्षा) अचरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणे हैं। चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश, ये दोनों विशेषाधिक हैं । द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से सबसे कम इस रत्नप्रभापृथ्वी का एक अचरम है। (उसकी अपेक्षा) असंख्यातगुणे (बहुवचनान्त) चरम हैं। अचरम और (बहुवचनान्त) चरम, ये दोनों ही विशेषाधिक हैं। (उनसे) प्रदेशापेक्षया चरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) असंख्यातगुणे अचरमान्तप्रदेश हैं । चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश, ये दोनों विशेषाधिक हैं। ७७८. एवं जाव अहेसत्तमा। सोहम्मस्स । जाव लोगस्स य एवं चेव। [७७८] इसी प्रकार (शर्कराप्रभापृथ्वी से लेकर) नीचे की सातवीं (तमस्तमः) पृथ्वी तक तथा सौधर्म से लेकर लोक (अच्युत, नौ ग्रैवेयक, पंच अनुत्तर विमान, ईषत्प्राग्भारापृथ्वी एवं लोक) तक पूर्वोक्त प्रकार से अचरम, (बहुवचनान्त) चरमों, चरमान्तप्रदेशों तथा अचरमान्तप्रदेशों के अल्पबहुत्व की प्ररुपणा करनी चाहिए। ७७९. अलोगस्स णं भंते ! अचरिमस्स य चरिमाण य चरिमंतपएसाण य अचरिमंतपएसाण य दव्वट्ठयाए पदेसट्ठयाए दव्वट्ठपदेसट्टयाए कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? ____गोयमा ! सव्वत्थोवे अलोगस्स दव्वट्ठयाए-एगे अचरिमे, चरिमाइं असंखेजगुणाई, अचरिमंच चरिमाणि य दो वि विसेसाहियाइं पदेसट्टयाए-सव्वत्थोवा अलोगस्स चरिमंतपदेसा, अचरिमंतपदेसा अणंतगुणा, चरिमंतपदेसा य अचरिमंतपदेसा य दो वि विसेसाहिया।दव्वट्ठयाए-सव्वत्थोवे अलोगस्स दव्वट्ठयाए एगे अचरिमे, चरिमाइं असंखेजगुणाई, अचरिमं च चरिमाणि य दो वि विसेसाहियाई, चरिमंतपदेसा असंखेजगुणा अणंतगुणा, चरिमंतपएसा य अचरिमंतपएसा य दो वि विसेसाहिया। [७७९ प्र.] भगवन् ! अलोक के अचरम, चरमों, चरमान्तप्रदेशों और अचरमान्तप्रदेशों में से द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से एवं द्रव्य-प्रदेशों की अपेक्षा से कौन किनसे अल्प हैं, बहुत हैं, तुल्य हैं, अथवा विशेषाधिक हैं? - [७७९ उ.] गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से-सबसे कम अलोक का एक अचरम है। (उसकी अपेक्षा) असंख्यातगुणे (बहुवचनान्त) चरम हैं । अचरम और (बहुवचनान्त) चरम, ये दोनों विशेषाधिक हैं। प्रदेशों की अपेक्षा से-सबसे कम अलोक के चरमान्तप्रदेश हैं, (उनसे) अनन्तगुणे अचरमान्त प्रदेश हैं । चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश, ये दोनों विशेषाधिक हैं। द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से-सबसे कम अलोक का एक अचरम है। (उससे) बहुवचनान्त चरम असंख्यातगुणे हैं। अचरम और (बहुवचनान्त) चरम, ये दोनों विशेषाधिक हैं। (उनसे) चरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणे हैं, (उनसे भी) अनन्तगुणे अचरमान्तप्रदेश हैं। चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश, ये दोनों विशेषाधिक हैं। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र ७८०. लोगालोगस्स णं भंते । अचरिमस्स य चरिमाण य चरिमंतपएसाण य अचरिमंतपएसाण यदव्वट्टयाए पदेसट्टयाए दव्वपएसट्टयाए कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? १० ] गोयमा ! सव्वत्थोवे लोगालोगस्स दव्वट्टयाए- एगमेगे अचरिमे, लोगस्स चरिमाइं असंखेज्जगुणाई, अलोगस्स चरिमाइं विसेसाधियाइं, लोगस्स य अलोगस्स य अचरिमं च चरिमाणि य दो वि विसेसाधियाइं । पदेसट्टयाए- सव्वत्थोवा लोगस्स चरिमंतपदेसा, अलोगस्स चरिमंतपदेसा विसेसाहिया, लोगस्स अचरिमंतपदेसा असंखेज्जगुणा, अलोगस्स अचरिमंतपदेसा अनंतगुणा, लोगस्स य अलोगस्स य चरिमंतपदेस य अचरिमंतपदेसा य दो वि विसेसाहिया । दव्वट्ठपदेसट्टयाए- सव्वत्थोवे लोगालोगस्स च चरिमंतपदेसा य अचरिमंतपदेसा य दो वि विसेसाहिया । दव्वट्ठपदेसट्टयाए- सव्वत्थोवे लोगालोगस्स दव्वट्टयाए एगमेगे अचरिमे, लोगस्स चरिमाइं असंखेज्जगुणाई, अलोगस्स चरिमाइं विसेसाहियाई लोगस्स य अलोगस्स य अचरिमं च चरिमाणि य दो वि विसेसाहियाई, लोगस्स चरिमंतपएसा असंखेज्जगुणा, अलोगस्स चरिमंतपएसा विसेसाहिया, लोगस्स अचरिमंतपएसा असंखेज्जगुणा, अलोगस्स अचरिमंतपएसा अणंतगुणा, लोगस्स य अलोगस्य य चरिमंतपएसा य अचरिमंतपएसा य दो वि विसेसाहिया, सव्वदव्वा विसेसाहिया, सव्वपएसा अनंतगुणा, सव्वपज्जवा अनंतगुणा । [७८० प्र.] भगवन् ! लोकालोक के अचरम, (बहुवचनान्त) चरमों, चरमान्तप्रदेशों और अचरमान्तप्रदेशों में द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से, द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से कौन, किनसे अल्प हैं, बहुत हैं, तुल्य हैं, अथवा विशेषाधिक हैं? [ ७८० उ. ] गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से सबसे कम लोकालोक का एक-एक अचरम है । (उसकी अपेक्षा) लोक के (बहुवाचनान्त) चरम असंख्यातगुणे हैं, अलोक के (बहुवचनान्त) चरम विशेषाधिक हैं, लोक और अलोक का अचरम और ( बहुवचनान्त) चरम, ये दोनों विशेषाधिक हैं। प्रदेशों की अपेक्षा सेसबसे थोड़े लोक के चरमान्तप्रदेश हैं, अलोक के चरमान्तप्रदेश विशेषाधिक हैं, (उनसे) लोक के अचरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणे हैं, उनसे) अलोक के अचरमान्तप्रदेश अनन्तगुणे हैं। लोक और अलोक के चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश, ये दोनों विशेषाधिक हैं। द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से सबसे कम लोक- अलोक का एकएक अचरम है, (उसकी अपेक्षा) लोक के (बहुवचनान्त) चरम असंख्यातगुणे हैं, ( उनसे) अलोक के (बहुवचनान्त) चरम विशेषाधिक हैं। लोक और अलोक का अचरम और (बहुवचनान्त) चरम, ये दोनों विशेषाधिक हैं । (उनसे) लोक के चरमान्तप्रदेश (उनसे) असंख्यातगुणे हैं, उनसे) अलोक के चरमान्तप्रदेश विशेषाधिक हैं, (उनसे) लोक के अचरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणे हैं, उनसे अलोक के चरमान्तप्रदेश अनन्तगुणे है, लोक और अलोक के चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश, ये दोनों विशेषाधिक हैं। उनकी लोक और अलोक के चरम और अचरम प्रदेशों की अपेक्षा सब द्रव्य (मिलकर) विशेषाधिक हैं। (उनकी अपेक्षा) सर्व प्रदेश अनन्तगुणे हैं (और उनकी अपेक्षा भी) सर्व पर्याय अनन्तगुणे हैं। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ चरमपद] [११ - विवेचन- चरमाचरमादि पदों का अल्पबहुत्व - प्रस्तुत चार सूत्रों (सू.७७७ से ७८० तक) में रत्नप्रभादि आठ पृथ्वियों के, सौधर्म के, सोधर्म से अनुत्तर विमान तक के देवलोकों के, लोक अलोक एवं लोकालोक के चरम, अचरम आदि चार भेदों के अल्पबहुत्व का द्रव्य, प्रदेशों तत्था द्रव्यप्रदेश की अपेक्षा अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। रत्नप्रभा से लोक तक के अल्पबहुत्व की मीमांसा - द्रव्य की अपेक्षा से रत्नप्रभापृथ्वी का एक अचरम सबसे कम है, क्योंकि तथाविध एकस्कन्धरुप (एकत्व) परिणाम-परिणत होने के कारण अचरमखण्ड एक है, अतएव वह सबसे अल्प है। उसकी अपेक्षा (अनेक) चरमखण्ड (चरमाणि) असंख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि वे असंख्यात हैं। अब यह प्रश्न उठा कि अचरम और अनेक चरम, ये दोनों मिलकर क्या चरमों के बराबर है या विशेषाधिक? शास्त्रकार इसका समाधान देते हैं कि अचरम और अनेक चरम ये दोनों विशेषाधिक हैं। इसका तात्पर्य यह है कि एक अचरम द्रव्य को चरम द्रव्यों में सम्मिलित कर दिया जाए तो चरमों की संख्या एक अधिक हो जाती है, इस कारण इनका समुदाय विशेषाधिक होता है। प्रदेशों की दृष्टि से चिन्तन किया जाए तो चरमान्तप्रदेश सबसे कम हैं, क्योंकि चरमखण्ड मध्यम (अचरम) खण्डों की अपेक्षा अतिसूक्ष्म होते हैं । यद्यपि चरमखण्ड असंख्यातगुणे हैं, तथापि उनके प्रदेश मध्य (अचरम) खण्ड के प्रदेशों की अपेक्षा सबसे थोड़े हैं। उनकी अपेक्षा अचरमान्तप्रदेश असंख्यतगुणे होते हैं। एक अचरमखण्ड चरमखण्डों के समुदाय की अपेक्षा क्षेत्र से असंख्यातगुणा होता है। चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश दोनों मिलकर अचरमान्तप्रदेशों से विशेषाधिक होते हैं। इसका कारण यह कि चरमान्तप्रदेश अचरमान्तप्रदेशों की अपेक्षा असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं। ऐसी स्थिति में अचरमान्तप्रदेशों में चरमान्तप्रदेश सम्मिलित कर देने पर भी वे अचरमान्तप्रदेश से विशेषाधिक ही होते हैं। द्रव्य और प्रदेश दोनों की दृष्टि से विचार किया जाय तो पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार रत्नप्रभापृथ्वी का अचरम एक होने से वह सबसे थोड़ा है। उसकी अपेक्षा बहुवचनान्त चरम (अनेक चरम) असंख्यातगुणे अधिक हैं। उनकी अपेक्षा अचरम और अनेक चरम दोनों विशेषाधिक हैं और उनकी अपेक्षा भी चरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि यद्यपि अचरमखण्ड असंख्यातप्रदेशों से अवगाढ़ होता है, तथापि द्रव्य की अपेक्षा से वह एक है, जबकि चरमखण्डों में प्रत्येक (खण्ड) असंख्यातप्रदेशी होता है, अत: चरम और अचरम द्रव्य के समुदाय की अपेक्षा चरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणे हैं। उनकी अपेक्षा भी अचरमान्तप्रदेश (पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार) असंख्यातगुणे हैं। उनमें भी चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश, दोनों मिलकर (पूर्ववत्) विशेषाधिक होते हैं। रत्नप्रभापृथ्वी के चरमाचरमादि के अल्पबहुत्व की प्ररुपणा की तरह ही शर्कराप्रभा से लेकर लोक तक के चरमाचरमादि का अल्पबहुत्व समझना चाहिए।' १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २३१ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] [प्रज्ञापनासूत्र अलोक के चरम-अचरमादिका अल्पबहुत्व - द्रव्य की अ. क्षा से-सबसे कम अलोक का अचरम है, इसकी अपेक्षा चरमखण्ड असंख्यातगुणे हैं, अचरम और चरम खप्ट दोनों मिलकर विशेषाधिक हैं। प्रदेशों की दृष्टि से सबसे कम अलोक के चरमान्तप्रदेश हैं, क्योंकि निष्कुट प्रदेशों में ही उनका सद्भाव होता है। इन चरमान्तप्रदेशों, की अपेक्षा अचरमान्तप्रदेश अनन्तगुणे हैं, क्योंकि अलोक अनन्त है। चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश दोनों मिलकर विशेषाधिक हैं, क्योंकि चरमान्तप्रदेश अचरमान्तप्रदेशों के अनन्तवें भागमात्र होते हैं। उन्हें अचरमान्तप्रदेशों में सम्मिलित कर देने पर भी वे सब मिलकर अचरमान्तप्रदेशों से विशेषाधिक ही होते हैं। द्रव्य और प्रदेश दोनों की दृष्टि से सबसे कम अलोक का एक अचरम है। उसकी अपेक्षा चरमखण्ड असंख्यातगुणे हैं। अचरम और चरम खण्ड दोनों मिलकर विशेषाधिक हैं, उनकी अपेक्षा चरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणे हैं और उनसे भी अचरमान्तप्रदेश अनन्तगुणे हैं। चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश दोनों मिलकर विशेषाधिक हैं। लोकालोक के चरमाचरमादि का अल्पबहुत्व - द्रव्य की अपेक्षा-सबसे कम लोक और अलोक का एक-एक अचरम अचरमखण्ड है, कयोंकि वह एक ही है। उसकी अपेक्षा लोक के चरमखण्ड संख्यातगुणे हैं। उससे अलोक के चरमखण्ड विशेषाधिक हैं। उनसे लोक का और अलोक का अचरमखण्ड एवं (बहुत) चरमखण्ड मिलकर विशेषाधिक हैं। प्रदेशों की अपेक्षा-सबसे कम लोक के चरमान्तप्रदेश हैं, उनसे अलोक के चरमान्त प्रदेश विशेषाधिक हैं। उनसे लोक के अचरमान्त प्रदेश असंख्यातगुणे हैं। उनसे अलोक के अचरमान्त प्रदेश अनन्तगुणित हैं। उनसे लोक के और अलोक के चरमान्त प्रदेश और अचरमान्त प्रदेश दोनों मिलकर विशेषाधिक हैं। द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ की अपेक्षा-सबसे कम लोक और अलोक का द्रव्यापेक्षया एक-एक अचरमखंड है। उससे लोक के चरमखंड असंख्यातगुणित हैं। उनसे अलोक के त्तरमखंड विशेषाधिक हैं। उनसे लोक और अलोक के अचरमखंड और अचरमखंड दोनों मिलकर विशेषाधिक हैं, इत्यादि। वास्तव में लोक के चरमखंड असंख्यात हैं, फिर भी पृथ्वी की स्थापना इस प्रकार की होने से वे आठ माने जाते हैं । वे इस प्रकार हैं - एक-एक चारों दिशाओं में और एक-एक चारों विदिशाओं में अलोक के चरमखंड अलोक की स्थापना की परिकल्पना के आधार पर बारह माने जाते हैं । यह बारह संख्या आठ से न तो दुगुनी है, और न ही तिगुनी है अत: यह विशेषाधिक ही कही जा सकती है। अलोक के चरमखंडों की अपेक्षा लोक का और अलोक का अचरम और उनके चरमखंड, दोनों मिलकर विशेषाधिक होते हैं, क्योंकि पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार लोक के चरमखण्ड आठ हैं और अचरमखण्ड एक ही है, दोनों मिलकर नौ होते हैं। इसी प्रकार अलोक के भी चरम और अचरमखण्ड मिल कर १३ हैं। इन दोनों को मिला दिया जाए तो बाईस होते हैं। यह बाईस की संख्या बारह से दुगुनी, तिगुनी आदि नहीं है, अतः विशेषाधिक ही है। प्रदेशों की दृष्टि से - सबसे कम लोक के चरमान्तप्रदेश हैं, क्योंकि उसमें आठ ही प्रदेश हैं। उनकी १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २३२ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ चरमपद] [१३ अपेक्षा अलोक के चरमान्तप्रदेश विशेषाधिक हैं। उनसे लोक के अचरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि अचरम क्षेत्र बहुत अधिक है, इस कारण उसके प्रदेश भी बहुत अधिक हैं। उनकी अपेक्षा अलोक के अचरमान्तप्रदेश अनन्तगुणे हैं, क्योंकि वह क्षेत्र अनन्तगुणा है। उनकी अपेक्षा भी लोक और अलोक के चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश दोनों विशेषाधिक हैं क्योंकि अलोक के अचरमान्तप्रदेशों में लोक के चरमान्तप्रदेशों को, अचरमान्तप्रदेशों को तथा अलोक के चरमान्तप्रदेशों को मिला देने पर भी वे सब असंख्यात ही होते हैं और असंख्यात, अनन्त राशि की अपेक्षा कम ही है, अतएव उन्हें उनमें सम्मिलित कर देने पर भी वे अलोक के अचरमान्तप्रदेशों से विशेषाधिक ही होते हैं। द्रव्य और प्रदेशों की दृष्टि से अल्पबहुत्व का पूर्वोक्त युक्ति से स्वयं विचार कर लेना चाहिए। लोक के चरमखण्डों की अपेक्षा से अलोक के चरमखण्ड विशेषाधिक हैं और उनकी अपेक्षा लोक और अलोक का अचरम और उनके चरमखण्ड दोनों मिलकर विशेषाधिक हैं । इसका कारण पूर्ववत् है। उनकी अपेक्षा लोक के चरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणे हैं, उनसे अलोक के चरमान्तप्रदेश विशेषाधिक हैं। उनकी अपेक्षा लोक के अचरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणे हैं। उनकी अपेक्षा अलोक के अचरमान्तप्रदेश अनन्तगुणे हैं । युक्ति पूर्ववत् है। उनकी अपेक्षा लोक और अलोक के चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश दोनों मिलकर विशेषाधिक हैं। लोक अलोक के चरम और अचरमप्रदेशों की अपेक्षा सब द्रव्य मिलकर विशेषाधिक है, क्योंकि अनन्तानन्तसंख्यक जीवों, परमाणु आदि, तथा अनन्त परमाण्वात्मक स्कन्ध पर्यन्त सब पृथक् पृथक् भी (प्रत्येक) अनन्त-अनन्त हैं और वे सभी द्रव्य हैं । समस्त द्रव्यों को अपेक्षा सब प्रदेश अनन्तगुणे हैं और सब प्रदेशों की अपेक्षा सर्व पर्याय अनन्तगुणे हैं,क्योंकि प्रदेश के स्वपरपर्याय अनन्त हैं। यह सब स्पष्ट है। परमाणुपुद्गलादि की चरमाचरमादि वक्तव्यता ७८१. परमाणुपोग्गले णं भंते ! किं चरिमे १ अचरिमे २ अवत्तव्वए ३? चरिमाइं ४ अचरिमाइं ५ अवत्तव्वयाई ६? उदाहु चरिमे य अचरिमे य ७ उदाहु चरिमे य अचरिमाइं च ८ उदाहु चरिमाइंच अचरिमे य ९ उदाहु चरिमाइं च अचरिमाइं च १०? पढमा चउभंगी। उदाहु चरिमे च अवत्तव्वए य ११ उदाहु चरिमे य अवत्तव्वयाइं च १२ उदाहु चरिमाइं च अवत्तव्वए य १३ उदाहु चरिमाइं च अवत्तव्वयाइं च १.४? बीया चउभंगी। उदाहु अचरिमे य अवत्तव्वए य १५ उदाहु अचरिमे य अवत्तव्वयाइं च १६ उदाहु अचरिमाइंच अवत्तव्वए य १७ उदाहु अचरिमाइं च अवत्तव्वयाइं च १८? तइया चउभंगी। उदाहु चरिमे य अचरिमे य अवत्तव्वए य १९ उदाहु चरिमे य अचरिमे य अवत्तव्वयाइं च २० उदाहु चरिमे य अचरिमाइं च अवत्तव्वए य २१ उदाहु चरिमे य अचरिमाइं च अवत्तव्वयाइं च २२ १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २३२ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] [ प्रज्ञापनासूत्र उदाहु चरिमाइं च अचरिमे य अवत्तव्वए य २३ उदाहु चरिमाइं च अचरिमे य अवत्तव्वयाइं च २४ उदाहु चरिमाइं च अचरिमाइं च अवत्तव्वए य २५ उदाहु चरिमाइं च अचरिमाइं च अवत्तव्वयाई च २६ ? एवं एंते छव्वीसं भंगा। गोयमा ! परमाणुपोग्गले नो चरिमे १ नो अचरिमे २ नियमा अवत्तव्व ३, सेसा भंगा पडिसेहेयव्वा । [७८१ प्र.] भगवन् परमाणुपुद्गल क्या १. चरम है ?, २. अचरम है ?, ३. अवक्तव्य है ?, ४. अथवा (बहुवचनान्त) अनेक चरमरूप है ?, ५. अनेक अचरमरूप है ?, ६. बहुत अवक्तव्यरूप है ? अथवा ७. चरम और अचरम है ?, ८. या एक चरम और अनेक अचरमरूप है ? यह प्रथम चतुर्भगी हुई ॥१ ॥ अथवा (क्या परमाणुपुद्गल ) ११. चरम और अवक्तव्य है? १२. अथवा एक चरम और बहुत अवक्तव्य है ? या १३. अनेक चरमरूप और एक अवक्तव्यरूप है ? अथवा १४. अनेक चरमरूप और अनेक अवक्तव्यरूप है ? यह द्वितीय चतुर्भगी हुई ॥२॥ अथवा (परमाणुपुद्गल) १५. अचरम और अवक्तव्य है ? अथवा १६. एक अचरम और बहुअवक्तव्यरूप ? या १७. अनेक अचरमरूप और एक अवक्तव्यरूप है? अथवा १८. अनेक अचरमरूप और अनेक अवक्तरूप है? यह तृतीय चतुर्भगी हुई ॥ ३ ॥ अथवा (परमाणुपुद्गल) १९. एक चरम, एक अचरम और एक अवक्तव्य है ? या २०. एक चरम, एक अचरम और बहुत अवक्तव्यरूप हैं? अथवा २१. एक चरम, अनेक अचरमरूप और एक अवक्तव्यरूप है ? अथवा २२. एक चरम, अनेक अचरमरूप और अनेक अवक्तव्या हैं ? अथवा २३. अनेक चरमरूप, एक अचरम और एक अवक्तव्य है? अथवा २४. अनेक चरमरूप, एक अचरम और अनेक अवक्तव्य है? या २५. अनेक चरमरूप, अनेक अचरमरूप और एक अवक्तव्य है ? अथवा २६.. . अनेक चरमरूप, अनेक अचरमरूप और अनेक अवक्तव्य हैं ? इस प्रकार ये छव्वीस भंग हैं। [७८१ उ.] हे गौतम! परमाणुपुद्गल (उपर्युक्त छव्वीस भंगों में से) चरम नहीं, अचरम नहीं, (किन्तु) नियम से अवक्तव्य है। शेष ( तेईस ) भंगों का भी निषेध करना चाहिए । ७८२. दुपएसिए णं भंते ! खंधे पुच्छा । गोमा ! दुपसि खंधे सिय चरिमे १ नो अचरिमे २ सिय अवत्तव्व ०० ३, सेसा भंगा पडसे हेयव्वा । [७८२ प्र.] भगवन् ! द्विपदेशिक स्कन्ध के विषय में (मेरी इसी प्रकार की छव्वीस भंगात्मक) पृच्छा है, (उसका क्या समाधान हैं ? ) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ चरमपद] [१५ ___ [७८२ उ.] गौतम! द्विप्रदेशिक स्कन्ध १. कथंचित् चरम [D] है, २. अचरम नहीं है, ३. कथंचित् अवक्तव्य ०० है। शेष तेईस भंगो का निषेध करना चाहिए। ७८३. तिपएसिए णं भंते ! खंधे पुच्छा। __ गोयमा! तिपएसिए खंधे सिय चरिमे 000 १ नो अचरिमे २ सिय अवत्तव्वए .°३ नो चरिमाइं ४ णो अचरिमाइं ५ नो अवत्तव्वयाइं ६, नो चरिमे य अचरिमे य ७ नो चरिमे य अचरिमाइं ८ सिय चरिमाइं च अचरिमे यवन०९ नो चरिमाइं च १० सिय चरिमे य अवत्तव्वए य न ११ सेसा (१५) भंगो पडिसेहेयव्वा। [७८३ प्र.] भगवन् ! त्रिप्रदेशिक स्कन्ध के विषय में (मेरी उपर्युक्त प्रकार की) पृच्छा है, (उसका समाधान क्या है?) ___ [७८३ उ.] गौतम! त्रिपदेशिक स्कन्ध १. कथञ्चित् चरमक है, २. अचरम नहीं है, ३. कथंचित् अवक्तव्य [°°] है, ४. वह न तो अनेक चरमरूप है, ५. न अनेक अचरमरूप है, ६. न अनेक अवक्तव्यरूप है, ७. न एक चरम और एक अचरम है, ८. न एक चरम और अनेक अचरमरूप है, ९. कथंचित् अनेक चरमरूप और एक अचरम ००० है, १०. (वह) अनेक चरमरूप और अनेक अचरमरूप नहीं है, (किन्तु) ११. कथंचित् एक चरम और एक अवक्तव्य [२०] है। शेष पन्द्रह भंगों का निषेध करना चाहिए। ७८४. चउपएसिए णं भंते ! खंधे पुच्छा। गोयमा। चउपएसिए णं खंधे सिय चरिमे ०० ०० १ नो अचरिमे २ सिय अवत्तव्वए 88 ३ नो चरिमाइं ४ नो अचरिमाइं ५ नो अवत्तव्वयाइं ६, नो चरिमे य अचरिमे य ७ नो चरिमे य अचरिमाइं च ८ सिय चरिमाइं च अचरिमे य[0]००९ सिय चरिमाइं च अचरिमाइं चालान १०, सिय चरिम य अवत्तव्वए य ००% ११ सिय चरिमे य अवत्तव्वयाइं च १२ नो चरिमाइं च अवत्तव्वए य १३ नो चरिमाइं च अवत्तव्वयाइंच १४, नो अचरिमे य अवत्तव्वए य १५ नो अचरिमे य अवत्तव्वयाइं च १६ नो अचरिमाइं च अवत्तव्वए य १७ नो अचरिमाइं च अवत्तव्वयाइं च १८, नो चरिमे य अचरिमे य अवत्तव्वए य १९ नो चरिमे य अचरिमे य अवत्तव्वयाइं च २० नो चरिमे य अचरिमाइं च अवत्तव्वए य २१ नो चरिमे य अचरिमाइं च अवत्तव्वयाइं च २२ सिय चरिमाइं च अचरिमे य अवत्तव्वए य नगन २३, सेसा (३) भंगा पडिसेहेयव्वा। ... [७८४ प्र.] भगवन् ! चतुष्पदेशिक स्कन्ध के विषय में (मेरी पूर्ववत्) पृच्छा है, (उसका क्या समाधान है ?) ० Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ] [ प्रज्ञापनासूत्र [७८४ उ.] गौतम! चतुष्पदेशिक स्कन्ध १. कथंचित् चरम ०००० है, २. अचरम नहीं है, ३. कथंचित् अवक्तव्य 88] है। ४. (वह) न तो अनेक चरमरूप है, ५. न अनेक अचरमरूप है, ६. न ही अनेक अवक्तव्यरूप है,७. न (वह) चरम और अचरम है,८. न एक चरम और अनेक अचरमरूप है, (किन्तु) ९. कथञ्चित् अनेक चरमरूप और अचरम ००] है, १०. कथंचित् अनेक चरमरूप और अनेक अचरमरूप नगन है, ११. कथंचित् एक चरम और एक अवक्तव्य है ००० (और) १२. कथंचित् एक चरम और अनेक अवक्तव्यरूप ० है, १३. (वह) न.तो अनेक चरमरूप और एक अवक्तव्य है, १४. न अनेक चरमरूप और अनेक अवक्तव्यरूप है, १५. न एक अचरम और एक अवक्तव्य है, १६. न एक अचरम और अनेक अवक्तव्यरूप है, १७. न अनेक अचरमरूप और एक अवक्तव्य है, १८. न अनेक अचरमरूप और न अनेक अवक्तव्यरूप है (और) १९. न (ही वह) एक चरम, एक अचरम और एक अवक्तव्य है, २०. न एक चरम, एक अचरम और अनेक अवक्तव्यरूप है, २१. न एक चरम, अनेक अचरमरूप और एक अवक्तव्य है, २२. न एक चरम, अनेक अचरमरूप और अनेक अवक्तव्यरूप है, (किन्तु) २३. कथंचित् अनेक चरमरूप, एक अचरम और एक अवक्तव्य [वन है। शेष (तीन) भंगों का निषेध करना चाहिए। ७८५. पंचसिए णं भंते! खंधे पुच्छा। गोयमा! पंचपएसिए णं खंधे सिय चरिमे १ नो अचरिमे २ सिय अवत्तव्बए 8 ० ४] ३ णो चरिमाइं ४ नो अचरिमाइं ५ नो अवत्तव्वयाइं ६, सिय चरिमे य अच चरिमे य अचरिमाइं च ८ सिय चरिमाइं अचरिमे य न्व00 ९ सिय चरिमाइं च अचरिमाइं च गान्व१०, सिय चरिमे य अवत्तव्वए य ०००°११, सिय चरिमे य अवत्तव्वयाइं च हा १२ सिय चरिमाइं च अवत्तव्वए 0] १३ नो चरिमाइं च अवत्तव्वयाइं च १४, णो अचरिमे य olol ०० अवत्तव्वए य १५ नो अचरिमे य अवत्तव्वयाइं च १६ नो अचरिमाइं च अवत्तव्वए य १७ नो अचरिमाइं च अवत्तव्वयाइंच १८, नो चरिमे य अचरिमे य अवत्तव्वए य १९ नो चरिमे य अचरिमे य अवत्तव्वयाई च २० नो चरिमे य अचरिमाइं च अवत्तव्वए य २१ नो चरिमे य अचरिमाइं च अवत्तव्वयाइं च २२ सिय चरिमाइंच अचरिमे य अवत्तव्वए य गन २३ सिय चरिमाइंच अचरिमे य अवत्तव्वयाइंच गन २४ सिय चरिमाइं च अचरिमाइं च अवत्तव्वए य P २५ नो चरिमाइंच Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ चरमपद] [१७ अचरिमाइं च अवत्तव्वयाइं च २६ । [७८५ प्र.] भगवन्! पञ्चप्रदेशिक स्कन्ध के विषय में (मेरी पूर्ववत्) पृच्छा है: (उसका क्या समाधान है?) [७८५ उ.] गौतम! पंचप्रदेशिक स्कन्ध १. कथंचित् चरम 86 है, २. अचरम नहीं है, ३. कथंचित् अवक्तव्य 8 08] है, (किन्तु वह) ४ न तो अनेक चरमरूप है,५. न अनेक अचरमरूप है, ६. न ही अनेक अवक्तव्यरूप है (किन्तु) ७. कथञ्चित् चरम और अचरम oda है, (वह) ८. एक चरम और अनेक चरमरूप नहीं है, (किन्तु) ९. कथंचित् अनेक चरमरूप और एक अचरम 00000 है, १० कथंचित् अनेक चरमरूप और अनेक अचरमरूपागाव है, ११. कथंचित् एक चरम और एक अवक्तव्य ०००० है, १२. कथंचित् एक चरम और अनेक अवक्तव्यरूप । (तथा) न १३.कथंचित् अनेक चरमरूप और एक अवक्तव्य है, (किन्तु वह) १४. न तो अनेक चरमरूप और न अनेक अवक्तव्यरूप है, १५. न एक अचरम और एक अवक्तव्य है, १६. न एक अचरम और अनेक अवक्तव्यरूप है, १७. न अनेक अचरमरूप और एक अवक्तव्य है, १८. न अनेक अचरमरूप और अनेक अवक्तव्यरूप है, १९. (तथा) न एक चरम, एक अचरम और एक अवक्तव्यरूप है, २०. न एक चरम, एक अचरम और अवक्तव्यरूप है, २१ न एक चरम अनेक अचरमरूप और एक अवक्तव्य रूप है २२. (और) न एक चरम, अनेक अचरमरूप और अनेक अवक्तव्यरूप है, (किन्तु) २३. कथंचित् अनेक चरमरूप, एक अचरम और एक अवक्तव्य ०००°है, २४. कथंचित् अनेक चरमरूप, एक अचरम और अनेक अवक्तव्यरुप , तथा २५. कथंचित् अनेक अचरमरूप, अनेक अचरमरूप और एक अवक्तव्य POP है; (किन्तु) २६. अनेक चरमरूप, अनेक अचरमरूप और अनेक अवक्तव्यरूप नहीं है। ७८६. छप्पएसिए णं भंते! खंधे पुच्छा। गोयमा! छप्पएसिए णं खंधे सिय चरिमे 88 १ नो अचरिमे २ सिय अवत्तव्वए 888] ३ नो चरिमाइं ४ नो अचरिमाई ५ नो अवत्तव्वयाई ६, सिय चरिमे य अचरिमे य ७ सिय चरिमे Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] [प्रज्ञापनासूत्र य अचरिमाइंच का ८ सिय चरिमाइं च अचरिमे य BIJB] ९ सिय चरिमाइं च अचरिमाइं च 8800] १०, सिय चरिमे य अवत्तव्वए य म ११ सिय चरिमे य अवत्तव्वयाइं च BIBE १२ सिय चरिमाइंच अवत्तव्वए य ०] १३ सिय चरिमाइं च अवत्तव्वयाइं च ०० of १४, नो अचरिमे य अवत्तव्वए य १५ नो अचरिमे य अवत्तव्वयाइं च १६ नो अचरिमाइंच अवत्तव्वए य १७ णो अचरिमाइं च अवत्तव्वयाइं च १८, सिय चरिमे य अचरिमे य अवत्तव्वए य १९ नो चरिमे य अचरिमे य अवत्तव्वयाइं च २० नो चरिमे य अचरिमाइंच अवत्तव्वए य २१ नो चरिमे य अचरिमाइं च अवत्तव्वयाइं च २२ सिय चरिमाइं च अचरिमे य अवत्तव्वए य BIT २३ सिय चरिमाइं च अचरिमे य अवत्तव्वयाइं च [ool8] २४ सिय चरिमाइं च अचरिमाई च अवत्तव्वए य [DIT] २५ सिय चरिमाइं च अचरिमाइं च अवत्तव्वयाइं च [ग २६। [७८६ प्र.] भगवन् ! षट्प्रदेशिक स्कन्ध के विषय में (मेरी पूर्ववत्) पृच्छा है, (उसका क्या समाधान है?) [७८६ उ.] गौतम! षट्प्रदेशिक स्कन्ध १. कथंचित् चरम है, २. अचरम नहीं है, ३. कथंचित् अवक्तव्य 800 है, (किन्तु) ४. न तो (वह) अनेक चरमरुप है, ५. न अनेक अचरमरुप है, ६. (और) न ही अनेक अवक्तव्यरुप है, किन्तु) ७. कथंचित् चरम और अचरमाविक है, ८. कथंचित् एक चरम और अनेक अचरमरुप बना है, ९. कथंचित् अनेक चरम और एक अचरम 81818] है, १०. कथंचित् अनेक चरमरूप और अनेक अचरमरूप8181010] है, ११. कथञ्चित् एक चरम और अवक्तव्य 818 है, १२. कथंचित् एक चरम और अनेक अवक्तव्यरूप 88 है, १३. कथंचित् अनेक चरमरूप और एक Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ चरमपद] अवक्तव्य ० ० है, १४. कथंचित् अनेक चरमरूप और अनेक अवक्तव्यरूप ° है, (किन्तु) गह, (किन्तु) १५. न तो एक अचरम और एक अवक्तव्य है, १६. न एक अचरम और अनेक अवक्तव्यरूप है, १७. न अनेक अचरमरूप और एक अवक्तव्य है, (और) १८. न ही अनेक अचरमरूप और अनेक अवक्तव्यरूप है, (किन्तु) १९. कथंचित् एक चरम, एक अचरम और एक अवक्तव्य pad' है, २०. न एक चरम एक अचरम और अनेक अवक्तव्यरूप है, २१. न एक चरम, अनेक अचरमरूप और एक अवक्तव्य है, २२. न ही एक चरम, अनेक अचरमरूप और अनेक अवक्तव्यरूप है, (किन्तु) २३. कथंचित् अनेक चरमरूप, एक अचरम और है, एक अवक्तव्य है, २४. कथंचित् अनेक चरमरूप, एक अचरम और अनेक अवक्त २५. कथंचित् अनेक चरमरूप, अनेक अचरमरूप और एक अवक्तव्य गगन है, और २६. कथंचित् अनेक चरमरूप, अनेक अचरमरूप और अनेक अवक्तव्यरूपान ७८७. सत्तपएसिए णं भंते! खंधे पुच्छा। गोयमा! सत्तपदेसिए णं खंधे सिय चरिमे 88180 १ नो अचरिमे २ सिए अवत्तव्वए 8088] ३ नो चरिमाइं ४ नो अचरिमाइं ५ नो अवत्तव्वयाई ६, सिय चरिमे य अचरिमे य नविन ७ सिय चरिमे य अचरिमाइं च [विका ८ सिय चरिमाइं च अचरिमे य [8_8180] ९ सिय चरिमाइं च अचरिमाइं च [BIBI80|१०, सिय चरिमे य अवत्तव्वए य ह ११ सिय चरिमे य अवत्तव्वयाइं च न १२ सिय चरिमाइंच अवत्तव्वए य ०१३ सिय चरिमाइं ००० 87 Joof " च अवत्तव्वयाइं च ००० १४, नो अचरिमे य अवत्तव्वए य १५ नो अचरिमे य अवत्तव्वयाइं च [०० १६ नो अचरिमाइं च अवत्तव्व य १७ नो अचरिमाइं च अवत्तव्वयाइं च १८, सिय चरिमे अचरिमे य अवत्तव्वए यनि -१९ सिय चरिमे य अचरिमे य अवत्तव्वयाइं च - २० सिय चरिमे य अचरिमाइं च अवत्तव्वए य २१ नो चरिमे य अचरिमाइं च अवत्तव्वयाइं च २२ सिय Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] [प्रज्ञापनासूत्र चरिमाइं च अचरिमे य अवत्तव्वए य [8188| २३ सिय चरिमाइंच अचरिमे य अवत्तव्वयाइं च DITB २४ सिय चरिमाइं च अचरिमाइं च अवत्तव्वएय [DIBI8| २५ सिय चरिमाइं च अचरिमाई च अवत्तव्वयाइं च [Torg/ २६॥ [७८७ प्र.] भगवन् ! सप्तप्रदेशिक स्कन्ध के विषय में (मेरी पूर्ववत्) पृच्छा है, (उसका समाधान क्या 0) है?) 100 000 __[७८७उ.] गौतम! सप्तप्रदेशिक स्कन्ध १. कथंचित् चरम 888० है, २. अचरम नहीं है, ३. कथंचित् अवक्तव्य 8088 है, ४. (किन्तु वह) अनेक चरमरूप नहीं है, ५. न अनेक अचरमरूप है और ६. न ही अनेक अवक्तव्यरुप है, (किन्तु) ७. कथंचित् चरम और अचरम [ooloo है, ८. कथंचित् एक चरम और अनेक अचरमरूप [ क] है,९. कथंचित् अनेक चरमरूप और एक अचरम [818|80] है, १०. कथंचित् अनेक चरमरूप और अनेक अचरमरूप 81880 है, ११. कथंचित् एक चरम और एक अवक्तव्य शहै, १२. कथंचित् एक चरम और अनेक अवक्तव्यरूप न है, १३. कथंचित् अनेक चरमरूप और एक अवक्तव्य है, १४. कथंचित् अनेक चरमरूप और अनेक अवक्तव्यरूप . है, (किन्तु) १५. न तो (वह) एक अचरम और एक अवक्तव्य है, १६. न एक अचरम और अनेक अवक्तव्य है, १७. न अनेक अचरम और एक अवक्तव्य है और १८. न ही अनेक अचरमरूप और अनेक अवक्तव्यरूप है, (किन्तु) १९. कथंचित् एक चरम, एक अचरम और एक अवक्तव्य न है, २० कथंचित् एक चरम, एक अचरम और अनेक अवक्तव्यरुप है, २१. कथंचित् एक चरम, अनेक चरमरूप और एक अवक्तव्य क है, २२. एक चरम, अनेक अचरमरूप और अनेक अवक्तव्यरूप नहीं है, २३. कथंचित् अनेक चरमरूप, एक अचरम और एक अवक्तव्य 8 878) है, २४. कथंचित् अनेक चरमरूप एक अचरम और अनेक अवक्तव्य [oIBIBL है, २५. कथंचित् अनेक चरमरूप, अनेक अचरमरूप और एक अवक्तव्य 018|8|ol है, (और) २६. कथंचित् अनेक चरमरूप, अनेक अचरमरूप और अनेक अवक्तव्य [opolgहै। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ चरमपद ] ७८८. अट्ठपदेसिए णं भंते! खंधे पुच्छा । गोयमा! अट्ठपदेसिए खंधे सिय चरिमे 8888 १ णो अचरिमे २ सिय अवत्तव्वए : : : ३ नो चरिमाई ४ नो अचरिमाई ५ नो अवत्तव्वयाई ६, सिय चरिमे य अचरिमे य 888 ७ सिय चरिमे ८ सिय चरिमाइं च अचरिमे य [8888] ९ सिय चरिमाई च अचरिमाइं य अचरिमाइं च च 81818181 10 सिय चरिमे य अवत्तव्वए य 188% 88 १०, ०७ १२ सिय चरिमाइं च अवत्तव्वए य ० ܘܘܘܐ O १४ नो अचरिमे य अवत्तव्वए य १५ नो अचरिमे य अवत्तव्वयाइं च १६ नो अचरिमाइं च ० oo 000 ००० 000 अवत्तव्वए य १७ नो अचरिमाइं च अवत्तव्वयाइं च १८, सिय चरिमे य अचरिमे य अवत्तव्वए य चरिमाइं च अचरिमेय अवत्तव्वए य 8818 888 100 8 १९ सिय चरिमे य अचरिमे य अवत्तव्वयाई च ० अवत्तव्वए य 0000 [ २१ oo ११ सिय चरिमेय अवत्तव्वयांइ च १३ सिय चरिमाइं च अवत्तव्वयाइं च १२० सिय चरिमे य अचरिमाई च ० २१ सिय चरिमे य अचरिमाइं च अवत्तव्वयाइं च ० ००० २२ सिय २३ सिय चरिमाइं च अचरिमे य अवत्तव्वयाई च ० २५ सिय चरिमाई च 888 २४ सिय चरिमाइं च अचरिमाई च अवत्तव्वए य 88018 अचरिमाई च अवत्तववयाइं च 180018 २६ । [७८८ प्र.] भगवन्! अष्टप्रदेशिक स्कन्ध के विषय में (मेरी पूर्ववत्) पृच्छा है, इसका क्या समाधान है ? [७८८ उ.] गौतम! अष्टप्रदेशिक स्कन्ध १. कथंचित् चरम 8888 है, २ अचरम नहीं है, ३. कथंचित् अवक्तव्य है, ::: (किन्तु ) ४. न तो अनेक चरमरूप है, ५. न अनेक अचरमरूप है (और) " ६. न ही अनेक अवक्तव्यरूप है, ७. कथंचित् एक चरम और एक अचरम 8 8 8 है, ८. कथंचित् एक चरम ० और अनेक अचरमरूप ० 8008 है, ९. कथंचित् अनेक चरमरूप और एक अचरम [8888 है, ० Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ००० 1 ० २२ ] [ प्रज्ञापनासूत्र १०. कथंचित् अनेक चरमरूप और अनेक अचरमरूप 8888] है, ११. कथंचित् चरम और अवक्तव्य [B] है, १२. कथंचित् एक चरम और अनेक अवक्तव्यरूप [888 है, १३. कथंचित् अनेक चरमरूप और एक अवक्तव्यरूप oo] है, १४. कथंचित् अनेक चरमरूप और अनेक अवक्तव्यरूप o है, (किन्तु) १५. न तो (वह) एक अचरम और एक अवक्तव्य है, १६. न एक अचरम और अनेक अवक्तव्यरूप है, १७. न अनेक अचरमरूप और एक अवक्तव्यरूप है, (और) १८. न ही अनेक अचरमरूप और अनेक अवक्तव्यरूप है, (किन्तु) १९. कथंचित् चरम, अचरम और अवक्तव्यरूप goe है, २०. कथंचित् एक चरम, एक अचरम और अनेक अवत्त है, २१. कथंचित् एक चरम, अनेक अचरमरूप और एक अवक्तव्य [00 old_ है, २२. कथंचित् एक चरम, अनेक अचरमरूप और अनेक अवक्तव्यरूप [ood है, २३. कथंचित् अनेक चरमरूप, एक अचरम और एक अवक्तव्य BBB है, २४. कथंचित् अनेक चरमरूप, एक अचरम और अनेक अवक्तव्यरूप B है, २५. कथंचित् अनेक चरमरूप, अनेक अचरमरूप और एक अवक्तव्य 88108 है, और २६. कथंचित् अनेक चरमरूप, अनेक अचरमरूप और अनेक अवक्तव्यरूप [[ग है। ____७८९. संखेजपएसिए असंखेजपएसिए अणंतपएसिए खंधे जहेव अट्ठपदेसिए तहेव पत्तेयं भाणियव्वं। [७८९] संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी और अनन्तप्रदेशी प्रत्येक स्कन्ध के विषय में, जैसे अष्टप्रदेशी स्कन्ध के सम्बन्ध में कहा, उसी प्रकार कहना चाहिए। ७९०. परमाणुम्मि य ततिओ पढमो ततिओ य होति दुपदेसे पढमो ततिओ नवमो एक्कोरसमो य तिपदेसे ॥१८५॥ पढमो ततिओ नवमो दसमो दसमो एक्कोरसो य बारसमो। भंगा चउप्पदेसे तेवीसइमो य बोद्धव्वो॥१८६॥ पढमो ततिओ सत्तम नव दस एक्कार बार तेरसमो। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ चरमपद] |२३ तेवीस चउव्वीसो पणुवीसइमो य पंचमए ॥१८७॥ बिचउत्थ पंच छट्टे पणरस सोलं च सत्तरऽद्वारं। वीसेक्कवीस बावीसगं च वजेज छ?म्मि॥१८८॥ बि चउत्थ पंच छटुं पण्णर सोलं च सत्तरऽट्ठारं। बावीसइमविहूणा सत्तपदेसम्मि खंधम्मि ॥१८९॥ बि चउत्थ पंच छटुं पण्णर सोलं च सत्तरऽट्ठारं। एते वजिय भंगा सेसा सेसेसु खंधेसु॥१९०॥ [७९०. संग्रहणीगाथाओं का अर्थ--] परमाणुपुद्गल में तृतीय (अवक्तव्य) भंग होता है। द्विप्रदेशीस्कन्ध में प्रथम (चरम) और तृतीय (अवक्तव्य) भंग होते हैं । त्रिप्रदेशीस्कन्ध में प्रथम, तीसरा, नौवाँ और ग्यारहवां भंग होता है। चतुःप्रदेशीस्कन्ध में पहला, तीसरा, नौवाँ, दसवाँ, ग्यारहवाँ, बारहवाँ और तेईसवाँ भंग समझना चाहिए। पंचप्रदेशीस्कन्ध में प्रथम, तृतीय, सप्तम, नवम, दशम, एकादश, द्वादश, त्रयोदश, तेईसवाँ चौवीसवाँ और पच्चीसवाँ भंग जानना चाहिए ॥१८५, १८६, १८७॥ षट्प्रदेशीस्कन्ध में द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, छठा, पन्द्रहवाँ, सोलहवाँ, सत्रहवाँ, अठारहवाँ, बीसवाँ, इक्कीसवाँ और बाईसवाँ छोड़कर, शेष भंग होते हैं ॥१८८ ॥ सप्तप्रदेशीस्कन्ध में दूसरे, चौथे, पाँचवें, छठे, पन्द्रहवें सोलहवें, सत्रहवें, अठारहवें और बाईसवें भंग के सिवाय शेष भंग होते हैं ॥१८९॥ शेष सब स्कन्धों (अष्टप्रदेशी से लेकर संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी और अनन्तप्रदेशी स्कन्धों) में दूसरा, चौथा, पाँचवाँ, छठा, पन्द्रहवाँ, सोलहवाँ, सत्रहवाँ, अठारहवाँ, इन भंगों को छोड़कर, शेष भंग होते हैं ॥१९०॥ _ विवेचन - परमाणु से अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक की चरमाचरमादि संबन्धी वक्तव्यता - प्रस्तुत दस सूत्रों में पूरमाणुपुद्गल, द्विप्रदेशी से अष्टप्रदेशी स्कन्ध तथा संख्यात-असंख्यात-अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक के चरम, अचरम और अवक्तव्य भंगों की प्ररूपणा की गई है। छव्वीस भंगों की अपेक्षा से चरम, अचरम और अवक्तव्य का विचार-प्रस्तुत छव्वीस भंग इस प्रकार हैं - असंयोगी ६ भंग-१. चरम, २. अचरम, ३. अवक्तव्य, (एकवचनान्त), (बहुवचनान्त) ४. अनेक चरम, ५. अनेक अचरम, ६. अनेक अवक्तव्य। द्विकसंयोगी तीन चतुर्भंगी-१२ भंग-प्रथम चतुर्भंगी७ एक चरम और एक अचरम, ८. एक चरम-अनेक अचरम, ९. अनेक चरम-एक अचरम, १० अनेक चरमअनेक अचरम। द्वितीय चतुर्भंगी-११. एक चरम-एक अवक्तव्य, १२. एक चरम-अनेक अवक्तव्य, १३. अनेक चरम-एक अवक्तव्य, १४. अनेकचरम-अनेक अवक्तव्य। तृतीय चतुर्भंगी-१५. एक अचरम-एक Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] [प्रज्ञापनासूत्र अवक्तव्य, १६. एक अचरम-अनेक अवक्तव्य, १७. अनेक अचरम-एक अवक्तव्य, और १८. अनेक अचरमअनेक अवक्तव्य। त्रिकसंयोगी-८ भंग-१९. एक चरम, एक अचरम, एक अवक्तव्य, २० एक चरम, एक अचरम, अनेक अवक्तव्य, २१. एक चरम, अनेक अचरम, एक अवक्तव्य, २२. एक चरम, अनेक अचरम, अनेक अवक्तव्य, २३. अनेक चरम, एक अचरम, एक अवक्तव्य, २४. अनेक चरम, एक अचरम, अनेक अवक्तव्य, २५. अनेक चरम, अनेक अचरम, एक अवक्तव्य, २६. अनेक चरम, अनेक अचरम, अनेक अवक्तव्य। परमाणुपुद्गल अवक्तव्य ही क्यों ? - भगवान् ने उपर्युक्त २६ भंगों में से परमाणुपुद्गल को केवल तृतीय भंग नियमतः अवक्तव्य बताया है, शेष पच्चीस भंग उसमें घटित नहीं होते। इसका कारण यह है कि चरमत्व दूसरे की अपेक्षा रखता है, यहाँ किसी दूसरे की विवक्षा न होने से अपेक्षणीय कोई दूसरा पदार्थ है नहीं। इसके अतिरिक्त एक परमाणुपुद्गल सांश (अनेक अंशो-अवयवों वाला) भी नहीं है, जिससे की अंशों की अपेक्षा से उसके चरमत्व की कल्पना की जा सके, परमाणु तो निरंश-निरवयव है। परमाणु अचरम (मध्यम) भी नहीं है, क्योंकि निरवयव होने से उसका मध्यभाग होता नहीं है। इसी कारण परमाणु को नियम से अवक्तव्य कहा गया है। अर्थात्-न तो उसे चरम कहा जा सकता है, न ही अचरम। जो चरम या अचरम शब्द से वक्तव्य-कहने योग्य-न हो, वह अवक्तव्य होता है। द्विप्रदेशीस्कन्ध में दोभंग - द्विप्रदेशीस्कन्ध में केवल प्रथम (एक चरम) और तृतीय (एक अवक्तव्य), ये दो भंग ही घटित होते हैं, शेष चौवीस भंग नहीं। इसको चरम कहने का कारण यह है कि द्विप्रदेशीस्कन्ध जब दो आकाशप्रदेशों में समश्रेणि में स्थित होकर अवगाढ़ होता है तब उसके दो परमाणुओं में से एक परमाणु की अपेक्षा चरम होता है, दूसरा परमाणु भी प्रथम परमाणु की अपेक्षा चरम होता है। इस कारण द्विप्रदेशीस्कन्ध चरम कहलाता है, किन्तु द्विप्रदेशीस्कन्ध अचरम नहीं कहलाता, क्योंकि समस्त द्रव्यों का भी केवल अचरमत्व सम्भव नहीं है। द्विप्रदेशीस्कन्ध कथंचितृ अवक्तव्य तब होता है, जब वह एक ही आकाशप्रदेश में अवगाढ़ होता है, उस समय वह विशेष प्रकार के एकत्वपरिणाम से परमाणुवत् परिणत होता है। इस कारण द्विप्रदेशीस्कन्ध को उस समय चरम या अचरम कहने का कोई कारण नहीं होता। इसलिए उसे न चरम कहा जा सकता है और न अचरम, उसे उस समय अवक्तव्य ही कहा जा सकता है। त्रिप्रदेशीस्कन्ध में चार भंग - त्रिप्रदेशीस्कन्ध में प्रथम भंग-चरम और तृतीय भंग-अवक्तव्य पूर्वोक्त द्विप्रदेशी की युक्ति के अनुसार समझना चाहिए। फिर नौवाँ भंग-दो चरम और एक अचरम पाया जाता है। जब त्रिप्रदेशीस्कन्ध समश्रेणि में स्थित तीन आकाशप्रदेशों में अवगाढ़ होता है, तब उसके आदि और अन्त के दो परमाणु पर्यन्तवर्ती होने के कारण चरम (द्वय) होते हैं और मध्यम परमाणु मध्यवर्ती होने के कारण अचरम होता है। अतः त्रिप्रदेशीस्कन्ध कथंचित् दो चरम और एक अचरमरुपं कहा जाता है। इसमें दसवाँ भंग-बहुत १. (क) प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति, प. २४० (ख) पण्णवणासुत्तं भा. १ (मूलपाठ-टिप्पण), पृ. १९९ से २०१ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ चरमपद] [ २५ चरम और बहुत अचरम घटित नहीं हो सकता, क्योंकि तीन प्रदेशों वाले स्कन्ध में (बहुवचनान्त) अनेक चरम और अनेक अचरम नहीं हो सकते। ग्यारहवाँ भंग उसमें घटित होता है। वह इस प्रकार है- कथंचित् चरम और अवक्तव्य। जब त्रिप्रदेशीस्कन्ध समश्रेणी और विश्रेणी में इस प्रकार अवगाढ़ होता है, तब उसके दो परमाणु समश्रेणी में स्थित होने के कारण दो प्रदेशों में अवगाढ़ द्विप्रदेशी स्कन्ध के समान चरम कहे जा सकते हैं और एक परमाणु विश्रेणी में स्थित होने के कारण चरम और अचरम शब्दों द्वारा व्यवहार के योग्य न होने से अवक्तव्य होता है। इस प्रकार त्रिप्रदेशी स्कन्ध में पहला, तीसरा, नौवाँ और ग्यारहवाँ, ये चार भंग होते हैं, शेष २२ भंग नहीं पाए जाते। ___ चतुष्प्रदेशीस्कन्ध में सात भंग - इसमें पहला और तीसरा, नौवाँ और ग्यारहवाँ भंग तो द्विप्रदेशी एवं त्रिप्रदेशी स्कन्ध में उक्त युक्ति के अनुसार समझ लेना चाहिए। इसके पश्चात् दसवाँ भंग भी चतुष्प्रदेशी स्कन्ध में घटित होता है वह इस प्रकार है-दो चरम और दो अचरम। क्योंकि जब चतुःप्रदेशी स्कन्ध समश्रेणी में स्थित चार आकशप्रदेशों में 100 इस प्रकार अवगाहन करता है, तब आदि और अन्त में अवगाढ़ दो परमाणु (प्रदेश), दोनों चरम होते हैं और बीच के दो परमाणु अचरम (द्वय) कहलाते हैं। इस कारण इसे कथंचित् दो चरम और दो अचरम कहा जा सकता है। इसी प्रकार बारहवाँ भंग-कथंचित् चरम और दो अवक्तव्यरुप-भी उसमें घटित होता है। वह इस प्रकार-जब चतुष्प्रदेशात्मक स्कन्ध चार आकाशप्रदेशों में अवगाहना करता है, तब इस प्रकार की स्थापना ग के अनुसार उसके दो परमाणु समश्रेणी में स्थित दो आकाशप्रदेशों में ० होते हैं, और दो परमाणु विश्रेणी में स्थित दो आकशप्रदेशों में होते हैं। ऐसी स्थिति में समश्रेणी में स्थित दो परमाणु द्विप्रदेशावगाढ़ द्विप्रदेशी स्कन्ध के समान चरम होते हैं और विश्रेणी में स्थित दो परमाणु अकेले परमाणु के समान चरम या अचरम शब्दों से कहने योग्य न होने से अवक्तव्यरूप होते हैं । अतएव समग्र चतुष्प्रदेशीस्कन्ध कथंचित् एक चरम और दो (अनेक) अवक्तव्यरुप कहा जा सकता है। इसके पश्चात् तेईसवाँ भंग इसमें घटित होता है। वह इस प्रकार - जब चतुष्पदेशी स्कन्ध चार आकाशप्रदेशों में इस प्रकार की स्थापना [ग के अनुसार अवगाहना करता है, तब तीन परमाणु तो समश्रेणी में स्थित तीन आकाशप्रदेशों से अवगाढ़ होते हैं और एक परमाणु विश्रेणी में स्थित आकाशप्रदेश में रहता है। ऐसी स्थिति में समश्रेणी में स्थित तीन परमाणुओं में से आदि और अन्त के परमाणु पर्यन्तवर्ती होने के कारण चरम होते हैं और बीच का परमाणु अचरम होता है तथा विश्रेणी में स्थित एक परमाणु चरम या अचरम कहलाने योग्य न होने से अवक्तव्य होता है। इस प्रकार समग्र चतुष्प्रदेशीस्कन्ध दो (अनेक) चरमरूप, एक अचरम और एक अवक्तव्यरूप कहलाता है। इस प्रकार पहला, तीसरा, नौवाँ, दसवाँ, ग्यारहवाँ, बारहवाँ और तेईसवाँ, इन ७ भंगो के सिवाय शेष ११ भंग इसमें नहीं पाये जाते। पंचप्रदेशी स्कन्ध में ग्यारह भंग - पांच प्रदेशों वाले स्कन्ध में चरमाद्रि ११ भंग पाये जाते हैं। पहला, Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] 00 이 तीसरा, नौवाँ, दसवाँ, ग्यारहवाँ, बारहवाँ और तेईसवाँ, ये सात भंग तो पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार समझ लेने चाहिए। इसमें सातवाँ भंग कथंचित् एक चरम और एक अचरम इस प्रकार घटित होता है, जब पंचप्रदेशात्मक स्कन्ध पांच आकशप्रदेशों में इस प्रकार की स्थापना के अनुसार अवगाहन करके रहता है, तब उभय पर्यन्तवर्ती चार परमाणु एकसम्बन्धिपरिणाम से परिणत होने से एक वर्ण, एक गन्ध, एक रस और एक समान स्पर्श वाले होने के कारण उनके लिए एकत्व का व्यपदेश (कथन) होने से वे चरम कहे जा सकते हैं, किन्तु बीच का परमाणु मध्यवर्ती होने के कारण अचरम होता है। इस प्रकार पंचप्रदेशी स्कन्ध कथंचित् उभयरूप चरम और अचरम कहलाता है। इसमें तेरहवाँ भंग-कथंचित् दो चरम एवं अवक्तव्य घटित होता है । वह इस प्रकार - जब कोई पंचप्रदेशी स्कन्ध इस प्रकार की स्थापना 10 के अनुसार पंचप्रदेशावगाढ़ होकर पांच आकाशप्रदेशों में अवगाहन करता है, तब उनमें से दो परमाणु ऊपर समश्रेणी में स्थित दो आकाशप्रदेशों से अवगाढ़ होते हैं, इसी प्रकार से दो परमाणु नीचे समश्रेणी में स्थित दो आकाशप्रदेशों से अवगाढ़ होते हैं और एक परमाणु अन्त में बीचोंबीच स्थित होता है। ऐसी स्थिति में ऊपर के दो परमाणु द्विप्रदेशीगाढ़ द्वयणुकस्कन्ध की तरह चरम तथैव नीचे के दो परमाणु भी चरम इस प्रकार चार चरम और एक परमाणु, अकेले परमाणु के समान अवक्तव्य होने से समग्र पंचप्रदेशी स्कन्ध कथंचित् अनेक चरम और अवक्तव्य कहा जा सकता है। पंचप्रदेशी स्कन्ध में चौबीसवाँ भंग-कथंचित् अनेक चरम, एक अचरम और अनेक अवक्तव्यरुप भी घटित होता है । वह इस प्रकार जब पंचप्रदेशीस्कन्ध इस प्रकार की स्थापना के अनुसार पांच आकाशप्रदेशों में समश्रेणी और विश्रेणी में अवगाहन करके रहता है, तब उनमें से तीन परमाणु समश्रेणी में स्थित तीन आकाशप्रदेशों में अवगाढ़ होते हैं और दो परमाणु विश्रेणी मे स्थित दो आकाशप्रदेशों में अवगाढ़ होते हैं। ऐसी स्थिति में आदि - अन्तप्रदेशवर्ती दो परमाणु तो चरम कहलाते हैं, मध्यवर्ती परमाणु अचरम कहलाता है तथा विश्रेणी में स्थित दो अकेले - अकेले परमाणु दो अवक्तव्य कहलाते हैं । इस प्रकार - इनका समूहरूप पंचप्रदेशीस्कन्ध दो चरम, दो अचरम, दो अवक्तव्यरुप कहा जा सकता है। इसी प्रकार २५ वाँ भंगकथंचित् अनेक चरम, अनेक अचरम और एक अवक्तव्य भी घटित हो सकता है । वह इस प्रकार - जब पंचप्रदेशीस्कन्ध पांच आकाशप्रदेशों में poo इस प्रकार की स्थापना के अनुसार समश्रेणी और विश्रेणी में अवगाहन करके रहता है, तब चार परमाणु चार आकाशप्रदेशों में समश्रेणी में स्थित होते हैं और एक परमाणु विश्रेणीस्थ होकर रहता है। ऐसी स्थिति में उक्त चार आकाशप्रदेशों में से दो आदि - अन्तप्रदेशवर्ती चरम तथा दो मध्यवर्ती अचरम कहलाते हैं और एक जो अकेला परमाणु विश्रेणीस्थ है, वह अवक्तव्य है । इस प्रकार समग्र पंचप्रदेशीस्कन्ध को दो चरम, दो दो चरम और एक अवक्तव्यरुप कहा जा सकता है । यों पहला, तीसरा, सातवाँ, नौवाँ, दसवाँ, ग्यारहवाँ, बारहवाँ, तेरहवाँ, तेईसवाँ, चौबीसवाँ और पच्चीसवाँ, ये ११ भंग पंचप्रदेशीस्कन्ध में होते हैं, शेष १५ भंग इसमें नहीं होते । 이이이 [ प्रज्ञापनासूत्र ० Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ चरमपद] [२७ षट्प्रदेशीस्कन्ध में पन्द्रह भंग - इसमें ११ भंग तो पंचप्रदेशीस्कन्ध में उक्त हैं, वे पूर्वयुक्ति के अनुसार समझ लेने चाहिए। शेष चार भंग इस प्रकार हैं-आठवाँ चौदहवाँ, उन्नीसवाँ और छव्वीसवाँ भंग। आठवाँ भंग है-एक चरम और दो (अनेक) अचरमरुप। वह इस प्रकार घटित होता है-जब कोई षट्प्रदेशीस्कन्ध छह आकाशप्रदेशों में इस प्रकार की स्थापना [oooo के अनुसार समश्रेणी से एकाधिक अवगाहन करता है, तब समश्रेणी में स्थित चार परमाणु पहले कहे अनुसार चरम और मध्यवर्ती दो परमाणु अचरम कहलाते हैं। दोनों का समूहरूप षट्प्रदेशीस्कन्ध भी कथंचित् एक चरम और दो अचरमरुप कहा जा सकता है। चौदहवाँ भंग-दो चरम और दो अवक्तव्य इस प्रकार घटित होता है-जब कोई षट्प्रदेशी स्कन्ध, इस प्रकार की स्थापना ०° के अनुसार छह आकाशप्रदेशों में समश्रेणी और विश्रेणी से अवगाहन करता है, तब उनमें से दो परमाणु तो समश्रेणी में स्थित आकाशप्रदेशों में ऊपर और दो नीचे रहते हैं, एक परमाणु दोनों श्रेणियों के मध्यभाग की समश्रेणी में स्थित प्रदेश में रहता है, और एक परमाणु दोनों के ऊपर विश्रेणी में रहता है। ऐसी स्थिति में ऊपर के दो परमाणु और नीचे के दो परमाणु भी चरम कहलाते हैं, ये दोनों चरम अनेक चरम कहलाए तथा दोनों अलग-अलग रहे हुए दोनों परमाणु दो अवक्तव्य कहलाये। इन सबका समुदायरुप षट्प्रदेशीस्कन्ध कथंचित् अनेक चरमरुप, अनेक अवक्तव्यरुप कहा जा सकता है। उन्नीसवाँ भंग-चरम-अचरम अवक्तव्य भी इसमें घटित हो सकता हैं । वह इस प्रकार-जब षट्प्रदेशी स्कन्ध छह आकाशप्रदेशों में, इस स्थापना के अनुसार ooo एक परिक्षेप से विश्रेणीस्थ एकाधिक को अवगाहन करता है, तब एकवेष्टक (एक को घेरने वाले) चार परमाणु पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार चरम होते हैं, मध्यवर्ती एक अचरम और विश्रेणीस्थ एक परमाणु अवक्तव्य होता है। इनके समूहरुप षट्प्रदेशात्मकस्कन्ध को चरम-अचरम-अवक्तव्य कहा जा सकता है। षट्प्रदेशीस्कन्ध में २६ वाँ भंग-अनेक चरम-अनेक अचरम-अनेक अवक्तव्यरुप भी घटित होता है। उसकी युक्ति इस प्रकार है - जब षट्प्रदेशीस्कन्ध इस स्थापना के अनुसार [ ]o छह आकाशप्रदेशों में समश्रेणी से और विश्रेणी से अवगाहन करता है, तब आदि और अन्त के प्रदेशावगाढ़ दो चरम तथा मध्यप्रदेशावगाढ़ दो अचरम एवं विश्रेणीस्थ दो प्रदेशों में पृथक्-पृथक् अवगाढ़ एकाकी परमाणु होने से दोनों अवक्तव्य कहलाते हैं। इस प्रकार समुदितरूप से षट्प्रदेशीस्कन्ध को कथंचित् अनेक चरम-अनेक अचरम-अनेक अवक्तव्यरुप कहा जा सकता है। इस प्रकार षट्प्रदेशीस्कन्ध में पूर्वोक्त १५ भंग होते है, शेष ११ भंग इसमें नहीं होते। सप्तप्रदेशीस्कन्ध में १७ भंग-इस स्कन्ध में पूर्वोक्त षट्प्रदेशीस्कन्ध में कहे गए १५ भंग तो उसी प्रकार हैं। उनका विश्लेषण पूर्वोक्त युक्तियों के अनुसार कर लेना चाहिये। इस स्कन्ध में दो भंग विशेष हैं । वे Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] हैं-बीसवाँ और इक्कीसवाँ भंग । सप्तप्रदेशीस्कन्ध में बीसवाँ भंग - कथंचित् एक चरम - एक अचरम - अनेक (दो) अवक्तव्य । वह इस प्रकार घटित होता है - जब सात आकाश प्रदेशों में उसका अवगाहन होता है, तब 0 समश्रेणी में स्थित उभयपर्यन्तवर्ती दो-दो परमाणुओं के कारण वह ‘चरम' है, मध्यवर्ती परमाणु के कारण 'अचरम' है और विश्रेणी में स्थित पृथक्-पृथक् दो परमाणुओं के कारण वह अनेक अवक्तव्य भी है। इस प्रकार इन तीनों के समुदितरुप में सप्तप्रदेशीस्कन्ध को एक चरम, एक अचरम एवं अनेक अवक्तव्यरूप कहा जा सकता है। इनमें २१ वाँ भंग कथंचित् एक चरम, अनेक अचरम और एक अवक्तव्यरुप भी घटित होता है। वह इस प्रकार - जब सात आकाशप्रदेशों में उसका अवगाहन होता है, तब उसकी स्थापना के अनुसार 0000 समश्रेणी में स्थित उभयपर्यन्तवर्वी एक - एक परमाणु की अपेक्षा 0 उसकी स्थापना के अनुसार 000 o से वह चरम है, मध्यवर्ती दो परमाणुओं की अपेक्षा से वह अनेक अचरमरूप है और विश्रेणी में स्थित एक परमाणु के कारण वह अवक्तव्य है । इन तीनों के समुदायरूप सप्तप्रदेशी स्कन्ध को एक चरम, अनेक अचरम, एक अवक्तव्य कहा जा सकता है । यों सप्तप्रदेशी स्कन्ध में १७ भंगों के सिवाय शेष ९ भंग नहीं पाए जाते। अष्टप्रदेशीस्कन्ध में १८ भंग - इस स्कन्ध में १७ भंग तो सप्तप्रदेशी स्कन्ध में जो बताए गए हैं, वे ही हैं। केवल २२ वाँ भंग-एक चरम, अनेक (दो) अचरम और अनेक (दो) अवक्तव्य अधिक हैं । २२ वाँ भंग इस प्रकार घटित होता है-आठ आकाशप्रदेशों में जब अष्टप्रदेशीस्कन्ध अवगाहन करता है, तब उसकी अनुसार समश्रेणी में स्थित पर्यतवर्ती परमाणुओं की अपेक्षा से चरम, मध्यवर्ती दो परमाणुओं की अपेक्षा से दो अचरम एवं विश्रेणी में स्थित दो परमाणुओं के कारण दो अवक्तव्य होते हैं । इन तीनों के समुदायरूप अष्टप्रदेशीस्कन्ध का एक चरम, अनेक अचरम तथा अनेक अवतरूरूप कहा जा सकता है। इस प्रकार अष्टप्रदेशीस्कन्ध में १८ भंग होते हैं, शेष ८ भंग इसमें नहीं पाये जाते । स्थापना ००० ००० प्रज्ञापनासूत्र ०० असंख्येयप्रदेशात्मक लोक में अनन्तानन्त स्कन्धों का अवगाहन कैसे - यहाँ एक शंका उपस्थित होती है कि समग्र लोक तो असंख्यात प्रदेशात्मक है, उसमें असंख्यात प्रदेशात्मक और अनन्त प्रदेशात्मक स्कन्धों का अवगाहन कैसे हो जाता है? इसका समाधान है, लोक का महात्म्य ही ऐसा है कि केवल ये दो स्कन्ध नहीं, बल्कि अनन्तानन्त द्विप्रदेशीस्कन्ध से लेकर अनन्तानन्त संख्यातप्रदेशी, अनन्तानन्त असंख्यातप्रदेशी और अनन्तानन्त अनन्तप्रदेशी स्कन्ध इसी एक लोक में ही अवगाढ़ होकर उसी तरह रहते हैं, जिस तरह एक भवन में एक दीपक की तरह हजारों दीपकों की प्रभा के परमाणु रहते हैं। १. (क) प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति, प. २४० (ख) पण्णवणासुत्तं भा. १ (मूलपाठ - टिप्पण), पृ. १९९ से २०१ २. प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक २३४ से २३९ तक ३. वही म. वृत्ति, पत्रांक २३४ से २३९ तक Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ चरमपद ] संस्थान की अपेक्षा से चरमादि की प्ररूपणा ७९१. कति णं भंते! संठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच ठाणा पण्णत्ता । तं जहा- परिमंडले १ वट्टे २ तंसे ३ चउरंसे ४ आयते ५ । [७९१ प्र.] भगवन्! संस्थान कितने कहे गए हैं? [ ७९१ उ.] गौतम! पांच संस्थान कहे गए हैं। वे इस प्रकार - १ परिमण्डल, २ वृत्त, ३. त्र्यस्त्र, ४. चतुरस्त्र और ५. आयत । ७९२. परिमंडला णं भंते! संठाणा किं संखेज्जा असंसखेज्जा अणंता ? गोयमा ! णो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अनंता । एवं जाव आयता । [७९२ प्र.] भगवन्! परिमण्डलसंस्थान संख्यात हैं, असंख्यात हैं अथवा अनन्त हैं ? [७९२ उ.] गौतम! (वे) संख्यात नहीं, असंख्यात नहीं, (किन्तु ) अनन्त हैं । इसी प्रकार (वृत्त से लेकर) यावत् आयत ( तक के विषय में समझ लेना चाहिए।) ७९३. परिमंडले णं भंते! संठाणे किं संखेज्जपएसिए असंखेज्जपएसिए अनंतपएसिए? गोमा ! सिय संखेज्जपएसिए सिय असंखेज्जपदेसिए सिय अणंतपदेसिए। एवं जाव आयते । [७९३ प्र.] भगवन्! परिमण्डलसंस्थान संख्यातप्रदेशी है, असंख्यातप्रदेशी है अथवा अनन्तप्रदेशी है ? [७९३ उ.] गौतम! (वह) कदाचित् संख्यातप्रदेशी है, कदाचित् असंख्यातप्रदेशी है और कदाचित् अनन्तप्रदेशी है । इसी प्रकार (वृत्त से लेकर) आयत ( तक के विषय में समझ लेना चाहिए।) [ २९ ७९४. परिमंडले णं भंते! संठाणे संखेज्जपदेसिए किं संखेज्जपदेसोगाढे असंखेज्जपएसो गाढे अणतपसो गाढे ? गोयमा! संखेज्जपएसोगाढे, नो असंखेज्जपएसोगाढे नो अणंतपएसोगाढे । एवं जाव आयते । [७९४ प्र.] भगवन्! संख्यातप्रदेशी परिमण्डलसंस्थान संख्यातप्रदेशों में अवगाढ़ होता है, असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ होता है अथवा अनन्त प्रदेशों में अवगाढ़ होता है ? [७९४ उ.] गौतम! (संख्यातप्रदेशी परिमण्डलसंस्थान ) संख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ होता है, किन्तु न तो असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ होता है और न अनन्त प्रदेशों में अवगाढ़ । इसी प्रकार आयतसंस्थान तक (के विषय में कहना चाहिए ।) ७९५. परिमंडले णं भंते! संठाणे असंखेज्जपदेसिए किं संखेज्जपदेसोगाढे असंखिज्जपदेसोगाढे Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ] [प्रज्ञापनासूत्र अणंतपएसोगाढे? गोयमा! सिय संखेजपएसोगाढे सिय असंखेजपदेसोगाढे, णो अणंतपदेसोगाढे। एवं जाव आयते। [७९५ प्र.] भगवन् ! असंख्यातप्रदेशी परिमण्डलसंस्थान संख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ होता है, असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ होता है अथवा अनन्त प्रदेशों में अवगाढ़ होता है? [७९५ उ.] गौतम! (असंख्यातप्रदेशी परिमण्डलसंस्थान) कदाचित् संख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ होता है और कदाचित् असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ होता है, किन्तु अनन्त प्रदेशों में अवगाढ़ नहीं होता। इसी प्रकार (वृत्त से लेकर) आयत संस्थान तक (के विषय में कहना चाहिए।) ७९६. परिमंडले णं भंते! संठाणे अणंतपएसिए किं संखेजपएसोगाढे असंखेजपएसोगाढे अणंतपएसोगाढे ? गोयमा! सिय संखेजपएसोगाढे असंखेजपएसोगाढे, नो अणंतपएसोगाढे। एवं जाव आयते। - [७९६ प्र.] भगवन् ! अनन्तप्रदेशी परिमण्डलसंस्थान संख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ होता है, असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ होता है, अथवा अनन्त प्रदेशों में अवगाढ़ होता है? ' [७९३ उ.] गौतम! (अनन्तप्रदेशी परिमण्डलसंस्थान) कदाचित् संख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ होता है और कदाचित् असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ होता है, (किन्तु) अनन्त प्रदेशों में अवगाढ़ नहीं होता। इसी प्रकार (वृत्तसंस्थान से लेकर) आयतसंस्थान तक (के विषय में समझना चाहिए।) ७९७. परिमंडले णं भंते! संठाणे संखेजपदेसिए संखेजपएसोगाढे किं चरिमे अचरिमे चरिमाइं अचरिमाइं चरिमंतपदेसा अचरिमंतपदेसा? गोयमा! परिमंडलेणंसंठाणे संखेजपदेसिए संखेजपदेसोगाढे नो चरिमे नो अचरिमे नो चरिमाइं नो अचरिमाइं नो चरिमंतपदेसा नो अचरिमंतपएसा, नियमा अचरिमंच चरिमाणि य चरिमंतपदेसा य अचरिमंतपदेसा य। एवं जाव आयते। [७९७ प्र.] भगवन् ! संख्यातप्रदेशी एवं संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान चरम है, अचरम है, (बहुवचनान्त) अनेक चरमरूप है, अनेक अचरमरूप है, चरमान्तप्रदेश है अथवा अचरमान्त प्रदेश है ? [७९७ उ.] गौतम् ! संख्यातप्रदेशी और संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान, न तो चरम है, न अचरम है, न (बहुवचनान्त) चरम है, न (बहुवचनान्त) अचरम है, न चरमान्तप्रदेश है और न ही अचरमान्तप्रदेश है, किन्तु नियम से अचरम, (बहुवचनान्त) अनेक चरमरूप, चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश है। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ चरमपद] [ ३१ इसी प्रकार (संख्यातप्रदेशी संख्यातप्रदेशावगाढ़ वृत्तसंस्थान से लेकर) आयतसंस्थान तक (के विषय में कहना चाहिए।) ७९८. परिमंडले णं भंते ! संठाणे असंखेजपएसिए संखेजपदेसोगाढे किं चरिमे. पृच्छा। गोयमा ! असंखेजपएसिए संखेजपएसोगाढे जहा संखेजपएसिए (सु. ७९७ )। एवं जाव आयते। [७९८ प्र.] भगवन् ! असंख्यातप्रदेशी और संख्यातप्रदेशागाढ़ परिमण्डलसंस्थान क्या चरम है, अचरम है, (बहुवचनान्त) अनेक चरम, अनेक अचरमरूप है, चरमान्तप्रदेश है, अथवा अचरमान्तप्रदेश है ? [७९८ उ.] गौतम ! असंख्यातप्रदेशी एवं संख्यातप्रदेशों में अवगाढ़ परिमण्डलसंस्थान के विषय में (सू.७९७ में उल्लिखित) संख्यातप्रदेशी के समान ही समझना चाहिए। इसी प्रकार (असंख्यातप्रदेशी संख्यातप्रदेशावगाढ़ वृत्तसंस्थान से लेकर) यावत् आयतसंस्थान तक समझना चाहिए। . ७९९. परिमंडले णं भंते ! संठाणे असंखेजपदेसिते असंखेजपएसोगोढे किं चरिमे. पुच्छा। गोयमा ! असंखेजपदेसिए असंखेजपदेसोगाढे नो चरिमे जहा संखेजपदेसोगाढे (सु. ७९८)। एवं जाव आयते। [७९९ प्र.] भगवन् ! असंख्यातप्रदेशी एवं असंख्यातप्रदेशों में अवगाढ़ परिमण्डसंस्थान चरम है, अचरम है, अनेक अचरमरुप है, चरमान्तप्रदेश है अथवा अचरमान्त प्रदेश है ? [७९९ उ.] गौतम ! असंख्यातप्रदेशी एवं असंख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान चरम नहीं है, इत्यादि समंग्र प्ररुपणा सू.७९८ में उल्लिखित संख्यातप्रदेशावगाढ़ की तरह समझना चाहिए। इसी प्रकार (की प्ररूपणा) यावत् आयतसंस्थान तक (करनी चाहिए।) ८००. परिमंडले णं भंते ! संठाणे अणंतपएसिए संखेजपएसोगाढे किं चरिमे. पुच्छा। गोयमा ! तहेव (सु. ७९७ ) जाव आयते। [८०० प्र.] भगवन् ! अनन्तप्रदेशी और संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान चरम है, अचरम है, (इत्यादि पूर्ववत्) पृच्छा (का क्या समाधान ?) [८०० उ.] गौतम ! इसकी प्ररूपणा सू. ७९७ के अनुसार संख्यातप्रदेशी संख्यातप्रदेशावगाढ़ के समान यावत् आयतसंस्थान पर्यन्त समझनी चाहिए। ८०१.अणंतपदेसिए असंखेजपदेसोगाढे जहा संखेजपदेसोगाढे (सु.८००)। एवं जाव आयते। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] प्रज्ञापनासूत्र [८०१ प्र.] जैसे (सू. ८०० में) अनन्तप्रदेशी संख्यातप्रदेशावगाढ़ (परिमण्डलादि संस्थानों के चरमाचरमादि के विषय में कहा, उसी प्रकार अनन्तप्रदेशी असंख्यातप्रदेशावगाढ़ (परिमण्डलादि के विषय में) यावत् आयतसंस्थान (तक कहना चाहिए।) ८०२. परिमंडलस्स णं भंते ! संठाणस्स संखेज्जपएसियस्स संखेज्जपएसोगाढस्स अचरमिस्स च चरिमाण य चरिमंतपदेसाण य अचरिमंतपदेसाण य दव्वट्टयाए पदेसट्टयाए दव्वट्टपदेसट्टयाए कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा ४ । गोयमा ! सव्वत्थोवे परिमंडलस्स संठाणस्स संखेज्जपदेसियस्स संखेज्जपदेसोगाढस्स दव्वट्टयाए एगे अचरिमे १ चरिमाई संखेज्जगुणाई २ अचरिमं च चरिमाणि य दो वि विसेसाहियाई ३ । पदेसट्टयाएसव्वत्थोवा परिमंडलस्स संठाणस्स संखेज्जपदेसियस्स संखेज्जपदेसोगाढस्स चरिमंतपदेसा १ अचरिमंतपसा संखेज्जगुणा २ चरिमंतपदेसा य अचरिमंतपदेसा य दो वि विसेसाहिया ३ । दव्वट्ठपदेसट्टयाए - सव्वत्थोवे परिमंडलस्स संठाणस्स संखेज्जपदेसियस्स संखेज्जपदेसोगाढस्स दव्वट्टयाए एगे अचरिमे १ चरिमाइं संखेज्जगुणाई २ अचरिमं च चरिमाणि य दो वि विसेसाहियाई ३ चरिमंतपदेसा संखेज्जगुणा ४ अचरिमंतपएसा संखेज्जगुणा ५ चरिमंतपदेसा य अचरिमंतपदेसा य दो वि विसेसाहिया ६ । एवं वट्ठ- तंस - चउरंस- आयएसु वि जोएअव्वं । [८०२ प्र.] भगवन् ! संख्यातप्रदेशी संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान के अचरम, अनेक चरम, चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश में से द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से और द्रव्यप्रदेश इन दोनों की अपेक्षा से कौन अल्प, बहुव, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [८०२ उ.] गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा-संख्यातप्रदेशी संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डल- संस्थान का एक अचरम सबसे अल्प है (उसकी अपेक्षा) अनेक चरम संख्यातगुणे अधिक हैं, अचरम और बहुवचनान्त चरम, ये दोनों मिलकर) विशेषाधिक हैं। प्रदेशों की अपेक्षा - संख्यातप्रदेशी संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान के चरमान्तप्रदेश सबसे थोड़े हैं, (उनकी अपेक्षा) अचरमान्तप्रदेश संख्यातगुणे अधिक हैं, उनसे चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश दोनों (मिलकर) विशेषाधिक हैं । द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा-संख्यातप्रदेशीसंख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान का एक अचरम सबसे अल्प है, (उसकी अपेक्षा) अनेक चरम संख्यातगुणे हैं, उनसे ) एक अचरम और अनेक चरम, ये दोनों (मिलकर) विशेषाधिक हैं, (उनकी अपेक्षा) चरमान्तप्रदेश संख्यातगुणे हैं, उनसे) अचरमान्तप्रदेश संख्यातगुणे हैं, ( उनसे) चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश ये दोनों (मिलकर) विशेषाधिक हैं । इसी प्रकार की योजना वृत्त, व्यस्त्र, चतुरस्त्र और आयत संस्थान के (चरमादि के अल्पबहुत्व के) विषय कर लेनी चाहिए। ८०३. परिमंडलस्स णं भंते ! संठाणस्स असंखेज्जपएसियस्स संखेज्जपएसोगाढस्स अचरिमस्स Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ चरमपद] [३३ य चरिमाण य चरिमंतपएसाण य अचरिमंतपएसाण य दव्वट्ठयाए पएसट्टयाए दव्वट्ठपएसट्ठयाए कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा ४? गोयमा ! सव्वत्थोवे परिमंडलस्स संठाणस्स असंखेजपएसियस्स संखेजपएसोगाढस्स दव्वट्ठयाएएगे अचरिमे १ चरिमाइंसंखेजगुणाई २ अचरिमंच चरिमाणि य दो वि विसेसाहियाइं ३ पदेसट्ठयाएसव्वत्थोवा परिमंडलस्स संठाणस्स असंखेजपएसियस्स संखेजपएसोगाढस्स चरिमंतपएसा १ अचरिमंतपएसा संखेजगुणा २ चरिमंतपएसा य अचरिमंतपएसा य दो वि विसेसाहिया ३। दव्वट्ठपएसट्टयाए-सव्वत्थोवे परिमंडलस्स संठाणस्स असंखेजपएसियस्स संखेजपएसोगाढस्स दव्वट्ठयाए एगे अचरिमे १ चरिमाइं संखेजगुणाई २ अचरिमं च चरिमाणि य दो वि विसेसाहियाइं ३ चरिमंतपएसा संखेजगुणा ४ अचरिमंतपएसा संखेजगुणा ५ चरिमंतपएसा य अचरिमंतपएसा य दो वि विसेसाहिया ६। एवं जाव आयते। [८०३ प्र.] भगवन् ! असंख्यातप्रदेशी एवं संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान के अचरम, अनेक चरम, चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश में से द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से तथा द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? . __ [८०३ उ.] गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा-असंख्यातप्रदेशी एवं संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान का एक अचरम सबसे थोड़ा है, (उसकी अपेक्षा) अनेक चरम संख्यातगुणे अधिक हैं, (उनसे) एक अचरम और अनेक चरम, ये दोनों विशेषाधिक हैं। प्रदेशों की अपेक्षा-असंख्यातप्रदेशी संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान के चरमान्तप्रदेश, सबसे कम हैं, (उनकी अपेक्षा) अचरमान्तप्रदेश संख्यातगुणे हैं, (उससे) चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश, ये दोनों (मिलकर) विशेषाधिक हैं। द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा-असंख्यातप्रदेशी संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान का एक अचरम सबसे कम है, (उसकी अपेक्षा) अनेक चरम संख्यातगुणे अधिक हैं, (उनसे) एक अचरम और बहुत चरम, ये दोनों (मिलकर) विशेषाधिक हैं, (उनकी अपेक्षा) अचरमान्तप्रदेश संख्यातगुणे हैं, (उनसे) अचरमान्तप्रदेश संख्यातगुणे हैं, (उनसे) चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश, ये दोनों (मिलकर) विशेषाधिक हैं। ८०४. परिमंडलस्स णं भंते ! संठाणस्स असंखेजपदेसियस्स असंखेजपएसोगाढस्स अचरिमस्स य चरिमाण य चरिमंतपएसाण य अचरिमंतपएसाण य दव्वट्ठयाए पएसट्ठयाए दव्वट्ठपएसट्ठयाए कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा ४। गोयमा ! जहा रपणप्पभाए अप्पाबहुयं (सु. ७७७) तहेव णिरवसेसं भाणियव्वं एवं जाव आयते। [८०४ प्र.] भगवन् ! असंख्यातप्रदेशी एवं असंख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डसंस्थान के अचरम अनेक चरम, चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश में से द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से और द्रव्य एवं प्रदेशों Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] [प्रज्ञापनासूत्र की अपेक्षा से कौन, किससे, अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? [८०४ उ.] गौतम ! जैसे रत्नप्रभा पृथ्वी के चरमादि का अल्पबहुत्व (सू.७७७ में) प्रतिपादित किया गया है, वह सारा उसी प्रकार कहना चाहिए। इसी प्रकार (की प्ररुपणा) आयतसंस्थान तक (समझनी चाहिए।) ८०५. परिमंडलस्स णं भंते ! संठाणस्स अणंतपएसियस्स संखेजपएसोगाढस्स अचरिमस्स य ४ दव्वट्ठयाए ३ कतरेहिंतो अप्पा वा ४ ? गोयमा ! जहा संखेजपएसियस्स संखेजपएसोगाढस्स (सु. ८०२)।णवरं संकमे अणंतगुणा। एवं जाव आयते। [८०५ प्र.] भगवन् ! अनन्तप्रदेशी एवं संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान के अचरम, अनेक चरम, चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश में से द्रव्य की अपेक्षा, प्रदेशों की अपेक्षा एवं द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से कौन, किससे, अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? [८०५ उ.] गौतम ! जैसे (सू. ८०२ में) संख्यातप्रदेशावगाढ़ संख्यातप्रदेशी परिमण्डलसंस्थान के चरमादि के अल्पबहुतत्व के विषय में कहा, वैसे ही इसके विषय में कहना चाहिए। विशेष यह है कि संक्रम में अनन्तगुणे हैं। इसी प्रकार (वृत्तसंस्थान से लेकर) आयतसंस्थान तक कहना चाहिए। ८०६. परिमंडलस्स णं भंते ! संठाणस्स अणंतपएसियस्स असंखेजपएसोगाढस्स अचरिमस्स यः४? जहा रयणप्पभाए (सु. ७७७) । णवरं संकमे अणंतगुणा। एवं जाव आयते। [८०६ प्र.] भगवन् ! अनन्तप्रदेशी एवं असंख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डल संस्थान के अचरम, अनेक चरम, चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश में से द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से तथा द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से कौन, किससे अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक है ? [८०६ उ.] गौतम ! जैसे (सू. ७७७ में) रत्नप्रभापृथ्वी के चरम, अचरम आदि के विषय में अल्पबहुत्व कहा गया है, उसी प्रकार अनन्तप्रदेशी एवं असंख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान के चरम, अचरम आदि के अल्पबहुत्व के विषय में समझ लेना चाहिए। विशेषता यह है कि संकम में अनन्तगुणा है। इसी प्रकार (वृत्तसंस्थान से लेकर) यावत् आयतसंस्थान (के चरमादि के अल्पबहुत्व के विषय में समझ लेना चाहिए।) विवेचन - विशिष्ट परिमंडलादि के चरमादि के अल्पबहुत्व की प्ररुपणा - प्रस्तुत सोलह सूत्रों Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ चरमपद] [३५ (सू.७९१ से ८०६ तक) में परिमण्डलादि संस्थानों के संख्यातप्रदेशिकादि तथा संख्यातप्रदेशावगाढ़ादि विविध रुपों का प्रतिपादन करके उनके अचरम-चरमादि के अल्पबहुत्व की प्ररुपणा की गई है। ___ संख्यातप्रदेशी आदि संस्थानों के अवगाहन की प्ररूपणा-संख्यातप्रदेशी परिमण्डल आदि संस्थान संख्यातप्रदेशों में ही अवगाढ़ होता है, असंख्यातप्रदेशों में या अनन्तप्रदेशों में अवगाढ़ नहीं होता, क्योंकि संख्यातप्रदेशी परिमंडल आदि संस्थानों के प्रदेश संख्यात ही होते हैं। असंख्यातप्रदेशी परिमण्डल आदि संस्थानों का कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात प्रदेशों में अवगाह होता है, इसमें कोई विरोध नहीं है, किन्त उसका अनन्तप्रदेशों में अवगाह होना विरुद्ध है। इसी प्रकार अनन्तप्रदेशी परिमंडलादि संस्थानों का अवगाह भी कदाचित् संख्यातप्रदेशों में और कदाचित् असंख्यातप्रदेशों में होता है, किन्तु अनन्तप्रदेशों में नहीं क्योकि अनन्तप्रदेशी परिमंडलादि संस्थान का अनन्त आकाशप्रदेशों में अवगाह नहीं हो सकता। सैद्धान्तिक दृष्टि से समग्र लोकाकाश के प्रदेश असंख्यात ही है, अनन्त नहीं और लोकाकाश के बाहर पुद्गलों की गति या स्थिति हो नहीं सकती। अतः अनन्तप्रदेशी परिमंडलादि संस्थान या तो संख्यातप्रदेशों में अवगाहन करता है या असंख्यातप्रदेशों में, अनन्तप्रदेशों में उसका अवगाह सम्भव नहीं है। पंचविशेषणविशिष्ट परिमण्डलादि संस्थानों का चरमादि की दृष्टि से स्वरूपविचार - प्रस्तुत ५ सूत्रों (७९७ से ८०१ तक) में निनोक्त पांच विशेषणों से युक्त परिमंडलसंस्थानादि का चरमादि ६ की दृष्टि से विचार किया गया है - . १. संख्यातप्रदेशी संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलादि संस्थान २. असंख्यातप्रदेशी संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलादि संस्थान ३. असंख्यातप्रदेशी असंख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलादि संस्थान ४. अनन्तप्रदेशी संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलादि संस्थान ५. अनन्तप्रदेशी असंख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलादि संस्थान चरमादि ६ पद वे ही हैं, जिनको लेकर रत्नप्रभापृथ्वी के चरमादि स्वरूप का विचार किया गया था और उपर्युक्त विशेषणविशिष्ट सभी परिमण्डलादि संस्थानों के चरमादिस्वरूप विषयक प्रश्र का उत्तर भी वही है, जो रत्नप्रभा के चरमादिविषयक प्रश्नों का उत्तर है। वह है- ये चरम, अचरम, अनेक चरम, अनेक अचरम चरमान्तप्रदेश या अचरमान्तप्रदेश नहीं हैं किन्तु रत्नप्रभापृथ्वी के समान इन संस्थानों की अनेक अवयवों के अविभागात्मक रुप में विवक्षा की जाए तो ये प्रत्येक एक अचरम हैं, अनेक चरमरूप हैं तथा प्रदेशों की विवक्षा की जाए तो चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश हैं। १. प्रज्ञापनासूत्र मलय वृत्ति, पत्रांक २४४ २. (क) पण्णवणासुत्तं भा. १ (मूलपाठ) पृ. २०२-२०३ (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय वृत्ति, पत्रांक २४४ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] [प्रज्ञापनासूत्र पूर्वोक्त पांच विशेषणों से युक्त परिमण्डलादि का अचरमादिचार की दृष्टि से अल्पबहुत्व - संख्यातप्रदेशी संख्यातप्रदेशावगाढ़ आदि पूर्वोक्त पांच विशेषणों से युक्त परिमण्डल आदि ५ संस्थानों के अचरम, अनेकचरम, चरमान्तप्रदेश एवं अचरमान्तप्रदेश, इन चारों के अल्पबहुत्व का विचार किया है- द्रव्य, प्रदेश तथा द्रव्य-प्रदेश दोनों की दृष्टि से। इन पांचों में से तीसरे और पांचवें को छोड़ कर बाकी के अचरमादि चार की अपेक्षा से अल्पबहुत्व का उत्तर प्रायः एक-सा ही है, जैसे - द्रव्य की अपेक्षा से एक अचरम सबसे अल्प है, उनसे अनेक चरम संख्यातगुणे हैं, उनसे एक अचरम और अनेक चरम दोनों मिलकर विशेषाधिक हैं। प्रदेशों की अपेक्षा - सबसे कम चरमान्तप्रेदश हैं, अचरमान्तप्रदेश उनसे संख्यातगुणे अधिक हैं, उनसे चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश दोनों मिलकर विशेषाधिक हैं तथा द्रव्य और प्रदेश की अपेक्षा से भी अल्पबहुत्व का कम और निर्देश इसी प्रकार है। शेष दो (असंख्यातप्रदेशी-असंख्यातप्रदेशावगाढ़ तथा अनन्तप्रदेशी-असंख्यातप्रदेशावगाढ़) के अचरमादि चार की दृष्टि से अल्पबहुत्व का विचार रत्नप्रभापृथ्वी के चरमादिविषयक अल्पबहुत्व के समान है। इसमें दो जगह अन्तर है, पूर्व में जहाँ अनेक चरम और अचरमान्तप्रदेश को उपर्युक्त में संख्यातगुणा बताया है, वहाँ यहाँ पर अनेक चरम और अचरमान्तप्रदेश को असंख्यातगुणा अधिक बताया गया है। शेष सब पूर्ववत् ही है। एक अचरम से अनेक चरम को संख्यातगुण अधिक इसलिए बताया है कि समग्ररूप से परिमण्डलादि संस्थान संख्यातप्रदेशात्मक होते हैं। 'संक्रम' में अनन्तगुणा का तात्पर्य - जब क्षेत्रविषयक चिन्तन से द्रव्यचिन्तन के प्रति संकमण अर्थात् परिवर्तन होता है, तब बहुवचनान्त चरम अनन्तगुणे होते हैं। उसकी वक्तव्यता इस प्रकार है - सबसे कम एक अचरम है, क्षेत्रत: बहुवचनान्त चरम असंख्यातगुणे हैं और द्रव्यतः अनन्तगुणे हैं। उनसे अचरम और बहुवचनान्त चरम दोनों मिलकर विशेषाधिक हैं। इस प्रकार की अल्पबहुत्वविषयक विशेषता केवल दो प्रकार के परिमण्डलादि संस्थानों में है-(१) अनन्तप्रदेशी-संख्यातप्रदेशावगाढ़ संस्थान में और अनन्तप्रदेशी-असंख्यातप्रदेशावगाढ़ संस्थान में। . गति आदि की अपेक्षा से जीवों की चरमाचरमवक्तव्यता ८०७. जीवे णं भंते ! गतिचरिमेणं किं चरिमे अचरिमे? गोयमा ! सिय चरिमे सिय अचरिमे । [८०७ प्र.] भगवन् ! जीव गतिचरम (की अपेक्षा से) चरम है अथवा अचरम है ? [८०७ उ.] गौतम ! (जीव गतिचरम की अपेक्षा से) कथंचित् (कोई) चरम है, कथंचित् (कोई) १. (क) प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका, भा. ३, पृ. २०२ से २०४ तक (ख) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक २४४ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ चरमपद] [३७ अचरम है। ८०८.[१]णेरइए णं भंते ! गतिचरिमेणं किं चरिमे अचरिमे ? गोयमा ! सिय चरिमे सिय अचरिमे । [८०८-१ प्र.] भगवन् ! (एक) नैरयिक गतिचरम की अपेक्षा से चरम है या अचरम है ? [८०८-१ उ.] गौतम ! (वह गतिचरम की दृष्टि से) कथंचित् चरम है और कथंचित् अचरम है। [२] एवं णिरंतरं जाव वेमाणिए । [८०८-२] इसी प्रकार (एक असुरकुमार से लेकर) लगातार (एक) वैमानिक देव तक (जानना चाहिए।) ८०९.[१] णेरइया णं भंते ! गतिचरिमेणं किं चरिमा अचरिमा ? गोयमा ! चरिमा वि अचरिमा वि । [८०९-१ प्र.] भगवन् ! (अनेक) नैरयिक गतिचरम से चरम हैं अथवा अचरम हैं ? [८०९-१ उ.] गौतम ! (अनेक नैरयिक गतिचरम की अपेक्षा से) चरम भी हैं और अचरम भी हैं। [२] एवं णिरंतरं जाव वेमाणिया। [८०९-२] इसी प्रकार लगातार (अनेक) वैमानिक देवों तक (कहना चाहिए।) ८१०.[१]णेरइए णं भंते ! ठितीचरिमेणं किं चरिमे अचरिमे ? गोयमा ! सिय चरिमे सिय अचरिमे । [८१०-१ प्र.] भगवन् ! (एक) नैरयिक स्थितिचरम की अपेक्षा से चरम है या अचरम है ? [८१०-१ उ.] गौतम ! (एक नैरयिक स्थितिचरम की दृष्टि से) कथंचित् चरम है, कथंचित् अचरम [२] एवं णिरंतरं जाव वेमाणिए। [८१०-२] लगातार (एक) वैमानिक देव-पर्यन्त इसी प्रकार (कथन करना चाहिए।) ८११. [१]णेरइया णं भंते ! ठितीचरिमेणं किं चरिमा अचरिमा ? गोयमा ! चरिमा वि अचरिमा वि । [८११-१ प्र.] भगवन् ! (अनेक) नैरयिक स्थितिचरम की अपेक्षा से चरम है अथवा अचरम हैं ? Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ] [प्रज्ञापनासूत्र [८११-१ उ.] गौतम ! (स्थितिचरम की दृष्टि से अनेक नैरयिक) चरम भी हैं और अचरम भी हैं। [२] एवं निरंतरं जाव वेमाणिया । [८११-२] लगातार (अनेक) वैमानिक देवों तक इसी प्रकार (प्ररूपणा करनी चाहिए।) ८१२.[१]णेरइए णं भंते ! भवचरिमेणं किं चरिमे अचरिमे ? गोयमा ! सिय चरिमे सिय अचरिमे। . [८१२-१ प्र.] भगवन् ! (एक) नैरयिक भवचरम की दृष्टि से चरम है या अचरम ? [८१२-१ उ.] गौतम ! (भवचरम की दृष्टि से एक नैरयिक) कथंचित् चरम है और कथंचित् अचरम है [२] एवं निरन्तरं जाव वेमाणिए । [८१२-२] (यों) लगातार (एक) वैमानिक तक इसी प्रकार (कहना चाहिए।) ८१३.[१] णेरइया णं भंते ! भवचरिमेणं किं चरिमा अचरिमा ? गोयमा ! चरिमा वि अचरिमा वि । [८१३-१ प्र.] भगवन् ! (अनेक) नैरयिक भवचरम की दृष्टि से चरम हैं या अचरम हैं ? [८१३-१ उ.] गौतम ! (अनेक नैरयिक जीव भवचरम की अपेक्षा से) चरम भी हैं और अचरम भी हैं [२] एवं निरंतरं जाव वेमाणिया। [८१३-२] लगातार (अनेक) वैमानिक देवों तक इसी प्रकार समझना चाहिए। ८१४.[१] णेरइए णं भंते ! भासाचरिमेणं किं चरिमे अचरिमे ? गोयमा ! सिय चरिमे सिय अचरिमे । [८१४-१ प्र.] भगवन् ! भाषाचरम की अपेक्षा से (एक) नैरयिक चरम है या अचरम? [८१४-१ उ.] गौतम ! (भाषाचरम की दृष्टि से) एक नैरयिक कथंचित् चरम है तथा कथंचित् अचरम [२] एवं निरंतरं जाव वेमाणिए । [८१४-२] इसी तरह लगातार (एक) वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ चरमपद] [३९ ८१५.[१] णेरइया णं भंते भासाचरिमेणं किं चरिमा अचरिमा ? गोयमा ! चरिमा वि अचरिमा वि । [८१५-१ प्र.] भगवन् ! भाषाचरम की अपेक्षा से (अनेक) नैरयिक चरम हैं अथवा अचरम हैं ? [८१५-१ उ.] गौतम ! (वे भाषाचरम की दृष्टि से) चरम भी हैं और अचरम भी हैं। [२] एवं एगिंदियवज्जा निरंतरं जाव वेमाणिया । [८१५-२] एकेन्द्रिय जीवों को छोड़कर वैमानिक देवों तक लगातार इसी प्रकार (कथन करना चाहिए।) ८१६.[१] णेरइए णं भंते ! आणापाणुचरिमेणं किं चरिमे अचरिमे ? गोयमा ! सिय चरिमे सिय अचरिमे । [८१६-१ प्र.] भगवन् ! (एक) नैरयिक आनापान (श्वासोच्छ्वास)-चरम की अपेक्षा से चरम है या अचरम? [८१६-१ उ.] गौतम ! (आनापानचरम की दृष्टि से एक) नैरयिक कथंचित् चरम है, कथंचित् अचरम है। [२] एवं णिरंतरं जाव तेमाणिए । [८१६-२] इसी प्रकार लगातार (एक) वैमानिक पर्यन्त (प्ररूपणा करनी चाहिए।) ८१७.[१] णेरड्या णं भंते ! आणापाणुचरिमेणं किं चरिमा अचरिमा ? गोयमा ! चरिमा वि अचरिमा वि । [८१७-२ प्र.] भगवन् ! (अनेक) नैरयिक आनपानचरम की अपेक्षा से चरम हैं या अचरम? [८१७-२ उ.] गौतम ! (आनपानचरम की दृष्टि से) चरम भी हैं और अचरम भी हैं। [२] एवं निरंतरं जाव वेमाणिया । [८१७-२] इसी प्रकार अविच्छिन्नरूप से (अनेक) वैमानिक देवों तक (प्ररूपणा करनी चाहिए।) ८१८.[१] णेरइए णं भंते ! आहारचरिमेणं किं चरिमे अचरिमे ? गोयमा ! सिय चरिमे सिय अचरिमे । [८१८-१ प्र.] भगवन् ! आहारचरम की अपेक्षा से (एक) नैरयिक चरम है अथवा अचरम? Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र [८१८-१ उ.] गौतम ! (आहारचरम की दृष्टि से एक नैरयिक) कथंचित् चरम है और कथंचित् अचरम है। ४० ] [ २ ] एवं निरंतरं जाव वेमाणिए । [८१८-२] लगातार (एक) वैमानिक पर्यन्त इसी प्रकार ( कहना चाहिए ।) ८१९. [१] नेरइयाणं भंते ! आहारचरिमेणं किं चरिमा अचरिमा ? गोयमा ! चरिमा वि अचरिमा वि। [८१९-१ प्र.] भगवन् ! (अनेक) नैरयिक आहारचरम की दृष्टि से चरम हैं अथवा अचरम हैं ? [८१९ - १ उ.] गौतम ! ( अनेक नैरयिक आहारचरम की दृष्टि से) चरम भी हैं और अचरम भी हैं । [२] एवं निरंतरं जाव वेमाणिया । [८१९-२] वैमानिक देवों तक निरन्तर इसी प्रकार (प्ररूपणा करनी चाहिए ।) ८२०. [ १ ] णेरइए णं भंते ! भावचरिमेणं किं चरिमे अचरिमे ? गोयमा ! सिय चरिमे सिय अचरिमे । [८२०-१ प्र.] भगवन् ! (एक) नैरयिक भावचरम की अपेक्षा से चरम है अथवा अचरम ? [८२० - १ उ.] गौतम ! ( एक नैरयिक भावचरम की अपेक्षा से) कथंचित् चरम और कथञ्चित् अचरम है। [२] एवं निरंतरं जाव वेमाणिए । [८२०-२] इसी प्रकार लगातार (एक) वैमानिक पर्यन्त (कथन करना चाहिए।) ८२१. [१] णेरड्या णं भंते ! भावचरिमेणं किं चरिमा अचरिमा ? गोयमा ! चरिमा वि अचरिमा वि । [८२१-१ प्र.] भगवन् ! (अनेक) नैरयिक भावचरम की अपेक्षा से चरम हैं या अचरम हैं ? [८२१ - १ उ.] गौतम ! ( अनेक नैरयिक भावचरम की अपेक्षा से) चरम भी हैं और अचरम भी हैं । [२] एवं निरंतरं जाव वेमाणिया । [८२१ - २] इसी प्रकार लगातार (अनेक) वैमानिकों तक (प्रतिपादन करना चाहिए।) ८२२. [ १ ] णेरइए णं भंते ! वण्णचरिमेणं किं चरिमे अचरिमे ? Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ चरमपद] गोयमा ! सिय चरिमे सिय अचरिने । [८२२-१ प्र.] भगवन् ! (एक) नैरयिक वर्णचरम की अपेक्षा से चरम है अथवा अचरम है ? [८२२-१ उ.] गौतम ! (एक नैरयिक वर्णचरम की दृष्टि से) कथंचित् चरम है और कथंचित् अचरम ट [२] एवं निरंतरं जाव वेमाणिए । [८२२-२] इसी प्रकार निरन्तर (एक) वैमानिक पर्यन्त (कहना चाहिए ।) ८२३.[१] णेरइया णं भंते ! वण्णचरिमेणं किं चरिमा अचरिमा ? गोयमा ! चरिमा वि अचरिमा वि । [८२३-१ प्र.] भगवन् ! (अनेक) नैरयिक वर्णचरम की अपेक्षा से चरम है या अचरम हैं ? [८२३-१ उ.] गौतम ! (अनेक नैरयिक वर्णचरम की अपेक्षा से) चरम भी हैं और अचरम भी हैं । [२] एवं निरंतरं जाव वेमाणिए । [८२३-२] इसी प्रकार लगातार (अनेक) वैमानिक देवों तक (कथन करना चाहिए।) ८२४.[१]णेरडए णं भंते ! गंधचरिमेणं किं चरिमे अचरिमे? गोयमा ! सिय चरिमे सिय अचरिमे।। [८२४-१ प्र.] भगवन् ! (एक) नैरयिक गन्धचरम की अपेक्षा से चरम है अथवा अचरम है ? [८२४-१ उ.] गौतम ! (एक नैरयिक गन्धचरम की दृष्टि से) कथंचित् चरम है और कथंचित् अचरम [२] एवं निरंतरं जाव वेमाणिए। [८२४-२] लगातार (एक) वैमानिक पर्यन्त इसी प्रकार (प्ररूपणा करनी चाहिए।) ८२५. [१] णेरइया णं भंते ! गंधचरिमेणं किं चरिमा अचरिमा ? गोयमा ! चरिमा वि अचरिमा वि । [८२५-१ प्र.] भगवन् ! गन्धचरम की अपेक्षा से (अनेक) नैरयिक चरम हैं अथवा अचरम हैं ? [८२५-१ उ.] गौतम ! (अनेक नैरयिक गन्धचरम की अपेक्षा से) चरम भी हैं और अचरम भी हैं । [२] एवं निरंतरं जाव वेमाणिया । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] [प्रज्ञापनासूत्र [८२५-२] इसी प्रकार अविच्छिन्नरूप से वैमानिक देवों तक (प्ररुपणा करनी चाहिए ।) ८२६.[१] णेरइए णं भंते ! रसचरिमेणं किं चरिमे अचरिमे ? गोयमा ! सिय चरिमे सिय अचरिमे । [८२६-१ प्र.] भगवन् ! (एक) नैरयिक रसचरम की अपेक्षा से चरम है या अचरम है ? [८२६-१ उ.] गौतम ! (एक नैरयिक रसचरम की अपेक्षा से) कथंचित् चरम है और कथंचित् अचरम है। . [२] एवं निरंतरं जाव वेमाणिए । [८२६-२] निरन्तर (एक) वैमानिक पर्यन्त इसी प्रकार (प्रतिपादन करना चाहिए ।) ८२७.[१] नेरइया णं भंते ! रसचरिमेणं किं चरिमा अचरिमा ? गोयमा ! चरिमा वि अचरिमा वि । [८२७-१ प्र.] भगवन् ! (अनेक) नैरयिक रसचरम की अपेक्षा से चरम हैं । अथवा अचरम ? [८२७-१ उ.] गौतम ! (वे रसचरम की दृष्टि से) चरम भी हैं और अचरम भी हैं । [२] एवं निरंतरं जाव वेमाणिए । [८२७-२] इसी प्रकार लगातार वैमानिक देवों तक (कहना चाहिए ।) ८२८.[१] णेरइए णं भंते ! फासचरिमेण किं चरिमे अचरिमे ? गोयमा ! सिय चरिमे सिय अचरिमे । [८२८-१ प्र.] भगवन् ! (एक) नैरयिक स्पर्शचरम की अपेक्षा से चरम है अथवा अचरम है ? [८२८-१ उ.] गौतम ! (एक नैरयिक स्पर्शचरम की दृष्टि से) कथंचित् चरम और कथंचित् अचरम [२] एवं निरंतरं जाव वेमाणिए । [८२८-२] लगातार (एक) वैमानिक पर्यन्त इसी प्रकार (निरूपण करना चाहिए ।) ८२९.[१] णेरड्या णं भंते ! फासचरिमेणं किं चरिमा अचरिमा? गोयमा ! चरिमा वि अचरिमा वि । [८२९-१ प्र.] भगवन् ! (अनेक) नैरयिक स्पर्शचरम की अपेक्षा से चरम हैं अथवा अचरम हैं ? Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ चरमपद] [४३ [८२९-१ उ.] गौतम ! (स्पर्शचरम की अपेक्षा से अनेक नैरयिक) चरम भी हैं। और अचरम भी हैं । [२] एवं निरंतरं जाव वेमाणिया । संगहणिगाहा - गति ठिति भवे य भासा आणापाणुचरिमे य बोद्धव्वे। आहारा भावचरिमे वण्ण रसे गंध फासे य ॥१९१॥ ॥पण्णवणाए भगवईए दसमं चरिमपयं समत्तं ॥ [८२९-२] इसी प्रकार (की प्ररुपणा) लगातार (अनेक) वैमानिक देवों तक (करनी चाहिए ।) [संग्रहणीगाथार्थ--] १. गति, २ स्थिति, ३. भव, ४. भाषा, ५. आनापान (श्वासोच्छ्वास), ६. आहार, ७. भाव, ८. वर्ण, ९. गन्ध, १०. रस और ११. स्पर्श, (इन ग्यारह द्वारों की अपेक्षा से जीवों की चरम-अचरम प्ररूपणा) समझनी चाहिए ॥१९१ ॥ विवेचन - गति आदि ग्यारह की अपेक्षा से जीवों के चरमाचरमत्व का निरूपण - प्रस्तुत २३ सूत्रों (सू. ८०७ से ८२९ तक) में गति आदि ग्यारह द्वारों की अपेक्षा से चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के चरमअचरम का निरूपण किया गया है । गतिचरम आदि पदों की व्याख्या - (१) गतिचरम-गतिअचरम - गतिपर्यायरूप चरम को गतिचरम कहते हैं। प्रश्न के समय जो जीव मनुष्यगति में विद्यमान है और उसके पश्चात् फिर कभी किसी गति में उत्पन्न नहीं होगा, अपितु मुक्ति प्राप्त कर लेगा, इस प्रकार उस जीव की वह मनुष्यगति चरम अर्थात् अन्तिम है, वह गतिचरम है, जो जीव पृच्छाकालिका गति के पश्चात् पुनः किसी गति में उत्पन्न होगा, वही गति जिसकी अन्तिम नहीं है, वह गति-अचरम है। सामान्यत: गतिचरम मनुष्य ही हो सकता है, क्योंकि मनुष्यगति से ही मुक्ति प्राप्त होती है। इस दृष्टि से तद्भवमोक्षगामी जीव गतिचरम है, शेष गति-अचरम हैं । विशेष की दृष्टि से विचार किया जाय तो जो जीव जिस गति में अन्तिम वार है, वह उस गति की अपेक्षा से गतिचरम है। जैसेपृच्छा के समय कोई जीव नरकगति में विद्यमान है, किन्तु नरक से निकलने के बाद फिर कभी नरकगति में उत्पन्न नहीं होगा, उसे (विशेषापेक्षया) नरकगतिचरम कहा जा सकता है, किन्तु सामान्यत: उसे गतिचरम नहीं कहा जा सकता, क्योंकि नरकगति से निकलने पर उसे दूसरी गति में जन्म लेना ही पड़ेगा। अतएव सामान्य गतिचरम मनुष्य ही होता है। सामान्य जीव विषयक जो गतिचरम सूत्र है, वहाँ सामान्यदृष्टि से मनुष्य को ही कथंचित् गतिचरम समझना चाहिए। परन्तु यहाँ आगे के जितने भी सूत्र हैं, वे विशेषदृष्टि को लेकर हैं, इसलिए गतिचरम का अर्थ हुआ - जो जीव जिस गतिपर्याय से निकल कर पुन: उसमें उत्पन्न नहीं होगा, वह उस गति की अपेक्षा से गतिचरम है और जो पुनः उसमें उत्पन्न होगा, वह उस गति की अपेक्षा से गतिअचरम है।' १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति., पत्रांक २४५ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र (२) स्थिति-चरम - अचरम स्थितिपर्याय रूप चरम को स्थितिचरम कहते हैं। जो नारक जीव पृच्छा के समय जिस स्थिति (आयु) का अनुभव कर रहा है, वह स्थिति अगर उसकी अन्तिम है, फिर कभी उसे वह स्थिति प्राप्त नहीं होगी तो वह नारक स्थिति की अपेक्षा चरम कहलाता है। यदि भविष्य में फिर कभी उसे उस स्थिति का अनुभव करना पड़ेगा, तो वह स्थिति - अचरम है। ४४ ] (३) भव- चरम - अचरम - भवपर्यायरूप चरम भवचरम है। अर्थात् - पृच्छाकाल में जिस नारक आदि जीव का वह वर्तमान भव अन्तिम है, वह भवचरम है और जिसका वह भव अन्तिम नहीं है, वह भवअचरम है। बहुत-से नारक ऐसे भी हैं, जो वर्तमान नारकभव के पश्चात् पुन: नारकभव में उत्पन्न नहीं होंगे, भवचरम है, किन्तु जो नारक भविष्य में पुन: नारकभव में उत्पन्न होंगे, वे भव - अचरम हैं । , वे (४) भाषा - चरम - अचरम जो जीव भाषा की दृष्टि से चरम हैं, अर्थात् - जिन्हें यह भाषा अन्तिम रूप में मिली है, फिर कभी नहीं मिलेगी, वे भाषाचरम हैं, जिन्हें फिर भाषा प्राप्त होगी, वे भाषा - अचरम हैं। एकेन्द्रिय जीव भाषा रहित होते हैं, क्योंकि उन्हें जिह्वेन्द्रिय प्राप्त नहीं होती, इसलिए वे भाषाचरम या भाषाअचरम की कोटि में परिगणित नहीं होते । - (५) आन-प्राण ( श्वासोच्छ्वास ) - चरम - अचरम आनप्राणपर्यायरूप चरम आनप्राणचरम कहलाता । पृच्छा के समय जो जीव उस भव में अन्तिम श्वासोच्छ्वास ले रहा होता है, उसके बाद उस भव में फिर श्वासोच्छ्वास नहीं लेगा, वह श्वासोच्छ्वासचरम है, उससे भिन्न जो हैं, वे श्वासोच्छ्वास - अचरम हैं। (६) आहार- चरम - अचरम आहारपर्यायरूप चरम को आहारचरम कहते हैं। सामान्यतया आहारचरम मुक्त मनुष्य होते हैं । विशेषतया उस गति या भव की दृष्टि से जो अन्तिम आहार ले रहा हो, वह उस गति या भव की अपेक्षा आहारचरम है, जो उससे भिन्न हो, वह आहारअचरम है। - (७) भाव-चर-अचरम - औदयिक आदि पांच भावों के अर्थ में यहाँ भाव शब्द है । औदयिक आदि भावों में से जो भाव जिस जीव के लिए अन्तिम हो, फिर कभी अथवा वर्त्तमान गति में फिर कभी वह भाव नहीं प्राप्त होगा, तब उस जीव को भावचरम कहा जायेगा, इसके विपरीत भावअचरम है। 1 १. ( ८-११) वर्ण - गन्ध-रस-स्पर्श- चरम - अचरम जिस जीव के लिए वर्ण, गन्ध, रस या स्पर्श अन्तिम हो, फिर उसे प्राप्त न हो, वह वर्णादि चरम है, जिसे पुन: वर्णादि प्राप्त हो रहे हैं, होंगे भी, वह वर्णादिअचरम है। इन ग्यारह द्वारों के माध्यम से एकवचन और बहुवचन के रूप में नारकों से लेकर वैमानिकों तक के चरम - अचरम विषयक प्रश्नों के उत्तर एक से हैं। एकवचनात्मक नारकादि जीव कथंचित् चरम है, कथंचित् प्रज्ञापनांसूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २४५ - २४६ - Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ चरमपद ] [ ४५ अचरम है, अर्थात् कोई नारक आदि चरम होता है, कोई अचरम । इसी प्रकार बहुवचनात्मक नारकादि जीव चरम भी हैं और अचरम भी है ।" ॥ प्रज्ञापनासूत्र : दसवाँ चरमपद समाप्त ॥ १. (क) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भा. ३, पृ. २१९ से २३१ (ख) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक २४६ ** Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्कारसमं भासापयं ग्यारहवाँ भाषापद प्राथमिक 2. यह प्रज्ञापनासूत्र का ग्यारहवाँ भाषापद' है । भाषापर्याप्त जीवों को अपने मनोभाव प्रकट करने के लिए भाषा एक मुख्य माध्यम है, इसके विना विचारों का आदान-प्रदान, शास्त्रीय एवं व्यावहारिक अध्ययन तथा ज्ञानोपार्जन में कठिनता होती है। मन के बाद 'वचन' बहुत बड़ा साधन है जीव के लिए। इससे कर्मबन्धन और कर्मक्षय दोनों ही हो सकते हैं, आराधना भी हो सकती है, विराधना भी। इस हेतु से शास्त्रकार ने भाषापद की रचना की है। प्रस्तुत भाषापद में विशेषरूप से यह विचार किया गया है कि भाषा क्या है ? वह अवधारिणीअवबोधबीज है या नहीं? अवधारणी है तो ऐसी अवधारणी भाषा सत्यादि चार प्रकार की भाषाओं में से कौन-सी है ? यदि चारों प्रकार की है, तो कैसे ? विरोधनी भाषा कौन-सी है ? भाषा का मूल स्रोत क्या है ? यदि जीव है तो क्यों ? भाषा की उत्पत्ति कहाँ से और कैसे होती है ? भाषा की आकृति कैसी है ? भाषा का उद्भव और अन्त किस योग से व कहाँ होता है ? भाषाद्रव्य में पुद्गलों का ग्रहण और निर्गमन किस-किस योग से होता है ? भाषा का भाषणकाल कितना है ? भाषा मुख्यतया कितने प्रकार की है ? प्रस्तुत चार प्रकार की भाषाओं में भगवान् द्वारा अनुमत भाषाएँ कितनी हैं ? तथा भाषाओं में प्रतिनियतरूप से समझी जा सके, ऐसी पर्याप्तिका कौन-कौन-सी हैं तथा इससे विपरीत अपर्याप्तिका कौन-कौन-सी हैं ? फिर पर्याप्तिका के सत्या और मृषा इन दो भेदों के प्रत्येक के जनपदसत्यादि तथा क्रोधनिःसृतादि रूप से कमशः दस-दस प्रकार बताए गए हैं । तदनन्तर अपर्याप्तिका के सत्यामृषा और असत्यमृषा ये दो भेद बताकर इनके कमश: दस और बारह भेद बताए गये हैं । तत्पश्चात् समस्त जीवों में कौन-कौन भाषक हैं, कौन अभाषक ? तथा नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक पूर्वोक्त चार भाषाओं में कौन-कौन-सी भाषा बोलते हैं ? इसका स्पष्टीकरण किया गया है । प्रस्तुत पद में बीच में और अन्त में व्यक्ति और जाति की दृष्टि से स्त्री-पुरुष-नपुंसक वचन, स्त्री-पुरुषनपुंसक-प्रज्ञापनी भाषा, प्रज्ञापनी-सत्या है या अप्रज्ञापनी (मृषा) है ? विशिष्ट संज्ञानवान् के अतिरिक्त Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद] [४७ नवजात अबोध शिशुओं या अपरिपक्कावस्था में उष्ट्रादि पशुओं द्वारा बोली जाने वाली भाषा क्या सत्य है? तत्पश्चात् पुनः पुरुषवाचक एकवचन-बहुवचन, स्त्रीवाचक एकवचन बहुवचन, नपुंसकवाचक एकवचन-बहुवचन शब्दों के प्रयोग वाली भाषा प्रज्ञापनी (सत्या) है या मृषा ? तथा सोलह प्रकार के वचन, भाषा के चार प्रकार तथा इन्हें उपयोगपूर्वक बोलने वालों तथा उपयोगरहित बोलने वाले जीवों में से आराधक-विराधक कौन-कौन हैं ? एवं सत्यभाषक, असत्यभाषक, मिश्रभाषक और व्यवहारभाषक, इन चारों में से कौन, किससे अल्प, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक है ? इन सब पर विशद चर्चा की गई भाषा के योग्य अर्थात् भाषा-वर्गणा के द्रव्य (पुद्गल) अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक होते हैं तथा वह स्कन्ध भी क्षेत्र की दृष्टि से असंख्यातप्रदेश में स्थित हो तभी भाषायोग्य होता है, अन्यथा नहीं। काल की दृष्टि से भाषा के पुद्गल एक समय से लेकर असंख्यात समय तक की स्थिति वाले होते हैं, अर्थात् उन पुद्गलों की भाषारूप में परिणति एक समय तक भी रहती है और अधिक से अधिक असंख्यात समयों तक भी रहती है। भाषा के लिए ग्रहण किये गए पुद्गलों में रूप, रस, गन्ध और स्पर्श के जो प्रकार हैं, वे प्रत्येक भाषापुद्गलों में एकसरीखे नहीं होते, उनमें पुद्गलों के सभी प्रकारों का समावेश हो जाता है। अर्थात् पुद्गल का रस, गन्धादि रूप में कोई भी परिणाम भाषायोग्यपुदगलों में न हो, ऐसा सम्भव नहीं है। हाँ, स्पर्शो में विरोधी स्पर्शों में से एक ही स्पर्श होता है, इसलिए प्रत्येक भाषापुद्गल में दो से लेकर चार स्पर्शों तक के पुद्गल होते हैं। ग्रहण किये गए भाषा के पुद्गल भाषा के रूप में परिणत होकर बाहर निकलते हैं, इसमें सिर्फ दो समय जितना काल व्यतीत होता है क्योंकि प्रथम समय में ग्रहण और द्वितीय समय में उसका निसर्ग होता है। इस प्रकार जीव द्वारा ग्रहण किये जाने वाले भाषा-द्रव्यों के अनेक विकल्पों की सांगोपांग चर्चा है। वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शादिविशिष्ट जिन भाषाद्रव्यों को जीव भाषा के रूप में ग्रहण करता है, वे स्थित होते हैं या अस्थित ? यदि स्थित होते हैं तो आत्मस्पृष्ट होते हैं या नहीं? इसका तात्पर्य यह है कि पुद्गल तो समग्र लोकाकाश में भरे है, परन्तु आत्मा तो शरीरप्रमाण ही है। ऐसी स्थिति में प्रश्न होता है कि जीव चाहे जहाँ से भाषापुद्गलों को ग्रहण करता है या आत्मा के साथ स्पर्श में आए हुए पुद्गलों को ही ग्रहण करता है ? इसके साथ ही अन्य समाधान भी किये गये हैं - (१) जीव आत्मस्पृष्ट भाषापुद्गलों का ही ग्रहण करता है। (२) आत्मा के प्रदेशों का अवगाहन आकाश के जितने प्रदेशों में है, उन्हीं प्रदेशों में रहे हुए भाषापुद्गलों का ग्रहण होता है। (३) उस-उस आत्मप्रदेश से जो भाषापुद्गल निरन्तर हों, अर्थात् आत्मा के उस-उस प्रदेश में अव्यवहित रूप से जो भाषापुद्गल होते हैं, उनका ग्रहण होता है। (४) चाहे वे पदगल छोटे स्कन्ध के रूप में हों या बाद हण होता है। (५) ऐसे ग्रहण किये जाने वाले भाषा द्रव्य ऊर्ध्व, अध: या तिर्यग् दिशा में स्थित होते हैं। (६) इन भाषाद्रव्यों का जीव आदि में, मध्य में और अन्त में भी ग्रहण करता है। (७) तथा उन्हें वह आनुपूर्वी Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ] । प्रज्ञापनासूत्र (क्रम से) ग्रहण करता है, जो आसन्न (निकट) हो उसे ग्रहण करता है तथा (८) छह ही दिशाओं में से आए हुए भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है। (९) जीव अमुक समय तक सतत बोलता रहे तो उसे निरन्तर भाषाद्रव्य ग्रहण करना पड़ता है। (१०) यदि बोलना सतत चालू न रखे तो सान्तर ग्रहण करता है। (११) भाषा लोक के अन्त तक जाती है। इसलिए भाषारूप में गृहीत पुद्गलों का निर्गमन दो प्रकार से होता है - (१) जिस प्रमाण में वे ग्रहण किये हों, उन सब पुद्गलों के पिण्ड का उसी रूप में (ज्योंका-त्यों) निर्गमन होता है, अर्थात् वक्ता भाषावर्गणा के पुद्गलों के पिण्ड को अखडरूप में ही बाहर निकालता है, वह पिण्ड अमुक योजन जाने के बाद ध्वस्त हो जाता है, (उसका भाषारूप परिणमन समाप्त हो जाता है) । (२) वक्ता यदि गृहीत पुद्गलों को भेद (विभाग) करके निकालता है तो वे पिण्ड सूक्ष्म हो जाते है, शीघ्र ध्वस्त नहीं होते, प्रस्तुत संपर्क में आने वाले अन्य पुद्गलों को वासित (भाषारुप में परिणत) कर देते हैं । इस कारण अनन्तगुणे बढ़ते-बढ़ते वे लोक के अन्त का स्पर्श करते हैं। भाषा पुद्गलों का ऐसा भेदन खण्ड, प्रतर, चूर्णिका, अनुतटिका और उत्करिका, यों पांच प्रकार से होता है, यह दृष्टान्त तथा अल्पबहुत्व के साथ बताया है।' + १. (क) पण्णवणासुत्तं भा. १ (ग) विशेषा. गा. ३७८ (ख) पण्णवणासुत्तं भा. २, भाषापद की प्रस्तावना ८४ से ८८ तक (घ) प्रज्ञापना. म. वृ. पत्र २६५ () आवश्यक नियुक्ति गा.७ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्कारसमं भासापयं ग्यारहवाँ भाषापद अवधारिणी एवं चतुर्विध भाषा ८३०. से णूणं भंते ! मण्णामीति ओहारिणी भासा ? चिंतेमीति ओहारिणी भासा ? अह मण्णामीति ओहारिणी भासा ? अह चिंतेमीति ओहारिणी भासा ? तह मण्णामीति ओहारिणी भासा? तह चिंतेमीति ओहारिणी भासा? हंता गोयमा ! मण्णामीति ओहारिणी भासा, चिंतेमीति ओहारिणी भासा, अह मण्णामीति ओहारिणी भासा, अह चिंतेमीति ओहारिणी भासा, तह मण्णामीति ओहारिणी भासा, तह चिंतेमीति ओहारिणी भासा। ___ [८३० प्र.] भगवन् ! मैं ऐसा मानता हूँ कि भाषा अवधारिणी (पदार्थ का अवधारण-अवबोध कराने वाली) है: मैं (युक्ति से) ऐसा चिन्तन करता हूँ कि भाषा अवधारिणी है: (भगवन् !) क्या मैं ऐसा मानूं कि भाषा अवधारिणी है ? क्या मैं (युक्ति द्वारा) ऐसा चिन्तन करूं कि भाषा अवधारिणी है ?: (भगवन् ! पहले मैं जिस प्रकार मानता था) उसी प्रकार (अब भी) ऐसा मानूँ कि भाषा अवधारिणी है ? तथा उसी प्रकार मैं (युक्ति से) ऐसा चिन्तन करूं कि भाषा अवधारिणी है ? । [८३० उ.] हाँ, गौतम ! (तुम्हारा मनन-चिन्तन सत्य है।) तुम मानते हो कि भाषा अवधारिणी है, तुम (युक्ति से) चिन्तन करते (सोचते) हो कि भाषा अवधारिणी है, (यह मैं अपने केवलज्ञान से जानता हूँ।), इसके पश्चात् भी तुम मानो कि भाषा अवधारिणी है, अब तुम (निःसन्देह होकर) चिन्तन करो कि भाषा अवधारिणी है: (मैं भी केवलज्ञान के द्वारा ऐसा ही जानता हूँ, तुम्हारा जानना और सोचना यथार्थ और निर्दोष है।) (अतएव) तुम उसी प्रकार (पूर्वमननवत्) मानो कि भाषा अवधारिणी है तथा उसी प्रकार (पूर्वचिन्तनवत्) सोचो कि भाषा अवधारिणी है। ८३१. ओहारिणी णं भंते । भासा किं सच्चा मोसा सच्चामोसा असच्चामोसा ? गोयमा ! सिय सच्चा, सिय मोसा, सिय सच्चामोसा, सिय असच्चामोसा । से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चति ओहारिणी णं भासा सिय सच्चा सिय मोसा सिय सच्चामोसा सिय असच्चामोसा ? Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०] । प्रज्ञापनासूत्र गोयमा ! आराहणी सच्चा १ विराहणी मोसा २ आराहणविराहणी सच्चामोसा ३ जा णेव आराहणी णेव विराहणी णेव आराहणविराहणी असच्चामोसा णाम सा चउत्थी भासा ४ से एतेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-ओहारिणी णं भासा सिय सच्चा सिय मोसा सिय सच्चामोसा सिय असच्चामोसा। [८३१ प्र.] भगवन् ! अवधारिणी भाषा क्या सत्य है, मृषा (असत्य) है, सत्यामृषा (मिश्र) है, अथवा असत्यामृषा (न सत्य, न असत्य) है ? [८३१ उ.] गौतम ! वह (अवधारिणी भाषा) कदाचित् सत्य होती है, कदाचित् मृषा होती है, कदाचित् सत्यामृषा होती है और कदाचित् असत्यामृषा (भी) होती है। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहते हैं कि (अवधारिणी भाषा) कदाचित् सत्य, कदाचित् मृषा, कदाचित् सत्यामृषा और कदाचित् असत्यामृषा (भी) होती है ? [उ.] गौतम ! (जो) आराधनी (भाषा है, वह) सत्य है, (जो) विराधनी (भाषा है, वह) मृषा है, (जो) आराधनी-विराधनी (उभयरूपा भाषा है, वह) सत्यामृषा है, और जो न तो आराधनी (भाषा) है, न विराधनी है और न ही आराधनी-विराधनी है, वह चौथी असत्यामृषा नाम की भाषा है। हे गौतम ! इस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि अवधारिणी भाषा कदाचित् सत्य, कदाचित् मृषा, कदाचित् सत्यामृषा और कदाचित् असत्यामृषा होती है। विवेचन - भाषा की अवधारिणिता एवं चतुर्विधता का निर्णय - प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. ८३०८३१) में से प्रथम सूत्र में श्री गौतमस्वामी ने स्वमनन-चिन्तनानुसार भाषा की अवधारिणिता का भगवान् से निर्णय कराया है तथा दूसरे सूत्र में अवधारिणी भाषा के चार प्रकारों का भी निर्णय भगवान् द्वारा कराया है। ___ 'भाषा' और 'अवधारिणी' की व्याख्या - भाषा का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ होता है - जो भाषी जाए अर्थात् बोली जाए, वह भाषा है। इसकी शास्त्रीय परिभाषा है - भाषा के योग्य द्रव्यों (पुद्गलों) को ग्रहण करके उसे भाषा के रूप में परिणत करके (मुख आदि से) निकाला जाने वाला द्रव्यसंघात भाषा है। 'भाषा अवधारिणी है' - इसका अर्थ हुआ - भाषा अवबोध कराने वाली है - अवबोध की बीजभूत (कारण) है, क्योंकि अवधारिणी का अर्थ है - जिसके द्वारा पदार्थ का अवधारण - बोध या निश्चय होता है। प्रथम सूत्र का हार्द - प्रथम सूत्र (८३०) में भी गौतमस्वामी ने भाषा की अवधारिणी के सम्बन्ध में अपने मन्तव्य की सत्यता का भगवान् से निर्णय कराने हेतु एक ही प्रश्न को छह वार विविध पहलुओं से दोहराया है। उसका तात्पर्य इस प्रकार है - (१) भगवन् ! मैं ऐसा मानता हूँ कि भाषा अवबोधकारिणी है, १. 'भाष्यते इति भाषा' २. 'तद्योग्यतया परिणामितनिसज्यमानद्रव्यसंहतिः एष पदार्थः।' ३. अवधारयते-अवगम्यतेऽर्थोऽनयेत्यवधारिणी-अवबोधबीजभूता इत्यर्थः। -प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक २४६ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद] [५१ (२) मैं (युक्ति से भी) ऐसा चिन्तन करता हूँ कि भाषा अवधारिणी है। इस प्रकार श्री गौतमस्वामी, भगवान् के समक्ष अपना मन्तव्य प्रकट करके उसकी यथार्थता का निर्णय कराने हेतु पुनः इन दो प्रश्नों को प्रस्तुत करते हैं - (३) भगवन् ! क्या मैं ऐसा मानूं कि भाषा अवधारिणी है ? (४) भगवन् ! क्या मै (युक्ति से) ऐसा चिन्तन करूं कि भाषा अवधारिणी है? अर्थात् क्या मेरा यह मानना और सोचना निर्दोष है ? इसी मन्तव्य पर भगवान् से सत्यता की पक्की मुहरछाप लगवाने हेतु श्री गौतमस्वामी पुनः इन्हीं दो प्रश्रों को दूसरे रूप में प्रस्तुत करते हैं(५-६) जैसे मैं पहले मानता और विचारता था कि भाषा अवधारिणी है, अब भी मैं उसी प्रकार मानता और विचारता हूँ कि भाषा अवधारिणी है। तात्पर्य यह है कि मेरे इस समय के मनन और चिन्तन में तथा पूर्वकालिक मनन और चिन्तन में कोई अन्तर नहीं है। भगवान् ! क्या मेरा यह मनन और चिन्तन निर्दोष एवं युक्तियुक्त है ? भगवान् का जो उत्तर है, उसमें मण्णामि चिंतेमि' इत्यादि उत्तमपुरुषवाचक कियापद प्राकृतभाषा की शैली तथा आर्षप्रयोग होने के कारण मध्यमपुरुष के अर्थ में प्रयुक्त समझना चाहिए। इस दृष्टि से भगवान् के द्वारा इन्हीं पूर्वोक्त छह वाक्यों में दोहराये हुए उत्तर का अर्थ इस प्रकार होता है - 'हाँ, गौतम ! (तुम्हारा मननचिन्तन सत्य है।) तुम मानते हो तथा युक्ति पूर्वक सोचते हो कि भाषा अवधारिणी है, यह मैं भी अपने केवलज्ञान से जानता हूँ.। इसके पश्चात् भी तुम यह मानो कि भाषा अवधारिणी है, तुम यह निःसन्देह होकर चिंतन करो कि भाषा अवधारिणी है। अतएव (तुमने पहले जैसा माना और सोचा था) उसी तरह मानो और सोचो कि भाषा अवधारिणी है, इसमें जरा भी शंका मत करो।' सत्या, मृषा, सत्यामृषा और असत्यामृषा की व्याख्या - सत्या - सत्पुरुषों - मुनियों अथवा शिष्ट जनों के लिए जो हितकारिणी हो, अर्थात् इहलोक एवं परलोक की आराधना करने में सहायक होने से मुक्ति प्राप्त कराने वाली हो, वह सत्या भाषा है: क्योंकि भगवदाज्ञा के सम्यक् आराधक होने से सन्त-मुनिगण ही सत्यपुरुष हैं, उनके लिए यह हितकारिणी है। अथवा सन्त अर्थात् - मूलगुण और उत्तरगुण, जो कि जगत् में मुक्तिपद को प्राप्त कराने के कारण होने से परमशोभन हैं, उनके लिए जो हितकारिणी हो अथवा सत् यानी विद्यमान भगवदुपदिष्ट जीवादि पदार्थो की यथावस्थित प्ररूपणा करने में जो उपयुक्त यानी विद्यमान अनुकूल हो या साधिका हो वह सत्या है। मृषा - सत्यभाषा से विपरीत स्वरूप वाली हो, वह मृषा है। सत्यामृषा - जिसमें सत्य और असत्य दोनों मिश्रित हों, अर्थात् जिसमें कुछ अंश सत्य हो, और कुछ अंश असत्य हो - वह सत्यामृषा या मिश्र भाषा है। असत्यामृषा - जो भाषा इन तीनों प्रकार की भाषाओं में समाविष्ट न हो सके, अर्थात् जिसे सत्य, असत्य या उभयरूप न कहा जा सके, अथवा जिसमें इन तीनों में से किसी भी भाषा का लक्षण घटित न हो सके, वह असत्यामृषा है। इस भाषा का विषय - आमन्त्रण करना (बुलाना या सम्बोधित करना) अथवा आज्ञा देना आदि है। १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २४७ २. 'सच्चा हिया सयामिह संतो मुणयो गुणा पयत्था वा । तव्विवरीया मोसा, मीसा जा तदुभयसहावा ॥१॥ अणहिगया जा तीसुवि सद्दो च्चिय केवलो असच्चमुसा ॥ -प्रज्ञापना. म. व.,पृ. २४८ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] [ प्रज्ञापनासूत्र सत्या आदि चारों भाषाओं की पहिचान आराधनी हो, वह सत्या - जिसके द्वारा मोक्षमार्ग की आराधना की जाए, वह आराधनी भाषा है। किसी भी विषय में शंका उपस्थित होने पर वस्तुतत्त्व की स्थापना की बुद्धि से जो सर्वज्ञमतानुसार बोली जाती है, जैसे कि आत्मा का सद्भाव है, वह स्वरूप से सत् है, पररूप से असत् है, द्रव्यार्थिकनय से नित्य है, पर्यायार्थिकनय से अनित्य है, इत्यादि रूप से यथार्थ वस्तुस्वरूप का कथन करने वाली होने से भी आराधनी है । जो आराधनी हो, उस भाषा को सत्याभाषा समझनी चाहिए। जो विराधनी हो, वह मृषा - जिसके द्वारा मुक्तिमार्ग की विराधना हो, वह विराधनी भाषा है। विपरीत वस्तुस्थापना आशय से सर्वज्ञमत के प्रतिकूल जो बोली जाती है, जैसे कि आत्मा नहीं है, अथवा आत्मा एकान्त नित्य है या एकान्त अनित्य है, इत्यादि । अथवा जो भाषा सच्ची होते हुए भी परपीड़ा- - जनक हो, वह भाषा विराधनी है । इस प्रकार रत्नत्रयरूप मुक्तिमार्ग की विराधना करने वाली हो वह भी विराधनी है। भाषा को मृषा समझना चाहिए। जो आराधनी - विराधनी उभयरूप हो, वह सत्यामृषा जो भाषा आंशिक रुप से आराधनी और आंशिक रूप से विराधनी हो, वह आराधनी - विराधनी कहलाती है। जैसे- किसी ग्राम या नगर में पांच बालकों का जन्म हुआ, किन्तु किसी के पूछने पर कह देना 'इस गाँव या नगर में आज दसेक बालकों का जन्म हुआ है।'' पांच बालकों का जो जन्म हुआ' उतने अंश में यह भाषा संवादिनी होने से आराधनी है, किन्तु पूरे दस बालकों का जन्म न होने से उतने अंश में यह भाषा विसंवादिनी होने से विराधनी है । इस प्रकार स्थूल व्यवहारनय के मत से यह भाषा आराधनी - विराधनी हुई। इस प्रकार की भाषा 'सत्यामृषा' है। जो न आराधनी हो, न विराधनी, वह असत्यामृषा - जिस भाषा में आराधनी के लक्षण भी घटित न होते हों तथा जो विपरीतवस्तुस्वरूप कथन के अभाव का तथा परपीड़ा का कारण न होने से जो भाषा विराधनी भी न हो तथा जो भाषा आंशिक संवादी और आंशिक विसंवादी भी न होने से आराधनी - विराधनी भी न हो, ऐसी भाषा असत्यामृषा समझनी चाहिए। ऐसी भाषा प्रायः आज्ञापनी या आमंत्रणी होती है, जैसे - मुने ! प्रतिक्रमण करो । स्थण्डिल का प्रतिलेखन करो आदि । - विविध पहलुओं से प्रज्ञापनी भाषा की प्ररूपणा ८३२. अह भंते ! गाओ मिया पसू पक्खी पण्णवणी णं एसा भासा ? ण एसा भासा मोसा ? हंता गोयमा ! गाओ मिया पसू पक्खी पण्णवणी णं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा । [८३२ प्र.] भगवन् ! अब यह बताइए कि 'गायें,' 'मृग', 'पशु' (अथवा ) 'पक्षी' क्या यह भाषा (इस प्रकार का कथन) प्रज्ञापनी भाषा है ? यह भाषा मृषा (तो) नहीं है ? [८३२ उ.] हाँ, गौतम ! 'गायें, 'मृग, 'पशु' (अथवा ) 'पक्षी' यह (इस प्रकार की) भाषा प्रज्ञापनी है। यह भाषा मृषा नहीं है । १. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक २४७ - २४८ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद] [५३. ८३३. अह भंते ! जा य इत्थिवयू (ऊ) जा य पुमवयू जा य णपुंसगवयू पण्णवणी णं एसा भासा ? ण एसा भासा मोसा ? हंता गोयमा ! जा य इत्थिवयू जा य पुमवयू जा य णपुंसगवयू पण्णवणी णं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा। [८३३ प्र.] भगवन् ! इसके पश्चात् यह प्रश्न है कि यह जो स्त्रीवचन है और जो पुरुषवचन है, अथवा जो नपुंसकवचन है, क्या यह प्रज्ञापनी भाषा है ? यह भाषा मृषा नहीं है ? [८३३ उ.] हाँ, गौतम ! यह जो स्त्रीवचन है और जो पुरुषवचन है, अथवा जो नपुंसकवचन है, यह भाषा प्रज्ञापनी है और यह भाषा मृषा नहीं है। ८३४. अह भंते ! जा य इत्थिआणमणी जा य पुमआणमणी जा यणपुंसगआणमणी पण्णवणी णं एसा भासा ? ण एसा भासा मोसा? ___ हंता गोयमा ! जा य इत्थिआणमणी जा य पुमआणमणी जा य णपुंसगआणमणी पण्णवणी णं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा । .. [८३४ प्र.] भगवन् ! यह जो स्त्री-आज्ञापनी है और जो पुरुष-आज्ञापनी है, अथवा जो नपुंसकआज्ञापनी है, क्या यह प्रज्ञापनी भाषा है ? यह भाषा मृषा नहीं है ? [८३४ उ.] गौतम ! यह जो स्त्री-आज्ञापनी है और जो पुरुष-आज्ञापनी है, अथवा जो नपुंसकआज्ञापनी है, यह प्रज्ञापनी भाषा है ? यह भाषा मृषा नहीं हैं ? ८३५.अह भंते ! जा य इत्थीपण्णवणी जा य पुमपण्णवणी जा यणपुंसगपण्णवणी पण्णवणी णं एसा भासा ? ण एसा भासा मोसा ? __ हंतां गोयमा ! जा य इत्थीपण्णवणी जा य पुमपण्णवणी जा य णपुंसगपण्णवणी पण्णवणी णं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा । [८३५ प्र.] भगवन् ! यह जो स्त्री-प्रज्ञापनी है और जो पुरुष-प्रज्ञापनी है, अथवा जो नपुंसक-प्रज्ञापनी है, क्या यह प्रज्ञापनी भाषा है ? यह भाषा मृषा नहीं है ? [८३५ उ.] गौतम ! यह जो स्त्री-प्रज्ञापनी है और जो पुरुष-प्रज्ञापनी है, अथवा जो नपुंसक-प्रज्ञापनी है, यह प्रज्ञापनी भाषा है ? और यह भाषा मृषा नहीं है। ८३६. अह भंते ! जा जाईइ इत्थिवयू जाईइ पुमवयू जाईइ णपुंसगवयू पण्णवणी णं एसा भासा ? ण एसा भासा मोसा ? हंता गोयमा ! जाईइ इत्थिवयू जाईइ पुमवयू जाईइ णपुंसगवयू पण्णवणी णं एसा भासा, न एसा भासा मोसा । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ] [ प्रज्ञापनासूत्र [८३६ प्र.] भगवन् ! जो जाति में स्त्रीवचन है, जाति में पुरुषवचन है और जाति में नपुंसकवचन है, क्या यह प्रज्ञापनी भाषा है ? यह भाषा मृषा नहीं है ? [८३६ उ.] गौतम ! जाति में स्त्रीवचन, जाति में पुरुषवचन, अथवा जाति में नपुंसकवचन, यह प्रज्ञापनी भाषा है और यह भाषा मृषा नहीं है। ८३७. अह भंते ! जाईइ इत्थिआणमणी जाईइ पुमआणमणी जाईइ णपुंसगाणमणी पण्णवणी णं एसा भासा ? ण एसा भासा मोसा? . हंता गोयमा ! जाईइ इत्थिआणमणी जाईइ पुमआणमणी जाईइ णपुंसगाणंमणी पण्णवणी णं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा । - [८३७ प्र.] भगवन् ! अब प्रश्न यह है कि जाति में जो स्त्री-आज्ञापनी है, जाति में जो पुरुष-आज्ञापनी है अथवा जाति में जो नपुसंक-आज्ञापनी है, क्या यह प्रज्ञापनी भाषा है ? यह भाषाा मृषा नहीं है ? [८३७ उ.] हाँ, गौतम ! जाति में जो स्त्री-आज्ञापनी है, जाति में जो पुरुष-आज्ञापनी है, या जाति में जो नपुसंक-आज्ञापनी है, यह प्रज्ञापनी भाषा है और यह भाषा मृषा (असत्य) नहीं है। ८३८. अह भंते ! जाईइ इत्थिपण्णवणी जाईइ पुमपण्णवणी जाईइ णपुंसगपण्णवणी पण्णवणी णं एसा भासा ? ण एसा भासा मोसा ? हंता गोयमा ! जाईइ इत्थिपण्णवणी जाईइ पुमपण्णवणी जाईइ णपुंसगपण्णवणी पण्णवणी णं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा । [८३८ प्र.] भगवन् ! इसके अनन्तर प्रश्न है - जाति में जो स्त्री-प्रजापनी है, जाति में जो पुरुष-प्रज्ञापनी है, अथवा जाति में जो नपुंसक-प्रजापनी है, क्या यह भाषा प्रज्ञापनी है ? यह भाषा मृषा तो नहीं है ? [८३८ उ.] हाँ, गौतम ! जाति में जो स्त्री-प्रजापनी है, जाति में जो पुरुष-प्रज्ञापनी है, अथवा जाति में जो नपुंसक-प्रजापनी है, यह भाषा प्रज्ञापनी है और यह भाषा मृषा तो नहीं है । विवेचन - विविध पहलुओं से प्रज्ञापनी भाषा की प्ररूपणा - प्रस्तुत सात सूत्रों (सूत्र ८३२ से ८३८ तक) में विविध पशु पक्षी नाम-प्रज्ञापना, स्त्री आदि वचन-निरूपण, स्त्री आदि आज्ञापनी, स्त्री आदि प्रज्ञापनी, जाति में स्त्री आदि वचन प्रज्ञापक, जाति में स्त्री आदि आज्ञापनी तथा जाति में स्त्री आदि प्रज्ञापनी, इन विविध पहलुओं से प्रज्ञापनी सत्यभाषा का प्रतिपादन किया गया है। _ 'प्रज्ञापनी' भाषा का अर्थ - जिससे अर्थ (पदार्थ) का प्रज्ञापन - प्ररूपण या प्रतिपादन किया जाए, उसे 'प्रज्ञापनी भाषा' कहते हैं। इसे प्ररूपणीया या अर्थप्रतिपादिनी भी कह सकते हैं। सप्तसूत्रोक्त प्रज्ञापनी भाषा किस-किस प्रकार की और सत्य क्यों ? - (१) सू. ८३२ में निरूपित Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५५ ग्यारहवाँ भाषापद ] गाय आदि शब्द जातिवाचक हैं, जैसे- गाय कहने से गोजाति का बोध होता है और जाति में स्त्री, पुरुष और नपुंसक तीनों लिंगों वाले आ जाते है। इसलिए गो आदि शब्द त्रिलिंगी होते हुए भी इस प्रकार एक लिंग में उच्चारण की जाने वाली भाषा पदार्थ का कथन करने के लिए प्रयुक्त होने से प्रज्ञापनी है तथा यह यथार्थ वस्तु का कथन करने वाली होने से सत्य है, क्योंकि शब्द चाहे किसी भी लिंग का हो, यदि वह जाति वाचक है तो देश, काल और प्रसंग के अनुसार उस जाति के अन्तर्गत वह तीनों लिंगों वाले अर्थो का बोधक होता है। यह भाषा न तो परपीड़ाजनक है, न किसी को धोखा देने आदि के उद्देश्य से बोली जाती हैं। इस कारण यह प्रज्ञापनी भाषा नहीं कही जा सकती । (२) इसी प्रकार (सू. ८३३ में प्ररूपित) शाला, माला आदि स्त्रीवचन (स्त्रीवाचक भाषा ), घट, पट आदि पुरुषवचन ( पुरुषवाचक भाषा) तथा धनं वनं आदि नपुंसकवचन (नपुसकवाचक भाषा) हैं, परन्तु इन शब्दों में स्त्रीत्व, पुरुषत्व या नपुंसत्क के लक्षण घटित नहीं होते । जैसे कि कहा है - जिसके बड़े- बड़े स्तन और केश हों, उसे स्त्री समझना चाहिए, जिसके सभी अंगों में रोम हों, उसे पुरुष कहते हैं तथा जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों के लक्षण घटित न हों, उसे नपुंसक जानना चाहिए । स्त्री आदि के उपर्युक्त लक्षणों के अनुसार शाला, माला आदि स्त्रीलिंगवाचक, घट-पट आदि पुरुषलिंगवाचक और धनं वनं आदि नपुंसकलिंगवाचक शब्दों में, इनमें से स्त्री आदि का कोई भी लक्षण घटित नहीं होता । ऐसी स्थिति में किसी शब्द को स्त्रीलिंग, किसी को पुरुषलिंग और किसी को नपुसंकलिंग कहना क्या प्रज्ञापनी भाषा है और यह सत्य है ? मिथ्या नहीं ? भगवान् ने इसका उत्तर हाँ में दिया है। किसी भी शब्द का प्रयोग किया जाता है तो वह शब्द पूर्वोक्त स्त्री, पुरुष या नपुसंक के लक्षणों का वाचक नहीं होता । विभिन्न लिंगों वाले शब्दों के लिंगों की व्यवस्था शब्दानुशासन या गुरु की उपदेशपरम्परा से होती है । इस प्रकार शाब्दिक व्यवहार की अपेक्षा से यथार्थ वस्तु का प्रतिपादन करने के कारण यह भाषा प्रज्ञापनी है। इसका प्रयोग न तो किसी दूषित आशय से किया जाता है और न ही इनसे किसी को पीड़ा उत्पन्न होती है । अत: इस प्रकार की प्रज्ञापनी भाषा सत्य है, मिथ्या नहीं। (३) सूत्र ८३४ के अनुसार प्रश्न का आशय यह है कि जिस भाषा से किसी स्त्री या किसी पुरुष या किसी नपुंसक को आज्ञा दी जाए, ऐसी क्रमश: स्त्री- आज्ञापनी, पुरुष - आज्ञापनी नपुंसक - आज्ञापनी भाषा क्या प्रज्ञापनी है और सत्य है ? क्योंकि प्रज्ञापनी भाषा ही सत्य होती है, जबकि यह तो आज्ञापनी भाषा है, सिर्फ आज्ञा देने में प्रयुक्त होती है। जिसे आज्ञा दी जाती है, वह तदनुसार किया करेगा ही, यह निश्चित नहीं है । कदाचित् न भी करे। जैसे- कोई श्रावक किसी श्राविका से कहे - 'प्रतिदिन सामायिक करो,' या श्रावक अपने पुत्र से कहे- 'यथासमय धर्म की आराधना करो,' या श्रावक किसी नपुंसक से कहे – ‘नौ तत्त्वों का चिन्तन किया करो,' ऐसी आज्ञा देने पर जिसे आज्ञा दी गई है, वह यदि उस आज्ञानुसार क्रिया न करे तो ऐसी स्थिति में आज्ञा देने वाले की भाषा क्या प्रज्ञापनी और सत्य कहलाएगी ? भगवान् का उत्तर इस प्रकार है कि जो भाषा किसी स्त्री, पुरुष, या नपुंसक के लिए आज्ञात्मक है, वह आज्ञापनी भाषा प्रज्ञापनी है, मृषा नहीं है। तात्पर्य यह है कि आज्ञापनी भाषा दो प्रकार की है - परलोकबाधिनी और परलोकबाधा - अनुत्पादक। इनमें से जो भाषा स्वपरानुग्रहबुद्धि से, बिना किसी शठता के, किसी पारलौकिक Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ] [ प्रज्ञापनासूत्र फल की सिद्धि के लिए अथवा किसी विशिष्ट इहलौकिक कार्यसिद्धि के लिए विनेय स्त्री, पुरुष, नपुंसक जनों के बोली जाती है, वह भाषा परलोकबाधिनी नहीं होती, यही साधुवर्ग के लिए प्रज्ञापनी भाषा है और सत्य है: किन्तु इससे भिन्न प्रकार की जो भाषा होती है, वह स्व-पर-संक्लेश उत्पन्न करती है, परलोकबाधिनी है, अतएव अप्रज्ञापनी है और मृषा है। (४) सू. ८३५ के प्रश्न का आशय यह है कि यह जो स्त्रीप्रज्ञापनी स्त्री के लक्षण बतलाने वाली, पुरुषप्रज्ञापनी पुरुष के लक्षण बतलाने वाली तथा नपुंसकप्रज्ञापनी - नपुंसक के लक्षण बतलाने वाली भाषा है, क्या यह प्रज्ञापनी भाषा है और सत्य है ? मृषा नहीं है ? इसका तात्पर्य यह है कि 'खट्वा', 'घटः' और 'वनम्' आदि क्रमशः स्त्रीलिंग, पुलिंग और नपुंसकलिंग के शब्द हैं। ये शब्द व्यवहारबल से अन्यत्र भी प्रयुक्त होते हैं। इनमें से खट्वा (खाट) में विशिष्ट स्तन और केश आदि के लक्षण घटित नहीं होते, इसी तरह 'घट : ' शब्द में पुरुष के लक्षण घटित नहीं होते और न 'वनम्' में नपुंसक के लक्षण घटित होते हैं, फिर भी इन तीनों में से स्त्रीलिंगी शब्द ' खट्वा' खट्वा पदार्थ का वाचक होता है, पुलिंगी शब्द ‘घटः' घट पदार्थ का वाचक होता है तथा नपुंसकलिंगी 'वनम्' शब्द वन पदार्थ का वाचक होता है। ऐसी स्थिति में स्त्री आदि के लक्षण न होने पर भी स्त्रीलक्षण आदि कथन करने वाली भाषा प्रज्ञापनी एवं सत्य है या नही ? यह संशय उत्पन्न होता है । - भगवान् का उत्तर यह है कि जो भाषा - स्त्रीप्रज्ञापनी है, पुरुषप्रज्ञापनी है या नपुंसकप्रज्ञापनी है, वह भाषा प्रज्ञापनी है, मृषा नहीं । इसका तात्पर्य यह है कि स्त्री आदि के लक्षण दो प्रकार के होते हैं - एक शाब्दिक व्यवहार के अनुसार, दूसरे वेद के अनुसार । शाब्दिक व्यवहार की अपेक्षा से किसी भी लिंग वाले शब्द का प्रयोग शब्दानुशासन के नियमानुसार या उस भाषा के व्यवहारानुसार करना प्रज्ञापनी भाषा है और वह सत्य है । इसी प्रकार वेद (रमणाभिलाषा) के अनुसार प्रतिपादन करना इष्ट हो, तब स्त्री आदि के लक्षणानुसार उस-उस लिंग के शब्द का प्रयोग करना, वास्तविक अर्थ का निरूपण करना है, ऐसी भाषा प्रज्ञापनी होती है, मृषा नहीं होती । (५) सूत्र ८३६ के प्रश्न का आशय यह है कि जो जाति (सामान्य) के अर्थ में स्त्रीवचन (स्त्रीलिंग शब्द) है, जैसे- सत्ता तथा जाति 'अर्थ में जो पुरुषवचन (पुल्लिंग शब्द) है, जैसे भावः एवं जाति के अर्थ में जो नपुंसकवचन है, जैसे सामान्यम्, क्या यह भाषा प्रज्ञापनी और सत्य है, मृषा नहीं है ? इसका तात्पर्य यह कि जाति का अर्थ यहाँ सामान्य है । सामान्य का न तो लिंग के साथ कोई सम्बन्ध है और न ही संख्या (एकवचन, बहुवचन आदि) के साथ । अन्यतीर्थिकों ने तो वस्तुओं का लिंग और संख्या के साथ सम्बन्ध स्वीकार किया है । अत: यदि केवल जाति में एकवचन और नपुंसकलिंग संगत हो तो उसमें त्रिलिंगता संभव नहीं है, किन्तु जातिवाचक शब्द तीनों लिंगों में प्रयुक्त होते हैं, जैसे सत्ता आदि । ऐसी स्थिति में शंका होती है कि इस प्रकार की जात्यात्मक त्रिलिंगी भाषा प्रज्ञापनी एवं सत्य है या नहीं? भगवान् का उत्तर है - जातिवाचक जो स्त्रीवचन, पुरुषवचन और नपुंसकवचन है, (जैसे - सत्ता, भाव: और सामान्यम्), यह भाषा प्रज्ञापनी है, मृषा नहीं है, क्योंकि यहाँ जाति शब्द सामान्य का वाचक है। वह अन्यतीर्थीय-परिकल्पित एकान्तरूप से एक, निरवयव और निष्किय नहीं है, क्योंकि ऐसा मानना प्रमाणबाधित है। वस्तुतः वस्तु का समान परिणमन ही सामान्य है और समानपरिणाम अनेकधर्मात्मक होता है । धर्म परस्पर भी और धर्मी से भी कथंचित् अभिन्न होते - Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद ] [ ५७ है। अतएव जाति में भी त्रिलिंगता सम्भव है। इस कारण यह भाषा प्रज्ञापनी है और मृषा नहीं है । (६) सूत्र ८३७ में प्ररूपित प्रश्न का आशय इस प्रकार है कि जो भाषा जाति की अपेक्षा से स्त्री- आज्ञापनी (स्त्रीआदेशदायिनी) होती है, जैसे कि 'यह क्षत्रियाणी ऐसा करे' तथा जो भाषा जाति की अपेक्षा से पुरुषआज्ञापनी होती है, जैसे कि - ' यह क्षत्रिय ऐसा करे,' इसी प्रकार जो भाषा नपुसंक - आज्ञापनी (नपुंसक को आदेश देने वाली) है, क्या यह भाषा प्रज्ञापनी है ? यह भाषा मृषा तो नहीं है ? तात्पर्य यह है कि जिसके द्वारा किसी स्त्री आदि को कोई आज्ञा दी जाए, वह आज्ञापनी भाषा है । किन्तु जिसे आज्ञा दी जाए, वह उस आज्ञा के अनुसार क्रिया-सम्पादन करे ही, यह निश्चित नहीं है। अगर न करे तो वह आज्ञापनीभाषा अप्रज्ञापनी तथा मृषा कही जाए या नहीं ? इस शंका का निवारण करते हुए भगवान् कहते हैं - हाँ, गौतम ! जाति की अपेक्षा से स्त्री, पुरुष, नपुंसक को आज्ञादायिनी आज्ञापनी भाषा प्रज्ञापनी ही है और वह मृषा नहीं है। इसका तात्पर्य यह हे कि परलोकसम्बन्धी बाधा न पहुँचाने वाली जो आज्ञापनी भाषा स्वपरानुग्रह- बुद्धि से अभीष्ट कार्य को सम्पादन करने में समर्थ विनीत स्त्री आदि विनेय जनों का आज्ञा देने के लिए बोली जाती है, जैसे- 'हे साध्वी ! आज शुभनक्षत्र है, अतः अमुक अंग का या श्रुतस्कन्ध का अध्ययन करो ।' ऐसी आज्ञापनी भाषा प्रज्ञापनी है, निर्दोष है, सत्य है, किन्तु जो भाषा आज्ञापनी तो हो, किन्तु पूर्वोक्त तथ्य से विपरीत हो, अर्थात् स्वपरपीडाजनक हो तो वह भाषा अप्रज्ञापनी है और मृषा है । (७) सूत्र ८३८ में प्ररूपित प्रश्न का आशय यह है कि जो भाषा जाति की अपेक्षा स्त्रीप्रज्ञापनी हो, अर्थात् - स्त्री के लक्षण (स्वरूप) का प्रतिपादन करने वाली हो, जैसे कि- स्त्री स्वभाव से तुच्छ होती है, उसमें गौरव की बहुलता होती है, उसकी इन्द्रियां चंचल होती हैं, वह धैर्य रखने में दुर्बल होती है, तथा जो भाषा जाति की अपेक्षा से पुरुषप्रज्ञापनी यानी पुरुष के लक्षण (स्वरूप) का निरूपण करने वाली हो, यथा- पुरुष स्वाभाविक रूप से गंभीर आशयवाला, विपत्ति आ पड़ने पर भी कायरता धारण न करने वाला होता है तथा धैर्य का परित्याग नहीं करता इत्यादि । इसी प्रकार जो भाषा जाति की अपेक्षा से नपुंसक के स्वरूप का प्रतिपादन करने वाली होती है, जैसे- नपुंसक स्वभाव से क्लीब होता है और वह मोहरूपी वड़वानल की ज्वालाओं से जलता रहता है, इत्यादि । तात्पर्य यह है कि यद्यपि स्त्री, पुरुष और नपुंसक जाति के गुण नहीं होते है जो ऊपर बता आए हैं, तथापि कहीं किसी में अन्यथा भाव भी देखा जाता है। जैसे कोई स्त्री भी गंभीर आशयवाली और उत्कृष्ट सत्वशालिनी होती है, इसके विपरीत कोई पुरुष भी प्रकृति से तुच्छ, , चपलेन्द्रिय और जरा-सी विपत्ति आ पड़ने पर कायरता धारण करते देखे जाते हैं और कोई नपुंसक भी कम मोहवाला और सत्त्ववान् होता है। अतएव यह शंका उपस्थित होती है कि पूर्वोक्त प्रकार की भाषा प्रज्ञापनी समझी जाए या मृषा समझी जाए ? इसके उत्तर में भगवान् कहते हैं कि जो स्त्रीप्रज्ञापनी या नपुंसकप्रज्ञापनी भाषा है, वह प्रज्ञापनी अर्थात् सत्य भाषा है, मृषा नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि जातिगत गुणों का निरूपण बाहुल्य को लेकर किया जाता है, एक-एक व्यक्ति की अपेक्षा से नहीं। यही कारण है कि जब किसी समग्र १. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक २४९ से २५२ तक (ख) 'प्रज्ञाप्यतेऽर्थोऽनयेति प्रज्ञापनी, अर्थप्रतिपादनी, प्ररूपणीयेति यावत् (ग) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. ३. पृ. २४७ से २६० तक Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८] [प्रज्ञापनासूत्र जाति के गुणों का निरूपण करना होता है तो निर्मल बुद्धि वाले प्ररूपणकर्ता प्रायः' शब्द का प्रयोग करते हैं। वे कहते हैं - 'प्रायः ऐसा समझना चाहिए।' जहाँ 'प्रायः' शब्द का प्रयोग नहीं होता, वहाँ भी उसे प्रसंगवश समझ लेना चाहिए। अतः कदाचित् कहीं किसी व्यक्ति में जाति गुण से विपरीत पाई जाए तो भी बहुलता के कारण कोई दोष न होने से वह भाषा प्रज्ञापनी है, मृषा नहीं। अबोध बालक-बालिका तथा ऊंट आदि की अनुपयुक्त-अपरिपक्व दशा की भाषा ८३९. अह भंते ! मंदकुमारए वा मंदकुमारिया वा जाणइ बुयमाणे अहमेसे बुयामि अहमेसे बुयामीति ? गोयमा ! णो इणढे समटे, णऽण्णत्थ सण्णिणो। [८३९ प्र.] भगवन् ! अब प्रश्र यह है कि क्या मन्द कुमार (अबोध नवजात शिशु) अथवा मन्द कुमारिका (अबोध बालिका) बोलती हुई ऐसा जानती है कि मैं बोल रही हूँ ? [८३९ उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है, सिवाय संज्ञी (अवधिज्ञानी, जातिस्मरण विविशष्ट पटु मन वाले) के। ८४०. अह भंते ! मंदकुमारए वा मंदकुमारिया वा जाणइ आहारमाहारेमाणे अहमेसे आहारमाहारेमि अहमेसे आहारमाहारेमि त्ति ? गोयमा ! णो इणढे समढे, णऽण्णत्थ सण्णिणो। [८४० प्र.] भगवन् ! क्या मन्द कुमार अथवा मन्द कुमारिका आहार करती हुई जानती है कि मैं इस आहार को करती हूँ? [८४० उ.] गौतम ! संज्ञी (अवधिज्ञानी आदि पूर्वोक्त) को छोड़ कर यह अर्थ समर्थ नहीं है। ८४१. अह भंते ! मंदकुमारए वा मंदकुमारिया वा जाणइ अयं मे अम्मा-पियरो २ ? गोयमा ! णो इणढे समढे, णऽण्णत्थ सण्णिणो । [८४१ प्र.] भगवन् ! क्या मन्द कुमार अथवा मन्द कुमारिका यह जानती है कि ये मेरे माता-पिता हैं ? [८४१ उ.] गौतम ! संज्ञी (पूर्वोक्त अवधिज्ञानी आदि) को छोड़कर यह अर्थ समर्थ नहीं है । ८४२. अह भंते ! मंदकुमारए वा मंदकुमारिया वा जाणइ अयं मे अतिराउले अयं मे अतिराउले त्ति? गोयमा ! णो इणढे समढे, णऽण्णत्थ सणिणो। [८४२ प्र.] भगवन् ! मन्द कुमार अथवा मन्द कुमारिका क्या यह जानती है कि यह मेरे स्वामी Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद] (अधिराज) का घर (कुल) है ? ___ [८४२ उ.] गौतम ! सिवाय संज्ञी (पूर्वोक्त अवधिज्ञानादि संज्ञायुक्त) के यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है। ८४३. अह भंते ! मंदकुमारए वा मंदकुमारिया वा जाणइ अयं मे भट्टिदारए अयं मे भट्टिदारए त्ति? गोयमा ! णो इणढे समढे, णऽण्णत्थ सण्णिणो । [८४३ प्र.] भगवन् ! क्या मन्द कुमार या मन्द कुमारिका यह जानती है कि यह मेरे भर्ता (स्वामी) का दारक (पुत्र) है। [८४३ उ.] गौतम ! संज्ञी को छोड़कर यह अर्थ समर्थ नहीं है । ८४४. अह भंते ! उट्टे गोणे खरे घोडए अए एलए जाणइ बुयमाणे अहमेसे बुयामि अहमेसे बुयामि ? गोयमा ! णो इणद्वे, णऽण्णत्थ सण्णिणो। . [८४४ प्र.] भगवन् ! इसके प्रश्चात् प्रश्न है कि ऊंट, बैल, गधा, घोड़ा, बकरा और भेड़ (इनमें से प्रत्येक) क्या बोलता हुआ यह जानता है कि मै यह बोल रहा हूँ ? मैं यह बोल रहा हूँ? [८४४ उ.] गौतम ! संज्ञी (विशिष्ट ज्ञानवान् या जातिस्मरणज्ञानी) को छोड़ कर यह अर्थ (अन्य किसी ऊंट आदि के लिए) शक्य नहीं है । ८४५. अह भंते ! उट्टे जाव एलए जाणइ आहारेमाणे अहमेसे आहारेमि अहमेसे आहारेमि त्ति ? गोयमा ! णो इणढे समटे, णऽण्णस्थ सण्णिणो। [८४५ प्र.] भगवन् ! (अब यह बताएँ कि) उष्ट्र से लेकर यावत् एलक (भेड़) तक (इनमें से प्रत्येक) आहार करता हुआ यह जानता है कि मैं यह आहार करता हूँ, मै यह आहार कर रहा हूँ? [८४५ उ.] गौतम ! सिवाय संज्ञी के, यह अर्थ समर्थ नहीं है । ८४६. अह भंते ! उट्टे गोणे खरे घोडए अए एलए जाणइ अयं मे अम्मा-पियरो २ त्ति ? गोयमा ! णो इणढे समठे, णऽण्णस्थ सण्णिणो । [८४६ प्रे.] भगवन् ! ऊँट, बैल, गधा, घोड़ा, अज और एलक (भेड़) क्या यह जानता है कि ये मेरे माता-पिता हैं। [८४६ उ.] गौतम ! सिवाय संज्ञी के यह अर्थ समर्थ नहीं है । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०] [प्रज्ञापनासूत्र ८४७. अह भंते ! उट्टे जाव एलए जाणइ अयं मे अतिराउले २ ? गोयमा ! जाव णऽण्णस्थ सण्णिणो । [८४७ प्र.] भगवन् ! ऊँट, बैल, गधा, घोड़ा, बकरा और भेड़ा (या भेड़) क्या यह जानता है कि यह मेरे स्वामी का घर है ? [८४७ उ.] गौतम ! संज्ञी को छोड़ कर, यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है। ८४८. अह भंते ! उट्टे जाव एलए जाणइ अयं मे भट्टिदारए २? गोयमा ! जाव णऽण्णस्थ सण्णिणो । [८४८ प्र.] भगवन् ऊँट से (लेकर) यावत् एलक (भेड़) तक (का जीव) क्या यह जानता है कि यह मेरे स्वामी का पुत्र है ? [८४८ उ.] गौतम ! सिवाय संज्ञी (पूर्वोक्त विशिष्ट ज्ञानवान्) के (अन्य के लिए) यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है ? विवेचन - अबोध बालक-बालिका तथा ऊँट आदि अनुपयुक्त-अपरिपक्व दशा की भाषा का निर्णय - प्रस्तुत दस सूत्रों (सू. ८३९ से ८४८ तक) में से पांच सूत्र अबोध कुमार-कुमारिका से सम्बन्धित हैं और पांच सूत्र ऊँट आदि पशुओं से सम्बन्धित हैं। पंचसूत्री का निष्कर्ष - अवधिज्ञानी, जातिस्मरणज्ञानी या विशिष्टक्षयोपशम वाले नवजात शिशु (बच्चा या बच्ची) के सिवाय अन्य कोई भी अबोध शिशु बोलता हुआ यह नहीं जानता कि मैं यह बोल रहा हूँ: वह आहार करता हुआ भी यह नहीं जानता कि मैं यह आहार कर रहा हूँ: वह यह जानने में भी समर्थ नहीं होता कि ये मेरे माता-पिता हैं : यह मेरे स्वामी का घर है, अथवा यह मेरे स्वामी का पुत्र है। उष्ट्र आदि से सम्बन्धित पंचसूत्री का निष्कर्ष - उष्ट्रादि के सम्बन्ध में भी शास्त्रकार ने पूर्वोक्त पंचसूत्री जैसी भाषा की पुनरावृत्ति की है, इसलिए इस पंचसूत्री का भी निष्कर्ष यही है कि विशिष्ट ज्ञानवान् या जातिस्मरणज्ञानी (संज्ञी) के सिवाय किसी भी ऊँट आदि को इन या ऐसी अन्य बातों का बोध नहीं होता। वृत्तिकार ने उष्ट्रादि की पंचसूत्री के सम्बन्ध में एक विशेष बात सूचित की है कि प्रस्तुत पंचसूत्री में ऊँट आदि शैशवास्था वाले ही समझना चाहिए, परिपक्व वय वाले नहीं: क्योंकि परिपक्व अवस्था वाले ऊँट आदि को तो इन बातों पर परिज्ञान होना सम्भव है।' भाषा के सन्दर्भ में ही यह दशसूत्री : एक स्पष्टीकरण - इससे पूर्व सूत्रों में भाषाविषयक निरूपण १. (क) पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ) भा. १, पृ. २१०-२११ (ख) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक २५२ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद] [६१ किया गया था। अत: इन दस सूत्रों में भी परोक्षरूप से भाषा से सम्बन्धित कुछ विशेष बातों की प्ररुपणा की गई है। इस दससूत्री पर से फलित होता है कि भाषा दो प्रकार की होती है - एक सम्यक् प्रकार से उपयुक्त (उपयोग वाले) संयत की भाषा और दूसरी अनुपयुक्त (उपयोगशून्य) असंयत जन की भाषा । जो पूर्वापरसम्बन्ध को समझ कर एवं श्रुतज्ञान के द्वारा अर्थों का विचार करके बोलता है, वह सम्यक् प्रकार से उपयुक्त कहलाता है। वह जानता है कि मैं यह बोल रहा हूँ, किन्तु जो इन्द्रियों की अपटुता (अविकास) के कारण अथवा बात आदि के विषम या विकृत हो जाने से, चैतन्य का विघात हो जाने से विक्षिप्तचित्तता, उन्माद, पागलपन या नशे की दशा में पूर्वापरसम्बन्ध नहीं जोड़ सकता, अतएव जैसे-तैसे मानसिक कल्पना करके बोलता है, वह अनुपयुक्त कहलाता है। उस स्थिति में वह यह भी नहीं जानता कि मै क्या बोल रहा हूँ? क्या खा रहा हूँ? कौन मेरे माता-पिता हैं? मेरे स्वामी का घर कौनसा है ? तथा मेरे स्वामी का पुत्र कौनसा है ? अत: ऐसी अनुपयुक्त दशा (मन्द या विकृत चैतन्यावस्था) में वह जो कुछ भी बोलता है, वह भाषा सत्य नहीं है, ऐसा शास्त्रकार का आशय प्रतीत होता है। यही बात उष्ट्रादि के सम्बन्ध में समझनी चाहिए।' 'मन्द कुमार, मन्द कुमारिका' की भाषा की व्याख्या - बालक आदि भी बोलते देखे जाते हैं, परन्तु उनकी भाषा, पूर्वोक्त चार भेदों में से कौन-सी है: इसी शंका को लेकर श्री गौतम स्वामी के ये प्रश्न हैं। मन्द कुमार का अर्थ - सरल आशय वाला, नवजात शिशु या अबोध नन्हा बच्चा, जिसका बोध (समझ) अभी परिपक्व नहीं है, जो अभी तुतलाता हुआ बोलता है, जिसे पदार्थों का बहुत ही कम ज्ञान है। इसी प्रकार की मन्द कुमारिका भी अबोध शिशु है । इस प्रकार के अबोध शिशु के सम्बन्ध में प्रश्न है कि जब वह भाषायोग्य पुद्गलों को ग्रहण करके एवं उन्हें भाषा के रूप में परिणत करके वचन रूप में उत्सर्ग करता है, तब क्या उसे मालूम रहता है कि मैं यह बोल रहा हूँ, या मैं यह खा रहा हूँ, या यह मेरे माता-पिता हैं, अथवा यह मेरे स्वामी का घर है, या मेरे स्वामी का पुत्र है? भगवान् कहते हैं - सिवाय संज्ञी के, ऐसा होना शक्य नहीं है । यद्यपि वह अबोध शिशु भाषा और मन की पर्याप्ति से पर्याप्त है, फिर भी उसका मन अभी अपटु (अविकसित) है। मन अपटुता के कारण उसका क्षयोपशम भी मन्द होता है। श्रुतज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम प्राय: मनोरुप करण की पटुता के आश्रय से उत्पन्न होता है, यही शास्त्रसम्मत एवं लोकप्रत्यक्ष है। संज्ञी की व्याख्या - यहाँ संज्ञी शब्द का अर्थ समनस्क अभिप्रेत नहीं है, किन्तु संज्ञा से युक्त है। संज्ञा का अर्थ है - अवधिज्ञान, जातिस्मरणज्ञान या मन की विशिष्ट पटुता । जो शिशु या जो उष्ट्रादि शैशवास्था में होते हुए भी इस प्रकार की विशिष्ट संज्ञा से युक्त (संज्ञी) होते हैं, वे तो इन बातों को जानते हैं। एकवचनादि तथा स्त्रीवचनादि से युक्त भाषा की प्रज्ञापनिता का निर्णय ८४९. अह भंते ! मणुस्से महिसे आसे हत्थी सीहे वग्घे वगे दीविए अच्छे तरच्छे परस्सरे रासभे १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २५२-२५३ २. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक २५२-२५३ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] [ प्रज्ञापनासूत्र सियाले विराले सुणए कोलसुणए कोक्कंतिए ससए चित्तए चिल्ललए जे यावऽण्णे तहप्पगारा सव्वा सा एगवयू ? हंसा गोयमा ! मणुस्से जाव चिल्ललए जे यावऽण्णे तहप्पगारा सव्वा सा एगवयू । [८४९ प्र.] भगवन् ! मनुष्य, महिष (भैंसा), अश्व, हाथी, सिंह, व्याघ्र, वृक (भेड़िया), द्वीपिक (दीपड़ा), ऋक्ष (रीछ भालू), तरक्ष, पाराशर (गेंडा), रासभ (गधा), सियार, विडाल (बिलाव), शुनक, (कुत्ता-श्वान), कोलशुनक (शिकारी कुत्ता), कोकन्तिकी (लोमड़ी), शशक (खरगोश), चीता (चित्रक) और चिल्ललक (वन्य हिंस्त्र पशु), ये और इसी प्रकार के जो (जितनें) भी अन्य जीव हैं, क्या वे सब एकवचन हैं ? [८४९ उ.] हाँ गौतम ! मनुष्य से लेकर चिल्ललक तक तथा ये और अन्य जितने भी इसी प्रकार के प्राणी हैं, वे सब एकवचन हैं। . ८५०. अह भंते ! मणुस्सा जाव चिल्ललगा जे यावऽण्णे तहप्पगागा सव्वा सा बहुवयू ? हंता गोयमा ! मणुस्सा जाव चिल्ललगा सव्वा सा बहुवयू। [८५० प्र.] भगवन् ! मनुष्यों (बहुत-से मनुष्य) से लेकर बहुत चिल्ललक तथा ये और इसी प्रकार के जो अन्य प्राणी हैं, वे सब क्या बहुवचन हैं ? [८५० उ.] हाँ गौतम ! मनुष्यों (बहुत से मनुष्य) से लेकर बहुत चिल्ललक तक तथा अन्य इसी प्रकार के प्राणी, ये सब बहुवचन हैं। ८५१. अह भंते ! मणुस्सी महिसी वलवा हत्थिणिया सीही वग्घी वगी दीविया अच्छी तरच्छी परस्सरी सियाली विराली सुणिया कोलसुणिया कोक्कंतिया ससिया चित्तिया चिल्ललिया जा यावऽण्णा तहप्पगारा सव्वा सा इत्थिवयू ? हंता गोयमा ! मणुस्सी जाव चिल्ललिया जा यावऽण्णा तहप्पगारा सव्वा सा इत्थिवयू । [८५१ प्र.] भगवन् ! मानुषी (स्त्री), महिषी (भैंस), वडवा (घोड़ी), हस्तिनी (हथिनी), सिंही (सिंहनी), व्याघ्री, वृकी (भेड़िनी), द्वीपिनी, रींछनी, तरक्षी, पराशरा (गैंडी), रासभी (गधी), शृगाली (सियारनी), बल्ली, कुत्ती (कुतिया), शिकारी कुत्ती, कोकन्तिका (लोमड़ी), शशकी (खरगोशी), चित्रकी (चित्ती), चिल्ललिका, ये और अन्य इसी प्रकार के (स्त्रीजाति विशिष्ट) जो भी (जीव) हैं, क्या वे सब स्त्रीवचन हैं ? [८५१ उ.] हाँ, गौतम ! मानुषी से (लेकर) यावत् चिल्ललिका, ये और अन्य इसी प्रकार के जो भी (जीव) हैं, वे सब स्त्रीवचन हैं। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद [६३ ८५२. अह भंते ! मणुस्से जाव चिल्ललए जे यावऽन्ने तहप्पगारा सव्वा सा पुमवयू ? हंता गोयमा ! मणुस्से महिसे आसे हत्थी सीहे वग्घे वगे दीविए अच्छे तरच्छे परस्सरे सियाले विराले सुणए कोलसुणए कोक्कंतिए ससए चित्तए चिल्ललए जे यावऽण्णे तहप्पगारा सव्वा सा पुमवयू। [८५२ प्र.] भगवन् ! मनुष्य से लेकर यावत् चिल्ललक तक तथा जो अन्य भी इसी प्रकार के प्राणी (नर जीव) हैं, क्या वे सब पुरुषवचन (पुल्लिंग) हैं ? [८५२ उ.] हाँ, गौतम ! मनुष्य, महिष, (भैंसा), अश्व, हाथी, सिंह, व्याघ्र, भेड़िया, दीपड़ा रीछ तरक्ष, पाराशर (गैंडा), सियार, विडाल, (बिलाव), कुत्ता, शिकारीकुत्ता, कोकन्तिक, (लोमड़ा), शशक (खरगोश), चीता और चिल्ललक तथा ये और इसी प्रकार के अन्य जो भी प्राणी हैं, वे सब पुरुषवचन (पुल्लिंग) हैं। ८५३. अह भंते ! कंसं कंसोयं परिमंडल सेलं थूभं जालं थालं तारं रूवं अच्छि पव्वं कुंडं पउमं दुद्धं दहियं णवणीयं आसणं सयणं भवणं विमाणं छत्तं चामरं भिंगारं अंगणं निरंगणं आभरणं रयणं जे यावऽण्णे तहप्पगारा सव्वं तं णपुंसगवयू ? हंता गोयमा ! कंसं जाव रयणं जे यावऽण्णे तहप्पगारा सव्वं तं णपुंसगवयू। [८५३ प्र.] भगवन् ! कांस्य (कांसा), कंसोक (कसोल), परिमण्डल, शैल, स्तूप, जाल, स्थाल, तार, रूप, अक्षि, (नेत्र), पर्व (पोर), कुण्ड, पद्म, दुग्ध (दूध), दधि (दही), नवनीत (मक्खन), आसन, शयन, भवन, विमान, छत्र, चामर, शृंगार, अंगन (आंगन), निरंगन (निरंजन), आभरण (आभूषण) और रत्न, ये और इसी प्रकार के अन्य जितने भी (शब्द) हैं, वे सब क्या (संस्कृत-प्राकृत भाषानुसार) नपुंसकवचन (नपुंसकलिंग) [८५३ उ.] हाँ, गौतम ! कांस्य से लेकर रत्न तक (तथा) इसी प्रकार के अन्य जितने भी (शब्द) हैं, वे सब नपुंसकवचन हैं। ८५४. अह भंते ! पुढवीति इत्थीवयू आउ त्ति पुमवयू, धण्णे त्ति णपुंसगवयू, पण्णवणी णं एसा भासा ? ण एसा भासा मोसा ? । ___ हंता गोयमा ! पुढवी त्ति इत्थिवयू आउ त्ति पुमवयू, धण्णे त्ति णपुंसगवयू पण्णवणी णं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा। [८५४ प्र.] भगवन् ! पृथ्वी यह (शब्द) स्त्रीवचन (स्त्रीलिंग) है, आउ (पानी) यह (शब्द) पुरुषवचन (पुल्लिंग) है और धान्य, यह (शब्द) नपुंसकवचन (नपुंसकलिंग) है, क्या यह भाषा प्रज्ञापनी है ? क्या यह भाषा मृषा नहीं है ? Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] । प्रज्ञापनासूत्र [८५४ उ.] हाँ गौतम ! पृथ्वी, यह (शब्द) स्त्रीवचन है, अप् (पानी) यह (प्राकृत में) पुरुषवचन है और धान्य, यह (शब्द) नपुंसकवचन है। यह भाषा प्रज्ञापनी है, यह भाषा मृषा नहीं है। ८५५. अह भंते ! पुढवीति इत्थीआणमणी आउ त्ति पुमआणमणी धण्णे त्ति नपुंसगाणमणी पण्णवणी णं एसा भासा ? ण एसा भासा मोसा ? हंता गोयमा ! पुढवीति इत्थिआणमणी, आउ त्ति पुमआणमणी, धण्णे त्ति णपुंसगआणमणी, पण्णवणी णं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा । [८५५ प्र.] भगवन् ! पृथ्वी, यह (भाषा) स्त्री-आज्ञापनी है, अप यह (भाषा) पुरुषआज्ञापनी है और धान्य, यह (भाषा) नपुंसक-आज्ञापनी है, क्या यह भाषा प्रज्ञापनी है ? क्या यह भाषा मृषा नहीं है ? [८५५ उ.] हाँ, गौतम ! पृथ्वी, यह (जो) स्त्री-आज्ञापनी (भाषा) है, अप्, यह (जो) पुरुषआज्ञापनी (भाषा) है और धान्य, यह (जो) नपुंसक-आज्ञापनी (भाषा) है, यह भाषा प्रज्ञापनी है; यह भाषा मृषा नहीं है। ८५६. अह भंते ! पुढवीति इत्थिपण्णवणी आउ त्ति पुमपण्णवणी धण्णे त्ति णपुंसगपण्णवणी आराहणी णं एसा भासा ? ण एसा भासा मोसा ?' हंता गोयमा ! पुढवीति इत्थिपण्णवणी आउ त्ति पुमपण्णवणी धण्णे त्ति णपुंसगपण्णवणी आराहणी णं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा। _[८५६ प्र.] भगवन् ! पृथ्वी, यह (जो) स्त्री-प्रज्ञापनी है, (भाषा) है, अप्, यह पुरुषप्रज्ञापनी (भाषा) है और धान्य, यह (जो) नपुंसक-प्रज्ञापनी है (भाषा) है, क्या यह भाषा आराधनी है ? क्या यह भाषा मृषा नहीं है? [८५६ उ.] हाँ, गौतम ! पृथ्वी, यह (जो) स्त्री-प्रज्ञापनी (भाषा) है, अप्, यह (जो) पुरुष-प्रज्ञापनी (भाषा) है और धान्य, यह (जो) नपुंसक-प्रज्ञापनी (भाषा) है, यह भाषा आराधनी है। यह भाषा मृषा नहीं ८५७. इच्चेवं भंते ! इत्थिवयणं वा पुमवयणं वा णपुंसगवयणं वा वयमाणे पण्णवणी णं एसा भासा? ण एसा भासा मोसा ? ___हंता गोयमा ! इत्थिवयणं वा पुमवयणं वा णपुंसगवयणं वा वयमाणे पण्णवणी णं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा। __ [८५७ प्र.] भगवन् ! इसी प्रकार स्त्रीवचन या पुरुषवचन अथवा नपुंसकवचन बोलते हुए (व्यक्ति की) १. ग्रन्थाग्रम् ४००० । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद] [६५ क्या यह भाषा प्रज्ञापनी है ? क्या यह भाषा मृषा नहीं है ? [८५७ उ.] गौतम! स्त्रीवचन, पुरुषवचन, अथवा नपुंसकवचन बोलते हुए (व्यक्ति की) यह भाषा प्रज्ञापनी है, यह भाषा मृषा नहीं है। विवेचन - एकवचनादि तथा स्त्रीवचनादि विशिष्ट भाषा की प्रज्ञापनिता का निर्णय - प्रस्तुत नौ सूत्रों (सू. ८४९ से ८५७ तक) में प्रज्ञापनी भाषा के विषय में वचन, लिंग, आज्ञापन, प्रज्ञापन आदि की अपेक्षा से निर्णयात्मक विचार प्रस्तुत किया गया है। प्रस्तुत नौ सूत्रोक्त प्रश्नोत्तरों की व्याख्या - (१) सू. ८४९ में प्ररूपित प्रश्न का आशय यह है कि मनुष्य से चिल्ललक तक के तथा इसी प्रकार के अन्य शब्द एकत्ववाचक होने से क्या एकवचन हैं ? अर्थात्इस प्रकार की भाषा क्या एकत्वप्रतिपादिका भाषा है ? तात्पर्य यह है कि - वस्तु धर्मधर्मिसमुदायात्मक होती है, और प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म पाए जाते हैं। मनुष्य' कहने से धर्मधर्मिसमुदायात्मक सकल (अखण्ड), परिपूर्ण वस्तु की प्रतीति होती है, ऐसा ही व्यवहार भी देखा जाता है, किन्तु एक पदार्थ के लिए एकवचन का और बहुत-से पदार्थों के लिए बहुवचन का प्रयोग होता है। इस दृष्टि से गहाँ 'मनुष्य,' इस प्रकार का एकवचन का प्रयोग किया गया है, जबकि एकत्वविशिष्ट मनुष्य से मनुष्यगत अनेक धर्मों का बोध होता है। लोक में तो एकवचन के द्वारा व्यवहार होता है। ऐसी स्थिति में क्या मनुष्य आदि के लिए एकत्वप्रतिपादिका भाषा के रूप में एकवचनान्त प्रयोग समीचीन है ? भगवान् का उत्तर है - मनुष्य से लेकर चिल्ललक तक तथा इसी प्रकार के अन्य जितने भी शब्द हैं, वह सब एकत्ववाचक भाषा है। तात्पर्य यह है कि शब्दों की प्रवृत्ति विवक्षा के अधीन है और विवक्षा वक्ता के विभिन्न प्रयोजनों के अनुसार कभी और कहीं एक प्रकार की होती है, तो कभी और कहीं उससे भिन्न प्रकार की, अत: विवक्षां अनियत होती है। उदाहरणार्थ - किसी एक ही व्यक्ति को उसका पुत्र पिता के रूप में विवक्षित करता है, तब वह व्यक्ति पिता कहलाता है तथा वही पुत्र उसे अपने अध्यापक के रूप में विवक्षित करता है, तब वही व्यक्ति उपाध्याय' कहलाने लगता है। इसी प्रकार यहाँ भी जब धर्मों को गौण करके धर्मों की प्रधानरूप से विवक्षा की जाती है तब धर्मों होने से एकवचन का ही प्रयोग होता है। उस समय समस्त धर्म धर्मों के अन्तर्गत हो जाते हैं। इस कारण सम्पूर्ण वस्तु की प्रतीति हो जाती है। किन्तु जब धर्मो (मनुष्य) की गौणरूप में विवक्षा की जाती है और धर्मो की प्रधानरूप से विवक्षा की जाती है, तब धर्म बहुत होने के कारण धर्मो एक होने पर भी बहुवचन का प्रयोग होता है। निष्कर्ष यह है कि जब धर्मों से धर्मों को अभिन्न मान कर एकत्व की विवक्षा की जाती है तब एकवचन का प्रयोग होता है और जब धर्मों को गौण करके अनेक धर्मों की प्रधानता से विवक्षा की जाती है तब बहुवचन का प्रयोग होता है। यहाँ भी अनन्तधर्मात्मक वस्तु मनुष्य आदि भी धर्मो के एक होने से एकवचन द्वारा प्रतिपादित की जा सकती है। इसलिए यह भाषा एकत्वश्प्रतिपादिका है। (२) सूत्र ८४० में प्ररूपित प्रश्न का आशय यह है कि 'मनुष्या:' से 'चिल्ललकाः' तक तथा इसी प्रकार के अन्य Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ] [प्रज्ञापनासूत्र बहुवचनान्त जो शब्द हैं, वह सब क्या बहुत्वप्रतिपादक वाणी है ? इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्य आदि पूर्वोक्त शब्द जातिवाचक है और जाति का अर्थ है - सामान्य । सामन्य के लिए कहा जाता है कि वह एक होता है तथा नित्य, निरवयव, अक्रिय और सर्वव्यापी होता है। ऐसी स्थिति में ये जातिवाचक शब्द बहुवचनान्त कैसे हो सकते हैं ? जबकि इन शब्दों का प्रयोग बहुवचन में देखा गया है। यही इस पृच्छा का कारण है। भगवान् के उत्तर का आशय यह है कि 'मनुष्याः' से लेकर 'चिल्ललकाः' तक जो बहुवचनान्त शब्द है, वह सब बहुत्वप्रतिपादिका वाणी है। इसका कारण यह है कि यद्यपि पूर्वोक्त मनुष्याः' आदि शब्द जातिवाचक हैं, तथापि जाति सदृश परिणामरूप होती है और सदृश परिणाम विसदृश परिणाम का अविनाभावी होता है: अर्थात् सामान्यपरिणाम और असमानपरिणाम या सदृशता और विसदृशता साथ-साथ ही रहते हैं और दोनों में कथंचित् अभेद भी है। अतः जब असमानपरिणाम से युक्त समानपरिणाम की प्रधानता से विवक्षा की जाती है और असमानपरिणाम प्रत्येक व्यक्ति (विशेष) में भिन्न-भिन्न होता है: अतएव जब उसका कथन किया जाता है, तब बहुवचन-प्रयोग संगत ही है, जैसे - 'घटाः' इत्यादि बहुवचन के समान। जब केवल एक ही समानपरिणाम की प्रधानता से विवक्षा की जाती है, और असमानपरिणाम को गौण कर दिया जाता है, तब सर्वत्र समानपरिणाम एक ही होता है, अतएव उसके प्रतिपादन करने में एकवचन का प्रयोग भी संगत है, जैसे - 'सर्व घट पृथुबुनोदराकार (मोटा और गोल पेट के आकार का) होता है।' यहाँ 'मनुष्याः' इत्यादि शब्दप्रयोगों में असमानपरिणाम से युक्त समानपरिणाम की ही प्रधानता से विवक्षा की गई है और असमानपरिणाम अनेक होता है। इस कारण यहाँ बहवचन का प्रयोग उचित है। (३) सत्र ८५१ में प्ररूपित प्रश्र का आशय यह है कि से लेकर चिल्ललिका' तक तथा इसी प्रकार के अन्य 'आ' एवं 'ई' अन्त वाले जितने भी शब्द हैं. क्या वे सब स्त्रीवचन है ? अर्थात् - यह सब क्या स्त्रीत्व की प्रतिपादिका भाषा है ? इस पृच्छा का तात्पर्य यह है कि यहाँ सर्व वस्तु त्रिलिंगी है। जैसे - यह (अयं) मतरूप:' (मिट्टी के रूप में परिणत) है. यहाँ पल्लिंग है, (इयं) मृत्परिणति घटाकार परिणति है' यहाँ स्त्रीलिंग है, और '(इदं) वस्तु' है, यहाँ नपुंसकलिंग है। इस प्रकार यहाँ एक ही वाच्य को तीनों लिंगों के प्रतिपादक वचनों द्वारा प्रतिपादित किया गया है। ऐसी स्थिति में केवल एक स्त्रीलिंग मात्र का प्रतिपादक शब्द तीनों लिंगों के द्वारा प्रतिपाद्य वस्तु का यथार्थरूप में वाचक कैसे हो सकता है ? 'नरसिंह' शबद में केवल 'नर' शब्द या केवल 'सिंह' शब्द दोनों, - नर एवं सिंह - का वाचक नहीं हो सकता, किन्तु लोकव्यवहार में स्त्रीलिंग शब्द अपने-अपने वाच्य के वाचक देखे जाते हैं। अत: प्रश्न होता है कि क्या इस प्रकार के सभी वचन स्त्रीत्व के प्रतिपादक होते हैं ? भगवान् का उत्तर 'हाँ' में है। मानुषी से लेकर चिल्लिका तक तथा इसी प्रकार के अन्य 'आ' 'ई' अन्त वाले शब्द स्त्रीवचन हैं, अर्थात् – स्त्रीलिंगविशिष्ट अर्थ के प्रतिपादक हैं। इसका भावार्थ इस प्रकार है - यद्यपि वस्तु अनेक धर्मात्मक होती है, तथापि शब्दशास्त्र का न्याय यह है कि जिस धर्म से विशिष्ट वस्तु का प्रतिपादन करना इष्ट होता है, उसे मुख्य करके उसी धर्म से विशिष्ट धर्मों का प्रतिपादन किया जाता है, उसके सिवाय शेष जो भी धर्म होते हैं, उन्हें गौण करके अविवक्षित कर दिया जाता है। जैसे - किसी पुरुष में पुरुषत्व भी है, शास्त्रज्ञता भी है, दातृत्व, भोक्तृत्व, Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद ] [ ६७ जनकत्व तथा अध्यापकत्व भी है, फिर भी जब उसका पुत्र उसे आता देखता है तो कहता है- पिताजी आ रहे है : उसका शिष्य कहता है उपाध्याय आ रहे है: वैसे ही यहाँ भी मानुषी आदि सभी शब्द यद्यपि त्रिलिंगात्मक हैं, तथापि योनि, मृदुता, अस्थिरता, पलता आदि (स्त्रीत्व ) की प्रधानता से विवक्षा करके, उससे विशिष्ट धर्मों को प्रधान करके जब ( मानुषी आदि) धर्मो का प्रतिपादन किया जाता है, तब मानुषी आदि भाषा स्त्रीवाक् - अर्थात् - स्त्रीत्व - प्रतिपादिका भाषा कहलाती है। (४-५) सूत्र ८५२ एवं ८५३ में प्ररूपित प्रश्नों के कारण भी पूर्ववत् समझना चाहिए कि - (४) मनुष्य से लेकर चिल्ललक तक शब्द तथा इसी प्रकार के अन्य शब्द क्या पृरुषवाक् हैं - अर्थात् क्या यह सब पुल्लिंगप्रतिपादक भाषा है ? तथा (५) कांस्य से लेकर रत्न क के शब्द तथा इसी प्रकार के अन्य शब्द क्या नपुंसकवचन हैं, अर्थात् - क्या यह सब नपुंसकलिंग प्रतिपादक भाषा है ? इनके उत्तर का भी आशय पूर्ववत् ही समझना चाहिए। निष्कर्ष यह है कि यद्यपि मनुष्य आदि शब्द तथा कांस्यादि शब्द त्रिलिंगात्मक हैं, फिर भी प्रधानरूप से पुंस्त्व धर्म अथवा नपुंसकत्व धर्म की विवक्षा के कारण इन्हें क्रमशः पुल्लिंग (पुरुषवचन) तथा नपुंसकलिंग (नपुंसकवचन) कहा जाता है। (६) सूत्र ८५४ प्रश्नोत्तर का निष्कर्ष यह है कि 'पृथ्वी' यह स्त्रीवाक् (स्त्रीलिंग विशिष्ट अर्थ की प्रतिपादिका भाषा) है, ‘अप्’ शब्द पुंवाक् (पुल्लिंगविशिष्ट अर्थ की प्रतिपादिका भाषा) है तथा 'धान्यं' शब्द नपुंसकवाक् (नपुंसकलिगविशिष्ट अर्थ की प्रतिपादिका भाषा) है, यह भाषा प्रज्ञापनी अर्थात् सत्य है, मृषा नहीं है, क्योंकि यह सत्य अर्थ का प्रतिपादन करती है। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि 'आऊ' (अप्= जल) शब्द प्राकृत भाषा के व्याकरणानुसार पुल्लिंग है, संस्कृत भाषा के अनुसार तो वह स्त्रीलिंग ही है । (७) सू. ८५५ में प्ररूपित प्रश्न का आशय है कि 'पृथ्वी' कुरु, पृथ्वीमानय' (पृथ्वी को बनाओ, पृथ्वी लाओ), इस प्रकार जो स्त्री (स्त्रीलिंग की) आज्ञापनी भाषा है: आपः आनय (पानी लाओ), इस प्रकार जो पुरुष ( पुल्लिंग की ) आज्ञापनी भाषा है तथा धान्यं आनय ( धान्य लाओ) इस प्रकार की जो नपुंसक (नपुंसकलिंग की) अज्ञापनी भाषा है, क्या यह भाषा प्रज्ञापनी है ? मृषा नहीं है ? भगवान् ने इसका स्वीकृतिसूचक उत्तर दिया है, जिसका आशय यह है कि पूर्वोक्त तीनों स्थानों पर क्रमशः स्त्रीलिंग, पुल्लिंग और नपुंसकलिंग की ही विवक्षा होने से, अन्य धर्मों को गौण करके, उन्हीं से विशिष्ट पृथ्वी, अप् एवं धान्यरूप धर्मों का यह भाषा प्रतिपादन करती है । (८) सू. ८५६ में प्ररूपित प्रश्न का आशय यह है कि 'पृथ्वी' इस प्रकार की स्त्री प्रज्ञापनी (स्त्रीत्वस्वरूप की प्ररूपणी), 'आप' इस प्रकार की पुरुषप्रज्ञापनी (पुंस्त्वस्वरूप- प्ररूपणी) तथा 'धान्यं' इस प्रकार की नपुंसकप्रज्ञापनी (नपुंसकत्वरुप - प्ररुपणी) भाषा क्या आराधनी (मुक्तिमार्ग की अविरोधिनी) भाषा है। यह भाषा मृषा तो नहीं है ? अर्थात् - इस प्रकार कहने वाले साधक को मिथ्याभाषण का प्रसंग तो नहीं होता ? भगवान् ने इसके उत्तर में कहा कि यह भाषा आराधनी (मोक्षमार्ग के आराधन के योग्य) भाषा है, यह मृषा नहीं है: क्योंकि यह भाषा शाब्दिक व्यवहार की अपेक्षा से यथार्थ वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन करने वाली है। (९) सू. ८५७ में प्ररूपित प्रश्न समुच्चयरूप से अतिदेशात्मक है। उसका आशय यह है कि पूर्वोक्त प्रकार से अन्य भी स्त्रीलिंग प्रतिपादक को स्त्रीवचन, पुल्लिंगप्रतिपादक को पुरुषवचन तथा नपुंसकलिंग - प्रतिपादक को नपुसंकवचन - Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ] [प्रज्ञापनासूत्र के रूप में कहे जाने पर क्या वक्ता की वह भाषा प्रज्ञापनी (सत्य) है, मृषा नहीं है ? भगवान इसका उत्तर भी स्वीकृतिसूचक देते हैं। जिसका आशय है कि यह प्रज्ञापनी है, शाब्दिक (शब्दानुशासन के) व्यवहार के अनुसार इसमें कोई दोष नहीं है। दोष तो तभी होता है, जब वस्तस्वरूप कछ और कथन अन्य रूप में किया जाये। जिस वस्तु का जैसा वस्तुस्वरूप है, उसे वैसा ही कहा जाए तो उसमें क्या दोष है ?? विविध दृष्टियों से भाषा का सर्वांगीण स्वरूप ८५८. भासा णं भंते ! किमादीया किंपहवा किंसंठिया किंपज्जवसिया ? गोयमा ! भासा णं जीवादीया सरीरपहवा वजसंठिया लोगंतपज्जवसिया पण्णत्ता। [८५८ प्र.] भगवन् ! भाषा की आदि (मूल कारण) क्या है ? (कहाँ से है?) (भाषा का) प्रभव (उत्पत्ति) - स्थान क्या है ? (भाषा) का आकार कैसा है ? भाषा का पर्यवसान (अन्त) कहाँ होता है ? [८५८ उ.] गौतम ! भाषा की आदि (मूल कारण) जीव है। (उसका) प्रभव (उत्पाद-स्थान) शरीर है। (भाषा) वज्र के आकार की हैं। लोक के अन्त में उसका पर्यवसान (अन्त) होता है, ऐसा कहा गया है। ८५९. भासा कओ य पहवति ? कतिहिं च समएहिं भासती भासं ?। भासा कतिप्पगारा ? कति वा भासा अणुमयाओ ? ॥१९२॥ सरीरप्पहवा भासा, दोहि य समएहिं भासती भासं। भासा चउप्पगारा, दोण्णि य भासा अणुमयाओ ॥१९३॥ [८५९-प्रश्नात्मक गाथार्थ] भाषा कहाँ से उद्भूत होती है? भाषा कितने समयों में बोली जाती है ? भाषा कितने प्रकार की है ? और कितनी भाषाएँ अनुमत हैं ? ॥१९२ ॥ [८५९-उत्तरात्मक गाथार्थ] भाषा का उद्भव (उत्पत्ति) शरीर से होता है। भाषा दो समयों में बोली जाती है। भाषा चार प्रकार की है, उनमें से दो भाषाएँ (भगवान् द्वारा बोलने के लिए) अनुमत हैं ॥१९३ ।। विवेचन - विविध दृष्टियों से भाषा का सर्वागीण स्वरूप - प्रस्तुत दो सूत्रों में भाषा के आदि कारण, उत्पत्तिस्थान, आकार, अन्त, बोलने के समय, प्रकार, अनुमतियोग्य प्रकार आदि का निरूपण किया गया है। भाषा का मौलिक कारण - भाषा के उपादान कारण के अतिरिक्त उसका (आदि) मूल कारण क्या है ? यह प्रथम प्रश्न है। उत्तर यह है कि अवबोधबीज भाषा का मूलकारण जीव है, क्योंकि जीव के तथाविध १. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक २४५-२५५ (ख) प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका, भा. ३, पृ. २८० से २९३ तक Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद] [६९ उच्चारणादि प्रयत्न कि बिना अवबोधबीज भाषा की उत्पत्ति होना सम्भव नहीं है। आचार्य भद्रबाहुस्वामी ने कहा है - औदारिक, वैक्रिय और आहारक, इन तीनों शरीरों में जीव से सम्बद्ध जीव-(आत्म) प्रदेश होते हैं, जिनसे जीव भाषा द्रव्यों को ग्रहण करता है। तत्पश्चात् ग्रहणकर्ता (वह भाषक जीव) उस भाषा को बोलता है अर्थात् गृहीत भाषाद्रव्यों का त्याग करता है। भाषा का प्रभव - उत्पत्ति कहाँ से ? - इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि भाषा शरीर-प्रभवा है अर्थात् औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर से भाषा की उत्पत्ति होती है, क्योंकि इन तीनों में से किसी एक शरीर के सामर्थ्य से भाषाद्रव्य का निर्गम होता है। - भाषा का संस्थान - आकार - भाषा वज्रसंस्थिता बताई गई है, जिसका तात्पर्य यह कि भाषा का आकार वज्रसदृश होता है: क्योंकि जीव के विशिष्ट प्रयत्न द्वारा नि:सृष्ट (निकले हुए) भाषा के द्रव्य सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हो जाते हैं और लोक वज्र के आकार का है। अतएव भाषा की वज्राकृति कही गई है। भाषा का पर्यवसान कहाँ ? - भाषा का अन्त लोकान्त (लोक के सिरे) में होता है। अर्थात् जहाँ लोक का अन्त है वहीं भाषा का अन्त है: क्योंकि लोकान्त से आगे गतिसहायक धर्मास्तिकाय का अभाव होने से भाषाद्रव्यों का गमन असम्भव है: ऐसा मैने एवं शेष तीर्थकरों ने प्ररूपित किया है। भाषा का उद्भव किस योग से ? - यहाँ प्रथम गाथा में प्रश्न किया गया है कि भाषा का उद्भव (उत्पत्ति) किस योग से होता है ? काययोग से, वचनयोग से या मनोयोग से ? उत्तर में - पूर्ववत् ‘सरीरप्पहवा (शरीरप्रभवा)' कहा गया है, किन्तु वृत्तिकार इसका अर्थ करते हैं - काययोगप्रभवाः क्योंकि प्रथम काययोग से भाषा के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके, उन्हें भाषारूप में परिणत करके फिर वचनयोग से उन्हें निकालता - उच्चारण करता है। इस कारण भाषा को काययोगप्रभवा' कहना उचित है। आचार्य भद्रबाहुस्वामी कहते हैं-जीव कायिकयोग से (भाषा योग्य पुद्गलों को) ग्रहण करता है तथा वाचिकयोग से (उन्हें) निकालता है। भाषा का भाषणकाल - जीव दो समयों में भाषा बोलता है, क्योंकि वह एक समय में भाषा योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है और दूसरे समय में उन्हें भाषारूप में परिणत करके छोड़ता (निकालता) है।। भाषा के प्रकार - इससे पूर्व भाषा के चार प्रकार स्वरूपसहित बताए जा चुके हैं - सत्या, मृषा (असत्या), सत्यामृषा (मिश्र) और असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा। १. 'तिविहंमि सरीरंमि, जीवपएसा हवंति जीवस्स । जेहिं उ गेण्हइ गहणं, तो भासइ भासओ भासं ॥' -प्रज्ञापना. मलय वृत्ति, पत्रांक २५६ में उद्धत २. 'गिण्हइ य काइएणं, निसरइ तह वाइएण जोगेणं ।' -प्रज्ञापना. म. वृ. पत्रांक २५७ में उद्धृत Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ] . [प्रज्ञापनासूत्र अनुमत भाषाएँ - भगवान् द्वारा दो प्रकार की भाषा बोलने की अनुमति साधुवर्ग को दी गई है - सत्याभाषा और असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा। इसका फलितार्थ यह हुआ कि भगवान् ने मिश्र (सत्यामृषा) भाषा और मृषा (असत्य) भाषा बोलने की अनुज्ञा नहीं दी है, क्योंकि ये दोनों भाषाएँ यथार्थ वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन नहीं करतीं, अतएव ये मोक्ष की विरोधनी हैं। पर्याप्तिका-अपर्याप्तिका भाषा और इनके भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा ८६०. कतिविहा णं भंते ! भासा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा भासा पण्णत्ता। तं जहा - पज्जत्तिया य अपज्जत्तिया य। [८६० प्र.] भगवन् ! भाषा कितने प्रकार की कही गई है ? [८६० उ.] गौतम ! भाषा दो प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार - पर्याप्तिका और अपर्याप्तिका । ८६१. पज्जत्तिया णं भंते ! भासा कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा - सच्चा य मोसा य। [८६१ प्र.] भगवन् ! पर्याप्तिका भाषा कितने प्रकार की कही गई है ? [८६१ उ.] गौतम ! पर्याप्तिका भाषा दो प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार - सत्या और मृषा । ८६२. सच्चा णं भंते ! भासा पज्जत्तिया कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! दसविहा पण्णत्ता । तं जहा - जणवयसच्चा १ सम्मतसच्चा २ ठवणासच्चा ३ णामसच्चा ४ रूवसच्चा ५ पडुच्चसच्चा ६ ववहारसच्चा ७ भावसच्चा ८ जोगसच्चा ९ ओवम्मसच्चा १० । जणवय १ सम्मत २ ठवणा ३ णामे ४ रूवे ५ पडुच्चसच्चे ६ य। ववहार ७ भाव ८ जोगे ९ दसमे ओवम्मसच्चे १० य ॥१९४॥ [८६२ प्र.] भगवन् ! सत्या-पर्याप्तिका भाषा कितने प्रकार की कही गई है ? [८६२ उ.] गौतम ! दस प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार - (१) जनपदसत्या, (२) सम्मतसत्या, (३) स्थापनासत्या, (४) नामसत्या, (५) रूपसत्या, (६) प्रतीत्यसत्या (७) व्यवहारसत्या, (८) भावसत्या. (९) योगसत्या और (१०) औपम्यसत्या । [संग्रहणीगाथार्थ -] (दस प्रकार के सत्य) - (१)जनपदसत्य, (२) सम्मतसत्य, (३) स्थापनासत्य, १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २५६, २५७ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद] [७१ (४) नामसत्य, (५) रूपसत्य, (६) प्रतीत्यसत्य, (७) व्यवहारसत्य, (८) भावसत्य, (९) योगसत्य और (१०) दसवाँ औपम्यसत्य । ॥१९४ ।। ८६३. मोसा णं भंते ! भासा पज्जत्तिया कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! दसविहा पण्णत्ता । तं जहा - कोहणिस्सिया १ माणणिस्सिया २ मायाणिस्सिया ३ लोभणिस्सिया ४ पेज्जणिस्सिया ५ दोसणिस्सिया ६ हासणिस्सिया ७ भयणिस्सिया ८ अक्खाइयाणिस्सिया ९ उवघायणिस्सिया १० । कोहे १ माणे २ माया ३ लोभे ४ पेज्जे ५ तहेव दोसे ६ य । हास ७ भए ८ अक्खाइय ९ उवघाइयणिस्सिया १० दसमा ॥१९५॥ [८६३ प्र.] भगवन् ! मृषा - पर्याप्तिका भाषा कितने प्रकार की कही गई है ? [८६३ उ.] गौतम ! (वह) दस प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार है - (१) क्रोधनिःसृता, (२) माननिःसृता, (३) मायानिःसृता, (४) लोभनिःसृता, (५) प्रेयनिःसृता (रागनिःसृता), (६) द्वेषनिःसृता, (७) हास्यनि:सृता, (८) भयनि:सृता, (९) आख्यायिकानि:सृता और (१०) उपघातनि:सृता । [संग्रहणीगाथार्थ - ] क्रोधनिःसृत, माननिःसृत, मायानिःसृत, लोभनि:सृत, प्रेय (राग) - निःसृत, तथा द्वेषनिःसृत, हास्यनिःसृत, भयनिःसृत, आख्यायिकानिःसृत और दसवाँ उपघातनि:सृत असत्य। ॥१९५॥ ८६४. अपज्जत्तिया णं भंते ! भासा कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता । तं जहा - सच्चामोसा य असच्चामोसा य । [८६४ प्र.] भगवन् ! अपर्याप्तिका भाषा कितने प्रकार की कही गई है ? [८६४ उ.] गौतम ! (वह) दो प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार है - सत्या-मृषा और असत्यामृषा । ८६५. सच्चामोसा णं भंते ! भासा अपज्जत्तिया कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! दसविहा पण्णत्ता । तं जहा-उप्पण्णमिस्सिया १ विगयमिस्सिया २ उप्पण्णविगयमिस्सिा ३ जीवमिस्सिया ४ अजीवमिस्सिया ५ जीवाजीवमिस्सिया ६ अणंतमिस्सिया ७ परित्तमिस्सिया ८ अद्धामिस्सिया ९ अद्धद्धामिस्सिया १० । [८६५ प्र.] भगवन् ! सत्यामृषा-अपर्याप्तिका भाषा कितने प्रकार की कही गई है ? [८६५ उ.] गौतम ! (वह) दस प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार है - (१) उत्पन्नमिश्रिता, (२) विगतमिश्रिता, (३) उत्पन्ना-विगतमिश्रिता, (४) जीवमिश्रिता, (५) अजीवमिश्रिता, Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र (६) जीवाजीवमिश्रिता, (७) अनन्त-मिश्रिता, (८) परित्त (प्रत्येक)-मिश्रिता, (९) अद्धामिश्रिता और (१०) अद्धद्धामिश्रिता । ८६६. असच्चामोसा णं भंते ! भासा अपज्जत्तिया कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुवालसविहा पण्णत्ता । तं जहा आमंतणि १ याऽऽणमणी २ जायणि ३ तह पुच्छणी ४ य पण्णवणी ५। पच्चक्खाणी भासा ६ भासा इच्छाणुलोमा ७ य ॥१९६॥ अणभिग्गहिया भासा ८ भासा य अभिग्गहम्मि बोद्धव्वा ९। संसयकरणी भासा १० वोयडा ११ अव्वोयडा १२ चेव ॥१९७॥ [८६६ प्र.] भगवन् ! असत्यामृषा-अपर्याप्तिका भाषा कितने प्रकार की कही गई है ? [८६६ उ.] गौतम ! (वह) बारह प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार - [गाथार्थ - ] (१) आमंत्रणी, (२) आज्ञापनी, (३) याचनी, (४) पृच्छनी, (५) प्रज्ञापनी, (६) प्रत्याख्यानी भाषा, (७) इच्छानुलोमा भाषा, (८) अनभिगृहीता भाषा, (९) अभिगृहीता भाषा, (१०) संशयकरणी भाषा, (११) व्याकृता और (१२) अव्याकृता भाषा ॥१९६-१९७ ॥ विवेचन - पर्याप्तिका-अपर्याप्तिका भाषा और इनके भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा - प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. ८६० से ८६६ तक) में भाषा के मूल दो भेद - पर्याप्तक, अपर्याप्तक के भेद प्रभेदों का निरूपण किया गया है। ___पर्याप्तिका-अपर्याप्तिका की व्याख्या - पर्याप्तिका - वह भाषा है, जो प्रतिनियत रूप में समझी जा सके। पर्याप्तिका भाषा सत्या और मृषा, ये दो ही होती हैं, क्योंकि ये दो भाषाएँ ही प्रतिनियतरूप से अवधारित की जा सकती हैं। अपर्याप्तिका भाषा वह है, जो मिश्रितप्रतिरूप अथवा मिश्रित-प्रतिषेधरूप होने के कारण प्रतिनियतरूप में अवधारित न की जा सके। अर्थात् – ठीक तरह से निश्चित न की जा सकने के कारण जिसे सत्य या असत्य दोनों में से किसी एक कोटि में रखा न जा सके। अपर्याप्तिका भाषाएँ दो हैं - सत्यामृषा और असत्यामृषा । ये दोनों ही प्रतिनियतरूप में अवधारित नहीं की जा सकती। दशविध सत्यपर्याप्तिका भाषा की व्याख्या - (१) जनपदसत्या - विभिन्न जनपदों (प्रान्तों या प्रदेशों) में जिस शब्द का जो अर्थ इष्ट है, उस इष्ट अर्थ का बोध कराने वाली होने के कारण व्यवहार का हेतु होने से जो सत्य मानी जाती है। जैसे कोंकण आदि प्रदेशों में पय को 'पिच्चम्' कहते हैं। सम्मतसत्या - जो समस्तलोक में सम्मत होने के कारण सत्यरूप में प्रसिद्ध है। जैसे - शैवाल, कुमुद (चन्द्रविकासी कमल) और कमल (सूर्यविकासी कमल) ये सब पंकज हैं - कीचड़ में ही उत्पन्न होते हैं, किन्तु 'पंकज' शब्द से Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद [७३ जनसाधारण 'कमल' अर्थ ही समझत हैं। शैवाल आदि को कोई पंकज नहीं कहता। अतएव कमल को 'पंकज' कहना सम्मतसत्य भाषा है। (३) स्थापनासत्या - तथाविधि (विशेष प्रकार के ) अंकादि के विन्यास तथा मद्रा आदि के ऊपर रचना (छाप) देखकर जिस भाषा का प्रयोग किया जाता है, वह स्थापनासत्य भाषा है। जैसे '१' अंक के आगे दो बिन्दु देखकर कहना - यह सौ (१००) है, तीन बिन्दु देखकर कहना - यह एक हजार (१०००) है। अथवा मिट्टी, चांदी, सोना आदि पर अमुक मुद्रा (मुहरछाप) अंकित देखकर माष, कार्षापण, मुहर (गिन्नी), रुपया आदि कहना । (४) नामसत्या - केवल नाम के कारण ही जो भाषा सत्य मानी जाती है. वह नामसत्या कहलाती है। जैसे - कोई व्यक्ति अपने कल की वद्धि नहीं करता, फिर भी उसका नाम 'कुलवर्द्धन' कहा जाता है। (५) रूपसत्या - जो भाषा केवल अमुक रूप (वेशभूषा आदि) से ही सत्य है। जैसे - किसी व्यक्ति ने दम्भपूर्वक साधु का रूप (स्वांग) बना लिया हो, उसे, 'साधु' कहना रूपसत्या भाषा है। (६) प्रतीत्यसत्या - जो किसी अन्य वस्तु की अपेक्षा से सत्य हो। जैसे - अनामिका अंगुली को 'कनिष्ठा' (सबसे छोटी) अंगुली की अपेक्षा से दीर्घ कहना, और मध्यमा की अपेक्षा से हस्व कहना प्रतीत्यसत्या भाषा है। (७) व्यवहारसत्या - व्यवहार से - लोकविवक्षा से जो सत्य हो वह व्यवहारसत्य भाषा है। जैसे - किसी ने कहा - 'पहाड़ जल रहा है' यहाँ पहाड़ के साथ घास की अभेदविवक्षा करके ऐसा कहा गया है। अत: लोकव्यवहार की अपेक्षा से ऐसा बोलने वाले साधु की भाषा भी व्यवहारसत्या होती है। (८) भावसत्या - भाव से अर्थात् - वर्ण आदि (की उत्कटता) को लेकर जो भाषा बोली जाती हो, वह भावसत्या भाषा है। अर्थात् – जो भाव जिस पदार्थ में अधिकता से पाया जाता है, उसी के आधार पर भाषा का प्रयोग करना भावसत्या भाषा है। जैसे - बलाका (बगुलों की पंक्ति) में पांचों वर्ण होने पर भी उसे श्वेत कहना। (९) योगसत्या - योग का अर्थ है - सम्बन्ध, संयोगः उसके कारण जो भाषा सत्य मानी जाए। जैसे - छत्र के योग से किसी को छत्री कहना, भले ही शब्दप्रयोगकाल में उसके पास छत्रं न हो। इसी प्रकार किसी को दण्ड के योग से दण्डी कहना। (१०) औपम्यसत्या - उपमा से जो भाषा सत्य मानी जाए। जैसे - गौ के समान गवय (रोम्भ) होता है। इस प्रकार की उपमा पर आश्रित भाषा औपम्यसत्या कहलाती है। दशविध पर्याप्तिका मृषाभाषा की व्याख्या - (१) क्रोधनिःसृता - क्रोधवश मुंह से निकली हुई भाषा, (२) माननिःसृता - पहले अनुभव न किये हुए ऐश्वर्य का, अपना आत्मोत्कर्ष बताने के लिए कहना कि हमने भी एक समय ऐश्वर्य का अनुभव किया था, यह कथन मिथ्या होने से माननिःसृता है। (३) मायानिःसृता - परवंचना आदि के अभिप्राय से निकली हुई वाणी। (४) लोभनिःसृता - लोभवश, झूठा तौल-नाप करके पूछने पर कहना यह तौल-नाप ठीक प्रमाणोपेत है, ऐसी भाष लोभनि:सृता है। (५) प्रेय (राग) निःसृता - किसी के प्रति अत्यन्त रागवश कहना – 'मै तो आपका दास हूँ', ऐसी भाषा प्रेयनिःसृता है। (६) द्वेषनिःसृता - द्वेषवश तीर्थकरादि का अवर्णवाद करना। (७) हास्यनिःसृता - हंसी-मजाक में झूठ बोलना। (८) भयनिःसृता - भय से निकली हुई भाषा। जैसे - चोरों आदि के डर से कोई अंटसंट या ऊटपटांग बोलता है, उसकी भाषा भयनि:सृता है। (९) आख्यानिकानिःसृता - किसी कथा-कहानी के Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ] [प्रज्ञापनासूत्र कहने में असम्भव वस्तु का कथन करना। (१०) उपघात-निःसृता - दूसरे के हृदय को उपघात (आघातचोट) पहुँचाने की दृष्टि से मुख से निकाली हुई भाषा । जैसे - किसी पर अभ्याख्यान लगाना कि 'तू चोर है।' अथवा किसी को अंधा या काना कहना। दशविध सत्यामृषा भाषा की व्याख्या - (१) उत्पन्नमिश्रिता - अनुत्पन्नों (जो उत्पन्न नहीं हुए हैं) के साथ संख्यापूर्ति के लिए उत्पन्नों को मिश्रित करके बोलना। जैसे - किसी ग्राम या नगर में कम या अधिक शिशुओं का जन्म होने पर भी कहना कि आज इस ग्राम या नगर में दस शिशुओं का जन्म हुआ है। (२)विगतमिश्रिता - विगत का अर्थ है - मृत । जो विगत न हो, वह अविगत है। अविगतों (जीवितों) के साथ विगतों (मृतों) को संख्या की पूर्ति हेतु मिला कर कहना। जैसे - किसी ग्राम या नगर में कम या अधिक वृद्धों के मरने पर भी ऐसे कहना कि आज इस ग्राम या नगर में बारह बूढ़े मर गए। यह भाषा विगतमिश्रिता सत्यामृषा है। (३) उत्पन्नविगतमिश्रिता - उत्पन्नों (जन्मे हुओं) और मृतकों (मरे हुओं) की संख्या नियत होने पर भी उसमें गड़बड़ करके कहना। (४)जीवमिश्रिता - शंख आदि की ऐसी राशि हो, जिसमें बहुतसे जीवित हों और कुछ मृत हों, उस एक राशि को देख कर कहना कि कितनी बड़ी जीवराशि है, यह जीवमिश्रिता सत्यामृषा भाषा है, क्योंकि यह भाषा जीवित शंखों की अपेक्षा सत्य है और मृत शंखो की अपेक्षा से मृषा। (५) अजीवमिश्रिता -- बहुत-से मृतकों और थोड़े-से जीवित शंखों की एक राशि को देखकर कहना कि 'कितनी बड़ी मृतकों की राशि है,' इस प्रकार की भाषा अजीवमिश्रिता सत्यामृषा भाषा कहलाती है, क्योंकि यह भाषा भी मृतकों की अपेक्षा से सत्य और जीवितों की अपेक्षा मृषा है। (६) जीवाजीवमिश्रिता - उसी पूर्वोक्त राशि को देखकर, संख्या मे विसंवाद होने पर भी नियतरूप से निश्चित कह देना कि इसमें इतने मृतक हैं, इतने जीवित हैं । यहाँ जीवों और अजीवों की विद्यमानता सत्य है, किन्तु उनकी संख्या निश्चित कहना मृषा है। अतएव यह जीवाजीवमिश्रिता सत्यामृषा भाषा है। (७) अनन्तमिश्रिता - मूली, गाजर आदि अनन्तकाय कहलाते हैं, उनके साथ कुछ प्रत्येकवनस्पतिकायिक भी मिले हुए हैं, उन्हें देख कर कहना कि 'ये सब अनन्तकायिक हैं ', यह भाषा अनन्तमिश्रिता सत्यामृषा है।(८) प्रत्येकमिश्रिता - प्रत्येक वनस्पतिकाय का संघात अनन्तकायिक के साथ ढेर करके रखा हो, उसे देखकर कहना कि 'यह सब प्रत्येकवनस्पतिकायिक है': इस प्रकार की भाषा प्रत्येकमिश्रिता सत्यामृषा है। (९) अद्धामिश्रिता - अद्धा कहते हैं - काल को। यहाँ प्रसंग अद्धा से दिन या रात्रि अर्थ ग्रहण करना चाहिए, जिसमें दोनों का मिश्रण करके कहा जाए। जैसे - अभी दिन विद्यमान है, फिर भी किसी से कहा-उठ, रात पड़ गई। अथवा रात्रि शेष है, फिर भी कहना उठ, सूर्योदय हो गया। (१०) अद्धाद्धामिश्रिता - अद्धाद्धा कहते हैं - दिन या रात्रि काल के एक देश (अंश) को। जिस भाषा के द्वारा उन कालांशों का मिश्रण करके बोला जाए। जैसे - अभी पहला पहर चल रहा हे, फिर भी कोई व्यक्ति किसी को जल्दी करने की दृष्टि से कहे कि 'चल, मध्याह्न हो गया है,' ऐसी भाषा अद्धाद्धामिश्रिता है। बारह प्रकार असत्यामृषा भाषा की व्खख्या - (१) आमंत्रणी - सम्बोधनसूचक भाषा। जैसे - हे Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद ] [ ७५ देवदत्त ! । ( २ ) आज्ञापनी जिसके द्वारा दूसरे को किसी प्रकार की आज्ञा दी जाए। जैसे- 'तुम यह कार्य करो।' आज्ञापनी भाषा दूसरे को कार्य में पवृत्त करने वाली होती है। ( ३ ) याचनी - किसी वस्तु की याचना करने (मांगने) के लिए प्रयुक्त की जाने वाली भाषा । जैसे- मुझे दीजिए। ( ४ ) पृच्छनी - किसी संदिग्ध या अनिश्चित वस्तु के विषय में किसी विशिष्ट ज्ञाता से जिज्ञासावश पूछना कि 'इस शब्द का अर्थ क्या है?' (५) प्रज्ञापनी - विनीत शिष्यादि जनों के लिए उपदेशरूप भाषा । जैसे- जो प्राणिहिंसा से निवृत्त होते हैं, वे . दूसरे जन्म में दीर्घायु होते हैं । ( ६ ) प्रत्याख्यानी - जिस भाषा के द्वारा अमुक वस्तु का प्रत्याख्यान कराया जाए या प्रकट किया जाए। जैसे- आज तुम्हारे एक प्रहर तक आहार करने का प्रत्याख्यान है । अथवा किसी के द्वारा याचना करने पर कहना कि 'मैं यह वस्तु तुम्हें नहीं दे सकता।' (७) इच्छानुलोमा - जो भाषा इच्छा अनुकूल हो, अर्थात् - वक्ता के इष्ट अर्थ का समर्थन करने वाली हो। इसके अनेक प्रकार हो सकते हैं (१) जैसे कोई किसी गुरुजन आदि से कहे- 'आपकी अनुमति (इच्छा) हो तो मैं प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ । ' (२) कोई व्यक्ति किसी साथी से कहे- 'आपकी इच्छा हो तो यह कार्य कीजिए', (३) आप यह कार्य कीजिए, इसमें मेरी अनुमति है । (या ऐसी मेरी इच्छा है)। इस प्रकार की भाषा इच्छानुलोमा कहलाती है । ( ८ ) अनभिगृहीता - जो भाषा किसी नियत अर्थ का अवधारण न कर पाती हो, वक्ता की जिस भाषा में कार्य का कोई निश्चित रूप न हो, वह अनभिगृहीता भाषा है। जैसे किसी के सामने बहुत-से कार्य उपस्थित हैं, अत: वह अपने किसी बड़े या अनुभवी से पूछता है - 'इस समय मैं कौन-सा कार्य करूं ?' इस पर वह उत्तर देता है - 'जो उचित समझो, करो।' ऐसी भाषा से किसी विशिष्ट कार्य का निर्णय नहीं होता, अत: इसे अनभिगृहीता भाषा कहते हैं । ( ९ ) अभिगृहीता - जो भाषा किसी नियत अर्थ का निश्चय करने वाली हो, जैसे - " इस समय अमुक कार्य करो, दूसरा कोई कार्य न करो।' इस प्रकार की भाषा 'अभिगृहीता' है । (१०) संशयकरणी - जो भाषा अनेक अर्थों को प्रकट करने के कारण दूसरे के चित्त में संशय उत्पन्न कर देती हो। जैसे किसी ने किसी से कहा- 'सैन्धव ले आओ' । सैन्धव शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, जैसे घोड़ा, नमक, वस्त्र और पुरुष । 'सैन्धव' शब्द को सुनकर यह संशय उत्पन्न होता है कि यह नमक मंगवाता है, घोड़ा आदि। यह संशयकरणी भाषा है । ( ११ ) व्याकृता - जिस भाषा का अर्थ स्पष्ट हो, जैसे- यह घड़ा है । (१२) अव्याकृता - जिस भाषा का अर्थ अत्यन्त ही गृढ़ हो, अथवा अव्यक्त (अस्पष्ट ) अक्षरों का प्रयोग करना अव्याकृता भाषा है, क्योंकि वह भाषा ही समझ में नहीं आती।. यह बारह प्रकार की अपर्याप्ता असत्यामृषा भाषा है। यह भाषा पूर्वोक्त सत्या, मृषा और मिश्र इन तीनों भाषाओं के लक्षण से विलक्षण होने के कारण न तो सत्य कहलाती है, न असत्य और न ही सत्यामृषा । यह भाषा केवल व्यवहारप्रवर्तक है, जो साधुजनों के लिए भी बोलने योग्य मानी गई है। १. 'पाणिवहाउ नियत्ता हवंति दीहाउया अरोगा य । एमाई पण्णत्ता पण्णवणी वीयरागेहिं ॥ २. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २५७ से २५९ तक (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका सहित भा. ३, पृ. ३०३ से ३२० तक - प्रज्ञापना. म. वृ. प. २५९ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ] [प्रज्ञापनासूत्र समस्त जीवों के विषय में भाषक-अभाषक प्ररूपणा ८६७. जीवा णं भंते ! किं भासगा अभासगा? गोयमा ! जीवा भासगा वि अभासगा वि। से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चति जीवा भासगा वि अभासगा वि? गोयमा ! जीवा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - संसारसमावण्णगा य असंसारसमावण्णगा य। तत्थ णं जे ते असंसारसमावण्णगा ते णं सिद्धा, सिद्धा णं अभासगा। तत्थ णं जे ते संसारसमावण्णया ते णं दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - सेलसिपडिवण्णगा य असेलेसिपडिवण्णगा य। तत्थ णं जे ते सेलेसिपडिवण्णगा ते णं अभासगा। तत्थ णं जे ते असेलेसिपडिवण्णगा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- एगिंदिया य अणेगिंदिया य। तत्थ णं जे ते एगिंदिया ते णं अभासगा। तत्थ णं जे ते अणेगिंदिया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - पजत्तगा य अपज्जत्तया य। तत्थ णं जे ते अपज्जत्तगा ते णं अभासगा। तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा ते णं भासगा। से एतेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चति जीवा भासगा वि अभासगा वि। [८६७ प्र.] भगवन् ! जीव भाषक हैं या अभाषक ? [८६७ उ.] गौतम ! जीव भाषक भी हैं और अभाषक भी हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि जीव भाषक भी हैं और अभाषक भी हैं ? . [उ.] गौतम ! जीव दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार - संसारसमापन्नक और असंसारसमापन्नक। उनमें से जो असंसारसमापन्नक जीव हैं, वे सिद्ध हैं और सिद्ध अभाषक होते हैं तथा उनमें जो संसारसमापन्नक (संसारी) जीव हैं, वे (भी) दो प्रकार के हैं - शैलेशीप्रतिपन्नक और अशैलेशीप्रतिपन्नक। उनमें जो शैलेशीप्रतिपन्नक हैं, वे अभाषक हैं। उनमें जो अशैलेशीप्रतिपन्नक हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार - एकेन्द्रिय (स्थावर) और अनेकन्द्रिय (त्रस)। उनमें से जो एकेन्द्रिय हैं, वे अभाषक हैं। उनमें से जो अनेकेन्द्रिय हैं, वे दो प्रकार के हैं। वे इस प्रकार - पर्याप्तक और अपर्याप्तक । जो अपर्याप्तक हैं, वे अभाषक हैं। जो पर्याप्तक हैं, वे भाषक हैं। हे गौतम ! इसी हेतु से ऐसा कहा जाता है कि जीव भाषक भी हैं और अभाषक भी हैं। ८६८. नेरइया णं भंते ! किं भासगा अभासगा? गोयमा ! नेरइया भासगा वि अभासगा वि। से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चति नेरइया भासगा वि अभासगा वि ? गोयमा ! णेरइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - पजत्तगा य अपज्जत्तगा य, तत्थ णं जे ते अपज्जत्तगा ते णं अभासगा, तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा ते णं भासगा, से एएणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद] [७७ णेरइया भासगा वि अभासगा वि । [८६८ प्र.] भगवन् ! नैरयिक भाषक हैं या अभाषक? [८६८ उ.] गौतम ! नैरयिक भाषक भी हैं, अभाषक भी । [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहते हैं कि नैरयिक भाषक भी हैं और अभाषक भी ? [उ.] गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार - पर्याप्तक और अपर्याप्तक । इनमें जो अपर्याप्तक हैं, वे अभाषक हैं और जो पर्याप्तक हैं, वे भाषक हैं । हे गौतम ! इसी हेतु से ऐसा कहा जाता है कि नैरयिक भाषक भी हैं और अभाषक भी। ८६९. एवं एगिदियवजाणं णिरंतरं भाणियव्वं । [८६९.] इसी प्रकार एकेन्द्रियों को छोड़कर (द्वीन्द्रियों से लेकर वैमानिक देवों पर्यन्त) निरन्तर (लगातार) सभी के विषय में समझ लेना चाहिए। विवेचन - समस्त जीवों के विषय में भाषक-अभाषक-प्ररूपणा - प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. ८६७ से ८६९ तक) में समुच्चय जीवों की भाषकता-अभाषकता का विश्लेषण करके नैरयिक से लेकर वैमानिक तक चौबीस दण्डकवर्ती संसारी जीवों की भाषकता-अभाषकता का निरूपण किया गया है। एकेन्द्रिय जीव अभाषक क्यों - जिह्वेन्द्रिय से रहित होने के कारण एकेन्द्रिय जीव अभाषक ही होते चतुर्विध भाषाजात एवं समस्त जीवों में उसकी प्ररूपणा ८७०. कति णं भंते ! भासज्जाता पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि भासजाता पण्णत्ता। तं जहा - सच्चमेगं भासज्जातं १ बितियं मोसं २ ततियं सच्चामोसं ३ चउत्थं असच्चामोसं ४। [८७० प्र.] भगवन् ! भाषाजात (भाषा के प्रकार - रूप) कितने कहे गए हैं ? [८७० उ.] गौतम ! चार भाषाजात कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं- (१) एक सत्य भाषाजात, (२) दूसरा मृषा भाषाजात, (३) तीसरा सत्यामृषा भाषाजात और, (४) चौथा असत्यामृषा भाषाजात । ८७१. जीवा णं भंते ! किं सच्चं भासं भासंति ? मोसं भासं भासंति ? सच्चामोसं भासं भासंति ? असच्चामोसं भासं भासंति ? गोयमा ! जीवा सच्चं पि भासं भासंति, मोसं पि भासं भासंति, सच्चामोसं पि भासं भासंति, १. (क) पण्णवणासुत्तं भा.१ (मूलपाठ) पृ.२१४-२१५, (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा.३.प्र.३२७ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ] । प्रज्ञापनासूत्र असच्चामोसं पि भासं भासंति ? [८७१ प्र.] भगवन् ! जीव क्या सत्यभाषा बोलते हैं, मृषाभाषा बोलते हैं, सत्यामृषा भाषा बोलते हैं अथवा असत्यामृषा भाषा बोलते हैं ? __ [८७१ उ.] गौतम ! जीव सत्यभाषा भी बोलते हैं, मृषाभाषा भी बोलते हैं सत्या-मृषा भाषा भी बोलते हैं और असत्यामृषा भाषा भी बोलते हैं। ८७२. णेरड्या णं भंते ! किं सच्चं भासं भासंति जाव किं असच्चामोसं भासं भासंति? गोयमा ! णेरइया णं सच्चं पि भासं भासंति जाव असच्चामोसं पि भासं भासंति। [८७२ प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक सत्यभाषा बोलते हैं, मृषाभाषा बोलते हैं, सत्यामृषा भाषा बोलते हैं, अथवा बसत्यामृषा भाषा बोलते हैं। [८७२ उ.] गौतम ! नैरयिक सत्यभाषा भी बोलते हैं, मृषाभाषा भी बोलते हैं, सत्यामृषा भाषा भी बोलते हैं और असत्यामृषा भाषा भी बोलते हैं। ८७३. एवं असुरकुमारा जाव थणियकुमारा । [८७३] इसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर यावत् स्तनितकुमारों तक (की भाषा के विषय के समझ लेना चाहिए ।) ८७४. बेइंदिय-तेइंदिय-चउरि दिया य णो सच्चं णो मोसं णो सच्चामोसं भासं भासंति, असच्चामोसं भासं भासंति। [८७४] द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव न तो सत्यभाषा (बोलते हैं), न मृषाभाषा (बोलते हैं) और न ही सत्यामृषा भाषा बोलते हैं, (किन्तु वे) असत्यामृषा भाषा बोलते हैं। ८७५. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! किं सच्चं भासं भासंति ? जाव (सु. ८७१) किं असच्चामोसं भासं भासंति ? गोयमा ! पंचेंदियतिरिक्खजोणिया णो सच्चं भासं भासंति, णो मोसं भासं भासंति, णो सच्चामोसं भासं भासंति, एगं असच्चामोसं भासं भासंति, णऽण्णत्थ सिक्खापुव्वगं उत्तरगुणलद्धिं वा पहुच्च सच्चं भासं भासंति, मोसं पि भासं भासंति, सच्चामोसं पि भासं भासंति, असच्चामोसं पि भासं भासंति। [८७५ प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव क्या सत्यभाषा बोलते हैं ? यावत् क्या (वे) असत्यामृषा भाषा बोलते हैं ? Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद] [७९ [८७५ उ.] गौतम ! पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव, न तो सत्यभाषा बोलते हैं, न मृषाभाषा बोलते हैं और न ही सत्यामृषाभाषा बोलते हैं, व सिर्फ एक असत्यामृषाभाषा बोलते हैं: सिवाय शिक्षापूर्वक अथवा उत्तरगुणलब्धि की अपेक्षा से (तैयार हुए पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के, जो कि) सत्यभाषा भी बोलते हैं, मृषाभाषा भी बोलते हैं, सत्यामृषा भाषा भी बोलते हैं तथा असत्यामृषा भाषा भी बोलते हैं। ८७६. मणुस्सा जाव वेमाणिया एए जहा जीवा (८७१) तहा भाणियव्वा। [८७६] मनुष्यों से लेकर (वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क) वैमानिकों तक की भाषा के विषय में औधिक जीवों की भाषाविषयकप्ररूपणा के समान (सूत्र ८७१ के अनुसार) कहना चाहिए। विवेचन - चतुर्विध भाषाजात एवं समस्त जीवों में उसकी प्ररूपणा - प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. ८७० से ८७६ तक) में चार प्रकार की भाषाओं का निरूपण करके समुच्चय जीव एवं चौवीस दण्डकों के अनुसार नैरयिकों से वैमानिकों तक के जीवों में से कौन, कौन-कौनसी भाषा बोलते हैं ? इसकी संक्षिप्त प्ररूपणा की गई है। द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियों एवं तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों की भाषाविषयक प्ररूपणा - द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में केवल असत्यामृषा के सिवाय शेष तीनों भाषाओं का जो निषेध किया गया है, उसका कारण यह है कि उनमें न तो सम्यग्ज्ञान होता है और न ही परवंचना आदि का अभिप्राय हो सकता हैं। इसी प्रकार तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों में सिवाय कुछ अपवादों के केवल असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा के अतिरिक्त शेष तीनों भाषाओं का निषेध किया गया है, इसका कारण यह है कि वे न तो सम्यक् रूप से, यथावस्थित वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन करने के अभिप्राय से बोलते हैं और न ही दूसरों को धोखा देने या ठगने के आशय से बोलते हैं, किन्तु कुपित अवस्था में या दूसरों को मारने की कामना से जब भी वे बोलते हैं, तब इसी एक ही रूप से बोलते हैं । अतएव उनकी भाषा असत्यामृषा होती है। शास्त्रकार इनके विषय में कुछ अपवाद भी बताते हैं, वह यह है कि शुक्र (तोता), सारिका (मैना) आदि किन्हीं विशिष्ट तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों को यदि प्रशिक्षित (Trained) किया जाय, अथवा संस्कारित किया जाय तथा विशिष्ट प्रकार का क्षयोपशम होने से किन्हीं को जातिस्मरणज्ञानादि रूप किसी उत्तरगुण की लब्धि हो जाए, अथवा विशिष्ट व्यवहारकौशलरूप लब्धि प्राप्त हो जाए तो वे सत्यभाषा भी बोलते हैं, असत्यभाषा भी बोलते हैं और सत्यामृषा (मिश्र) भाषा भी बोलते हैं। अर्थात्-वे चारों ही प्रकार की भाषा बोलते हैं। जीव द्वारा ग्रहणयोग्य भाषाद्रव्यों के विभिन्नरूप ८७७.[१] जीवे णं भंते ! जाई दव्वाइं भासत्ताए गेण्हति ताई किं ठियाइं गेण्हति ? अठियाइं गेण्हति ? १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २६० Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०] [प्रज्ञापनासूत्र गोयमा ! ठियाइं गेण्हति, णो अठियाइं गेण्हति । [८७७-१ प्र.] भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को भाषा के रूप में ग्रहण करता है, सो स्थित (गमनक्रियारहित) द्रव्यों को ग्रहण करता है या अस्थित (गमन क्रियावान्) द्रव्यों को ग्रहण करता है ? [८७७-१ उ.] गौतम ! (वह) स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है, अस्थित द्रव्यों को ग्रहण नहीं करता। [२] जाइं भंते ! ठियाइं गेण्हति ताई किं दव्वओ गेण्हति ? खेत्तओ गेण्हति ? कालओ गेण्हति ? भावओ गेण्हति ? गोयमा ! दव्वओ वि गेण्हति, खेत्तओ वि गेण्हति, कालओ वि गेण्हति, भावओ वि गेण्हति। [८७७-२] भगवन् ! (जीव) जिन स्थित द्रव्यों को (भाषा के रूप में) ग्रहण करता है, उन्हें क्या (वह) द्रव्य से ग्रहण करता है, क्षेत्र से ग्रहण करता है, काल से ग्रहण करता है, अथवा भाव से ग्रहण करता है ? [८७७-२] गौतम ! (वह उन स्थित द्रव्यों को) द्रव्यतः भी ग्रहण करता है, क्षेत्रतः भी ग्रहण करता है, कालतः भी ग्रहण करता है और भावतः भी ग्रहण करता है। [३] जाइं दव्वओ गेण्हति ताई किं एगपएसियाई गिण्हति दुपएसियाइं गेण्हति जाव अणंतपएसियाइं गेण्हति ? गोयमा ! णो एगपएसियाई गेण्हति जाव णो असंखेजपएसियाइं गेण्हति, अणंतपएसियाई गेण्हति। [८७७-३ प्र.] भगवन् ! (जीव) जिन (स्थित द्रव्यों) को द्रव्यतः ग्रहण करता है, क्या वह उन एकप्रदेशी (द्रव्यों) को ग्रहण करता है, द्विप्रदेशी को ग्रहण करता है? यावत अनन्तप्रदेशी द्रव्यों को ग्रहण करता है ? [८७७-३ उ.] गौतम! (जीव) न तो एकप्रदेशी द्रव्यों को ग्रहण करता है, यावत् न असंख्येयप्रदेशी द्रव्यों को ग्रहण करता है, (किन्तु) अनन्तप्रदेशी द्रव्यों को ग्रहण करता है। [४] जाई खेत्तओ ताई किं एगपएसोगाढाई गेण्हति दुपएसोगाढाई गेण्हति जाव असंखेजपएसोगाढाइं गेण्हति ? ___गोयमा ! णो एगपएसोगाढाइं गेण्हति जाव णो संखेजपएसोगाढाई गेण्हति, असंखेजपएसोगाढाइं गेण्हति । [८७७-४ प्र.] जिन (स्थित द्रव्यों को जीव) क्षेत्रत: ग्रहण करता है, क्या (वह जीव) एकप्रदेशावगाढ द्रव्यों को ग्रहण करता है, द्विप्रदेशावगाढ़ द्रव्यों को ग्रहण करता है, यावत् असंख्येयप्रदेशावगाढ़ द्रव्यों को ग्रहण करता है? Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद] [८१ [८७७-४ उ.] गौतम ! (वह) न तो एकप्रदेशावगाढ़ द्रव्यों को ग्रहण करता है, यावत् न संख्यातप्रदेशावगाढ़ द्रव्यों को ग्रहण करता है, (किन्तु) असंख्यातप्रदेशावगाढ़ द्रव्यों को ग्रहण करता है। [५] जाइं कालओ गेण्हति ताई किं एगसमयट्ठिताइं गेण्हति दुसमयठितीयाइं गेण्हति जाव असंखेजसमयठितीयाइं गेण्हति ? गोयमा ! एगसमयठितीयाइं पिगेण्हति, दुसमयठितीयाइं पिगेण्हति, जाव असंखेजसमयठितीयाई पि गेण्हति? [८७७-५ प्र.] (जीव) जिन (स्थित द्रव्यों) को कालत: ग्रहण करता है, क्या (वह) एक समय की स्थिति वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है, दो समय की स्थिति वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है ? यावत् असंख्यात समय की स्थिति वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है ? [८७७-५ उ.] गौतम ! (वह) एक समय की स्थिति वाले द्रव्यों को भी ग्रहण करता है, दो समय की स्थिति वाले द्रव्यों को भी ग्रहण करता है, यावत् असंख्यात समय की स्थिति वाले द्रव्यों को भी ग्रहण करता (६) जाइं भावओ गेण्हति ताई किं वण्णमंताई गेण्हति गंधमंताई गेण्हति रसमंताई गेण्हति फासमंताई गेण्हति ? गोयमा ! वण्णमंताई पि गेण्हति जाव फासमंताई पि गेण्हति। [८७७-६ प्र.] (जीव) जिन (स्थित द्रव्यों) को भावत: ग्रहण करता है, क्या वह वर्ण वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है, गन्ध वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है, रस वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है अथवा स्पर्श वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है? [७] जाइं भावओ वण्णमंताई गेण्हति ताई किं एगवण्णाइं गेण्हति जाव पंचवण्णाइं गेण्हति? गोयमा ! गहणदव्वाइं पडुच्च एगवण्णाई पि गेण्हति जाव पंचवण्णाइं पि गेण्हति, सव्वग्गहणं पडुच्च णियमा पंचवण्णाइं गेण्हति, तं जहा - कालाइं नीलाइं लोहियाइं हालिद्दाइं सुक्किलाइं। [८७७-७ प्र.] भावत: जिन वर्णवान् (स्थित) द्रव्यों को (जीव) ग्रहण करता है क्या (वह) एक वर्ण वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है, यावत् पांच वर्ण वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है ? [८७७-७] गौतम ! ग्रहण (ग्राह्य) द्रव्यों की अपेक्षा से (वह) एक वर्ण वाले द्रव्यों को भी ग्रहण करता है, यावत् पांच वर्ण वाले द्रव्यों को भी ग्रहण करता है। (किन्तु) सर्वग्रहण की अपेक्षा से (वह) नियमत: पांच वर्णो वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है। जैसे कि - काले, नीले, लाल, पीले और शुक्ल (सफेद)। [८] जाइं वण्णओ कालाइं गेण्हति ताई किं एगगुणकालाइं गेण्हति जाव अणंतगुणकालाई Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ ] [प्रज्ञापनासूत्र गेण्हति ? गोयमा ! एगगुणकालाई पि गेण्हति जाव अणंतगुणकालाई पि गेण्हति। एवं जाव सुक्किलाई पि। [८७७-८ प्र.] भगवन् ! वर्ण से काले जिन (स्थित द्रव्यों) को (जीव) ग्रहण करता है, क्या (वह) उन एकगुण काले द्रव्यों को ग्रहण करता है ? अथवा यावत् अनन्तगुण काले द्रव्यों को ग्रहण करता है ? - [८७७-८ उ.] गौतम ! (वह) एकगुणकृष्ण (भाषाद्रव्यों) को भी ग्रहण करता है और यावत् अनन्तकृष्ण (भाषाद्रव्यों) को भी ग्रहण करता है। इसी प्रकार यावत् शुक्ल वर्ण तक के ग्राह्य भाषाद्रव्यों के ग्रहण के विषय में भी कहना चाहिए। [९] जाइं भावओ गंधमंताई गेण्हति ताई किं एगगंधाइं गेण्हति दुगंधाइं गेण्हति ? गोयमा ! गहणदव्वाइं पडुच्च एगगंधाई पि गेण्हति दुगंधाई पि गेण्हति, सव्वग्गहणं पडुच्च नियमा दुगंधाइं गेण्हति ।। [८७७-९ प्र.] भावतः जिन गन्धवान् भाषाद्रव्यों को (जीव) ग्रहण करता है, क्या (वह) एक गन्ध वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है ? या दो गन्ध वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है ? [८७७-९ उ.] गौतम ! ग्रहण द्रव्यों की अपेक्षा से (वह) एक गन्ध वाले (भाषाद्रव्यों को) भी ग्रहण करता है, तथा दो गन्ध वाले (द्रव्यों को) भी ग्रहण करता है: (किन्तु) सर्वग्रहण की अपेक्षा से नियमत: दो गन्ध वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है। [१०] जाइं गंधओ सुब्भिगंधाइं गेण्हति ताई किं एगगुणसुब्भिगंधाइं गेण्हति जाव अणंतगुणसुब्भिगंधाइं गेण्हति ? - गोयमा ! एगगुणसुब्भिगंधाई पि गेहति जाव अणंतगुणसुब्भिगंधाइँ पि गेण्हति। एवं दुन्भिगंधाइं पि गेण्हति । [८७७-१० प्र.] (भगवन् !) गन्ध से सुगन्ध वाले जिन (भाषाद्रव्यों) को (जीव) ग्रहण करता है, क्या (वह) एकगुण सुगन्ध वाले (भाषाद्रव्यों को) ग्रहण करता है, (अथवा) यावत् अनन्तगुण सुगन्ध वाले (भाषाद्रव्यों को) ग्रहण करता है ? [८७७-१० उ.] गौतम ! (वह) एकगुण सुगन्ध वाले (भाषाद्रव्यों को) भी ग्रहण करता है, यावत् अनन्तगुण सुगन्ध वाले (भाषाद्रव्यों को) भी ग्रहण करता है। इसी तरह वह एकगुण दुर्गन्ध वाले (भाषाद्रव्यों को) भी ग्रहण करता है, यावत् अनन्तगुण दुर्गन्ध वाले (भाषाद्रव्यों को) भी ग्रहण करता है। [११] जाइं भावतो रसमंताई गेण्हति ताइं किं एगरसाइं गेण्हति ? जाव किं पंचरसाइं गेण्हति? Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद] [८३ गोयमा ! गहणदव्वाइं पडुच्च एगरसाइं पि गेण्हति जाव पंचरसाइं पि गेण्हति, सव्वगहणं प णडुच्च णियमा पंचरसाइं गेण्हति। [८७७-११ प्र.] भावतः रस वाले जिन भाषाद्रव्यों को जीव ग्रहण करता है, क्या वह एक रस वाले (भाषाद्रव्यों को) ग्रहण करता है, (अथवा) यावत् पांच रस वाले (द्रव्यों को) ग्रहण करता है ? [८७७-११ उ.] गौतम ! ग्रहणद्रव्यों की अपेक्षा से (वह) एक रस वाले (भाषाद्रव्यों को) भी ग्रहण करता है, यावत् पांच रस वाले द्रव्यों को भी ग्रहण करता है। किन्तु सर्वग्रहण की अपेक्षा से नियमतः पांच रस वाले भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है। [१२] जाइं रसतो तित्तरसाइंगेण्हति ताई किं एगगुणतित्तरसाइंगेण्हति जाव अणंतगुणतित्तरसाइं गेण्हति ? गोयमा ! एगगुणतित्तंरसाइं पि गेण्हति जाव अणंतगुणतित्तरसाई पि गेण्हति। एवं जाव महुरो रसो। . [८७७-१२ प्र.] ! रस से तिक्त (तीखे) रस वाले जिन (भाषाद्रव्यों) को ग्रहण करता है, क्या (वह) उन एकगुण तिक्तरस वाले (भाषाद्रव्यों को) ग्रहण करता है, यावत् (अथवा) अनन्तगुण तिक्तरस वाले (भाषाद्रव्यों को) ग्रहण करता है ? [८७७-१२ उ.] गौतम ! (वह) एकगुण तिक्तरस वाले (भाषाद्रव्यों को) भी ग्रहण करता है, यावत् अनन्तगुण तिक्तरस वाले (द्रव्यों को) भी ग्रहण करता है। इसी प्रकार यावत् मधुर रस वाले भाषाद्रव्यों के ग्रहण के विषय में कहना चाहिए। [१३] जाइं भावतो फासमंताई गेण्हति ताई किं एगफासाइं गेण्हति, जाव अट्ठफासाइं गेण्हति? गोयमा ! गहणदव्वाइं पडुच्च णो एगफासाइं गिण्हति, दुफासाइं गिण्हति जाव चउफासाइं पि गेण्हति, णो पंचफासाइं गेण्हति, जाव णो अट्ठफासाइं पि गेण्हति। सव्वग्गहणं पडुच्च णियमा चउफासाइं गेण्हति। तं जहा - सीयफासाइं गेण्हति, उसिणफासाइं गेण्हति, णिद्धफासाइं गेण्हति, लुक्खफासाइं गेण्हति। [८७७-१३ प्र.] भावतः जिन स्पर्श वाले भाषाद्रव्यों को (जीव) ग्रहण करता है, (तो) क्या (वह) एक स्पर्श वाले (भाषाद्रव्यों को) ग्रहण करता है, (अथवा) यावत् आठ स्पर्श वाले भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है ? [८७७-१३ उ.] गौतम ! ग्रहणद्रव्यों की अपेक्षा से एक स्पर्श वाले द्रव्यों को ग्रहण नहीं करता, दो स्पर्श वाले भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है, यावत् चार स्पर्श वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है, किन्तु पांच स्पर्श Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ] [प्रज्ञापनासूत्र वाले द्रव्यों को ग्रहण नहीं करता, यावत् आठ स्पर्श वाले भाषाद्रव्यों को ग्रहण नहीं करता। सर्वग्रहण की अपेक्षा से नियमत: चार स्पर्श वाले (चतु:स्पर्शी) भाषाद्रव्यों को (वह) ग्रहण करता है: वे चार स्पर्श वाले द्रव्य इस प्रकार हैं - शीतस्पर्श वाले (द्रव्यों को) ग्रहण करता है, उष्णस्पर्श वाले (द्रव्यों को) ग्रहण करता है, स्निग्ध (चिकने) स्पर्श वाले (द्रव्यों को) ग्रहण करता है, और रूक्षस्पर्श वाले (द्रव्यों को) ग्रहण करता है। [१४] जाइं फासओ सीयाइं गेण्हति ताइं किं एगगुणसीयाई नेण्हति जाव अणंतगुणसीयाई गेण्हति? ... गोयमा ! एगगुणसीयाइं पि गेण्हति जाव अणंतगुणसीयाई पि गेण्हति। एवं उसिण-णिद्धलुक्खाइं जाव अणंतगुणाई पि गिण्हति । । [८७७-१४ प्र.] स्पर्श से जिन शीतस्पर्श वाले भाषाद्रव्यां को (जीव) ग्रहण करता है, क्या (वह) एकगुण शीतस्पर्श वाले (भाषाद्रव्यों को) ग्रहण करता है, (अथवा) यावत् अनन्तगुण शीतस्पर्श वाले (भाषाद्रव्यों को) ग्रहण करता है ? [८७७-१४ उ.] गौतम ! (वह) एकगुण शीत द्रव्यों को भी ग्रहण करता है, यावत् अनन्तगुण शीतस्पर्श वाले (भाषाद्रव्यों को) भी ग्रहण करता है। इसी प्रकार उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श वाले (भाषाद्रव्यों के ग्रहण करने के विषय में), अनन्तगुण उष्णादि स्पर्श वाले द्रव्यों को भी ग्रहण करता है (तेक कहना चाहिए ।) [१५] जाइं भंते ! जाव अणंतगुणलुक्खाइं गेण्हति ताई किं पुट्ठाइं गेण्हति अपुट्ठाइं गेण्हति ? गोयमा ! पुट्ठाइं गेण्हति, णो अपुट्ठाइं गेण्हति । [८७७-१५ प्र.] भगवन् ! जिन एकगुण कृष्णवर्ण से लेकर अनन्तगुण रूक्षस्पर्श तक के (भाषा) द्रव्यों को (जीव) ग्रहण करता है, क्या (वह) उन स्पृष्ट द्रव्यों को ग्रहण करता है, अथवा अस्पृष्ट द्रव्यों को ग्रहण करता है? ___[८७७-१५ उ.] गौतम ! (वह) स्पृष्ट भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है, अस्पृष्ट द्रव्यों को ग्रहण नहीं करता । [१६] जाइं भंते ! पुट्ठाइं गेण्हति ताई किं ओगाढाइं गेण्हति अणोगाढाइं गिण्हति ? गोयमा ! ओगाढाइं गेण्हति, णो अणोगाढाइं गेण्हति । [८७७-१६ प्र.] भगवन् ! जिन स्पृष्ट द्रव्यों को जीव ग्रहण करता है, क्या वह अवगाढ द्रव्यों को ग्रहण करता है, अथवा अनवगाढ द्रव्यों को ग्रहण करता है ? [८७७-१६ उ.] गौतम ! वह अवगाढ द्रव्यों को ग्रहण करता है, अवगाढ द्रव्यों को ग्रहण नहीं करता। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद] [८५ [१७] जाइं भंते ! ओगाढाइं गेण्हति ताई किं अणंतरोगाढाइं गेण्हति, परंपरोगाढाइं गेण्हति ? गोयमा ! अणंतरोगाढाइं गेण्हति, णो परंपरोगाढाइं गेण्हति। [८७७-१७ प्र.] भगवन् ! (जीव) जिन अवगाढ द्रव्यों को ग्रहण करता है, क्या (वह) उन अनन्तरावगाढ द्रव्यों को ग्रहण करता है, अथवा परम्परावगाढ द्रव्यों को ग्रहण करता है ? [८७७-१७ उ.] गौतम ! (वह) अनन्तरावगाढ द्रव्यों को ग्रहण करता है, किन्तु परम्परावगाढ द्रव्यों को ग्रहण नहीं करता । [१८] जाइं भंते ! अणंतरोगाढाइं गेण्हति ताई किं अणूइं गेण्हति ? बादराई गेण्हति ? गोयमा ! अणूई पि गेण्हइ बादराई पि गेण्हति । . [८७७-१८ प्र.] भगवन् ! (जीव) जिन अनन्तरावगाढ द्रव्यों को ग्रहण करता है, क्या (वह) अणुरूप द्रव्यों को ग्रहण करता है, अथवा बादर द्रव्यों को ग्रहण करता है ? __[८७७-१८ उ.] गौतम ! (वह) अणुरूप द्रव्यों को भी ग्रहण करता है और बादर द्रव्यों को भी ग्रहण करता है। __ [१९] जाइं भंते ! अणूइं पि गेण्हति बायराइं पि गेण्हति ताई किं उड्ढं गेण्हति ? अहे गेण्हति ? तिरियं गेण्हति ? गोयमा ! उड्ढं पि गिण्हति, अहे पि गिण्हति, तिरियं पि गेण्हति [८७७-१९ प्र.] भगवन् जिन अणुद्रव्यों को (जीव) ग्रहण करता है, क्या उन्हें (वह) ऊर्ध्व (दिशा में) स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है, अधः (नीचे) दिशा अथवा तिर्यक् दिशा में स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता [८७७-१९ उ.] गौतम ! (वह) अणुद्रव्यों को ऊर्ध्व दिशा में, अधः (नीचे) दिशा में और तिरछी दिशा में स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है। [२०] जाइं भंते ! उड्ढं पि गेण्हति अहे पि गेण्हति तिरियं पि गेण्हति ताई किं आई गेण्हति ? मज्झे गेण्हति ? पज्जवसाणे गेण्हति ? गोयमा ! आई पि गेण्हति, मझे वि गेण्हति, पजवसाणे वि गेण्हति । . [८७७-२० प्र.] भगवन् ! (जीव) जिन (अणुद्रव्यों) को ऊर्ध्व, अधः और तिर्यक् दिशा में स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है, क्या वह उन्हें आदि (प्रारम्भ) में ग्रहण करता है, मध्य में ग्रहण करता है, अथवा अन्त में ग्रहण करता है ? Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ] [ प्रज्ञापनासूत्र [८७७-२०] गौतम ! वह उन (ऊर्ध्वादिगृहीत द्रव्यों) को आदि में भी ग्रहण करता है, मध्य में भी ग्रहण करता है और पर्यवसान (अन्त) में भी ग्रहण करता है। [२१] जाइं भंते ! आई पि गेण्हति मझे वि गेण्हति पजवसाणे वि गेण्हति ताई किं सविसए गेण्हति ? अविसए गेण्हति ? गोयमा ! सविसए गेण्हति, णो अविसए गेण्हति । [८७७-२१ प्र.] जिन (भाषा द्रव्यों) को जीव आदि, मध्य और अन्त में ग्रहण करता है, क्या वह उन स्वविषयक (स्पृष्ट, अवगाढ एवं अनन्तरावगाढ़) द्रव्यों को ग्रहण करता है अथवा अविषक (अस्वगोचर) द्रव्यों को ग्रहण करता है ? [८७७-२१ उ.] गौतम ! वह स्वविषयक (स्वगोचर) द्रव्यों को ग्रहण करता है, किन्तु अविषयक (अस्वगोचर) द्रव्यों को ग्रहण नहीं करता । [२२] जाइं भंते ! सविसए गेण्हति ताई किं आणुपुव्विं गेण्हति ? अणाणुपुव्विं गेण्हति ? गोयमा ! आणुपुव्विं गेण्हति, णे अणाणुपुट्विं गेण्हति । [८७७-२२ प्र.] भगवन् ! जिन स्वविषयक द्रव्यों को जीव ग्रहण करता है, क्या वह उन्हें आनुपूर्वी से ग्रहण करता है, अथवा अनानुपूर्वी से ग्रहण करता है ? [८७७-२२ उ.] गौतम ! (वह उन स्वगोचर द्रव्यों को) आनुपूर्वी से ग्रहण करता है, अनानुपूर्वी से ग्रहण नहीं करता । [२३] जाइं भंते ! आणुपुव्विं गेण्हति ताई किं तिदिसिं गेण्हति जाव छद्दिसिं गेण्हति ? गोयमा ! णियमा छद्दिसिं गेण्हति । पुट्ठोगाढ अणंतर अणू य तह बायरे य उड्डमहे। आदि विसयाऽऽणुपुव्विं णियमा तह छद्दि सिं चेव ॥१९८॥ ___ [८७७-२३ प्र.] भगवन् ! जिन द्रव्यों को जीव आनुपूर्वी से ग्रहण करता है, क्या उन्हें तीन दिशाओं से ग्रहण करता है, यावत् (अथवा) छह दिशाओं से ग्रहण करता है ? [८७७-२३ उ.] गौतम ! (वह) उन द्रव्यों को नियमतः छह दिशाओं से ग्रहण करता है। [संग्रहणीगाथार्थ - ] स्पृष्ट अवगाढ़, अनन्तरावगाढ, अणु तथा बादर, ऊर्ध्व, अधः, आदि, स्वविषयक, आनुपूर्वी तथा नियम से छह दिशाओं से (भाषायोग्य द्रव्यों को जीव ग्रहण करता है।) ८७८. जीवे णं भंते ! जाइं दव्वाइं भासत्ताए गेण्हति ताई किं संतरं गेण्हति ? निरंतरं गेण्हति ? Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद] [८७ गोयमा ! संतरं पि गेण्हति निरंतर पि गेण्हति।संतरं गिण्हमाणे जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं असंखेजसमए अंतरं कट्ट गेण्हति। निरंतर गिण्हमाणे जहण्णेणं दो समए, उक्कोसेणं असंखेजसमए अणुसमयं अविरहियं निरंतरं गेण्हति। [८७८ प्र.] भगवन् ! जिन द्रव्यों को जीव भाषा के रूप में ग्रहण करता है, क्या (वह) उन्हें सान्तर (बीच-बीच में कुछ समय का व्यवधान डाल कर या बीच-बीच में रुक कर) ग्रहण करता है या निरन्तर (लगातार) ग्रहण करता रहता है ? [८७८ उ.] गौतम ! वह उन द्रव्यों को सान्तर भी ग्रहण करता है और निरन्तर भी ग्रहण करता है। सान्तर ग्रहण करता हुआ (जीव) जघन्यतः एक समय का तथा उत्कृष्टत: असंख्यात समय का अन्तर करके ग्रहण करता है और निरन्तर ग्रहण करता हुआ जघन्य दो समय तक और उत्कृष्ट असंख्यात समय तक प्रतिसमय बिना विरह (विराम) के लगातार ग्रहण करता है। ८७९. जीवे णं भंते ! जाइं दव्वाइं भासत्ताए गहियाई णिसिरति ताई किं संतरं णिसिरति णिरंतरं णिसिरति ? . गोयमा ! संतरं णिसिरति, णो णिरंतरं णिसिरति । संतरं णिसिरमाणे एगेणं समएणं गेण्हइ ० नि नि नि नि नि नि नि एगेणं समएणं णिसिरति, ग्र ग्र ग्र ग्रग्रग्र ग्र07 | एएणं गहण-णिसिरणोवाएणं जहण्णेणं दुसमइयं उक्कोसेणं असंखेजसमइयं अंतोमुहुत्तियं गहण-णिसिरणोवायं (णिसिरणं) करेति । [८७९ प्र.] भगवन् ! जिन द्रव्यों को जीव भाषा के रूप में ग्रहण करके निकालता है (त्यागता है), क्या वह उन्हें सान्तर निकालता है या निरन्तर निकालता है ? । [८७९. उ.] गौतम ! (वह उन्हें) सान्तर निकालता है, निरन्तर नहीं निकालता (त्यागता)। सान्तर निकालता हुआ जीव एक समय में (उन भाषायोग्य द्रव्यों को) ग्रहण करता है और एक समय से निकालता (त्यागता) है। इस ग्रहण और नि:सरण के उपाय से जघन्य दो समय के और उत्कृष्ट असंख्यात समय के अन्तर्मुहूर्त तक ग्रहण और निःसरण करता है। विवेचन - जीव द्वारा ग्रहणयोग्य भाषाद्रव्यों के विभिन्न रूप - प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. ८७७ से ८७९ तक) में जीव ग्राह्य स्थित भाषाद्रव्यों को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से किन-किन रूपों में, कैसे-कैसे ग्रहण करता है, इसकी सांगोपांग चर्चा की गई है। .. मुखादि से बाहर निकालने से पूर्व ग्राह्य भाषाद्रव्यों के विभिन्न रूप - यह तो पहले बताया जा चुका है कि जीव भाषा निकालने से पूर्व भाषा के रूप में परिणत करने के लिए भाषाद्रव्यों को अर्थात् भाषावर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करता है। इन तीन सूत्रों में इन्हीं ग्राह्य भाषाद्रव्यों की चर्चा का निष्कर्ष Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८] । प्रज्ञापनासूत्र क्रमशः इस प्रकार है - (१) जीव स्थित (स्थिर, हलन-चलन से रहित) द्रव्यों को ग्रहण करता है, अस्थिर (गमनक्रियायुक्त) द्रव्यों को नहीं। (२) वह स्थित द्रव्यों को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से ग्रहण करता है। (३) द्रव्य से, एकप्रदेशी (एक परमाणु) से लेकर असंख्यातप्रदेशी भाषाद्रव्यों को ग्रहण नहीं करता, क्योंकि वे स्वभावतः अग्राह्य होते है, किन्तु अनन्तप्रदेशी द्रव्यों को ही ग्रहण करता है, क्योंकि अनन्त परमाणुओं से बना हुआ स्कन्ध ही जीव द्वारा ग्राह्य होता है। (४) क्षेत्र से, भाषा रूप में परिणमन करने के लिए ग्राह्य भाषाद्रव्य आकाश के एक प्रदेश से लेकर संख्यात प्रदेशों में अवगाह वाले नहीं होते, किन्तु असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ होते हैं। (५) काल से, वह एक समय की स्थिति वाले भाषाद्रव्यों से लेकर असंख्यात समय की स्थिति वाले भाषाद्रव्यों तक को ग्रहण करता है, क्योंकि पुद्गलों (अनन्तप्रदेशी स्कन्ध) की अवस्थिति (हलन-चलन से रहितता) जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट असंख्यातसमय तक रहती है। (६) भाव से, भाषा रूप में ग्राह्य द्रव्य वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले होते हैं। (७) भावतः वर्ण वाले जिन भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है, वे ग्रहणयोग्य पृथक्-पृथक् द्रव्यापेक्षया कोई एक, कोई दो, यावत् कोई पांच वर्णो से युक्त होते हैं, किन्तु सर्वग्रहणापेक्षया अर्थात् ग्रहण किए हुए समस्त द्रव्यों के समुदाय की अपेक्षा से वे नियमतः पांच वर्षों से युक्त होते हैं। ___ (८) वर्ण की अपेक्षा से भाषारूप में परिणत करने हेतु एकगुण कृष्ण से लेकर अनन्तगुण कृष्ण भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है। इसी प्रकार नील, रक्त, पीत, शुक्ल वर्णों के विषय में समझ लेना चाहिए। (९) ग्रहणयोग्यद्रव्यापेक्षया एक गन्ध वाले एवं दो गन्ध वाले द्रव्यों को भी ग्रहण करता है, किन्तु सर्वग्रहणापेक्षया दो गन्धवाले द्रव्यों को ही ग्रहण करता है। (१०) एक गुण सुगन्ध वाले से लेकर यावत् अनन्तगुण सुगन्ध वाले भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है, तथैव एकगुण दुर्गन्ध से लेकर अनन्तगुण दुर्गन्ध तक के भाषापुद्गलों को ग्रहण करता है। (११) ग्रहणयोग्य द्रव्यों की अपेक्षा से एक रस वाले भाषाद्रव्यों को भी ग्रहण करता है, किन्तु सर्वग्रहणापेक्षया नियमतः पांच रसों वाले भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है। - (१२) भाषा के रूप में परिणत करने हेतु एकगुण तिक्तरस वाले से लेकर अनन्तगुण तिक्तरस वाले भाषाद्रव्यों तक को ग्रहण करता है। इसी प्रकार कटु, कषाय, अम्ल और मधुर रसों वाले भाषाद्रव्यों के विषय में समझना चाहिए। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद] [८९ . (१३) भावतः स्पर्श वाले जिन द्रव्यों को भाषारूप में परिणत करने हेतु जीव ग्रहण करता है, वे भाषाद्रव्य ग्रहणद्रव्यापेक्षया एकस्पर्शी नहीं होते, क्योकि एक परमाणु में दो स्पर्श अवश्य होते है। अत: वे द्रव्य द्विस्पर्शी, त्रिस्पर्शी या चतु:स्पर्शी होते है। किन्तु पंचस्पर्शी से लेकर अष्टस्पर्शी तक नहीं होते। सर्वग्रहण की अपेक्षा से नियमतः शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष चतु:स्पर्शी भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है। (१४) शीतस्पर्श वाले जिन भाषाद्रव्यों को भाषारूप में परिणत करने हेतु जीव ग्रहण करता है, वे एकगुण शीतस्पर्श वाले यावत् अनन्तगुण शीतस्पर्श वाले होते हैं। इसी प्रकार उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श वाले भाषा द्रव्यों के विषय में समझना चाहिए। (१५) एकगुण कृष्णवर्ण से लेकर अनन्तगुण रूक्षस्पर्श तक के जिन द्रव्यों को जीव भाषा के रूप परिणत करने के लिए ग्रहण करता है, वे द्रव्य आत्मप्रदेशों के साथ स्पृष्ट होते है, अस्पृष्ट नहीं तथा वह अवगाढ द्रव्यों (जिन आकाशप्रदेशों में जीव के प्रदेश हैं, उन्हीं आकाशप्रदेशों में अवस्थित भाषाद्रव्यों) को ग्रहण करता है, अनवगाढ द्रव्यों को नहीं: विशेषतः अनन्तरावगाढ (व्यवधानरहित) द्रव्यों को ही ग्रहण करता है, परम्परावगाढ (व्यवहितरूप से अवस्थित) द्रव्यों को नहीं तथा अनन्तरावगाढ जिन द्रव्यों को जीव ग्रहण करता है, वे अणु (थोड़े प्रदेशों वाले स्कन्ध) भी होते हैं और बादर (बहुत प्रदेशों से उपचित) भी होते हैं। फिर जितने क्षेत्र में जीव के ग्रहणयोग्य भाषाद्रव्य अवस्थित हैं, उतने ही क्षेत्र में जीव उन अणुरूप द्रव्यों को ऊर्ध्वदिशा, अधोदिशा और तिर्यदिशा से भी ग्रहण करता है तथा उन्हें आदि (प्रथम समय) में भी ग्रहण करता है, मध्य (द्वितीय आदि समयों) में भी ग्रहण करता है और अन्त (ग्रहण के उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्तप्रमाणकाल रूप में अन्तिम समय) में भी ग्रहण करता है। इस प्रकार के वे भाषाद्रव्य स्वविषय (स्वगोचर अर्थात् - स्पृष्ट, अवगाढ और अनन्तरावगाढरूप) होते हैं, अविषय (स्व के अगोचर अर्थात् - स्पृष्ट, अवगाढ और अनन्तरावगाढ से भिन्न रूप) नहीं होते तथा उन द्रव्यों को भी जीव आनुपूर्वी से (अनुक्रम से - ग्रहण की अपेक्षा सामीप्य के अनुसार) ग्रहण करता है, अनानुपूर्वी से (आसन्नता का उल्लंघन करके) नहीं एवं नियम से छह दिशाओं से आए हुए भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता हैं, क्योंकि नियमतः त्रसनाड़ी में अवस्थित भाषक त्रसजीव छहों दिशाओं के द्रव्यों का ग्रहण करता है। (१६) जीव जिन द्रव्यों को भाषा के रूप में ग्रहण करता है, उन्हें सान्तर (बीच में कुछ समय का व्यवधान डाल कर अथवा रुक-रुककर) भी ग्रहण करता है और निरन्तर (लगातार-बीच-बीच में व्यवधान डाले बिना) भी ग्रहण करता है। अगर जीव भाषाद्रव्यों को सान्तर ग्रहण करे तो जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट असंख्यात समयों का अन्तर समझना चाहिए। जैसे - कोई वक्ता प्रथम समय में भाषा के जिन पुद्गलों को ग्रहण करता है, दूसरे समय में उनको निकालता तथा दूसर समय में गृहीत पुद्गलों को तीसरे समय में निकालता है। इस प्रकार प्रथम समय में सिर्फ ग्रहण होता है, बीच के समयों में ग्रहण और निसर्ग, दोनों होते हैं, १. कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरसगन्धवर्णो द्विस्पर्शः कार्यलिंगश्च ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० । [प्रज्ञापनासूत्र अन्तिम समय में सिर्फ निसर्ग होता है। भाषापुद्गलों का ग्रहण और निसर्ग, ये दोनों परस्पर विरोधी कार्य एक समय में कैसे हो सकते हैं? इस शंका का समाधान यह है कि यद्यपि जैनसिद्धान्तानुसार एक समय में दो उपयोग सम्भव नहीं हैं। किन्तु एक समय में क्रियाएँ तो अनेक हो सकती हैं, उनके होने में कोई विरोध भी नहीं। एक ही समय में एक नर्तकी भ्रमणादि क्रिया करती हुई, हाथों-पैरों आदि से विविध प्रकार कि क्रियाएँ करती है, यह प्रत्यक्ष देखा जाता है। सभी वस्तुओं का एक ही समय में उत्पाद और व्यय देखा जाता है, इसी प्रकार भाषाद्रव्यों के ग्रहण और निसर्ग के परस्पर विरोधी प्रयत्न भी एक ही समय में हो सकते हैं। इसलिए कहा गया है कि भाषाद्रव्यों को जीव बिना व्यवधान के निरन्तर ग्रहण करता रहे तो जघन्य दो समय क और उत्कृष्ट असंख्यात समयों तक निरंतर ग्रहण करता है। कोई असंख्यात समयों तक एक ही ग्रहण न समझ ले, इस भ्रान्ति के निवारणार्थ 'अनुसमय' शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ है - 'एक समय के पश्चात्' । कोई व्यक्ति बीच में व्यवधान होने पर भी 'अनुसमय' समझ सकता है, इस भ्रमनिवारण के लिए 'अविरहित' शब्द प्रयुक्त किया है। इस प्रकार प्रथम समय में ग्रहण ही होता है, निसर्ग नहीं: क्योंकि बिना ग्रहण के निसर्ग सम्भव नहीं। और अन्तिम में भाषा का अभिप्राय उपरत हो जाने से ग्रहण नहीं होता, केवल निसर्ग ही होता है। शेष (बीच के) दूसरे, तीसरे आदि समयों में ग्रहण-निसर्ग दोनों साथ-साथ होते हैं। किन्तु पूर्व समय में गृहीत पुद्गल उसके पश्चात् के उत्तर समय में ही छोड़े जाते हैं। ऐसा नहीं होता कि जिन पुद्गलों को जिस समय में ग्रहण किया, उसी समय में निसर्ग भी हो जाए। (१७) भाषा के रूप में गृहीत द्रव्यों को जीव सान्तर निकालता है, निरन्तर नहीं, क्योंकि जिस समय में जिन भाषाद्रव्यों को जीव ग्रहण करता है, उसी समय में उन द्रव्यों को नहीं निकालता अर्थात् प्रथम समय में गृहीत भाषाद्रव्यों को प्रथम समय में नहीं, किन्तु दूसरे समय में और दूसरे समय में गृहीत द्रव्यों को तीसरे समय में निकालता है, इत्यादि। निष्कर्ष यह है कि पूर्व में गृहीत द्रव्यों को अगले-अगले समय में निकालता है। पहले ग्रहण होने पर ही निसर्ग का होना सम्भव है, अगृहीत का नहीं। इसीलिए कहा गया है कि निसर्ग सान्तर होता है। ग्रहण की अपेक्षा से ही निसर्ग को सान्तर कहा गया है। गृहीत द्रव्य का अनन्तर अर्थात् अगले समय में नियम से निसर्ग होता है। इस दृष्टि से निरन्तर ग्रहण और निसर्ग का काल जघन्य दो समय और उत्कृष्ट असंख्यात समय के अन्तर्मुहूर्त तक का है। भेद-अभेद-रूप में भाषाद्रव्यों के निःसरण तथा ग्रहणनिःसरण सम्बन्धी प्ररूपणा ८८०. जीवे णं भंते ! जाइं दव्वाइं भासत्ताए गहियाइं णिसिरति ताई किं भिण्णाई णिसिरति ? १. गहणनिसग्गपयत्ता परोप्परविरोहिणो कहं समये ? समय दो उवओगा, न होज्ज, किरियाण को दोसो ? -भाष्यकार २. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति., पत्रांक २६२ से २६६ तक (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. ३, पृ. ३४८ से ३७९ तक। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद ] अभिण्णाइं णिसिरति ? गोमा ! भिण्णाइं पि णिसिरति, अभिन्नाइं पि णिसिरति । जाई भिण्णाइं णिसिरति ताई अनंतगुणपरिवड्डी परिवड्ढमाणाइं परिवड्ढमाणाइं लोयंतं फुसंति । जाई अभिण्णाई णिसिरति ताई असंखेज्जाओ ओगाहणवग्गणाओ गंता भेयमावज्जंति, संखेज्जाइं जोयणाइं गंता विद्धंसमागच्छंति । [८८० प्र.] भगवन् ! जीव भाषा के रूप में गृहीत जिन द्रव्यों को निकालता है, उन द्रव्यों को भिन्न (भेदप्राप्त - भेदन किए हुए को) निकालता है, अथवा अभिन्न (भेदन नहीं किए हुए को) निकालता है ? [ ९१ [८८० उ. ] गौतम ! (कोई जीव) भिन्न द्रव्यों को निकालता है, (तो कोई ) अभिन्न द्रव्यों को भी निकालता है। जिन भिन्न द्रव्यों को (जीव) निकालता है, वे द्रव्य अनन्तगुणवृद्धि से वृद्धि को प्राप्त होते हुए लोकान्त को स्पर्श करते हैं तथा जिन अभिन्न द्रव्यों को निकालता है, वे द्रव्य असंख्यात अवगाहनवर्गणा तक जाकर भेद को प्राप्त हो जाते हैं। फिर संख्यात योजनों तक आगे जाकर विध्वंस को प्राप्त हो जाते हैं । ८८१. तेसि णं भंते ! दव्वाणं कतिविहे भेए पण्णत्ते ? • गोयमा ! पंचविहे भेए पण्णत्ते । तं जहा अणुतडियाभेए ४ उक्करियाभेए ५ । [८८१ प्र.] भगवन् ! उन द्रव्यों के भेद कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [८८१ उ.] गौतम ! भेद पांच प्रकार के कहे गए हैं ? वे इस प्रकार - (१) खण्डभेद, (२) प्रतरभेद, (३) चूर्णिकाभेद, (४) अनुतटिकाभेद और (५) उत्कटिका (उत्करिका) भेद । ८८२. से किं तं खंडाए । - खंडाभेए १ पतराभेए २ चुण्णियाए ३ २. जण्णं अयखंडाण वा तउखंडाण वा तंबखंडाण वा सीसगखंडाण वा रययखंडाण वा जायरूवखंडाण वा खंडएण भेदे भवति । से तं खंडाभेदे । [८८२ प्र.] वह (पूर्वोक्त) खण्डभेद किस प्रकार का होता है ? [८८२ उ.] खण्डभेद (वह है), जो (जैसे) लोहे के खंडों का, रांगे के खंडों का, तांबे के खंडों का, शीशे के खंडों का, चांदी के खंडों का अथवा सोने के खंडों का, खण्डक (टुकड़े करने वाले औजार- हथौड़े आदि) से भेद (टुकड़े) करने पर होता है। यह हुआ उस खण्डभेद (का स्वरूप।) ८८३. सं किं तं पयराभेदे ? २. जण्णं वंसाण वा वेत्ताण वा णलाण वा कवलित्थंभाण वा अब्भपडलाण वा पयरएणं ए भवति । से त्तं पयराभेदे । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ ] [प्रज्ञापनासूत्र [८८३ प्र.] वह (पूर्वोक्त) प्रतरभेद क्या है ? [८८३ उ.] प्रतरभेद (वह है), जो बांसों का, बेंतों का, नलों का, केले के स्तम्भों का, अभ्रक के पटलों (परतों) का प्रतर से (भोजपत्रादि की तरह) भेद करने पर होता है। यह है वह प्रतरभेद । ८८४. से किं तं चुणियाभेए ? २. जण्णं तिलचुण्णाण वा मुग्गचुण्णाण वा मासचुण्णाण वा पिप्पलिचुण्णाण वा मिरियचुण्णाण वा सिंगबेरचुण्णाण वा चुणियाए भेदे भवति । से त्तं चुणियाभेदे । [८८४ प्र.] वह (पूर्वोक्त) चूर्णिकाभेद क्या है ? [८८४ उ.] चूर्णिकाभेद (वह है), जो (जैसे) तिल के चूर्णों (चूरों) का, मूंग के चूर्णों (चूरे या आटे) का उड़द के चूर्णों (चूरों) का, पिप्पली (पीपल) के चूरों का, कालीमिर्च के चूरों का, चूर्णिका (इमामदस्ते या चक्की आदि) से भेद करने (कूटने या पीसने) पर होता है। यह हुआ उक्त चूर्णिका भेद का स्वरूप । ८८५. से किं तं अणुतडियाभेदे ? २. जण्णं अगडाण वा तलागाण वा दहाण वा णदीण वा वावीण वा पुक्खरिणीण वा दीहियाण वा गुंजालियाण वा सराण वा सरपंतियाण वा सरसरपंतियाण वा अणुतडियाए भेदे भवति। सेत्तं अणुतडियाभेदे। [८८५ प्र.] वह अनुतटिकाभेद क्या है (कैसा है)?" . [८८५ उ.] अनुतटिकाभेद (वह है,) जो कूपों के, तालाबों के, हृदों के, नदियों के, बावड़ियों के, पुष्करिणियों (गोलाकार बावड़ियों) के, दीर्घिकाओं (लम्बी बावड़ियों) के, गुंजालिकाओं टेढ़ीमेढ़ी बावड़ियों के, सरोवरों के, पंक्तिबद्ध सरोवरों के और नाली के द्वारा जल का संचार होने वाले पंक्तिबद्ध सरोवरों के अनुतटिकारूप में (फट जाने, दरार पड़ जाने या किनारे घिस या कट जाने से) भेद होता है। यह अनुतटिका भेद का स्वरूप है। ८८६. से किं तं उक्करियाभेदे ? २.जण्णं मूसंगाण वा मगूसाण वा तिलसिंगाण वा मुग्गसिंगाण वा माससिंगाण वा एरंडबीयाण वा फुडित्ता उक्करियाए भेदे भवति । सेत्तं उक्करियाभेए। [८८६ प्र.] वह (पूर्वोक्त) उत्कटिकाभेद कैसा होता है ? [८८६ उ.] मूषों-मसूर के, मगूसों (मूंगफलियों या चौलाई की फलियों) के, तिल की फलियों के, मूंग की फलियों के, उड़द की फलियों के अथवा एरण्ड के बीजों के फटने या फाड़ने से जो भेद होता है, वह Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद] [९३ उत्कटिकाभेद है । यह उत्कटिका (उत्करिका) भेद का स्वरूप है। ८८७. एएसि णं भंते ! दव्वाणं खंडाभेएणं पयराभेएणं चुणियाभेएणं अणुतडियाभेदेणं उक्करियाभेदेण य भिजमाणाणं कतरे कतरेहितो अप्प वा ४ ? गोयमा ! सव्वत्थोवाइं दव्वाइं उक्करियाभेएणं भिज्जमाणाई, अणुतडियाभेदेणं भिज्जमाणाई अणंतगुणाई, चुण्णियाभेएणं भिजमाणाई अणंतगुणाई पयराभेएणं भिजमाणाई अणंतगुणाई, खंडाभेएणं भिज्जमाणाई अणंतगुणाई। [८८७ प्र.] भगवन् ! खण्डभेद से, प्रतरभेद से, चूर्णिकाभेद से, अनुतटिकाभेद से और उत्कटिकाभेद से भिदने (भिन्न होने) वाले इन भाषाद्रव्यों में कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? [८८७ उ.] गौतम ! सबसे थोड़े भाषाद्रव्य उत्कटिकाभेद से भिन्न होते हैं, उनसे अनन्तगुणे अनुतटिकाभेद से भिन्न होते हैं, उनकी अपेक्षा चूर्णिकाभेद से भिन्न होने वाले अनन्तगुणे हैं, उनसे अनन्तगुणे प्रतरभेद से भिन्न होने वाले और उनसे भी अनन्तगुणे अधिक खण्डभेद से भिन्न होने वाले द्रव्य हैं। .८८८. [१] जेरइए णं भंते ! जाइं दव्वाई भासत्ताए गेण्हति ताई किं ठियाइं गेण्हति ? अठियाइं गेण्हति ? गोयमा ! एवं चेव जहा जीवे वत्तव्वया भणिया (सु. ८७७) तहाणेरइयस्सवि जाव अप्पाबहुयं। [८८८-१ प्र.] भगवन् ! नैरयिक जिन द्रव्यों को भाषा के रूप में ग्रहण करता है, उन्हें (वह) स्थित (ग्रहण करता) है अथवा अस्थित (ग्रहण करता) है ? [८८८-१ उ.] गौतम ! जैसे (औधिक) जीव के विषय में वक्तव्यता (सू. ८७७ में) कही है, वैसे ही अल्पबहुत्व तक नैरयिक के विषय में भी कहना चाहिए । [२] एवं एगिदियवजो दंडओ जाव वेमाणिया । [८८८-२] इसी प्रकार एकेन्द्रिय को छोड़ कर यावत् वैमानिकों तक दण्डक कहना चाहिए । ८८९. जीवा णं भंते ! जाई दव्वाइं भासत्ताए गेण्हंति ताई किं ठियाई गेण्हंति ? अठियाई गेण्हंति ? गोयमा ! एवं चेव पुहुत्तेण वि णेयव्वं जाव वेमाणिया । [८८९ प्र.] जीव जिन द्रव्यों को भाषा के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या (वे) उन स्थित द्रव्यों को ग्रहण करते हैं, अथवा अस्थित द्रव्यों को ग्रहण करते हैं ? [८८९ उ.] गौतम ! (वे स्थित भाषाद्रव्यों को ग्रहण करते हैं।) जिस प्रकार एकत्व-एकवचनरूप में Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ ] [ प्रज्ञापनासूत्र कथन किया गया था, उसी प्रकार पृथक्त्व (बहुवचन के रूप में (नैरकों से लेकर वत् वैमानिक तक समझ लेना चाहिए । ८९०. जीवे णं भंते ! जाई दव्वाइं सच्चभासत्ताए गेण्हति ता ऊं ठियाई गेण्हति ? अठियाई गेण्हति ? गोयमा ! जहा ओहियदंडओ (सु. ८७७ ) तहा एसो वि। नवरंगोंदिया ण पुच्छिज्जंति । एवं मोसभासाए वि सच्चामोसभासाए वि । [८९० प्र.] भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को सत्यभाषा के रूप में ग्रहण करता है, क्या (वह) उन स्थितद्रव्यों को ग्रहण करता है, अथवा अस्थितद्रव्यों को ? [८९० उ.] गौतम ! जैसे (सू. ८७७ में ) औधिक जीवविषयक दण्डक है, वैसे यह दण्डक भी कहना चाहिए । विशेष यह है कि विकलेन्द्रियों के विषय में (उनकी भाषा सत्य न होने से) पृच्छा नहीं करनी चाहिए। जैसे सत्यभाषाद्रव्यों के ग्रहण के विषय में कहा है, वैसे ही मृषाभाषा के (द्रव्यों) तथा सत्यामृषाभाषा (द्रव्यों के ग्रहण के विषय में भी कहना चाहिए ।) ८९१. असच्चामोसभासाए वि एवं चेव । नवरं असच्चामोसभासाए विगलिंदिया वि पुच्छिज्जंति इमेणं अभिलावेणं - विगलिंदिए णं भंते! जाई दव्वाइं असच्चामोसभासत्ताए गेण्हति ताइं किं ठियाई गेण्हति ? अठियाई गेण्हति ? गोयमा ! जहा ओहियदंडओ (सु. ८७७) । एवं एते एगत्तपुहत्तेणं दस दंडगा भावियव्वा । [८९१] असत्यामृषाभाषा के (द्रव्यों के ग्रहण के) विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए । विशेष यह है कि असत्यामृषाभाषा के ग्रहण के सम्बन्ध में इस अभिलाप के द्वारा विकलेन्द्रियों की भी पृच्छा करनी चाहिए - [प्र.] भगवन् ! विकलेन्द्रिय जीव जिन द्रव्यों को असत्यामृषाभाषा के रूप में ग्रहण करता है, क्या वह उन स्थितद्रव्यों को ग्रहण करता है, अथवा अस्थितद्रव्यों को ग्रहण करता है ? [उ.] गौतम ! जैसे (सू. ८७७ में) औधिक दण्डक कहा गया है, वैसे ही (यहाँ समझ लेना चाहिए।) इस प्रकार एकत्व (एकवचन) और पृथक्त्व (बहुवचन) के ये दस दण्डक कहने चाहिए । ८९२. जीवे णं भंते ! जाई दव्वाइं सच्चभासत्ताए गेण्हति ताइं किं सच्चभासत्ताए णिसिरति ? मोसभासत्ताए णिसिरति ? सच्चामोसभासत्ताए णिसिरति ? असच्चामोसभासत्ताए णिसिरति ? गोयमा ! सच्चभासत्ताए णिसिरति, णो मोसभासत्ताए णिसिरति, णो सच्चामोसभासत्ताए Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद] [९५ णिसिरति, णो असच्चामोसभासत्ताए णिसिरति । एवं एगिंदिय-विगलिंदियवज्जो दंडओ जाव वेमाणिए। एवं पुहुत्तेण वि । [८९२ प्र.] भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को सत्यभाषा के रूप में ग्रहण करता है, क्या उनको वह सत्यभाषा के रूप में निकालता है, मृषाभाषा के रूप में निकालता है, सत्यामृषाभाषा के रूप में निकालता है, अथवा असत्यामृषाभाषा के रूप में निकालता है ? [८९२ उ.] गौतम ! वह (सत्यभाषा के रूप में गृहीत उन द्रव्यों को) सत्यभाषा के रूप में निकालता है, किन्तु न तो मृषाभाषा के रूप में निकालता है, न सत्यामृषाभाषा के रूप में निकालता है, और न ही असत्यामृषाभाषा के रूप में निकालता है। इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय को छोड़ कर (एकवचन का) दण्डक कहना चाहिए तथा इसी तरह पृथक्त्व (बहुवचन) का दण्डक भी कहना चाहिए। ८९३. जीवे णं भंते ! जाइं दव्वाइं मोसभासत्ताए गेण्हति ताई किं सच्चभासत्ताए णिसिरति ? मोसभासत्ताए णिसिरति ? सच्चामोसभासत्ताए णिसिरति ? असच्चामोसभासत्ताए णिसिरति ? गोयमा ! णो सच्चभासत्ताए णिसिरति, मोसभासत्ताए णिसिरति, णो सच्चामोसभासत्ताए णिसिरति, णो असच्चामोसभासत्ताए णिसिरति । [८९३ प्र.] भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को मृषाभाषा के रूप में ग्रहण करता है, क्या उन्हें वह सत्यभाषा के रूप में निकालता है ? अथवा मृषाभाषा के रूप में निकालता है ? या सत्यामृषा भाषा के रूप में निकालता है ? अथवा असत्यामृषाभाषा के रूप में निकालता है ? [८९३ उ.] गौतम ! (वह मृषाभाषारूप में गृहीत द्रव्यों को) सत्यभाषा के रूप में नहीं निकालता, किन्तु मृषाभाषा के रूप में ही निकालता है, तथा सत्यामृषा के रूप में नहीं निकलता और न ही असत्यामृषा भाषा के रूप में निकलाता है। ८९४. एवं सच्चामोसभासत्ताए वि । [८९४] इसी प्रकार सत्यामृषाभाषा के रूप में (गृहीत द्रव्यों के विषय में भी समझना चाहिए ।) ८९५. असच्चामोसभासत्ताए वि एवं चेव । णवरं असच्चामोसभासत्ताए विगलिंदिया तहेव पुच्छिज्जति। जाए चेव गेण्हति ताए चेव णिसिरति । एवं एते एगत्त-पुहत्तिया अट्ठ दंडगा भाणियव्वा। [८९५] असत्यामृषाभाषा के रूप में गृहीत द्रव्यों के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए। विशेषता यह है कि असत्यामृषाभाषा के रूप में गृहीत द्रव्यों के विषय में विकलेन्द्रियों की भी पृच्छा उसी प्रकार (पूर्ववत्) करनी चाहिए। (सिद्धान्त यह है कि) जिस भाषा के रूप में द्रव्यों को ग्रहण करता है, उसी Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ ] . [प्रज्ञापनासूत्र भाषा के रूप में ही द्रव्यों को निकालता है। इस प्रकार एकत्व (एकवचन) और पृथक्त्व (बहुवचन) के ये (कुल मिला कर) आठ दण्डक कहने चाहिए । विवेचन - भाषाद्रव्यों के भेद-अभेदरूप में निःसरण तथा ग्रहण-निःसरण के विषय में प्ररूपणा - प्रस्तुत सोलह सूत्रों (८८० से ८९५ तक) में भाषाद्रव्यों के भिन्न तथा अभिन्न रूप में नि:सरण, भेदों के अल्पबहुत्व तथा भाषाद्रव्यों के ग्रहण-नि:सरण के विषय में प्ररूपणा की गई है। नैरयिक आदि के विषय में अतिदेश - नैरयिक जिन द्रव्यों को भाषा के रूप में ग्रहण करता है, वे स्थित (स्थिर) होते हैं या अस्थित (संचरणशील) ? इस प्रश्न के पूछे जाने पर शास्त्रकार अतिदेश करते हुए कहते हैं - स्थित-अस्थित द्रव्यों के ग्रहण की प्ररूपणा से लेकर अल्पबहुत्व तक की जैसी प्ररूपणा समुच्चय जीव के विषय में की है, वैसी ही प्ररूपणा नैरयिक से लेकर वैमानिक पर्यन्त (एकेन्द्रिय को छोड़कर) करनी चाहिए। भिन्न-अभिन्न भाषाद्रव्यों के निःसरण की व्याख्या - वक्ता दो प्रकार के होते हैं, तीव्रप्रयत्न वाले और मन्दप्रयत्न वाले। जो वक्ता रोगग्रस्तता, जराग्रस्तता या अनादरभाव के कारण मन्दप्रयत्न वाला होता है, उसके द्वारा निकाले हुए भाषाद्रव्य अभिन्न-स्थूलखण्डरूप एवं अव्यक्त होते हैं । जो वक्ता नीरोग, बलवान् एवं आदरभाव के कारण तीव्रप्रयत्नवान् होता है, उसके द्वारा निकाले हुए भाषाद्रव्य खण्ड-खण्ड एवं स्फुट होते हैं। तीव्रप्रयत्नवान् वक्ता द्वारा छोड़े गये भाषाद्रव्य खंडित होने के कारण सूक्ष्म होने से और अन्य द्रव्यों को वासित करने के कारण अनन्तगुण वृद्धि को प्राप्त होकर लोक के अंत तक पहुंचते हैं और संपूर्ण लोक में व्याप्त हो जाते हैं। मंदप्रयत्न द्वारा छोड़े गये भाषाद्रव्य लोकान्त तक नहीं पहुंच पाते। वे असंख्यात अवगाहन वर्गणा तक जाते हैं । वहाँ जाकर भेद को प्राप्त होते हैं, फिर संख्यात योजन तक आगे जाकर विध्वस्त हो जाते हैं। एकत्व और पृथक्त्व के आठ दण्डक - एकेन्द्रिय को छोड़कर नैरयिकों से लेकर ४ भाषाओं के द्रव्यों के ग्रहण-नि:सरण-सम्बन्धी एकवचन के चार दण्डक और बहुवचन के चार दण्डक, यों आठ दण्डक हुए। १. (क) प्रज्ञाापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २६७ __(ख) प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका भा. ३, पृ. ३८० "कोई मंदपयत्तो निसिरइ सकलाई सव्वदव्वाइं । अन्नो तिव्वपयत्तो सो मुंचइ भिंदिउ ताई ॥" प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, पृ. ३८० २. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २६७ (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. ३, पृ. ३७३ से ४०५ तक Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद] [९७ सोलह वचनों तथा चार भाषाजातों के आराधक-विराधक एवं अल्पबहुत्व की प्ररूपणा .८९६. कतिविहे णं भंते ! वयणे पण्णत्ते ? - गोयमा ! सोलसविहे वयणे पण्णत्ते। तं जहा - एगवयणे १ दुवयणे २ बहुवयणे ३ इत्थिवयणे ४ पुंसवयणे ५ णपुंसगवयणे ६ अज्झत्थवयणे ७ उवणीयवयणे ८ अवणीयवयणे : उवणीयावणीयवयणे १० अवणीयउवणीयवयणे ११ तीतवयणे १२ पडुप्पन्नवयणे १३ अणागयवयणे १४ पच्चक्खवयणे १५ परोक्खवयणे १६ । [८९६ प्र.] भगवन् ! वचन कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [८९६ उ.] गौतम ! वचन सोलह प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं - १. एकवचन, २. द्विवचन, ३. बहुवचन, ४. स्त्रीवचन,५. पुरुषवचन, ६. नपुंसकवचन, ७. अध्यात्मवचन, ८. उपनीतवचन,९. अपनीतवचन, १०. उपनीतापनीतवचन, ११. अपनीतोपनीतवचन, १२. अतीतवचन, १३. प्रत्युत्पन्न (वर्तमान), वचन, १४. अनागतवचन (भविष्यत्वचन) १५. प्रत्यक्षवचन और १६. परोक्षवचन । ८९७. इच्चेयं भंते ! एगवयणं वा जाव परोक्खवयणं वा वयमाणे पण्णवणी णं एसा भासा ? ण एसा भासा मोसा? हंता गोयमा ! इच्चेयं एगवयणं वा जाव परोक्खवयणं वा वयमाणे पण्णवणी णं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा । [८९७ प्र.] इस प्रकार एकवचन (से लेकर) परोक्षवचन (तक १६ प्रकार के वचन) को बोलते हुये (जीव) की क्या यह भाषा प्रज्ञापनी है ? यह भाषा मृषा तो नहीं है ? [८९७ उ.] हाँ, गौतम ! इस प्रकार एकवचन से लेकर परोक्षवचन तक (१६ वचनों) को बोलते हुए (जीव की) भाषा प्रज्ञापनी है, यह भाषा मृषा नहीं है। ८९८. कति णं भंते ! भासजाया पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि भासज्जाया पणत्ता। तं जहा-सच्चमेगं भासज्जायं? बितियं मोसं भासजायं २ ततियं सच्चामोसं भासजायं ३ चउत्थं असच्चामोसं भासज्जायं ४ । [८९८ प्र.] भगवन् ! भाषाजात (भाषा के प्रकार) कितने हैं ? [८९८ उ.] गौतम ! भाषाजात चार कहे गये हैं, वे इस प्रकार हैं - (१) भाषा का एक जात (प्रकार) सत्या है, (२) भाषा का दूसरा प्रकार मृषा है, (३) भाषा का तीसरा प्रकार सत्यामृषा है और (४) भाषा का चौथा प्रकार असत्यामृषा है । ८९९. इच्चेयाइं भंते ! चत्तारि भासज्जायाइं भासमाणे किं आराहए विराहए? Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८] [प्रज्ञापनासूत्र गोयमा ! इच्चेयाइं चत्तारि भासज्जायाइं आउत्तं भासमाणे आराहए, णो विराहए । तेण परं अस्संजयाऽविरयाऽपडिहयाऽपच्चक्खायपावकम्मे सच्चं वा भासं भासंतो मोसं वा सच्चामोसं वा असच्चामोसं वा भासं भासमाणे णो आराहए, विराहए । _ [८९९ प्र.] भगवन् ! इन चारों भाषा-प्रकारों को बोलता हुआ (जीव) आराधक होता है, अथवा विराधक? [८९९ उ.] गौतम ! इन चारों प्रकार की भाषाओं को उपयोगपूर्वक (आयुक्त होकर) बोलने वाला आराधक होता है, विराधक नहीं। उससे पर - (अर्थात् उपयोगपूर्वक बोलने वाले से भिन्न) जो असंयत, अविरत.पापकर्म का प्रतिघात और प्रत्याख्यान न करने वाला सत्यभाषा बोलता हआ तथा मषा आ तथा मृषाभाषा, सत्यामुषा और असत्यामृषा भाषा बोलता हुआ (व्यक्ति) आराधक नहीं है, विराधक है। ९००. एतेसि णं ते ! जीवाणं सच्चभासगाणं मोसभासगाणं सच्चामोसभासगाणं असच्चामोसभासगाणं अभासगाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा ४ ? ' गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा सच्चभासगा, सच्चामोसभासगा असंखेजगुणा, मोसभासगा असंखेजगुणा, असच्चामोसभासगा असंखेजगुणा, अभासगा अणंतगुणा । ॥पण्णवणाए भगवईए एक्कारसमं भासापयं समत्तं॥ [९०० प्र.] भगवन् ! इन सत्यभाषक, मृषाभाषक, सत्यामृषाभाषक और असत्यामृषाभाषक तथा अभाषक जीवों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? [९०० उ.] गौतम ! सबसे थोड़े जीव सत्यभाषक हैं, उनसे असंख्यातगुणे सत्यामृषाभाषक हैं, उनकी अपेक्षा मृषाभाषक असंख्यातगुणे हैं, उनसे असंख्यातगुणे असत्यामृषाभाषक जीव हैं और उनकी अपेक्षा अभाषक जीव अनन्तगुणे हैं । विवेचन - सोलह वचनों और चार भाषाजातों के आराधक-विराधक एवं अल्पबहुत्व की प्ररूपणा - प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. ८९६ से ९०० तक) में सोलह प्रकार के वचनों तथा सत्यादि चार प्रकार की भाषाओं का उल्लेख करके उनकी प्रज्ञापनिता (सत्यता) और उनके भाषकों की आराधकता-विराधकता की प्ररूपणा की गई है। अन्त में उक्त चारों प्रकार की भाषाओं के भाषकों के अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है। सोलह प्रकार के वचनों की व्याख्या - १. एकवचन - एकत्वप्रतिपादक भाषा, जैसे पुरुषः अर्थात्- एक पुरुष। २. द्विवचन - द्वित्वप्रतिपादक भाषा, जैसे-पुरुषौ, अर्थात्-दो पुरूष । ३. बहुवचन - बहुत्वप्रतिपादक कथन, जैसे - पुरुषाः अर्थात्-बहुत-से-पुरुष । ४. स्त्रीवचन - स्त्रीलिंगवाचक शब्द, जैसे Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद] [ ९९ इयं स्त्री - यह स्त्री । ५. पुरूषवचन - पुल्लिंगवाचक शब्द, जैसे - अयं पुमान्-यह पुरुष । ६. नपुंसकवचननपुंसकत्ववाचक शब्द, जैसे-इदं कुण्डम् - यह कुण्ड । ७. अध्यात्मवचन - मन में कुछ और सोच कर ठगने की बुद्धि से कुछ और कहना चाहता हो, किन्तु अचानक मुख से वही निकल पड़े, जो सोचा हो। ८. उपनीतवचन - प्रशंसावाचक शब्द, जैसे – 'यह स्त्री अत्यन्त सुशीला है।' ९. अपनीतवचन - निन्दात्मक वचन, जैसे - यह कन्या कुरूपा है । १०. उपनीतापनीतवचन - पहले प्रशंसा करके फिर निन्दात्मक शब्द कहना, जैसे - यह सुन्दरी है, किन्तु दुःशीला है। ११.अपनीतोपनीतवचन - पहले निन्दा करके, फिर प्रशंसा करने वाला शब्द कहना, जैसे - यह कन्या यद्यपि कुरूपा है, किन्तु है सुशीला । १२. अतीतवचन - भूतकालद्योतक वचन, जैसे - अकरोत् (किया)। १३. प्रत्युत्पन्नवचन - वर्तमानकालवाचक वचन, जैसे - करोति (करता है)। १४. अनागतवचन - भविष्यत्कालवाचक शब्द, जैसे - करिष्यति (करेगा)। १५. प्रत्यक्षवचन - प्रत्यक्षसूचक शब्द, जैसे – 'यह घर है।' और १६. परोक्षवचन - परोक्षसूचक शब्द, जैसे - वह यहाँ रहता था। ये सोलह ही वचन यथावस्थित - वस्तुविषयक हैं, काल्पनिक नहीं, अतः जब कोई इन वचनों को सम्यक्रूप से उपयोग करके बोलता है, तब उसकी भाषा प्रज्ञापनी' समझनी चाहिए, मृषा नहीं। चार प्रकार की भाषा के भाषक आराधक या विराधक ? - प्रस्तुत चारों प्रकार की भाषाओं को जो जीव सम्यक् प्रकार से उपयोग रख कर प्रवचन (संघ) पर आई हुई मलिनता की रक्षा करने में तत्पर होकर बोलता है, अर्थात् - प्रवचन (संघ) को निन्दा और मलिनता से बचाने के लिए गौरव-लाघव का पर्यालोचन करके चारों में से किसी भी प्रकार की भाषा बोलता हुआ साधुवर्ग आराधक होता है, विराधक नहीं। किन्तु जो उपयोगपूर्वक बोलने वाले से पर - भिन्न है तथा असंयत (मन-वचन-काय के संयम से रहित) है, जो सावधव्यापार (हिंसादि पापमय प्रवृत्ति) से विरत नहीं (अविरत) है, जिसने अपने भूतकालिक पापों को मिच्छा मि दुक्कडं (मेरा दुष्कृत मिथ्या हो), देकर तथा प्रायश्चित आदि स्वीकार करके प्रतिहत (नष्ट) नहीं किया है तथा जिसने भविष्यकालसम्बन्धी पाप न हों, इसके लिए पापकर्मों का प्रत्याख्यान नहीं किया है, ऐसा जीव चाहे सत्यभाषा बोले या मृषा, सत्यामृषा या असत्यामृषा में से कोई भी भाषा बोले, वह आराधक नहीं, विराधक है। चारों भाषाओं के भाषकों में अल्पबहुत्व की यथार्थता - प्रस्तुत चारों भाषाओं के भाषकों के अल्पबहुत्व की चर्चा करते हुए सबसे कम सत्यभाषा के भाषक बताए हैं, इसका कारण यह है कि सम्यक् उपयोग (ध्यान) पूर्वक सर्वज्ञमतानुसार वस्तुतत्त्व की स्थापना (प्रतिपादन) करने की बुद्धि (दृष्टि) से जो बोलते हैं, वे ही सत्यभाषक हैं, जो पृच्छाकाल में बहुत विरले ही मिलते हैं। सत्यभाषकों से सत्यामृषाभाषक असंख्यातगुणे इसलिए हैं कि लोक में बहुत-से इस प्रकार के सच-झूठ जैसे-तैसे बोलने वाले मिलते हैं। उनमें १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २६७ २. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक २६८ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ] [प्रज्ञापनासूत्र मृषाभाषक असंख्यातगुणे इसलिए हैं कि कोधादि कषायों के वशीभूत होकर परवंचनादि बुद्धि से बोलने वाले संसार में प्रचुर संख्या में मिलते हैं, वे सभी मृषाभाषी हैं। उनसे असंख्यातगुणे अधिक असत्यामृषाभाषक हैं, क्योंकि द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव असत्यामृषाभाषक की कोटि में आते हैं। इन सबसे अनन्तगुणे अभाषक इसलिए हैं कि अभाषकों की गणना से सिद्ध जीव एवं एकेन्द्रिय जीव आते हैं, वे दोनों ही अनन्त हैं। सिद्ध जीवों से भी वनस्पतिकायिक जीव अनन्तगुणे हैं।' ॥ प्रज्ञापनासूत्र : ग्यारहवाँ भाषापद समाप्त ॥ १. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक २६८-२६९ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसमं सरीरपयं बारहवाँ शरीरपद प्राथमिक + यह प्रज्ञापनासूत्र का बारहवाँ शरीरपद है। संसार-दशा में शरीर के साथ जीव का अतीव निकट और निरन्तर सर्पक रहता है। शरीर और शरीर से सम्बन्धित सजीव-निर्जीव पदार्थों के प्रति मोह-ममत्व के कारण ही कर्मबन्ध होता है। अतएव शरीर के विषय में जानना आवश्यक है। शरीर क्या है? आत्मा की तरह अविनाशी है या नाशवान् ? इसके कितने प्रकार हैं? इन प्रकारों के बद्ध-मुक्त शरीरों के कितने-कितने परिमाण में हैं ? नैरयिकों से लेकर वैमानिक देवों तक किस में कितने शरीर पाए जाते हैं? आदि-आदि। इसी हेतु से शास्त्रकार ने इस पद की रचना की है। प्रस्तुत पद में जैनदृष्टि से पांच शरीरों की चर्चा है-औदारिक, वैकिय, आहारक, तैजस और कार्मण। उपनिषदों में आत्मा के अन्नमय आदि पांच कोषों की विचारणा मिलती है। उसमें से अन्नमयकोष की औदारिक शरीर के साथ तथा सांख्य आदि दर्शनों में जो अव्यक्त, सूक्ष्म या लिंगशरीर माना गया है, उसकी तुलना तैजस-कार्मणशरीर के साथ हो सकती है। प्रस्तुत पद में सर्वप्रथम औदारिकादि पांच शरीरों का निरूपण है। वृत्तिकार ने औदारिकशरीर के विभिन्न अर्थ, उसकी प्रधानता, प्रयोजन और महत्ता की दृष्टि से समझाए हैं। तीर्थंकर आदि विशिष्ट पुरुषों को औदारिक शरीर होता है तथा देवों को भी यह शरीर दुर्लभ है, इस कारण इसका प्राधान्य और महत्त्व है। नारकों और देवों के सिवाय समस्त जीवों को यह शरीर जन्म से मिलता है, इसलिए अधिकांश जीवराशि इसी स्थूल एवं प्रधान शरीर की धारक है। जो शरीर विविध एवं विशेष प्रकार की (क) पण्णवणासुत्तं (मू.पा.) भाग १, पृ. २२३ (ख) तैत्तिरीय उपनिषद् भृबुवल्ली । साँख्यकारिका ३९-४० बेलवलकर (ग) (मालवणिया) गणधरवाद प्रस्तावना । (घ) षट्खण्डागम पृ. १४, सू. १२९, २३६, पृ. २३७, ३२१ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ] [प्रज्ञापनासूत्र किया कर सकता है, अर्थात्-अनेक प्रकार के रूप धारण कर सकता है, वह वैकियशरीर है। यह शरीर देवों और नारकों को जन्म से प्राप्त होता है, पर्याप्त वायुकायिकों के भी होता है। किन्तु मनुष्य को ऋद्धि-लब्धिरूप से प्राप्त होता है। चतुर्दशपूर्वधारी मुनि किसी प्रकार के शंका-समाधानादि प्रयोजनवश योगबल से तीर्थंकर के पास जाने के लिए जिस शरीर की रचना करते हैं, वह आहारकशरीर है। शरीर में जो तेजस् (ओज, तेज या तथारूप धातु एवं पाचनादि कार्य में अग्नि) का कार्य करता है, वह तैजसशरीर है और कर्मनिर्मित जो सूक्ष्मशरीर है, वह कार्मणशरीर है। तैजस और कार्मण, ये दोनों शरीर जीव से सिद्धिप्राप्त होने से पूर्व तक कभी विमुक्त नहीं होते हैं। अनादिकाल से ये दोनों शरीर जीव के साथ जुड़े हुए हैं। पुनर्जन्म के लिए गमन करने वाले जीव के साथ भी ये दो शरीर तो अवश्य होते हैं, औदारिकादि शरीरों का निर्माण बाद में होता है। तत्पश्चात् चौबीस दण्डकों में से किसको कितने व कौन से शरीर होते हैं? इसकी चर्चा है। फिर इन पांचों शरीरों के बद्व-वर्तमान में जीव के साथ बंधे हुए तथा मुक्त-पूर्वकाल में बांध कर त्यागे हुए शरीरों तथा समुच्चय में द्रव्य, क्षेत्र, काल की अपेक्षा से उनके परिमाण की चर्चा की गई है। इसके अनन्तर नैरयिकों, भवनवासियों, एकेन्द्रियों, विकलेन्द्रियों, तिर्यंचपंचेन्द्रियों, मनुष्यों, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिक देवों के बद्ध-मुक्त पांचों शरीरों के परिमाण की चर्चा द्रव्य, क्षेत्र, काल की दृष्टि से की गई है। गणित विद्या की दृष्टि से यह अतीव रसप्रद है। १. (क) प्रज्ञापना. म. वृत्ति पत्रांक २३८-२३९, (ख) पण्णवणासुत्तं भा. २ बारहवें पद की प्रस्तावना, पृ. ८८-८९ (क) पण्णवणासुत्तं भा. १, पृ. २२३ से २२८ (ख) पण्णवणासुत्तं भा. २, बारहवें पद की प्रस्तावना, पृ.८१ २. Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसमं सरीरपयं बारहवाँ शरीरपद पांच प्रकार के शरीरों का निरूपण ९०१. कति णं भंते! सरीरा पण्णत्ता? गोयमा! पंच सरीरा पण्णत्ता।तं जहा-ओरालिए १ वेउव्विए २ आहारए ३ तेयए ४ कम्मए ५। [९०१ प्र.] भगवन् ! शरीर कितने प्रकार के कहे गए हैं? [९०१ उ.] गौतम ! शरीर पांच प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार-(१) औदारिक, (२) वैक्रिय, (३) आहारक, (४) तैजस और (५) कार्मण। विवेचन-पांच प्रकार के शरीरों का निरूपण-प्रस्तुत सूत्र (९०१) में जैनसिद्धान्त प्रसिद्ध औदारिक आदि पांच प्रकार के शरीरों का निरूपण किया गया है। औदारिक शरीर की व्याख्या-उदार से औदारिक शब्द बना है। वृत्तिकार ने उदार के तीन अर्थ किए हैं-(१) जो शरीर उदार अर्थात्-प्रधान हो। औदारिक शरीर की प्रधानता तीर्थंकरों और गणधरों के शरीर की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि औदारिक शरीर के अतिरिक्त अन्य शरीर, यहाँ तक कि अनुत्तर विमानवासी देवों का शरीर भी अनन्तगुणहीन होता है। (२) उदार अर्थात् विस्तारवान् विशाल शरीर । औदारिक शरीर का अवस्थितस्वभाव (आजीवन स्थायीरूप) से विस्तार कुछ अधिक एक हजार योजन प्रमाण होता है, जबकि वैक्रियशरीर का इतना अवस्थितप्रमाण नहीं होता। उसका अधिक से अधिक अवस्थितप्रमाण पांच सौ धनुष का होता है और वह भी सिर्फ सातवीं नरकपृथ्वी में ही, अन्यत्र नहीं। जो उत्तरवैकियशरीर एक लाख योजनप्रमाण तक का होता है, वह भवपर्यन्त स्थायी न होने के कारण अवस्थित नहीं होता। (३) सैद्धान्तिक परिभाषानुसार उदार का अर्थ होता है-मांस, हड्डियाँ, स्नायु आदि से अवबद्ध शरीर। उदार ही औदारिक कहलाता है। वैक्रियशरीर की व्याख्या (१) प्राकृत के वेउव्विय का संस्कृत मं वैकुर्विक रूप होता है। विकुर्वणा के अर्थ में विकुर्व धातु से वैकुर्विक शब्द बनता है, जिसका अर्थ होता है-विविध क्रियाओं को करने में सक्षम शरीर । (२) अथवा विविध या विशिष्ट (विलक्षण) क्रिया विक्रिया है। विक्रिया करने वाला शरीर वैक्रिय है। आहारक, तैजस और कार्मण शरीर की व्याख्या-चतुर्दशपूर्वधारी मुनि के द्वारा कार्य होने पर Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ] । प्रज्ञापनासूत्र योगबल से जिस शरीर का आहरण-निष्पादन किया जाता है, उसे आहारकशरीर कहते हैं। तेज का जो विकार हो, उसे तैजस शरीर और जो शरीर कर्म का समूह रूप हो, उसे कर्मज या कार्मण शरीर कहते हैं। उत्तरोत्तर सूक्ष्मशरीर - औदारिक आदि शरीरों का इस प्रकार का क्रम रखने का करण उनकी उत्तरोत्तर सूक्ष्मता है। चौबीस दण्डकवर्ती जीवों में शरीर-प्ररूपणा ९०२. णेरइयाणं भंते! कति सरीरया पण्णत्ता? गोयमा! तओ सरीरया पण्णत्ता। तं जहा - वेउव्विए तेयए कम्मए। [९०२ प्र.] भगवन्! नैरयिकों के कितने शरीर कहे गए हैं? [९०२ उ.] गौतम! उनके तीन शरीर कहे हैं, वे इस प्रकार - वैक्रिय, तैजस और कार्मण शरीर। . ९०३. एवं असुरकुमाराण वि जाव थणियकुमाराणं। [९०३] इसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर स्तनितकुमारों तक के शरीरों की प्ररूपणा समझना चाहिय। ९०४. पुढविक्काइयाणं भंते ! कति सरीरया पण्णत्ता ? गोयमा ! तओ सरीरया पण्णत्ता। तं जहा-ओरालिए तेयए कम्मए । [९०४ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के कितने शरीर कहे गए हैं ? [९०४ उ.] गौतम! उनके तीन शरीर कहे है, वे इस प्रकार - औदारिक, तैजस् एवं कार्मणशरीर । ९०५. एवं वाउक्काइयवजं जाव चउरिदियाणं। [९०५] इसी प्रकार वायुकायिकों को छोड़कर चतुरिन्द्रियों तक के शरीरों के विषय में जानना चाहिए। ९०६. वाउक्काइयाणं भंते ! कति सरीरया पण्णत्ता? गोयमा ! चत्तारि सरीरया पण्णत्ता। तं जहा - ओरालिए वेउव्विए तेयए कम्मए। १. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २६८-२६९ (ख) "औरालं नाम वित्थरालं विसालंति जंभणियं होइ, कह? साइरेगजोयणसहस्समवट्ठियप्पमाणओरालियं अन्नमेद्दहमेत्तं नत्थित्ति विउव्वियं होज्जातंतु अणवट्ठियप्पमाणं,अवट्ठियं पुणपंच धणुसयाइं अहेसत्तमाए इमं पुण अवट्ठियप्पमाणं साइरेगं जोयणसहस्सं.........॥" (ग) "विविहा विसिट्टगा यं किरिया, तीए उजं भवं तमिह । वेउव्वियं तयं पुण नारगदेवाण पगईए ॥" -प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक २६९ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ शरीरपद] [१०५ [९०६ प्र.] भगवन्! वायुकायिकों में कितने शरीर कहे गए हैं ? [९०६ उ.] गौतम! (उनके) चार शरीर कहे हैं, वे इस प्रकार-औदारिक, वैक्रिय तैजस और कार्मण शरीर। ९०७. एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाण वि। [९०७] इसी प्रकार पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों के शरीरों के विषय में भी समझना चाहिए। ९०८. मणूसाणं भंते ! कति सरीरया पण्णत्ता? गोयमा ! पंच सरीरया पण्णत्ता। तं जहा - ओरालिए वेउव्विए आहारए तेयए कम्मए। [९०८ प्र.] भगवन् ! मनुष्यों के कितने शरीर कहे गए हैं ? [९०८ उ.] गौतम ! मनुष्यों के पांच शरीर कहे गए हैं, वे इस प्रकार - औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण। ९०९. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियाणं जहा णारगाणं [ सु. ९०२ ]। [९०९] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के शरीरों की वक्तव्यता नारकों की तरह (सू. ९०२ से अनुसार) कहना चाहिए। विवेचन - चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में शरीरप्ररूपणा - नैरयिक से लेकर वैमानिक तक २४ दण्डकों मे से किसमें कितने शरीर पाए जाते हैं ? इसकी प्ररूपणा प्रस्तुत आठ सूत्रों में की गई है। . पांचों शरीरों के बद्ध-मुक्त शरीरों का परिमाण ९१०. [१] केवइया णं भंते ! ओरालियसरीरया पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-बद्धेल्लगा य मुक्केल्लगा य। तत्थ णं जे ते बदल्लगा ते णं असंखेजगा, असंखेजाहिं उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्तओ असंखेजा लोगा। तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते णं अणंता, अणंताहिं उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्तओ अणंता लोगा, दव्वओ अभवसिद्धिएहितो अणंतगुणा सिद्धाणं अणंतभागो। [९१०-१ प्र.] भगवन् ! औदारिक शरीर कितने कहे गए हैं? [९१०-१ उ.] गौतम ! (वे) दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा - बद्ध और मुक्त । उनमें जो बद्ध (जीव के द्वारा ग्रहण किए हुए) हैं, वे असंख्यात हैं, काल से-वे असंख्यात उत्सर्पिणियों-अवसर्पिणियों (कालचक्रों) से अपहृत होते हैं । क्षेत्र से-असंख्यातलोक-प्रमाण हैं। उनमें जो मुक्त (जीव के द्वारा छोड़े हुए-त्यागे हुए) हैं, वे अनन्त हैं। काल से-वे अनन्त उत्सर्पिणियों-अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं। क्षेत्र से-अनन्तलोकप्रमाण Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ] [ प्रज्ञापनासूत्र हैं। द्रव्यतः-मुक्त औदारिक शरीर अभवसिद्धिक (अभव्य) जीवों से अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवें भाग हैं। [२] केवइया णं भंते ! वेउव्वियसरीरया पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-बद्धेल्लगा य मुक्केल्लगा य। तत्थ णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं असंखेजा, असंखेजाहिं उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ,खेत्तओ असंखेजाओ सेढीओ पयरस्स असंखेजतिभागो। तत्थ णं जेते मुक्केल्लगा ते णं अणंता, अणंताहि उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, जहा ओरालियस्स मुक्केल्लगा तहेव वेउव्वियस्स वि भाणियव्वा। [९१०-२ प्र.] भगवन् ! वैकिय शरीर कितने कहे गए हैं ? [९१०-२ उ.] गौतम ! (वे) दो प्रकार के कहे हैं-बद्ध और मुक्त, उनमें जो बद्ध हैं, वे असंख्यात हैं, कालत: वे असंख्यात उत्सर्पिणियों-अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं, क्षेत्रतः वे असंख्यात श्रेणी-प्रमाण तथा (वे श्रेणियां) प्रतर के असंख्यातवें भाग हैं। उनमें जो मुक्त हैं, वे अनन्त हैं। कालतः वे अनन्त उत्सर्पिणियों-अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं; जैसे औदारिक शरीर के मुक्तों के विषय में कहा गया है, वैसे ही वैकियशरीर के मुक्तों के विषय में भी कहना चाहिए। [३] केवइया णं भंते ! आहारगसरीरया पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-बद्धेल्लगा य मुक्केल्लगा य। तत्थ णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं सिय अस्थि सिव णत्थि। जति अत्थि जहणणेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं सहस्सपुहुत्तं। तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया ते णं अणंता जहा ओरालियस्स मुक्केल्लया तहा भाणियव्वा। [९१०-३ प्र.] भगवन् ! आहारक शरीर कितने कहे गए हैं ? [९१०-३ उ.] गौतम ! आहारक शरीर दो प्रकार के कहे हैं, वे इस प्रकार-बद्ध और मुक्त। उनमें जो बद्ध हैं, वे कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं होते। यदि हों तो जघन्य एक, दो या तीन होते हैं, उत्कृष्ट सहस्रपृथक्त्व होते हैं। उनमें जो मुक्त हैं, वे अनन्त हैं। जैसे औदारिक शरीर के मुक्त के विषय में कहा है, उसी प्रकार यहाँ कहना चाहिए। [४] केवइया णं भंते ! तेयगसरीरया पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा - बद्धेल्लगा य मुक्केल्लगा य। तत्थ णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं अणंता, अणंताहिं उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्तओ अणंता लोगा, दव्वओ सिद्धेहिंतो अणंतगुणा सव्वजीवाणंतभागूणा। तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया ते णं अणंता, अणंताहिं उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्तओ अणंता लोगा, दव्वओ सव्वजीवेहितो गांतगणा, जीववग्गस्स अणंतभागो। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ शरीरपद] [१०७ [९१०-४ प्र.] भगवन् ! तैजसशरीर कितने कहे गए हैं? - [९१०-४ उ.] गौतम ! (वे) दो प्रकार के कहे हैं, वे इस प्रकार - बद्ध और मुक्त। उनमें जो बद्ध हैं, वे अनन्त हैं, कालत:-अनन्त उत्सर्पिणियों-अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं, क्षेत्रतः-वे अनन्तलोकप्रमाण हैं, द्रव्यत:-सिद्धों से अनन्तगुणे तथा सर्वजीवों से अनन्तवें भाग कम हैं। उनमें से जो मुक्त हैं, वे अनन्त हैं, कालत:-वे अनन्त उत्सर्पिणियों-अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं, क्षेत्रतः- वे अनन्तलोकप्रमाण है । द्रव्यतः(वे) समस्त जीवों से अनन्तगुणे हैं तथा जीववर्ग के अनन्तवें भाग हैं। [५] एवं कम्मगसरीरा वि भाणियव्वा। [९१०-५] इसी प्रकार कार्मण शरीर के विषय में भी कहना चाहिए। विवेचन - पांचों बद्ध-मुक्त शरीरों का परिमाण - प्रस्तुत सूत्र (९१०-१ से ५) में द्रव्य, क्षेत्र, और काल की अपेक्षा से पांचों शरीरों के बद्ध और मुक्त शरीरों का परिणाम दिया गया है। बद्ध और मुक्त की परिभाषा-प्ररूपणा करते समय जीवों द्वारा जो शरीर परिगृहीत (ग्रहण किए हुए) हैं, वे बद्धशरीर कहलाते हैं, जिन शरीरों का जीवों ने पूर्वभवों में ग्रहण करके परित्याग कर दिया है, वे मुक्तशरीर कहलाते हैं। बद्ध -मुक्त शरीरों का परिमाण-पांचों शरीरों के बद्धरूप और मुक्तरूप का द्रव्य की अपेक्षा से अभव्य आदि से, क्षेत्र की अपेक्षा से श्रेणि, प्रतर आदि से और काल की अपेक्षा से आवलिकादि द्वारा परिमाण का विचार शास्त्रकारों ने किया है। बद्ध और मुक्त औदारिकशरीरों का परिमाण - बद्ध औदारिकशरीर असंख्यात हैं। यद्यपि बद्ध औदारिकशरीर के धारक जीव अनन्त हैं, तथापि यहाँ जो बद्ध औदारिकशरीरों का परिमाण असंख्यात कहा है, उसका कारण यह है-औदारिकशरीरधारी जीव दो प्रकार के होते हैं-प्रत्येक-शरीरी और अनन्तकायिक। प्रत्येकशरीरी जीवों का अलग-अलग औदारिकशरीर होता है, किन्तु जो अनन्तकायिक होते हैं, उनका औदारिकशरीरपृथक्-पृथक् नहीं होता, अनन्तानन्त जीवों का एक ही होता है। इस कारण औदारिकशरीरी जीव अनन्तानन्त होते हुए भी उनके शरीर असंख्यात ही हैं। काल की अपेक्षा से- बद्धऔदारिक शरीर असंख्यात उत्सर्पिणियों और असंख्यात अवसर्पिणियों में अपहृत होते हैं, इसका तात्पर्य यह है कि यदि उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के एक-एक समय में एक-एक औदारिकशरीर का अपहरण किया जाए तो समस्त औदारिकशरीरों का अपहरण करने में असंख्यात उत्सर्पिणियाँ और अवसर्पिणियाँ व्यतीत हो जाएँ। क्षेत्र की अपेक्षा से-बद्धऔदारिक शरीर असंख्यातलोकप्रमाण हैं, इसका अर्थ हुआ-अगर समस्त बद्ध औदारिक शरीरों को अपनी-अपनी अवगाहना से परस्पर अपिण्डरूप में (पृथक्-पृथक्) आकाशप्रदेशों में स्थापित किया जाए तो असंख्यातलोकाकाश उन पृथक्-पृथक् स्थापित शरीरों से व्याप्त हो जाएँ। मुक्त औदारिक शरीर अनन्त होते हैं, उनका परिमाण कालतः अनन्त उत्सर्पिणियों-अवसर्पिणियों के अपहरणकाल Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ] [प्रज्ञापनासूत्र के बराबर है, अर्थात्-उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालों के एक-एक समय में एक-एक मुक्त औदारिक शरीर का अपहरण किया जाए तो समस्त मुक्त औदारिकशरीरों का अपहरण करने में अनन्त उत्सर्पिणियां और अनन्त अवसर्पिणियाँ समाप्त हो जाएँ। संक्षेप में, इसे यों कह सकते हैं कि अनन्त उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों में जितने समय होते हैं, उतनी ही मुक्त औदारिकशरीरों की संख्या है। क्षेत्र की अपेक्षा सेवे अनन्त लोकप्रमाण हैं। इसका तात्पर्य यह है कि एक लोक में असंख्यातप्रदेश होते हैं। ऐसे-ऐसे अनन्त लोकों के जितने आकाशप्रदेश हों, उतने ही मुक्त औदारिक शरीर हैं। द्रव्य की अपेक्षा से- मुक्त औदारिकशरीर अभव्य जीवों से अनन्तगुणे होते हुए भी सिद्ध जीवों के अनन्तवें भाग मात्र ही हैं, अर्थात्-वे सिद्ध जीवराशि के बराबर नहीं है। इस सम्बन्ध में एक शंका है-यदि अविकल (ज्यों के त्यों) मुक्त औदारिकशरीरों की यह संख्या मानी जाए तो भी वे अनन्त नहीं हो सकते, क्योंकि नियमानुसार पुद्गलों की स्थिति अधिक से अधिक असंख्यातकाल तक की होने से वे मुक्त शरीर अविकल रूप से अनन्तकाल तक ठहर नहीं सकते। यदि यहाँ उन पुद्गलों को लिया जाए,जिन्हें जीव ने औदारिकशरीर के रूप में अतीतकाल में ग्रहण करके त्याग दिया है, तो सभी जीवों ने सभी पुद्गलों को औदारिकशरीर के रूप में ग्रहण करके त्यागा है, कोई पुद्गल शेष नहीं बचा है। ऐसी स्थिति में मुक्त औदारिकशरीर अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्ध जीवों के अनन्तवें भाग हैं, यह कथन कैसे संगत हो सकता है? इसका समाधान यह है कि यहाँ मुक्त औदारिक शरीरों से न तो केवल अविकल (अखंडित) शरीरों का ही ग्रहण किया जाता है, और न औदारिकशरीर के रूप में ग्रहण करके त्यागे हुए पुद्गलों का ग्रहण किया है अतः यहाँ पूर्वोक्त दोषापत्ति नहीं है। जिस औदारिक शरीर को जीव ने ग्रहण करके त्याग दिया है और वह विनष्ट होता हुआ अनन्त भेदों वाला होता है। वे अनन्त भेदों को प्राप्त होते हुए औदारिक पुद्गल जब तक औदारिक पर्याय का परित्याग नहीं करते, तब तक वे औदारिकशरीर कहलाते हैं। जिन पुद्गलों ने औदारिक पर्याय का परित्याग कर दिया, वे औदारिकशरीर नहीं कहलाते। इस प्रकार एक ही शरीर के अनन्त शरीर सम्भव हो जाते हैं । इस तरह एक-एक शरीर अनन्त-अनन्त भेदों वाला होने से एक ही समय में प्रचुर अनन्त शरीर पाए जाते हैं। वे असंख्यातकाल तक अवस्थित रहते हैं। उस असंख्यातकाल में जीवों द्वारा त्यागे हुए अन्य असंख्यात शरीर भी होते हैं। उन सबके भी प्रत्येक के अनन्त-अनन्त भेद होते हैं। उनमें से उस काल में जो औदारिकशरीरपर्याय का परित्याग कर देते हैं, उनकी गणना भी इनमें नहीं की जाती, शेष की गणना औदारिकशरीरों में होती है। अतएव मुक्त औदारिकशरीरों का जो परिमाण ऊपर बताया गया है, वह कथन संगत हो जाता है। जिस प्रकार लवणपरिणाम में परिणत लवण थोड़ा हो या ज्यादा, वह (विभिन्न लवणों का) पुद्गलसंघात लवण ही कहलाता है, इसी प्रकार औदारिक रूप से परिणत औदारिक शरीरयोग्य पुद्गलसंघात भी चाहे थोड़ा (आधा, पाव भाग या एक देश भी) हो, चाहे बहुत (पूर्ण औदारिकशरीर) हो, वह भी औदारिक शरीर ही कहलाता है। यहां तक कि शरीर का अनन्तवां भाग भी शरीर ही कहलाता अब प्रश्न यह है कि अनन्तानन्त लोकाकाशप्रदेश प्रमाण औदारिक शरीर एक ही लोक में कैसे अवगाढ़ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ शरीरपद] [१०९ होकर रहे (समाए) हुए हैं ? इसका समाधान यह है कि दीपक के प्रकाश के समान उनका भी एक लोक में समावेश हो जाता है । जैसे- एक दीपक का प्रकाश समग्र भवन में व्याप्त होकर रहता है और अन्य अनेक दीपकों का प्रकाश भी उस भवन में परस्पर विरोध न होने से रह सकता है, वैसे ही अनन्तानन्त मुक्त औदारिक शरीर भी एक ही लोकाकाश में समाविष्ट होकर रहते हैं। बद्ध-मुक्त वैक्रियशरीरों का परिमाण - बद्ध वैक्रियशरीर असंख्यात होते हैं । कालतः असंख्यात की प्ररूपणा - अगर उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के एक-एक समय में एक-एक वैक्रिय शरीर का अपहरण किया जाए तो समस्त वैक्रियशरीरों का अपहरण करने में असंख्यात उत्सर्पिणियाँ और अवसर्पिणियाँ व्यतीत हो जाएं । संक्षेप में यों कहा जा सकता है - असंख्यात उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों के जितने समय होते हैं, उतने ही बद्ध वैक्रियशरीर हैं । क्षेत्र की अपेक्षा से बद्ध वैक्रियशरीर असंख्यात श्रेणी प्रमाण हैं और उन श्रेणियों का परिमाण प्रतर का असंख्यातवाँ भाग है । इसका तात्पर्य यह है कि प्रतर के असंख्यातवें भाग में जितनी श्रेणियाँ हैं और उन श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश होते हैं उतने ही बद्ध वैक्रियशरीर हैं। ___. श्रेणी का परिमाण यों है - घनीकृत लोक सब ओर से ७ रज्जु प्रमाण होता है । ऐसे लोक की लम्बाई में सात रज्जु एवं मुक्तावली के समान एक आकाश प्रदेश की पंक्ति श्रेणी कहलाती है। घनीकृत लोक का सप्त रज्जुप्रमाण इस प्रकार होता है -समग्र लोक ऊपर से नीचे तक चौदह रज्जु प्रमाण हैं । उसका विस्तार नीचे कुछ कम सात रज्जु का है । मध्य में एक रज्जु है । ब्रह्मलोक नामक पंचम देवलोक के बिल्कुल मध्य में पांच रज्जु है और ऊपर एक रज्जु विस्तार पर लोक का अन्त होता है ।रज्जु का परिमाण स्वयम्भूरमणसमुद्र की पूर्व तटवर्ती वेदिका के अन्त से लेकर उसकी परवेदिका के अंत तक समझना चाहिए । इतनी लम्बाई-चौड़ाई वाले लोक की आकृति दोनों हाथ कमर पर रख कर नाचते हुए पुरुष के समान है । इस कल्पना से त्रसनाडी के दक्षिणभागवर्ती अधोलोकखण्ड को (जो कि कुछ कम तीन रज्जु विस्तृत है, और सात रज्जु से कुछ अधिक ऊंचा है) लेकर त्रसनाडी के उत्तर पार्श्व से, ऊपर का भाग नीचे और नीचे का भाग ऊपर करके इकट्ठा रख दिया जाय, फिर ऊर्ध्वलोक में सनाडी के दक्षिण भागवर्ती कूर्पर (कोहनी) के आकार के जो दो खण्ड हैं, जोकि प्रत्येक कुछ कम साढ़े तीन रज्जु ऊंचे होते हैं, उन्हें कल्पना में लेकर विपरीत रूप में उत्तर पार्श्व में इकट्ठा रख दिया जाए । ऐसा करने से नीचे का लोकार्ध कुछकम चार रज्जु विस्तृत और ऊपर का अर्ध भाग तीन रज्जु विस्तृत एवं कुछ कम सात रज्जु ऊंचा हो जाता है । तत्पश्चात ऊपर के अर्ध भाग को कल्पना में लेकर नीचे के अर्ध भाग के उत्तरपार्श्व में रख दिया जाए। ऐसा करने से कछ अधिक सात रज्ज ऊंचा और कछ कम सात रज्जु विस्तार वाना घन बन जाता है । सात रज्जु से ऊपर जो अधिक है, उसे ऊपर-नीचे के आयत (लम्बे) भाग को उत्तरपार्श्व में मिला दिया जाता है। इसमें विस्तार में भी पूरे सात रजु हो जाते हैं। इस प्रकार लोक को घनीकृत किया जाता है। जहाँ कहीं घनत्व से सात रज्जुप्रमाण की पूर्ति न हो सके, वहाँ कल्पना से पूर्ति कर लेनी चाहिए । सिद्धान्त (शास्त्र) में जहाँ कहीं भी श्रेणी अथवा प्रतर का ग्रहण हो, वहां सर्वत्र इसी प्रकार घनीकृत सात रज्जुप्रमाण लोक की श्रेणी अथवा प्रतर समझना चाहिए। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ] [ प्रज्ञापनासूत्र मुक्त वैक्रियशरीर भी मुक्त औदारिकशरीरों के समान अनन्त हैं। अत: उनकी अनन्तता भी पूर्वोक्त मुक्त औदारिकों के समान समझ लेनी चाहिए। बद्ध-मुक्त आहारकशरीरों का परिमाण - बद्ध आहारकशरीर कदाचित् होते हैं, कदाचित् नही होते, क्योंकि आहारकशरीर का अन्तर (विरहकाल) जद्यन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक का है। यदि आहारकशरीर होते हैं तो उनकी संख्या जद्यन्य एक दो या तीन होती है, और उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) सहस्रपृथक्त्व अर्थात् दो हजार से लेकर नौ हजार तक होती है। मुक्त आहारकशरीर का परिमाण मुक्त औदारिकशरीरों की तरह समझना चाहिये । बद्ध-मुक्त तैजसशरीरों का परिमाण - बद्ध तैजसशरीर अनन्त हैं क्योंकि साधारणशरीरी निगोदिया जीवों के तैजसशरीर अलग-अलग होते हैं, औदारिक की तरह एक नहीं । उसकी अनन्तता का कालतः परिमाण (पूर्ववत्) अनन्त उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों के समयों के बराबर है। क्षेत्रत:- अनन्त लोकप्रमाण है। अर्थात्-अनन्त लोकाकाशों में जितने प्रदेश हों, उतने ही बद्ध तैजसशरीर हैं । द्रव्य की अपेक्षा से बद्ध तैजसशरीर सिद्धों से अनन्तगुणे हैं, क्योंकि तैजसशरीर समस्त संसारी जीवों के होते हैं और संसारी सिद्धों से अनन्तगुणे हैं। इसलिए तैजसशरीर भी सिद्धों से अनन्तगुणे हैं । किन्तु सम्पूर्ण जीवराशि की दृष्टि से विचार किया जाए तो वे समस्त जीवों से अनन्तवें भाग कम हैं, क्योंकि सिद्धों के तैजसशरीर नही होता और सिद्ध सर्व जीवराशि से अनन्तवें भाग हैं, अत: उन्हे कम कर देने से तैजसशरीर सर्वजीवों के अनन्तवें भाग न्यून हो गए। मुक्त तैजसशरीर भी अनन्त हैं। काल और क्षेत्र की अपेक्षा उसकी अनन्तता पूर्ववत् समझ लेनी चाहिए । द्रव्य की अपेक्षा से मुक्त तैजसशरीर समस्त जीवों से अनन्तगुणे हैं, क्योंकि प्रत्येक जीव का एक तैजसशरीर होता है। जीवों द्वारा जब उनका परित्याग कर दिया जाता है तो वे पूर्वोक्त प्रकार से अनन्त भेदों वाले हो जाते हैं और उनका असंख्यातकालपर्यन्त उस पर्याय में अवस्थान रहता है, इतने समय में जीवों द्वारा परित्यक्त (मुक्त) अन्य तैजसशरीर प्रतिजीव असंख्यात पाए जातें हैं, और वे सभी पूर्वोक्त प्रकार से अनन्त भेदों वाले हो जाते हैं। अत: उन सबकी संख्या समस्त जीवों से अनन्तगुणी कही गई है। क्या समस्त मुक्त तैजसशरीरों की संख्या जीववर्गप्रमाण होती है ? इस शंका का समाधान करते हुए शास्त्रकार कहते हैं - वे जीववर्ग के अनन्तभागप्रमाण होते हैं वे समस्त मुक्ततैजसशरीर जीववर्ग प्रमाण तो तब हो पाते, जबकि एक-एक जीव के तैजसशरीर सर्वतीवरशिप्रमाण होते, या उससे कुछ अधिक होते और उनके साथ सिद्धजीवों के अनन्त भाग की पूर्ति होती । उसी राशि का उसी राशि से गुणा करने पर वर्ग होता है। जैसे ४ को ४ से गुणा करने पर (४ x ४ = १६) सोलह संख्या वाला वर्ग होता है । किन्तु एक-एक जीव मुक्त तैजसशरीर सर्वजीवराशि - प्रमाण या उससे कुछ अधिक नही हो सकते, अपितु उससे बहुत कम ही १. आहारगाई लोए छम्मासे जा न होंति वि कयाइं । उक्कोसेणं नियमा, एकं समयं जहन्त्रेणं ॥ - प्रज्ञापना. म. वृ. प. २७३ में उद्धृत Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ शरीरपद] [१११ होते है और वे भी असंख्यातकाल तक ही रहते हैं। उतने काल में जो अन्य मुक्त तैजसशरीर होते हैं, वे भी थोड़े ही होते हैं, क्योंकि काल थोड़ा है। इस कारण मुक्त तैजसशरीर जीववर्गप्रमाण नही होते, जीववर्ग के अनन्त-भागमात्र ही होते हैं। बद-मुक्त कार्मणशरीरों का परिमाण-भी तैजसशरीरों के समान ही समझना चाहिए। क्योंकि तैजस और कार्मणशरीरों की संख्या समान है। नैरयिकों के बद्ध-मुक्त पंच शरीरों की प्ररूपणा ९११.[१] णेरइयाणं भंते ! केवइया ओरालियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा - बद्वेल्लगा य मुक्केल्लगा य। तत्थ णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं णत्थि। तत्थ णं जेते मुक्केल्लगा तेणं अणंता जहा ओरालियमुक्केल्लगा( सु.९१०[१]) तहा भाणियव्वं। [९११-१प्र.] भगवन् ! नैरयिकों के कितने औदारिकशरीर कहे गए है ? [९११-१उ.] गौतम ! (उनके औदारिकशरीर) दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार - बद्ध और मुक्त। उनमें से जो बद्ध औदारिकशरीर हैं, वे उनके नहीं होते। जो मुक्त औदारिकशरीर हैं, वे (उनके) अनन्त होते हैं, जैसे (सू.९१०-१में ) (औघिक) औदारिक मुक्त शरीरों के विषय में कहा है, उसी प्रकार (यहाँ-नैरयिकों के मुक्त औदारिकशरीर के विषय में) भी कहना चाहिए। [२] णेरइयाणं भंते! केवइया वेउव्वियसरीरा? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा - बद्धेल्लगा मुक्केल्लगा य । तत्थ णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं असंखेजा, असंखेजाहि उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ,खेत्तओ असंखेजाओ सेढीओ पतरस्स असंखेजतिभागो, तासि णं सेढीण विक्खंभसूई अंगुलपढमवग्गमूलं बीयवग्गमूल-पडुप्पणं, अहव णं अगुंलबितियवग्गमूलघणप्पमाणमेत्ताओ सेढीओ। तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते णं जहा ओरालियस्स मुक्केल्लगा (सु.९११[१]) तहा भाणियव्वा। [९११-२प्र.] भगवन्! नैरयिकों के वैक्रियशरीर कितने कहे गए हैं ? [९११-२उ.] गौतम ! (नैरयिकों के वैक्रियशरीर) दो प्रकार के कहे गए है। वे इस प्रकार- बद्ध और मुक्त। उनमें जो बद्ध (वैक्रियशरीर) हैं, वे असंख्यात हैं। कालत:-(वे) असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों में अपह्रत होते है। क्षेत्रतः- (वे)असंख्यात श्रेणी-प्रमाण हैं। (श्रेणी) प्रतर का असंख्यातवां भाग है। उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची(विस्तार की अपेक्षा से एक प्रदेशी श्रेणी) अंगुल के प्रथम वर्गमूल को दूसरे वर्गमूल से गुणित (करने पर निष्पन्न राशि जितनी) होती है अथवा अगुंल के द्वितीय वर्गमूल के घन१. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक २७० से २७४ तक Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ ] [ प्रज्ञापनासूत्र प्रमाणमात्र श्रेणियों जितनी है तथा जो (नैरयिकों के) मुक्त वैक्रियशरीर हैं, उनके परिमाण के विषय में (नारकों कें) मुक्त औदारिक शरीर के समान (९११ -१ के अनुसार) कहना चाहिए। [ ३ ] णेरइयाणं भंते! केवतिया आहारगसरीरा पण्णत्ता ? गोमा ! दुविहा पण्णत्ता । तं जहा- बद्धेल्लगा य मुक्केल्लगा य । एवं जहा ओरालिया बद्धेल्लगा मुलगा य भणिया (सु. ९११ - [ १ ] ) तहेव आहारगा वि भाणियव्वा । [९११-३प्र.] भगवन् ! नैरयिकों के आहारकशरीर कितने कहे गए हैं ? [९११-३उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार - बद्ध और मुक्त। जैसे (नारकों के) औदारिक बद्ध और मुक्त (सू. ९११ - १ में) कहे गए हैं, उसी प्रकार (नैरयिकों के बद्ध और मुक्त) आहारकशरीरों के विषय में कहना चाहिए । [४] तेया- कम्मगाई जहा एतेसिं चेव वेडव्वियाई । [९११-४] (नारकों) तैजस - कार्मण शरीर इन्हीं के वैक्रियशरीरों के समान कहने चाहिए। विवेचन - नैरयिकों के बद्ध-मुक्त पंच शरीरों की प्ररूपणा - प्रस्तुत सूत्र (सू. ९११ -१ से ४) में नैरयिकों के बद्ध और मुक्त पंच शरीरों के परिमाण के विषय में प्ररूपणा की गई है। नैरयिकों के बद्ध-मुक्त औदारिकशरीरों की प्ररूपणा - नैरयिकों के बद्ध औदारिकशरीर नहीं होते, क्योंकि जन्म से ही उनमें औदारिकशरीर संभव नहीं है । उनके मुक्त औदारिकशरीरों का कथन पूर्वोक्त औधिक मुक्त औदारिकशरीरों के समान समझना चाहिए। नारकों के बद्ध-मुक्त वैक्रियशरीरों की प्ररूपणा - नारकों के बद्ध वैक्रियशरीर उतने ही हैं, जितने नैरयिक हैं, क्योंकि प्रत्येक नारक का एक बद्ध वैक्रियशरीर होता है । नारक जीवों की संख्या असंख्यात होने से उनके बद्ध वैक्रियशरीरों की संख्या भी असंख्यात ही है । इस असंख्यातता की काल और क्षेत्र से प्ररूपणा करते हुये शास्त्रकार कहते हैं - कालतः - उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालों के एक-एक समय में यदि एक-एक शरीर का अपहरण किया जाए तो असंख्यात उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों में उन सब शरीरों का अपहरण होता है । दूसरे शब्दों में कहें तो - असंख्यात उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों के जितने समय हैं, उतने ही नारकों के बद्ध वैक्रियशरीर होते हैं। क्षेत्रत:- वे असंख्यात श्रेणी -प्रमाण हैं और प्रतर का असंख्यातवाँ भाग ही श्रेणी कहलाती है । ऐसी असंख्यात श्रेणियों में जितने आकाश प्रदेश होते हैं, उतने ही नारकों के बद्ध वैक्रियशरीर होते हैं। अब प्रश्न यह है कि सकल (सम्पूर्ण) प्रतर में भी असंख्यात श्रेणियाँ होती हैं, प्रतर के अर्द्ध भाग में भी और तृतीय ( तिहाई) भाग आदि में भी असंख्यात श्रेणियाँ होती हैं, ऐसी स्थिति में यहाँ कितनी संख्या वाली Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ शरीरपद] [११३ श्रेणियाँ समझी जाएं ? इसी जिज्ञासा का समाधान करने के लिए मूलपाठ में कहा गया है - प्रतर का असंख्यातवाँ भाग। अर्थात् - प्रतर के असंख्यातवें भाग में जितनी श्रेणियाँ होती हैं, उतनी ही श्रेणियाँ यहाँ ग्रहण करनी चाहिए। फिर यहाँ उनका विशेष परिमाण बतलाने के लिए कहा गया है - उन श्रेणियों की विष्कम्भ सूची अर्थात् विस्तार को लेकर सूची = एकप्रादेशिकी श्रेणी उतनी होती है, जितनी अंगुल के प्रथम वर्गमूल को द्वितीय वर्गमूल से गुणा करने पर (जो) राशि निष्पन्न होती है । आशय यह है कि एक अंगुलप्रमाणमात्र क्षेत्र के प्रदेशों की जितनी प्रदेश राशि होती है, उसके असंख्यात वर्गमूल होते हैं । यथा - प्रथमवर्गमूल का भी जो वर्गमूल होता है, वह द्वितीय वर्गमूल होता है, उस द्वितीय वर्गमूल का जो वर्गमूल होता है, वह तृतीय वर्गमूल होता है, इस प्रकार उत्तरोत्तर असंख्यात वर्गमूल होते हैं । अतः प्रस्तुत में प्रथम वर्गमूल को दूसरे वर्गमूल के साथ गुणित करने पर जितने प्रदेश होते हैं, उतने प्रदेशों की सूची की बुद्धि से कल्पना कर ली जाए । तत्पश्चात् विस्तार में उसे दक्षिण-उत्तर में लम्बी स्थापित कर ली जाए। वह स्थापित की हुई सूची जितनी श्रेणियों को स्पर्श करती है, उतनी श्रेणियाँ यहाँ ग्रहण कर लेनी चाहिए। उदाहरणार्थयों तो एक अंगुलमात्र क्षेत्र में असंख्यात प्रदेश राशि होती है, फिर भी असत्कल्पना से उसकी संख्या २५६ मान लें । इस संख्या का प्रथम वर्गमूल सोलह (२४५=१०+६=१६) होता है । दूसरा वर्गमूल ४ और तृतीय वर्गमूल २ होता है। इनमें से जो द्वितीय वर्गमूल चार संख्या वाला है, उसके साथ सोलह संख्या वाले प्रथम वर्गमूल को गुणित करने पर ६४ (चौसठ) संख्या आती है। बस, इतनी ही इसकी श्रेणियाँ समझनी चाहिए। इस बात को शास्त्रकार प्रकारान्तर से कहते हैं - अथवा अंगुल के द्वितीय वर्गमूल के घन-प्रमाण (घन जितनी) श्रेणियाँ समझनी चाहिए। इसका आशय यह है कि एक अंगुलमात्र क्षेत्र में जितने प्रदेश होते हैं, उन प्रदेशों की राशि के साथ द्वितीय वर्गमूल का, अर्थात - असत्कल्पना से चार का जो घन हो, उतने प्रमाण वाली श्रेणियाँ समझनी चाहिए। जिस राशि का जो वर्ग हो. उसे उसी राशि से गणा करने पर 'घन' होता है। जैसे - दो का घन आठ है। वह इस प्रकार है - दो राशि का वर्ग चार है, उस को (चार को) दो के साथ गुणा करने पर आठ संख्या होती है। इसलिए दो राशि का घन आठ हुआ। इसी प्रकार यहाँ पर भी चार (४) राशि का वर्ग सोलह होता है, उस को (सोलह को) चार राशि के साथ गुणा करने पर चार का घन वही चौसठ (६४) आता है। इस तरह इन दोनों प्रकार (तरीकों) में कोई वास्तविक भेद नहीं है। यहाँ वृत्तिकार एक तीसरा प्रकार भी बताते हैं-अंगुलप्रमाण क्षेत्र के प्रदेशों की राशि को अपने प्रथम वर्गमूल के साथ गुणा करने पर जितनी प्रदेशराशि होती है, उतने ही प्रमाण वाली सूची जितनी श्रेणियों को स्पर्श करती है, उतनी श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश हों, उतने ही नारकों के बद्ध वैक्रियशरीर होते हैं। नारकों के मुक्त वैक्रियशरीर की प्ररूपणा उनके मुक्त औदारिकशरीरों के समान समझनी चाहिए। नारकों के बद्ध-मुक्त आहारकशरीर - जैसे नारकों के बद्ध औदारिकशरीरों के विषय में कहा गया है, वैसा ही उनके बद्ध आहारकशरीर के विषय में भी समझना चाहिए। नारकों के बद्ध आहारकशरीर होते ही नहीं, क्योंकि उनमें आहारकलब्धि सम्भव नहीं है। आहारकशरीर तो केवल आहारकलब्धिसम्पन्न चतुर्दश Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ] [प्रज्ञापनासूत्र पूर्वधारी मुनियों को ही होता है। नैरयिकों के मुक्त आहारकशरीरों के विषय में पूर्ववत् समझना चाहिए। भवनवासियों के बद्ध-मुक्त शरीरों का परिणाम ९१२.[१] असुरकुमाराणं भंते ! केवतिया ओरालियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहा णेरइयाणं ओरालिया भणिया (सु. ९११ [१]) तहेव एतेसिं पि भाणियव्वा। [९१२-१ प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों के कितने औदारिकशरीर कहे गए हैं ? [९१२-२ उ.] गौतम ! जैसे नैरयिकों के (बद्ध-मुक्त) औदारिकशरीरों के विषय में (सू. ९११-१ में) कहा गया है, उसी प्रकार इनके (असुरकुमारों के बद्ध-मुक्त औदारिकशरीरों के) विषय में भी कहना चाहिए। [२] असुरकुमाराणं भंते ! केवतिया वेउव्वियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा - बद्धेल्लगा य मुक्केल्लगा य। तत्थ णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं असंखेज्जा, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ,खेत्तओ असंखेज्जाओ सेढीओ पतरस्स असंखेजतिभागो, तासिणं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलपढमवग्गमूलस्स संखेजतिभागो। तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते णं जहा ओरालियस्स मुक्केल्लगा तहा भाणियव्वा (सु. ९१० [१])। [९१२-२ प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों के वैक्रियशरीर कितने कहे गये हैं ? [९१२-२ उ.] गौतम ! (वे) दो प्रकार के कहे गए हैं - बद्ध और मुक्त। उनमें जो बद्ध हैं, वे असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा से असंख्यात उत्सर्पिणियों और अवर्पिणियों में वे अपहृत होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा से असंख्यात श्रेणियों (जितने) हैं। (वे श्रेणियां) प्रतर का असंख्यातवाँ भाग (प्रमाण हैं।) उन श्रेण्यिों की विष्कम्भसूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल का संख्यातवाँ भाग (प्रमाण) है। उनमें जो.(असुरकुमारों के) मुक्त (वैक्रिय) शरीर हैं, उनके विषय में जैसे (सू. ९१०-१ में) मुक्त औदारिक शरीरों के विषय में कहा गया है, उसी तरह कहना चाहिए। [३] आहारयसरीरा जहा एतेसि णं चेव ओरालिया तहेव दुविहा भाणियव्वा । [९१२-३] (इनके) (बद्ध-मुक्त) आहारकशरीरों के विषय में, इन्हीं के (बद्ध-मुक्त) दोनों प्रकार के औदारिकशरीरों की तरह प्ररूपणा करनी चाहिए। [४] तेया-कम्मसरीरा दुविहा वि जहा एतेसि णं चेव वेउब्वियां । [९१२-४] (इनके बद्ध-मुक्त) दोनों प्रकार के तैजस और कार्मण शरीरों (का कथन) भी इन्हीं के १. (क) प्रज्ञापना सूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक २७४-२७५ (ख) अंगुलबिइयवग्गमूलं पढमवग्गमूलपडुप्पण्णं' -प्रज्ञापना. म. वृ., प. २७३ में उद्धत Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ शरीरपद] [११५ (बद्ध-मुक्त) वैक्रियशरीरों के समान समझ लेना चाहिए। ९१३. एवं जाव थणियकुमारा। [९१३] स्तनिकुमारों तक के बद्ध-मुक्त सभी शरीरों की प्ररूपणा भी इसी प्रकार (करनी चाहिए।) विवेचन - असुरकुमारादि के बद्धमुक्त शरीरों की प्ररूपणा - प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. ९१२-९१३) में असुरकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक के दसों भवनपतिदेवों के बद्ध एवं मुक्त औदारिकादि पांचों शरीरों की प्ररूपणा की गई है। असुरकुमारों के बद्ध-मुक्त औदारिकशरीर - इनके बद्ध औदारिकशरीर नहीं होते, क्योंकि नारकों की तरह इनका भी भवस्वभाव इसमें बाधक कारण है। इनके मुक्त औदारिकशरीर नैरयिकों की तरह समझने चाहिए। ___ असुरकुमारों के बद्ध-मुक्त वैक्रियशरीरों का निरूपण - इनके बद्ध वैक्रियशरीर असुरकुमार देवों की असंख्यात संख्या के बराबर असंख्यात हैं। काल से तो पूर्ववत् असंख्यात उत्सर्पिणियों-अवसपिणियों के समयों के तुल्य हैं । क्षेत्र की अपेक्षा से - असंख्यात श्रेणी प्रमाण हैं । असंख्यात श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उतने ही बद्धवैक्रियशरीर हैं। वे श्रेणियाँ प्रतर के असंख्यात भाग-प्रमाण होती हैं। यहाँ नारकों की अपेक्षा विशेषतर परिमाण बताते हुए शास्त्रकार कहते हैं- उन श्रेणियों के परिमाण के लिए जो विष्कम्भसूची है, वह अंगुल-प्रमाण क्षेत्र के प्रदेशों की राशि के प्रथम वर्गमूल का संख्यातवाँ भाग है। जैसे कि असत्कल्पना से एक अंगुलप्रमाण क्षेत्र की प्रदेश-राशि २५६ मानी गई। उसका जो प्रथम वर्गमूल है, वह १६ संख्यावाला माना गया। उसके संख्यातवें भाग में जितने आकाशप्रदेश हों, असत्कल्पना से पांच या छह हों, उतने प्रदेशों वाली श्रेणी परिमाण के लिए विष्कम्भसूची समझनी चाएि। इस दृष्टि से नैरयिकों की अपेक्षा असुरकुमारदेवों की विष्कम्भसूची असंख्यातगुणहीन है, क्योंकि नारकों की श्रेणी के परिमाण के लिए गृहीत विष्कम्भसूची द्वितीय वर्गमूल से गुणित प्रथम वर्गमूल जितने प्रदेशों वाली है। वस्तुतः द्वितीय वर्गमूल असंख्यातप्रदेशात्मक होता है। अतएव असंख्यातगुणयुक्त प्रथम वर्गमूल के प्रदेशों जितनी नारकों की सूची है, जबकि असुरकुमारादि की विष्कम्भसूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल के संख्यातभाग-प्रदेशरूप ही है। यह युक्तियुक्त भी है। क्योंकि महादण्डक में भी समस्त भवनवासियों को रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों से भी असंख्यातगुणहीन कहा गया है। इस दृष्टि से समस्त नारकों की अपेक्षा उनकी असंख्यातगुणहीनता स्वतः सिद्ध हो जाती है। इनके मुक्त वैक्रियशरीरों की प्ररूपणा औधिक मुक्त वैक्रियशरीरों की तरह करनी चाएि। इनके बद्ध-मुक्त आहारक-तैजसकार्मण शरीर - इनके आहारकशरीरों की प्ररूपणा नैरयिकों की तरह, बद्ध तैजस-कार्मण बद्धवैक्रियशरीरों की तरह तथा इनके मुक्त तैजस-कार्मणशरीरों की प्ररूपणा औधिक मुक्त तैजस के समान समझनी चाहिए। १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २७६-२७७ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ] [प्रज्ञापनासूत्र एकेन्द्रियों के बद्ध-मुक्त शरीरों की प्ररूपणा ९१४.[१] पुढविकाइयाणं भंते ! केवतिया ओरालियसरीरगा पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा बद्धेल्लगा य मुक्केल्लगा य । तत्थ णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं असंखेज्जा, असंखेजार्हि उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीहि अवहीरंति कालओ, खेत्तओ असंखेज्जा लोगा। तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते णं अणंता, अणंतार्हि उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीर्हि अवहीरंति कालओ, खेत्तओ अणंता लोगा, अभवसिद्धिएर्हितो अणंतगुणा, सिद्धाणं अणंतभागो।। [९१४-१ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के कितने औदारिकशरीर कहे गए हैं ? [९१४-१ उ.] गौतम ! (वे) दो प्रकार के कहे गये हैं-बद्ध और मुक्त। उनमे जो बद्ध हैं, वे असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा से - (वे) असंख्यात उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा से वे असंख्यात लोक-प्रमाण हैं। उनमें से जो मुक्त हैं, वे अनन्त हैं। कालतः (वे) अनन्त उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं। क्षेत्रतः (वे) अनन्तलोक-प्रमाण हैं। (द्रव्यतः वे) अभव्यों से अनन्तगुणे हैं, सिद्धों के अनन्तवें भाग हैं। [२] पुढविकाइयाणं भंते ! केवतिया वेउव्वियसरीरगा पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता । तं जहा - बद्धेल्लगा य मुक्केल्लगा य । तत्थ णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं णत्थि। तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते णं जहा एतेसिं चेव ओरालिया भणिया तहेव भाणियव्वा। . [९१४-२ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के वैक्रियशरीर कितने कहे गए हैं ? । [९१४-२ उ.] गौतम ! (वे) दो प्रकार के कहे गए हैं - बद्ध और मुक्त। उनमें जो बद्ध हैं, वे इनके नहीं होते। उनमें जो मुक्त है, उनके विषय में, जैसे इन्हीं के औदारिकशरीरों के विषय में कहा गया है, वैसे ही कहना चाहिए। [३] एवं आहारगसरीरा वि । [९१४-३] इनके आहारकशरीरों की वक्तव्यता इन्हीं के वैक्रियशरीरों के समान समझनी चाहिए । [४] तेया-कम्मगा जहा एतेसिं चेव ओरालिया। [९१४-४] (इनके बद्ध-मुक्त) तैजस-कार्मणशरीरों (की प्ररूपणा) इन्हीं के बद्ध-मुक्त औदारिकशरीरों के समान समझनी चाहिए। ९१५. एवं आउक्काइया तेउक्काइया वि । [९१५] इसी प्रकार अप्कायिकों और तेजस्कायिकों (के बद्ध-मुक्त सभी शरीरों) की वक्तव्यता Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ शरीरपद ] (समझनी चाहिए।) ९१६. [ १ ] वाउक्काइयाणं भंते ! केवतिया ओरालिया सरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता । तं जहा - बद्धेल्लगा य मुक्केल्लगा य । दुविहा वि जहा पुढविकाइयाणं ओरालिया (सु. ९१४ [१])। [९१६-१ प्र.] भगवन् ! वायुकायिक जीवों के औदारिकशरीर कितने कहे गए है ? [९१६-१ उ.] गौतम ! (वे) दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार - बद्ध और मुक्त। इन बद्ध और मुक्त दोनों प्रकार के औदारिकशरीरों की वक्तव्यता जैसे (सू. ९१४ - १ में) पृथ्वीकायिकों के (बद्ध-मुक्त) औदारिकशरीरों की (वक्तव्यता है), तदनुसार समझना चाहिए। [ ११७ [ २ ] वेडव्वियाणं पुच्छा । गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता । तं जहा - बद्धेल्लगा य मुक्केल्लगा य । तत्थ णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं असंखेज्जा, समए समए अवहीरमाण अवहीरमाणा पलिओवमस्स असंखेज्जइभागमेत्तेणं कालेणं अवहीरंति णो चेव णं अवहिया सिया | मुक्केल्लगा जहा पुढविक्वाइयाणं (सु. ९१४ [ २ ])। [९१३-२ प्र.] भगवन् ! वायुकायिकों के वैक्रियशरीर कितने कहे गए हैं ? [९१६-२ उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के हैं बद्ध और मुक्त | उनमें जो बद्ध है, वे असंख्यात हैं । (कालतः) यदि समय-समय में एक-एक शरीर का अपहरण किया जाए तो पल्योपम के असंख्यातवें भागप्रमाण काल में उनका पूर्णत: अपहरण होता है । किन्तु कभी अपहरण किया नहीं गया है (उनके) मुक्त शरीरों की प्ररूपणा (सू. ९१४ - २ में उल्लिखित) पृथ्वीकायिकों (के मुक्त वैक्रिय शरीरों) की तरह समझनी चाहिए। - [ ३ ] आहराय-तेया-कम्मा जहा पुढविकाइयाणं (सु. ९१४ [ ३-४ ] ) । तहा भाणियव्वा । [९१६-३] (इनके बद्ध-मुक्त) आहारक, तैजस और कार्मण शरीरों (की प्ररूपणा) (सू. ९१४-३१४ में उल्लिखित) पृथ्वीकायिकों (के बद्ध-मुक्त आहारक, तैजस और कार्मण शरीरों) की तरह करनी चाहिए। ९१७. वणप्फइकाइयाणं जहा पुढविकाइयाणं । णवरं तेया- कम्मगा जहा ओहिया तेया- कम्मगा (सु. ९१० [ ४-५ ])। [९१७] वनस्पतिकायिकों (के बद्ध-मुक्त औदारिकादि शरीरों) की प्ररूपणा पृथ्वीकायिकों (के बद्धमुक्त औदारिकादि शरीरों) की तरह समझना चाहिए । विशेष यह है कि इनके तैजस और कार्मण शरीरों का निरूपण (सू. ९१०-४५ के अनुसार) औधिक तैजस- कार्मण- शरीरों के समान करना चाहिए । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ ] [प्रज्ञापनासूत्र विवेचन - एकेन्द्रियों के बद्ध-मुक्त औदारिकादि शरीरों की प्ररूपणा - प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. ९१४ से ९१७ तक) में पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय जीवों के बद्ध और मुक्त औदारिकादि शरीरों की प्ररूपणा की गई है। पृथ्वीकायिकों आदि के बद्ध-मुक्त औदारिक शरीर - पृथ्वी-अप्-तेजस्कायिकों के बद्ध औदारिकशरीर असंख्यात हैं। काल से असंख्यात उत्सर्पिणियों - अवसर्पिणियों के समयों के बराबर हैं, और क्षेत्र से असंख्यात लोकप्रमाण हैं । इस सम्बन्ध में युक्ति पूर्ववत् समझ लेनी चाहिए। इनके मुक्त औदारिकशरीर औधिक मुक्त औदारिकशरीर के समान समझना चाहिए । पृथ्वीकायिकों आदि के वैक्रिय-आहारक-तैजस-कार्मणशरीरों की प्ररूपणा-इनमें वैक्रियलब्धि एवं आहारकलब्धि का अभाव होने से इनके बद्ध-वैक्रिय एवं आहारकशरीर नहीं होते । मुक्त आहारक एवं वैक्रिय शरीरों का कथन मुक्त औदारिकशरीरवत् समझना चाहिए । इनके तैजस और कार्मण शरीरों की प्ररूपणा इन्हीं के बद्ध-मुक्त औदारिकशरीरों के समान जाननी चाहिए । वायुकायिकों के बद्ध-मुक्त पांचों शरीरों की प्ररूपणा - वायुकायिकों के बद्ध-मुक्त औदारिक पृथ्वीकायिकों के बद्ध-मुक्त औदारिकशरीरों की तरह समझना चाहिए। वायुकाय में वैक्रिय शरीर पाया जाता है, अत: वायुकायिकों के बद्ध वैक्रियशरीर असंख्यात होते हैं। काल की अपेक्षा से यदि प्रतिसमय एक-एक वैक्रियशरीर का अपहरण किया जाये तो पल्योपम के असंख्यातवें भाग काल में उनका पूर्णतया अपहरण हो। तात्पर्य यह कि पल्योपम के असंख्यातवें भाग काल के जितने समय हैं, उतने ही वायुकायिकों के बद्ध वैक्रियशरीर होते हैं। वायुकायिक जीवों के सूक्ष्म और बादर ये दो-दो भेद हैं, फिर उनके प्रत्येक के पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो-दो भेद हैं। इनमें से बादर-पर्याप्त-वायुकायिकों के अतिरिक्त शेष तीनों में प्रत्येक असंख्यात लोकाकाशप्रमाण हैं, बादर-पर्याप्त-वायुकायिक प्रतर के असंख्यात-भाग-प्रमाण हैं। इनमें से तीन प्रकार के वायुकायिकों के वैक्रियलब्धि नहीं होती, सिर्फ बादर वायुकायिकों में से भी संख्यातभागमात्र में ही वैक्रियलब्धि होती है। क्योंकि पृच्छा के समय पल्योपम के असंख्येयभागमात्र ही वैक्रियशरीर वाले पाए जाते हैं। अतः सिर्फ इनके ही वैक्रियशरीर होता है, अन्य तीनों के नहीं। वायुकायिकों के मुक्त वैक्रियशरीर के विषय में औधिक मुक्त वैक्रियशरीर की तरह ही कहना चाहिए। इनके बद्ध तैजस-कार्मण-शरीर के विषय में बद्ध औदारिकशरीर की तरह तथा मुक्त तैजस-कार्मणशरीर मुक्त औधिक तैजस-कार्मण-शरीर की तरह समझना चाहिए। वायुकायिकों में आहारकलब्धि का अभाव होने से केवल अनन्त मुक्त आहारकशरीर ही होते हैं, बद्ध नहीं। वनस्पतिकायिकों के बद्ध-मुक्त पांचों शरीरों की प्ररूपणा - वनस्पतिकायिकों के बद्ध-मुक्त औदारिकशरीरों का कथन पृथ्वीकायिकों के बद्ध-मुक्त औदारिकशरीर की तरह करना चाहिए। बद्ध-मुक्त तैजस-कार्मणशरीरों की प्ररूपणा औधिक तैजस-कार्मणशरीरों की तरह समझनी चाहिए। उनके वैक्रिय और Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ शरीरपद [११९ आहारक शरीर मुक्त ही होते हैं, बद्ध नहीं, क्योंकि उनमें वैक्रियलब्धि तथा आहारकलब्धि नहीं होती। द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तिर्यचों तक के बद्ध-मुक्त शरीरों का परिमाण ९१८.[१] बेइंदियाणं भंते ! केवतिया ओरालियसरीरा पण्णता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता तं जहा - बद्धेल्लगा य मुक्केल्लगा य । तत्थ णं जे ते बद्धल्लगा ते णं असंखेजा,असंखेजाहिं उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीहि अवहीरंति कालओ,खेत्तओ असंखेजाओ सेढीओ पयरस्स असंखेजइभागो, तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई असंखेजाओ जोयणकोडाकोडीओअसंखेज्जाइं सेढिवग्गमूलाई।बेइंदियाणं ओरालियसरीरेहिं बद्धेल्लगेहिं पयरं अवहीरति, असंखेजाहिं उस्सप्पिणिओसपिपणीहिं कालओ, खेत्तओ अंगुलपयरस्स आवलियाए य असंखेज्जइभागपलिभागेणं। तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते जहा ओहिया ओरालिया मुक्केल्लगा (सु. ९१० [१])। [९१८-१ प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रियजीवों के कितने औदारिकशरीर कहे गए हैं ? [९१८-१ उ.] गौतम ! (वे) दो प्रकार के कहे गए हैं - बद्ध और मुक्त । उनमें जो बद्ध औदारिकशरीर हैं, वे असंख्यात हैं । कालतः - (वे) असंख्यात उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं । क्षेत्रत:- असंख्यात श्रेणी-प्रमाण हैं । (वे श्रेणियाँ) प्रतर के असंख्यात भाग (प्रमाण) हैं । उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची, असंख्यात कोटा कोटी योजन प्रमाण है । (अथवा) असंख्यात श्रेणि वर्गमूल के समान होती है । द्वीन्द्रियों के बद्ध ओदारिक शरीरों से प्रतर अपहृत किया जाता है । काल की अपेक्षा से - असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी-कालों से (अपहार होता है)। क्षेत्र की अपेक्षा से अंगुल-मात्र प्रतर और आवलिका के असंख्यात भाग प्रतिभाग-(प्रमाण खण्ड) से (अपहार होता है) उनमें जो मुक्त औदारिक शरीर हैं, (उनके विषय में) जैसे (सू. ९१०-१ में) औधिक मुक्त औदारिक शरीरों के (विषय में कहा है), वैसे (कहना चाहिए)। [२] वेउव्विया आहारगा य बद्धेल्लगा णत्थि, मुक्केल्लगा जहा ओहिया ओरालिया मुक्केल्लया (सु.९१० [१])। [९१८-२ प्र.] (इनके) वैक्रिय शरीर और आहारकशरीर बद्ध नहीं होते । मुक्त (वैक्रिय और आहारक शरीरों का कथन) (सू. ९१०-१ में उल्लिखित) औधिक मुक्त औदारिकशरीरों के समान कहना चाहिए। १. (क) प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक २७७ (ख) तिण्हं ताव रासीणं वेउव्वियलद्धी चेव नत्थि । बायरपज्जत्ताणं पिसंखेजइभागमेत्ताण लद्धी अस्थि ॥ -प्रज्ञापना चूर्णि, प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक २७७ में उद्धृत Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] [प्रज्ञापनासूत्र [३] तेया-कम्मगा जहा एतिर्सि चेव ओहिया ओरालिया। [९१८-३] (इनके बद्ध-मुक्त) तैजस-कार्मणशरीरों के विषय में इन्हीं के समुच्चय (औधिक) औदारिकशरीरों के समान (कहना चाहिए)। ९१९. एवं जाव चउरिदिया । [९१९] इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रियों तक (त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रियों के समस्त बद्ध मुक्त शरीरों के विषय में) कहना चाहिए। ९२०. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं एवं चेव। नवरं वेउब्वियसरीरएसु इमो विसेसोपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! केवतिया वेउव्वियसरीरया पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता । तं जहा-बद्धेल्लगा य मुक्केल्लगा य । तत्थ णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं असंखेजा जहा असुरकुमाराणं (सु. ९१२ [२])। णवरं तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलपढमवग्गमूलस्स असंखेज्जतिभागो। मुक्केल्लगा तहेव । ___[९२०] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों के (समस्त बद्ध-मुक्त शरीरों के) विषय में इसी प्रकार (कहना चाहिए)। इनके (बद्ध-मुक्त) वैक्रिय शरीरों (के विषय) में यह विशेषता है - [प्र.] भगवन ! पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों के कितने वैक्रियशरीर कहे हैं ? [उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के हैं, वे इस प्रकार - बद्ध और मुक्त । उनमें जो बद्ध वैक्रियशरीर हैं, वे असंख्यात हैं, उनकी प्ररूपणा (सू.९१२-२ में) उल्लिखित असुरकुमारों के (बद्धमुक्त वैक्रियशरीरों के) समान (करनी चाहिए।) विशेष यह है कि (यहाँ) उन श्रेणियों की विष्कम्भ सूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल का असंख्यातवाँ भाग (समझना चाहिए)। इनके मुक्त वैक्रियशरीरों के विषय में भी उसी प्रकार (औधिक मुक्त वैक्रियशरीरों के समान) समझना चाहिए। विवेचन - द्वीन्द्रियों से तिर्यंचपंचेन्द्रियों तक के बद्ध-मुक्त शरीरों की प्ररूपणा - प्रस्तुत तीन सूत्रों में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों के बद्ध मुक्त औदारिकादि पांचों शरीरों की प्ररूपणा की गई है । द्वीन्द्रियों के बद्ध-मुक्त औदारिकशरीरों की प्ररूपणा - द्वीन्द्रियों के बद्ध औदारिकशरीर असंख्यात हैं। उनका काल से परिमाण इस प्रकार है-यदि उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालों के एक-एक समय में एक-एक औदारिकशरीर का अपहरण किया जाए तो असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियों में इन सबका अपहरण सम्भव है। दूसरे शब्दों में कहें तो - असंख्यात उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी कालों में जितने समय होते हैं, उतने प्रमाण में बद्ध औदारिकशरीर हैं । क्षेत्र की अपेक्षा से वे असंख्यात श्रेणियों के बराबर हैं, Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ शरीरपद] [१२१ अर्थात्-असंख्यात श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उतने ही प्रमाण में इनके बद्ध औदारिकशरीर हैं। उन श्रेणियों का परिमाणविशेष इस प्रकार है-पूर्वोक्त प्रकार से वे श्रेणियाँ प्रतर के असंख्यातभाग-प्रमाण होती हैं। अर्थात्- प्रतर के असंख्यातभाग-प्रमाण असंख्यातश्रेणियाँ होती हैं । नारकों और भवनपतियों के शरीरों के प्रतरासंख्येयभाग की अपेक्षा द्वीन्द्रियों के शरीरों का प्रतरासंख्येयभाग कुछ भिन्न प्रकार का है वह इस प्रकार है- उन श्रेणियों का परिमाण निश्चित करने के लिए जो विष्कम्भ (विस्तार-) सूची मानी है, वह असंख्यातकोटाकोटी योजन-प्रमाण समझनी चाहिए। अथवा - एक परिपूर्ण श्रेणी के प्रदेशों की जो राशि होती है, उसका जो प्रथम, द्वितीय, तृतीय, यावत् असंख्यातवाँ वर्गमूल है, उन सबको संकलित कर लिया जाय। उन सबको संकलित करने पर जितनी प्रदेशराशि हो, उतने प्रदेशों वाली विष्कम्भसूची समझनी चाहिए। इसे एक उदाहरण के द्वारा समझिए - यद्यपि श्रेणी में असंख्यातप्रदेश होते हैं, किन्तु असत्कल्पना से उन्हें मूल ६५५३६ (पैंसठ हजार पांच सौ छत्तीस) मान लें, तो उनका प्रथम वर्गमूल २५६ आता है, दूसरा वर्गमूल १६, तीसरा वर्गमूल ४ और चौथा वर्गमूल २ आता है। इन सब संख्याओं का योग २७८ होता है। असत्कल्पना से इतने प्रदेशों की सूची समझनी चाहिए। द्वीन्द्रिय जीवों के शरीर कितनी अवगाहना के द्वारा कितने काल में सम्पूर्ण प्रतर को पूरा करते हैं ? इसका समाधान शास्त्रकार यों करते हैं- द्वीन्द्रिय जीवों के बद्ध औदारिकशरीर असंख्यात उत्सर्पिणीअवसर्पिणी-कालों में सम्पूर्ण प्रतर को पूर्ण करते हैं । क्षेत्र और काल की अपेक्षा से परिमाण- एक प्रादेशिकश्रेणीरूप अंगुलमात्र प्रतर के असंख्यातभाग-प्रतिभागप्रमाण खण्ड से यह क्षेत्रदृष्टि से परिमाण है तथा काल की दृष्टि से परिमाण-आवलिका के असंख्येयभाग प्रतिभाग से- अर्थात् असंख्यातवें प्रतिभाग से अपहृत होता है । इसका तात्पर्य यह है कि एक द्वीन्द्रिय के द्वारा अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण खण्ड आवलिका के असंख्यातवें भाग से अपहृत होता है । द्वितीय द्वीन्द्रिय के द्वारा भी उतने ही प्रमाण वाला खण्ड उतने ही काल में अपहृत होता है । इस प्रकार से अपहृत किया जाने वाला प्रतर समस्त द्वीन्द्रियों द्वारा असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों में सम्पूर्ण अपहृत होता है । __द्वीन्द्रियों के मुक्त औदारिकशरीरों की प्ररूपणा समुच्चय मुक्त औदारिकशरीरों के समान समझनी चाहिए । द्वीन्द्रियों के बद्ध-मुक्त वैक्रिय, आहारक, तैजस-कार्मणशरीरों की प्ररूपणा - द्वीन्द्रियों के बद्ध वैक्रिय और आहारक शरीर नहीं होते । मुक्त वैक्रिय और आहारक शरीरों की प्ररूपणा समुच्चय मुक्त औदारिक शरीरवत् समझनी चाहिए । इनके बद्ध मुक्त तैजस-कार्मणशरीरों की प्ररूपणा इन्हीं के बद्ध-मुक्त औदारिकशरीरों की तरह जाननी चाहिए । त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियों के बद्ध-मुक्त औदारिक आदि शरीरों की प्ररूपणा - द्वीन्द्रियों के बद्ध-मुक्त शरीरों के समान ही इनके बद्ध-मुक्त सब शरीरों की प्ररूपणा करनी चाहिए । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ] [ प्रज्ञापनासूत्र पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के बद्ध-मुक्त शरीरों की प्ररूपणा - पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के बद्ध-मुक्त औदारिकशरीरों का कथन द्वीन्द्रियों के समान ही समझना चाहिए । बद्ध-वैक्रिय शरीर असंख्यात होते हैं । काल और क्षेत्र की अपेक्षा से परिमाण की सब प्ररूपणा असुरकुमारों के समान समझनी चाहिए, किन्तु विशेषता यह है कि असुरकुमारों की वक्तव्यता में श्रेणियों की विष्कम्भसूची का प्रमाण अंगुल के प्रथम वर्गमूल का संख्यातवाँ भाग बतलाया था, जबकि यहाँ असंख्यातवाँ भाग समझना चाहिए । इसका तात्पर्य यह है कि एक अंगुलमात्र क्षेत्र के प्रदेशों की राशि के प्रथम वर्गमूल के असंख्यातवें भाग में जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उतने प्रदेशरूप सूची की जो श्रेणियाँ स्पृष्ट हैं उन श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उतने प्रमाण में ही तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों के बद्धवैक्रियशरीर होते हैं । इनके मुक्त वैक्रियशरीरों की प्ररूपणा औधिक (समुच्चय) वैक्रियशरीरों के समान समझनी चाहिए । बद्ध आहारकशरीर इनके नहीं होते । मुक्त आहारकशरीर की प्ररूपणा पूर्ववत् समझनी चाहिए । इनके बद्ध तैजस-कार्मण-शरीर इन्हीं के बद्ध औदारिकशरीरवत् हैं । मुक्त तैजस-कार्मणशरीर समुच्चय मुक्त तैजस-कार्मण-शरीरवत् समझना चाहिए।' मनुष्यों के बद्ध-मुक्त औदारिकादि शरीरों का परिमाण ९२१.[१] मणुस्साणं भंते ! केवतिया ओरालियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता ।तं जहा-बद्धेल्लगा मुक्केल्लगाय।तत्थ णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं सिय संखेजा सिय असंखेजा, जहण्णपए संखेज्जा संखेजाओ कोडाकोडीओ तिजमलपयस्स उवरि चउजमलपयस्स हेट्ठा, अहवणं छट्ठो वग्गो पंचमवग्गपडुप्पण्णो, अहवणं छण्णउईछेयणगदाई रासी; उक्कोसपदे असंखेज्जा, असंखेजाहिं उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्तओ रूवपक्खित्तेहिं सेढी अवहीरति, तीसे सेढीए काल-खेत्तेहिं अवहारोमग्गिजइ-असंखेजाहि उस्सप्पिणि ओसप्पिणीहिं कालओ, खेत्तओ अंगुलपढमवग्गमूलं ततियवग्गमूलपडुप्पण्णं । तत्थ णंजेते मुक्केल्लगा ते जहा ओरालिया ओहिया मुक्केल्लगा (सु. ९१० [१])। [९२१-१ प्र.] भगवन् ! मनुष्य के औदारिकशरीर कितने कहे गए हैं ? [९२१-१ उ.] गौतम ! (वे) दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार-बद्ध और मुक्त । उनमें से जो बद्ध हैं, वे कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात होते हैं । जघन्य पद में संख्यात होते हैं । संख्यात कोटाकोटी तीन यमलपद के ऊपर तथा चार यमलपद से नीचे होते हैं । अथवा पंचमवर्ग से गुणित १. (क) प्रज्ञापना मलय. वृत्ति, पत्रांक २७७ से २९७ तक __ (ख) अंगुलमूलासंखेयभागप्पमियाउ होंति सेढीओ । उत्तरविउव्वियाणं तिरियाणं सन्निपज्जाणं ॥ -प्रज्ञापना Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ शरीरपद ] [ १२३ (प्रत्युत्पन्न) छठे वर्ग-प्रमाण होते हैं; अथवा छियानवे (९६) छेदनकदायी राशि (जितनी संख्या है ।) उत्कृष्टपद में असंख्यात हैं । कालतः (वे) असंख्यात उत्सर्पिणियों - अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं । क्षेत्र से-एक रूप जिनमें प्रशिप्त किया गया है, ऐसे मनुष्यों से श्रेणी अपहृत होती है, उस श्रेणी की काल और क्षेत्र से अपहार को मार्गणा होती है-कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीकालों से (असंख्यात मनुष्यों का) अपहार होता है । क्षेत्रत: - (वे) तीसरे वर्गमूल से गुणित अंगुल का प्रथमवर्गमूल (प्रमाण होते हैं ।) उनमें जो मुक्त औदारिकशरीर हैं, उनके विषय में (सू. ९१० - १ में उल्लिखित) औधिक मुक्त औदारिकशरीरों के समान जानना चाहिए । [ २ ] वेडव्वियाणं भंते ! पुच्छा ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता । तं जहा- बद्धेल्लगा य मुक्केल्लगा य । तत्थ णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं संखेज्जा, समए समए अवहीरमाणा अवहीरमाणा संखेज्जणं कालेणं अवहीरंति णो चेव णं अवहिया सिया । तत्थ णं जे ते मुकेल्लगा ते णं जहा ओरालिया ओहिया (सु. ९१० [ १ ] ) । [९२१-२ प्र.] भगवन् ! मनुष्यों के वैक्रिय शरीर कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [९२१-२ उ.] गौतम ! (वे) दो प्रकार के कहे गए हैं - बद्ध और मुक्त । उनमें जो बद्ध हैं, वे संख्या हैँ । समय-समय में (वे) अपहृत होते-होते संख्यातकाल में अपहृत होते हैं; किन्तु अपहृत नहीं किए गए हैं। उनमें से जो मुक्त वैक्रियशरीर हैं, उनके विषय में (सू. ९१० - १ में उल्लिखित) औघिक औदारिकशरीरों के समान समझना चाहिए । [ ३ ] आहारगसरीरा जहा ओहिया (सु. ९१० [ ३ ])। [९२१-३] (इनके बद्ध-मुक्त) आहारकशरीरों की प्ररूपणा (सू. ९१० - ३ में उल्लिखित) औघिक आहारकशरीरों के समान समझनी चाहिए । [४] तेया- कम्मया जहा एतिसिं चेव ओरालिया । [९२१-४] (मनुष्यों के बद्ध - मुक्त) तैजस- कार्मणशरीरों का निरूपण इन्हीं के (बद्ध - मुक्त) औदारिकशरीरों के समान (समझना चाहिए ।) विवेचन - मनुष्यों के बद्ध-मुक्त औदारिकादि शरीरों का परिमाण प्रस्तुत सूत्र (९२१-१-४) में मनुष्यों के बद्ध और मुक्त औदारिकादि पांच शरीरों को प्ररूपणा की गई है। - मनुष्यों के बद्ध-मुक्त शरीरों की प्ररूपणा - मनुष्यों के बद्ध औदारिक शरीर - कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात हैं । इसका अभिप्राय यह है कि मनुष्य दो प्रकार के होते हैं - गर्भज और Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ] [प्रज्ञापनासूत्र सम्मूर्छिम । गर्भज मनुष्य (प्रवाहरूप से) सदा स्थायी रहते हैं। कोई भी काल ऐसा नहीं होता, जो गर्भज मनुष्यों से रहित हो; किन्तु सम्मूर्छिम मनुष्य कभी होते हैं, कदाचित् उनका सर्वथा अभाव हो जाता है, क्योंकि सम्मूर्छिम मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु भी अन्तर्मुहूर्त की होती है। उनकी उत्पत्ति का अन्तर (विरहकाल) उत्कृष्ट चौबीस मुहूर्त प्रमाण कहा गया है। अतएव जिस काल में सम्मूर्छिम मनुष्य सर्वथा विद्यमान नहीं होते, अपितु केवल गर्भज मनुष्य ही होते हैं, उस समय बद्ध औदारिकशरीर संख्यात ही होते हैं, क्योंकि गर्भज मनुष्यों को संख्या संख्यात ही है, वे महाशरीररूप में या प्रत्येकशरीर रूप में होने से परिमितक्षेत्रवर्ती होते हैं। जब सम्मूर्छिम मनुष्य विद्यमान होते हैं, तब मनुष्यों की संख्या असंख्यात होती है। सम्मूर्छिम मनुष्य उत्कृष्टतः श्रेणी के असंख्यातवें भागवर्ती आकाशप्रदेशों की राशि-प्रमाण होते हैं। इसी दृष्टि से मूलपाठ में कहा गया है - जहन्नपदे संखेजा। जघन्यपद का अभिप्राय है-जहाँ सबसे थोड़े मनुष्य पाए जाते हैं। प्रश्न होता है - क्या वे (सबसे कम मनुष्य) सम्मूर्छिम होते हैं या गर्भज? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि गर्भज मनुष्य ही होते हैं, जो सदैव स्थायी होने से सम्मूछिमों के अभाव में सबसे थोड़े पाए जाते हैं। उत्कृष्टपद में गर्भज और सम्मूर्च्छिम दोनों का ही ग्रहण होता है। इस जघन्यपद से यहाँ संख्यात मनुष्यों का ग्रहण होता है। किन्तु संख्यात के भी संख्यात-भेद होते हैं, इसलिए संख्यात कहने से कितनी संख्या है, इसका विशेष बोध नही होताः इसलिए शास्त्रकार विशिष्ट संख्या निर्धारित करते हैं- संख्यातकोटाकोटी हैं। इस परिमाण को और अधिक स्पष्ट करने के उद्देश्य से कहते है- 'तीन यमलपद के ऊपर और चार यमलपद के नीचे'। इसका आशय इस प्रकार है - मनुष्यों की संख्या का प्रतिपादन करने वाले उनतीस (२९) अंक आगे कहे जाएँगे। शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार आठ-आठ अंकों की एक 'यमलपद' संज्ञा है। अत: चौबीस (२४) अंकों के तीन यमलपद हए। इसके पश्चात् (२४ अंकों के बाद) पांच अंक-स्थान शेष रहते हैं। किन्तु चौथे यमलपद की पूर्ति आठ अंकों से होती है, उसमें तीन अंकस्थान कम हैं। अत: चौथा यमलपद पूरा नहीं होता। इसी कारण यहाँ मनुष्य-संख्याप्रतिपादक २९ अंकों के लिए कहा गया है - 'तीन यमलपदों के ऊपर और चार यमलपदों से नीचे'- अर्थात् २९ अंक प्रमाण । अथवा - दो वर्ग मिलकर एक यमलपद होता है। चार वर्ग मिलकर दो यमलपद होते हैं, तथा छह वर्ग मिलकर तीन यमलपद होते हैं और आठ वर्ग मिलकर चार यमलपद होते हैं। अत: छह वर्गों के ऊपर और सातवें वर्ग के नीचे कहें, चाहे तीन यमलपदों के ऊपर और चार यमलपदों से नीचें कहें, एक ही बात हुई। अब इससे भी अधिक स्पष्ट रूप से मनुष्यों की संख्या का प्रतिपादन करते हैं - पंचम वर्ग से छठे वर्ग को गूणित करने पर जो राशि निष्पन्न होती है, जघन्यवपद में उस राशिप्रमाण मनुष्यों की संख्या है। एक को एक के साथ गुणाकार करने पर गुणनफल एक ही आता है, संख्या में वृद्धि नहीं होती, अतः 'एक' की वर्ग के रूप में गणना नहीं होती। किन्तु दो का दो के साथ गुणाकार करने पर ४ संख्या आती है, यह प्रथम वर्ग हुआ। चार के साथ चारै को गुणा करने पर १६ संख्या आई, यह द्वितीय वर्ग हुआ, फिर १६ को १६ के साथ गुणा करने पर २५६ संख्या आई, यह तृतीय वर्ग हुआ। २५६ को २५६ के साथ गुणा करने पर ६५५३६ राशि Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ शरीरपद ] [ १२५ आती है, यह चौथा वर्ग हुआ । इस चौर्थ वर्ग की राशि का पुन: इसी राशि के साथ गुणा करने पर ४२९४९६७२९६ संख्या आती है। यह पांचवाँ वर्ग हुआ। पंचम वर्ग की 'चार सो उनतीस करोड़, उनचास लाख, सड़सठ हजार दो सौ छयानवे' राशि का इसी राशि के साथ गुणाकार करने पर १८४४६७४४०७३७०९५५१६१६ राशि आई, यह छठा वर्ग हुआ । इस छठे वर्ग का पूर्वोक्त पंचमवर्ग के साथ गुणाकार करने पर जो राशि निष्पन्न होती है, जघन्यपद में उतने ही मनुष्य हैं। यह राशि पूर्वोक्त २९ (उनतीस ) अंको में इस प्रकार से है- ७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ - ये उनतीस अंक कोटाकोटी आदि के द्वारा किसी भी तरह कहे नहीं जा सकते। अनुयोगद्वारतृत्ति में (विपरीत क्रम से अंकों की गणना होती है इस न्याय के अनुसार) यह संख्या दो गाथाओं द्वारा बताई है । अथवा पूर्वाचार्यों ने अंकों के प्रथम अक्षर को लेकर विपरीत क्रम से एक गाथा में यही संख्या बताई है। अब इसी संख्या को प्रकारान्तर से समझने के लिए शास्त्रकार कहते है- ‘अहव णं छण्णउईछेयणगदायी रासी' छियानवे छेदनकदायी राशि की व्याख्या इस प्रकार है- जो आधी-आधी छेदन करते-करते छियानवै वार छेदन को प्राप्त हो और अन्त में एक बच जाए: वह छियानवे छेदनकदायी राशि कहलाती है। यह राशि उतनी ही है, जितनी पंचमवर्ग का छठे वर्ग के साथ गुणाकार करने पर होती है । वह संख्या इस प्रकार होती है- प्रथम (पूर्वोक्त) वर्ग यदि छेदा जाए तो दो १. चत्तारि य कोडिसया अउणत्तीसं च होंति कोडीओ । अणावन्नं लक्खा सत्तट्ठी चेव य सहस्सा ॥ १ ॥ दोय सया छण्णउया पंचमवग्गो समासओ होइ । एयस्स को वग्गो छट्ठो जो होइ तं वोच्छं ॥ २ ॥ लक्खं कोडाकोडी चउरासीइ भवे सहस्साइं । चत्तारि य सत्तट्ठा होंति सया कोडकोडीणं ॥ ३ ॥ चउयालं लक्खाई कोडीणं सत्त चेव य सहस्सा । तिणि सया सत्तयरी कोडीणं हुंति नायव्वा ॥ ४ ॥ पंचाणउई लक्खा एकावन्नं भवे सहस्साइं । छसोलसुत्तरसया एसो छट्ठो हवइ वग्गो ॥ ५ ॥ - प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक २८ २. छत्तिन्नि तिन्नि सुन्नं पंचेव य नव य तिन्नि चत्तारि । पंचेव तिण्णि नव पंच सत्त तिन्नेव तिन्नेव ॥ १ ॥ चउ छद्दो चउ एक्को पण छक्केक्कगो य अट्ठेव । दो दो नव सत्तेव य अंकट्ठाणा परा हुंता ॥ - अनुयोग० वृत्तौ छ-ति-ति-सुं- पण-नव-ति-च-प-ति-ण-प-स-ति-ति- चउ-छ- दो । च-ए-प-दो-छ-ए-अ-बे-बे-स पढमक्खरसंतियट्ठाणा ॥ १ ॥ - प्र. म. वृ. पत्रांक २८१ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ] [प्रज्ञापनासूत्र छेदनक देता है- पहला छेदनक दो और दूसरा छेदनक एक। दोनों को मिलाकर दो छेदनक हुए। इसी प्रकार दूसरे वर्ग के चार छेदनक होते है: क्योंकि वह १६ संख्या वाला है। उसका प्रथम छेदनक ८, दूसरा ४, तीसरा २ और चौथा १ छेदनक होता है। तीसरा वर्ग २५६ संख्या का है। अतः इसके ८ छेदनक होते हैं। इसी प्रकार चौथे वर्ग के १६ छेदनक, पांचवें वर्ग के ३२ छेदनक और छठे वर्ग के ६४ छेदनक होते हैं। इस प्रकार सब छेदनकों का योग करने पर कुल ९६ छेदनक होते हैं, जो कि पांचवें वर्ग से छठे वर्ग को गुणित करने पर होते हैं। जिस-जिस वर्ग का जिस-जिस वर्ग के साथ गुणाकार किया जाता है, उस वर्ग मे गुण्य और गुणक दोनों वर्गों के छेदनक होते हैं। जैसे- प्रथम वर्ग के साथ दूसरे वर्ग का गुणाकार करने पर छह छेदनक होते हैं। सोलह संख्या के द्वितीय वर्ग का चार संख्या वाले प्रथम वर्ग के साथ गुणाकार करने पर (१६४४-६४) चौसठ संख्या आती है। उसका प्रथम छेदनक ३२, दूसरा छेदनक १६, तीसरा छेदनका ८, चौथा छेदनक ४, पांचवाँ छेदनक २, और छठा छेदनक १ होता है। इस प्रकार ६ छेदनक होते हैं। इसी प्रकार आगे सर्वत्र समझ लेना चाहिए। इसी प्रकार पांचवें वर्ग से छठे वर्ग का गुणाकार करने पर ९६ भंग होते हैं, यह सिद्ध हुआ। अथवा किसी एक अंक को स्थापित करके उसे छियानवै बार दुगुना-दुगुना करने पर यदि उतनी ही राशि आ जाए तो वह राशि छियानवै छेदनकदायी राशि कहलाती है। यह जघन्यपद में मनुष्यों की संख्या कही गई। उत्कृष्टपद में मनुष्यों की संख्या - इस प्रकार है - उत्कृष्टपद में मनुष्यों की संख्या असंख्यात है। काल की अपेक्षा से परिमाण- एक-एक समय में यदि एक-एक मनुष्य के शरीर का अपहार किया जाए तो अंसख्यात उतसर्पिणी-अवसर्पिणी कालों में उसका पूर्णरूप में अपहार होता है। क्षेत्र की अपेक्षा से- एक रूप प्रक्षिप्त करने पर मनुष्यों से पूर्ण एक श्रेणी का अपहार होता है। इसका तात्पर्य यह है कि उत्कृष्ट पद में जो मनुष्य हैं, उनमें असत्कल्पना से एक मिला देने पर एक सम्पूर्ण श्रेणी का अपहार हो जाता है। क्षेत्र और काल से उस श्रेणी के अपहार की मार्गणा इस प्रकार है- कालत:- असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों में असंख्यात मनुष्यों का अपहार होता है। क्षेत्रत: वे अंगुल के तृतीय वर्गमूल से गुणित प्रथम वर्गमूल-प्रमाण होते हैं। असत्कल्पना से अंगुलप्रमाण क्षेत्र के प्रदेशों की राशि २५६ होती है. जिसका प्रथम वर्गमल सोलह होता है। उसका तृतीय वर्ग-मूल दो के साथ गुणा करने पर प्रदेशों की राशि (१६४२-३२) बत्तीस आती है। इतनी संख्या वाले खण्डों से अपहत की गई श्रेणी पूर्णता तक पहुंच जाती है, और यही मनुष्यों की संख्या की पराकाष्ठा है। प्रश्न होता है- एक श्रेणी का उपर्युक्त प्रमाण वाले खण्डों से अपहार करने में असंख्यात उत्सर्पिणियाँअवसर्पिणियाँ कैसे लग जाती हैं ? इसका समाधान इस प्रकार है - क्षेत्र अतिसूक्ष्म होता है। कहा भी हैकाल सूक्ष्म होता है, उससे भी सूक्ष्मतर क्षेत्र होता है, क्योंकि अंगुल मात्र श्रेणी में असंख्यात उत्सर्पिणियाँ समा जाती हैं। अर्थात्- एक अंगुल प्रमाण क्षेत्र में जो प्रदेशराशि होती है, वह असंख्यात उत्सर्पिणियों के समयों १. सुहुमो स होइ कालो, तत्तो सुहुमयरं हवइ खेत्तं । अंगुलसेढीमेत्ते उस्सप्पिणीओ असंखेजाओ ॥ -प्रज्ञा. म. वृ., पत्रांक २८२ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ शरीरपद] . [१२७ से भी अधिक होती है। मनुष्यों के मुक्त औदारिकशरीरों की प्ररूपणा समुच्चय मुक्त औदारिकशरीरों के समान समझनी चाहिए। मनुष्यों के बद्ध-मुक्त वैक्रियशरीर आदि की प्ररूपणा- मनुष्यों के बद्ध वैक्रियशरीर संख्यात हैं, क्योंकि गर्भज मनुष्यों में ही वैक्रियलब्धि सम्भव है, और वह भी किसी-किसी में, सबमें नहीं। इनके मुक्त वैक्रियशरीरों का कथन औधिक मुक्त वैक्रियशरीरों के समान ही समझना चाहिए। मनुष्यों के बद्ध-मुक्त आहारकशरीरों की प्ररूपणा औधिक बद्ध-मुक्त आहारकशरीरों के समान समझनी चाहिए। मनुष्यों के बद्ध तैजस और कार्मण शरीर इन्हीं के बद्ध औदारिकशरीर के समान समझने चाहिए। मुक्त तैजस-कार्मण-शरीरों की प्ररूपणा औधिक मुक्त तैजस-कार्मण-शरीरों के समान करनी चाहिए। वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों के बद्ध-मुक्त औदारिकादि शरीरों की प्ररूपणा ९२२. वाणमंतराणं जहाणेरइयाणं ओरालिया आहारगा य। वेउव्वियसरीरगा जहा णेरइयाणं, णवरं तासिणं सेढीणं विक्खंभसूई संखेजजोयणसयवग्गपलिभागो पयरस्स। मुक्केल्लगा जहा ओहिया ओरालिया (सु. ९१० [१])। तेया-कम्मया जहा एसिं चेव वेउव्विया । [९२२] वाणव्यन्तर देवों के बद्ध-मुक्त औदारिक और आहारक शरीरों का निरूपण नैरयिकों के बद्धमुक्त औदारिक एवं आहारक शरीरों के समान जानना चाहिए। इनके वैक्रियशरीरों का निरूपण नैरयिकों के समान है। विशेषता यह है कि उन (असंख्यात) श्रेणियों की विष्कम्भसूची (कहनी चाहिए) । प्रतर के पूरण और अपहार में वह सूची संख्यात योजनशतवर्ग-प्रतिभाग (खण्ड) है। (इनके) मुक्त वैक्रियशरीरों का कथन औधिक औदारिकशरीरों की तरह (सू. ९१०-१ के अनुसार) समझना चाहिए। इनके बद्ध-मुक्त तैजस और कार्मण शरीरों का कथन इनके ही वैक्रियशरीरों के कथन के समान समझना चाहिए। ९२३. जोतिसियाणं एवं चेवाणवरं तासिणं सेढीणं विक्खंभसूई बेछप्पणंगुलसयवग्गपलिभागो पयरस्स। ___ [९२३] ज्योतिष्क देवों (के बद्ध-मुक्त शरीरों) की प्ररूपणा भी इसी तरह (समझनी चाहिए।) विशेषता यह है कि उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची दो सौ छप्पन अंगुल वर्गप्रमाण प्रतिभाग (खण्ड) रूप प्रतर के पूरण और अपहार में समझना चाहिए । ९२४. वेमाणियाणं एवं चेव । णवरं तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलबितियवग्गमूलं ततियवग्गमूलपडुपण्णं, अहव णं अंगुलतियवग्गमूलघणपमाणमेत्ताओ सेढीओ । सेसं तं चेव। ॥पण्णवणाए भगवईए बारसमं सरीरपयं समत्तं ॥ १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २७९ से २८२ तक Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ] [प्रज्ञापनासूत्र _[९२४] वैमानिकों (के बद्ध-मुक्त शरीरों) की प्ररूपणा भी इसी तरह (समझनी चाहिए।) विशेषता यह है कि उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची तृतीय वर्गमूल से गुणित अंगुल के द्वितीय वर्गमूल प्रमाण है अथवा अंगुल के तृतीय वर्गमूल के घन के बराबर श्रेणियां हैं। शेष सब पूर्वोक्त कथन के समान समझना चाहिए । विवेचन - वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के बद्ध-मुक्त शरीरों की प्ररूपणा - प्रस्तुत तीन सूत्रों (९२२ से ९२४ तक) में क्रमश: वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के बद्ध-मुक्त शरीरों की प्ररूपणा की गई है। व्यन्तरदेवों के बद्ध-मुक्त शरीरों को प्ररूपणा - व्यन्तरदेवों के बद्ध-मुक्त औदरिकशरीरों के विषय में नैरयिकों के बद्ध-मुक्त औदारिकशरीरों की तरह समझना चाहिए। व्यन्तरों के बद्ध वैक्रिय शरीर नारकों की तरह असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा से एक-एक समय मे एक-एक शरीर का अपहार करने पर असंख्यात उत्सर्पिणी और असंख्यात अवसर्पिणी कालों में वाणव्यन्तरों के समस्त बद्धवैक्रियशरीरों का अपह क्षेत्र की अपेक्षा से वे असंख्यात श्रेणी प्रमाण हैं । अर्थात्- असंख्यात श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उतने ही वे शरीर हैं। वे श्रेणियाँ प्रतर के असंख्यात भाग हैं। केवल उनकी सूची में कुछ विशेषता (अन्तर) है। उन असंख्यात श्रेणियों की विष्कम्भसूची (विस्तार सूची) इस प्रकार है। जैसे महादण्डक में पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च नपुंसकों से व्यन्तरदेव असंख्यातगुणहीन कहे हैं, वैसे ही इनकी (व्यन्तरदेवों की) विष्कम्भसूची भी तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों की विष्कम्भसूची से असंख्यातगुणहीन कहनी चाहिए। प्रतर के पूरण और अपहरण में वह सूची संख्यातयोजनशतवर्ग प्रतिभाग (खण्ड) प्रमाण है। तात्पर्य यह है कि असंख्यात योजन शतवर्गप्रमाण श्रेणिखण्ड में यदि एक-एक व्यन्तर की स्थापना की जाए तो वे सम्पूर्ण प्रतर को पूर्ण करते हैं, अथवा यदि एक-एक व्यन्तर के अपहार में एक-एक संख्यात-योजनशतवर्गप्रमाण श्रेणिखण्ड का अपहरण होता है, तब सभी मिलकर व्यन्तर पूर्ण होते हैं, उससे पर सकल प्रतर है। वाणव्यन्तरों के मुक्त वैक्रियशरीरों का कथन मुक्त औधिक वैक्रियशरीरवत् समझना चाहिए। बद्धमुक्त आहारक शरीरों का कथन नैरयिकों के बद्ध-मुक्त आहारकशरीरवत् समझना चाहिए। इनके बद्ध तैजसकार्मणशरीरों का कथन इन्हीं के बद्ध वैक्रियशरीरवत् समझना चाहिए। मुक्त तैजस-कार्मण शरीरों के विषय में औधिक मुक्त तैजस-कार्मणशरीर के समान समझना चाहिए । ज्योतिष्कदेवों के बद्ध-मुक्त शरीरों की प्ररूपणा - इनके बद्ध-मुक्त औदारिकशरीरों का कथन नैरयिकवत् समझना चाहिए। बद्ध वैक्रियशरीर असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा से मार्गणा करने पर एक समय में एक-एक शरीर का अपहरण करने पर असंख्यात-उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीकालों में उनका सम्पूर्णरूप से अपहार होता है। क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यात श्रेणियाँ हैं, वे श्रेणियाँ प्रतर के असंख्यातभाग प्रमाण जाननी चाहिए। विशेष यह है कि उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची व्यन्तरों की विष्कम्भसूची से संख्यातगुणी अधिक होती है, क्योंकि महादण्डक में व्यन्तरों से ज्योतिष्कदेव संख्यातगुणे अधिक बताए गए हैं। इसलिए प्रतिभाग के विषय में भी विशेष स्पष्टतया कहते हैं- उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची २५६ वर्ग प्रमाणखण्डरूप प्रतर के Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ शरीरपद] [१२९ पूरण और अपहरण में जानना। आशय यह है कि २५६ अंगुलवर्गप्रमाण श्रेणिखण्ड में यदि एक-एक ज्योतिष्क की स्थापना की जाए तो वे सम्पूर्ण प्रतर को पूर्ण कर पाते हैं। अथवा यदि एक-एक ज्योतिष्क के अपहार से एक-एक दो सौ छप्पन अंगुल वर्गप्रमाण श्रेणिखण्ड का अपहार होता है, तब सब मिलकर ज्योतिष्कों की पूर्णता होती है। दूसरी ओर सकलप्रतर पूर्ण होता है। ज्योतिष्कों के मुक्त वैक्रियशरीर मुक्त समुच्चयवत् और आहारकशरीर नारकवत्। शेष पूर्ववत् समझना चाहिए। वैमानिकों के क्षेत्रतः वैक्रियशरीर परिमाण असंख्यात श्रेणीप्रमाण हैं । अर्थात्- असंख्यात श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उतने ही शरीर हैं। इन श्रेणियों का परिणाम प्रतर का असंख्यातवाँ भाग है, किन्तु नारकादि की अपेक्षा से प्रतर के असंख्यातवें भाग के परिमाण में कुछ भिन्नता है, विष्कम्भयूची तृतीयवर्गमूल (१६४१६=२५६) गुणित द्वितीय वर्गमूल (४X४ = १६) है, अथवा अंगुल के तृतीय वर्गमूल के घन के बराबर श्रेणियाँ हैं। शेष सब पूर्वोक्त के समान समझना चाहिए । ॥ प्रज्ञापनासूत्र : बारहवाँ शरीरपद समाप्त ॥ १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २८२-२८४ तक Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरसमं परिणामपयं तेरहवाँ परिणामपद - प्राथमिक + यह प्रज्ञापनासूत्र का तेरहवाँ 'परिणामपद' है। + 'परिणाम' शब्द के यहाँ दो अर्थ अभिप्रेत हैं- (१) किसी भी द्रव्य का सर्वथा विनाश या सर्वथा अवस्थान न होकर एक पर्याय से दूसरे पर्याय (अवस्था) में जाना परिणाम है अथवा (२) पूर्ववर्ती सत्पर्याय की अपेक्षा से विनाश और उत्तरवर्ती असत्पर्याय की अपेक्षा से प्रादुर्भाव होना परिणाम है।' प्रस्तुत पद में जीव और अजीव दोनों के परिणामों का विचार किया गया है। भारतीय दर्शनों में सांख्य आदि दर्शन परिणामवादी हैं, जबकि न्याय आदि दर्शन परिणामवादी नहीं हैं। धर्म और धर्मो का अभेद मानने वाले दार्शनिक परिणामवाद को स्वीकार करते हैं और जो दार्शनिक धर्म और धर्मो का आत्यन्तिक भेद मानते हैं, उन्होंने परिणामवाद को नहीं माना। किसी भी वस्तु का सर्वथा विनाश नहीं हो जाता, किन्तु उसका रूपान्तर या अवस्थान्तर होता है। पूर्वरूप का नाश होता है, तो उत्तररूप का उत्पाद होता है, यही परिणामवाद का मूलाधार है। इसीलिए जैनदर्शन के मूर्धन्य ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र में बताया- 'तद्भाव : परिणाम :' (अर्थात्- उसका होना, यानी स्वरूप में स्थित रहते हुए उत्पन्न तथा नष्ट होना परिणाम है। (इस दृष्टि से मनुष्यादि गति, इन्द्रिय, योग, लेश्या, कषाय, आदि विभिन्न अपेक्षाओं से जीव चाहे जिस रूप में या अवस्था (पर्याय) में उत्तन्न या विनष्ट होता हो उसमें आत्मत्व अर्थात् मूल जीवद्रव्यत्व ध्रुव रहता है। इसी प्रकार अजीव का अपने मूल स्वरूप में रहते हुए विभिन्न रूपान्तरों या अवस्थान्तरों में परिणमन होना अजीव-परिणाम है। प्रस्तुत पद में इसी परिणामिनित्यता का अनुसरण करते हुए सर्वप्रथम जीव के परिणामों के भेद-प्रभेद बताए हैं, तत्पश्चात् नारकादि चौबीस दण्डकों में उनका विचार किया गया है। तदनन्तर अजीव के परिणामों के भेद-प्रभेदों की गणना की है। अजीवपरिणामों में यहाँ सिर्फ पुद्गल के परिणामों की गणना प्रस्तुत की गई हैं, धर्मास्तिकायादि अरूपी द्रव्यों के परिणामों की नहीं है। सम्भव है, अजीवपरिणामों में अगुरुलघु परिणाम (जो कि एक ही प्रकार का बताया गया है) में धर्म, अधर्म, आकाश, काल इन अरूपी द्रव्यों के परिणाम का समावेश किया हो। प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक २८४ (क) पण्णवणासुत्तं भा. २, परिमाणपद की प्रस्तावना पृ. ९३ (ख) द्वयी चेयं नित्यता कूटस्थनित्यता परिणामिनित्यता च । तत्र कूटस्थनित्यता पुरुषस्य, परिणामिनित्यिता गुणानाम् ।-पातं. भाष्य ४, ३३ (क) प्रज्ञापना. म. वृ., पत्रांक २८९ (ख) पण्णवणासुत्तं भा. १, पृ. २३०-२३१ ३. Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरसमं परिणामपयं तेरहवाँ परिणामपद परिणाम और उसके दो प्रकार ९२५. कतिविहे णं भंते ! परिणामें पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे परिणामे पण्णत्ते । तं जहा - जीवपरिणामे य अजीवपरिणामे य। [९२५ प्र.] भगवन् ! परिणाम कितने प्रकार के कहे गये हैं ? __ [९२५ उ.] गौतम ! परिणाम के दो प्रकार कहे गये हैं। वे इस प्रकार - जीव - परिणाम और अजीवपरिणाम। विवेचन - परिणाम और उसके दो प्रकार - प्रस्तुत सूत्र में परिणाम के दो भेदों- जीवपरिणाम और अजीवपरिणाम का निरूपण किया गया है। ___ 'परिणाम' की व्याख्या- 'परिणाम' शब्द यहाँ पारिभाषिक है। उसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ होता हैपरिणमन होना, अर्थात्- किसी द्रव्य की एक अवस्था बदल कर दूसरी अवस्था हो जाना। परिणाम नयों के भेद से विविध और विचित्र प्रकार का होता है। नैगम आदि अनेक नय हैं, परन्तु समस्त नयों के संग्रहक मुख्य दो नय हैं - द्रव्यास्तिकनय और पर्यायास्तिकनय। अतः द्रव्यास्तिकनय के अनुसार परिणाम (परिणमन) का अर्थ होता है-त्रिकालस्थायी (सत्) पदार्थ ही उत्तरपर्याय रूप धर्मान्तर को प्राप्त होता है, ऐसी स्थिति में पूर्वपर्याय का न तो सर्वथा (एकान्तरूप से) अवस्थान और न ही एकान्तरूप से विनाश ही परिणाम है। कहा भी है- परिणाम के वास्तविकरूप के ज्ञाता, द्रव्य का एक पर्याय से दूसरे पर्याय (अर्थान्तर) में जाना ही परिणाम मानते हैं, क्योंकि द्रव्य का न तो सर्वथा अवस्थान होता है और न सर्वथा विनाश । किन्तु पर्यायार्थिकनय के अनुसार पूर्ववर्ती सत्पर्याय की अपेक्षा विनाश होना और उत्तरकालिक असत्पर्याय की अपेक्षा से प्रादुर्भाव होना परिणाम कहलाता है।' प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक २८४ (ख) परिणमनं परिणामः ।' 'परिणामो ह्यर्थान्तरगमनं, न च सर्वथा व्यवस्थानम् । न च सर्वथा विनाशः परिणामस्तद्विदामिष्टः ॥१॥' सत्पर्यायेण विनाशः प्रादुर्भावोऽसद्भावपर्ययतः । द्रव्याणां परिणामः प्रोक्तः खलु पर्ययनयस्य ॥२॥ १. Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ ] [ प्रज्ञापनासूत्र परिणाम के दो प्रकार : क्यों और कैसे ? - परिणाम वैसे तो अनेक प्रकार के होते हैं, किन्तु - मुख्यतया दो द्रव्यों का आधार लेकर परिणाम होते हैं, इसलिए शास्त्रकार ने परिणाम के दो मुख्य प्रकार बताए हैं - जीवपरिणाम और अजीवपरिणाम। जीव के परिणाम को जीवपरिणाम और अजीव के परिणाम को अजीवपरिणाम कहते हैं। दशविध जीवपरिणाम और उसके भेद-प्रभेद ९२६. जीवपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दसविहे पण्णत्ते । तं जहा- गतिपरिणामे १ इंदियपरिणामे २ कसायपरिणामे ३ लेसापरिणामे ४ जोगपरिणामे ५ उवओगपरिणामे ६ णाणपरिणामे ७ दंसणपरिणामे ८ चरितपरिणामे ९ वेदपरिणामे १०। [९२६ प्र.] भगवन् ! जीवपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [९२६ उ.] गौतम ! (जीवपरिणाम) दस प्रकार का कहा है। वह इस प्रकार - (१) गतिपरिणाम, (२) इन्द्रियपरिणाम, (३) कषायपरिणाम, (४) लेश्यापरिणाम, (५) योगपरिणाम, (६) उपयोगपरिणाम, (७) ज्ञानपरिणाम, (८) दर्शनपरिणाम, (९) चारित्रपरिणाम और (१०) वेदपरिणाम। ९२७. गतिपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते? गोयमा ! चउविहे पण्णत्ते । तं जहा - णिरयगतिपरिणामे १ तिरियगतिपरिणामे २ मणुयगतिपरिणामे ३ देवगतिपरिणामे ४ । [९२७ प्र.] भगवन् ! गतिपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [९२७ उ.] गौतम ! (गतिपरिणाम) चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार - (१) निरयगतिपरिणाम (२) तिर्यग्गतिपरिणाम (३) मनुष्यगतिपरिणाम और (४) देवगतिपरिणाम। ९२८. इंदियपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते ! तं जहा - सोइंदियपरिणामे १ चक्खिदियपरिणामे २ घाणिंदियपरिणामे ३ जिभिदियपरिणामे ४ फासिंदियपरिणामे ५ । [९२८ प्र.] भगवन् ! इन्द्रियपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [९२८ उ.] गौतम! पांच प्रकार का कहा गया है- (१) श्रोत्रेन्द्रियपरिणाम, (२) चक्षुरिन्द्रियपरिणाम, ३) घ्राणेन्द्रियपरिणाम, (४) जिह्वेन्द्रियपरिणाम और (५) स्पर्शेन्द्रियपरिणाम । ९२९. कसायपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां परिणामपद ] गोयमा ! चउव्विहे पण्णत्ते । तं जहा - कोहकसायापरिणामे १ माणकसायपरिणामे २ माया- कसायपरिणामे ३ लोभकसायपरिणामे ४ । | १३३ [९२९ प्र.] भगवन्! कषायपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [ १२९ उ.] गौतम ! कषायपरिणाम चार प्रकार का है । वह इस प्रकार है- (१) क्रोधकषायपरिणाम., (२) मानकषायपरिणाम, (३) मायाकषायपरिणाम और (४) लोभकषायपरिणाम | ९३०. लेस्सापरिणमे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोमा ! छवि पण्णत्ते । तं जहा- कण्हलेस्सापरिणामे १ णीललेस्सापरिणामे २ काउलेस्सापरिणामे ३ तेउलेस्सापरिणामे ४ पम्हलेस्सापरिणामे ५ सुक्कलेस्सापरिणामे ६ । [९३० प्र.] भगवन् ! लेश्यापरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [९३० उ.] गौतम ! (लेश्यापरिणाम) छह प्रकार का कहा है, वह इस प्रकार - (१) कृष्णलेश्यापरिणाम, (२) नीललेश्यापरिणाम, (३) कापोतलेश्यापरिणाम, (४) तेजोलेश्यापरिणाम, (५) पद्मलेश्यापरिणाम और (६) शुक्ललेश्यापरिणाम । ९३१. जोगपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोमा ! तिविहे पण्णत्ते । तं जहा मणजोगपरिणामे १ वइजोगपरिणामे २ कायजोगपरिणामे ३ । [९३१ प्र.] भगवन् ! योगपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [९३१ उ.] गौतम ! (योगपरिणाम) तीन प्रकार का है - (१) मनोयोगपरिणाम, (२) वचन - योगपरिणाम और (३) काययोगपरिणाम | ९३२ उवओगपरिणामे णं भते ! कतिविहे पण्णत्ते ? - गोमा ! दुविहे पण्णत्ते । तं जहा - सागारोवओगपरिणामे य अणागारोवओगपरिणामे य । [९३२ प्र.] भगवन् ! उपयोगपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [९३२ उ.] गौतम ! ( उपयोगपरिणाम) दो प्रकार का कहा गया है - (१) साकारोपयोगपरिणाम और (२) अनाकारोपयोगपरिणाम । ९३३ णाणपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते । तं जहा - आभिणिबोहियनाणपरिणामे १ सुयणाणपरिणामे २ ओहिणाणपरिणामे ३ मणपज्जवणाणपरिणामे ४ केवलणाणपरिणामे ५ । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ] [प्रज्ञापनासूत्र [९३३ प्र.] भगवन् ! ज्ञानपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? __ [९३३ उ.] गौतम ! (ज्ञानपरिणाम) पांच प्रकार का कहा गया है - (१)आभिनिबोधिकज्ञानपरिणाम, (२) श्रुतज्ञानपरिणाम, (३)अवधिज्ञानपरिणाम, (४) मनपर्यवज्ञानपरिणाम और (५)केवलज्ञानपरिणाम। ९३४. अण्णाणपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे पण्ण्त्ते । तं जहा - मतिअण्णाणपरिणामे १ सुयअण्णाणपरिणामे २ विभंगणाणपरिणामे ३ । [९३४ प्र.] भगवन् ! अज्ञानपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [९३४ उ.] गौतम ! (अज्ञानपरिणाम ) तीन प्रकार का कहा गया है. वह इस प्रकार है - (१) मतिअज्ञानपरिणाम, (२) श्रुत-अज्ञानपरिणाम और (३) विभंगज्ञानपरिणाम। ९३५. दंसणपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते?. गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते । तं जहा - सम्मइंसणपरिणामे १ मिच्छादसणपरिणामे २ सम्मामिच्छादसणपरिणामे ३ । [९३५ प्र.] भगवन् ! दर्शनपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [९३५ उ.] गौतम! (दर्शनपरिणाम) तीन प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार - (१) सम्यग्दर्शनपरिणाम, (२) मिथ्यादर्शनपरिणाम और (३) सम्यग्मिथ्यादर्शनपरिणाम। ९३६. चरित्तापरिणामे णं भंते । कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते। तं जहा - सामाइयचरित्तपरिणामे १ छेदोवट्ठावणियचरित्तपरिणामे २ परिहारविसुद्धियचरित्तपरिणामे ३ सुहुमसंपरायचरित्तपरिणामे ४ अहक्खायचरित्तपरिणामे । [९३६ प्र.] भगवन् ! चारित्रपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [९३६ उ.] गौतम ! (चारित्रपरिणाम) पांच प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार - (१) सामायिकचारित्रपरिणाम, (२) छेदोपस्थापनीयचारित्रपरिणाम, (३) परिहारविशुद्धिचारित्रपरिणाम, (४)सूक्ष्मसम्परायचारित्रपरिणाम और (५) यथाख्यातचारित्रपरिणाम । ९३७. वेयपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते । तं जहा - इत्थिवेयपरिणामे १ पुरिसवेयपरिणामे २ णपुंसगवेयपरिणामे ३। [९३७ प्र.] भगवन् ! वेदपरिणाम कितने प्रकार का कहा जाता है ? Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३५ तेरहवां परिणामपद ] [९३७ उ.] गौतम ! (वेदपरिणाम) तीन प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार - ( १ ) स्त्रीवेदपरिणाम (२) पुरुषवेदपरिणाम और (३) नपुंसकवेदपरिणाम । विवेचन - दशविध जीवपरिणाम और उसके भेद-प्रमोद - प्रस्तुत १२ सूत्रों (सू. ९२६ से ९३७ तक) में गतिपरिणाम आदि १० प्रकार के जीवपरिणामो का उल्लेख करके प्रत्येक के भेदों का निरूपण किया गया है । गतिपरिणाम आदि की व्याख्या - ( १ ) गतिपरिणाम - नरकादि गति नामकर्म के उदय से जिसकी प्राप्ति हो, उसे 'गति' कहते हैं, नरकादिगतिरूप परिणाम अर्थात् नारकत्व आदि पर्याय- परिणत जीव का गतिपरिणाम है । (२) इन्द्रियपरिणाम - इन्दन होने से, अर्थात् ज्ञानरूप परम-ऐश्वर्य के योग से आत्मा 'इन्द्र' कहलाता है । जो इन्द्र का लिंग-साधन हो, वह इन्द्रिय है । इन्द्रियरूप परिणाम इन्द्रियपरिणाम है । (३) कषायपरिणाम - जिसमें प्राणी परस्पर एक दूसरे का कर्षण हिंसा (घात) करते हैं, उसे 'कष' कहते हैं या जो कष अर्थात्-संसार को प्राप्त कराते हैं, वे कषाय हैं । जीव की कषायरूप परिणति को कषायपरिणाम कहते हैं । ( ४ ) लेश्यापरिणाम- लेश्या का स्वरूप आगे कहा जाएगा। लेश्यारूप परिणमन को लेश्यापरिणाम कहते हैं । (५) योगपरिणाम- मन, वचन एवं काय के व्यापार को योग कहते हैं। योगरूप परिणमन योगपरिणाम है । (६) उपयोगपरिणाम - चेतनाशक्ति के व्यापार रूप साकार - अनाकार - ज्ञानदर्शनात्मक परिणाम को कहते हैं । उपयोगरूप परिणाम उपयोगपरिणाम हैं। (७) ज्ञानपरिणाम- मतिज्ञानादिरूप परिणाम को ज्ञानपरिणाम कहते हैं । (८) दर्शनपरिणाम- सम्यग्दर्शन आदि रूप परिणाम दर्शन-परिणाम है । (९) चारित्रपरिणाम- जीव का सामायिक आदि चारित्ररूप परिणाम चारित्रपरिणाम है । (१०) वेदपरिणाम- स्त्रीवेद आदि के रूप में जीव परिणमन वेदपरिणाम है । दशविध जीवपरिणामों के क्रम की संगति- औदयिक आदि भाव के आश्रित सभी भाव गतिपरिणाम बिना प्रादुर्भूत नहीं होते। इसलिए सर्वप्रथम गतिपरिणाम का प्रतिपादन किया गया है । गतिपरिणाम के होने पर इन्द्रियपरिणाम अवश्य होता है, इसलिए उसके पश्चात् इन्द्रियपरिणाम कहा है । इन्द्रियपरिणाम के पश्चात् इष्ट-अनिष्ट विषय के सम्पर्क से राग-द्वेषपरिणाम उत्पन्न होता है । अतः इसके बाद कषायपरिणाम कहा है । कषायपरिणाम लेश्यापरिणाम का अविनाभावी है किन्तु लेश्यापरिणाम कषायपरिणाम के बिना भी होता है । इसलिए कषायपरिणाम के पश्चात् लेश्यापरिणाम का निर्देश है' । लेश्यापरिणाम योगपरिणामात्मक है, इसलिए श्यापरिणाम के अनन्तर योगपरिणाम का निर्देश किया है । योगपरिणत संसारी जीवों का उपयोगपरिणाम होता है, इसलिए योगपरिणाम के पश्चात् उपयोगपरिणाम का क्रम है । उपयोगपरिणाम होने पर ज्ञानपरिणाम उत्पन्न होता है । इस कारण उपयोगपरिणाम के अनन्तर ज्ञान- परिणाम कहा है । ज्ञानपरिणाम के दो रूप हैंसम्यग्ज्ञानपरिणाम और मिथ्याज्ञानपरिणाम । ये दोनों परिणाम क्रमशः सम्यक्त्व, मिथ्यात्व (सम्यग्दर्शन, मिथ्यादर्शन) के बिना नही होते, इसलिए ज्ञानपरिणाम के अनन्तर दर्शनपरिणाम कहा है । सम्यग्दर्शनपरिणाम के होने पर जीवों के द्वारा जिन भगवन् के वचनश्रवण से अपूर्व - अपूर्व संवेग का आविर्भाव होने पर Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ] [प्रज्ञापनासूत्र चारित्रावरणकर्म के क्षय-क्षयोपशम से चारित्रपरिणाम उत्पन्न होता है । इसलिए दर्शनपरिणाम के अनन्तर चारित्रपरिणाम कहा गया है । चारित्रपरिणाम के प्रभाव से महासत्त्वपुरुष वेदपरिणाम का विनाश करते है, इसलिए चारित्रपरिणाम के अनन्तर वेदपरिणाम का प्रतिपादन किया गया है।' नैरयिकों में दशविध-परिणामों को प्ररूपणा ९३८. णेरइया गतिपरिणामेणं णिरयगतिया, इंदियपरिणामेणं पंचिंदिया, कसायपरिणामेणं कोहकसाई विजावलोभकसाई वि, लेस्सापरिणामेणं कण्हलेस्सा विणीललेस्सा वि काउलेस्सा वि, जोगपरिणामेणं मणजोगी वि वइजोगी वि कायजोगी वि, उवओगपरिणामेणं सागारोवउत्ता वि अणागारोवउत्ता वि, णाणपरिणामेणं आभिणिबोहियणाणी वि सुयणाणी वि ओहणाणी वि, अण्णाणपरिणामेणं मतिअण्णाणी वि,सयअण्णाणी विविभंगणाणी वि,दंसणपरिणामेणं सम्मद्रिी वि मिच्छद्दिट्ठी वि सम्मामिच्छद्दिट्ठी वि, चरित्तपरिणामेणं णो चरित्ती णो चरित्ताचरित्ती अचरित्ती, वेद परिणामेणं णो इत्थिवेयगा णो पुरिसवेयगा णपुंसगवेयगा । __ [९३८] नैरयिक जीव गतिपरिणाम की अपेक्षा नरकगतिक (नरकगति वाले) हैं; इन्द्रियपरिणाम से पंचेन्द्रिय हैं; कषायपरिणाम से क्रोधकषायी यावत् लोभकषायी हैं; लेश्यापरिणाम से कृष्णलेश्यावान् भी हैं, नीललेश्यावान् भी और कापोतलेश्यावान् भी हैं; योगपरिणाम से वे मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी भी हैं, उपयोगपरिणाम से (वे) आभिनिबोधिक (मति) ज्ञानी भी हैं, श्रुतज्ञानी भी हैं और अवधिज्ञानी भी हैं, अज्ञानपरिणाम से (वे) मति-अज्ञानी भी हैं, श्रुत अज्ञानी भी और विभंगज्ञानी भी हैं; दर्शनपरिणाम से वे सम्यग्दृष्टि भी है, मिथ्यादृष्टि भी हैं और सम्यग्मिथ्यादृष्टि भी हैं; चारित्रपरिणाम से (वे) न तो चारित्री हैं, न चारित्राचारित्री हैं, किन्तु अचारित्री हैं; वेदपरिणाम से नारकजीव न स्त्रीवेदी हैं, न पुरुषवेदी, किन्तु नपुंसकवेदी हैं। विवेचन - नैरयिको में दशविधपरिणामों की प्ररूपणा - प्रस्तुत सूत्र (९३८) में जीवपरिणामों के दस प्रकारों में से कौन-कौन-सा परिणाम किस रूप में पाया जाता है, इसकी प्ररूपणा की गई है। नैरयिकों में तीन लेश्याएँ ही क्यों? - नारकों में प्रारम्भ की तीन लेश्याएँ होती हैं, शेष तीन लेश्याएँ नही होतीं । इनमें से भी रत्नप्रभा और शर्कराप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में कापोतलेश्या, वालुकाप्रभा के नाराको में कापोत और नीललेश्या, पंकप्रभापृथ्वी के नारकों में नीललेश्या, धूमप्रभापृथ्वी के नारको मे नील और कृष्णालेश्या तथा तमःप्रभा और तमस्तम:प्रभापृथ्वी के नारको में सिर्फ कृष्णलेश्या ही होती है । इसलिए लेश्यापरिणाम की दृष्टि से समुच्चय नारकों को प्रारम्भ की तीन लेश्याओं वाला कहा है । नारको में चारित्रपरिणाम क्यों नहीं ? - चारित्रपरिणाम की दृष्टि से नारकजीव न तो चारित्री होते हैं १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २८५ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां परिणामपद] [१३७ और न ही चारित्राचारित्री (देशचारित्री), वे अचारित्री ही रहते है । सम्पूर्ण चारित्र मनुष्यों के ही सम्भव है तथा देशचारित्र मनुष्य और तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय में ही हो सकता है, इसलिए नारकों में चारित्रपरिणाम बिलकुल नहीं होता । वेदपरिणाम से नारक नपुंसकवेदी ही क्यों ? - नारक न तो स्त्री और न पुरूष होते हैं; इसलिए . नारक सिर्फ नपुंसकवेदी होते हैं । तत्त्वार्थसूत्र में भी कहा है- 'नारक और सम्मूछिम जीव नपुंसक होते हैं।' असुरकुमारादि भवनवासियों की परीणामसम्बन्धी प्ररूपणा ९३९.[१] असुरकुमारा वि एवं चेव । नवरं देवगतिया, कण्हलेसा वि जाव तेउलेसा वि, वेदपरिणामेणं इत्थिवेयगा वि पुरिसवेयगा वि, णो णपुंसगवेयगा । सेसं तं चेव । __[९३९-१] असुरकुमारों की (परिणामसम्बन्धी वक्तव्यता) भी इसी प्रकार जाननी चाहिए । विशेषता यह है कि (वे गतिपरिणाम से) देवगतिक होते हैं; (लेश्यापरिणाम से) कृष्ण लेश्यावान् भी होते हैं तथा नील, कपोत एवं तेजोलेश्या वाले भी होते हैं; वेदपरिणाम से वे स्त्रीवेदक भी होते है, पुरुषवेदक भी होते है, किन्तु नपुंसकवेदक नहीं होते । (इसके अतिरिक्त) शेष (सब) कथन उसी तरह (पूर्ववत्) समझना चाहिए। • [२] एवं जाव थणियकुमारा । [९३९-२] इसी प्रकार (असुरकुमारों के समान नागकुमारों से लेकर) स्तनितकुमारों तक (की परिणामसम्बन्धो प्ररूपणा करनी चाहिए ।) विवेचन - असुरकुमारादि भवनवासियों की परिणासम्बन्धी प्ररूपणा - प्रस्तुत सूत्र (९२९) में असुरकुमारों से लेकर स्तनितकुमारों तक दस प्रकार के भवनवासी देवों के दशविध परिणामों की प्ररूपणा कुछेक बातों को छोड़कर नारकों के अतिदेशपूर्वक की गई है । भवनवासी देवों का नारकों से कुछ परिणामों में अन्तर - भवनवासी देवों के अधिकतर परिणाम तो नैरयिकों के समान ही होते हैं, कुछ परिणामों में अन्तर है, जैसे कि वे गतिपरिणाम से देवगतिवाले होते हैं। लेश्यापरिणाम की अपेक्षा से नारको की तरह उनमें भी प्रारम्भ की तीन लेश्याएँ होती हैं, किन्तु महर्द्धिक भवनवासी देवों के चौथी तेजोलेश्या भी होती है। वेदपरिणाम की दृष्टि से वे नारकों की तरह नपुंसककवेदी नहीं होते, क्योंकि देव नपुंसक नहीं होते; अतः भवनवासियों में स्त्रीवेदी और पुरूषवेदी ही होते हैं । एकेन्द्रिय से तिर्यचपंचेन्द्रिय जीवों तक के परिणामों की प्ररूपणा १. 'नारक-सम्मूर्छिनो नपुंसकानि' -तत्त्वार्थ. अ. २ सू. ५० प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २८७ २. 'न देवाः' -तत्त्वार्थ. अ. २, सू. ५१ ३. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २८७ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ] [प्रज्ञापनासूत्र ९४० [१] पुढविकाइया गतिपरिणामेणं तिरियगतिया,इंदियपरिणामेणं एगिंदिया, सेसं जहा णेरइयाणं (सु. ९३८)।णवरलेस्सापरिणामेणं तेउलेस्सा वि, जोगपरिणामेणं कायजोगी,णाणपरिणामो पत्थि, अण्णाणपरिणामेणं मतिअण्णाणी विसुयअण्णाणी वि, सणपरिणामेणं मिच्छट्ठिी । सेसंतं चेव । [९४०-१] पृथ्वीकायिकजीव गतिपरिणाम से तिर्यञ्चगतिक हैं, इन्द्रियपरिणाम से एकेन्द्रिय हैं, शेष (सब परिणामों की वक्तव्यता) नैरयिकों के समान (समझनी चाहिए।) विशेषतया यह है कि लेश्यापरिणाम से (ये) तेजोलेश्या वाले भी होते हैं । योगपरिणाम से (ये सिर्फ) काययोगी होते हैं, इनमें ज्ञानपरिणाम नही होता । अज्ञानपरिणाम से ये मति-अज्ञानी भी होते हैं, श्रुत-अज्ञानी भी ; (किन्तु विभंगज्ञानी नहीं होते ।) दर्शनपरिणाम से (ये केवल) मिथ्यादृष्टि होते हैं, (सम्यग्दृष्टि या सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते ।) शेष (सब वर्णन) उसी प्रकार (पूर्ववत् जानना चाहिए ।) [२] एवं आउ-वणप्फइकाइया वि । [९४०-२] इसी प्रकार (की परिणामसम्बन्धी वक्तव्यता)अप्कायिक एवं वनस्पतिकायिकों की (समझनी चाहिए ।) [३] तेऊ वाऊ एवं चेव । णवरं लेस्सापरिणामेणं जहा णेरइया (सु. ९३८) । [९४०-३] तेजस्कायिकों एवं वायुकायिकों की भी (परिणामसम्बन्धी वक्तव्यता) इसी प्रकार है। विशेष यह है कि लेश्यापरिणाम से लेश्यासम्बन्धी प्ररूपणा (सू. ९३८ में उल्लिखित) नैरयिकों के समान (तीन लेश्याएं समझनी चाहिए।) ९४१.[१] बेइंदिया गतिपरिणामेणं तिरियगतिया, इंदियपरिणामेणं बेइंदिया, सेसंजहाणेरइयाणं (सु. ९३८)।णवरं जोगपरिणामेणं वइयोगी विकाययोगी वि,णाणपरिणामेणं आभिणिबोहियणाणी वि सुयणाणी वि, अण्णाणपरिणामेणं मतिअण्णाणी वि सुयअण्णाणी वि, णो विभंगणाणी, दंसणपरिणामेणं सम्मद्दिट्ठी वि, मिच्छट्ठिी वि, णो सम्मामिच्छट्ठिी । सेसं तं चेव। [९४१-१] द्वीन्द्रियजीव गतिपरिणाम से तिर्यञ्चगतिक हैं, इन्द्रियपरिणाम से (वे) द्वीन्द्रिय (दो इन्द्रियों वाले) होते हैं। शेष (सब परिणामों का निरूपण) (सू. ९३८ में उल्लिखित) नैरयिकों की तरह (समझना चाहिए।) विशेषता यह कि (वे) योगपरिणाम से वचनयोगी भी होते है, काययोगी भी; ज्ञानपरिणाम से आभिनिबोधिक ज्ञानी भी होते हैं और श्रुतज्ञानी भी; अज्ञानपरिणाम से मतिअज्ञानी भी होते हैं और श्रुतअज्ञानी भी; (किन्तु वे) विभंगज्ञानी नहीं होते। दर्शनपरिणाम से वे सम्यग्दृष्टि भी होते हैं और मिथ्यादृष्टि भी; (किन्तु) सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते । शेष (सब वर्णन) उसी तरह (पूर्वोक्त नैरयिकवत् समझना चाहिए।) [२] एवं जाव चउरिदिया।णवरं इंदियपरिवुड्डी कायव्वा । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां परिणामपद] [१३९ [९४१-१] इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रियजीवों (त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) तक समझना चाहिए। विशेष यह है कि (त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय में उत्तरोत्तर एक-एक) इन्द्रिय की वृद्धि कर लेनी चाहिए। ९४२. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया गतिपरिणामेणं तिरियगतीया।सेसंजहाणेरइयाणं (सु. ९३८)। णवरं लेस्सापरिणामेणं जाव सुक्कलेस्सा वि, चरित्तपरिणामेणं णो चरित्ती, अचरित्ती विचरित्ताचरित्ती वि, वेदपरिणामेणं इत्थिवेयगा वि पुरिसवेयगा वि णपुंसगवेयगा वि।। [९४२] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव गतिपरिणाम से तिर्यञ्चगतिक हैं। शेष (सू. ९३८ में) जैसे नैरयिकों का (परिणामसम्बन्धी कथन) है; (वैसे ही समझना चाहिए।) विशेष यह है कि लेश्यापरिणाम से (वे कृष्णलेश्या से लेकर) यावत् शुक्ललेश्या वाले भी होते है; चारित्रपरिणाम से वे (पूर्ण) चारित्री नहीं होते, अचारित्री भी होते हैं और चारित्राचारित्री (देशचारित्री) भी; वेद-परिणाम से वे स्त्रीवेदक भी होतो हैं, पुरुषवेदक भी और नपुंसकवेदक भी होते हैं। एकेन्द्रिय से तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों तक के परिणामों की प्ररूपणा - प्रस्तुत तीन सूत्रों में से सू. ९४० में एकेन्द्रियों के सू. ९४१ में विकलेन्द्रियों (द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियों) तथा सू. ९४२ में पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों की परिणामसम्बन्धी प्ररूपणा कुछेक बातों को छोड़कर नैरयिकजीवों के समान अतिदेशपूर्वक की गई है। इनसे नैरयिकों के परिणामसम्बन्धी निरूपण में अन्तर - गतिपरिणाम से नैरयिक नरकगतिक होते हैं, जबकि एकेन्द्रिय से लेकर तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय तक तिर्यञ्चगतिक होते हैं; इन्द्रियपरिणाम से नैरयिक पंचेन्द्रिय होते हैं, जबकि पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय सिर्फ एक स्पर्शेन्द्रिय वाले, द्वीन्द्रिय स्पर्शनेन्द्रिय एंव रसनेन्द्रिय, इन दो इन्द्रियों वाले, त्रीन्द्रिय स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, एवं घ्राणेन्द्रिय, इन तीन इन्द्रियों वाले तथा चतुरिन्द्रिय स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय एवं चक्षुरिन्द्रिय, इन चार इन्द्रियों वाले एवं तिर्यचपंचेन्द्रिय पांच इन्द्रियों (स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र) वाले होते हैं। लेश्यापरिणाम से- नारकों में आदि की तीन लेश्याएँ होती हैं, जबकि (पृथ्वी-अप्-वनस्पतिकायिक) एकेन्द्रियों में चौथी तेजोलेश्या भी होती हैं; क्योंकि सौधर्म और ईशान देवलोक तक के देव भी इनमें उत्पन्न हो सकते हैं। तेजस्कायिक-वायुकायिकों में नारकों की तरह प्रारम्भ की तीन लेश्याएं ही होती हैं। तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों में शुक्ललेश्या तक छहों लेश्याएँ सम्भव हैं । योगपरिणाम से नारकों में तीनों योग पाए जाते हैं, जबकि पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय सिर्फ काययोगी होते हैं, विकलेन्द्रिय वचनयोगी और काययोगी तथा तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय तीनों योगों वाले होते हैं। ज्ञानपरिणाम से नारक तीन ज्ञान वाले होते हैं, जबकि एकेन्द्रियों में ज्ञानपरिणाम नहीं होता, क्योंकि पृथ्वीकायिकादि पंचों में सास्वादनसम्यक्त्व का भी आगमों में निषेध है, इसलिए इनमें ज्ञान का निषेध किया गया है। विकलेन्द्रिय आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी भी होते हैं, क्योंकि कोई-कोई द्वीन्द्रिय जीव करणापर्याप्त-अवस्था में सास्वादनसम्यक्त्वी भी पाए जाते हैं, इसलिए उन्हें ज्ञानद्वयपरिणत कहा है। पंचेन्द्रियतिर्यचों को नारकों की तरह तीन ज्ञान होते हैं। अज्ञानपरिणाम से नारक तीनों अज्ञानों से परिणत होते हैं, जबकि सम्यक्त्व के अभाव Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० ] । प्रज्ञापनासूत्र में एकेन्द्रियों एवं विकलेन्द्रिय जीवों में मतिअज्ञान और श्रुत अज्ञान ये दो अज्ञान होते हैं, विभंगज्ञान नहीं; तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों में तीनों अज्ञान होते हैं। दर्शनपरिणाम से नारकजीव तीनों दृष्टियों से युक्त होते हैं, जबकि एकेन्द्रिय सिर्फ मिथ्यादृष्टि, विकलेन्द्रिय सास्वादनसम्यक्त्व की अपेक्षा से सम्यगदृष्टि और मिथ्यादृष्टि तथा तिर्यचपंचेन्द्रिय तीनों दृष्टियों वाले होते हैं । वेदपरिणाम की दृष्टि से नारकों की तरह एकेन्द्रिय तथा विकेलेन्द्रिय जीव नपुंसकवेदी ही होते हैं, जबकि तिर्यचपंचेन्द्रिय तीनों वेद (स्त्री-पुरूष-नपुंसकवेद) वाले होते हैं। चारित्रपरिणाम से एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों में तो नारकों की तरह चारित्रपरिणाम सर्वथा असम्भव है, तिर्यचपंचेन्द्रियों में देशत: चारित्रपरिणाम सम्भव है। ये परिणाम समुच्चय नारकों आदि की अपेक्षा से कहे गए हैं, यह बात ध्यान में रखनी चाहिए। यही नारकों से इनमें परिणामसम्बन्धी अन्तर है। मनुष्यों की परिणामसम्बन्धी प्ररूपणा ९४३. मणुस्सा गतिपरिणामेणं मणुयगतिया, इंदियपरिणामेणं पंचेंदिया अणिंदिया वि, कसायपरिणामेणं कोहकसाई वि जाव अकसाइ वि, लेस्सापरिणामेणं कण्हलेस्सा वि जाव अलेस्सा वि, जोगपरिणामेणं मणजोगी वि जाव अजोगी वि, उवओगपरिणामेणं जहा णेरइया (सु. ९३८), णाण-परिणामेणं आभिणिबोहियणाणी वि जाव केवलणाणी वि, अण्णाणपरिणामेणं तिणि वि अण्णाणा, दंसणपरिणामेणं तिनि वि दंसणा, चरित्तपरिणामेणं चरित्ती वि अचरित्ती वि चरित्ताचरित्ती वि, वेदपरिणामेणं इत्थिवेयगा वि पुरिसवेयगा वि नपुंसगवेयगा वि अवेयगा वि। [९४३] मनुष्य, गतिपरिणाम से मनुष्यगतिक हैं; इन्द्रियपरिणाम से पंचेन्द्रिय होते हैं, अनिन्द्रिय भी; कषायपरिणाम से क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी, लोभकषायी तथा अकषायी भी होते हैं; योगपरिणाम से मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी तथा अयोगी भी होते हैं; उपयोगपरिणाम से (सू. ९३८ में उल्लिखित) नैरयिकों के (उपयोगपरिणाम के) समान हैं; अज्ञानपरिणाम से (इनमें) तीनों ही अज्ञान वाले होते हैं; दर्शनपरिमाण से (इनमें) तीनों ही दर्शन (सम्यग्दर्शन, मिथ्यादर्शन और सम्यग्मिथ्यादर्शन) होते हैं; चारित्रपरिणाम से (ये) चारित्री भी होते हैं, अचारित्री भी और चारित्राचारित्री (देशचारित्री) भी होते हैं; वेदपरिणाम ये (ये) स्त्रीवेदक, पुरुषवेदक एवं नपुंसकवेदक भी तथा अवेदक भी होते हैं। विवेचन - मनुष्यों की परिणामसम्बन्धी प्ररूपणा - प्रस्तुत सूत्र (९४३) में मनुष्यों (समुच्चय मनुष्यजाति) की गति आदि दसों परिणामों की अपेक्षा से विचारणा की गई है। विशेषता - मनुष्य कई परिणामों से अन्य जीवों से विशिष्ट हैं तथा कई परिणामों से अतीत भी होते हैं, जैसे अनिन्द्रिय, अकषायी, अलेश्यी, अयोगी, केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवेदक आदि। १. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २८७ (ख) पण्णवणासुत्तं भा. १ (मूलपाठा), पृ. २३०-२३१ पण्णवणासुत्तं भा. १ (मूलपाठ), पृ. २३२ २. Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां परिणामपद] [१४१ वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की परिणामसमबन्धी प्ररूपणा ९४४. वाणमंतरा गतिपरिणामेणं देवगइया जहा असुरकुमारा (सु. ९३९ [१])। [९४४] वाणव्यन्तर देव गतिपरिणाम से देवगतिक हैं शेष (समस्त परिणामसम्बन्धी वक्तव्यता) (सू. ९३९-१ में उल्लिखित) असुरकुमारों की तरह (समझना चाहिए।) । ९४५. एवं जोतिसिया वि। णवरं लेस्सापरिणामेणं तेउलेस्सा। [९४५] इसी प्रकार ज्योतिष्कों के समस्त परिणामों के विषय में भी समझना चाहिए। विशेष यह कि लेश्यापरिणाम से (वे सिर्फ) तेजोलेश्या वाले होते हैं। ९४६. वेमाणिया वि एवं चेव ।णवरं लेस्सापरिणामेणं तेउलेस्सा वि पम्हलेस्सा वि सुक्कलेस्सा वि।सेत्तं जीवपरिणामे । [९४६] वैमानिकों की परिणामसम्बन्धी प्ररूपणा भी इसी प्रकार (समझनी चाहिए।) विशेष यह कि लेश्यापरिणाम से वे तेजोलेश्या वाले भी होते हैं, पद्मलेश्या वाले भी और शुक्ललेश्या वाले भी होते हैं। यह जीवप्ररूपणा हुई। विवेचन - वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की परिणामसम्बन्धी प्ररूपण - प्रस्तुत तीन सूत्रों में से सू. ९४४ में वाणव्यन्तर देवों की, सू. ९४५ में ज्योतिष्क देवों की एवं सू. ९४६ में वैमानिक देवों की परिणामसम्बन्धी प्ररूपणा कुछेक बातों को छोड़कर असुरकुमारों के अतिदेशपूर्वक की गई है। ज्योतिष्कों और वैमानिकों के लेश्यापरिणाम में विशेषता - ज्योतिष्कों में सिर्फ तेजोलेश्या ही होती है, जबकि वैमानिकों में तेजोलेश्या, पद्मलेश्या एवं शुक्ललेश्या ये तीन शुभ लेश्याएँ होती हैं; तीन अशुभ लेश्याएँ नहीं होती हैं। अजीवपरिणाम और उसके भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा ९४७. अजीवपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दसविहे पण्णत्ते । तं जहा- बंधणपरिणामे १ गतिपरिणामे २ संठाणपरिणामे ३ भेदपरिणामे ४ वण्णपरिणामे ५ गंधपरिणामे ६ रसपरिणामे ७ फासपरिणामे ८ अगरुयलहुयपरिणामे ९ सद्दपरिणामे १० । । [९४७ प्र.] भगवन् ! अजीवपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति. पत्रांक २८७ (ख) 'पीतान्तलेश्याः ' -तत्त्वार्थ. अ. ४, सू.७ (ख) पीतपद्मशुललेश्याः द्वि-त्रि-शेषेषु । -तत्त्वार्थ. अ. ४, सू. २३ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ] [प्रज्ञापनासूत्र [९४७ उ.] गौतम ! (अजीवपरिणाम) दस प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार - (१) बन्धनपरिणाम, (२) गतिपरिणाम, (३) संस्थानपरिणाम, (४) भेदपरिणाम, (५) वर्णपरिणाम, (६) गन्धपरिणाम, (७) रसपरिणाम, (८) स्पर्शपरिणाम, (९) अगुरुलघुपरिणाम और (१०) शब्दपरिणाम। ९४८. बंधणपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते । तं जहा- निबंधणपरिणामे य लुक्खबंधणपरिणामे य। समणिद्धयाए बंधो ण होति, समलुक्खयाए वि ण होति । वेमायणिद्ध-लुक्खत्तणेण बंधो उ खंधाणं ॥१९९॥ णिद्धस्स णिद्वेण दुयाहिएणं लुक्खस्स लुक्खेण दुयाहिएणं । णिद्धस्स लुक्खेणण उवेइ बंधो जहण्णवज्जो विसमो समो वा ॥२०॥ [९४८ प्र.] भगवन् ! बन्धनपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [९४८ उ.] गौतम ! (बन्धनपरिणाम) दो प्रकार का है, वह इस प्रकार- (१) स्निग्धबन्धनपरिणाम (२) रूक्षबन्धनपरिणाम । [गाथार्थ-] सम (समान-गुण) स्निग्धता होने से बन्ध नहीं होता और न ही सम (समानगुण) रूक्षता होने से भी बन्ध होता है। विमात्रा (विषममात्रा) वाले स्निग्धत्व और रूक्षत्व के होने पर स्कन्धों का बन्ध होता है ॥१९९ ॥ दो गुण अधिक स्निग्ध के साथ स्निग्ध का तथा दो गुण अधिक रूक्ष के साथ रूक्ष का एवं स्निग्ध का रूक्ष के साथ बन्ध होता है; किन्तु जघन्यगुण को छोड़ कर, चाहे वह सम हो अथवा विषम हो ॥२०॥ ९४९. गतिपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते ।तं जहा- फुसमाणगतिपरिणामे ये अफुसमाणगतिपरिणामे य, अहवा दीहगइपरिणामे य हस्सगइपरिणामे य । [९४९ प्र.] भगवन् ! गतिपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [९४९ उ.] गौतम ! (गतिपरिणाम) दो प्रकार का कहा है। वह इस प्रकार- (१) स्पृषद्-गतिपरिणाम और (२) अस्पृशद्गतिपरिणाम, अथवा (१) दीर्घगतिपरिणाम और (२) ह्रस्वगतिपरिणाम। ९५०. संठाणपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते । तं जहा- परिमंडलसंठाणपरिणामे जाव आययसंठाणपरिणामे। [९५० प्र.] भगवन् ! संस्थानपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? . Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां परिणामपद] [१४३ [९५० उ.] गौतम ! (संस्थानपरिणाम) पांच प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार- (१) परिमण्डलसंस्थानपरिणाम, यावत् [(२) वृत्तसंस्थानपरिणाम, (३) त्र्यस्नसंस्थानपरिणाम, (४) चतुरस्त्रसंस्थानपरिणाम और] (५) आयतसंस्थानपरिणाम । ९५१. भेयपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते । तं जहा- खंडाभेदपरिणामे जाव उक्करियाभेदपरिणामे । [९५१ प्र.] भगवन् ! भेदपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [९५१ उ.] गौतम ! (भेदपरिणाम) पांच प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार- (१) खण्डभेदपरिणाम, यावत् [(२) प्रतरभेदपरिणाम, (३) चूर्णिका (चूर्ण) भेदपरिणाम, (४) अनुतटिकाभेदपरिणाम और] (५) उत्कटिका (उत्करिका) भेदपरिणाम । ९५२. वण्णपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते । तं जहा- कालवण्णपरिणामे जाव सुक्किलवण्णपरिणामे। [९५२ प्र.] भगवन् ! वर्णपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [९५२ उ.] गौतम ! (वर्णपरिणाम) पांच प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार- (१) कृष्णवर्णपरिणाम, यावत् [(२) नीलवर्णपरिणाम, (३) रक्तवर्णपरिणाम, (४) पीतवर्णपरिणाम और] (५) शुक्ल (श्वेत) वर्णपरिणाम । ९५३. गंधपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते । तं जहा- सुब्भिगंधपरिणामे य दुब्भिगंधपरिणामे य। [९५३ प्र.] भगवन् ! गंधपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [९५३ उ.] गौतम ! (गन्धपरिणाम) दो प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार - सुगन्धपरिणाम और दुर्गन्धपरिणाम । ९५४. रसपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते । तं जहा - तित्तरसपरिणामे जाव महुररसपरिणामे। [९५४ प्र.] भगवन् ! रसपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [९५४ उ.] गौतम ! (रसपरिणाम) पांच प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार - (१) तिक्तरसपरिणाम, यावत् [(२) कटुरसपरिणाम, (३) कषायरसपरिणाम, (४) अम्ल (खट्टा) रसपरिणाम और] (५) मधुररसपरिणाम । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ] .९५५. फासपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! अट्ठविहे पण्णत्ते । तं जहा - कक्खडफासपरिणामे य जाव लुक्खफासपरिणामे य । [९५५ प्र.] भगवन् ! स्पर्शपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [९५५ उ.] गौतम ! ( स्पर्शपरिणाम) आठ प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार (१) कर्कश (कठोर) स्पर्शपरिणाम, यावत् [(२) मृदुस्पर्शपरिणाम, (३) गुरुस्पर्शपरिणाम, (४) लघुस्पर्श- परिणाम, (५) उष्णस्पर्शपरिणाम, (६) शीतस्पर्शपरिणाम, (७) स्निग्धस्पर्शपरिणाम और ] (८) रूक्षस्पर्शपरिणाम । ९५६. अगरुयलहुयपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! गागारे पण्णत्ते । [९५६ प्र.] भगवन् ! अगुरुलघुपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [९५६ उ.] गौतम ! (अगुरुलघुपरिणाम) एक ही प्रकार का कहा गया I ९५७. सद्दपरिणामे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते । तं जहा - सुब्भिसद्दपरिणामे य दुब्भिसद्दपरिणामे य । से त्तं अजीवपरिणामे । - [ प्रज्ञापनासूत्र - ॥ पण्णवणाए भगवईए तेरसमं परिणामपयं समत्तं ॥ [९५७ प्र.] भगवन् ! शब्दपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [९५७ उ.] गौतम ! ( शब्दपरिणाम) दो प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार सुरभि ( शुभमनोज्ञ) शब्दपरिणाम और दुरभि (अशुभ- अमनोज्ञ) शब्दपरिणाम । यह हुई अजीवपरिणाम की प्ररूपणा ! विवेचन - अजीवपरिणाम तथा उसके भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा प्रस्तुत ग्यारह सूत्रों (सू. ९४७ से ९५७ तक) में से प्रथम सूत्र (९४७) में अजीवपरिणाम के दस भेदों की तथा शेष दस सूत्रों में उन दस भेदों में से प्रत्येक के प्रभेदों की क्रमशः प्ररूपणा की गई है। - T बन्धनपरिणाम की व्याख्या - दो या अधिक पुद्गलों का परस्पर बन्ध (जुड़) जाना, श्लिष्ट हो जाना, एकत्वपरिणाम या पिण्डरूप हो जाना बन्धन या बन्ध है । इसके दो प्रकार हैं- स्निग्धबन्धन - परिणाम और रूक्षबन्धनपरिणाम । स्निग्ध पुद्गल का बन्धनरूप परिणाम स्निग्धबन्धनपरिणाम हे और रूक्ष पुद्गल का बन्धनरूप परिणाम रूक्षबन्धनपरिणाम है । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां परिणामपद ] [ १४५ बन्धनपरिणाम के नियम - स्निग्ध का तथा रूक्ष का बन्धनपरिणाम किस प्रकार एवं किस नियम से होता है ? इसे शास्त्रकार दो गाथाओं द्वारा समझाते हैं - यदि पुद्गलों में परस्पर समस्निग्धता - समगुणस्निग्धता होगी तो उनका बन्ध (बन्धन) नहीं होगा, इसी प्रकार पुद्गलों में परस्पर समरूक्षता - समगुणरूक्षता (समान अंश - गुणवाली रूक्षता) होगी तो भी उनका बन्ध नहीं होगा। तात्पर्य यह है कि समगुणस्निग्ध परमाणु आदि का समगुणनिध परमाणु आदि के साथ सम्बन्ध (बन्ध) नहीं होता; इसी प्रकार समगुणरूक्ष परमाणु आदि के साथ बन्ध नहीं होता; किन्तु स्निग्धत्व और रूक्षत्व की विषममात्रा होती है, तभी स्कन्धों का बन्ध होता है । अर्थात् - स्निग्ध स्कन्ध यदि स्निग्ध के साथ और रूक्ष स्कन्ध यदि रूक्ष स्कन्ध के साथ विषमगुण होते हैं, तब विषममात्रा होने के कारण उनका परस्पर सम्बन्ध (बन्ध) होता है । निष्कर्ष यह है कि बन्ध विषम मात्रा होने पर ही होता है। अतः विषममात्रा का स्पष्टीकरण करने हेतु शास्त्रकार फिर कहते हैं- यदि स्निग्धपरमाणु आदि का, स्निग्धगुण वाले परमाणु आदि के साथ बन्ध हो सकता है तो वह नियम से दो आदि अधिक (द्वयाद्यधिक) गुण वाले परमाणु के साथ ही होता है; इसी प्रकार यदि रूक्षगुण वाले परमाणु आदि का रूक्षगुण वाले परमाणु आदि के साथ बन्ध होता है, तब वह भी इसी नियम से दो, तीन, चार आदि अधिक गुण वाले के साथ ही हो सकता है, अन्यथा नहीं। जब स्निगध और रूक्ष पुद्गलों का परस्पर बन्ध होता है,. तब किस नियम से होता है? इसके लिए शास्त्रकार कहते हैं- स्निग्धपरमाणु आदि का रूक्षपरमाणु आदि के साथ बन्ध जघन्यगुण को छोड़ कर होता है । जघन्य का आशय है- एकगुणस्निग्ध और एक - गुणरूक्ष । इनको छोड़कर, शेष दो गुण वाले (स्निग्ध आदि) का दो गुण वाले रूक्ष आदि के साथ बन्ध होता है, चाहे वे दोनों (स्निग्ध और रूक्ष) सममात्रा में हों या विषममात्रा में हों । गतिपरिणाम की व्याख्या- गमनरूप परिणमन गतिपरिणाम है। वह दो प्रकार का है- स्पृशद्गतिपरिणाम और अस्पृशद्गतिपरिणाम । बीच में आने वाली दूसरी वस्तुओं को स्पर्श करते हुए जो गति होती है, उसे स्पृशद्गति कहते हैं । उस गतिरूप परिणाम को स्पृशद्गतिपरिणाम कहते हैं। उदाहरणार्थ- जल पर प्रयत्नपूर्वक तिरछी फैंकी हुई ठीकरी बीच-बीच में जल का स्पर्श करती हुई गति करती है, यह उस ठीकरी का स्पृशद्गतिपरिणाम है। जो वस्तु बीच में आने वाले किसी भी पदार्थ को स्पर्श न करती हुई गमन करती है, वह उसकी अस्पृशद्गति है । वह अस्पृशदगतिरूप परिणाम अस्पृशद्गतिपरिणाम है। जैसे- सिद्ध (मुक्त) जीव सिद्धशिला की ओर गमन करते हैं, तब उनकी गति अस्पृशद्गति होती है । अथवा प्रकारान्तर से गतिपरिणाम के दो भेद प्रतिपादित करते हैं - दीर्घगतिपरिणाम और ह्रस्वगतिपरिणाम । अतिदूरवर्ती देश की प्राप्ति का कारणभूत जो परिणाम हो, वह दीर्घगति परिणाम है और निकटवर्ती देशान्तर की प्राप्ति का कारणभूत जो परिणाम हो, वह ह्रस्वगतिपरिणाम कहलाता है । १. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति. पत्रांक २८८ - २८९ (ख) 'स्निग्ध- रूक्षत्वाद् बन्धः ' - तत्त्वार्थसूत्र अ. ५, सू. ३२ (ग) 'न जघन्यगुणानाम्' 'गुणसाम्ये सदृशानाम्' ' द्वयधिकादिगुणानां तु' - तत्त्वार्थसूत्र अ. ५, सू. ३३, ३४, ३५. Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ] [प्रज्ञापनासूत्र इनकी व्याख्या पूर्वोक्तवत्- संस्थानपरिणाम,भेदापरिणाम, वर्णपरिणाम, गन्धपरिणाम, रसपरिणाम और स्पर्शपरिणाम की व्याख्या पहले पर्यायपद, भाषापद आदि में की जा चुकी है । ___ अगुरुलघुपरिणाम-'कम्मग-मण-भसाइंएयाइं अगुरुलघुयाई' - अर्थात् कार्मणवर्गणा, मनोवर्गणा एवं भाषावर्गणा, ये अगुरुलघु होते है, इस आगमवचन के अनुसार उपर्युक्त पदार्थों को तथा अमूर्त आकाशादि द्रव्यों को भी अगुरुलघु समझना चाहिए । प्रसंगवश यहाँ गुरुलघुपरिणाम को भी समझ लेना चाहिए । औदारिक, वैक्रिय, आहारक और तैजस गुरुलघु होते हैं। ॥प्रज्ञापनासूत्र : तेरहवाँ परिणामपद समाप्त ॥ १. २. इसके लिए देखिये प्रज्ञापना. का पर्यायपद और भाषापद आदि । 'ओरालिय-वेउब्विय-आहारग-तेय गुरुलहूदव्वा' -प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्र २८९ में उद्धृत । प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २८९. Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + चोद्दसमं कसायपयं चौदहवाँ कषायपद प्राथमिक यह प्रज्ञापनासूत्र का चौदहवाँ पद है । कषाय संसार के वृद्धि करने वाले, पुनर्भव के मूल को सीखने वाले तथा शुद्धस्वभाव युक्त आत्मा को - क्रोधादिविकारों से मलिन करने वाले हैं तथा अष्टविध कर्मो के चय, उपचय, वन्ध, उदीरणा, वेदना आदि के कारणभूत हैं। जीव के आत्मप्रदेशो के साथ सम्बद्ध होने से इनका विचार करना अतीव अवश्यक है। इसी कारण कषायपद की रचना हुई है। इस पद में सर्वप्रथम कषायों के क्रोधादि चार मुख्य प्रकार बताए हैं। तदनन्तर बताया गया है कि ये चारों कषाय चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में पाए जाते हैं। तत्पश्चात् एक महत्त्वपूर्ण चर्चा यह की गई है कि क्रोधादि चारों कषायों के भाजन-अभाजन की दृष्टि से उनके चार आधार हैं-आत्मप्रतिष्ठित, परप्रतिष्ठित, उभयप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित । साथ ही क्रोधादि कषायों की उत्पत्ति के भी चार-चार कारण बताए हैं - क्षेत्र, वास्तु, शरीर और उपधि । संसार के सभी जीवों में कषायोत्पत्ति के ये ही कारण हैं । इसके पश्चात् क्रोधादि कषायों के अनन्तानुबन्धी आदि तथा आभोगनिर्वर्तित आदि चार-चार प्रकार बता कर उनका समस्त संसारी जीवों मे अस्तित्व बताया है । अन्त में जीव द्वारा कृत क्रोधादि कषायों के फल के रूप में आठ कर्मप्रकृतियों के चय, उपचय, बन्ध, उदीरणा, वेदना और निर्जरा, इन ६ को पृथक्-पृथक् बताया है । जैन-आगमों में आत्मा के विभिन्न दोषों-विकारों का वर्णन अनेक प्रकार से किया गया है । उन दोषों का संग्रह भी पृथक्-पृथक् रूप में किया गया है, उनमें से एक संग्रह-प्रकार है - राग, द्वेष और मोह । परन्तु कर्मसिद्धान्त में प्रायः उक्त चार कषाय और मोह के आधार पर ही विचारणा की गई है । इससे पूर्ववद में आत्मा के विविध परिणामों का निरूपण किया गया है, उनमें से कषाय भी आत्मा का एक परिणाम है। इस पद का वर्णन सू.९५८ से लेकर ९७१ तक कुल १४ सूत्रों में है। + + + + (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २८९ (ख) देखिये 'कषायपाहुड' टीकासहित पण्णवणासुत्तं भा. १, पृ. २३४ से २३६ तक (क) पण्णवणासुत्तं भा. २, कषायपद की प्रस्तावना, पृ. ९७ (ख) गणधरवाद (प्रस्तावना) पृ. १०० (ग) कषायपाहुड टीकासहित Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोद्दसमं कसायपयं चौदहवाँ कषायपद कषाय और उसके चार प्रकार ९५८. कति णं भंते ! कसाया पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि कसाया पण्णत्ता । तं जहा - कोहकसाए १ माणकसाए २ मायाकसाए ३ लोहकसाए ४ । [९५८ प्र.] भगवन् ! कषाय कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [९५८ उ.] गौतम ! (वे) चार प्रकार के कहे गए हैं । वे इस प्रकार - (१) क्रोधकषाय, (२) मानकषाय, (३) मायाकषाय और (४) लोभकषाय । विवेचन - कषाय और उसके चार प्रकार - प्रस्तुत सूत्र में कषाय के क्रोधादि चार प्रकारों का उल्लेख किया गया है। कषाय की व्याख्या - कषाय शब्द के तीन व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ मिलते हैं-(१) कष अर्थात् संसार, उसका आय-लाभ जिससे हो, वह कषाय है । (२) 'कृष' धातु विलेखन अर्थ में है, उससे भी कृष को कष आदेश हो कर 'आय' प्रत्यय लगने से कषाय शब्द बनता है । जिसका अर्थ होता है-जो कर्मरूपी क्षेत्र (खेत) को सुख-दुःखरूपी धान्य की उपज के लिए विलेखन (कर्षण) करते हैं-जोतते हैं, वे कषाय हैं । (३) 'कलुष' धातु को 'कष' आदेश हो कर भी कषाय शब्द बनता है । जिसका अर्थ होता है-जो स्वभावतः शुद्ध जीव को कलुषित-कर्ममलिन करते हैं, वे कषाय हैं। १. (क) आचारांग शीलांक. वृत्ति, (ख) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक २८९ (ग) 'कषः संसारः, तस्य आयः लाभ:-कषायः ।' (घ) 'कृषन्ति विलिखन्ति कर्मरूपं क्षेत्रं सुखदुःखशस्योत्पादनायेति कषायाः ।' 'कलुषयन्ति शुद्धस्वभावं सन्तं कर्ममलिनं कुर्वन्ति जीवमिति कषायाः ।' (ङ) 'सुहदुक्खबहुस्सइयं कम्मखेत्तं कसंति ते जम्हा । कलुसंति जंच जीवं तेण कसायत्ति वुच्चंति ॥' Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवाँ कषायपद] [ १४९ कषाय से ही कर्मों का आदान - तत्त्वार्थसूत्र में बताया है- 'सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते'-कषाययुक्त होकर जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है । दशवैकालिक सूत्र में भी कहा है - ये चारों कषाय पुनर्भव के मूल का सिंचन करते हैं।' चौवीस दण्डकों में कषाय की प्ररूपणा ९५९. णेरइयाणं भंते ! कति कसाया पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि कसाया पण्णत्ता । तं जहा - कोहकसाए जाव लोभकसाए । एवं जाव वेमाणियाणं । [९५९ प्र.] भगवान् ! नैरयिक जीवों में कितने कषाय होते हैं ? [९५९ उ.] गौतम ! उनमें चार कषाय होते हैं । वे इस प्रकार हैं - क्रोघकषाय से (लेकर) लोभकषाय तक । इसी प्रकार वैमानिक तक (चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में चारों कषाय पाए जाते हैं ।) विवेचन - चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में कषायों की प्ररूपणा - प्रस्तुत सूत्र (९५९) में नैरयिकों वे वैमानिकों तक समस्त संसारी जीवों में इन चारों कषायों का सद्भाव बताया है । कषायों के प्रतिष्ठान की प्ररूपणा ९६० [१] कतिपतिट्ठिए णं भंते ! कोहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउपतिट्ठिए कोहे पण्णत्ते । तं जहा-आयपतिट्ठिए १ परपतिट्ठिए २ तदुभयपतिट्ठिए ३ अप्पतिट्ठिए ४ । [९६०-१ प्र.] भगवन् ! क्रोध कितनों पर प्रतिष्ठित (आश्रित है ?) (अर्थात्-किस-किस आधार पर रहा हुआ है ?) [९६०-१ उ.] गौतम ! क्रोध को चार (निमित्तों) पर प्रतिष्ठित (आधारित) कहा है । वह इस प्रकार-(१) आत्मप्रतिष्ठित, (२) परप्रतिष्ठित, (३) उभय-प्रतिष्ठित और (४)अप्रतिष्ठित । [२] एवं णेरइयादीणं जाव वेमाणियाणं दंडओ । [९६०-२] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक (चौवीस दण्डकवर्ती जीवों ) के विषय में दण्डक (आलापक कहना चाहिए ।) [३] एवं माणेणं दंडओ, मायाए दंडओ, लोभेणं दंडओ । । १. (क) तत्त्वार्थसूत्र अ. ९, सू. २ (ख) 'चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स ।' - दशवैकालिकसूत्र अ.९ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ] [प्रज्ञापनासूत्र [९६०-३] क्रोध की तरह मान की अपेक्षा से, माया की अपेक्षा से और लोभ की अपेक्षा से भी (प्रत्येक का) एक-एक दण्डक (आलापक कहना चाहिए ।) । विवेचन - क्रोधादि चारों कषायों के प्रतिष्ठान-आधार की प्ररूपणा -प्रस्तुत सूत्र (९६०१,२,३) में क्रोध, मान, माया, और लोभ इन चारों कषायों को चार-चार स्थानों पर प्रतिष्ठित-आधारित बताया गया है। चतुष्प्रतिष्ठित क्रोधादि-(१)आत्मप्रतिष्ठित क्रोधादि-अपने आप पर ही आधारित होते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि स्वयं आचरित किसी कर्म के फलस्वरूप जब कोई जीव अपना इहलौकिक अनिष्ट (अपाय-हानि) देखता है, तब वह अपने पर क्रोध, मान, माया या लोभ करता है, वह आत्मप्रतिष्ठित क्रोधादि है । यह क्रोध आदि अपने ही प्रति किया जाता है। (२) परप्रतिष्ठित क्रोधादि -जब किसी अन्य व्यक्ति या जीव-अजीव को अपने अनिष्ट में निमित्त मानकर जीव क्रोध आदि करता है, अथवा जब दूसरा कोई व्यक्ति आक्रोशदि करके क्रोध आदि उत्पन्न करता है, भड़काता है, तब उसके प्रति जो क्रोधादि उत्पन्न होता है, वह परप्रतिष्ठित क्रोधादि है। (३)उभयप्रतिष्ठित क्रोधादि-कई बार जीव अपने पर भी क्रोधादि करता है और दूसरों पर भी करता है, जैसे-अपने और दूसरे के द्वारा किए गए अपराध के कारण जब कोई व्यक्ति स्वपरविषयक क्रोधादि करता है, तब वह क्रोधादि उभयप्रतिष्ठित होता है। (४) अप्रतिष्ठित क्रोधादि- जब कोई क्रोध आदि दुराचरण, आक्रोश आदि निमित्त कारणों के बिना, निराधार हो केवल क्रोध आदि (वेदनीय) मोहनीय के उदय से उत्पन्न हो जाता है, तब क्रोधादि अप्रतिष्ठित होता है। ऐसा क्रोधादि न तो आत्मप्रतिष्ठित होता है, क्योंकि स्वयं के दुराचरणदि के कारण उत्पन्न नहीं होता और न वह परप्रतिष्ठित होता है, क्योंकि दूसरे का प्रतिकूल आचरण, व्यवहार या अपराध न होने से उस क्रोधादि का कारण 'पर' भी नहीं होता, न यह क्रोधादि उभयप्रतिष्ठित होता है, क्योंकि इसमें दोनों प्रकार के निमित्त नहीं होते। अतः यह क्रोधादि मोहनीय (वेदनीय) के उदय से बाह्य कारण के बिना ही उत्पन्न होने वाला क्रोधादि है। ऐसा व्यक्ति बाद में कहता हैओहो! मैंने अकारण ही क्रोधादि किया ; न तो कोई मेरे प्रतिकूल बोलता है, न ही मेरा कोई विनाश करता कषायों की उत्पत्ति के चार-चार कारण ९६१.[१] कतिहि णं भंते ! ठाणेहिं कोहुप्पत्ती भवति ? गोयमा ! चउहिं ठाणेहिं कोहुप्पत्ती भवति ।तं जहा-खेत्तं पडुच्च १ वत्थु पडुच्च २ सरीरं पडुच्च ३ उवहिं पडुच्च ४। [९६९-१ प्र.] भगवन् ! कितने स्थानों (कारणों ) से क्रोध की उत्पत्ति होती है ? १. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक २९० Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवाँ कषायपद] [१५१ [९६९-१ उ.] गौतम ! चार स्थानों (कारणों ) से क्रोध की उत्पत्ति होती है, वे इस प्रकार - (१) क्षेत्र (खेत या खुली जमीन) को लेकर, (२) वास्तु (मकान आदि) को लेकर, (३) शरीर के निमित्त से और (४) उपधि (उपकरणों-साधनसामग्री) के निमित्त से । [२] एवं णेरइयादीणं जाव वेमाणियाणं । [९६९-२] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक (क्रोधोत्पत्ति के विषय में प्ररूपणा करनी चाहिए ।) . [३] एवं माणेण वि मायाए वि लोभेण वि । एवं एते वि चत्तारि दंडगा । [९६९-३] क्रोधोत्पत्ति के विषय में जैसा कहा हैं, उसी प्रकार मान, माया और लोभ की उत्पत्ति के विषय में भी उपर्युक्त चार कारण कहने चाहिए । इस प्रकार ये चार दण्डक (आलापक) होते हैं। विवेचन - क्रोधादि कषायों की उत्पत्ति के चार-चार कारण - प्रस्तुत सूत्र (९३१-१,२,३) में क्रोधादि कषायों की उत्पत्ति के क्षेत्र, वास्तु, शरीर और उपधि, ये चार-चार कारण प्रस्तुत किये गए हैं । क्षेत्र, वास्तु, शरीर और उपधि, क्रोधादि की उत्पत्ति के कारण क्यों ? - क्षेत्र का अर्थ खेत या जमीन होता है, परन्तु नारकों के लिए नैरयिक क्षेत्र, तिर्यञ्चों के लिए तिर्थक्षेत्र, मनुष्य के लिए मनुष्यक्षेत्र के निमित्त एवं देवों के लिए देवक्षेत्र के निमित्त से क्रोधादि कषायोत्पत्ति समझनी चाहिए। वत्थु' के दो अर्थ होते है-वास्तु और वस्तु । वास्तु का अर्थ मकान, इमारत, बंगला, कोठी, महल आदि और वस्तु का अर्थ हैसजीव, निर्जीव पदार्थ । महल, मकान आदि को लेकर भी क्रोधादि उमड़ते हैं। सजीव वस्तु में माता, पिता, स्त्री, पुत्र या मनुष्य तथा किसी अन्य प्राणी को लेकर क्रोध, संघर्ष, अभिमान आदि उत्पन्न होते हैं। निर्जीव वस्तु पलंग, सोना, चांदी, रत्न, माणक, मोती, वस्त्र, आभूषण आदि को लेकर क्रोधादि उत्पन्न होते हैं। दुःस्थित या विरूप या सचेतन-अचेतन शरीर को लेकर भी क्रोधादि उत्पन्न होते हैं । अव्यवस्थित एवं बिगड़े हुए उपकरणादि को लेकर अथवा चौरादि के द्वारा अपहरण किये जाने पर क्रोधादि उत्पन्न होता है । जमीन, मकान, शरीर, और अन्य साधनों को जब किसी कारण से हानि या क्षति पहुँचती है तो क्रोधादि उत्पन्न होते हैं । यहाँ 'उपधि' में जमीन, मकान, तथा शरीर के सिवाय शेष सभी वस्तुओं का समावेश समझ लेना चाहिए। कषायों के भेद-प्रमेद ९६२.[१] कतिविहे णं भंते ! कोहे पण्णत्ते? १. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २९०-२९१ (ख) प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका भा. ३, पृ. ५५९ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ] [प्रज्ञापनासूत्र गोयमा ! चउबिहे कोहे पण्णत्ते । तं जहा- अणंताणुबंधी कोहे १ अप्पच्चक्खाणे कोहे २ पच्चक्खाणावरणे कोहे ३ संजलणे कोहे ४ । [९६२-१ प्र.] भगवन् ! क्रोध कितने प्रकार का कहा गया है ? [९६२-१ उ.] गौतम! क्रोध चार प्रकार का कहा है, वह इस प्रकार-(१) अनन्तानुबन्धी कोध, (२) अप्रत्याख्यान क्रोध, (३) प्रत्याख्यानावरण क्रोध और (४) संज्वलन क्रोध । [२] एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं । [९६२-२] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक (चौवीस दण्डकवर्ती जीवों) में (क्रोध के इन चारों प्रकारों की प्ररूपणा समझनी चाहिए ।) [३] एवं माणेणं मायाए लोभेणं । एए वि चत्तारि दंडया। [९६२-३] इसी प्रकार मान की अपेक्षा से, माया की अपेक्षा से और लोभ की अपेक्षा से, (इन चारचार भेदों का तथा नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक में इनके पाए जाने का कथन करना चाहिए।) ये भी चार दण्डक होते हैं। ९६३.[१] कतिविहे णं भंते ! कोहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउविहे कोहे पण्णत्ते । तं जहा - आभोगणिव्वत्तिए अणाभोगणिव्वत्तिए उवसंते अणुवसंते। [९६३-१ प्र.] भगवन ! क्रोध कितने प्रकार का कहा गया है ? [९६३-१ उ.] गौतम! क्रोध चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार - (१) आभोगनिर्वर्तित, (२) अनाभोगनिर्वर्तित, (३) उपशान्त और (४) अनुपशान्त। [२] एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं । [९६३-२] इसी प्रकार नारकों से लेकर वैमानिकों वक में चार प्रकार के क्रोध का कथन करना चाहिए। [३] एवं माणेण वि मायाए वि लोभेण वि चत्तारि दंडया । [९६३-३] क्रोध के समान ही मान के, माया के और लोभ के (आभोगनिर्वर्तित आदि) चार-चार भेद होते हैं तथा (नारकों से लेकर वैमानिकों तक में) नाम, माया और लोभ के भी ये ही चार-चार भेद (दण्डक) समझने चाहिए । विवेचना - क्रोध आदि कषायों के द-प्रभेदों की प्ररूपणा - प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. ९६२,९६३) Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवाँ कषायपद] [ १५३ में क्रोध आदि काषायों के अनन्तानुबन्धी आदि चार भेद करके समस्त संसारी जीवों में उनके पाए जाने का निरूपण किया गया है तथा क्रोध आदि कषायों के प्रकारान्तर से आभोगनिर्वर्तित आदि चार प्रभेदों और समस्त संसारी जीवों में उनके सद्भाव की प्ररूपणा की गई है । ____ अनन्तानुबन्धी आदि चारों की परिभाषा - इन चारों कषायों के शब्दार्थो का विचार कर्म-प्रकृतिपद में किया जाएगा । यहाँ चारों की परिभाषा दी जाती है - अनन्तानुबन्धी - सम्यक्त्व गुणविघातक, अप्रत्याख्यानदेशविरतिगुणविघाती, प्रत्याख्यानावरण-सर्वविरतिगुणवघाति और संज्वलन-यथाख्यातचारित्रविघातक । आभोगनिर्वर्तित आदि चारों प्रकार के क्रोधादि की व्याख्या - आभोगनिर्वर्तित ( उपयोगपूर्वक उप्पन्न हुआ) क्रोध - जब दूसरे के अपराध को जानकर और क्रोध के पुष्ट कारण का अवलम्बन लेकर तथा प्रकारान्तर से इसे शिक्षा नहीं मिल सकती, इस प्रकार का उपयोग (विचार) करके कोई क्रोध करता है, तब वह क्रोध आभोगनिर्वर्तित (विचारपूर्वक उत्पन्न) कहलाता है। अनाभोगनिर्वर्तित क्रोध-(बिना उपयोग उत्पन्न हुआ)-जब यों ही साधारणरूप से मोहवश गुण-दोष की विचारणा से शून्य पराधीन बना हुआ जीव क्रोध करता है, तब वह क्रोध अनाभोगनिर्वर्तित कहलाता है । उपशान्त क्रोध- जो क्रोध उदयावस्था को प्राप्त न हो, वह 'उपशान्त' कहलाता है । अनुपशान्त क्रोध-जो क्रोध उदयावस्था को प्राप्त हो, वह 'अनुपशान्त' कहलाता है । कषायों से अष्ट कर्मप्रकृतियों के चयादि की प्ररूपणा ९६४.[१] जीवा णं भंते ! कतिहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिंसु ? गौयमा ! चउहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिंसु । तं जहा - कोहेणं १ माणेणं २ मायाए ३. लोभेणं ४ । [९६४-१ प्र.] भगवन् ! जीवों ने कितने कारणों (स्थानों)से आठ कर्मप्रकृतियों का चय किया ? [९६४-१ उ.] गौतम! चार कारणों से जीवों ने आठ कर्मप्रकृतियो का चय किया, वे इस प्रकार है१. क्रोध से, २. मान से, ३. माया से और ४. लोभ से । [२] एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं । [९६४-२] इसी प्रकार की प्ररूपणा नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक के विषय में समझनी चाहिए। ९६५.[१] जीवा णं भंते ! कतिहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणंति ? गौयमा ! चउहि ठाणेहिं । तं जहा - कोहेणं १ माणेणं २ मायाए ३ लोभेणं ४ । १. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक २९१ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] [प्रज्ञापनासूत्र [९६५-१ प्र.] भगवन् ! जीव कितने कारणों से आठ कर्मप्रकृतियों का चय करते हैं ? [९६५-१ उ.] गौतम ! चार कारणों से जीव कर्मप्रकृतियों का चय करते हैं, वे इस प्रकार हैं - (१) क्रोध से, (२) मान से, (३) माया से और (४) लोभ से । [२] एवं णेरइया जाव वेमाणिया । [९६५-२] इसी प्रकार नारकों से लेकर वैमानिकों तक के (विषय में प्ररूपणा करनी चाहिए ।) ९६६.[१] जीवा णं भंते ! कइहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिस्संति ? गौयमा ! चउहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिस्संति । तं जहा - कोहेणं १ माणेणं २ मायाए ३ लोभेणं ४ । [९६६-१ प्र.] भगवन् ! जीव कितने कारणों से आठ कर्मप्रकृतियों का चय करेगें? [९६६-१ उ.] गौतम ! चार कारणों से जीव आठ कर्मप्रकृतियों का चय करेंगे, वे इस प्रकार हैं - (१) क्रोध से, (२) मान से, (३) माया से और (४) लोभ से । [२] एवं णेरइया जाव वेमाणिया। [९६६-२] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक के (विषय में प्ररूपणा करनी चाहिए।) ९६७.[१] जीवा णं भंते ! कइहिं अट्ठ कम्मपगडीओ उवचिणिंसु । गोयमा ! चउहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ उचचिणिंसु । तं जहा - कोहेणं १ माणेणं २ मायाए ३ लोभेणं ४ । __ [९६७-१ प्र.] भगवन् ! जीवों ने कितने कारणों से आठ कर्मप्रकृतियों का उपचय किया है ? [९६७-१ उ.] गौतम! जीवों ने चार कारणों से आठ कर्मप्रकृतियों का उपचय किया है, वे इस प्रकार हैं-(१) क्रोध से, (२) मान से, (३) माया से और (४) लोभ से । [२] एवं णेरड्या जाव वेमाणिया । [९६७-२] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर यावत् वैमानिकों तक के (विषय में समझना चाहिए। ९६८.[२] जीवा णं भंते ! पुच्छा। गौयमा ! चउहिं ठाणेहिं उवचिणंति-कोहेणं १ जाव लोभेणं ४ । [९६८-१ प्र.] भगवन् ! जीव कितने कारणों से आठ कर्मप्रकृतियों का उपचय करते हैं ? [९६८-१ उ.] गौतम! चार कारणों से आठ कर्मप्रकृतियों का उपचय करते हैं, वे इस प्रकार हैं - Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवाँ कषायपद] [१५५ (१) क्रोध से, (२) मान से, (३) माया से और (४) लोभ से । [२] एवं णेरइया जाव वेमाणिया । [९६८-२] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर यावत् वैमानिकों तक (के विषय में कहना चाहिए।) ९६९. एवं उवचिणिस्संति । [९६९] इसी प्रकार (पूर्वोक्त चार कारणों से जीव आठ कर्मप्रकृतियों का) उपचय करेंगे, (यह कहना चाहिए ।) ९७०. जीवा णं भंते ! कइहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ बंधिसु ३? गोयमा ! चउहिं ठाणेहिं । तं जहा-कोहेणं १ जाव लोभेणं ४ । [९७० प्र.] भगवन् ! जीवों ने कितने कारणों से आठ कर्मप्रकृतियों को बांधा है ?, बांधते हैं, बांधेगें? [९७० उ.] गौतम! चार कारणों से जीवों ने आठ कर्मप्रकृतियों को बांधा है, बांधते है और बांधेगें, वे इस प्रकार हैं - क्रोध से यावत् लोभ से । ९७१. एवं णेरइया जाव वेमाणिया बंधेसु बंधंति बंधिस्संति, उदीरेंसु उदीरंति उदीरिस्संति, वेइंसु वेएंति वेइस्संति, निज्जरेंसु निजरिति णिज्जरिस्संति। एवं एते जीवाईया वेमाणियपज्जवसाणा अट्ठारस दंडगा जाव वेमाणिया णिज्जरिसु णिज्जति णिज्जरिस्संति । आयपइट्ठिय खेत्तं पडुच्चऽणताणुबंधि आभोगे । चिण उवचिण बंध उईर वेय तह निजरा चेव ॥२०१॥ ॥पण्ण्वणाए भगवतीए चोद्दसमं कसायपयं समत्तं ॥ [९७१] इसी प्रकार नैयिकों से वैमानिकों तक के (जीवों ने) (पूर्वोक्त चार कारणों से आठ कर्मप्रकृतियों को) बांधा, बांधते हैं और बांधेगें ; उदीरणा की, उदीरणा करते हैं और उदीरणा करेंगे तथा वेदन किया (भोगा), वेदन करते (भोगते) हैं और वेदन करेंगे (भोगेंगे), (इसी प्रकार) निर्जरा की, निर्जरा करते हैं और निर्जरा करेंगे । इस प्रकार समुच्चय जीवों तथा नैरयिकों से लेकर वैमानिकों पर्यन्त आठ कर्मप्रकृतियों के चय, उपचय, बन्ध, उदीरणा, वेदन एवं निर्जरा की अपेक्षा से छह, तीनों (भूत,वर्तमान एवं भविष्य) काल के तीन-तीन भेद के कुल अठारह दण्डक (आलापक) वैमानिकों ने निर्जरा की, निर्जरा करते हैं तथा निर्जरा करेंगे, (तक कहने चाहिए ।) [संग्रहणी गाथार्थ-] (प्रस्तुत प्रकरण में) आत्मप्रतिष्ठित क्षेत्र की अपेक्षा से, अनन्तानुबन्धी (आदि Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ] [प्रज्ञापनासूत्र कषाय), आभोग (निर्वर्तित आदि-कषाय), अष्ट कर्मप्रकृतियों के चय, उपचय, बन्ध, उदीरणा, वेदना तथा निर्जरा (का कथन किया गया है ।) विवेचन - जीवों के द्वारा अष्टविध कर्मप्रकृतियों के चयादि के कारणभूत चार कषायों का निरूपण - प्रस्तुत आठ सूत्रों में (सू. ९६४ से ९७१ तक) में समुच्चय जीवों तथा चौवीस दण्डकवर्ती जीवों द्वारा आठ प्रकृतियों के त्रैकालिक चय, उपचय, बन्ध, उदीरणा, वेदना और निर्जरा के कारणभूत चारों कषायों की पृथक्-पृथक् प्ररूपणा की गई है। निष्कर्ष - भूत, वर्तमान, और भविष्य इन तीनों कालों में समुच्चय जीव तथा नारकों से लेकर वैमानिकों तक चौवीस दण्डकों के जीवों द्वारा क्रोध, मान, माया और लोभ के कारण आठ कर्मप्रकृतियों का चय उपचय, बन्ध, उदीरणा, वेदना और निर्जरा की गई है, की जाती है और की जाएगी । चय, उपचय, आदि शब्दों की शास्त्रीय परिभाषा - चय - कषायपरिणत होकर जीव द्वारा कर्मयोग्य पुद्गलों का उपादान (ग्रहण) करना । उपचय - अपने अबाधाकाल के उपरान्त ज्ञानावरणीय आदि कर्म-पुद्गलों के वेदन (भोगने ) के निषेक (कर्म-पुद्गलों की रचना) करना। निषेक रचना को कहते हैं । उसका क्रम इस प्रकार है-प्रथम स्थिति में सबसे अधिक द्रव्य, दूसरी स्थिति में विशेषहीन, तीसरी स्थिति में उसकी अपेक्षा भी विशेषहीन, इस प्रकार उत्तरोत्तर विशेषहीन-विशेषहीन कर्मपुद्गल वेदन के लिए स्थपित किए जाते हैं। बन्ध - जिन ज्ञानावरणीयादि कर्मपुद्गलों को यथोक्तप्रकार से निषक्त किया है, उनका विशिष्ट कषायपरिणति से निकाचन होना बन्ध कहलाता है। उदीरणा - कर्म अभी उदय में नही आए हैं,. उन्हे उदीरणीकरण के द्वारा जो उदयावलिका में ले आना। वेदना - आबाधाकाल समाप्त होने पर उदयप्राप्त या उदीरित करके-उदीरणा करके कर्म का उपयोग करना (भोग लेना) वेदना कहलाता है। निर्जराकपुद्गलों का वेदन (भोग) के पश्चात् अकर्मरूप में हो जाना अर्थात् आत्मप्रदेशों से झड़ जाना। प्रस्तुत प्रकरण में देशनिर्जरा का कथन किया गया है । सर्वनिर्जरा तो कषाय से रहित होकर योगों का सर्वथा निरोध करके मोक्षप्रासाद पर आरूढ होने वाले को होती है। देशनिर्जरा सभी जीव सदैव करते रहते हैं।' ॥प्रज्ञापनासूत्रः चौदहवाँ कषायपद समाप्त ॥ १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २९२ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ००० पनरसमं इंदियपयं : पढमो उद्देसओ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक प्राथमिक * यह प्रज्ञापनासूत्र का पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद है। • इन्द्रियां आत्मा को पहचानने के लिए लिंग हैं, इन्हीं से आत्मा के अस्तित्व की प्रतीति होती है। + इस पद में इन्द्रियों के सम्बन्ध में सभी पहलुओं से विश्लेषण किया गया है। इसके दो उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में प्रारम्भ में निरूपणीय २४ द्वारों का कथन है। द्वितीय उद्देशक में १२ द्वारों के माध्यम से इन्द्रियों की प्ररूपणा की गई है। प्रथम उद्देशक में संस्थान से लेकर अल्पबहुत्व तक ६ द्वारों की चर्चा करके उनका २४ दण्डकों की अपेक्षा से विचार किया है। सातवें स्पृष्टद्वार से नौवें विषय द्वार तक का विवरण है। इन में चौवीस दण्डकों की अपेक्षा से विचार नहीं किया गया है, अपितु इन्द्रियों से सम्बन्धित विचार है। इसके अनन्तर अनगार और आहार को लेकर इन्द्रियों का - विशेषतः चक्षुरिन्द्रिय की चर्चा है। तत्पश्चात् बारहवें से अठारहवें द्वार तक आदर्श से लेकर वसा तक ७ द्वारों के माध्यम से विशेषतः चक्षुरिन्द्रिय सम्बन्धी और फिर कम्बल, स्थूणा (स्तम्भ), थिग्गल, द्वीपोदधि, लोक और अलोक तक के ६ द्वारों के माध्यम से विशेषतः स्पर्शेन्द्रिय सम्बन्धी प्ररूपणा की गई है। द्वितीय उद्देशक में इन्द्रियों का उपचय, निर्वर्तना, समय, लब्धि, उपयोगकाल, अल्पबहुत्व, अवग्रहण, ईहा, अवाय, व्यंजनावग्रह, द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय इन १२ द्वारों के माध्यम से इन्द्रिय सम्बन्धी स्वरूप एवं प्रकारों की प्ररूपणा करके उसका २४ दण्डकों की अपेक्षा से विचार किया गया है। उपचय निर्वर्तना, लब्धि और उपयोग इन चारों का तत्त्वार्थसूत्र में क्रमशः प्रारम्भ की दो का द्रव्येन्द्रिय में तथा अन्तिम दो का भावेन्द्रिय में समावेश किया है। आदर्शद्वार आदि का आशय आचार्य मलयगिरि ने दृश्यविषयक माना है। दृश्य चाहे जो हो, जिस विषय का उपयोग या विकल्प आत्मा को होता है, उसे ही दृश्य माना जाए तो प्रतिविम्ब देखते समय भान, उपयोग या विकल्प तो आदर्श आदि-गत प्रतिविम्ब विषयक ही है। निशीथभाष्य आदि में इसकी रोचक चर्चा है। + द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय द्वार में २४ दण्डकवर्ती जीवों की अतीत, बद्व (वर्तमान) और अनागत (पुरस्कृत) उभय इन्द्रियों की विस्तृत चर्चा की गई है। १. 'निवृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्, लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम्' - तत्त्वार्थ. अ. २, सू. १९-१८ २. (क) पण्णवणासुत्तं प्रथम भाग, पृ. २३७ से २६० तक (ख) पण्णवणासुत्तं द्वितीय भाग प्रस्तावना, पृ. ९७ से १०० तक (ग) निशीथभाष्य गा. ४३१८ आदि (घ) तत्त्वार्थ. सिद्धसेनीया टीका, पृ.३६४ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनरसमं इंदियपयं : पढमो उद्देसओ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक प्रथम उद्देशक में प्ररूपित चौवीस द्वार ९७२. संठाण १ बाहल्लं २ पोहत्तं ३ कतिपएस ४ ओगाढे ५ । अप्पाबहु ६ पुट्ट ७ पविट्ठ ८ विसय ९ अणगार १० आहारे ११ ॥ २०२॥ अद्दाय १२ असी १३ य मणी १४ उडुपाणे १५ तेल्ल १६ फाणिय १७ वसा १८ य । कंबल १९ थूणा २० थिग्गल २१ दीवोदहि' २२ लोग लोगे २३ - २४ य ॥२०३॥ [९७२ प्रथम उद्देशक की अर्थाधिकार गाथाओं का अर्थ - ] १. संस्थान, २. बाहल्य (स्थूलता), ३. पृथुत्व (विस्तार), ४. कति- प्रदेश (कितने प्रदेश वाली) ५. अवगाढ़, ६. अल्पबहुत्व, ७. स्पृष्ट, ८. प्रविष्ट, ९. विषय, १०. अनगार, ११. आहार, १२. आदर्श (दर्पण), १३. असि (तलवार), १४. कम्बल, २०. स्थूणा ( स्तूप या ठूंठ), २१. थिग्गल (आकाश थिग्गल - पैबन्द), २२. द्वीप और उदधि, २३. लोक और २४. अलोकः इन चौवीस द्वारों के माध्यम से इन्द्रिय-सम्बन्धी प्ररूपणा की जाएगी ॥ २०२ - २०३ ॥ विवेचन - प्रथम उद्देशक में प्ररूपित चौवीस द्वार - प्रस्तुत दो गाथाओं के द्वारा प्रथम उद्देशक में प्ररूपित इन्द्रिय-सम्बन्धी चौवीस द्वारों का नामोल्लेख किया गया है। चौवीस द्वारों का स्पष्टीकरण - (१) संस्थानद्वार - इसमें इन्द्रियों के संस्थान आकार की प्ररूपणा है, ( २ ) बाहल्यद्वार - इसमें इन्द्रियों की स्थूलता (बहलता) यानी पिण्ड-रूपता का वर्णन है, (३) पृथुत्वद्वार- इसमें इन्द्रिय के विस्तार का निरूपण है, (४) कति प्रदेशद्वार - इसमें बताया गया हैं कि किस इन्द्रिय के कितने प्रदेश हैं, (५) अवगाढद्वार - इसमें यह वर्णन है कि कौन-सी इन्द्रिय कितने प्रदेशों में अवगाढ है। ( ६ ) अल्पबहुत्वद्वार - इसमें अवगाहनासम्बन्धी और कर्कशता सम्बन्धी अल्पबहुत्व का प्रतिपादन है, (७) स्पृष्टद्वार- इसमें स्पृष्ट- अस्पृष्ट विषयक प्ररूपणा है, (८) प्रविष्टद्वार- इसमें प्रविष्ट -' - १. अनेक प्रतियों में इसके बदले पाठान्तर है- दुद्धपाणे- जिसमें दुग्ध और पान ये दो द्वार पृथक् पृथक् कर दिये गए हैं । किन्तु . निशीथसूत्र (उ. १३) के पाठ के अनुसार 'उडुपाणे' पाठ ही प्रामाणिक होता है । २. कोई-कोई आचार्य द्वरीप और उदधि, यों दो द्वार मानते हैं । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक ] [१५९ अप्रविष्ट सम्बन्धी चर्चा है, (९)विषयद्वार - इसमें विषयों के परिमाण का वर्णन है, (१०) अनगारद्वार - इसमें अनगार से सम्बन्धित सूत्र हैं,(११) आहारद्वार - इसमें आहारविषयक सूत्र हैं, (१२) आदर्शद्वार - इसमें दर्पणविषयक निरूपण है, (१३) असिद्वार - इसमें असि-सम्बन्धित प्ररूपणा है, (१४) मणिद्वार - मणिविषयक वक्तव्य,(१५) उदपानद्वार - उदकपान अथवा उडुपानविषयक प्ररूपणा (अथवा दुग्ध और पानविषयक प्ररूपणा), (१६) तैलद्वार - इसमें तैलविषयक वक्तव्य है, (१७) फाणितद्वार - इसमें फाणित (गुड़राब) के विषय में प्ररूपणा है, (१८) वसाद्वार - इसमें वसा (चर्बी) के विषय मे वर्णन है, (१९) कम्बलद्वार - इसमें कम्बलविषयक निरूपण है, (२०) स्थूणाद्वार - इसमें स्थूणा (स्तूप या ढूंठ) से सम्बन्धित निरूपण है,(२१)थिग्गलद्वार - इसमें आकाशथिग्गल विषयक वर्णन है, (२२)द्वीपोदधिद्वारइसमें द्वीप और समुद्र विषयक प्ररूपणा है, (२३) लोकद्वार - लोकविषयक वक्तव्य, और (२४)अलोकद्वारअलोक सम्बन्धी प्ररूपणा है। इन्द्रियों की संख्या ९७३. कति णं भंते ! इंदिया पण्णत्ता ? ‘गोयमा ! पंचइंदिया पण्णत्ता। तं जहा - सोइंदिए १ चक्खिदिए २ घाणिदिए ३ जिभिदिए ४ फासिंदिए ५ । [९७३ प्र.] भगवन् ! इन्द्रियाँ कितनी कही गई हैं ? [९७३ उ.] गौतम ! पांच इन्द्रियाँ कही हैं। वे इस प्रकार - (१) श्रोत्रेन्द्रिय, (२) चक्षुरिन्द्रिय, (३) घ्राणेन्द्रिय, (४) जिह्वेन्द्रिय और (५) स्पर्शेन्द्रिय ।। विवेचन - इन्द्रियों की संख्या - प्रस्तुत सूत्र में श्रोत्रेन्द्रिय आदि पांच इन्द्रियों की प्ररूपणा की गई है। अन्य दार्शनिक मन्तव्य - सांख्यादि दर्शनों में श्रोत्रेन्द्रिय आदि पांच इन्द्रियों को ज्ञानेन्द्रिय कहा गया है तथा वाक्, पाणि (हाथ), पाद (पैर), पायु (मूत्रद्वार) और उपस्थ (मलद्वार), इन पांच इन्द्रियों को कर्मेन्द्रिय कहा गया है। किन्तु पांच कर्मेन्द्रियों की मान्यता युक्तिसंगत नहीं है। जैनदर्शन में द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय के रूप से प्रत्येक के दो-दो भेद तथा द्रव्येन्द्रिय के निर्वृत्ति और उपकरण एवं भावेन्द्रिय के लब्धि और उपयोग रूप दो-दो प्रकार बताये गये हैं। इनका निरूपण इसी पद के द्वितीय उद्देशक में किया जायेगा। १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २९३ . २. (क) सांख्यकारिका, योगदर्शन (ख) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक २९३ (ग) 'निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्', 'लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम्'- तत्त्वार्थसूत्र अ. २, सू. १७, १८ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०] । प्रज्ञापनासूत्र प्रथम संस्थानद्वार ९७४.[१] सोइंदिए णं भंते ! किंसंठिते पण्णत्ते ? गोयमा ! कलंबुयापुष्फसंठाणसंठिए पण्णत्ते । [९७४-१ प्र.] भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय किस आकार की कही गई है ? [९७४-१ उ.] गौतम ! (वह) कदम्बपुष्प के आकार की कही गई है। [२] चक्खिदए णं भंते ! किंसंठिए पण्णत्ते? गोयमा ! मसूरचंदसंठाणसंठिए पन्नत्ते? [९७४-२] भगवन् ! चक्षुरिन्द्रिय किस आकार की कही गई है ? [९७४-२] गौतम ! (चक्षुरिन्द्रिय) मसूर-चन्द्र के आकार की कही है। [३] पाणिदिए णं पुच्छा। गोयमा ! अइमुत्तगपुष्युसंठाणसंठिए पण्णत्ते । [९७४-३ प्र.] भगवन् ! घ्राणेन्द्रिय का आकार किस प्रकार का है ? यह प्रश्न है ? [९७४-३ उ.] गौतम ! (घ्राणेन्द्रिय) अतिमुक्तकपुष्प के आकार की कही है। [४] जिभिदिए णं पुच्छा । गोयमा ! खुरप्पसंठाणसंठिए पण्णत्ते। [९७४-४ प्र.] भगवन् ! जिह्वेन्द्रिय किस आकार की है ? यह प्रश्न है । [९७४-४ उ.] गौतम ! (जिह्वेन्दिय) खुरपे के आकार की है। [५] फासिदिए णं पुच्छा। गोयमा ! णाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते । [९७४-५ प्र.] भगवन् ! स्पर्शेन्द्रिय के आकार के लिये प्रश्न है ? [९७४-५ उ.] गौतम ! स्पर्शेन्द्रिय नाना प्रकार के आकार की कही गई है। विवेचन - प्रथम संस्थानद्वार - पांच इन्द्रियों के आकार का निरूपण - प्रस्तुत सूत्र में पांचों इन्द्रियों के आकार का निरूपण किया गया है। द्रव्येन्द्रिय का निर्वृत्तिरूप भेद ही संस्थान - प्रत्येक इन्द्रिय के विशिष्ट और विभिन्न संस्थान-विशेष Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक] [१६१ (रचनाविशेष) को निर्वृति कहते हैं। वह निर्वृति भी दो प्रकार की होती है-बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्य निर्वृति पर्पटिका आदि है। वह विविध - विचित्र प्रकार की होती है। अतएव उसको किसी एक नियत रूप में नहीं कहा जा सकता। उदाहरणार्थ - मनुष्य के श्रोत्र (कान) दोनों नेत्रों के दोनों पार्श्व (बगल) में होते हैं। उसकी भौहें ऊपर के श्रवणबन्ध की अपेक्षा से सम होती है, किन्तु घोड़े के कान नेत्रों के ऊपर होते हैं और उनके अग्रभाग तीक्ष्ण होते हैं। इस जातिभेद से इन्द्रियों की, बाह्य निर्वृति (रचना या आकृति) नाना प्रकार की होती है, किन्तु इन्द्रियों की आभ्यन्तर - निर्वृति सभी जीवों की समान होती है। यहाँ संस्थानादिविषयक प्ररूपणा इसी आभ्यन्तरनिर्वृति को लेकर की गई है। केवल स्पर्शेन्द्रिय - निर्वृत्ति के बाह्य और आभ्यन्तर भेद नहीं करने चाहिए। वृत्तिकार ने स्पर्शेन्द्रिय को बाह्यसंस्थानविषयक बताकर उसकी व्याख्या इस प्रकार की है - बाह्यनिर्वृत्तिखड्ग के समान है और तलवार की धार के समान स्वच्छतर पुद्गलसमूहरूप आभ्यन्तरनिर्वृत्ति है। द्वितीय-तृतीय बाहल्य-पृथुत्वद्वार ९७५.[१] सोइंदिए णं भंते ! केवतियं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! अंगुलस्स असंखेजतिभागं बाहल्लेणं पण्णत्ते । [९७५-१ प्र.] भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय का बाहल्य (जाडाई-मोटाई) कितना कहा गया है ? [९७५-१ उ.] गौतम ! (श्रोत्रेन्द्रिय का) बाहल्य अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण कहा गया है । [२] एवं जाव फासिंदिए। [९७५-२] इसी प्रकार (चक्षुरिन्द्रिय से लेकर) यावत् स्पर्शेन्द्रिय के बाहल्य के विषय में समझना चाहिए। ९७६.[१] सोइंदिए णं भंते ! केवतियं पोहत्तेणं पण्णत्ते । गोयमा ! अंगुलस्स असंखेजति भागं पोहत्तेणं पण्णत्ते । [९७६-१ प्र.] भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय कितनी पृथु = विशाल (विस्तारवाली) कही गई है ? [९७६-१ उ.] गौतम ! (श्रोत्रेन्द्रिय) अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण पृथु - विशाल कही है। [२] एवं चक्खिदिए वि घाणिंदिए वि। [९७६-२] इसी प्रकार चक्षुरिन्द्रिय एवं घ्राणेन्द्रिय (की पृथुता - विशालता) के विषय में (समझना चाहिए)। [३] जिभिदिए णं पुच्छा । गोयमा ! अंगुलपुहत्तं पोहत्तेणं पण्णत्ते । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२] [प्रज्ञापनासूत्र [९७६-३ प्र.] भगवन् ! जिह्वेन्द्रिय कितनी पृथु (विस्तृत) कही गई है ? [९७६-३ उ.] गौतम ! जिह्वेन्द्रिय अंगुल-पृथक्त्व (दो अंगुल से नौ अंगुल तक) विशाल (विस्तृत) है। [४] फासिंदिए णं पुच्छा । गोयमा ! सरीरपमाणमेत्ते पोहत्तेणं पण्णत्ते । [९७६-४ प्र.] भगवन् ! स्पर्शेन्द्रिय के पृथुत्व (विस्तार) के विषय में पृच्छा (का समाधान क्या है ?) [९७६-४ उ.] गौतम ! स्पर्शेन्द्रिय शरीरप्रमाण पृथु (विशाल) कही है । विवेचन - द्वितीय-तृतीय बाहल्य-पृथुत्वद्वार - प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. ९७५-९७६) में दो द्वारों के माध्यम से पांचों इन्द्रियों के बाहल्य (स्थूलता) एवं पृथुत्व (विस्तार) का प्रमाण प्रतिपादित किया गया है । ____सभी इन्द्रियों का बाहल्य समान क्यों? - बाहल्य को अपेक्षा से सभी इन्द्रियाँ अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। इस विषय में एक शंका है कि 'यदि स्पर्शेन्द्रिय का बाहल्य (स्थूलता) अंगुल का असंख्यातवाँ भाग प्रमाण है तो तलवार छुरी आदि का आघात लगने पर शरीर के अन्दर वेदना का अनुभव क्यों होता है ?' इसका समाधान यह है कि जैसे चक्षुरिन्द्रिय का विषय रूप है, घ्राणेन्द्रिय का विषय गन्ध है, वैसे ही स्पर्शेन्द्रिय का विषय शीत स्पर्श है: किन्तु जब तलवार और छुरी आदि का आघात लगता है, तब शरीर में शीत आदि स्पर्श का वेदन नहीं होता, अपितु दुःख का वेदन होता है। दुःखरूप उस वेदन को आत्मा समग्र शरीर से अनुभव करती है, केवल स्पर्शेन्द्रिय से नहीं । जैसे - ज्वर आदि का वेदन सम्पूर्ण शरीर में होता है। शीतलपेय (ठंडे शर्बत आदि) के पीने से जो भीतर में (शरीर में) शीतस्पर्शवेदन का अनुभव होता है, उसका कारण यह है कि स्पर्शेन्द्रिय सर्वप्रदेशपर्यन्तवर्ती होती है। इसलिए त्वचा के अन्दर तथा खाली जगह के ऊपर भी स्पर्शेन्द्रिय का सद्भाव होने से शरीर के अन्दर शीतस्पर्श का अनुभव होना युक्तियुक्त है। इन्द्रियों का पृथुत्व - जिह्वेन्द्रिय के सिवाय शेष चारों इन्द्रियों का पृथुत्व (विशालता = विस्तार) अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। जिह्वेन्द्रिय का पृथुत्व अंगुलपृथक्त्वप्रमाण है, किन्तु यहाँ यह ध्यान रखना है कि स्पर्शेन्द्रिय के अतिरिक्त शेष चारों इन्द्रियों का पृथुत्व (विस्तार) आत्मांगुल से समझना चाहिए। केवल स्पर्शेन्द्रिय का पृथुत्व उत्सेधांगुल से जानना चाहिए। चतुर्थ-पंचम कतिप्रदेशद्वार एवं अवगाढद्वार ९७७.[१] सोइंदिए णं भंते ! कतिपएसिए पण्णत्ते ? १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २९४ २. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक २९४ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक] [१६३ गोयमा ! अणंतपएसिए पण्णत्ते । [९७७-१ प्र.] भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय कितने प्रदेश वाली कही गई है ? [९७७-१ उ.] गौतम ! (श्रोत्रेन्द्रिय) अनन्त-प्रदेशी कही गई है। [२] एवं जाव फासिंदिए । [९७७-२] इसी प्रकार यावत् स्पर्शेन्द्रिय (के प्रदेशों के सम्बन्ध में कहना चाहिए)। ९७८.[१] सोइंदिए णं भंते ! कतिपएसोगाढे पण्णत्ते ? गोयमा ! असंखेजपएसोगाढे पण्णत्ते । [९७८-१ प्र.] भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय कितने प्रदेशों में अवगाढ कही गई है ? [९७८-१ उ.] गौतम ! (श्रोत्रेन्द्रिय) असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ कही है। [२] एवं जाव फासिंदिए । [९७८-२] इसी प्रकार (चक्षुरिन्द्रिय से लेकर) यावत् स्पर्शेन्द्रिय तक के विषय में कहना चाहिए । विवेचन - चतुर्थ-पंचम कतिप्रदेशद्वार एवं अवगाढद्वार - प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. ९७७-९७८) में बताया गया है कि कौन-सी इन्द्रिय कितने प्रदेशों वाली है तथा कितने प्रदेशों में अवगाढ है ? अवगाहनादि की दृष्टि से अल्पबहुत्वद्वार ९७९. एएसि णं भंते ! सोइंदिय-चक्खिदिय-घाणिंदिय-जिभिदिय-फासिंदियाणं ओगाहणट्ठयाए पएसट्टयाए ओगाहणपएसट्टयाए कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? __ गोयमा ! सव्वत्थोवे चक्खिदिए ओगाहणट्ठयाए सोइंदिए ओगाहणट्ठयाए संखेजगुणे, घाणिदिए ओगाहणट्ठयाए संखेजगुणे, जिभिदिए ओगाहणट्ठयाए असंखेजगुणे, फासिंदिए ओंगाहणट्ठयाए संखेज्जगुणेः पदेसट्टयाए - सव्वत्थोवे चक्खिदिए पदेसट्ठयाए, सोइंदिए पदेसट्टयाए संखेजगुणे, घाणिदिए पएसट्ठयाए संखेजगुणे, जिभिदिए पएसट्ठयाए असंखेजगुणे, फासिंदिए पएसट्ठयाए संखेजगुणेः ओगाहणपएसट्ठयाए - सव्वत्थोवे चक्खिदिए ओगाहणट्ठयाए, सोइंदिए ओगाहणट्ठयाए संखेजगुणे, घाणिदिए ओगाहणट्ठयाए संखेजगुणे, जिभिदिए ओगाहणट्ठयाए असंखेजगुणे, फांसिदिए ओगाहणट्ठयाए संखेजगुणे, फासिंदियस्स ओगाहणट्ठयाएहितो चक्खिदिए पएसट्ठयाए अणंतगुणे, सोइदिए पएसट्ठयाए संखेजगुणे, घाणिदिए पएसट्ठयाए संखेजगुणे,जिल्भिदिए पएसट्ठयाए असंखेजगुणे, फासिदिए पएसट्ठयाए संखेजगुणे । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४] [प्रज्ञापनासूत्र [९७९ प्र.] भगवन् ! इन श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय में से अवगाहना की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से तथा अवगाहना और प्रदेशों की अपेक्षा से कौन, किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? [९७९ उ.] गौतम ! अवगाहना की अपेक्षा से सबसे कम चक्षुरिन्द्रिय है, (उससे) श्रोत्रेन्द्रिय अवगाहना की अपेक्षा से संख्यातगुणी है, (उससे) घ्राणेन्द्रिय अवगाहना की अपेक्षा से संख्यातगुणी है, (उससे) जिह्वेन्दिय अवगाहना की अपेक्षा से असंख्यातंगुणी है, (उसकी अपेक्षा) स्पर्शनेन्द्रिय अवगाहना की दृष्टि से संख्यातगुणी है। प्रदेशों की अपेक्षा से - सबसे कम चक्षुरिन्द्रिय है, (उससे) श्रोत्रेन्द्रिय प्रदेशों की अपेक्षा से संख्यातगुणी है, (उससे) घ्राणेन्द्रिय प्रदेशों की अपेक्षा से संख्यातगुणी है, (उससे) जिह्वेन्द्रिय प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणी है, (उसकी अपेक्षा) स्पर्शनेन्द्रिय प्रदेशों की अपेक्षा से संख्यातगुणी है। अवगाहना और प्रदेशों की अपेक्षा से - सबसे कम अवगाहना की दृष्टि से चक्षुरिन्द्रिय है, (उससे) अवगाहना की अपेक्षा से श्रोत्रेन्द्रिय संख्यातगुणी है, (उससे) घ्राणेन्द्रिय अवगाहना की अपेक्षा से संख्यातगुणी है, (उससे) जिह्वेन्द्रिय अवगाहना की अपेक्षा से असंख्यातगुणी है, (उससे) स्पर्शनेन्द्रिय अवगाहना की अपेक्षा से संख्यातगुणी है, स्पर्शनेन्द्रिय की अवगाहनार्थता से चक्षुरिन्द्रिय प्रदेशार्थता से अनन्तगुणी है, (उससे) श्रोत्रेन्द्रिय प्रदेशों की अपेक्षा से संख्यातगुणी है, (उससे) घ्राणेन्द्रिय प्रदेशों की अपेक्षा से संख्यातगुणी है, (उससे) जिह्वेन्द्रिय प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणी है, (उससे) स्पर्शनेन्द्रिय प्रदेशों की अपेक्षा से संख्यातगुणी है। ९८०.[१] सोइंदियस्स णं भंते ! केवतिया कक्खडगरुयगुणा पण्णत्ता ? गोयमा ! अणंता कक्खडगरुयगुणा पण्णत्ता । [९८०-१ प्र.] भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय के कर्कश और गुरु गुण कितने कहे गए हैं ? [९८०-१ उ.] गौतम ! (श्रोत्रेन्द्रिय के) अनन्त कर्कश और गुरु गुण कहे गए हैं। [२] एवं जाव फासिंदियस्स । [९८०-२] इसी प्रकार (चक्षुरिन्द्रिय से लेकर) यावत् स्पर्शनेन्द्रिय (तक के कर्कश और गुरु गुण के विषय में कहना चाहिए ।) ९८१.[१] सोइंदियस्स णं भंते ! केवतिया मउयलहुयगुणा पण्णत्ता ? गोयमा ! अणंता मउयलहुयगुणा पण्णत्ता। [९८१-१ प्र.] भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय के मृदुं और लघु गुण कितने कहे गए हैं ? [९८१-१ उ.] गौतम ! (श्रोत्रेन्द्रिय के) मृदु और लघु गुण अनन्त कहे गए हैं । [२] एवं जाव फासिंदियस्स । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक] [१६५ __ [९८१-२] इसी प्रकार (चक्षुरिन्द्रिय से लेकर) स्पर्शनेन्द्रिय (तक के मृदु-लघु गुण के विषय में कहना चाहिए ।) ९८२. एतेसि णं भंते ! सोइंदिय-चक्खिदिय-घाणिंदिय-जिब्भिंदिय-फासिंदयाणं कक्खडगरुयगुणाणं मउयलहुयगुणाणं कक्खडगरुयगुण-मउयलहुयगुणाण य कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा ४? गोयमा ! सव्वत्थोवा चक्खिदियस्स कखडगरुयगुणा, सोइंदियस्स कक्खडगरुयगुणा अणंतगुणा, घाणिंदियस्स कक्खडगरुयगुणा अणंतगुणा, जिभिदियस्स कक्खडगरुयगुणा अणंतगुणा, फासिंदियस्स कक्खडगरुयगुणा अणंतगुणा; मउयलहुयगुणाणं - सव्वत्थोवा फासिंदियस्स मउयलहुयगुणा, जिब्भिंदियस्स मउयलहुयगुणा अणंतगुणा, घाणिंदियस्स मउयलहुयगुणा अणंतगुणा, सोइंदियस्स मउयलहुयगुणा अणंतगुणा, चक्खिदियस्स मउयलहुयगुणा अणंतगुणाः कक्खडगरुयगुणाणं मउयलहुयगुणाण य - सव्वत्थोवा चक्खिदिस्स कक्खडगरुयगुणा, सोइंदियस्स कक्खडगरुयगुणा अणंतगुणा, घाणिंदियस्स कक्खडगरुयगुणा, अणंतगुणा, जिभिंदियस्स कक्खडगरुयगुणा अणंतगुणा, फासिंदियस्स कक्खडगरुयगुणा अणंतगुणा, फासिंदियस्स कक्खडगरुयगुणेहिंतो तस्स चेव मउयलहुयगुणा अणंतगुणा, जिब्भिंदियस्स मउयलहुयगुणा अणंतगुणा, घाणिंदियस्स मउयलहुयगुणा अणंतगुणा, सोइंदियस्स मउयलहुयगुणा अणंतगुणा, चक्खिदियस्स मउयलहुयगुणा अणंतगुणा। [९८२ प्र.] भगवन् ! इन श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कशगुरु -गुणों और मृदु-लघु-गुणों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? [९८२ उ.] गौतम ! सबसे कम चक्षुरिन्द्रिय के कर्कश-गुरु-गुण हैं, (उनसे) श्रोत्रेन्द्रिय के कर्कशगुरु-गुण अनन्तगुणे हैं, (उनसे) घ्राणेन्द्रिय के कर्कश-गुरु-गुण अनन्तगुणें हैं, (उनसे) जिह्वेन्द्रिय के कर्कशगुरु-गुण अनन्तगुणे हैं (और उनसे) स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश-गुरु-गुण अनन्तगुणे हैं। मृदु-लघु गुणों में सेसबसे थोड़े स्पर्शनेन्द्रिय के मृदु-लघुगुण हैं, (उनसे) जिह्वेन्द्रिय के मृदु-लघुगुण अनन्तगुणे है, (उनसे) घ्राणेन्द्रिय के मृदु-लघुगुण अनन्तगुणे हैं, (उनसे) श्रोत्रेन्द्रिय के मृदु-लघुगुण अनन्तगुणे हैं, (उनसे) चक्षुरिन्द्रिय के मृदु-लघुगुण अनन्तगुणे हैं। कर्कश-गुरुगुणों और मृदु-लघुगुणों में से सबसे कम चक्षुरिन्द्रिय के कर्कशगुरुगुण हैं, (उनसे) श्रोत्रेन्द्रिय के कर्कश-गुरुगुण अनन्तगुणे हैं, (उनसे) घ्राणेन्द्रिय के कर्कश-गुरुगुण अनन्तगुणे हैं, (उनसे) जिह्वेन्द्रिय के कर्कश-गुरुगुण अनन्तगुणे हैं, (उनसे) स्पर्शेन्द्रिय के कर्कश-गुरुगुण अनन्तगुणें हैं। स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश-गुरुगुणों से उसी के मृदु-लघुगुण अनन्तगुणे हैं, (उनसे) जिह्वेन्द्रिय के मृदु-लघुगुण अनन्तगुणे हैं, (उनसे) घ्राणेन्द्रिय के मृदु-लघु-गुण अनन्तगुणे हैं, (उनसे) श्रोत्रेन्द्रिय के मृदुलघुगुण अनन्तगुणे है, (और उनसे भी) चक्षुरिन्द्रिय के मृदु-लघुगुण अनन्तगुणे हैं। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६] [प्रज्ञापनासूत्र विवेचन - इन्द्रियों के अवगाहना-प्रदेश, कर्कश-गुरु तथा मृदु-लघुगुण आदि की अपेक्षा से अल्पबहुत्व - प्रस्तुत चार सूत्रों में इन्द्रियों के अवगाहना, प्रदेश एवं अवगाहना-प्रदेश की अपेक्षा से तथा इन्द्रियों के कर्कश-गुरु एवं मृदु-लघु गुणों में अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है। अवगाहना की दृष्टि से अल्पबहुत्व - अवगाहना की दृष्टि से सबसे कम प्रदेशों में अवगाढ चक्षुरिन्द्रिय है, उससे श्रोत्रेन्द्रिय अवगाहना की अपेक्षा संख्यातगुण अधिक है, क्योंकि वह चक्षुरिन्द्रिय की अपेक्षा अत्यधिक प्रदेशों में अवगाढ है। उसकी अपेक्षा घ्राणेन्द्रिय की अवगाहना संख्यातगुणी अधिक है, क्योंकि वह और भी अधिक प्रदेशों में अवगााढ है। उससे जिह्वेन्द्रिय अवगाहना की दृष्टि से असंख्यातगुणी अधिक है, क्योंकि जिह्वेन्द्रिय का विस्तार अंगुलपृथक्त्व-प्रमाण है, जबकि पूर्वोक्त चक्षु आदि तीन इन्द्रियाँ, प्रत्येक अंगुल के असंख्यातवें भाग विस्तार वाली हैं। जिह्वेन्द्रिय से स्पर्शनेन्द्रिय अवगाहना की अपेक्षा संख्यातगुणी अधिक ही संगत होती है, असंख्यातगुणी अधिक नहीं, क्योंकि जिह्वेन्द्रिय का विस्तार अंगुलपृथक्त्व - (दो अंगुल से नौ अंगुल तक) का होता हैं, जबकि स्पर्शनेन्द्रिय शरीर-परिमाण है। शरीर अधिक से अधिक बड़ा लक्ष योजन तक का हो सकता है। ऐसी स्थिति में वह कैसे असंख्यातगुणी अधिक हो सकती है ? अतएव जिह्वेन्द्रिय से स्पर्शनेन्द्रिय को संख्यतगुणा अधिक कहना ही युक्तिसंगत है। इसी क्रम से प्रदेशों की अपेक्षा से तथा अवगाहना और प्रदेशों की अपेक्षा से उपर्युक्त युक्ति के अनुसार अल्पबहुत्व की प्ररूपणा समझ लेनी चाहिए । इन्द्रियों के कर्कश-गुरु और मृदु-लघु गुणों का अल्पबहुत्व - पांचों इन्द्रियों में कर्कशता तथा मृदुता एवं गुरुता तथा लघुता गुण विद्यमान हैं। उनका अल्पबहुत्व यहाँ प्ररूपित है। चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा और स्पर्शनेन्द्रियाँ अनुक्रम से कर्कश-गुरुगुण में अनन्त-अनन्तगुणी अधिक हैं। इन्हीं इन्द्रियों के मृदु-लघुगुणों के युगपद् अल्पबहुत्व-विचार में सप्र्शनेन्द्रिय के कर्कश-गुरुगुणों से उसी के मृदु-लघुगुण अनन्तगुणे बताए हैं, उसका कारण यह है कि शरीर में कुछ ही ऊपरी प्रदेश शीत, आतप आदि के सम्पर्क से कर्कश होते हैं, तदन्तर्गत बहुत-से अन्य प्रदेश तो मृदु ही रहते हैं। अतएव स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश-गुरुगुणों की अपेक्षा से उसके मृदु-लघुगुण अनन्तगुणे अधिक होते हैं। चौवीस दण्डकों में संस्थानादि छह द्वारों की प्ररूपणा ९८३. [१] णेरइयाणं भंते ! कइ इंदिया पण्णत्ता? गोयमा ! पंचेंदिया पण्णत्ता । तं जहा - सोइंदिए जाव फासिंदिए । [९८३-१ प्र.] भगवन् ! नैरयिकों के कितनी इन्द्रियाँ कही हैं ? १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २९६ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक ] [१६७ [९८३-१ उ.] गौतम ! (उनके) पांच इन्द्रियाँ कही हैं, वे इस प्रकार - श्रोत्रेन्द्रिय से लेकर स्पर्शनेन्द्रिय तक। [ २ ] णेरइयाणं भंते ! सोइंदिए किंसंठिए पण्णत्ते ? 'गोयमा ! कलंबुयासंठाणसंठिए पण्णत्ते । एवं जहेव ओहियाणं वत्तव्वया भणिया (सु. ९७४ तः ९८२ ) तहेव णेरइयाणं पि जाव अप्पाबहुयाणि दोण्णि वि । णवरं णेरड्याणं भंते ! फासिंदिए किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते । तं जहा - भवधारणिज्जे य उत्तरवेडव्विए य, तत्थ णं जे से भवधारणिज्जे से णं हुंडसंठाणसंठिए पण्णत्ते, तत्थ णं जे से उत्तरवेडव्विए से वि तहेव । सेसं तं चेव । [९८३-२ प्र.] भगवन् ! नारकों की श्रोत्रेन्द्रिय किस आकार की होती है ? [९८३-२ उ.] गौतम ! ( उनकी श्रोत्रेन्द्रिय) कदम्बपुष्प के आकार की होती है। इसी प्रकार जैसे समुच्चय जीवों की पंचेन्द्रियों की वक्तव्यता कही है, वैसी ही नारकों की संस्थान, बाहल्य, पृथुत्व, कतिप्रदेश, अवगाढ और अल्पबहुत्व, इन छह द्वारों की भी वक्तव्यता कहनी चाहिए । विशेष यह है कि नैरयिकों की स्पर्शनेन्द्रिय किस आकार की कही गई है ? (इस प्रश्न के उत्तर में इस प्रकार कहा गया है - ) गौतम ! नारकों की स्पर्शनेन्द्रिय दो प्रकार की गई है, यथा भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । उनमें से जो भवधारणीय (स्पर्शनेन्द्रिय) है, वह हुण्डकसंस्थान की है और जो उत्तरवैक्रिय स्पर्शनेन्द्रिय है, वह भी हुण्डकसंस्थान की है। शेष सब प्ररूपणा पूर्ववत् समझनी चाहिए 1) - ९८४. असुरकुमाराणं भंते ! कति इंदिया पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचेंदिया पण्णत्ता । एवं जहा ओहियाणं ( ९७३ तः ९८२ ) जाव अप्पाबहुयाणि दोण्णि वि । णवरं फासेंदिए दुविहे पण्णत्ते । तं जहा - भवधारणिज्जे य उत्तरवेउव्विए य । तत्थ णं जे से भवधारणिज्जे से णं समचउरंससंठाणसंठिए पण्णत्ते, तत्थ णं जे से उत्तरवेउव्विए से णं णाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते । सेसं तं चेव । एवं जाव थणियकुमाराणं । 1 [९८४ प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों के कितनी इन्द्रियाँ कही गई हैं ? [९८४ उ.] गौतम ! (उनके) पांच इन्द्रियाँ कही हैं। इसी प्रकार जैसे (९७३ से ९८२ तक में) समुच्चय (औधिक) जीवों (के इन्द्रियों के संस्थान से लेकर दोनों प्रकार के अल्पबहुत्व तक) की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार असुरकुमारों की इन्द्रियसम्बन्धी वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष है यह कि (इनकी) स्पर्शनेन्द्रिय दो प्रकार की कही है, यथा - भवधारणीय (स्पर्शनेन्द्रिय) समचतुरस्त्रसंस्थान वाली है और उत्तरवैक्रिय (स्पर्शनेन्द्रिय) नाना संस्थान वाली होती है। इसी प्रकार की (इन्द्रियसम्बन्धी) वक्तव्यता नागकुमार से लेकर नितकुमारों तक की (समझ लेनी चाहिए ।) Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८] प्रज्ञापनासूत्र ९८५.[१] पुढविकाइयाणं भंते ! कति इंदिया पण्णत्ता? गोयमा ! एगे फासिंदिए पण्णत्ते । [९८५-१ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के कितनी इन्द्रियाँ कही गई हैं ? [९८५-१ उ.] गौतम ! (उनके) एक स्पर्शनेन्द्रिय (ही) कही है। " [२] पुढविकाइयाणं भंते ! फासिंदिए किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! मसूरचंदसंठिए पण्णत्ते । [९८५-२ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों की स्पर्शनेन्द्रिय किस आकार (संस्थान) की कही गई है ? [९८५-२ उ.] गौतम ! (उनकी स्पर्शनेन्द्रिय) मसूर-चन्द्र के आकार की कही है। [३] पुढविकाइयाणं भंते ! फासिंदिए केवतियं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! अंगुलस्स असंखेजइभागं बाहल्लेणं पण्णत्ते ।। [९८५-३ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों की स्पर्शनेन्द्रिय का बाहल्य (स्थूलता) कितमा कहा गया है ? [९८५-३ उ.] गौतम ! (उसका) बाहल्य अंगुल से असंख्यातवें भाग (-प्रमाण) कहा है। [४] पुढविकाइयाणं भंते ! फासिंदिए कतिपएसिए पण्णत्ते ? गोयमा ! अणंतपएसिए पण्णत्ते । [९८५-५ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों की स्पर्शनेन्द्रिय कितने प्रदेशों की कही हैं ? [९८५-५ उ.] गौतम ! अनन्तप्रदेशी कही गई है । [६] पुढविकाइयाणं भंते ! फासिंदिए कतिपएसोगाढे पण्णत्ते ? गोयमा ! असंखेजपएसोगाढे पण्णत्ते । [९८५-६ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों की स्पर्शनेन्द्रिय कितने प्रदेशों में अवगाढ कही है ? [९८५-६ उ.] गौतम ! असंख्यातप्रदेशों में अवगाढ कही है। [७] एतेसि णं भंते ! पुढविकाइयाणं फासिंदियस्स ओगाहण-पएसट्ठयाए कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवे पुढविकाइयाणं फासिदिए ओगाहणट्ठयाए, से चेव पएसट्ठयाए अणंतगुणे। [९८५-७ प्र.] भगवन् ! इन पृथ्वीकायिकों की स्पर्शनेन्द्रिय, अवगाहना की अपेक्षा और प्रदेशों की Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक] [१६९ अपेक्षा से कौन, किससे अल्प, बहुत तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? - [९८५-७ उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिकों की स्पर्शनेन्द्रिय अवगाहना की अपेक्षा सबसे कम है, प्रदेशों की अपेक्षा से अनन्तगुणी (अधिक) है । [८] पुढविकाइयाणं भंते ! फासिंदियस्स केवतिया कक्खडगरुयगुणा पण्णत्ता ? गोयमा ! अणंता। एवं मउयलहुयगुणा वि । [९८५-८ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों की स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश-गुरु-गुण कितने कहे गए हैं ? [९८५-८ उ.] गौतम ! (वे) अनन्त कहे हैं। इसी प्रकार (उसके) मृदु-लघुगुणों के विषय में भी समझना चाहिए । [९] एतेसिणं भंते ! पुढविकाइयाणं फासेंदियस्स कक्खडगरुयगुण-मउयलहुयगुणाणं कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा पुढविकाइयाणं फासेंदियस्स कक्खडगरुयगुणा, तस्स चेव मउयलहुयगुणा अणंतगुणा । [९८५-९ प्र.] भगवन् ! इन पृथ्वीकायिकों की स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश-गुरुगुणों और मृदु-लघुगुणों में से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? [९८५-९ उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिकों के स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश और गुरु गुण सबसे कम हैं, (उनकी अपेक्षा) मृदु तथा लघु गुण अनन्तगुणे हैं । ९८६. एवं आउक्काइयाण वि जाव वणप्फइकाइयाणं। णवरं संठाणे इमो विसेसो दट्ठव्वोआउक्काइयाणं थिबुगबिंदुसंठाणसंठिए पण्णत्ते, तेउक्काइयाणं सूईकलावसंठाणसंठिए पण्णत्ते, वाउक्काइयाणं पडागासंठाणसंठिए पण्णत्ते, वणप्फइकाइयाणं णाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते। [९८६] पृथ्वीकायिकों (के स्पर्शनेन्द्रिय संस्थान के बाहल्य आदि) की (सू. ९८५-१ से ९ तक में उल्लिखित) वक्तव्यता के समान अप्कायिकों से लेकर (तेजस्कायिक, वायुकायिक, और) वनस्पतिकायिकों तक (के स्पर्शनेन्द्रियसम्बन्धी संस्थान, बाहल्य आदि) की वक्तव्यता समझ लेनी चाहिए: किन्तु इनके संस्थान के विषय में यह विशेषता समझ लेनी चाहिए - अप्कायिकों की स्पर्शनेन्द्रिय (जल) बिन्दु के आकार की कही है, तेजस्कायिकों की स्पर्शनेन्द्रिय सूचीकलाप (सूइयों के ढेर) के आकार की कही है, वायुकायिकों की स्पर्शनेन्द्रिय पताका के आकार की कही है तथा वनस्पतिकायिकों की स्पर्शनेन्द्रिय का आकार नाना प्रकार का कहा गया है। ९८७.[१] बेइंदियाणं भंते ! कति इंदिया पण्णत्ता । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०] [प्रज्ञापनासूत्र __गोयमा ! दो इंदिया पण्णत्ता । तं जहा - जिब्भिंदिए य फासिदिए य । दोण्हं पि इंदियाणं संठाणं बाहल्लं पोहत्तं पदेसा ओगाहणा य जहा ओहियाणं भणिया (सु. ९७४-९७८) तहा भाणियव्वा। णवरं फासेंदिए हुंडसंठाणसंठिए पण्णत्ते त्ति इमो विसेसो। [९८७-१ प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों के कितनी इन्द्रियाँ कही गई हैं ? . [९८७-१ उ.] गौतम ! दो इन्द्रियाँ कही गई हैं, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय। दोनों इन्द्रियों के संस्थान, बाहल्य, पृथुत्व, प्रदेश और अवगाहना के विषय में जैसे (सू. ९७४ से ९७८ तक में) समुच्चय के संस्थानादि के विषय में कहा है, वैसा कहना चाहिए। विशेषता यह है कि (इनकी) स्पर्शनेन्द्रिय हुण्डकसंस्थान वाली होती है। [२] एतेसि णं भंते ! बेइंदियाणं जिब्भिंदिय - फासेंदियाणं ओगाहणट्ठयाए पएसट्ठयाए ओगाहणपएसट्टयाए कतरे कतरेहितो अप्पा वा ४ ? गोयमा ! सव्वत्थोवे बेइंदियाणं जिब्भिंदिए ओगाहणट्ठयाए, फासेंदिए ओगाहणट्ठयाए संखेजगुणेः पएसट्ठयाए - सव्वत्थोवे बेइंदियाणं जिब्भिंदिए पएसट्टयाए, फासेंदिए पएसट्टयाए संखेजगुणेः ओगाहणपएसट्ठयाए - सव्वत्थोवे बेइंदियस्स जिब्भिंदिए ओगाहणट्ठयाए, फासिंदिए ओगाहणट्ठयाए संखेजगुणें, फासेंदियस्स ओगाहणट्ठयाएहितो जिब्भिंदिए पएसट्ठयाए अणंतगुणे, फासिंदिए पएसट्ठयाए संखेजगुणे। [९८७-२ प्र.] भगवन् ! इन द्वीन्द्रियों की जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय में से अपगाहना की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से तथा अवगाहना और प्रदेशों (दोनों) की अपेक्षा से कौन, किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? [९८७-२ उ.] गौतम ! अवगाहना की अपेक्षा से - द्वीन्द्रियों की जिह्वेन्द्रिय सबसे कम है, (उससे) अवगाहना की दृष्टि से संख्यातगुणी (उनकी) स्पर्शनेन्द्रिय है। प्रदेशों की अपेक्षा से - सबसे कम द्वीन्द्रिय की जिह्वेन्द्रिय है, (उसकी अपेक्षा) प्रदेशों की अपेक्षा से उनकी स्पर्शनेन्द्रिय है। अवगाहना और प्रदेशों की अपेक्षा से - द्वीन्द्रियों की जिह्वेन्द्रिय अवगाहना की अपेक्षा से सबसे कम है, (उससे उनकी) स्पर्शनेन्द्रिय अवगाहना की अपेक्षा से संख्यातगुणी अधिक है, स्पर्शनेन्द्रिय की अवगाहनार्थता से जिह्वेन्द्रिय प्रदेशों की अपेक्षा से अनन्तगुणी है। (उसकी अपेक्षा) स्पर्शनेन्द्रिय प्रदेशों की अपेक्षा से संख्यातगुणी है । [३] बेइंदियाणं भंते ! जिब्भिंदियस्स केवइया कक्खडगरुयगुणा पण्णत्ता ? गोयमा ! अणंता । एवं फासेंदियस्स वि। एवं मउयलहुयगुणा वि । [९८७-३ प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रियों की जिह्वेन्द्रिय के कितने कर्कश-गुरुगुण कहे गए हैं ? [९८७-३ उ.] गौतम ! इनकी जिह्वेन्द्रिय के कर्कश-गुरुगुण अनन्त हैं। इसी प्रकार इनकी स्पर्शनेन्द्रिय Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक ] [१७१ के भी (कर्कश-गुरुगुण अनन्त समझने चाहिए।) इसी तरह (इनकी जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय के) मृदुलघुगुण भी (अनन्त समझने चाहिए ।) [४] एतेसि णं भंते ! बेइंदियाणं जिभिंदिय-फासेंदियाणं कक्खडगरुयगुणाणं मउयलहुयगुणाणं कक्खडगरुयगुण-मउयलहुयगुणाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा ४ ? गोयमा ! सव्वत्थोवा बेइंदियाणं जिब्भिंदियस्स कक्खडगरुयगुणा, फासें दियस्स कक्खडगरुयगुणा अणंतगुणा, फासेंदियस्स कक्खडगरुयगुणेहिंतो तस्स चेव मउयलहुयगुणा अणंतगुणा, जिभिंदियस्स मउयलहुयगुणा अणंतगुणा । . । [९८७-४ प्र.] भगवन् ! इन द्वीन्द्रियों की जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश-गुरुगुणों तथा मृदुलघुगुणों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [९८७-४ उ.] गौतम ! सबसे थोड़े द्वीन्द्रियों के जिह्वेन्द्रिय के कर्कश-गुरुगुण हैं, (उनसे) स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश-गुरुगुण अनन्तगुणे हैं। स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश-गुरुगुणों से उसी (इन्द्रिय) के मृदु-लघुगुण अनन्तगुणे हैं (और उससे भी) जिह्वेन्द्रिय के मृदु-लघुगुण अनन्तगुणे हैं। [५] एवं जाव चउरिंदिय त्ति। णवरं इंदियपरिवुड्डी कायव्वा। तेइंदियाणं घाणेंदिए थोवे, चउरि दियाणं चक्खिदिए थोवे । सेसं तं चेव । [९८७-५] इसी प्रकार (द्वीन्द्रियों के संस्थान, बाहल्य, पृथुत्व, प्रदेश, अवगाहना और अल्पबहुत्व के समान) यावत् चतुरिन्द्रिय (त्रीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रिय के संस्थानादि) के विषय में कहना चाहिए। विशेष यह है कि (उत्तरोत्तर एक-एक) इन्द्रिय की परिवृद्धि करनी चाहिए। त्रीन्द्रिय जीवों की घ्राणेन्द्रिय थोड़ी होती है, (इसी प्रकार) चतुरिन्द्रिय जीवों की चक्षुरिन्द्रिय थोड़ी होती है। शेष (सब वक्तव्यता) उसी तरह (पूर्ववत् द्वीन्द्रियों के समान) ही है। ९८८. पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मणूसाण य जहा णेरइयाणं (सु. ९८३)।णवरं फासिंदिए छव्विहसंठाणसंठिए पण्णत्ते। तं जहा - समचउरंसे १ णग्गोहपरिमंडले २ साती ३ खुज्जे ४ वामणे ५ हुंडे ६। [९८८] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों की इन्द्रियों की संस्थानादि सम्बन्धी वक्तव्यता (सूत्र ९८३ में अंकित) नारकों की इन्द्रिय-संस्थानदि सम्बन्धी वक्तव्यता के समान समझनी चाहिए। विशेषता यह है कि उनकी स्पर्शेनेन्द्रिय छह प्रकार के संस्थानों वाली होती है। वे (छह संस्थान) इस प्रकार हैं- (१) समचतुरस्न, (२) न्यग्रोधपरिमण्डल, (३) सादि, (४) कुब्जक, (५) वामन और (६) हुण्डक । ९८९. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं (सु. ९८४)। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र [९८९] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की (इन्द्रिय-संस्थानादि सम्बन्धी वक्तव्यता) (सू. ९८४ में अंकित) असुरकुमारों की (इन्द्रिय-संस्थानादि सम्बन्धी वक्तव्यता के समान कहना चाहिए) । १७२ ] विवेचन - चौवीस दण्डकों में संस्थानादि छह द्वारों की प्ररूपणा - नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक चौवीस दण्डकवर्ती जीवों की इन्द्रियों के संस्थान, बाहल्य, पृथुत्व, प्रदेश, अवगाहना एवं अल्प बहुत्व के सम्बन्ध में सात सूत्रों (सू. ९८३ से ९८९ तक) में प्ररूपणा की गई है । नैरयिकों और असुरकुमारादि भवनवासियों की स्पर्शनेन्द्रिय के विशिष्ट संस्थान - नैरयिकों के शरीर (वैक्रियशरीर) दो प्रकार के होते हैं - भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । भवधारणीय शरीर (स्पर्शनेन्द्रिय) उन्हें भवस्वभाव से मिलता हैं, जो कि अत्यन्त बीभत्स संस्थान (हुण्डक आकार) वाला होता है। उनका उत्तरवैक्रिय शरीर भी हुण्डकसंस्थान वाला ही होता है। क्योंकि वे चाहते तो हैं शुभ-सुखद शरीर विक्रिया करना, किन्तु उनके अतीव अशुभ तथाविध नामकर्म के उदय से अत्यन्त अशुभतर वैक्रियशरीर बनता है । असुरकुमारादि भवनवासियों के भी दो प्रकार के शरीर (स्पर्शनेन्द्रिय) होते हैं- भवधारणीय एवं उत्तरवैक्रिय । उनका भवधारणीय शरीर तो समचतुरस्रसंस्थान वाला होता है, जो कि भव के प्रारम्भ से अन्त तक रहता है। उनका उत्तरवैक्रियशरीर नाना संस्थान (आकार) वाला होता है, क्योंकि उत्तरवैक्रियशरीर की मनचाही रचना वे स्वेच्छा से कर लेते हैं । सप्तम- अष्टम स्पृष्ट एवं प्रविष्ट द्वार १. ९९०. [ १ ] पुट्ठाई भंते! सद्दाई सुणेइ ? अपुट्ठाई सद्दाई सुणेइ ? गोयमा ! पुट्ठाई सद्दाइं सुणेइ, नो अपुट्ठाई सद्दाई सुइ । [९९०-१ प्र.] भगवन् (श्रोत्रेन्द्रिय) स्पृष्ट शब्दों को सुनती है या अस्पृष्ट शब्दों को (सुनती है) ? [९९०-१ उ.] गौतम ! (वह) स्पृष्ट शब्दों को सुनती है, अस्पृष्ट शब्दों को नहीं सुनती । [२] पुट्ठाई भंते! रुवाई पासइ ? अपुट्ठाई रुवाई पासइ ? गोयमा ! णो पुट्ठाई रुवाई पासइ, अपुट्ठाई रुवाई पासति । [९९०-२ प्र.] भगवन् ! (चक्षुरिन्द्रिय) स्पृष्ट रूपों को देखती है, अथवा अस्पृष्ट रूपों को (देखती है)? [९९०-२ उ.] गौतम ! (वह) अस्पृष्ट रूपों को देखती है, स्पृष्ट रूपों को नहीं देखती । [३] पुट्ठाई भंते ! गंधाई अग्घाइ ? अपुट्ठाई गंधाई अग्घाइ ? गोया ! पुट्ठाई गंधाई अग्घाइ, णो अपुट्ठाई गंधाई अग्घाइ । प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २९७ - २९८ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक] [१७३ [९९०-३ प्र.] भगवन् ! (घ्राणेन्द्रिय) स्पृष्ट गन्धों को सूंघती है, अथवा अस्पृष्ट गन्धों को (सूंघती है)? [९९०-३ उ.] गौतम ! (वह) स्पृष्ट गन्धों को सूंघती है, अस्पृष्ट गन्धों को नहीं सूंघती । [४] एवं रसाणवि फासाणवि । णवरं रसाइं अस्साएइ फासाइं पडिसंवेदेति त्ति अभिलावो कायव्वो। [९९०-४ प्र.] इस प्रकार (घ्राणेन्द्रिय की तरह जिहेन्द्रिय द्वारा) रसों के और (स्पर्शनेन्द्रिय द्वारा) स्पर्शों के ग्रहण करने के विषय में भी समझना चाहिए। विशेष यह है कि (जिह्वेन्द्रिय) रसों का आस्वादन करती (चखती) है और (स्पर्शनेन्द्रिय) स्पर्शों का प्रतिसंवेदन (अनुभव) करती है, ऐसा अभिलाप (शब्दप्रयोग) करना चाहिए। ९९१.[१] पविट्ठाई भंते ! सद्दाइं सुणेइ ? अपविट्ठाइं सद्दाइं सुणेइ ? गोयमा ! पविट्ठाई सद्दाइं सुणेइ, णो अपविट्ठाइं सद्दाई सुणेइ । [९९१-१ प्र.] भगवन् ! (श्रोत्रेन्द्रिय) प्रविष्ट शब्दों को सुनती है या अप्रविष्ट शब्दों को (सुनती है)? . [९९१-१ उ.] गौतम ! (वह) प्रविष्ट शब्दों को सुनती है, अप्रविष्ट शब्दों को नहीं सुनती । [२] एवं जहा पुट्ठाणि तहा पविट्ठाणि वि । [९९१-२] इसी प्रकार जैसे स्पृष्ट के विषय में कहा, उसी प्रकार प्रविष्ट के विषय में भी कहना चाहिए। विवेचन - सप्तम-अष्टम स्पृष्ट एवं प्रविष्ट द्वार - प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. ९९०-९९१) में यह प्रतिपादन किया गया है कि कौन सी इन्द्रिय अपने स्पृष्ट विषय को ग्रहण करती है और कौन-सी अस्पृष्ट विषय को ? तथा कौन-सी इन्द्रिय प्रविष्ट विषय को ग्रहण करती है और कौन-सी अप्रविष्ट विषय को? स्पृष्ट और अस्पृष्ट की व्याख्या - जैसे शरीर पर रेत लग जाती है, उसी तरह इन्द्रिय के साथ विषय का स्पर्श हो तो वह स्पृष्ट कहलाता है। जिस इन्द्रिय का अपने विषय के साथ स्पर्श नहीं होता , वह अस्पृष्ट विषय कहलाता है। जैसे - श्रोत्रेन्द्रिय के साथ जिनका स्पर्श हुआ हो, वे शब्द (विषय) स्पृष्ट कहलाते हैं, किन्तु चक्षुरिन्द्रिय के साथ जिनका स्पर्श न हुआ हो, ऐसे रूप (विषय) अस्पृष्ट कहलाते हैं।' स्पृष्टसूत्र का विशेष स्पष्टीकरण - प्रस्तुत समाधान से एक विशिष्ट अर्थ भी ध्वनित होता है कि श्रोत्रेन्द्रिय स्पृष्टमात्र शब्दद्रव्यों को ही सुनती - ग्रहण कर लेती है। जैसे घ्राणेन्द्रियादि बद्ध और स्पृष्ट गन्धादि को ग्रहण करती है, वैसे श्रोत्रेन्द्रिय नहीं करती। इसका कारण यह है कि घ्राणेन्द्रियादि के विषयभूत द्रव्यों की अपेक्षा शब्द (भाषावर्गणा) के द्रव्य (पुद्गल) सूक्ष्म और बहुत होते हैं तथा शब्दद्रव्य उस-उस क्षेत्र में रहे १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २९७-२९८ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४] [प्रज्ञापनासूत्र हुए शब्द रूप में परिणमनयोग्य अन्य शब्दद्रव्यों को भी वासित कर लेते हैं। अतएव शब्दद्रव्य आत्मप्रदेशों के साथ स्पृष्ट होते ही निर्वृत्तीन्द्रिय में प्रवेश करके झटपट उपकरणेन्द्रिय (शब्द ग्रहण करने वाली शक्ति) को अभिव्यक्त करते है। इसके अतिरिक्त घ्राणेन्द्रिय आदि की अपेक्षा श्रोत्रेन्द्रिय अपने विषय को ग्रहण करने में अधिक पटु है: इसलिए श्रोत्रेन्द्रिय स्पृष्ट होने मात्र से ही शब्दों को ग्रहण कर लेती है, किन्तु अस्पृष्ट - आत्मप्रदेशों के साथ सर्वथा सम्बन्ध को अप्राप्त - विषयों (शब्दों) को ग्रहण नहीं करती, क्योंकि प्राप्यकारी होने से उसका स्वभाव प्राप्त-स्पृष्ट विषय को ग्रहण करने का है। यद्यपि मूलपाठ में कहा गया है कि घ्राणेन्द्रिय स्पृष्ट गन्धों को सूंघती है, इत्यादिः तथापि वह बद्ध-स्पृष्ट गन्धों को सूंघती है, ऐसा समझना चाहिए। आवश्यकनियुक्ति में कहा गया है कि श्रोत्रेन्द्रिय स्पृष्ट शब्द को सुनती है, किन्तु चक्षुरिन्द्रिय अस्पृष्ट रूप को देखती है तथा गन्ध, रस और स्पर्श को क्रमशः घ्राणेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय (अपने-अपने) बद्ध-स्पृष्ट विषय को ग्रहण करती है, ऐसा कहना चाहिए। स्पृष्ट का अर्थ - आत्मप्रदेशों के साथ सम्पर्कप्राप्त है, जबकि बद्ध का अर्थ है - आत्मप्रदेशों के द्वारा प्रगाढ़ संबंध को प्राप्त। विषय, स्पृष्ट तो स्पर्शमात्र से ही हो जाते हैं किन्तु बद्ध-स्पृष्ट तभी होते है, जब वे आत्मप्रदेशों के साथ एकमेक हो जाते हैं । गृहीत होने के लिए गन्धादि द्रव्यों का बद्ध और स्पृष्ट होना इसलिए आवश्यक है कि वे बादर हैं, अल्प हैं, वे अपने समकक्ष द्रव्यों को भावित नहीं करते तथा श्रोत्रेन्द्रिय की अपेक्षा घ्राणेन्द्रिय आदि इन्द्रियाँ मन्दशक्ति वाली भी हैं । चक्षुरिन्द्रिय अप्राप्यकारी होने से अस्पृष्ट रूपों को ग्रहण करती है। प्रविष्ट-अप्रविष्ट की व्याख्या - स्पृष्ट और प्रविष्ट में अन्तर यह है कि स्पर्श तो शरीर में रेत लगने की तरह होता है, किन्तु प्रवेश मुख में कौर (ग्रास) जाने की तरह है, इसलिए इन दोनों के शब्दार्थ भिन्न होने से दोनों को पृथक्-पृथक् प्रस्तुत किया है। इन्द्रियों द्वारा अपने अपने उपकरण में प्रविष्ट विषयों को ग्रहण करना प्रविष्ट कहलाता है। जैसे श्रोत्रेन्द्रिय प्रविष्ट अर्थात् - कर्णकुहर में प्राप्त शब्दों को सुनती हैं, अप्रविष्ट शब्दों को नहीं। चक्षुरिन्द्रिय चक्षु में अप्रविष्ट रूप को ग्रहण करती है। घ्राणेन्द्रिय रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय अपने-अपने उपकरण में बद्ध-प्रविष्ट विषय को ग्रहण करती हैं। नौवाँ विषय (-परिमाण) द्वार ९९२. [२] सोइंदियस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णत्ते? गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागाओ, उक्कोसेणं बारसहिं जोयणेहिंतो अच्छिण्ण १. पुढे सुणेइ सई, रूवं पुण पासइ अपुटुंतु । गंध रसं च फासं च बद्ध-पुढे वियागरे ॥ - आवश्यकनियुक्ति २. 'बद्धमप्पीकयं पएसेहिं' - प्रज्ञापना. म. वृ. पत्रांक २९८ में उद्धृत ३. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २९८-२९९ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक ] [१७५ पोग्गले पुढे पविट्ठाई सद्दाइं सुणेति । [९९२-१ प्र.] भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय का विषय कितना कहा गया है ? [९९२-१ उ.] गौतम ! (श्रोत्रेन्द्रिय) जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग (दूर शब्दों को) एवं उत्कृष्ट बारह योजनों से (१२ योजन दूर से) आए अविच्छिन्न (विच्छिन्न, विनष्ट या बिखरे न हुए) शब्दवर्गणा के पुद्गल के स्पृष्ट होने पर (निर्वृत्तीन्द्रिय में) प्रविष्ट शब्दों को सुनती है । [२] चक्खिदियस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णत्ते ? गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स संखेजतिभागाओ, उक्कोसेणं सातिरेगाओ जोयणसयसहस्साओ अच्छिण्णे पोग्गले अपुढे अपविट्ठाई रूवाइं पासति । [९९२-२ प्र.] भगवन् ! चक्षुरिन्द्रिय का विषय कितना कहा गया है ? [९९२-२ उ.] गौतम ! (चक्षुरिन्द्रिय) जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग (दूर स्थित रूपों को) एवं उत्कृष्ट एक लाख योजन से कुछ अधिक (दूर) के अविच्छिन्न (रूपवान) पुद्गलों के अस्पृष्ट एवं अप्रविष्ट रूपों को देखती है। [३] घाणिंदियस्स पुच्छा । गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागातो, उक्कोसेणं णवहिं जोयणेहितो अच्छिण्णे पोग्गले पुढे पविट्ठाइं गंधाइं अग्घाति [९९२-३ प्र.] भगवन् ! घ्राणेन्द्रिय का विषय कितना कहा गया है ? यह प्रश्न है। [९९२-३ उ.] गौतम ! (घ्राणेन्द्रिय) जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग (दूर से आए गधों को) और उत्कृष्ट नौ योजनों से आए अविच्छिन्न (गन्ध-) पुद्गल के स्पृष्ट होने पर (निर्वृत्तीन्द्रिय में) प्रविष्ट गन्धों को सूंघ लेती है। [४] एवं जिब्भिंदियस्स वि फासिंदियस्स वि ।। [९९२-४] जैसे घ्राणेन्द्रिय के विषय (-परिमाण) का निरूपण किया है, वैसे ही जिह्वेन्द्रिय एवं स्पर्शनेन्द्रिय के विषय-परिणाम के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए । विवेचन - नौवाँ विषय (-परिमाण) द्वार - प्रस्तुत सूत्र (९९२) में क्रमशः बताया गया है कि कितनी दूर से पांचों इन्द्रियों में अपने-अपने विषय को ग्रहण करने की जघन्य और उत्कृष्ट क्षमता है ? इन्द्रियों की विषय-ग्रहणक्षमता - (१) श्रोत्रेन्द्रिय जघन्यतः आत्मांगुल के असंख्यातवें भाग दूर से आए हुए शब्दों को सुन सकती है और उत्कृष्ट १२ योजन दूर से आए हुए शब्दों को सुनती है, बशर्ते कि वे Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६] [ प्रज्ञापनासूत्र शब्द अच्छिन्न अर्थात् - अव्यवहित हों, उनका तांता टूटना या बिखरना नहीं चाहिए। दूसरे शब्दों या वायु आदि से उनकी शक्ति प्रतिहत न हो गई हो, साथ ही वे शब्द - पुद्गल स्पृष्ट होने चाहिए, अस्पृष्ट शब्दों को श्रोत्र ग्रहण नहीं कर सकते। इसके अतिरिक्त वे शब्द निर्वृत्तीन्द्रिय में प्रविष्ट भी होने चाहिए। इससे अधिक दूरी से आए हुए शब्दों का परिणमन मन्द हो जाता हैं, इसलिए वे श्रवण करने योग्य नहीं रह जाते । (२) चक्षुरिन्द्रिय जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग की दूरी पर स्थित रूप को तथा उत्कृष्ट एक लाख योजन दूरी पर स्थित रूप को देख सकती है। किन्तु वह रुप अच्छिन्न (दीवाल आदि के व्यवधान से रहित), अस्पृष्ट और अप्रविष्ट पुद्गलों को देख सकती है। इससे आगे के रूप को देखने की शक्ति नेत्र में नही है, चाहे व्यवधान न भी हो । निष्कर्ष यह है कि श्रोत्र आदि चार इन्द्रियाँ प्राप्यकारी होने से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग दूर के शब्द, गन्ध, रस और स्पर्श को ग्रहण कर सकती हैं, जबकि चक्षुरिन्द्रिय अप्राप्यकारी होने से जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग दूर स्थित अव्यवहित रूपी द्रव्य को देखती है, इससे अधिक निकटवर्ती रुप को वह नहीं जान सकती, क्योंकि अत्यन्त सन्निकृष्ट अंजन, रज, मस आदि को भी नहीं देख पाती। शेष सभी इन्द्रियों के द्वारा विषयग्रहण की क्षमता का प्रतिपादन स्पष्ट ही है। दसवाँ अनगार-द्वार ९९३. अणगारस्स णं भंते ! भाविअप्पणो मारणंतियसमुग्धाएणं समोहयस्स जे चरिमा णिज्जरापोग्गला सुहुमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता समणाउसो ! सव्वलोगं पि य णं ते ओगाहित्ता णं चिट्ठति ? हंता गोयमा ! अणगारस्स णं भाविअप्पणो मारणंतियसमुग्धाएणं समोहयस्स जे चरिमा णिज्जरापोग्गला सुहुमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता समणाउसो ! सव्वलोगं पि य णं ते ओगाहित्ता णं चिट्ठति । [९९३ प्र.] भगवन् ! मारणान्तिक समुद्घात से समवहत भावितात्मा अनगार के जो चरम निर्जरा- पुद्गल हैं, क्या वे पुद्गल सूक्ष्म कहे गए हैं ? हे आयुष्मन् श्रमण ! क्या व सर्वलोक को अवगाहन करके रहते है ? [ ९९३ उ.] गौतम ! मारणान्तिक समुद्घात से समवहत भावितात्मा अनगार के जो चरमनिर्जरा- पुद्गल हैं, वे सूक्ष्म कहे हैं: हे आयुष्मन् श्रमण ! वे समग्र लोक को अवगाहन करके रहते हैं । ९९४. छउमत्थे णं भंते ! मणूसे तेसिं णिज्जरापोग्गलाणं किं आणत्तं वा णाणत्तं वा ओमत्तं वा १. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २९९ से ३०२ तक (ख) वारसहिंतो सोत्तं, सेसाण नवहि जोयणेहिंतो । गिण्हंति पत्तमत्थं एत्तो परतो न गिण्हंति ॥ - विशेषा. भाष्य Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक] [१७७ तुच्छत्तं वा गरुयत्तं वा लहुयत्तं वा जाणइ पासइ ? गोयमा ! णो इणढे समढे । से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ छउमत्थे णं मणूसे तेसिं णिजरापोग्गलाणंणो किंचि आणत्तं वा णाणत्तं वा ओमत्तं वा तुच्छत्तं वा गरुयत्तं वा लहुयत्तं वा जाणइ पासइ ? गोयमा ! देवे वि य णं अत्थेगइए जेणं तेसिं णिज्जरापोग्गलाणं णो किंचि आणत्तं वा णाणत्तं वा ओमत्तं वा तुच्छत्तं वा गरुयत्तं वा लहुयत्तं वा जाणइं पासइ, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ - छउमत्थे णं मणूसे तेसिं णिज्जरापोग्गलाणं णो किंचि आणत्तं वा णाणत्तं वा ओमत्तं वा तुच्छत्तं वा गरुयत्तं वा लहुयत्तं वा जाणइ पासइ, सुहुमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता समणाउसो !, सव्वलोगं पि य णं ते ओगाहित्ता चिट्ठति । . [९९४ प्र.] भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य उन (चरम-) निर्जरा-पुद्गलों के अन्यत्व या नानात्व, हीनत्व (अवमत्व) अथवा तुच्छत्व, गुरुत्व या लघुत्व को जानता-देखता हैं ? [९९४ उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) शक्य नहीं है। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहते हैं कि छद्मस्थ मनुष्य उन (भावितात्मा अनगार के चरमनिर्जरा पुद्गलों) के अन्यत्व, नानातव, हीनत्व, तुच्छत्व, गुरुत्व अथवा लघुत्व को नहीं जानता देखता है ? [उ.] (मनुष्य तो क्या) कोई-कोई (विशिष्ट) देव भी उन निर्जरापुद्गलों के अन्यत्व, नानात्व, हीनत्व, तुच्छत्व, गुरुत्व या लघुत्व को किंचित् भी नहीं जानता-देखता है। हे गौतम ! इस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरापुद्गलों के अन्यत्व, नानात्व, हीनत्व, तुच्छत्व, गुरुत्व या लघुत्व को नहीं जान-देख पाता, (क्योंकि) हे आयुष्मन् श्रमण ! वे (चरमनिर्जरा-) पुद्गल सूक्ष्म हैं । वे सम्पूर्ण लोक को अवगाहन करके रहते हैं । विवेचन - दसवाँ अनगार - द्वार - प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. ९९३-९९४) में भावितात्मा अनगार के सूक्ष्म एवं सर्वलोकावगाढ पुद्गलों को छद्मस्थ द्वारा जानने-देखने की असमर्थता की प्ररूपणा की गई हैं। भावितात्मा अनगार - जिसके द्रव्य और भाव से कोई अगार - गृह नहीं है, वह अनगारसंयत है। जिसने ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपोविशेष से अपनी आत्मा भावित - वासित की है, वह भावितात्मा कहलाता है । चरमानिर्जरापुद्गल - उक्त भावितात्मा अनगार जब मारणान्तिक समुद्घात से समवहत होता है, तब उसके चरम अर्थात् शैलेशी अवस्था के अन्तिम समय में होने वाले जो निर्जरापुद्गल होते हैं, अर्थात् - कर्म रूप परिणमन से मुक्त - कर्मपर्याय से रहित जो पुद्गल यानी परमाणु होते हैं, वे चरमनिर्जरापुद्गल कहलाते हैं।' १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३०३ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८] [प्रज्ञापनासूत्र इस प्रश्न के उत्थान का कारण - इसी प्रकरण में पहले कहा गया था कि श्रोत्रादि चार इन्द्रियाँ स्पृष्ट और प्रविष्ट शब्दादि द्रव्यों को ग्रहण करती हैं, ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि चरमनिर्जरापुद्गल तो सर्वलोकस्पर्शी हैं, क्या उनका श्रोत्रादि से स्पर्श एवं प्रवेश नहीं होता? दूसरी बात यह है कि यहाँ यह प्रश्न छद्मस्थ मनुष्य के लिए किया गया है, क्योंकि केवली को तो इन्द्रियों से जानना-देखना नहीं रहता, वह तो समस्त आत्मप्रदशों से सर्वत्र सब कुछ जानता-देखता है। छद्मस्थ मनुष्य अंगोपांगनामकर्मविशेष से संस्कृत इन्द्रियों के द्वारा जानता-देखता है। छद्मस्थ मनुष्य चरमनिर्जरापुद्गलों को जानने-देखने में असमर्थ क्यों ? - जो मनुष्य छद्मस्थ है, अर्थात् - विशिष्ट अवधिज्ञान एवं केवलज्ञान से विकल है, वह शैलेशी-अवस्था के अन्तिम समयसम्बन्धी कर्मपर्यायमुक्त उन निर्जरापुद्गलों (परमाणुओं) के अन्यत्व-अर्थात् ये निर्जरापुद्गल अमुक श्रमण के हैं, ये अमुक श्रमण के, इस प्रकार के भिन्नत्व को तथा एक पुद्गलगत वर्णादि के नाना भेदों (नानात्व) को तथा उनके हीनत्व, तुच्छत्व (निःसारत्व), गुरुत्व (भारीपन) एवं लघुत्व (हल्केपन) को जान-देख नहीं सकता। इसके दो मुख्य कारण बताए है - एक तो वे पुद्गल इतने सूक्ष्म हैं कि चक्षु आदि इन्द्रियपथ से अगोचर एवं अतीत हैं। दूसरा कारण यह है कि वे अत्यन्त सूक्ष्म परमाणुरूप पुद्गल समग्र लोक का अवगाहन करके रहे हुए हैं, वे बादर रूप नहीं हैं, इसलिए उन्हें ये इन्द्रियाँ ग्रहण नहीं कर सकतीं। इसी बात को पुष्ट करते हुए शास्त्रकार कहते है-देवों की इन्द्रियाँ तो मनुष्यों की अपेक्षा अपने विषय को ग्रहण करने में अत्यन्त पटुतर होती हैं। ऐसा कोई कर्मपुद्गल विषयक अवधिज्ञानविकल देव भी उन भावितात्मा अनगारों के चरमनिर्जरापुद्गलों के अन्यत्व आदि को किंचित् भी (जरा-सा भी) जान-देख नहीं सकता, तब छद्मस्थ मनुष्य की तो बात ही दूर रही। . ग्यारहवाँ आहारद्वार ९९५.[१] णेरड्या णं भंते ! ते णिजरापोग्गले किं जाणंति पासंति आहारेंति ? उदाह ण जाणंति ण पासंति ण आहारेंति ? गोयमा ! णेरड्या णं ते णिज्जरापोग्गले ण जाणंति ण पासंति, आहारेति । [९९५-१ प्र.] भगवन् ! क्या नारक उन (चरम-) निर्जरापुद्गलों को जानते-देखते हुए (उनका) आहार (ग्रहण) करते हैं अथवा (उन्हें) नहीं जानते-देखते और नहीं आहार करते हैं ? [९९५-१ उ.] गौतम ! नैरयिक उन निर्जरापुद्गलों को जानते नहीं, देखते नहीं किन्तु आहार (ग्रहण) करते हैं । [२] एवं जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणिया । [९९५-२] इसी प्रकार (असुरकुमारों से लेकर) यावत् पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों तक के विषय में कहना प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३०३ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक] [१७९ चाहिए। ९९६. मणूसा णं भंते ! ते णिजरापोग्गले किं जाणंति पासंति आहारेंति ? उदाहु ण जाणंति ण पासंति ण आहारेंति ? गोयमा ! अत्थेगइया जाणंति पासंति आहारेंति, अत्थेगइया ण जाणंति ण पासंति आहारेंति । से केणद्वेण भंते ! एवं वुच्चइ अत्थेगइया जाणंति पासंति आहारेंति ? अत्थेगइया ण जाणंति ण पासंति आहारेंति ? गोयमा ! मणूसा दुविहा पण्णत्तां। तं जहा - सण्णिभूया य असण्णिभूया य। तत्थ णं जे ते असण्णिभूया ते णं ण जाणंति ण पासंति आहारेति । तत्थ णं जे ते सण्णीभूया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - उवउत्ता य अणुवउत्ता य । तत्थ णं जे ते अणुवउत्ता ते णं ण जाणंति ण पासंति आहारेंति, तत्थ णं जे ते उवउत्ता ते णं जाणंति पासंति आहारेंति, से एएणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ - अत्थेगइया ण जाणंति ण पासंति आहारेंति अत्थेगइया जाणंति पासंति आहारेंति । - [९९६ प्र.] भगवन् ! क्या मनुष्य उन निर्जरापुद्गलों को जानते-देखते हैं और (उनका) आहरण करते हैं ? अथवा (उन्हें) नहीं जानते, नहीं देखते और नहीं आहरण करते हैं ? [९९६ उ.] गौतम ! कोई-कोई मनुष्य (उनको) जानते-देखते हैं ओर (उनका) आहरण करते हैं और कोई-कोई मनुष्य नहीं जानते, नहीं देखते और (उनका) आहरण करते हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि कोई-कोई मनुष्य (उनको) जानते-देखते हैं और (उनका) आहार करते हैं और कोई-कोई मनुष्य नहीं जानते, नहीं देखते किन्तु आहरण करते हैं ? [उ.] गौतम ! मनुष्य दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा - संज्ञीभूत (विशिष्ट अवधिज्ञानी) और असंज्ञीभूत (विशिष्ट अवधिज्ञान से रहित)। उनमें से जो असंज्ञीभूत हैं, वे (उन चरमनिर्जरापुद्गलों को) नहीं जानते, नहीं देखते, आहार करते हैं। उनमें से जो संज्ञीभूत हैं, वे दो प्रकार के कहे गये हैं - उपयोग से युक्त और उपयोग से रहित (उनुपयुक्त)। उनमें से जो उपयोगरहित हैं, वे नहीं जानते, नहीं देखते, आहार करते हैं। उनमें से जो उपयोग से युक्त हैं, वे जानते हैं, देखते हैं और आहार करते हैं। इस हेतु से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कोई-कोई मनुष्य नहीं जानते, नहीं देखते (किन्तु) आहार करते हैं और कोई-कोई मनुष्य जानते हैं, देखते हैं, आहार करते हैं। ९९७. वाणमंतर-जोइसिया जहा णेरइया (सु. ९९५ [१])। [९९७] वाणव्यन्तर और ज्योतिष्क देवों से सम्बन्धित वक्तव्यता (सू. ९९५-१ में उल्लिखित) नैरयिकों १. ग्रन्थाग्रम् ४५०० Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० ] की वक्तव्यता के समान (जानना चाहिए।) ९९८. वेमाणिया णं भंते ! ते णिज्जरापोग्गले किं जाणंति पासंति आहारेंति ? गोयमा ! जहा मणूसा (सु. ९९६ ) । णवरं वेमाणिया दुविहा' पण्णत्ता । तं जहा माइमिच्छद्दिट्ठिउववण्णगा य अमाइसम्मद्दिट्टिउववण्णगा य । तत्थ णं जे ते माइमिच्छद्दिट्ठिउववन्नगा ते णं न याणंति न पासंति आहारिति । तत्थ णं जे ते अमाइसम्मद्दिट्ठिउववन्नगा ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहाअणंतरोववन्नगा य परंपरोववन्नगा य । तत्थ णं जे ते अणंतरोववण्णगा ते णं ण याणंति ण पासंति आहारेंति । तत्थ णं जे ते परंपरोववण्णगा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य । तत्थ णं जे ते अपज्जत्तगा ते 'ण याणंति ण पासंति आहारेंति । तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा ते दुविहा तं जहा - उवउत्ता य अणुवउत्ता य । तत्थ णं जे ते अणुवउत्ता ते णं ण याणंति ण पासंति आहारेंति, तत्थ णं जे ते उवउत्ता ते णं जाणंति पासंति आहारेंति । से एणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चतिअत्थेगइया ण जाणंति जाव अत्थेगइया. आहारेंति । पण्णत्ता, [ प्रज्ञापनासूत्र [९९८ प्र.] भगवन् ! क्या वैमानिक देव उन निर्जरापुद्गलों को जानते हैं, देखते हैं, आहार अर्थात् ग्रहण करते हैं ? [९९८ उ.] गौतम ! जैसे मनुष्यों से सम्बन्धित वक्तव्यता (सू. ९९६ में) कही है, उसी प्रकार वैमानिक की वक्तव्यता समझनी चाहिए। विशेष यह है कि वैमानिक दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार - मायीमिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायी- सम्यग्दृष्टि- -उपपन्नक। उनमें से जो मायी - मिथ्यादृष्टि - उपपन्नक होते हैं, वे (उन्हें) नहीं जानते, नहीं देखते, (किन्तु) आहार करते हैं। उनमें से जो अमायी- सम्यग्दृष्टि - उपपन्नक हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार अनन्त - रोपपन्नक और परम्परोपपन्नक । उनमें से जो अनन्तरोपपन्नक (अनन्तर - उत्पन्न) हैं, वे नहीं जानते, नहीं देखते, आहार करते हैं। उनमें से जो परम्परोपपन्नक हैं, वे दो प्रकार के कहे हैं, यथा - पर्याप्तक और अपर्याप्तक। उनमें से जो अपर्याप्तक हैं, वे नहीं जानते, नहीं देखते, आहार करते हैं। उनमें जो पर्याप्तक हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं - उपयोगयुक्त और उपयोगरहित । जो उपयोगरहित हैं, वे नहीं जानते, नहीं देखते, (किन्तु) आहार करते हैं । उनमें से जो उपयोगयुक्त हैं, वे जानते हैं, देखते हैं और आहार करते हैं। इस हेतु से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कोई-कोई नहीं जानते हैं यावत् कोई-कोई आहार करते हैं । - विवेचन - ग्यारहवाँ आहारद्वार- प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. ९९५ से ९९८ तक) में चौवीस दण्डकों में निर्जरापुद्गलों के जानने, देखने और आहार करने से सम्बन्धित प्ररूपणा की गई हैं। प्रश्न और उत्तर का आशय प्रस्तुत प्रश्न का आशय यह है कि पुद्गलों का स्वभाव नाना रूपों में परिणत होने का है, अतएव योग्य सामग्री मिलने पर निर्जरापुद्गल आहार के रूप में भी परिणत हो सकते हैं। जब वे आहाररूप में परिणत होते हैं तब नैरयिक उक्त निर्जरापुद्गलों को जानते-देखते हुए आहार (लोमाहार) - Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक ] [१८१ करते हैं, अथवा नहीं जानते, नहीं देखते हुए आहार करते हैं ? भगवान् के द्वारा प्रदत्त उत्तर का आशय भी इसी प्रकार का है - वे नहीं जानते, नहीं देखते हुए आहार करते हैं, क्योंकि वे पुद्गल (परमाणु) अत्यन्त सूक्ष्म होने चक्षु आदि इन्द्रियपथ से अगोचर होते हैं और नैरयिक कार्मणशरीरपुद्गलों को जान सकने योग्य अवधिज्ञान से रहित होते हैं । इसी प्रकार का प्रश्न और उत्तर का आशय सर्वत्र समझना चाहिए ।' संज्ञीभूत असंभीभूत मनुष्य जो संज्ञी हों, वे संज्ञीभूत और जो असंज्ञी हों वे असंज्ञीभूत कहलाते हैं । यहाँ संज्ञी का अर्थ है - वे अवधिज्ञानी मनुष्य, जिनका अवधिज्ञान कार्मणपुद्गलों को जान सकता है। जो मनुष्य इस प्रकार के अवधिज्ञान से रहित हों, वे असंज्ञीभूत कहलाते हैं। इन दोनों प्रकार के मनुष्यों में जो संज्ञीभूत हैं, उनमें भी जो उपयोग लगाये हुए होते हैं, वे ही उन पुद्गलों को जानते-देखते हुए उनका आहार करते हैं, शेष असंज्ञीभूत तथा उपयोगशून्य संज्ञीभूत मनुष्य उन पुद्गलों को जान-देख नहीं पाते, केवल उनका आहार करते हैं । मायि-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायि - सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक माया तृतीय कषाय है, उसके ग्रहण द्वारा उपलक्षण से अन्य सभी कषायों का ग्रहण कर लेना चाहिये। जिनमें मायाकषाय विद्यमान हो, उसे मी अर्थात् - उत्कृट राग-द्वेषयुक्त कहते हैं । मायी ( सकषाय) होने के साथ-साथ जो मिथ्यादृष्टि हों वे मायी-मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं। जो ( वैमानिक देव) मायि - मिथ्यादृष्टि रूप में उत्पन्न ( उपपन्न) हुए हों, वे मायि-मिथ्यादृष्टि- - उपपन्नक कहलाते हैं। इनसे विपरीत जो हों वे अमायिसम्यग्दृष्टि-उपपन्नक हैं । सिद्धान्तानुसार मायि - मिथ्यादृष्टि - उपपन्नक नौवें ग्रैवेयक - पर्यन्त देवों में पाये जा सकते हैं। यद्यपि ग्रैवेयकों में और उनसे पहले के कल्पों में सम्यग्दृष्टि देव होते हैं, किन्तु उनका अवधिज्ञान इतना उत्कट नहीं होता कि वे उन निर्जरापुद्गलों को जान देख सकें। इसलिए वे भी मायिमिथ्यादृष्टि-उपपन्नकों के अन्तर्गत ही कहे जाते हैं । जो अमायिसम्यग्दृष्टि-- - उपपन्नक हैं, वे अनुत्तरविमान वासी देव हैं । अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपन्नक- जिनको उत्पन्न हुए पहला ही समय हुआ हो, वे अनन्तरोपपन्नक देव कहलाते हैं और जिन्हें उत्पन्न हुए एक समय से अधिक हो चुका हो, उन्हें परम्परोपपन्नक देव कहते हैं । इन दोनों प्रकार के अमायि - सम्यग्दृष्टि-उपपन्न देवों में से अनन्तरोपपन्नक देव तो निर्जरापुद्गलों को जान देख नहीं सकते, केवल परम्परोपपन्नक और उनमें भी अपर्याप्त और पर्याप्तकों में भी उपयोगयुक्त देव ही निर्जरापुद्गलों को जान - देखे सकते हैं। जो अपर्याप्तक और उपयोगरहित होते हैं, वे उन्हें जान-देख नहीं सकते, केवल उनका आहार करते हैं । 'आहार करते हैं' का अर्थ - यहाँ सर्वत्र ' आहार करते हैं' का अर्थ 'लोमाहार करते हैं' ऐसा १. २. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३०४ (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ३०४ (ख) संखेज्ज कम्मदव्वे लोगे, थोवूणगं पलियं, संभिन्नलोगनालिं पासंति अणुत्तरा देवा । - प्रज्ञापना म. वृ., पत्रांक ३०४ में उद्धृत Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२] [प्रज्ञापनासूत्र समझना चाहिए । बारहवें आदर्शद्वार से अठारहवें वसाद्वार तक की प्ररूपणा ९९९. [१] अदाए णं भंते ! पेहमाणे मणूसे किं अद्दायं पेहेति ? अत्ताणं पेहेति ? पलिभागं पेहेति ? गोयमा ! अद्दायं पेहेति णो अत्ताणं पेहेति, पलिभागं पेहेति । । [९९९-१ प्र.] भगवन् ! दर्पण देखता हुआ मनुष्य का दर्पण को देखता है ? अपने आपको (शरीर को) देखता हैं ? अथवा (अपने) प्रतिबिम्ब को देखता है ? [९९९-१ उ.] गौतम ! (वह) दर्पण को देखता है, अपने शरीर को नहीं देखता, किन्तु (अपने शरीर का) प्रतिबिम्ब देखता है। [२] एवं एतेणं अभिलावेणं असिं मणिं उडुपाणं तेल्लं फाणियं वसं । [९९९-२] इसी प्रकार (दर्पण के सम्बन्ध में जो कथन किया गया है) उसी अभिलाप के अनुसार क्रमशः असि, मणि, उदपान (दुग्ध और पानी), तेल, फाणित (गुड़राब) और वसा (चर्बी) (के विषय में अभिलाप-कथान करना चाहिए ।) विवेचन - बारहवें आदर्शद्वार से अठारहवें वसाद्वार तक की प्ररूपणा - प्रस्तुत सूत्र (९९९) में आदर्श आदि की अपेक्षा से चक्षुरिन्द्रिय-विषयक सात अभिलापों की प्ररूपणा की गई है। दर्पण आदि का द्रष्टा क्या देखता है ? - दर्पण, तलवार, मणि, पानी, दूध, तेल, गुड़राब और (पिघली हुई) वसा को देखता हुआ मनुष्य वास्तव में क्या देखता है ? यह प्रश्न है । शास्त्रकार कहते हैं - वह दर्पण शरीर को नहीं देखता, क्योंकि अपना शरीर तो अपने आप में स्थित रहता हैं, दर्पण में नहीं: फिर वह अपने शरीर को कैसे देख सकता है ? वह (द्रष्टा) जो प्रतिबिम्ब देखता है, वह छाया-पुद्गलात्मक होता हैं, क्योंकि सभी इन्द्रियगोचर स्थूल वस्तुएँ किरणों वाली तथा चय-अपचय धर्म वाली होती हैं। किरणें छायापुद्गलरूप हैं, सभी स्थूल वस्तुओं की छाया की प्रतीति प्रत्येक प्राणी को होती है। तात्पर्य यह है कि मनुष्य के जो छायापरमाणु दर्पण में उपसंक्रान्त होकर स्वदेह के वर्ण और आकार के रूप में परिणत होते हैं, उनकी वहाँ उपलब्धि होती हैं, शरीर की नहीं। वे (छायापरमाणु) प्रतिबिम्ब शब्द से व्यवहृत होते हैं। प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक ३०४ २. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ३०५ (ख) असिं देहमाणे मणूसे किं असिं देहइ, अत्ताणं देहइ पलिभागं देहइ ? इत्यादि । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक] [१८३ 'अद्दाइं पेहति' और 'नो अद्दाइं पेहति' इस प्रकार यहाँ पाठभेद है । विभिन्न आचार्यों ने अपने-अपने स्वीकृत पाठों का समर्थन भी किया है। पाठान्तर के अनुसार अर्थ होता है - दर्पण को नहीं देखता। तत्त्व केवलिगम्य है। उन्नीसवाँ वीसवाँ कम्बलद्वार-स्थूणाद्वार १०००. कंबलसाडए णं भंते ! आवेढियपरिवेढिए संमाणे जावतियं ओवासंतरं फुसित्ता णं चिट्ठति विरल्लिए वि य णं समाणे तावतियं चेव ओवासंतरं फुसित्ता णं चिट्ठति ? हंता गोयमा ! कंबलसाडए णं आवेढियपरिवेढिए समाणे जावतियं तं चेव । . [१००० प्र.] भगवन् ! कम्बलरूप शाटक (चादर या साड़ी) आवेष्टित-परिवेष्टित किया हुआ (लपेटा हुआ, खूब लपेटा हुआ) जितने अवकाशान्तर (आकाशप्रदेशों) को स्पर्श करके रहता हैं, (वह) फैलाया हुआ भी क्या उतने ही अवकाशान्तर (आकाश-प्रदेशों) को स्पर्श करके रहता है ? [१००० उ.] हाँ, गौतम ! कम्बलशाटक आवेष्टित-परिवेष्टित किया हुआ जितने अवकाशान्तर को स्पर्श करके रहता हैं, फैलाये जाने पर भी वह उतने ही अवकाशान्तर को स्पर्श करके रहता हैं। १००१. थूणा णं भंते ! उड्ढं ऊसिया समाणी जावतियं खेत्तं ओगाहित्ता णं चिट्ठति तिरियं पि य णं आयया समाणी तावतियं चेव खेत्तं ओगाहित्ता णं चिट्ठति ? हंता गोयमा ! थूणा णं उड्ढे ऊसिया तं चेव जाव चिट्ठति । [१००१ प्र.] भगवन् ! स्थूणा (ढूंठ, बल्ली या खम्भा) ऊपर उठी हुई जितने क्षेत्र को अवगाहन करके रहती है, क्या तिरछी लम्बी की हुई भी वह उतने ही क्षेत्र को अवगाहन करके रहती है ? [१००१ उ.] हाँ, गौतम ! स्थूणा ऊपर (ऊँची) उठी हुई जितने क्षेत्र को,.........(इत्यादि उसी पाठ को यावत् (उतने ही क्षेत्र को अवगाहन करके) रहती है, (कहना चाहिए ।) विवेचन - उन्नीसवाँ-वीसवाँ कम्बलद्वार-स्थूणाद्वार - प्रस्तुत दो सूत्रों में क्रमशः कम्बल और स्थूणा को लेकर आकाशप्रदेशस्पर्शन और क्षेत्रावगाहन की चर्चा की गई है। अतीन्द्रिय वस्तुग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर - प्रस्तुत दोनों द्वारों में अतीन्द्रिय वस्तुओं के ग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर हैं। उनका आशय क्रमशः इस प्रकार है - (१) कम्बल को तह पर तह करके लपेट दिए जाने पर वह जितने आकाशप्रदेशों को घेरता है, क्या उसे फैला दिए जाने पर वह उतने ही आकाशप्रदेशों को घेरता है ? भगवान् का उत्तर हाँ में है । (२) स्थूणा (थून) ऊँची खड़ी की हुई, जितने क्षेत्र को अवगाहन कर (व्याप्त करके) रहती है, क्या वह तिरछी लम्बी पड़ी हुई भी उतने ही क्षेत्र को अवगाहन करके रहती (व्याप्त करती) Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४] [प्रज्ञापनासूत्र है ? इसका उत्तर भी भगवान् ने स्वीकृतिसूचक दिया है। इक्कीस-बाईस-तेईस-चौवीसवाँ थिग्गल-द्वीपोदधि-लोक-अलोकद्वार १००२. आगासथिग्गले णं भंते ! किणा फुडे ? कइहिं वा काएहिं फुडे ? किं धम्मत्थिकारणं फुडे ? किं धम्मत्थिकायस्स देसेणं फुडे ? धम्मत्थिकायस्स पदेसेहिं फुडे ? एवं अधम्मत्थिकारणं आगासत्थिकाएणं? एएणं भेदेणं जाव किं पुढविकाइएणं फुडे जाव तसकाएणं फुडे ? अद्धासमएणं फुडे? ___ गोयमा ! धम्मत्थिकाएणं फुडे, णो धम्मत्थिकायस्स देसेणं फुडे, धम्मत्थिकायस्स पदेसेहिं फुडे। एवं अधम्मत्थिकाएणं वि। णो आगासत्थिकाएणं फुडे, आगासत्थिकायस्स देसेणं फुडे, आगासत्थिकायस्स पदेसेहिं फुडे जाव वणप्फइकाइएणं फुडे । तसकाएणं सिय फुडे, सिय णो फुडे। अद्धासमएणं देसे फुडे, देसे णो फुडे । [१००२ प्र.] भगवन् ! आकाश-थिग्गल (अर्थात् - लोक) किस से स्पृष्ट है ?, कितने कार्यों से स्पृष्ट है ?, क्या (वह) धमोस्तिकाय से स्पृष्ट है, या धर्मास्तिकाय के देश से स्पृष्ट है, अथवा धर्मास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट है? इसी प्रकार (क्या वह) अधर्मास्तिकाय से (तथा अधर्मास्तिकाय के देश से, या प्रदेशों से) स्पृष्ट है? (अथवा वह) आकाशस्तिकाय से, (या उसके देश, या प्रदेशों से) स्पृष्ट है ? इन्हीं भेदों के अनुसार (क्या वह पुद्गलस्तिकाय से, जीवास्तिकाय से तथा पृथ्वीकायादि से लेकर) यावत् (वनस्पतिकाय तथा) त्रसकाय से स्पृष्ट है ? (अथवा क्या वह) अद्धासमय से स्पृष्ट है ? [१००२ उ.] गौतम ! (वह आकाशथिग्गल-लोक धर्मास्तिकाय से स्पृष्ट है, धर्मास्तिकाय के देश से स्पृष्ट नहीं है, धर्मास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट है: इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय से भी (स्पृष्ट है, अधर्मास्तिकाय के देश से स्पृष्ट नहीं, अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट है।) आकाशास्तिकाय से स्पृष्ट नहीं है, आकाशास्तिकाय के देश से स्पृष्ट है तथा आकाशास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट है (तथा पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय एवं पृथ्वीकायादि से लेकर) यावत् वनस्पतिकाय से स्पृष्ट है, त्रसकाय से कथंचित् स्पृष्ट है और कथंचित् स्पृष्ट नहीं है, अद्धा-समय (कालद्रव्य) से देश से स्पृष्ट है तथा देश से स्पृष्ट नहीं है । १. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ३०६ (ख) यही मन्तव्य नेत्रपट को लेकर अन्यत्र भी कहा गया है - 'जह खलु महप्पमाणो नेत्तपडो कोडिओ नहग्गंमि । तंमि वि तावइए च्चिय फुसइ पएसे (विरल्लिए वि)॥' (अर्थात्- संकुचित किया हुआ नेत्रपट जितने आकाशप्रदेश में रहता है, विस्तृत करने (फैलाने) पर भी वह (नेत्रपट) उतने ही प्रदेशों को स्पर्श करता है ।) - प्रज्ञापना. म. वृत्ति. पत्रांक ३०६ में उद्धृत Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक) [१८५ १००३. [१] जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे किण्णा फुडे ? कतिहिं वा काएहिं फुडे ? किं धम्मत्थिकाएणं जाव आगासत्थिकाएणं फुडे ? गोयमा ! णो धम्मत्थिकाएणं फुडे धम्मत्थिकायस्स देसेणं फुडे धम्मत्थिकायस्स पएसेहिं फुडे, एवं अधम्मत्थिकायस्स वि आगासस्थिकायस्स वि, पुढविकाइएणं फुडे जाव वणप्फइकाएणं फुडे, तसकाएणं सिय फुडे, सिय णो फुडे, अद्धासमएणं फुडे । [१००३-१ प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप किससे स्पृष्ट है ? या (वह) कितने कायों से स्पृष्ट है? क्या वह धर्मास्तिकाय से (लेकर पूर्वोक्तनुसार) यावत् आकाशस्तिकाय से स्पृष्ट है ? (पूर्वोक्त परिपाटी के अनुसार 'अद्धा-समय' तक के स्पर्श-सम्बन्धी सभी प्रश्न यहाँ समझने चाहिए ।) [१००३-१ उ.] गौतम ! (वह) धर्मास्तिकाय (समग्र) से स्पृष्ट नहीं है, (किन्तु) धर्मास्तिकाय के देश से स्पृष्ट है तथा धर्मास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट है। इसी प्रकार वह अधर्मास्तिकाय और आकाशस्तिकाय के देश और प्रदेशों से स्पृष्ट है, पृथ्वीकाय से (लेकर) यावत् वनस्पतिकाय से स्पृष्ट है (तथा) त्रसकाय से कथंचित् स्पृष्ट है, कथंचित् स्पृष्ट नहीं है: अद्धा-समय (कालद्रव्य) से स्पृष्ट है। [२] एवं लवणसमुद्दे धायइसंडे दीवे कालोए समुद्दे अन्भिंतरपुक्खरद्धे। बाहिरपुक्खरद्धे एवं चेव, णवरं अद्धासमएणं णो फुडे। एवं जाव सयंभुरमणे समुद्दे। एसा परिवाडी इमाहिं गाहाहिं अणुगंतव्वा। तं जहा -- जंबुद्दीवे लवणे धायइ कालोय पुक्खरे वरुणे। खीर घत खोत नंदिय अरुणवरे कुंडले रुयए ॥२०४॥ आभरण-वत्थ-गंधे उप्पल-तिलए य पुढवि-णिहि-रयणे । वासहर-दह-नदीओ विजया वक्खार-कप्पिंदा ॥२०५॥ कुरु-मंदर-आवासा कूडा णक्खत्त-चंद-सूरा य । देवे णागे जक्खे भूए य सयंभरमणे य ॥२०६॥ एवं जहा बाहिरपुक्खरद्धे भणितं तहा जाव सयंभुरमणे समुद्दे जाव अद्धासमएणं णो फुडे । [१००३-१ प्र.] इसी प्रकार लवणसमुद्र, धातकीखण्डद्वीप, कालोदसमुद्र, आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध और बाह्य पुष्करार्द्ध (द्वीप) के विषय में इसी प्रकार की (पूर्वोक्तानुसार धर्मास्तिकायादि से लेकर अद्धा-समय तक की अपेक्षा से स्पृष्ट-अस्पृष्ट की प्ररूपणा करनी चाहिए।) विशेष यह है कि बाह्य पुष्करार्ध से लेकर आगे के समुद्र एवं द्वीप अद्धा-समय से स्पृष्ट नहीं हैं। स्वयम्भूरमणसमुद्र तक इसी प्रकार (की प्ररूपणा करनी चाहिए।) यह परिपाटी (द्वीप-समुद्रों का क्रम) इन गाथाओं के अनुसार जान लेनी चाहिए । यथा -- ___ [गाथार्थ - ] १. जम्बूद्वीप, २. लवणसमुद्र, ३. धातकीखण्डद्वीप, ४. पुष्करद्वीप, ५. वरुणद्वीप, ६. क्षीरवर, ७. घृतवर, ८. क्षोद (इक्षु), ९. नन्दीश्वर, १०. अरुणवर, ११. कुण्डलवर, १२. रुचक, १३. आभरण, Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६] [प्रज्ञापनासूत्र १४. वस्त्र, १५. गन्ध, १६. उत्पल, १७.तिलक, १८. पृथ्वी, १९. निधि, २०. रत्न, २१. वर्षधर, २२. द्रह, २३. नदियाँ, २४. विजय, २५. वक्षस्कार, २६. कल्प, २७. इन्द्र, २८. कुरु, २९. मन्दर, ३०. आवास, ३१. कूट, ३२. नक्षत्र, ३३. चन्द्र, ३४. सूर्य, ३५. देव, ३६. नाग, ३७. यक्ष, ३८. भूत और ३९. स्वयम्भूरमण समुद्र ॥२०४,२०५,२०६॥ इस प्रकार जैसे (धर्मास्तिकायादि से लेकर अद्धा-समय तक की अपेक्षा से) बाह्यपुष्करार्द्ध के (स्पृष्टास्पृष्ट के) विषय में कहा गया उसी प्रकार (वरुणद्वीप से लेकर) स्वयम्भूरमणसमुद्र (तक) के विषय में 'अद्धासमय से स्पृष्ट नहीं होता,' पर्यन्त (कहना चाहिए ।) १००४. लोगे णं भंते ! किणा फुडे ? कतिहिं वा काएहिं ? जहा आगासथिग्गले (सु. १००२)। [१००४ प्र. उ.] भगवन् ! लोक किससे स्पृष्ट है ? (वह) कितने कायों से स्पृष्ट है (इत्यादि समस्त वक्तव्यता जिस प्रकार (सू. १००२ में) आकाश-थिग्गल के विषय में कही गई है, (उसी प्रकार कहनी चाहिए।) १००५. अलोए णं भंते ! किणा फुडे ? कतिहिं वा काएहिं पुच्छा। : गोयमा ! णो धम्मत्थिकाएणं फुडे जाव णो आगासत्थिकाएणं फुडे, आगासत्थिकायस्स देसेणं फुडे आगासत्थिकायस्स पदेसेहिं फुडे, णो पुढविक्काइएणं फुडे जाव णो अद्धासमएणं फुडे, एगे अजीव-दव्वदेसे अगुरुलहुए अणंतेहिं अगुरुलहुयगुणेहिं संजुत्ते सव्वागासे अणंतभागूणे । ॥इंदियपयस्स पढमो उद्देसो समत्तो॥ ___[१००५ प्र.] भगवन् ! अलोक किससे स्पृष्ट है ? (वह) कितने कायों से स्पृष्ट है ? इत्यादि सर्व पृच्छा यहाँ पूर्ववत् करनी चाहिए। [१००५ उ.] गौतम ! अलोक धर्मास्तिकाय से स्पृष्ट नहीं है, (अधर्मास्तिकाय से लेकर) यावत् (समग्र) आकाशस्तिकाय से स्पृष्ट नहीं है: (वह) आकाशास्तिकाय के देश से स्पृष्ट है तथा आकाशास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट है: (किन्तु) पृथ्वीकाय से स्पृष्ट नहीं है, यावत् अद्धा-समय (कालद्रव्य) से स्पष्ट नहीं है। अलोक एक अजीवद्रव्य का देश है, अगुरुलघु है, अनन्त अगुरुलघुगुणों से संयुक्त है, सर्वाकाश के अनन्तवें भाग कम है। (लोकाकाश को छोड़कर सर्वाकाश प्रमाण है।) विवेचन - इक्कीस-बाईस-तेईस-चौवीसवाँ थिग्गल-द्वीपोदधि-लोक-अलोकद्वार - प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. १००२ से १००५ तक) में आकाशरूप थिग्गल, द्वीप-सागरादि, लोक और अलोक के धर्मास्तिकायादि से लेकर अद्धा-समय तक से स्पृष्ट-अस्पृष्ट होने की प्ररूपणा की गई है। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक] [१८७ आकाशथिग्गल के स्पष्ट-अस्पृष्ट की समीक्षा-- "थिग्गल' शब्द से यहाँ आकाशथिग्गल समझना चाहिए। सम्पूर्ण आकाश एक विस्तृत पट के समान है। उसके बीच में लोक उस विस्तृत पट के थिग्गल (पैबन्द) की तरह प्रतीत होता है। अतः लोकाकाश को थिग्गल कहा गया है। प्रथम सामान्य प्रश्न है- इस प्रकार का आकाशथिग्गलरूप लोकाकाश किससे स्पृष्ट अर्थात् व्याप्त है ? तत्पश्चात् विशेषरूप में प्रश्न किया गया है कि धर्मास्तिकाय से लेकर त्रसकाय तक, यहाँ तक कि अद्धा-समय' तक से कितने कायों से स्पृष्ट है? लोक सम्पूर्ण धर्मारितकाय से स्पृष्ट है, क्योंकि धर्मास्तिकाय पूरा का पूरा लोक में ही अवगाढ है, अतएव वह धर्मास्तिकाय के देश से स्पृष्ट नहीं हैं, क्योंकि जो जिसमें पूरी तरह व्याप्त है, उसे उसके एक देश में व्याप्त नहीं कहा जा सकता किन्त लोक धर्मास्तिकाय के प्रदेशों से व्याप्त तो है ही: क्योंकि धर्मास्तिकाय के सभी प्रदेश लोक में ही अवगाढ हैं। यही बात अधर्मास्तिकाय के विषय में समझनी चाहिएः किन्तु लोक स्पपूर्ण आकाशस्तिकाय से स्पृष्ट नहीं है, क्योंकि लोक सम्पूर्ण आकाशस्तिकाय का एक छोटा-सा खण्डमात्र हो है, किन्तु वह आकाशस्तिकाय से लेकर वनस्पतिकाय से स्पृष्ट है। सूक्ष्म पृथ्वीकायादि समग्र लोक में व्याप्त हैं। अतएव उनके द्वारा भी वह पूर्णरूप से स्पृष्ट है, किन्तु त्रसकाय से क्वचित् स्पृष्ट होता है, क्वचित् स्पृष्ट नहीं भी होता । जब केवली, समुद्घात करते हैं, तब चौथे समय में वे अपने आत्मप्रदेशों से समग्र लोक को व्याप्त कर लेते हैं। केवली भगवान् त्रसकाय के ही अन्तर्गत हैं, अतएव उस समय समस्त लोक त्रसकाय से स्पृष्ट होत है। इसके अतिरिक्त अन्य समय में सम्पूर्ण लोक त्रसकाय से स्पृष्ट नहीं होता। क्योंकि त्रसजीव सिर्फ त्रसनाडी में ही पाए जाते हैं। जो सिर्फ एक राजू चौड़ी और चौदह राजू ऊँची है। अद्धा-समय से लोक का कोई भाग स्पृष्ट होता है और कोई भाग स्पृष्ट नहीं होता। अद्धा-काल अढ़ाई द्वीप में ही है, आगे नहीं। 'आकाशथिग्गल' और 'लोक' में अन्तर- पहले लोक को 'आकाशथिग्गल' शब्द से प्ररूपित किया था, अब इसी को सामान्यरूप से 'लोक' शब्द द्वारा प्रतिपादित किया गया है। इसलिए विशेष और सामान्य का अन्तर है। 'लोक' संबंधी निरूपण 'आकाशथिग्गल' के समान ही है। ॥पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक समाप्त ॥ १. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ३०७-३०८ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ बीओ उद्देसओ : द्वितीय उद्देशक ॥ द्वितीय उद्देशक के बारह द्वार १००६. इंदियउवचय १ णिव्वत्तण य २ समया भवे असंखेज्जा ३ | लद्धी ४ उवओगद्धा ५ अप्पाबहुए विसेसहिया ॥२०७॥ गाणा ७ अवाए ८ ईहा ९ तह वंजणोग्गहे चेव १० । दव्विंदिया ११ भाविंदिय १२ तीया बद्धा पुरेक्खडिया ॥ २०८ ॥ [१००६ अर्थाधिकार गाथाओं का अर्थ - ] १. इन्द्रियोपचय, २ . ( इन्द्रिय-) निर्वर्तना, ३ . निर्वर्तना के असंख्यात समय, ४. लब्धि, ५. उपयोगकाल, ६. अल्पबहुत्व में विशेषाधिक उपयोग काल ॥ २०७ ॥ ७. अवग्रह, ८. अवाय (अपाय), ९. ईहा तथा १०. व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह, ११. अतीतबद्धपुरस्कृत (आगे होने वाली ) द्रव्येन्द्रिय, १२. भावेन्द्रिय ॥२०८॥ ( इस प्रकार दूसरे उद्देशक में बारह द्वारों के माध्यम से इन्द्रियविषयक अर्थाधिकार प्रतिपादित है ।) विवेचन- द्वितीय उद्देशक के बारह द्वार- प्रस्तुत सूत्र में दो गाथाओं द्वारा इन्द्रियोपचय आदि बारह द्वारों के माध्यम से इन्द्रियविषयक प्ररूपणा की गई। बारह द्वार - ( १ ) इन्द्रियोपचयद्वार (इन्द्रिययोग्य पुद्गलों को ग्रहण करने की शक्ति- इन्द्रिय पर्याप्ति, (२) इन्द्रियनिर्वर्तनाद्वार ( बाह्याभ्यन्तर निर्वृत्ति का निरूपण), (३) निर्वर्तनसमयद्वार ( आकृति निष्पन्न होने का काल), (४) लब्धिद्वार (इन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम का कथन ), (५) उपयोगकालद्वार, (६) अल्पबहुत्वाविशेषाधिकद्वार, (७) अवग्रहणाद्वार ( अवग्रह का कथन ), (८) अवायद्वार, (९) ईहाद्वार, (१०) व्यञ्जनावग्रहद्वार, (११) द्रव्येन्द्रियद्वार और (१२) भावेन्द्रिय अतीतबद्धपुरस्कृतद्वार (भावेन्द्रिय की अतीत, बद्ध और पुरस्कृत इन्द्रियों का कथन ), इन बारह द्वारों के माध्यम से इन्द्रियविषयक प्ररूपणा की जाएगी। प्रथम इन्द्रियोपचय द्वार १००७. कतिविहे णं भंते! इंदिओवचए पण्णत्ते ? १. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ३०९ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक]. [१८९ गोयमा ! पंचविहे इंदिओवचए पण्णत्ते । तं जहा- सोइंदिओवचए चक्खिदिओवचए घाणिंदिओवचए जिब्भिंदिओवचए फासिंदिओवचए। [१००७ प्र.] भगवन् ! इन्द्रियोपचय कितने प्रकार का कहा गया है ? [१००७ उ.] गौतम ! इन्द्रियोपचय पांच प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार- (१) श्रोत्रेन्द्रियोपचय, (२) चक्षुरिन्द्रियोपचय, (३) घ्राणेन्द्रियोपचय, (४) जिह्वेन्द्रियोपचय और (५) स्पर्शनेन्द्रियोपचय । १००८.[१] णेरइयाणं भंते ! कतिविहे इंदिओवचए पण्णत्ते? गोयमा ! पंचविहे इंदिओवचए पण्णत्ते । तं जहा- सोइंदिओवचए जाव फासिंदिओवचए । [१००८-१ प्र.] भगवन् ! नैरयिकों के इन्द्रियोपचय कितने प्रकार का कहा गया है ? [१००८-१ उ.] गौतम ! (उनके) इन्द्रियोपचय पांच प्रकार का कहा गय है, वह इस प्रकारश्रोत्रेन्द्रियोपचय यावत् स्पर्शनेन्द्रियोपचय । [२]एवं जाव वेमाणियाणं। जस्स जइ इंदिया तस्स तइविहो चेव इंदिओवचय भाणियव्वो॥१॥ [१००८-२] इसी प्रकार (असुरकुमारों से लेकर) यावत् वैमानिकों के इन्द्रियोपचय के विषय में कहना चाहिए। जिसके जितनी इन्द्रियाँ होती हैं, उसके उतने ही प्रकार का इन्द्रियोपचय कहना चाहिए ॥१॥ विवेचन- प्रथम इन्द्रियोपचयद्वार- प्रस्तुत सूत्रद्वय (१००७-१००८) में पांच प्रकार के इन्द्रियोपचय का तथा चौवीस दण्डकों में पाए जाने वाले इन्द्रियोपचय का कथन किया गया है। इन्द्रियोपचय अर्थात्इन्द्रियों के योग्य पुद्गलों का संग्रह ।' द्वितीय-तृतीय निर्वर्तनासमयद्वार १००९.[१] कतिविहा णं भंते ! इंदियनिव्वत्तणा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा इंदियनिव्वत्तणा पण्णत्ता तं जहा- सोइंदियनिव्वत्तणा जाव फासिंदियनिव्वत्तणा। [१००९-१ प्र.] भगवन् ! इन्द्रियनिर्वर्तना (निर्वृत्ति) कितने प्रकार की कही गई है ? [१००९-१ उ.] गौतम ! इन्द्रियनिवर्त्तना पांच प्रकार की कही गई है, वह इस प्रकार- श्रोत्रेन्द्रियनिवर्त्तना यावत् स्पर्शनेन्द्रियनिर्वर्तना। १. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ३०९ ख) पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ) भा. १, पृ. २४९ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० ] [ २ ] एवं नेरहयाणं जाव वेमाणियाणं । नवरं जस्स जतिंदिया अस्थि ॥२॥ [१००९ - २] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक निर्वर्तना-विषयक प्ररूपणा करनी चाहिए। विशेष यह कि जिसके जितनी इन्द्रियाँ होती हैं, ( उसकी उतनी ही इन्द्रियनिर्वर्तना कहनी चाहिए ।) ॥२॥ प्रज्ञापनासूत्र १०१०. [१] सोइंदियणिव्वत्तणा णं भंते ! कतिसमइया पन्नत्ता ? गोयमा ! असंखिज्जसमइया अंतो मुहुत्तिया पन्नत्ता । एवं जाव फासिंदियनिव्वत्तणा । [१०१०-१ प्र.] भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रियनिर्वर्त्तना कितने समय की कही गई है ? [१०१०-१ उ.] गौतम ! (वह) असंख्यात समयों के अन्तर्मुहूर्त की कही है। इसी प्रकार स्पर्शनेन्द्रियनिर्वर्त्तना- काल तक कहना चाहिए । [२] एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं ॥३॥ [१०१०-२] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर यावत् वैमानिकों की इन्द्रियनिर्वर्तना के काल के विषय में कहना चाहिए । विवेचन - द्वितीय-तृतीय निर्वर्तनाद्वार एवं निर्वर्तनासमयद्वार - प्रस्तुत दो सूत्रों में से प्रथम सूत्र में पांच प्रकार की निर्वर्तना और द्वितीय सूत्र में प्रत्येक इन्द्रिय की निर्वर्तना के समयों की प्ररूपणा की गई है। निर्वर्त्तना का अर्थ - बाह्याभ्यन्तररूप निर्वृत्ति - आकार की रचना । चतुर्थ-पंचम-पष्ठ लब्धिउपयोगाद्धा, अल्पबहुत्व उपयोग काल का द्वार १०११. [१] कतिविहा णं भंते ! इंदियलद्धी पण्णत्ता ? गोमा ! पंचविहा इंदियलद्धी पण्णत्ता । तं जहा- सोइंदियलद्धी जाव फासिंदियलद्धी । [१०११-१ प्र.] भगवन् ! इन्द्रियलब्धि कितने प्रकार की कही गई है ? [१०११-१ उ.] गौतम ! इन्द्रियलब्धि पांच प्रकार की कही है, वह इस प्रकार - श्रोत्रेन्द्रियलब्धि यावत् स्पर्शेन्द्रियलब्धि । [ २ ] एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं । नवरं जस्स जति इंदिया अत्थि तस्स तावतिया लगी भाणियव्वा ॥ ४ ॥ [१०११-२] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक इन्द्रियलब्धि की प्ररूपणा करनी चाहिए। विशेष यह कि जिसके जितनी इन्द्रियाँ हों, उसके उतनी ही इन्द्रियलब्धि कहनी चाहिए । प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ३०९ १. Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक] १०१२.[१] कतिविहा णं भंते ! इंदियउवओगद्धा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा इंदियउवओगद्धा पण्णत्ता । तं जहा - सोइंदियउवओगद्धा जाव फासिंदियउवओगद्धा। [१०१२-१ प्र.] भगवन् ! इन्द्रियों के उपयोग का काल (अद्धा) कितने प्रकार का कहा गया है ? [१०१२-१ उ.] गौतम ! इन्द्रियों का उपयोगकाल पांच प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकारश्रोत्रेन्द्रिय-उपयोगकाल यावत् स्पर्शेन्द्रिय-उपयोगकाल । [२] एवं रइयाणं जाव वेमाणियाणं । णवरं जस्स जति इंदिया अस्थि ॥५॥ [१०१२-२] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक के इन्द्रिय-उपयोगकाल के विषयमें समझना चाहिए। विशेष यह है कि जिसके जितनी इन्द्रियाँ हों, उसके उतने ही इन्द्रियोपयोगकाल कहने चाहिए। १०१३. एतेसि णं भंते ! सोइंदिय-चक्खिदिय-घाणिंदिय-जिब्भिंदिय-फासिंदियाणं जहणियाए उवओगद्धाए उक्कोसियाए उवओगद्धाए जहण्णुक्कोसियाए उवओगद्धाए कतरे कतरेहितो अप्पा वा ४ ? | _.. गोयमा ! सव्वत्थोवा चक्खिंदियस्स जहण्णिया उवओगद्धा, सोइंदियस्स जहणिया उवओगद्धा विसेसाहिया, घाणिंदियस्स जहणिया उवओगद्धा विसेसाहिया, जिब्भिंदियस्स जहणिया उवओगद्धा विसेसाहिया, फासेंदियस्स जहणिया उवओगद्धा विसेसाहिया । उक्कोसियाए उवओगद्धाए सव्वत्थोवा चक्खिदियस्स उक्कोसिया उवओगद्धा, सोइंदियस्स उक्कोसिया उवओगद्धा विसेसाहिया, घाणिंदियस्स उक्कोसिया उवओगद्धा विसेसाहिया, जिब्भिंदियस्स उक्कोसिया उवओगद्धा विसेसाहिया, फासिंदियस्स उक्कोसिया उवओगद्धा विसेसाहिया । जहण्णुक्कोसियाए उवओगद्धाए सव्वत्थोवा चक्खिदियस्स जहणिया उवओगद्धा, सोइंदियस्स जहणिया उवओगद्धा विसेसाहिया, घाणिंदियस्स जहणिया । उवओगद्धा विसेसाहिया, जिब्भिंदियस्स जहणिया उवओगद्धा विसेसाहिया, फासिंदियस्स जहणिया उवओगद्धा विसेसाहिया, फासेंदियस्स जहणियाहिंतो उवओगद्धाहिंतो चक्खिदियस्स उक्कोसिया उवओगद्धा विसेसाहिया, सोइंदियस्स उक्कोसिया उवओगद्धा विसेसाहिया, घाणिंदियस्स उक्कोसिया उवओगद्धा विसेसाहिया, जिब्भिंदियस्स उक्कोसिया उवओगद्धा विसेसाहिया, फासेंदियस्स उक्कोसिया उवओगद्धा विसेसाहिया ॥६॥ ...... [१०१३ प्र.] भगवन् ! इन श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय के जघन्य उपयोगाद्धा, उत्कृष्ट उपयोगाद्धा और जघन्योत्कृष्ट उपयोगाद्धा में कौन, किससे अल्प, बहुत तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? [१०१३ उ.] गौतम ! चक्षुरिन्द्रिय का जघन्य उपयोगाद्धा (उपयोगकाल) सबसे कम है, (उसकी Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२] [प्रज्ञापनासूत्र अपेक्षा) श्रोत्रेन्द्रिय का जघन्य उपयोगाद्धा विशेषाधिक है, (उसकी अपेक्षा) घ्राणेन्द्रिय का जघन्य उपयोगाद्धा विशेषाधिक है, (उससे) जिहेन्द्रिय का जघन्य उपयोगाद्धा विशेषाधिक है, (उसकी अपेक्षा) स्पर्शेन्द्रिय का जघन्य उपयोगाद्धा विशेषाधिक है। उत्कृष्ट उपयोगाद्धा में चक्षुरिन्द्रिय का उत्कृष्ट उपयोगाद्धा सबसे कम है, (उसकी अपेक्षा) श्रोत्रेन्द्रिय का उत्कृष्ट उपयोगाद्धा विशेषाधिक है, (उससे) घ्राणेन्द्रिय का उत्कृष्ट उपयोगाद्धा विशेषाधिक है, (उससे) जिह्वेन्द्रिय का उत्कृष्ट उपयोगाद्धा विशेषाधिक है, (उसकी अपेक्षा) स्पर्शेन्द्रिय का उत्कृष्ट उपयोगाद्धा विशेषाधिक है। जघन्योत्कृष्ट उपयोगाद्धा की अपेक्षा से सबसे कम चक्षुरिन्द्रिय का जघन्य उपयोगाद्धा है, (उसकी अपेक्षा) श्रोत्रेन्द्रिय का जघन्य उपयोगाद्धा विशेषाधिक है, (उसकी अपेक्षा) घ्राणेन्द्रिय का जघन्य उपयोगाद्धा विशेषाधिक है, (उसकी अपेक्षा) जिह्वेन्द्रिय का जघन्य उपयोगाद्धा विशेषाधिक है, उसकी अपेक्षा, स्पर्शेन्द्रिय का जघन्य उपयोगाद्धा विशेषाधिक है, स्पर्शेन्द्रिय के जघन्य उपयोगाद्धा से चक्षुरिन्द्रिय का उत्कृष्ट उपयोगाद्धा विशेषाधिक है, (उसकी अपेक्षा) श्रोत्रेन्द्रिय का उत्कृष्ट उपयोगाद्धा विशेषाधिक है, (उसकी अपेक्षा) घ्राणेन्द्रिय का उत्कृष्ट उपयोगाद्धा विशेषाधिक है, (उसकी अपेक्षा) जिह्वेन्द्रिय का उत्कृष्ट उपयोगाद्धा विशेषाधिक है, (उसकी अपेक्षा) स्पर्शेन्द्रिय का उत्कृष्ट उपयोगाद्धा विशेषाधिक है ॥६॥ विवेचन - चतुर्थ-पंचम-पष्ठ लब्धिद्वार, उपयोगाद्धाद्वार एवं अल्पबहुत्वद्वार - प्रस्तुत तीन सूत्रों में क्रमश: लब्धिद्वार, उपयोगाद्धाद्वार एवं उपयोगाद्धाविशेषाधिकद्धार के माध्यम से इन्द्रियावरणकर्म के क्षयोपशम की, इन्द्रियों के उपयोगकाल की एवं इन्द्रियों के उपयोगकाल के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है। इन्द्रियलब्धि आदि पदों के अर्थ - इन्द्रियावरणकर्म के क्षयोपशम को इन्द्रियलब्धि, इन्द्रियों के उपयोग (उपयोग से युक्त व्यापृत रहने) के काल को इन्द्रियउपयोगाद्धा एवं उपयोगाद्धा के अल्पबहुत्व या विशेषाधिक को उपयोगाद्धाविशेषाधिक कहते हैं। सातवाँ,आठवाँ,नौवाँ और दसवाँ क्रमशः इन्द्रिय-अवग्रहण-अवाय-ईया-अवग्रह द्वार १०१४. [१] कतिविहा णं भंते ! इंदियओगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा इंदियओगाहणा पण्णत्ता । तं जहा- सोइंदियओगाहण जाव फासेंदियओगाहणा। [१०१४-१ प्र.] भगवन् ! इन्द्रिय-अवग्रहण (अवग्रह) कितने प्रकार के कहे हैं ? [१०१४-१ उ.] गौतम ! पाँच प्रकार के इन्द्रियावग्रहण कहे हैं, वे इस प्रकार - श्रोत्रेन्द्रियअवग्रहण यावत् स्पर्शेन्द्रिय-अवग्रहण । [२] एवं रइयाणं जाव वेमाणियाणं । णवरं जस्स जइ इंदिया अत्थि ॥७॥ १. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ३०९ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद: द्वितीय उद्देशक] [१९३ [१०१४-२ प्र.] इसी प्रकार नारकों से लेकर वैमानिकों तक (पूर्ववत् कहना चाहिए) । विशेष यह है कि जिसके जितनी इन्द्रियाँ हों, (उसके उतने ही अवग्रहण समझने चाहिए ।) ॥७॥ १०१५.[१] कतिविहे णं भंते ! इंदियअवाए पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे इंदियअवाये पण्णत्ते । तं जहा- सोइंदियअवाए जाव फासेंदियअवाए। [१०१५-१ प्र.] भगवन् ! इन्द्रिय-अवाय कितने प्रकार का कहा गया है ? [१०१५-१ उ.] गौतम ! इन्द्रिय-अवाय पांच प्रकार का गया कहा है, वह इस प्रकार- श्रोत्रेन्द्रिय अवाय (से लेकर) यावत् स्पर्शेन्द्रिय-अवाय । [२] एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं। नवरं जस्स जत्तिया इंदिया अस्थि ॥८॥ [१०१५-२] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक (अवाय के विषय में कहना चाहिए) । विशेष यह कि जिसके जितनी इन्द्रियाँ हों, (उसके उतने ही अवाय कहने चाहिए।) ॥८॥ १०१६.[१] कतिविहा णं भंते ! ईहा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा ईहा पण्णत्ता । तं जहा- सोइंदियईहा जाव फासेंदियईहा । [१०१६-१ प्र.] भगवन् ! ईहा कितने प्रकार की कही गई है ? [१०१६-१ उ.] गौतम ! ईहा पांच प्रकार की कही गई है, वह इस प्रकार- श्रोत्रेन्द्रिय ईहा, यावत् स्पर्शेन्द्रिय-ईहा । [२] एवं जाव वेमाणियाणं । णवरं जस्स जति इंदिया ॥९॥ '[१०१६-२] इसी प्रकार (नैरयिकों से लेकर) यावत् वैमानिकों तक (ईहा के विषय में कहना चाहिए।) विशेष यह कि जिसके जितनी इन्द्रियाँ हों, (उसके उतनी ही ईहा कहनी चाहिए।) ॥९॥ १०१७. कतिविहे णं भंते ! उग्गहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे उग्गहे पण्णत्ते । तं जहा- अत्थोग्गहे य वंजणोग्गहे य। [१०१७ प्र.] भगवन् ! अवग्रह कितने प्रकार का कहा गया है ? [१०१७ उ.] गौतम ! अवग्रह दो प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार- अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह। १०१८. वंजणोग्गहे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउव्विहे पण्णत्ते । तं जहा- सोइंदियवंजणोग्गहे घाणिंदियवंजणोग्गहे जिब्भिंदियवंजणोग्गहे फासिंदियवंजणोग्गहे । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४] ) [प्रज्ञापनासूत्र [१०१८ प्र.] भगवन् ! व्यंजनावग्रह कितने प्रकार का कहा गया है ? [१०१८ उ.] गौतम ! (व्यञ्जनावग्रह) चार प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार- श्रोत्रेन्द्रियावग्रह, घ्राणेन्द्रियावग्रह, जिह्वेन्द्रियावग्रह और स्पर्शेन्द्रियावग्रह । १०१९. अत्थोग्गहे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! छविहे अत्थोग्गहे पण्णत्ते । तं जहा- सोइंदियअत्थोग्गहे चक्खिदियअत्थोग्गहे घाणिदियअत्थोग्गहे जिभिदियअत्थोग्गहे फासिंदियअत्थोग्गहे णोइंदियअस्थोग्गहे। [१०१९ प्र.] भगवन् ! अर्थावग्रह कितने प्रकार का कहा गया है ? [१०१९ उ.] गौतम ! अर्थावग्रह छह प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार-श्रोत्रेन्द्रिय-अर्थावग्रह, चक्षुरिन्द्रिय-अर्थावग्रह, घ्राणेन्द्रिय-अर्थावग्रह, जिह्वेन्द्रिय-अर्थावग्रह, स्पर्शेन्द्रिय-अर्थावग्रह और नोइन्द्रिय (मन)-अर्थावग्रह । १०२०.[१]णेरइयाणं भंते ! कतिविहे उग्गहे पण्णत्ते ! गोयमा ! दुविहे उग्गहे पण्णत्ते । तं जहा- अत्थोग्गहे य वंजणोग्गहे य । .. [१०२०-१ प्र.] भगवन् ! नैरयिकों के कितने अवग्रह कहे गए हैं ? [१०२०-१ उ.] गौतम ! (उनके) दो प्रकार के अवग्रह कहे हैं, यथा - अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह। . [२] एवं असुरकुमाराणं जाव थणियकुमाराणं । [१०२०-२] इसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर स्तनितकुमारों तक (के अवग्रह के विषय में कहना चाहिए)। १०२१.[१] पुढविकाइयाणं भंते ! कतिविहे उग्गहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे उग्गहे पण्णत्ते । तं जहा - अत्थोग्गहे य वंजणोग्गहे य। [१०२१-१ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के कितने अवग्रह कहे गए हैं ? [१०२१-१ उ.] गौतम ! (उनके) दो प्रकार के अवग्रह कहे गए हैं। वे इस प्रकार - अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह । [२] पुढविकाइयाणं भंते ! वंजणोग्गहे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! एगे फासिंदियअत्थोग्गहे पण्णत्ते ।। [१०२१-२ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के व्यंजनावग्रह कितने प्रकार के कहे गए हैं ? Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक ] [१०२१-२ उ.] गौतम ! ( उनके केवल ) एक स्पर्शेन्द्रिय-व्यंजनावग्रह कहा गया है । [३] पुढविकाइयाणं भंते ! कतिविहे अत्थोग्गहे पण्णत्ते ? गोयमा ! एगे फासिंदियअत्थोग्गहे पण्णत्ते । [१९५ [१०२१ - ३ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के कितने अर्थावग्रह कहे गए हैं । [१०२१-३ उ.] गौतम ! ( उनके केवल ) एक स्पर्शेन्द्रिय- अर्थावग्रह कहा गया है । [ ४ ] एवं जाव वणप्फइकाइयाणं । [१०२१-४] (अप्कायिकों से लेकर) यावत् वनस्पतिकायिक ( के व्यंजनावग्रह एवं अर्थावग्रह के विषय में) इसी प्रकार कहना चाहिए । १०२२. [ १ ] एवं बेइंदियाण वि । णवरं बेइंदियाणं वंजणोग्गहे दुविहे पण्णत्ते, अत्थोग्गहे विपण । [१०२२ -१] इसी प्रकार द्वीन्द्रियों के अवग्रह के विषय में समझना चाहिए। विशेष यह है कि द्वीन्द्रियों व्यंजनावग्रह दो प्रकार के कहे गए हैं तथा (उनके) अर्थावग्रह भी दो प्रकार के कहे गए हैं । [ २ ] एवं तेइंदिय- चउरिंदियाण वि । णवरं इंदियपरिवुड्डी कायव्वा । चउरिं दियाणं वंजणोग्गहे तिविहे पण्णत्ते, अत्थोग्गहे चउव्विहे पण्णत्ते । [१०२२-२] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के ( व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह के ) विषय में भी समझना चाहिए। विशेष यह है कि ( उत्तरोत्तर एक-एक ) इन्द्रिय की परिवृद्धि होने से एक-एक व्यंजनावंग्रह एवं अर्थावग्रह की भी वृद्धि कहनी चाहिए । चतुरिन्द्रिय जीवों के व्यञ्जनावग्रह तीन प्रकार के कहे हैं और अर्थावग्रह चार प्रकार के कहे हैं । १०२३. सेसाणं जहा णेरइयाणं (सु. १०२० [१] ) जाव वेमाणियाणं ॥ १० ॥ [१०२३] वैमानिकों तक शेष समस्त जीवों के अवग्रह के विषय में जैसे (सू. १०२० - १ में) नैरयिकों के अवग्रह के विषय में कहा है, वैसे ही समझ लेना चाहिए ॥१०॥ विवेचन - सातवाँ, आठवाँ, नौवाँ और दसवाँ इन्द्रिय-अवाय- ईहा - अवग्रहद्वार - प्रस्तुत दस सूत्रों सू. १०१४ से १०२३ तक) में चार द्वारों के माध्यम से क्रमशः इन्द्रियों के अवग्रहण, अवाय, ईहा और अवग्रह के विषय में कहा गया है। इन्द्रियावग्रहण का अर्थ - इन्द्रियों द्वारा होने वाले सामान्य परिच्छेद (ज्ञान) को इन्द्रियावग्रह या इन्द्रियावग्रहण कहते हैं । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६] [प्रज्ञापनासूत्र इन्द्रियावाय की व्याख्या - अवग्रहज्ञान से गृहीत और ईहाज्ञान से ईहित अर्थ का निर्णयरूप जो अध्यवसाय होता है, वह अवाय या 'अपाय' कहलाता है । जैसे - यह शंख का ही शब्द है, अथवा यह सारंगी का ही स्वर है, इत्यादि रूप अवधारणात्मक (निश्चयात्मक) निर्णय होना। तात्पर्य यह है कि ज्ञानोपयोग में सर्वप्रथम अवग्रहज्ञान होता है: जो अपर सामान्य को विषय करता है। तत्पश्चात् ईहाज्ञान की उत्पत्ति होती है, जिसके द्वारा ज्ञानोपयोग सामान्यधर्म से आगे बढ़कर विशेषधर्म को ग्रहण करने के लिए अभिमुख होता है। ईहा के पश्चात् अवायज्ञान होता है, जो वस्तु के विशेषधर्म का निश्चय करता है। अवग्रहादि ज्ञान मन से भी होते हैं और इन्द्रियों से भी, किन्तु यहां इन्द्रियों से होने वाले अवग्रहादि के सम्बन्ध में ही प्रश्न और उत्तर हैं । ईहाज्ञान की व्याख्या - सद्भूत पदार्थ की पर्यालोचनरूप चेष्टा ईहा कहलाती है। ईहाज्ञान अवग्रह के पश्चात् और अवाय से पूर्व होता है। यह (ईहाज्ञान) पदार्थ के सद्भूत धर्मविशेष को ग्रहण करने और असद्भूत अर्थविशेष को त्यागने के अभिमुख होता है। जैसे-यहाँ मधुरता आदि शंखादिशब्द के धर्म उपलब्ध हो रहे हैं, सारंग आदि के कर्कशता-निष्ठुरता आदि शब्द के धर्म नहीं, अतएव यह शब्द शंख का होना चाहिए। इस . प्रकार की मतिविशेष ईहा कहलाती है। अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह - अर्थ का अवग्रह अर्थावग्रह कहलाता है। अर्थात् – शब्द द्वारा नहीं कहे जा सकने योग्य अर्थ के सामान्यधर्म को ग्रहण करना अर्थावग्रह है। कहा भी है - रूपादि विशेष से रहित अनिर्देश्य सामान्यरूप अर्थ का ग्रहण, अर्थावग्रह है। जैसे तिनके का स्पर्श होते ही सर्वप्रथम होने वाला - 'यह कुछ है' इस प्रकार का ज्ञान । दीपक के द्वारा जैसे घट व्यक्त किया जाता है, वैसे ही जिसके द्वारा अर्थ व्यक्त किया जाए, उसे व्यंजन कहते हैं । तात्पर्य यह है कि उपकरणरूप द्रव्येन्द्रिय और शब्दादिरूप में परिणत द्रव्यों के परस्पर सम्बन्ध होने पर ही श्रोत्रेन्द्रिय आदि इन्द्रियाँ शब्दादिविषयों को व्यक्त करने में समर्थ होती हैं, अन्यथा नहीं। अत: इन्द्रिय और उसके विषय का सम्बन्ध व्यंजन कहलाता है। यों व्यंजनावग्रह का निर्वचन तीन प्रकार से होता है - उपकरणेन्द्रिय और उसके विषय का सम्बन्ध व्यंजन कहलाता है। उपकरणेन्द्रिय भी व्यंजन कहलाती हैं और व्यक्त होने योग्य शब्दादि विषय भी व्यंजन कहलाते हैं। तात्पर्य यह है कि दर्शनोपयोग के पश्चात् अत्यन्त अव्यक्तरूप परिच्छेद (ज्ञान) व्यञ्जनावग्रह है । पहले कहा जा चुका है कि उपकरण द्रव्येन्द्रिय और शब्दादि के रूप में परिणत द्रव्यों का परस्पर जो सम्बन्ध होता है, वह व्यञ्जनावग्रह है, इस दृष्टि से चार प्राप्यकारी इन्द्रियाँ ही ऐसी हैं, जिनका अपने विषय के साथ सम्बन्ध होता है: चक्षु और मन ये दोनों अप्राप्यकारी हैं, इसलिए इन का अपने विषय के साथ सम्बन्ध नहीं होता। इसी कारण व्यञ्जनावग्रह चार प्रकार का बताया गया है, जबकि अर्थावग्रह छह प्रकार का निर्दिष्ट है। व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह में व्युत्क्रम क्यों ? - व्यञ्जनावग्रह पहले उत्पन्न होता है, और अर्थावग्रह बाद में; ऐसी स्थिति में बाद में होने वाले अर्थावग्रह का कथन पहले क्यों किया गया ? इसका समाधान यह कि अर्थावग्रह अपेक्षाकृत स्पष्टस्वरूप वाला होता है तथा स्पष्टस्वरूप वाला होने से सभी उसे Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक ]] [१९७ समझ सकते हैं। इसी हेतु से अर्थावग्रह का कथन पहले किया गया है। इसके अतिरिक्त अर्थावग्रह सभी इन्द्रियों और मन से होता है, इस कारण भी उसका उल्लेख पहले किया गया है। व्यञ्जनावग्रह ऐसा नहीं है, वह चक्षु और मन से नहीं होता तथा अतीव अस्पष्ट स्वरूप वाला होने के कारण सबके संवेदन में नहीं आता, इसलिए उसका कथन बाद में किया गया है।' ग्यारहवाँ द्रव्येन्द्रियद्वार १०२४. कतिविहा णं भंते ! इंदिया पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता । तं जहा - दव्विंदिया य भाविंदिया य । [१०२४ प्र.] भगवन् ! इन्द्रियाँ कितने प्रकार की कही हैं ? [१०२४ उ.] गौतम ! इन्द्रियाँ दो प्रकार की कही गई हैं, वे इस प्रकार - द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय । १०२५. कति णं भंते ! दव्विंदिया पण्णत्ता ? गोयमा ! अट्ठ दव्विंदिया पण्णत्ता । तं जहा - दो सोया २ दो णेत्ता ४ दो घाणा ६ जीहा ७ फासे ८। [१०२५ प्र.] भगवन् ! द्रव्येन्द्रियाँ कितनी कही गई हैं ? [१०२५ उ.] गौतम ! द्रव्येन्द्रियाँ आठ प्रकार की कही गई हैं, वे इस प्रकार - दो श्रोत्र, दो नेत्र, दो घ्राण (नाक), जिह्वा और स्पर्शन । १०२६.[१] णेरइयाणं भंते ! कति दव्विंदिया पण्णत्ता ? गोयमा ! अट्ठ, एते चेव । [१०२६-१ प्र.] भगवन् ! नैरयिकों के कितनी द्रव्येन्द्रियाँ कही गई हैं ? [१०२६-१ उ.] गौतम ! (उनके) ये ही आठ द्रव्येन्द्रियाँ हैं । [२] एवं असुरकुमाराणं जाव थणियकुमाराणं वि । [१०२६-२] इसी प्रकार असुरकुमारों से स्तनितकुमारों तक (ये ही आठ द्रव्येन्द्रियाँ) समझनी चाहिए। १. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ३१०-३११ (ख) वंजिज्जइ जेणत्थो घडोव्व दीवेण वंजणं तं च । उवगरणिंदिय सद्दाइपरिणयदव्वसंबन्धो ॥१॥ - विशेषा. भाष्य - प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्र ३११ में उद्धृत Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८]. [प्रज्ञापनासूत्र १०२७.[१] पुढविकाइयाणं भंते ! कति दव्विंदिया पण्णत्ता ? गोयमा ! एगे फासेंदिए पण्णत्ते । [१०२७-१ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के कितनी द्रव्येन्द्रियाँ कही गई हैं ? [१०२७-१ उ.] गौतम ! (उनके केवल) एक स्पर्शनेन्द्रिय कही है। [२] एवं जाव वणप्फातिकाइयाणं। . [१०२७-२] (अप्कायिकों से लेकर) वनस्पतिकायिकों तक के इसी प्रकार (एक स्पर्शनेन्द्रिय समझनी चाहिए ।) १०२८.[१] बेइंदियाणं भंते ! कति दव्विंदिया पण्णत्ता? गोयमा ! दो दव्विंदिया पण्णत्ता । तं जहा - फासिंदिए य जिब्भिंदिय ।. [१०२८-१ प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों के कितनी द्रव्येन्द्रियाँ कही गई हैं ? [१०२८-१ उ.] गौतम ! उनके दो द्रव्येन्द्रियाँ कही गई हैं, वे इस प्रकार - स्पर्शनेन्द्रिय और जिह्वेन्द्रिय। [२] तेइंदियाणं पुच्छा। गोयमा ! चत्तारि दव्विंदिया पण्णत्ता । तं जहा - दो घाणा २ जीहा ३ फासे ४ । [१०२८-२ प्र.] भगवन् ! त्रीन्द्रिय जीवों के कितनी द्रव्येन्द्रियाँ कही गई हैं ? [१०२८-२ उ.] गौतम ! (उनके) चार द्रव्येन्द्रियाँ कही गई हैं, वे इस प्रकार - दो घ्राण, जिह्वा और स्प र्शन। [३] चउर दियाणं पुच्छा। गोयमा ! छ दव्विंदिया पण्णत्ता । तं जहा - दो णेत्ता २ दो घाणा ४ जीहा ५ फासे ६ । [१०२८-३ प्र.] भगवन् ! चतुरिन्द्रिय जीवों के कितनी द्रव्येन्द्रियाँ कही गई हैं ? [१०२८-३ उ.] गौतम ! उनके छह द्रव्येन्द्रियाँ कही गई हैं, वे इस प्रकार - दो नेत्र, दो घ्राण, जिह्रा और स्पर्शन । १०२९. सेसाणं जहा णेरइयाणं; (सु. १०२६ [१]) जाव वेमाणियाणं । [१०२९] शेष सबके (तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों, मनुष्यों, वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों) यावत् वमानिकों के (सू. १०२६-१ में उल्लिखित) नैरयिकों की तरह (आठ द्रव्येन्द्रियाँ कहनी चाहिए ।) विवेचन - ग्यारहवाँ द्रव्येन्द्रियद्वार - प्रस्तुत छह सूत्रों (सू. १०२४ से १०२९ तक) में द्रव्येन्द्रियों के Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक] [१९९ आठ प्रकार और चौवीस दण्डकों में उनकी प्ररूपणा की गई हैं । चौवीस दण्डकों की अतीत-बद्ध-पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की प्ररूपणा १०३०. एगमेगस्स णं भंते ! णेरइयस्स केवतिया दव्विंदिया अतीया? गोयमा ! अणंता । केवतिया बद्धेल्लगा? गोयया ! अट्ठ । केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! अट्ठ वा सोलस वा सत्तरस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा । [१०३० प्र.] भगवन् ! एक-एक नैरयिक की अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [१०३० उ.] गौतम ! अनन्त हैं । • [प्र.] (भगवन् ! एक-एक नैरयिक की) कितनी (द्रव्येन्द्रियाँ) बद्ध हैं ? [उ.] गौतम ! आठ हैं । [प्र.] भगवन् ! एक-एक नैरयिक की पुरस्कृत (आगे होने वाली) द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (आगामी द्रव्येन्द्रियाँ) आठ हैं, सोलह हैं, सत्तरह हैं, संख्यात हैं, असंख्यात हैं अथवा अनन्त हैं । १०३१.[१] एगमेगस्स णं भंते ! असुरकुमारस्स केवतिया दक्विंदिया अतीता? गोयमा ! अणंता । केवतिया बद्धेल्लगा? गोयमा ! अट्ठ। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! अट्ठ वा णव वा संखेज्जा वा असंखेजा वा अणंता वा । [१०३१-१ प्र.] भगवन् ! एक-एक असुरकुमार के अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [१०३१-१ उ.] गौतम ! अनन्त हैं। [प्र.] (भगवन् ! एक-एक असुरकुमार के) कितनी (द्रव्येन्द्रियाँ) बद्ध हैं ? Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००] [प्रज्ञापनासूत्र [उ.] गौतम ! आठ हैं । [प्र.] (भगवन् ! एक-एक असुरकुमार के) पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! आठ हैं, नौ हैं, संख्यात हैं, असंख्यात हैं, या अनन्त हैं । [२] एवं जाव थणियकुमाराणं ताव भाणियव्वं । [१०३१-२] नागकुमार से ले कर स्तनितकुमार तक (की अतीत, बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में भी) इसी प्रकार कहना चाहिए । ... १०३२.[१]एवं पुढविक्काइय-आउक्काइय-वणप्फइकाइयस्स वि ।णवरं केवतिया बद्धेल्लगा? त्ति पुच्छाए उत्तरं एक्के फासिदिए पण्णत्ते । [१०३२-१] पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक (की अतीत और पुरस्कृत इन्द्रियों के विषय में) भी इसी प्रकार (कहना चाहिए ।) . [प्र. उ.] विशेषतः इनकी (प्रत्येक की) बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ऐसी पृच्छा का उत्तर है - (इनकी बद्ध द्रव्येन्द्रिय) एक (मात्र) स्पर्शनेन्द्रिय कही गई है। [२] एवं तेउक्काइय-वाउक्काइयस्स वि । णवरं पुरेक्खडा णव वा दस वा । - [१०३२-२] तेजस्कायिक और वायुकायिक की अतीत और बद्ध द्रव्येन्द्रियों के विषय में भी इसी प्रकार (पूर्ववत्) कहना चाहिए। विशेष यह है कि इनकी पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ नौ या दस होती हैं । १०३३.[१] एवं बेइंदियाण वि।णवरं बद्धेल्लगपुच्छाए दोण्णि । _ [१०३३-१] द्वीन्द्रियों की (प्रत्येक की अतीत और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में) भी इसी प्रकार पूर्ववत् कहना चाहिए। विशेष यह कि (इनकी प्रत्येक की) बद्ध (द्रव्येन्द्रियों) की पृच्छा होने पर दो द्रव्येन्द्रियाँ (कहनी चाहिए ।) [२] एवं तेइंदियस्स वि ।णवरं बद्धेल्लगा चत्तारि । [१०३३-२] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय की (अतीत और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में समझना चाहिए ।) विशेष यह कि (इसकी) बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ चार होती हैं । [३] एवं चरि दियस्स वि । नवरं बद्धेल्लगा छ। ___ [१०३३-३] इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय की (अतीत और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में) भी (जानना चाहिए।) विशेष यह कि (इसकी) बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ छह होती हैं । १०३४. पंचेंदियतिरिक्खजोणिय-मणूस-वाणमंतर-जोइसिय-सोहम्मीसाणगदेवस्स जहा Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद: द्वितीय उद्देशक] [२०१ असुरकुमारस्स (सु. १०३१)। णवरं मणूसस्स पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽस्थि अट्ठ वा नव वा संखेजा वा असंखेजी वा अणंता वा । _ [१०३४] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म, ईशान देव की अतीत, बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में (सू. १०३१ में) जिस प्रकार असुरकुमार के विषय में (कहा है, उसी प्रकार समझना चाहिए।) विशेष यह है कि पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ किसी मनुष्य के होती हैं, किसी के नहीं होती। जिसके (पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ) होती हैं, उसके आठ, नौ संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होती हैं । १०३५. सणंकुमार-माहिंद-बंभ-लंतग-सुक्क-सहस्सार-आणय-पाणय-आरण-अच्चुयगेवेजग-देवस्स य जहा नेरइयस्स (सु. १०३०)। . [१०३५] सनत्कुमार, माहेन्द्र, बह्मलोक, लान्तक, शुक्र, सहस्नार, आनन्त, प्राणत, आरण, अच्युत और ग्रैवेयक देव की अतीत, बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में (सू.१०३० में उक्त) नैरयिकों के (अतीतादि के ) समान जानना चाकहए । १०३६. एगमेगस्स णं भंते ! विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियदेवस्स केवतिया दव्विंदिया अतीया? गोयमा ! अणंता । केवतिया बद्धेल्लगा? गोयमा ! अट्ठ । केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! अट्ठ वा सोलस वा चउवीसा वा संखेज्जा वा । [१०३६ प्र.] भगवन् ! एक-एक विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देव की अतीत द्रव्येन्द्रियां कितनी हैं ? [१०३६ उ.] गौतम ! अनन्त हैं । [प्र.] भगवन् ! विजयादि चारों में से प्रत्येक की बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! आठ हैं । [प्र.] भगवन् ! (इनकी प्रत्येक की) पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) आठ, सोलह, चौवीस या संख्यात होती हैं । १०३७. सव्वट्ठसिद्धगदेवस्स अतीता अणंता, बद्धेल्लगा अट्ठ, पुरेक्खडा अट्ठ । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२] • [ प्रज्ञापनासूत्र [१०३७] सर्वार्थसिद्ध देव की (प्रत्येक की) अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त, बद्ध आठ और पुरस्कृत भी आठ होती हैं । १०३८.[१] णेरइयाणं भंते ! केवतिया दव्विंदिया अतीया ? गोयमा ! अणंता । केवतिया बद्धेल्लगा? गोयमा ! असंखेजा। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! अणंता । [१०३८-१ प्र.] भगवन् ! (बहुत-से) नारकों की अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [१०३८-१ उ.] गौतम ! अनन्त हैं । [प्र.] (उनकी) बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! असंख्यात हैं। [प्र.] (उनकी) पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! अनन्त हैं। [२] एवं जाव गेवेजगदेवाणं। णवरं मणूसाणं बद्धेल्लगा सिय संखेजा सिय असंखेज्जा । __[१०३८-२] इसी प्रकार (असुरकुमारों से लेकर) यावत् (बहुत-से) ग्रैवेयक देवों (की अतीत्, बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों) के विषय में (समझ लेना चाहिए।) विशेष यह कि मनुष्यों की बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ संख्यात और कदाचित् असंख्यात होती हैं। १०३९. विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियदेवाणं पुच्छा ? गोयमा ! अतीता अणंता, बद्धेल्लगा असंखेजा, पुरेक्खडा असंखेजा । [१०३९ प्र.] भगवान् ! पृच्छा है कि (बहुत-से) विजय, वेजयन्त, जयन्त और अपराजित देवों की (अतीत, बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी-कितनी हैं ? [१०३९ उ.] गौतम ! (इनकी) अतीत (द्रव्येन्द्रियाँ) अनन्त हैं, बद्ध असंख्यात हैं (और) पुरस्कृत असंख्यात हैं। १०४०. सव्वट्ठसिद्धगदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! अईया अणंता, बद्धेल्लगा संखेजा, पुरेक्खडा Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक] [२०३ संखेजा। - [१०४० प्र.] भगवन् ! सर्वार्थसिद्ध देवों की (अतीत, बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी-कितनी [१०४० उ.] गौतम ! (इनकी) अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध संख्यात हैं (और) पुरस्कृत संख्यात . १०४१.[१] एगमेगस्स णं भंते ! णेरइयस्स णेरइअत्ते केवतिया दव्विंदिया अतीया ? गोयमा ! अणंता । केवतिया बद्धेल्लगा? गोयमा ! अट्ठ । केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽस्थि अट्ठ वा सोलस वा चउवीसा वा संखेजा वा असंखेज्जा वा अणंता वा । [१०४१-१ प्र.] भगवन् ! एक-एक नैरयिक की नैरयिकपन (नारक अवस्था) में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? . [१०४१-१ उ.] गौतम ! अनन्त हैं । [प्र.] बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) आठ हैं । [प्र.] पुरस्कृत (आगामी काल में होने वाली) द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ) किसी (नारक) की होती हैं, किसी की नहीं होती । जिसकी होती हैं, उसकी आठ, सोलह, चौबीस, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होती हैं। [२] एगमेगस्स णं भंते ! णेरइयस्स असुरकुमारत्ते केवतिया दव्विंदिया अतीता ? गोयमा ! अणंता । केवतिया बद्धेल्लगा? गोयमा ! णत्थि । केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अत्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽत्थि अट्ठ वा सोलस वा चउवीसा वा संखेजा वा Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४] असंखेज्जा वा अणंता वा । एवं जाव थणियकुमारत्ते । [१०४१-१ प्र.] भगवन् ! एक-एक नैरयिक की असुरकुमार पर्याय में अतीत (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं? [ प्रज्ञापनासूत्र [१०४१-१ उ.] गौतम ! अनन्त हैं ! [प्र.] बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] (वे) नहीं हैं । [प्र.] पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती, जिसकी होती हैं, उसकी आठ, सोलह, चौवीस, संख्यात, असंख्यात या अनन्त होती हैं। इसी प्रकार एक-एक नैरयिक की (नागकुमारपर्याय से लेकर) यावत् स्तनितकुमारपर्याय में (अतीत, बद्ध एवं पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में कहना चाहिए ।) [ ३ ] एगमेगस्स णं भंते ! णेरइयस्स पुढविकाइयत्ते केवतिया दव्विंदिया अतीया ? गोयमा ! अनंता । केवतिया बद्धेल्लगा ? गोयमा ! णत्थि । केवतिया पुरेक्खडा ? गोयमा ! कस्सइ अत्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽत्थि एक्को वा दो वा तिण्णि वा संखेज वा असंखेज्जा वा अनंता वा । एवं जाव वणप्फइकाइयत्ते । [१०४१-३ प्र.] भगवन् ! एक-एक नैरयिक की पृथ्वीकायपन में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [१०४१-३ उ.] गौतम ! (वे) अनन्त हैं। [प्र.] बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) नहीं हैं । [प्र.] ( भगवन् ! इनकी) पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती । जिसकी होती हैं, उसकी एक, दो, तीन या संख्यात, असंख्यात या अनन्त होती हैं । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक] [२०५ इसी प्रकार एक-एक नारक की अप्कायपर्याय से लेकर यावत् वनस्पतिकायपन में (अतीत, बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में कहना चाहिए ।) [४] एगमेगस्स णं भंते ! णेरइयस्स बेइंदियत्ते केवतिया दव्विंदिया अतीया ? गोयमा ! अणंता। केवतिया बद्धेल्लगा? . .. गोयमा ! णत्थि । केवतिया ! पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽत्थि दो वा चत्तारि वा छ वा संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा । एवं तेइंदियत्ते वि, णवरं पुरेक्खडा चत्तारि वा अट्ठ वा बारस वा संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा । एवं चउरिदियत्ते वि नवरं पुरेक्खडा छ वा बारस वा अट्ठारस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा । [१०४१-४ प्र.] भगवन् ! एक-एक नैरयिक की द्वीन्द्रियपन में कितनी अतीत द्रव्येन्द्रियाँ हैं ? [१०४१-४ उ.] गौतम ! अनन्त हैं । [प्र.] (भगवन् ! वैसी) बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) नहीं हैं । [प्र.] भगवन् ! पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम! किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती। जिसकी होती हैं, उसकी दो, चार, छह, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होती हैं । इसी प्रकार (एक-एक नैरयिक की) त्रीन्द्रियपन में (अतीत और बद्ध द्रव्येन्द्रियों के विषय में समझना चाहिए ।) विशेष यह है कि उसकी पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ चार, आठ या बारह, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होती हैं। इसी प्रकार (एक-एक नैरयिक की) चतुरिन्द्रियपन में (अतीत और बद्ध द्रव्येन्द्रियों) के विषय में जानना चाहिए। विशेष यह है कि उसकी पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ छह, बारह, अठारह, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त हैं। [५] पर्चेदियतिरिक्खजोणियत्ते जहा असुरकुमारत्ते । ... [१०४१-१] (एक-एक नैरयिक की) पंचेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याय में (अतीत, बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६] [प्रज्ञापनासूत्र के विषय में असुरकुमारपर्याय में जिस प्रकार कहा गया है, उसी प्रकार कहना चाहिए ।) [६] मणूसत्ते वि एवं चेव ।णवरं केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! अट्ट वा सोलस वा चउवीसा वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा । सव्वेसिं सवजाणं पुरेक्खडा मणूसत्ते कस्सइ अत्थि कस्सइ णत्थि त्ति एवं ण वुच्चति । [१०४१-६] मनुष्यपर्याय में भी इसी प्रकार अतीतादि द्रव्येन्द्रियों के विषय में कहना चाहिए। [प्र.] विशेष यह है कि पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! आठ, सोलह, चौवीस, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होती हैं । मनुष्यों को छोड़ कर शेष सबकी (तेईस दण्डकों के जीवों की) पुरस्कृत (भावी) द्रव्येन्द्रियाँ मनुष्यपन में किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती, ऐसा नहीं कहना चाहिए । [७] वाणमंतर-जोइसिय-सोहम्मग जाव गेवेजगदेवत्ते अतीया अणंता ; बद्धेल्लगा णत्थि ; पुरेक्खडा कस्सइ अत्थि, कस्सइ णत्थि जस्सऽस्थि अट्ठ वा सोलस वा चउवीसा वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा। . [१०४१-७] (एक-एक नैरयिक की) वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क, सौधर्म से लेकर ग्रैवेयक देव तक के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध नहीं हैं और पुरस्कृत इन्द्रियाँ किसी की हैं, किसी की नहीं है। जिसकी हैं, उसकी आठ, सोलह, चौवीस, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त हैं। [८] एगमेगस्सणं भंते !णेरइयस्स विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियदेवत्ते केवतिया दव्विंदिया अतीया ?.. गोयमा ! णत्थि । केवतिया बद्धेल्लगा? गोयमा ! णत्थि । केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अत्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽथि अट्ठ वा सोलस वा । - [१०४१-८] भगवन् ! एक नैरयिक की विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित-देवत्व के रूप में कितनी अतीत द्रव्येन्द्रियाँ हैं ? [१०४१-८] गौतम ! (वे) नहीं हैं ? [प्र.] भगवन् ! बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक ] हैं। [२०७ [उ.] गौतम ! (वे) नहीं हैं । [प्र.] भगवन् ! पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! किसी की होती हैं, किसी नहीं होती, जिसकी होती हैं, उसकी आठ या सोलह होती [९] सव्वट्ठसिद्धगदेवत्ते अतीया णत्थि; बद्धेल्लगा णत्थि; पुरेक्खडा कस्सइ अत्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽत्थि अट्ठ | [१०४१-१] सर्वार्थसिद्ध-देवपन में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ नहीं हैं, बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ भी नहीं हैं, पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती हैं। जिसकी होती हैं, उसकी आठ होती हैं । १०४२. एवं जहा णेरइयदंडओ णीओ तहा असुरकुमारेण वि णेयव्वो जाव पंचेंदियतिरिक्खजोंणिणं । वरं जस्स सट्टाणे जति बद्धेल्लगा तस्स तइ भाणियव्वा । [१०४२.] जैसे (सू. १०४१-१ से ९ में) नैरयिक ( की नैरपिकादि त्रिविधरूप में पाई जान वाली अतीत, बद्ध एवं पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों) के विषय में दण्डक कहा, उसी प्रकार असुरकुमार के विषय में भी पंचेन्द्रियतियेञ्चयोनिक तक के दण्डक कहने चाहिए । विशेष यह है कि जिसकी स्वस्थान में जितनी बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कही हैं, उसकी उतनी कहनी चाहिए । १०४३. [ १ ] एगमेगस्स णं भंते ! मणूसस्स णेरइयत्ते केवतिया दव्वेंदिया अतीया ? गोयमा ! अनंता । केवतिया बद्धेल्लगा ? गोयमा ! णत्थि | केवतिया पुरेक्खडा ? गोयमा ! कस्सइ अत्थि कस्सइ णत्थि, जस्स ंत्थि अट्ठ वा सोलस वा चडवीसा वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा । [१०४३-१ प्र.] भगवन् ! एक-एक मनुष्य की नैरयिकपन में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [१०४३-१ उ.] गौतम ! (वे) अनन्त हैं । [प्र.] (भगवन् ! उसकी) बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! नहीं हैं । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८] [प्रज्ञापनासूत्र [प्र.] (भगवन् ! उसकी) पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं । [उ.] गौतम! किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती, जिसकी होती हैं, उसकी आठ, सोलह, चौवीस, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होती हैं । [२]एवंजाव पंचेंदियतिरिक्खजोणियत्ते।णवरं एगिदिय-विगलिंदिएसुजस्स जत्तिया पुरेक्खडा तस्स तत्तिया भाणियव्वा । - [१०४३-२] इसी प्रकार यावत् पंचेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याय में (अतीत, बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में ) कहना चाहिए । विशेष यह है कि एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों में से जिसकी जितनी पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कही हैं, उसकी उतनी कहनी चाहिए । [३] एगमेगस्स णं भंते ! मणूसस्स मणूसत्ते केवतिया दव्विंदिया अतीया ? गोयमा ! अणंता । केवतिया बद्धेल्लगा? गोयमा ! अट्ठ। केवतिया पुरेक्खडा? कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽस्थि अट्ठ वा सोलस वा चउवीसा वा संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा। [१०४३-३ प्र.] भगवन् ! मनुष्य की मनुष्यपर्याय में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [१०४३-३ उ.] गौतम ! अनन्त हैं। . [प्र.] बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) आठ हैं। [प्र.] पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी होती है ? [उ.] गौतम (वे) किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती, जिसकी होती हैं, उसकी आठ, सोलह, चौवीस, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होती हैं ? [४] वाणमंतर-जोतिसिय जाव गेवेजगदेवत्ते जहा णेरइयत्ते । [१०४३-४] (एक-एक मनुष्य की) वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और (सौधर्म से लेकर) यावत् ग्रैवेयक देवत्व के रूप में (अतीत, बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में) नैरयिकत्व रूप में उक्त (सू.१०४३-१ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक] [२०९ में उल्लिखित) अतीतादि द्रव्येन्द्रियों के समान समझना चाहिए । [५] एगमेगस्स णं भंते ! विजय-वेजयंत-जयंताऽपराजियदेवत्ते केवइया दव्विंदिया अतीया ? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽत्थि अट्ठ वा सोलस वा । केवतिया बद्धेल्लगा? गोयमा ! णत्थि । केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽस्थि अट्ठ वा सोलस वा । [१०४३-५ प्र.] भगवन् ! एक-एक मनुष्य की विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजितदेवत्व के रूप में कितनी अतीत द्रव्येन्द्रियाँ हैं ? ___ [१०४३-५ उ.].गौतम ! किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती हैं । जिसकी होती हैं, उसकी आठ या सोलह होती हैं। [प्र.] बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! नहीं हैं। [प्र.] पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! किसी की होती हैं और किसी की नहीं होती । जिसकी होती हैं, उसकी आठ या सोलह होती हैं । [६] एगमेगस्स णं भंते ! मणूसस्स सव्वट्ठसिद्धगदेवत्ते केवतिया दव्विंदिया अतीता ? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽत्थि अट्ठ । केवतिया बद्धेल्लगा? गोयमा ! णत्थि । केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽस्थि अट्ठ । [१०४३-६ प्र.] भगवन् ! एक-एक मनुष्य की सर्वार्थसिद्धदेवत्वरूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [१०४३-६ उ.] गौतम ! (वे) किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती हैं । जिसकी होती हैं, उसकी Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०] [प्रज्ञापनासूत्र आठ होती हैं ? [प्र.] (उसकी) बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी होती हैं ? [उ.] गौतम ! नहीं होती हैं । [प्र.] (भगवन् ! उसकी) पुरस्कृत द्रव्येद्रिव्याँ कितनी होती हैं? [उ.] गौतम ! किसी की होती हैं किसी की नहीं होती हैं। जिसकी होती हैं, उसकी आठ होती हैं । १०४४. वाणमंतर-जोतिसिए जहा णेरइए (सु. १०४१)। [१०४४] वाणव्यन्तर और ज्योतिष्क देव की तथारूप में अतीत, बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता (सू. १०४१ में उल्लिखित) नैरयिक की वक्तव्यता के समान कहना चाहिए । १०४५.[१] सोहम्मगदेवे वि जहा णेरइए (सु. १०४१)। णवरं सोहम्मगदेवस्स विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियत्ते केवतिया दक्विंदिया अतीता ? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽस्थि अट्ठ । केवतिया बद्धेल्लगा? गोयमा ! णत्थि । केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽथि अट्ठ वा सोलस वा । सव्वट्ठसिद्धगदेवत्ते जहा णेरइयस्स । [१०४५-१] सौधर्मकल्प देव की (तथारूप में अतीतादि द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता) भी (सू.१०४१ में अंकित) नैरयिक की (वक्तव्यता के समान कहना चाहिए ।) [प्र.] विशेष यह है कि सौधर्मदेव की विजय, वैजयन्त जयन्त और अपराजितदेवत्व के रूप में कितनी अतीत द्रव्येन्द्रियाँ हैं ? [उ.] गौतम ! किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती हैं । जिसकी होती हैं, उसकी आठ होती हैं । [प्र.] (उसकी) बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! नहीं हैं। [प्र.] (उसकी) पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती हैं । जिसकी होती हैं, आठ या सोलह होती हैं। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक] - [२११ (सौधर्मदेव की) सर्वार्थसिद्धदेवत्वरूप में (अतीत, बद्ध, पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता) (सू. १०४१ के अनुसार) नैरकयिक (की वक्तव्यता) के समान (समझनी चाहिए ।) [२] एवं जाव गेवेजगदेवस्स सव्वट्ठसिद्धगदेवत्ते ताव णेयव्वं । [१०४५-२] (ईशानदेव से लेकर) ग्रैवेयकदेव तक की यावत् सर्वार्थसिद्धदेवत्वरूप में अतीत, बद्ध, पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता भी इसी प्रकार कहनी चाहिए । १०४६. [१] एगमेगस्स णं भंते ! विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियत्ते णेरइयत्ते केवतिया दव्विंदिया अतीता ? गोयमा ! अणंता । केवतिया बद्धेल्लगा? गोयमा ! णत्थि । केवतिया पुरेक्खडा? · गोयमा ! णत्थि । [१०४६-१ प्र.] भगवन् ! एक-एक विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देव की नैरयिक के रूप में कितनी अतीत द्रव्येन्द्रियाँ हैं ? [१०४६-१] गौतम ! अनन्त हैं । [प्र.] (उसकी) बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! नहीं हैं। [प्र.] (उसकी) पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! नहीं हैं। [२] एवं जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणियत्ते । [१०४६-२] इन चारों की प्रत्येक की, असुरकुमारत्व से लेकर यावत् पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकत्वरूप में (अतीत, बद्ध, पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता भी) इसी प्रकार (समझनी चाहिए ।) [३] मणूसत्ते अतीया अणंता, बद्धेल्लगा णत्थि, पुरेक्खडा अट्ठ वा सोलस वा चउवीसा वा संखेजा वा । [१०४६-३] (इन्हीं की प्रत्येक की) मनुष्यत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध नहीं हैं, Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२] [प्रज्ञापनासूत्र पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ आठ, सोलह या चौवीस होती हैं, अथवा संख्यात होती हैं । [४] वाणमंतर-जोतिसियत्ते जहा णेरइयत्ते (सु. १०४१)। [१०४६-४] (इन्हीं की प्रत्येक की) वाणव्यन्तर एवं ज्योतिष्क देवत्व के रूप में (अतीत, बद्ध, पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता सू. १०४१ में उल्लिखित) नैरयिकत्वरूप की अतीतादि की वक्तव्यता के अनुसार (कहना चाहिए ।) __ [५] सोहम्मगदेवत्ते अतीया अणंता । बद्धेल्लगा णत्थि । पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सई णत्थि, जस्सऽत्थि अट्ठ वा सोलस वा चउवीसा वा संखेजा वा । [१४६-५] (इन चारों की प्रत्येक की) सौधर्मदेवत्वरूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध नहीं है और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती हैं । जिसकी होती हैं, उसकी आठ, सोलह, चौवीस अथवा संख्यात होती हैं । [६] एवं जाव गेवेजगदेवत्ते । । [१०४६-६] (इन्हीं चारों की प्रत्येक की) (ईशानदेवत्व से लेकर) यावत् ग्रैवेयकदेवत्व के रूप में (अतीतादि द्रव्येन्द्रियों को वक्तव्यता) इसी प्रकार (समझनी चाहिए ।) [७] विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियत्ते अतीया कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽस्थि अट्ठ। केवतिया बद्धेल्लगा? गोयमा ! अट्ठ। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽत्थि अट्ठ।। [१०४६-७] (इन चारों की प्रत्येक की) विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ किसी की होती हैं और किसी की नहीं होती हैं । जिसकी होती हैं उसकी आठ होती हैं । [प्र.] बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) आठ हैं । [प्र.] कितनी पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ हैं ? [उ.] गौतम ! किसी की होती हैं और किसी की नहीं होती हैं, जिसकी होती हैं , उसके आठ होती हैं। [८] एगमेगस्स णं भंते ! विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियदेवस्स सव्वट्ठसिद्धगदेवत्ते केवतिया Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक ] [२१३ दव्विंदिया अतीया ? गोयमा ! णत्थि । केवतिया बद्धेल्लगा? गोयमा ! त्थि । केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽत्थि अट्ठ । [१०४६-८ प्र.] भगवन् ! एक-एक विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपरजित देव की सर्वार्थसिद्धदेवत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? . [१०४६-८ उ.] गौतम ! (वे) नहीं हैं। [प्र.] बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) नहीं हैं। [प्र.] पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती हैं । जिसकी होती हैं, वे आठ होती हैं । १०४७.[१] एगमेगस्स णं भंते ! सव्वट्ठसिद्धगदेवस्स णेरइयत्ते केवतिया दव्विंदिया अतीया ? गोयमा ! अणंता । केवतिया बद्धेल्लगा? गोयमा ! णत्थि । केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! णत्थि । [१०४७-१ प्र.] भगवन् ! एक -एक सर्वार्थसिद्धदेव की नारकपन में कितनी द्रव्येन्द्रियाँ अतीत हैं ? - [१०४७-१ उ.] गौतम ! अनन्त हैं। [प्र.] (उसकी) बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! नहीं हैं। [प्र.] कितनी पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ हैं ? Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४] [प्रज्ञापनासूत्र [उ.] गौतम ! नहीं हैं। [२] एवं मणूसवजं जाव गेवेजगदेवत्ते । णवरं मणूसत्ते अतीया अणंता । केवतिया बद्धेल्लगा? गोयमा ! णत्थि । केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! अट्ठ । [१०४७-२] इसी प्रकार (असुरकुमारत्व से लेकर) मनुष्यत्व को छोड़कर यावत् ग्रैवेयकदेवत्वरूप में (एक-एक सर्वार्थसिद्धदेव की) (अतीतादि द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता समझनी चाहिए।) विशेष यह है कि (एक-एक सर्वार्थसिद्धदेव की) मनुष्यत्वरूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं । [प्र.] बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) नहीं हैं । [प्र.] पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) आठ हैं । [३] विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियदेवत्ते अतीया कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽस्थि अट्ठ।. केवतिया बद्धेल्लगा? गोयमा ! णत्थि । केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! णत्थि । [१०४७-३] (एक-एक सर्वार्थसिद्धदेव की) विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजितदेवत्वरूप में अतीत (द्रव्येन्द्रियाँ) किसी की हैं और किसी की नहीं हैं । जिसकी होती हैं , वे आठ होती हैं। [प्र.] (उसकी) बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! नहीं है। [प्र.] कितनी पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) हैं ? [उ.] गौतम ! नहीं हैं। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक] [२१५ [४] एगमेगस्स णं भंते ! सव्वट्ठसिद्धगदेवस्स सव्वट्ठसिद्धगदेवत्ते केवतिया दक्विंदिया अतीया? गोयमा ! णत्थि । केवतिया बद्धेल्लगा? गोयमा ! अट्ठ। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! णत्थि । [१०४७-४ प्र.] भगवन् ! एक-एक सर्वार्थसिद्धदेव की सर्वार्थसिद्धदेवत्वरूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [१०४७-४] गौतम ! नहीं है । [प्र.] (उसकी) बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) आठ हैं। [प्र.] उसकी पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) नहीं है । १०४८.[१] णेरइयाणं भंते ! णेरइयत्ते केवइया दव्विंदिया अतीया ? गोयमा ! अणंता । केवतिया बद्धेल्लगा? गोयमा ! असंखेजा। केवतिया पुरेक्खा ? गोयमा ! अणंता । [१०४८-१ प्र.] भगवन् ! (बहुत-से) नैरयिकों की नारकत्वरूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी है ? [१०४८-१ उ.] गौतम ! (वे) अनन्त हैं । [प्र.] (उनकी) बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) असंख्यात हैं। [प्र.] (उनकी) पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ ] हैं ?) [उ.] गौतम ! (वें) अनन्त हैं । [ २ ] णेरइयाणं भंते ! असुरकुमारत्ते केवतिया दव्विंदिया अतीता ? गोयमा ! अनंता । केवतिया बद्धेल्लगा ? गोयमा ! णत्थि | केवतिया पुरेक्खडा ? गोयमा ! अनंता । [१०४८-२ प्र.] भगवन् ! (बहुत-से) नैरयिकों की असुरकुमारत्वरूप में (अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी [१०४८-२] गौतम ! (वे) अनन्त हैं । [प्र.] (उनकी) बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! नहीं हैं । [ प्रज्ञापनासूत्र [प्र.] (उनकी) पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! अनन्त हैं । [ ३ ] एवं जाव गेवेज्जगदेवत्ते । [१०४८-३] (बहुत-से नारकों की) नागकुमारत्व से लेकर यावत् ग्रैवेयकदेवत्रूप में (अतीत बद्ध पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता भी इसी प्रकार (पूर्ववत्) जाननी चाहिए ।) [ ४ ] णेरड्याणं भंते ! विजय- वेजयंत- जयंत अपराजियदेवत्ते केवतिया दव्विंदिया अतीता ? णत्थि । केवतिया बद्वेल्लगा ? णत्थि । केवतिया पुरेक्खडा ? असंखेजा । [१०४८-४ प्र.] भगवन् ! ( बहुत-से ) नैरयिकों की विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवत्व के Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक] [२१७ रूप के अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? · [१०४८-४ उ.] गौतम ! नहीं हैं । [प्र.] (उनकी) बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] (गौतम !) नहीं हैं । [प्र.] (उनकी) पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] (गौतम !) असंख्यात हैं । [५] एवं सव्वट्ठसिद्धगदेवत्ते वि। [१०४८-५] (नैरयिकों की) सर्वार्थसिद्धदेवत्व रूप में (अतीत बद्ध पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता) भी इसी प्रकार (जाननी चाहिए ।). १०४९. एवं जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं सव्वट्ठसिद्धगदेवत्ते भाणियव्वं । णवरं वणस्सइकाइयाणं विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियदेवत्ते सव्वट्ठसिद्धगदेवत्ते य पुरेक्खडा अणंता; सव्वेसिं मणूस-सव्वट्ठसिद्धगवजाणं सट्टाणे बद्धेल्लगा असंखेजा, परट्ठाणे बद्धेल्लगा णत्थि; वणस्सइकाइयाणं सट्ठाणे बद्धेल्लगा अणंता । [१०४९] (असुरकुमारों से लेकर) यावत् (बहुत-से) पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों की (नैरयिकत्व से लेकर) सर्वार्थसिद्ध देवत्वरूप (तक) में (अतीत, बद्ध, पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की) प्ररूपणा इसी प्रकार (पूर्ववत्) करनी चाहिए। - विशेष यह है कि वनस्पतिकायिकों की, विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवत्व तथा सर्वार्थसिद्धदेवत्व के रूप में पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं। मनुष्यों और सर्वार्थसिद्धदेवों को छोड़कर सबकी स्वस्थान में बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) असंख्यात हैं, परस्थान में बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) नहीं हैं । वनस्पतिकायिकों की स्वस्थान में बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं । १०५०. [१] मणुस्साणं णेरइयत्ते अतीता अणंता, बद्धेल्लगा णत्थि, पुरेक्खडा अणंता । [१०५०-१] मनुष्यों की नैरयिकत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ नहीं हैं और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं । [२] एवं जाव गेवेजगदेवत्ते । णवरं सट्ठाणे अतीता अणंता, बद्धेल्लगा सिय संखेज्जा सिय असंखेजा, पुरेक्खडा अणंता । . [१०५०-२] मनुष्यों की (असुरकुमारत्व से लेकर) यावत् ग्रैवेयकदेवत्वरूप में (अतीत, बद्ध, पुरस्कृत Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८] [प्रज्ञापनासूत्र द्रव्येन्द्रियों की प्ररूपणा) इसी प्रकार (पूर्ववत्) (समझनी चाहिए ।) विशेष यह है कि (मनुष्यों की) स्वस्थान में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात हैं और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं । [३] मणूसाणं भंते ! विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियदेवत्ते केवतिया दव्विंदिया अतीता ? संखेजा। केवतिया बद्धेल्लगा? णत्थि । केवतिया पुरेक्खडा? सिय संखेजा सिय असंखेज्जा । एवं सव्वट्ठसिद्धगदेवत्ते वि । [१०५०-३ प्र.] भगवन् ! मनुष्यों की विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित-देवत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [१०५०-३ उ.] (गौतम ! वे) संख्यात हैं । [प्र.] (उनकी) बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] (गौतम !) नहीं हैं। [प्र.] (उनकी) पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] (गौतम ! वे) कदाचित् संख्यात हैं, कदाचित् असंख्यात हैं । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्ध देवत्वरूप में भी (अतीत, बद्ध, पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता समझ लेनी चाहिए)। १०५१. वाणमंतर-जोइसियाणं जहा णेरड्याणं (सु. १०४८)। [१०५१] (बहुत-से) वाणव्यन्तर और ज्योतिष्क देवों की अतीत, बद्ध, पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियों) की वक्तव्यता (नैरयिकत्व से लेकर सर्वार्थसिद्धदेवत्व रूप तक में सू. १०४८ में उक्त) नैरयिकों की (वक्तव्यता के समान जानना चाहिए)। १०५२. सोहम्मगदेवाणं एवं चेव । णवरं विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियदेवत्ते अतीता असंखेजा, बद्धेल्लगा णत्थि, पुरेक्खडा असंखेजा । सव्वट्ठसिद्धगदेवत्ते अतीता णत्थि, बद्धेल्लगा णत्थि, पुरेक्खडा असंखेजा। [१०५२.] सौधर्म देवों की अतीतादि की वक्तव्यता इसी प्रकार है। विशेष यह है कि विजय, वैजयन्त, जयन्त तथा अपराजितदेवत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ असंख्यात हैं, बद्ध नहीं है तथा पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक ] [२१९ असंख्यात हैं । सर्वार्थसिद्धदेवत्व रूप में अतीत नहीं हैं, बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ भी नहीं हैं, किन्तु पुरस्कृत द्रव्येन्दियाँ असंख्यात हैं। १०५३. एवं जाव गेवेजगदेवाणं । [१०५३] (बहुत-से) (ईशानदेवों से लेकर) यावत् ग्रैवेयक देवों की (अतीत, बद्ध, पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता भी) इसी प्रकार (समझनी चाहिए) । १०५४. [४] विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियदेवाणं भंते ! णेरइयत्ते केवतिया दव्वेंदिया अतीता? गोयमा ! अणंता। केवतिया बद्धेल्लगा? णत्थि । . केवतिया पुरेक्खडा? णत्थि । [१०५४-१ प्र.] भगवन् ! विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवों की नैररिकत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [१०५४-१ उ.] गौतम ! (वे) अनन्त हैं ? [प्र..] (उनकी) बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] (गौतम !) नहीं हैं। [प्र.] (उनकी) पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] (गौतम !) नहीं है। [२] एवं जाव जोइसियत्ते । णवरमेसिं मणूसत्ते अतीया अणंता; केवतिया बद्धेल्लगा ? णत्थि; पुरेक्खडा असंखेजा। [१०५४-२] इसी प्रकार यावत् ज्योतिष्कदेवत्वरूप में भी (अतीत, बद्ध, पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में कहना चाहिए।) विशेष यह है कि इनकी मनुष्यत्वरूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं। [प्र.] (इनकी) बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं । [उ.] (गौतम !) नहीं हैं। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० ] [प्र.] (उनकी) पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी है ? [उ.] ( गौतम ! वे) असंख्यात हैं ? [ ३ ] एवं जाव गेवेज्जगदेवत्ते । सट्ठाणे अतीता असंखेजा । केवतिया बद्धेल्लगा ? असंखेज्जा केवतिया पुरेक्खडा ? असंखेज्जा । [१०५४-३] (विजयादि चारों की) सौधर्मादि देवत्व से लेकर यावत् ग्रैवेयकदेवत्व के रूप में अतीतादि द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता इसी प्रकार है। इनकी स्वस्थान में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ असंख्यात हैं । [प्र.] बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] असंख्यात हैं । [प्र.] (उनकी) पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] (गौतम ! पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ) असंख्यात हैं । [ ४ ] सव्वट्टसिद्धगदेवत्ते अतीता णत्थि, बद्धेल्लगा णत्थि, पुरेक्खडा असंखेज्जा । [१०५४-४] (इन चारों देवों) की सर्वार्थसिद्धदेवत्व रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ नहीं हैं, बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ भी नहीं हैं, किन्तु पुरस्कृत असंख्यात हैं । १०५५. [ १ ] सव्वट्टसिद्धगदेवाणं भंते ! णेरइयत्ते केवतिया दव्वेंदिया अतीता ? गोयमा ! अनंता । केवतिया बद्वेल्लगा ? णत्थि । [ प्रज्ञापनासूत्र केवतिया पुरेक्खडा ? णत्थि । [१०५५-१ प्र.] भगवन् ! सर्वार्थसिद्ध देवों की नैरयिकत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [१०५५ - १ उ.] गौतम ! (वे) अनन्त हैं । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक] [२२१ [प्र.] (उनकी) बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] (गौतम !) नहीं हैं। [प्र.] (उनकी) पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] (गौतम !) नहीं हैं। [२] एवं मणूसवजं जाव गेवेजगदेवत्ते ।। [१०५५-२] मनुष्य को छोड़ कर यावत् ग्रैवेयकदेवत्व तक के रूप में भी इसी प्रकार (इनकी अतीतादि द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता कहनी चाहिए ।) [३] मणूसत्ते अतीता अणंता, बद्धेल्लगा णत्थि, पुरेक्खडा संखेजा। [१०५५-३] (इनकी) मनुष्यत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध नहीं हैं, पुरस्कृत संख्यात [४] विजय-वेजयंत-जयंतापराजियदेवत्ते केवतिया दव्विंदिया अतीता ? संखेज्जा। केवतिया बद्धेल्लगा? नत्थि । केवतिया पुरेक्खडा? णत्थि । [१०५५-४ प्र.] विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवत्व के रूप में इनकी अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं? [१०५५-४ उ.] (वे) संख्यात हैं । [प्र.] (इनकी) बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] (गौतम !) नहीं हैं । [प्र.] उनकी पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] (गौतम !) नहीं हैं। [५] सव्वट्ठसिद्धगदेवाणं भंते ! सव्वट्ठसिद्धगदेवत्ते केवतिया दव्विंदिया अतीता ? Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२] [प्रज्ञापनासूत्र णस्थि । केवतिया बद्धेल्लगा? संखेजा। केवइया पुरेक्खडा? णत्थि । ११ दारं ॥ [१०५५-५ प्र.] भगवन् ! सर्वार्थसिद्ध देवों की सर्वार्थसिद्धदेवत्व रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [१०५५-५ उ.] गौतम ! (वे) नहीं हैं । [प्र.] बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] (गौतम ! वे) संख्यात हैं । [प्र.] (उनकी) पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] (गौतम ! वे) नहीं है। ॥११ द्वार ॥ विवेचन - चौवीस दण्डकों की अतीत, बद्ध, पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की प्ररूपणा - प्रस्तुत ग्यारहवें द्वार के अन्तर्गत नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक समस्त जीवों की अतीत, बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की एकत्व, बहुत्व आदि विभिन्न पहलुओं से प्ररूपणा की गई है। अतीतादि का स्वरूप- अतीत का अर्थ - भूतकालीन द्रव्येन्द्रियाँ, बद्ध का अर्थ है- वर्तमान में प्राप्त द्रव्येन्द्रियाँ एवं पुरस्कृत यानी आगामीकाल में प्राप्त होने वाली द्रव्येन्द्रियाँ । चार पहलुओं से अतीतादि द्रव्येन्द्रियों की प्ररूपणा - (१) एक-एक नैरयिक से लेकर एक-एक सर्वार्थसिद्धदेव तक की अतीत, बद्ध, पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की प्ररूपणा, (२) बहुत-से नैरयिकों से लेकर बहुतसे सर्वार्थसिद्ध देवों तक की अतीतादि द्रव्येन्द्रियों की प्ररूपणा, (३) एक-एक नैरयिक से लेकर सर्वार्थसिद्ध देवों तक की नैरयिकत्व से लेकर सर्वार्थसिद्धत्व के रूप के अतीतादि द्रव्येन्द्रियों की प्ररूपणा और (४) बहुतसे नैरयिकों से सर्वार्थसिद्धत्व देवों तक की नैरयिकत्व से सर्वार्थसिद्धदेवत्व के रूप में अतीतादि द्रव्येन्द्रियों की प्ररूपणा । एक नैरयिक की पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ - एक-एक जीवविषयक पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ आठ, सोलह, सत्रह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त बताई गई हैं, वे इस प्रकार से हैं - जो नारक अगले ही भव में मनुष्यपर्याय प्राप्त करके सिद्ध हो जाएगा, उसकी मनुष्यभवसम्बन्धी आठ ही द्रव्येन्द्रियाँ होंगी। जो नारक नरक से निकल पंचेन्द्रियतिर्यचयोनि में उत्पन्न होगा और फिर मनुष्यगति प्राप्त करके सिद्धि प्राप्त करेगा, उसकी तिर्यचभवसम्बन्धी Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद: द्वितीय उद्देशक] [२२३ आठ और मनुष्यभवसम्बन्धी आठ, यों कुल मिलकर सोलह होंगी। जो नारक नरक से निकलकर पंचेन्द्रियतिर्यच होगा, तदनन्तर एकेन्द्रियकाय में उत्पन्न होगा और फिर मनुष्यभव पाकर सिद्ध हो जाएगा, उसकी पंचेन्द्रियतिर्यचभव की आठ, एकेन्द्रियभव की एक और मनुष्यभव की आठ, यों सब मिलकर सत्तरह द्रव्येन्द्रियाँ होंगी। जो नारक संख्यातक र के परिभ्रमण करेगा. उसकी संख्यात. जो असंख्यात काल तक भवभ्रमण करेगा उसकी असंख्यात और जो अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण करेगा, उसकी अनन्त पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ होंगी। मनुष्य की आगामी ( पुरस्कृत) द्रव्येन्द्रियाँ - किसी मनुष्य की होती हैं और किसी की नहीं भी होती हैं। जो मनुष्य उसी भव से सिद्ध हो जाते हैं, उनकी नहीं होती हैं, शेष मनुष्य की होती हैं तो वे आठ, नौ, संख्यात अथवा अनन्त होती हैं। वह यदि अनन्तरभव में पुनः मनुष्य होकर सिद्ध हो जाता है तो उसकी आठ द्रव्येन्द्रियाँ होती हैं। जो मनुष्य पृथ्वीकायादि में एक भव के पश्चात् मनुष्य होकर सिद्धिगामी होता है, उसकी ९ इन्द्रियाँ होती हैं। शेष भावना पूर्ववत् समझनी चाहिए। असुरकुमारों की पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ - असुरकुमार के भव से निकलने के पश्चात् मनुष्यत्व को प्राप्त कर जो सिद्ध होता है, उसकी पुरस्कत द्रव्येन्द्रियाँ ८ होती हैं। ईशानपर्यन्त एक-एक असुरकुमारादि पृथ्वीकाय, अप्काय एवं वनस्पतिकाय में उत्पन्न होता है, वह अनन्तर भव में पृथ्वीकायादि किसी एकेन्द्रिय में जाकर तदनन्तर मनुष्यभव प्राप्त करके सिद्ध हो जाता है, उसके नौ पुरस्कृत इन्द्रियाँ होती हैं । संख्यातादि की भावना पूर्ववत् समझनी चाहिए। पृथ्वी-अप्-वनस्पतिकाय की पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ - पृथ्वीकायादि मर कर अनन्तर मनुष्यों में उत्पन्न होकर सिद्ध होते हैं, उनमें जो अनन्तरभव में मनुष्यत्व को प्राप्त करके सिद्ध हो जाता है, उसकी मनुष्यभव सम्बन्धी आठ इन्द्रियाँ होगी । जो पृथ्वीकायादि अनन्तर एक पृथ्वीकायादि भव पाकर तदनन्तर मनुष्य होकर सिद्ध हो जाते हैं, उनकी ९ इन्द्रियाँ होंगी। तेजस्कायिक-वायुकायिक एवं विकलेन्द्रिय की पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ - तेजस्कायिक और वायुकायिक मरकर तदनन्तर मनुष्यभव नहीं प्राप्त करते । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव अनन्तर आगामी भव में मनुष्यत्व तो प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकते, अतएव उनकी जघन्य नौ-नौ इन्द्रियाँ कहनी चाहिए। शेष प्ररूपणा पूर्वोक्तानुसार समझनी चाहिए। सनत्कुमारादि की पुरस्कृत इन्द्रियाँ - सनत्कुमारादि देव च्यव करके पृथ्वीकायादि में उत्पन्न नहीं होते, किन्तु पंचेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं । अतएव उनका कथन नैरयिकों की तरह समझना चाहिए। विजयादि चार की पुरस्कृत इन्द्रियाँ - जो अनन्तरभव में ही मनुष्यभव प्राप्त करके सिद्ध होगा, उसकी ८ इन्द्रियाँ होती हैं। जो एक वार मनुष्य होकर पुनः मनुष्यभव पाकर सिद्ध होगा, उसके १६ इन्द्रियाँ होती है। जो बीच में एक देवत्व का अनुभव करके मनुष्य होकर सिद्धिगामी हो तो उसके २४ इन्द्रियाँ होती हैं। मनुष्यभव में आठ, देवभव में ८ और पुनः मनुष्यभव में आठ, यों कुल २४ इन्द्रियाँ होंगी। विजयादि चार विमानगत देव Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४] [ प्रज्ञापनासूत्र प्रभूत असंख्यातकाल या अनन्तकाल तक संसार में नहीं रहते। इस कारण उनकी आगामी द्रव्येन्द्रियाँ संख्यात ही कही हैं, असंख्यात या अनन्त नहीं। सर्वार्थसिद्धदेव की पुरस्कृत इन्द्रियाँ- सर्वार्थसिद्धविमान के देव नियमतः अगले भव में सिद्ध होते हैं, इस कारण उनकी आगामी द्रव्येन्द्रियाँ ८ ही कही हैं । अनेक मनुष्यों की बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ - कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात होती हैं। इसका कारण यह है कि किसी समय सम्मूछिम मनुष्य सर्वथा नहीं होते, तब मनुष्यों की बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ संख्यात होती हैं, क्योंकि गर्भज मनुष्य संख्यात ही होते हैं, किन्तु जब सम्मूछिम मनुष्य भी होते हैं, तब बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ असंख्यात होती हैं। नारक की नारकभव अवस्था में भावी द्रव्येन्द्रियाँ - किसी नारक की भविष्यत्कालिक द्रव्येन्द्रियाँ होती हैं किसी की नहीं होती हैं। जो नारक नरक से निकलकर फिर कभी नारक पर्याय में उत्पन्न नहीं होगा, उसकी भावी द्रव्येन्द्रियाँ नहीं होती हैं । जो नारक कभी पुनः नारक में उत्पन्न होगा, उसकी होती हैं। अगर वह एक ही वार उत्पन्न होने वाला हो तो उसकी आठ, दो वार नारकों में उत्पन्न होने वाला हो तो सोलह, तीन वार उत्पन्न होने वाला हो तो चौवीस, संख्यात वार उत्पन्न होने वाला हो तो संख्यात और असंख्यात या अनन्त वार उत्पन्न होने वाला हो तो भावी द्रव्येन्द्रियाँ भी क्रमशः असंख्यात या अनन्त होती हैं। ___ एक नारक की पृथ्वीकायपने में अतीत बद्ध इन्द्रियाँ - एक नारक की अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त होती हैं । बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ बिलकुल नहीं होती हैं, क्योंकि नरकभव में वर्तमान नारक का पृथ्वीकायिक के रूप में वर्तमान होना संभव नहीं है, इस कारण बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ नहीं होती हैं। ___विजयादि पांच अनुत्तरौपपातिकदेवों की अतीतादि द्रव्येन्द्रियाँ - जो जीव एक वार विजयादि विमानों में उत्पन्न हो जाता हैं, उसका फिर से नारकों, तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों, वाणव्यन्तरों और ज्योतिष्कों में जन्म नहीं होता। अत: उनमें नारकादि संबंधी द्रव्येन्द्रियाँ सम्भव नहीं हैं। सर्वार्थसिद्ध देवों के रूप में अतीत और बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ नहीं होती हैं। नारकजीव अतीतकाल में कभी सर्वार्थसिद्ध जीव हुआ नहीं है। अतः सर्वार्थसिद्धदेवत्व रूप में उसकी द्रव्येन्द्रियाँ असम्भव हैं । सर्वार्थसिद्ध विमान में एक वार उत्पन्न होने के पश्चात् मनुष्यभव पाकर जीव सिद्धि प्राप्त कर लेता है। वनस्पतिकायिकों की विजयादि के रूप में भावी द्रव्येन्द्रियाँ - अनन्त हैं, क्योंकि वनस्पतिकायिक जीव अनन्त होते हैं । बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ - मनुष्य और सर्वार्थसिद्ध देवों को छोड़कर सभी की स्वस्थान में बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ असंख्यात जाननी चाहिए। परस्थान में बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ होती नहीं हैं। क्योंकि जो जीव जिस भव में वर्तमान है, वह उसके अतिरिक्त परभव में वर्तमान नहीं हो सकता । वनस्पतिकायिकों की बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ असंख्यात होती Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक] [२२५ हैं: क्योंकि वनस्पतिकायिकों के औदारिकशरीर असंख्यात ही होते हैं।' बारहवाँ भावेन्द्रियद्वार १०५६. कति णं भंते ! भाविंदिया पण्णत्ता? गोयमा ! पंच भाविंदिया पण्णत्ता । तं जहा- सोइंदिए जाव फासिदिए। [१०५६ प्र.] भगवन् ! भावेन्द्रियाँ कितनी कही गई हैं ? [१०४६ उ.] गौतम ! भावेन्द्रियाँ पांच कही हैं, वे इस प्रकार - श्रोत्रेन्द्रिय से (लेकर) स्पर्शेन्द्रिय तक। १०५७. णेइयाणं भंते ! कति भाविंदिया पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच भाविंदिया पण्णत्ता । तं जहा- सोइंदिए जाव फासेंदिए। एवं जस्स जति इंदिया तस्स तत्तिया भाणियव्वा जाव तेमाणियाणं। [१०५७ प्र.] भगवन् ! नैरयिकों की कितनी भावेन्द्रियाँ कही गई हैं ? • [१०५७ उ.] गौतम ! भावेन्द्रियाँ पांच कही हैं, वे इस प्रकार- श्रोत्रेन्द्रिय से स्पर्शेन्द्रिय तक। इसी प्रकार जिसकी जितनी इन्द्रियाँ हों, उतनी वैमानिकों तक भावेन्द्रियाँ कह लेनी चाहिए। १०५८. एगमेगस्स णं भंते ! णेरइयस्स केवतिया भाविंदिया अतीता ? गोयमा ! अणंता। केवतिया बद्धेल्लगा? पंच । केवतिया पुरेक्खडा? पंच वा दस वा एक्कारस वा संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा । . [१०५८ प्र.] भगवन् ! एक-एक नैरयिक के कितनी अतीत भावेन्द्रियाँ हैं ? [१०५८ उ.] गौतम ! वे अनन्त हैं । [प्र.] (उनकी) कितनी (भावेन्द्रियाँ) बद्ध हैं ? [उ.] (गौतम !) (वे) पांच हैं । [प्र.] (उनकी) पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ कितनी कही हैं ? [उ.] (गौतम !) वे पांच हैं, दस हैं, ग्यारह हैं, संख्यात हैं या असंख्यात हैं अथवा अनन्त हैं। १०५९. एवं असुरकुमारस्स वि। णवरं पुरेक्खडा पंच वा छ वा संखेज्जा वा असंखेजा वा अणंता वा। एवं जाव थणियकुमारस्स । १. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ३१५-३१६ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६] [प्रज्ञापनासूत्र [१०५९] इसी प्रकार असुरकुमारों की (भावेन्द्रियों के विषय में कहना चाहिए।) विशेष यह है कि पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ पांच, छह, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त हैं । ___इसी प्रकार स्तनितकुमार तक की (भावेन्द्रियों के विषय में समझ लेना चाहिए ।) १०६०. एवं पुढविकाइय-आउकाइय-वणस्सइकाइयस्स वि, बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिदियस्स वि। तेउक्काइय-वाउक्काइयस्स वि एवं चेव, णवरं पुरेक्खडा छ वा सत्त वा संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा। [१०६०] इसी प्रकार (एक-एक) पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय की तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय की, तेजस्कायिक एवं वायुकायिक की (अतीतादि भावेन्द्रियों के विषय में कहना चाहिए।) विशेष यह है कि (इनकी) पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ छह, सात, संख्यात, असंख्यात या अनन्त होती हैं । १०६१. पंचेंदियतिरिक्खजोणियस्स जाव ईसाणस्स जहा असुरकुमारस्स (सु. १०५९)।णवरं मणूसस्स पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि ति भाणियव्वं । [१०६१] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक से लेकर यावत् ईशानदेव की अतीतादि भावेन्द्रियों के विषय में (सू. १०५९ में उक्त) असुरकुमारों की भावेन्द्रियों की प्ररूपणा की तरह कहना चाहिए। विशेष यह कि मनुष्य की पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती हैं; इस प्रकार (सब पूर्ववत्) कहना चाहिए । १०६२. सणंकुमार जाव गेवेजगस्स जहा णेरइयस्स (सु. १०५७-५८)। [१०६२] सनत्कुमार से लेकर ग्रैवेयकदेव तक की (अतीतादि भावेन्द्रियों का कथन) (सू. १०५७१०५८ में उक्त) नैरयिकों की वक्तव्यता के समान करना चाहिए । १०६३. विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियदेवस्स अतीता अणंता, बद्धेल्लगा पंच, पुरेक्खडा पंच वा दस वा पण्णरस वा संखेजा वा। सव्वट्ठसिद्धगदेवस्स अतीता अणंता, बद्धेल्लगा पंच। केवतिया पुरेक्खडा? पंच। [१०६३] विजय, वैजयन्त, जयन्त एवं अपराजित देव की अतीत भावेन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध पांच हैं और पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ पांच, दस, पन्द्रह या संख्यात हैं । सर्वार्थसिद्धदेव की अतीत भावेन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध पांच हैं। . [प्र.] पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] वे पांच हैं। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक] [२२७ १०६४. णेरइयाणं भंते ! केवतिया भाविंदिया अतीता ? गोयमा ! अणंता । केवतिया बद्धेल्लगा? असंखेजा। केवतिया पुरेक्खडा ? अणंता । एवं जहा दव्विदिएसु पोहत्तेणं दंडओ तहा भाविंदिएसु वि पोहत्तेणं दंडओ भाणियव्वो, णवरं वणस्सइकाइयाणं बद्धेल्लगा वि अणंता । [१०६४ प्र.] भगवन् ! (बहुत-से) नैरयिकों की अतीत भावेन्द्रियाँ कितनी हैं ? [१०६४ उ.] गौतम ! वे अनन्त हैं । [प्र.] (भगवन् ! उनकी) बद्ध भावेन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] (वे) असंख्यात हैं। [प्र.] भगवन् ! पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ कितनी हैं ? . [उ.] गौतम ! वे अनन्त हैं । इसी प्रकार जैसे- द्रव्येन्द्रियों में पृथक्त्व (बहुवचन से) दण्डक कहा है, इसी प्रकार भावेन्द्रियों में भी पृथक्त्व (बहुवचन से) दण्डक कहना चाहिए। विशेष यह है कि वनस्पतिकायिकों की बद्ध भावेन्द्रियाँ अनन्त हैं। १०६५. एगमेगस्स णं भंते ! णेरइयस्स णेरइयत्ते केवइया भाविंदिया अतीता? गोयमा ! अणंता, बद्धेल्लगा पंच, पुरेक्खडा कस्सइ अत्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽत्थि पंच वा दस वा पण्णरस वा संखेज्जा वा असंखेजा वा अणंता वा । एवं असुरकुमारत्ते जाव थणियकुमारत्ते, णवरं बद्धेल्लगा णस्थि । [१०६५ प्र.] भगवन् ! एक-एक नैरयिक की नैरयिकत्व के रूप में कितनी अतीत भावेन्द्रियाँ हैं ? [१०६५ उ.] गौतम ! वे अनन्त हैं । इसकी बद्ध भावेन्द्रियाँ पाँच हैं और पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती हैं। जिसकी होती हैं, उसकी पांच, दस, पन्द्रह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त होती हैं। ___इसी प्रकार (एक-एक नैरयिक की) असुरकुमारत्व से लेकर यावत् स्तनितकुमारत्व के रूप में (अतीतादि भावेन्द्रियों का कथन करना चाहिए।) विशेष यह है कि इसकी बद्ध भावेन्द्रियाँ नहीं हैं। १०६६.[१] पुढविक्काइयत्ते जाव बेइंदियत्ते जहा दव्विंदिया । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र [१०६६-१] (एक-एक नैरयिक की) पृथ्वीकायत्व से लेकर यावत् द्वीन्द्रियत्व के रूप में (अतीतादि भावेन्द्रियों का कथन ) द्रव्येन्द्रियों की तरह ( कहना चाहिए।) २२८] [ २ ] तेइंदियत्ते तहेव, णवरं पुरेक्खडा तिण्णि वा छ वा णव वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अनंता वा । [१०६६-२] त्रीन्द्रियत्व के रूप में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। विशेष यह कि (इनकी) पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ तीन, छह, नौ, संख्यात, असंख्यात या अनन्त होती हैं । [ ३ ] एवं चउरिंदियत्ते वि णवरं पुरेक्खडा चत्तारि वा अट्ठ वा बारस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अनंता वा । [१०६६-३] इसी प्रकार चतुरिन्द्रियत्व रूप के विषय में भी कहना चाहिए। विशेष यह कि (इनकी) पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ चार, आठ, बारह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त हैं । १०६७. एवं एते चेव गमा चत्तारि णेयव्वा जे चेव दव्विंदिए । नवरं तइयगमे जाणियव्वा जस्स जइ इंदिया ते पुरेक्खडेसु मुणेयव्वा । चउत्थगमे जहेव दव्वेंदिया जाव सव्वट्ठसिद्धगदेवाणं सव्वट्टसिद्धगदेवत्ते केवतिया भाविंदिया अतीता ? णत्थि, बद्धेल्लगा संखेज्जा, पुरेक्खडा णत्थि ॥ १२ ॥ ॥ बीओ उद्देस समत्तो ॥ ॥ पण्णवणाए भगवतीए पनरसमं इंदियपयं समत्तं ॥ [१०६७] इस प्रकार ये (द्रव्येन्द्रियों के विषय में कथित) ही चार गम यहाँ समझने चाहिए । विशेषतृतीय गम (मनुष्य सम्बन्धी अभिलाप) में जिसकी जितनी भावेन्द्रियाँ हों, (वे) उतनी पुरस्कृत भावेन्द्रियों में समझनी चाहिए। चतुर्थ गम (देवसम्बन्धी अभिलाप) में जिस प्रकार सर्वार्थसिद्ध की सर्वार्थसिद्धत्व के रूप में कितनी भावेन्द्रियाँ अतीत हैं ?' नहीं हैं ।' बद्ध भावेन्द्रियाँ संख्यात हैं, पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ नहीं हैं, यहाँ तक कहना चाहिए । ॥ १२ ॥ विवेचन - बारहवाँ भावेन्दियद्वार - प्रस्तुत बारह सूत्रों (सू. १०५६ से १०६७ तक) में नैरयिक से लेकर सर्वार्थसिद्ध तक की एकत्व - बहुत्व की अपेक्षा से तथा नैररिकत्व से सर्वार्थसिद्धत्व तक के रूप में अतीत, बद्ध एवं पुरस्कृत इन्द्रियों का प्ररूपण किया है । नारक की नारकत्वरूप में पुरस्कृत ( भावी) भावेन्द्रियाँ - किसी की होती हैं, किसी की नहीं। जो नारक नरक से निकलकर अन्य गति मे उत्पन्न होकर पुन: नरक में उत्पन्न होने वाला है, उसकी नरकपन में भावी भावेन्दियाँ होती हैं, किन्तु जिस जीव का वर्तमान नारकीभव अन्तिम हैं अर्थात्- जो नरक से निकल कर फिर कभी नरक में उत्पन्न नहीं होगा, उसकी नारकत्वरूप में भावी भावेन्द्रियाँ नहीं होती हैं। जिसकी नारकरूप Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक] [२२९ में भावी भावेन्द्रियाँ होती हैं, उसकी पांच, दस, पन्द्रह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त भी होती हैं। जो भविष्य में एक वार फिर नरक में उत्पन्न होगा, उसकी पांच; जो दो वार उत्पन्न होगा, उसकी दस; तीन वार उत्पन्न होगा उसकी पन्द्रह; संख्यात, असंख्यात या अनन्त वार उत्पन्न होने वाले की संख्यात, असंख्यात या अनन्त भावी (पुरस्कृत) भावेन्द्रियाँ होती हैं। इसी प्रकार सर्वत्र समझ लेना चाहिए। भावेन्द्रिय विषयक चार गम - जिस प्रकार द्रव्येन्द्रियों के विषय में नैरयिक, तिर्यग्योनिक, मनुष्य और देव सम्बन्धी ये चार गम कहे हैं, उसी प्रकार यहाँ भी चार गम समझ लेने चाहिए। ॥ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥ ॥ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद समाप्त ॥ १. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ३१७ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • सोलसमं पओगपयं सोलहवाँ प्रयोगपद प्राथमिक प्रज्ञापनासूत्र का यह सोलहवाँ प्रयोगपद है। मन-वचन-काय के आधार से होने वाला आत्मा का व्यापार प्रयोग कहलाता है। इस दृष्टि से यह पद महत्त्वपूर्ण हैं। अगर आत्मा न हो तो इन तीनों की विशिष्ट क्रिया नहीं हो सकती । जैनपरिभाषानुसार ये तीनों पुद्गलमय हैं। पुद्गलों का सामान्य व्यापार (गति) तो आत्मा के बिना भी हो सकता है, किन्तु जब पुद्गल मन-वचन-कायरूप में परिणत हो जाते हैं, तब आत्मा के सहकार से उनका विशिष्ट व्यापार होता है। पुद्गल का मन आदि रूप में परिणमन भी आत्मा के कर्म के अधीन है, इस कारण उनके व्यापर को आत्मव्यापार कहा जा सकता है। इसी आत्मव्यापार रूप प्रयोग के विषय में सभी पहलुओं से यहाँ विचार किया गया है। प्रस्तुत पद में दो मुख्य विषयों का प्रतिपादन किया गया है- (१) प्रयोग, उसके प्रकार और चौवीस . “दण्डकों में प्रयोगों की प्ररूपणा तथा (२) गतिप्रपात के पांच भेद और उनके प्रभेद और स्वरूप । सत्यादि चार मन:प्रयोग, चार वचनप्रयोग और सात औदारिक, औदारिकमिश्र आदि शरीर-कायप्रयोग, यों प्रयोग के १५ प्रकार हैं । तंदनन्तर समुच्चय जीवों और चौवीस दण्डकों में से किस में कितने प्रयोग पाए जाते हैं ? यह प्ररूपणा की गई हैं। तत्पश्चात् चौवीसदण्डकवर्ती जीवों में से किसमें कितने बहुत्व-विशिष्ट प्रयोग सदैव पाए जाते हैं तथा एकत्व-बहुत्व की अपेक्षा एकसंयोगी, द्विकसंयोगी, त्रिकसंयोगी और चतुःसंयोगी कितने विकल्प पाए जाते हैं; उनकी प्ररूपणा की गई हैं । पन्द्रह प्रकार के प्रयोगों की चर्चा समाप्त होने के बाद गतिप्रपात (गतिप्रवाद) का निरूपण है। सू. १०८६ से ११२३ तक में गति की चर्चा की गई हैं, जो प्रयोग से ही सम्बन्धित है। गतिप्रपात नामकं प्रकरण में जिन-जिन के साथ गति का सम्बन्ध है, उन सब व्यवहारों का संग्रह करके गति के पांच प्रकार बताए है- प्रयोगगति, ततगति, बन्धनछेदनगति, उपपातगति और विहायोगति। * ०० Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ प्रयोगपद] [२३१ + इसमें से प्रथम प्रयोगगति तो वही है, जिसके १५ प्रकारों की चर्चा पहले की गई हैं। ततगति मंजिल पर पहुँचने से पहले की सारी विस्तीर्ण गति को कहा गया है, फिर जीव और शरीर का बन्धन छूटने से होने वाली बन्धनछेदनगति, फिर नारकादि चार भवोपपातगति, क्षेत्रोपपातगति और नोभवोपपात (पुद्गलों और सिद्धों की) गति का वर्णन है। अन्त में २७ प्रकार की आकाश-अवकाश से सम्बन्धित विहायोगति का वर्णन है। इन भेदों के वर्णन पर से गति की नाना प्रकार की विशेषताएं स्पष्ट प्रतीत होती हैं।' १. (क) पण्णवणासुत्तं भाग. २ प्रस्तावना पृ. १०१ से १०३ (ख) पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ), भा. १, पृ. २६१ से २७३ तक (ग) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ३१९ से ३३० तक Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलसमंपओगपयं सोलहवाँ प्रयोगपद प्रयोग और उसके प्रकार १०६८. कइविहे णं भंते ! पओगे पण्णत्ते ? गोयमा ! पण्णरसविहे पण्णत्ते । तं जहा- सच्चमणप्पओगे १ मोसमणप्पओगे २ सच्चामोसमणप्पओगे ३ असच्चामोसमणप्पओगे ४ एवं वइप्पओगे वि चउहा ८ ओरालियसरीरकायप्पओगे ९ ओरालियमीससरीरकायप्पओगे १० वेउव्वियसरीरकायप्पओगे ११ वेउव्वियमीससरीरकायप्पओगे १२ आहारगसरीरकायप्पओगे १३ आहारगमीससरीरकायप्पओगे १४ कम्मासरीरकायप्पओगे १५ । [१०६८ प्र.] भगवन् ! प्रयोग कितने प्रकार का कहा गया है ?, [१०६८ उ.] गौतम ! (प्रयोग) पन्द्रह प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकारे- (१) सत्यमनःप्रयोग, (२) असत्य (मृषा) मनःप्रयोग, (३) सत्य-मृषा (मिश्र) मनः प्रयोग, (४) असत्या-मृषा मनःप्रयोग, इसी प्रकार वचनप्रयोग, भी चार प्रकार का है- [(५) सत्यभाषाप्रयोग, (६) मृषाभाषाप्रयोग (७) सत्यामृषाभाषाप्रयोग और (८) असत्यामृषाभाषाप्रयोग], (९) औदारिकशरीरकाय-प्रयोग, (१०) औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोग, (११) वैक्रियशरीरकाय-प्रयोग, (१२) वैक्रियमिश्रशरीरकाय-प्रयोग, (१३) आहारकशरीरकाय-प्रयोग, (१४) • आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोग और (१५) कर्म-(कार्मण) शरीरकाय-प्रयोग। विवेचन - प्रयोग और उसके प्रकार- प्रस्तुत सूत्र में पन्द्रह प्रकार के प्रयोगों का नामोल्लेख किया गया है। प्रयोग की परिभाषा- 'प्र' उपसर्गपूर्वक युज् धातु से 'प्रयोग' शब्द निष्पन्न हुआ है। जिसके कारण प्रकर्षरूप से आत्मा क्रियाओं से युक्त- व्यापृत या सम्बन्धित हो, अथवा साम्परायिक और ईर्यापथ कर्म (आश्रव) से संयुक्त - सम्बद्ध हो, वह प्रयोग कहलाता है, अथवा प्रयोग का अर्थ है- परिस्पन्द क्रियाअर्थात्- आत्मा का व्यापार । __पन्द्रह प्रकार के प्रयोगों के अर्थ - (१) सत्यमनःप्रयोग- सन्त का अर्थ- मुनि अथवा सत् पदार्थ। ये दोनों मुक्ति-प्राप्ति के कारण हैं । इन दोनों के विषय में यथावस्थित वस्तुस्वरूप का चिन्तन करने में जो साधु (श्रेष्ठ) हो, वह 'सत्य' मन है। अथवा जीव सत् (स्वरूप से सत्) और असत् (पररूप से असत्) रूप है, देहमात्रव्यापी है, इत्यादि रूप से यथावस्थित वस्तुचिन्तन-परायण मन सत्यमन है। सत्यमन का प्रयोग अर्थात् Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ प्रयोगपद] [२३३ व्यापार सत्यमनःप्रयोग है। (२) असत्यमनःप्रयोग- सत्य से विपरीत असत्य है । यथा जीव नहीं है, अथवा जीव एकान्त सत्-रूप है, इत्यादि कुविकल्प करने में तत्पर मन असत्यमन है, उसका प्रयोग-व्यापार असत्यमनःप्रयोग है। (३) सत्यमृषामनःप्रयोग- जो सत्य और असत्य, उभयरूप चिन्तन-तत्पर हो, वह सत्यमृषामन है। जैसे - किसी वन में बड़, पीपल, खैर, पलाश, अशोक आदि अनेक जाति के वृक्ष हैं, किन्तु अशोक वृक्षों की बहुलता होने से यह सोचना कि यह अशोकवन है। कतिपय अशोक वृक्षों का सद्भाव होने से यह सोचना सत्य है, किन्तु उनके अतिरिक्त उस वन में अन्य बड़, पीपल आदि का भी सद्भाव होने से ऐसा सोचना असत्य है। किन्तु व्यवहारनय की अपेक्षा से ऐसा सोचना सत्यासत्य कहलाता है, परमार्थ (निश्चयनय) की दृष्टि से तो ऐसा सोचना असत्य है; क्योंकि वस्तु जैसी है, वैसी नहीं सोची गई है।(४) असत्यामृषामन:प्रयोग- जो सत्य भी न हो और असत्य भी न हो, ऐसा मनोव्यापार असत्यामृषामन:प्रयोग है। विप्रतिपत्ति (शंका या विवाद) होने पर वस्तुतत्त्व को सिद्धि की इच्छा से सर्वज्ञ के मतानुसार विकल्प करता है। यथाजीव है, वह सत्-असत् रूप है। यह चिन्तन सत्य-परिभाषित होने से आराधक है और सत्यमनःप्रयोग है। जो विप्रतिपत्ति होने पर वस्तुतत्त्व की प्रतिष्ठा (स्थापना) करने की इच्छा होने पर भी सर्वज्ञमत के विरूद्ध विकल्प करता है। जैसे- जीव नहीं है अथवा जीव एकान्त नित्य है, इत्यादि। यह चिन्तन विराधक होने से असत्य है। किन्तु वस्तु की सिद्धि की इच्छा के बिना भी स्वरूपमात्र का पर्यालोचनपरक चिन्तन करना असत्यामृषामनःप्रयोग है। जैसे-किसी ने चिन्तन किया - देवदत्त से घड़ा लाना है, या अमुक व्यक्ति से गाय मांगना है, इत्यादि। यह चिन्तन स्वरूपमात्र पर्यालोचनपरक होने से न तो यथारूप सत्य है, न ही मिथ्या है; इसलिए व्यवहारनय की दृष्टि से इसे असत्यामृषा कहा जाता है। अगर किसी को ठगने या धोखा देने की बुद्धि से ऐसा चिन्तन किया जाता है तो वह असत्य के अन्तर्गत है, अन्यथा सरलभाव से वस्तुस्वरूपपर्यालोचन करना सत्य में समाविष्ट है। ऐसे असत्यामृषामन का प्रयोग असत्यामृषामन:प्रयोग है। (५-८) मन के चार प्रकार के इन प्रयोगों की तरह वचनप्रयोग भी चार प्रकार के हैं, अन्तर यही है कि वहाँ मन का प्रयोग है, यहाँ वाणी का प्रयोग है। वे चार इस प्रकार हैं - (५) सत्यवाक्प्रयोग, (६) असत्यवाक्प्रयोग, (७) सत्यामृषावाक्प्रयोग और (८) असत्यामृषावाक्प्रयोग। (९) औदारिकशरीरकाय-प्रयोग - औदारिक आदि का लक्षण पहले बता चुके हैं। जो शरीर उदार-स्थूल हो, उसे औदारिकशरीर कहते हैं। काय कहते हैं- पुद्गलों के समूह को अथवा अस्थि आदि के उपचय को। इन दोनों लक्षणों से युक्त काय औदारिकशरीर रूप होने से औदारिकशरीरकाय कहलाता है। उसका प्रयोग औदारिकशरीरकाय-प्रयोग है। यह तिर्यंचों और पर्याप्तक मनुष्यों के होता है। (१०) औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोग- जो काय औदारिक हो और कार्मणशरीर के साथ मिश्र हो, वह औदारिकमिश्रशरीर कहलाता है, ऐसे शरीरकाय के प्रयोग को औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोग कहते हैं। औदारिकशरीर के साथ कार्मणशरीर होने पर भी इसका नाम 'कार्मणमिश्रशरीर' न रखकर 'औदारिकमिश्र' रखा है, उसके तीन कारण हैं - (१) उत्पत्ति की अपेक्षा से औदारिक की प्रधानता होने से, (२) कादाचित्क होने से तथा (३) सन्देहरहित अभीष्ट पदार्थ का बोध कराने का हेतु होने से। अतएव औदारिकशरीरधारी मनुष्य, पंचेन्द्रियतिर्यञ्च या पर्याप्त बादर वायुकायिकजीव वैक्रियलब्धि से सम्पन्न होकर वैक्रिया करता है, तब औदारिकशरीर की ही प्रारम्भिकता और प्रधानता होने के कारण वैक्रियमिश्र न कहलाकार वह औदारिकमिश्र Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४] [ प्रज्ञापनासूत्र कहलाता है । इसी प्रकार औदारिकशरीरधारी आहारकलब्धिसम्पन्न चतुर्दशपूर्वधर मुनि द्वारा आहारकशरीर बनाने पर औदारिक और आहारक शरीर की मिश्रता होने पर भी प्रधानता के कारण 'औदारिकमिश्र' ही कहा जाता है । (११) वैक्रियशरीरकाय-प्रयोग- वैक्रियशरीर रूप काय से होने वाला प्रयोग 'वैक्रियशरीरकायप्रयोग' कहलाता है । यह वैक्रियशरीरपर्याप्ति से पर्याप्त जीव को होता है । (१२) वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोग- देवों और नारकों को अपर्याप्त अवस्था में कार्मणशरीर के साथ मिश्रित वैक्रियशरीर का प्रयोग । जब कोई पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, मनुष्य या वायुकायिक जीव वैक्रियशरीरी होकर अपना कार्य सम्पन्न करके कृतकृत्य हो चुकने के पश्चात् वैक्रियशरीर को त्यागने और औदारिकशरीर में प्रवेश करने का इच्छुक होता है, तब वहाँ वैक्रियशरीर के सामर्थ्य से औदारिकशरीरकायप्रयोग को ग्रहण करने से प्रवृत्त होने तथा वैक्रियशरीर को प्रधानता होने के कारण वह 'औदारिकमिश्र' नहीं, किन्तु वैक्रियमिश्रशरीरकाय प्रयोग कहलाता है । ( १३ ) आहारकशरीरकाय प्रयोग - आहारकशरीरपर्याप्ति से पयोप्त आहारकलब्धिारी चतुर्दशपूर्वधर मुनि के आहारकशरीर द्वारा होने वाला प्रयोग । (१४) आहारकमिश्रशरीर-काय प्रयोग आहारकशरीरी मुनि जब अपना कार्य पूर्ण करके पुनः औदारिकशरीर को ग्रहण करता है, तब आहारकशरीर के बल से औदारिकशरीर में प्रवेश करने तथा आहारकशरीर की प्रधानता होने के कारण औदारिकमि श्रशरीर ने कहलाकर आहारकमिश्रशरीर ही कहलाता है। इस प्रकार का प्रयोग आहारकमिश्रशरीरकाय प्रयोग है । (१५) कार्मणशरीरकाय-प्रयोग - विग्रहगति में तथा केवलीसमुद्घात के तीसरे, चौथे और पांचवें समय में होने वाला प्रयोग कार्मणशरीरकाय-प्रयोग कहलाता है । तैजस और कार्मण दोनों सहचर हैं, अत: एक साथ दोनों का ग्रहण किया गया है। समुच्चय जीवों और दण्डकों में प्रयोग की प्ररूपणा १०६९. जीवाणं भंते ! कतिविहे पओगे पण्णत्ते ? गोयमा ! पण्णरसविहे पओगे पण्णत्ते । तं जहा - सच्चमणप्पओगे जाव कम्मासरीरकायप्पआगे । [१०६९ प्र.] भगवन् ! जीवों के कितने प्रकार के प्रयोग कहे हैं ? [१०६९ उ.] गौतम ! जीवों के पन्द्रह प्रकार के प्रयोग कहे गये हैं, वे इस प्रकार - सत्यमन: प्रयोग से ( लेकर) कार्मणशरीरकाय- प्रयोग तक । १०७०. रइयाणं भंते ! कतिविहे पओगे पण्णत्ते ? गोयमा ! एक्कारसविहे पओगे पण्णत्ते । तं जहा - सच्चमणप्पओगे १ जाव असच्चामोसवइप्पओगे ८ वेडव्वियसरीरकायप्पओगे ९ वेडव्वियमीससरीरकायप्पओगे १० कम्मासरीरकायप्पओगे ११ । [१०७० प्र.] भगवन् ! नैरयिकों के कितने प्रकार के प्रयोग कहे हैं ? [१०७० उ.] गौतम ! (उनके) ग्यारह प्रकार के प्रयोग कहे गए हैं। वे इस प्रकार - (१-८) १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३१९ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ प्रयोगपद] [२३५ सत्यमन:प्रयोग से लेकर असत्यामृषावचन-प्रयोग, ९-वैक्रियशरीरकाय-प्रयोग, १०-वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोग और ११-कार्मणशरीरकायप्रयोग । १०७१. एवं असुरकुमाराण वि जाव थणियकुमाराणं । [१०७१.] इसी प्रकार असुरकुमारों से स्तनितकुमारों तक के (प्रयोगों के विषय में समझना चाहिए ।) १०७२. पुढविक्काइयाणं पुच्छा। गोयमा ! तिविहे पओगे पण्णत्ते । तं जहा- ओरालियसरीरकायप्पओगे १ ओरालियमीससरीरकायप्पओगे २ कम्मासरीरकायप्पओगे ३। एवं जाव वणप्फइकाइयाणं । णवरं वाउकाइयाणं पंचविहे पओगे पण्णत्ते, तं जहा-ओरालियसरीरकायप्पओगे १ ओरालियमीससरीरकायप्पओगे २ वेउव्विए दुविहे ४ कम्मासरीरकायप्पओगे य ५ । [१०७२ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के कितने प्रयोग कहे गए हैं ? [१०७२ उ.] गौतम ! उनके तीन प्रकार के प्रयोग कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं- १. औदारिकशरीरकायप्रयोग, २. औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोग और ३. कार्मणशरीरकाय-प्रयोग। इसी प्रकार (अप्कायिकों से लेकर) वनस्पतिकायिकों तक समझना चाहिए। विशेष यह है कि वायुकायिकों के पांच प्रकार के प्रयोग कहे हैं, वे इस प्रकार- १. औदारिकशरीरकाय-प्रयोग २. औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोग, ३-४. वैक्रियशरीरकायप्रयोग और वैक्रियमिश्रशरीरकाय-प्रयोग तथा ५. कार्मणशरीरकाय-प्रयोग । १०७३. बेइंदियाणं पुच्छा। गोयमा ! चउब्विहे पओगे पण्णत्तेतं जहा - असच्चामोसवइप्पओगे १ ओरालियसरीरकायप्पओगे २ ओरालिंयमीसरीरकायप्पओगे ३ कम्मासरीरकायप्पओगे ४ । एवं जाव चउर दियाणं । [१०७३ प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रियजीवों के कितने प्रकार के प्रयोग कहे गए हैं ? [१०७३ उ.] गौतम ! (उनके) चार प्रकार के प्रयोग कहे गए हैं, वे इस प्रकार- (१) असत्यामृषावचनप्रयोग, (२) औदारिकशरीरकाय-प्रयोग, (३) औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोग और (४) कार्मणशरीरकायप्रयोग। १०७४. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा । गोयमा ! तेरसविहे पओगे पण्णत्ते । तं जहा- सच्चमणप्पओगे १ मोसमणप्पओगे २ सच्चामोसमणप्पओगे ३ असच्चामोसमणप्पओगे ४ एवं वइप्पओगे वि ८ ओरालियसरीरकायप्पओगे ९ ओरालियमीससरीरकायप्पओगे १० वेउव्वियसरीरकायप्पओगे ११ वेउव्वियमीससरीरकायप्पओगे १२ कम्मासरीरकायप्पओगे १३ । [१०७४ प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों के कितने प्रकार के प्रयोग कहे गए हैं ? Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ] [ प्रज्ञापनासूत्र [ १०७४ उ.] गौतम ! (उनके) तेरह प्रकार के प्रयोग कहे गए हैं, वे इस प्रकार - (१) सत्यमन: प्रयोग, (२) मृषामनःप्रयोग, (३) सत्यमृषामन: प्रयोग, (४) असत्यामृषामन: प्रयोग इसी तरह चार प्रकार का (५ से ८ तक) वचनप्रयोग, (९) औदारिकशरीरकाय-प्रयोग, (१०) औदारिकमिश्रशरीरकाय- प्रयोग (११) वैक्रियशरीरकाय-प्रयोग, (१२) वैक्रियमिश्रशरीरकाय प्रयोग और (१३) कार्मणशरीरकाय- प्रयोग | १०७५. मणूसाणं पुच्छा । गोयमा ! पण्णरसविहे पओगे पण्णत्ते । तं जहा- सच्चमणप्पओगे १ जाव कम्मासरीयकायप्ओगे १५ । [१०७५ प्र.] भगवन् ! मनुष्यों के कितने प्रकार के प्रयोग कहे गए हैं ? [१०७५ उ.] गौतम ! उनके पन्द्रह प्रकार के प्रयोग कहे गए हैं, वे इस प्रकार - सत्यमन :- प्रयोग से लेकर कार्मणशरीरकाय- प्रयोग तक । १०७६. वाणमंतर जोतिसिय-वेमाणियाणं जहा णेरइयाणं (सु. १०७०)। [१०७६] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के प्रयोग के विषय में नैरयिकों (की सू. १०७० में अंकित वक्तव्यता) के समान (समझना चाहिए ।) विवेचन - समुच्चय जीवों और चौवीस दण्डकों में प्रयोगों की प्ररूपणा प्रस्तुत ८ सूत्रों (सू. १०६९ से १०७६ तक) में समुच्चय जीवों में कितने प्रयोग होते हैं ? यह प्ररूपणा की गई है। निष्कर्ष - समुच्चय जीवों में १५ प्रयोग होते हैं, क्योंकि नाना जीवों की अपेक्षा से सदैव पन्द्रह प्रयोग पाए जाते हैं। नैरयिकों तथा व्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिकों में ग्यारह प्रयोग पाए जाते हैं, क्योंकि इनमें औदारिक, औदारिकमिश्र, आहारक और आहारकमिश्र प्रयोग नहीं होते । वायुकायिकों को छोड़कर शेष चार पृथ्वीकायादि स्थावरों में तीन प्रयोग पाये जाते हैं- औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मणशरीरकाय प्रयोग । वायुकायिकों में इन तीनों के उपरांत वैक्रिय और वैक्रियमिश्रशरीरका - प्रयोग भी पाए जाते हैं । द्वि-त्रि- चतुरिन्द्रियं जीवों में प्रत्येक के ४-४ प्रयोग पाए जाते हैं असत्यामृषाभाषाप्रयोग, औदारिक, औदारिकमिश्र, कार्मणशरीरकाय प्रयोग। पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में आहारक और आहारकमिश्र को छोड़कर शेष १३ प्रयोग पाए जाते हैं, जबकि मनुष्यों में १५ ही प्रयोग पाए जाते हैं। समुच्चय जीवों में विभाग से प्रयोगप्ररूपणा १०७७. जीवा णं भंते ! किं सच्चमणप्पओगी जाव किं कम्मासरीरकायप्पओगी ? गोमा ! जीवा सव्वे वि ताव होज्जा सच्चमणप्पओगी वि जाव वेडव्वियमीससरीरकायप्पओगी १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३२० Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ प्रयोगपद] [२३७ वि, अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य आहारगमीससरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य आहारगमीससरीरकायप्पओगिणो य ४ चउभंगो, अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य आहारगसरीर कायप्पओगी य आहार गमीससरीर कायप्पओगिणो य २ अहवेगे य आहारगसरीर कायप्पओगिणो य आहार गमीसासरीर कायप्पओगी य ३ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य ४, एए जीवाणं अट्ठ भंगा । [१०७७ प्र.] भगवन् ! जीव सत्यमन: प्रयोगी होते हैं अथवा यावत् कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं ? [१०७७ उ.] गौतम ! (१) जीव सभी सत्यमन: प्रयोगी भी होते हैं, यावत् मृषामनः प्रयोगी, सत्यमृषामनःप्रयोगी, असत्यामृषामनःप्रयोगी आदि तथा वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगी भी एवं कार्मणशरीरकायप्रयोगी भी, (इस प्रकार तेरह पदों के वाच्य) होते हैं, (१) अथवा एक आहारकशरीरकायप्रयोगी होता है, (२) अथवा बहुत-से आहारकशरीरकायप्रयोगी होते हैं, (३) अथवा एक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होता है, (४) अथवा बहुत-से जीव आहारकमि श्रशरीरकायप्रयोगी होते हैं। ये चार भंग हुए। तेरह पदों वाले प्रथम भंग की इनके साथ गणना की जाए तो पांच भंग हो जाते हैं । (द्विकसंयोगी चार भंग ) - १. अथवा एक आहारकशरीरकायप्रयोगी और एक आहारकमिश्रशरीरकाय प्रयोगी, २. अथवा एक आहारकशरीरकायप्रयोगी और बहुत-से आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, ३. अथवा बहुत-से आहारकशरीरकायप्रयोगी और एक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, ४. अथवा बहुत-से आहारकशरीरकायप्रयोगी और बहुत-से आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी। ये समुच्चय जीवों के प्रयोग की अपेक्षा से आठ भंग हुए। (इनमें प्रथम भंग को मिलाने से नौ भंग होते हैं ।) विवेचन- समुच्चय जीवों में विभाग से प्रयोगप्ररूपणा - प्रस्तुत सूत्र (१०७७) में समुच्चय जीवों में प्रयोग की अपेक्षा से पाए जाने वाले आठ भंगों का निरूपण किया गया हैं। समुच्चय जीवों में तेरह पदों का एक भंग- समुच्चय जीवों में आहारक और आहारकमिश्र को छोड़ कर शेष १३ पदों का एक भंग होता है। तात्पर्य यह है कि सदैव बहुत-से जीव सत्यमनप्रयोगी भी पाए जाते हैं, असत्यमनःप्रयोगी भी, यावत् वैक्रियशरीरकायप्रयोगी भी पाए जाते हैं, तथैव कार्मणशरीरकायप्रयोगी भी पाए जाते हैं। नारक जीव सदैव उपपात के पश्चात् उत्तरवैक्रिय आरम्भ कर देते हैं, इसलिए सदैव वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगी भी होते हैं । वनस्पति आदि के जीव सदैव विग्रह के कारण अन्तरालगति में पाए जाते हैं, इसलिए वे सदैव कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं, किन्तु आहारकशरीरी कदाचित् सर्वथा नहीं पाए जाते; क्योंकि उनका अन्तर उत्कृष्टतः छह मास तक का सम्भव है । अर्थात् छह महीनों तक एक भी आहारकशरीरी न पाया जाए, यह भी सम्भव है। जब वे पाए भी जाते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन, तथा उत्कृष्टत: सहस्नप्रथक्त्व (दो हजार से नौ हजार) तक होते हैं । इस प्रकार जब आहारकशरीरकायप्रयोगी और आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी एक भी नहीं पाया जाता, तब बहुत जीवों की अपेक्षा से बहुवचनविशिष्ट १३ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८] [प्रज्ञापनासूत्र पदों वाला एक भंग होता है, क्योंकि उक्त १३ पदों वाले जीव सदैव बहुत रूप में रहते हैं।' आठ भंगों का क्रम - प्रथमभंग- जब पूर्वोक्त तेरह पदों के साथ एक आहारकशरीरकायप्रयोगी पाया जाता है, तब एक भंग होता हैं। द्वितीयभंग- पूर्वोक्त तेरह पद वालों के साथ बहुत-से आहारकशरीरकायप्रयोगी पाए जाते हैं, तब दूसरा भंग होता हैं। तृतीय-चतुर्थ भंग- इसी प्रकार पूर्वोक्त १३ पदों के साथ जब एक जीव आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होता है, अथवा बहुत जीव आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होते है, तब तीसरा और चौथा भंग होता है। यों क्रमश: ये ४ भंग हुए । पंचम से अष्टम भंग तक- चार भंग द्विकसंयोगी होते हैं, जो पहले बताए जा चुके हैं। पूर्वोक्त तेरह पदों वाले भंग को मिलाने से ये सब ९ भंग होते हैं। नारकों और भवनपतियों की विभाग से प्रयोगप्ररूपणा १०७८. णेरइया णं भंते ! किं सच्चमणप्पओगी जाव किं कम्मासरीरकायप्पओगी? गोयमा! णेरइया सव्वे विताव होज्जा सच्चमणप्पओगी विजाव वेउव्वियमीससरीरकायप्पओगी वि, अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य २ । [१०७८ प्र.] भगवन् ! नैरयिक सत्यमनःप्रयोगी होते हैं, अथवा यावत् कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं? [१०७८ उ.] गौतम ! नैरयिक सभी सत्यमनःप्रयोगी भी होते हैं, यावत् वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगी भी होते हैं; १- अथवा कोई एक (नैरयिक) कार्मणशरीरकायप्रयोगी होता है, २- अथवा कोई अनेक (नैरयिक) कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं। १०७९. एवं असुरकुमारा वि जाव थणियकुमारा वि । [१०७९] इसी प्रकार असुरकुमारों की भी यावत् स्तनितकुमारों की प्रयोगप्ररूपणा करनी चाहिए। विवेचन - नारकों और भवनपतियों की विभाग से प्रयोगप्ररूपणा- प्रस्तुत दो सूत्रों में एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से नारकों और भवनपतिदेवों की प्रयोग-सम्बन्धी तीन भंगो की प्ररूपणा की गई हैं। नारकों में सदैव पाए जाने वाले बहुत्वविशिष्ट दस पद - नारकों में सत्यमन:प्रयोगी से लेकर वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगी पर्यन्त सदैव बहुत्वविशिष्ट दस पद पाए जाते हैं, किन्तु कार्मणशरीरकायप्रोगी आहारगाई लोए छम्मासे जा न होंति वि कयाई । उक्कोसेणं नियमा, एक समयं जहन्नेणं ॥१॥ होंताई जहन्नेणं इक्कं दो तिण्णि पंच व हवंति । उक्कोसेणं जुगवं पुहुत्तमेत्तं सहस्साणं ॥२॥ २. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३२३-३२४ ३. भगवतीसूत्र श.८ उ.१ में देवों और नारकों में अपर्याप्त दशा में ही वैक्रियमिश्रशरीरप्रयोग माना गया है । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ प्रयोगपद] [२३९ नारक कभी-कभी एक भी नहीं पाया जाता; क्योंकि नरकगति के उपपात का विरह बारह मुहूर्त का कहा गया है। यह एक भंग हुआ । द्वितीय-तृतीय भंग- जब कार्मणशरीरकायप्रयोगी नारक पाए जाते हैं, तब जघन्य एक या दो और उत्कृष्ट असंख्यात पाए जाते हैं। इस दृष्टि से जब एक कार्मणशरीरकायप्रयोगी पाया जाता है, तब द्वितीय भंग होता है और जब बहुत-से कार्मणशरीरकायप्रयोगी पाये जाते हैं, तब तृतीय भंग होता है। असुरकुमारादि दशविध भवनवासियों की एकत्व-बहुत्व-विशिष्ट प्रयोग-सम्बन्धी वक्तव्यता भी इसी प्रकार समझ लेनी चाहिए। एकेन्द्रियों, विकलेन्द्रियों और तिर्यचपंचेन्द्रियों की प्रयोग सम्बन्धी प्ररूपणा १०८०. पुढविकाइया णं भंते ! किं ओरालियसरीरकायप्पओगी ओरालियमीससरीरकायप्पओगी कम्मासरीरकायप्पओगी ? गोयमा ! पुढविकाइया णं ओरालियसरीरकायप्पओगी वि ओरालियमीससरीरकायप्पओगी वि कम्मासरीरकायप्पओगी वि। एवं जाव वणस्सइकाइयाणं । णवरं वाउक्काइया वेउव्वियसरीरकायप्पओगी वि वेउव्वियमीससरीरकायप्पओगी वि। [१०८० प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव क्या औदारिकशरीरकाय-प्रयोगी हैं, औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी हैं अथवा कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी हैं ? [१०८० उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव क्या औदारिकशरीरकाय-प्रयोगी हैं, औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी भी हैं और कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी भी हैं। __इसी प्रकार अप्कायिक जीवों से लेकर वनस्पतिकायिकों तक (प्रयोग सम्बन्धी वक्तव्यता कहनी चाहिए।) विशेष यह है कि वायुकायिक वैक्रियशरीरकाय-प्रयोगी भी हैं और वैविक्रयमिश्रशरीरकाय-प्रयोग भी हैं । १०८१. बेइंदिया णं भंते ! किं ओरालियसरीरकायप्पओगी जाव कम्मासरीरकायप्पओगी? गोयमा ! बेइंदिया सव्वे वि ताव होजा असच्चामोसवइप्पओगी विओरालियसरीरकायप्पओगी वि ओरालियमीससरीरकायप्पओगी वि, अहवेगे यं कम्मासरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य २ । एवं जाव चउरिदिया। [१०८१ प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव क्या औदारिकशरीरकाय-प्रयोगी हैं, अथवा यावत् कार्मणशरीरकायप्रयोगी हैं ? [१०८१ उ.] गौतम ! सभी द्वीन्द्रिय जीव असत्यामृषावचन-प्रयोगी भी होते हैं, औदारिकशरीरकाय २. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३२४ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४०] [ प्रज्ञापनासूत्र प्रयोगी भी होते हैं, औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी भी होते हैं। १- अथवा कोई एक (द्वीन्द्रिय जीव) कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है, २- या बहुत-से (द्वीन्द्रिय जीव) कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं। (त्रीन्द्रिय एवं) चतुरिन्द्रियों (की प्रयोग सम्बन्धी वक्तव्यता) भी इसी प्रकार (समझनी चाहिए।) ___१०८२. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया जहाणेरइया (सु.१०७८)।णवर ओरालियसरीरकायप्पओगी वि ओरालियमीससरीरकायप्पओगी वि, अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पआसेगी य १ अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य २ । __[१०८२] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों की प्रयोग सम्बन्धी वक्तव्यता (सू. १०७८ में उल्लिखि) नैरयिकों की प्रयोगवक्तव्यता के समान कहना चाहिए। विशेष यह है कि यह (एक पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक) औदारिकशरीरकाय-प्रयोगी भी होता है तथा औदारिकशरीरकाय-प्रयोगी भी होता है। १- अथवा कोई एक (पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक) कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी भी होता है, २- अथवा बहुत-से (पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीव) कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं। विवेचन- एकेन्द्रियों, विकलेन्द्रियों और तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों की विभाग से प्रयोगसम्बन्धी प्ररूपणाप्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. १०८० से १०८२ लक) में एक एकेन्द्रिय से लेकर तिर्यंचयपंचेन्द्रिय तक के जीवों की एकत्व-बहुत्व की अपेक्षा से प्रयोगसम्बन्धी प्ररूपणा की गई है। निष्कर्ष - पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक एवं वनस्पतिकायिक जीव औदारिकशरीरकायप्रयोगी औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी एवं कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी सदैव बहुसंख्या में पाए जाते हैं, इसलिए ये तीनों पद बहुवचनान्त हैं, यह एक भंग है; किन्तु वायुकायिकों में पूर्वोक्त तीन प्रयोगों के अतिरिक्त वैक्रियद्धिक (वैक्रियशरीरकाय-प्रयोग एवं वैक्रियमिश्रशरीरकाय-प्रयोग) भी पाए जाते हैं। अर्थात्- वायुकायिकों में ये पांचों पद सदैव बहुत्वरूप में पाए जाते हैं । इन पांचों का बहुत्वरूप एक भंग होता है। सभी द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय जीव असत्यामृषावचन-प्रयोगी होते हैं, क्योंकि वे न तो सत्यवचन का प्रयोग करते हैं, न असत्यवचन का प्रयोग करते हैं, और न ही उभयरूप वचन का प्रयोग करते हैं। यद्यपि द्वीन्द्रियादि जीवों के अन्तर्मुहूर्तमात्र उपपात का विरहकाल है, किन्तु उपपातविरहकाल का अन्तर्मुहूर्त छोटा है और औदारिकमिश्र का अन्तर्मुहूर्त प्रमाण में बहुत बड़ा होता है। अत: उनमें औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी सदैव पाये जाते हैं। इस प्रकार इन तीनों का एक भंग हुआ। उनमें कभी-कभी एक भी कार्मणशरीरकायप्रयोगी नहीं पाया जाता, क्योंकि उनके उपपात का विरह अन्तर्मुहूर्त कहा गया है। जब वे पाए जाते हैं तो जघन्यतः एक या दो और उत्कृष्टतः असंख्यात पाए जाते हैं। इस प्रकार जब एक भी कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी नहीं पाया जाता है, तब पूर्वोक्त तीनों पदों का प्रथम भंग होता है। जब एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी पाया जाता है, तब एकत्वविशिष्ट दूसरा भंग होता है। जब बहुत-से द्वीन्द्रियादि जीव कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं, तब तीसरा भंग होता है। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ प्रयोगपद] [ २४१ पंचेन्दियतिर्यञ्चों का प्रयोग विषयक कथन नारकों के समान जानना चाहिए, किन्तु उनमें विशेषता यह है कि वे नारकों की तरह वैक्रियशरीरकाय - प्रयोगी तथा वैक्रियमिश्रशरीरकाय - प्रयोगी के उपरान्त औदारिकशरीरकाय-प्रयोगी और औदारिकमि श्रशरीरकाय-प्रयोगी भी होते हैं । इसके सिवाय ४ प्रकार के मनःप्रयोग और चार प्रकार के वचनप्रयोग, इन ८ पदों को पूर्वोक्त ४ पदों में मिलाने से कुल १२ पद हुए, जो पंचेन्द्रियतिर्यंचों में सदैव बहुत रूप में पाए जाते हैं। कार्मणशरीरकाय प्रयोगी कभी-कभी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में एक भी नहीं पाया जाता, क्योंकि उनके उपपात का विरहकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कहा गया है । यों जब कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी एक भी नहीं होता, तब पूर्वोक्त प्रथम भंग होता हैं। जब कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी एक होता है, तब दूसरा भंग होता है और जब कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी बहुत होते हैं, तब तीसरा भंग होता है ।" मनुष्यों में विभाग से प्रयोग-प्र -प्ररूपणा १०८३. मणूसा णं भंते ! किं सच्चमणप्पओगी जाव किं कम्मासरीरकायप्पओगी ? गोमा ! मणूसा सव्वे वि ताव होज्जा सच्चमणप्पओगी वि जाव ओरालियसरीरकायप्पओगी विवेउव्वियसरीर कायप्पओगी वि वेउव्वियमीससरीरकायप्पओगी वि, अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य ४ अहवेगे य आहारगमीसरीरकायप्पओगी य ५ अहवेगे य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य ६ अहवेगे य कम्मगसरीरकायप्पओगी य ७ अहवेगे य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य ८, एते अट्ठ भंगा पत्तेयं । अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य ओरालियमीससरीर कायप्पओगी य आहार गसरीर कायप्पओ गिणो य २ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य ४ एवं एते चत्तारि भंगा, अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य अहारगमीसासरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगमींसासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य ४ चत्तारि भंगा, अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३२४-३२५ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२] [प्रज्ञापनासूत्र ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य ४ एते चत्तारि भंगा, अहवेगे य आहारगशरीरकायप्पओगी य आहारगमीससरीरकायप्पओगी य १.अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य ४ चत्तारि भंगा, अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य कम्मगसरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य ४ चत्तारि भंगा, एवं चउवीसं भंगा। अहवेगे य ओरालियमीसगसरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीससरीरकायप्पओगी य १, अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीससरीरकायप्पओगिणो य २, अहवेगे य ओरालियमीसगसरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीससरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य ४ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य ५ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य ६ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहा रगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य ७ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य ८ एते अट्ठ भंगा, अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगी य कम्मयसरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगी य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य कम्मगसरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य ४ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगी य कम्मगसरीरकायप्पओगी य ५ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगी य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य ६ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगी य ७ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणी य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगिणो Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ प्रयोगपद] [२४३ य ८ एते अट्ठ भंगा ।अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी कम्मासरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य ४ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगी य ५ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य ६ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसारीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगी य ७ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य ८ एते अट्ठ भंगा। अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य ४ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगी य५ अहवेगेय आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य ६ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगी य ७ अह वेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य ८ एवं एते तियसंजोएणं चत्तारि अट्ठभंगा, सव्वे वि मिलिया बत्तीसं भंगा जाणियव्वा ३२ । __ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य ओरालियसमीसासरीरकायप्पओगीय आहारगसरीरकायप्पओगीय आहारगमीसासासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पआगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहार गसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य ४ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगी य ५ अह वेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४] [प्रज्ञापनासूत्र आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य ६ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगी य ७ अहवेगे य ओरालियमीसगसरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायपपओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य ८ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगी य ९ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायपपओगिणो य १० अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणी य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगी य ११ अहवेगे य रालियमीसासरीरकायप्पओगिणोय आहारगसरीरकायप्पओगी आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य १२ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमोसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगी य १३ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य १४ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगी य १५ अहवेगे य. ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य १६, एवं एते चउसंजोएणं सोलस भंगा भवंति । सव्वे वि य णं सपिंडिया असीतिं भंगा भवंति ८० । [१०८३ प्र.] भगवन् ! मनुष्य क्या सत्यमनःप्रयोगी अथवा यावत् कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं ? [१०८३ उ.] गौतम ! मनुष्य सत्यमन:प्रयोगी यावत् (अर्थात्- चारों प्रकार के मनःप्रयोगी, चारों प्रकार के वचनप्रयोगी) औदारिकशरीरकाय-प्रयोगी भी होते हैं, वैक्रियशरीरकाय-प्रयोगी भी होते हैं, और वैक्रियमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी भी होते हैं। १. अथवा कोई एक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होता है, २. अथवा अनेक (मनुष्य) औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं, ३. अथवा कोई एक आहारकशरीरकायप्रयोगी होता है, ४. अथवा अनेक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं, अथवा ५. कोई एक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होता है, ६.अथवा अनेक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं,७. अथवा कोई एक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होता हैं, ८. अथवा अनेक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं। (इस प्रकार) एक-एक के (संयोग से) ये आठ भंग होते हैं। १. अथवा कोई एक (मनुष्य) औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और एक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी होता है, २. अथवा एक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और अनेक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं, Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ प्रयोगपद] [२४५ ३. अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और एक आहारकशरीरकाय- प्रयोग होते हैं, ४. अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और अनेक आहारकशरीरकाय- प्रयोगी होते हैं। इस प्रकार ये चार भंग हैं । १. अथवा एक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और एक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, २. अथवा एक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और अनेक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी हैं, ३. अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और एक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होता है, ४. अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और अनेक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं । ये (द्विकसंयागी) चार भंग हैं। . १. अथवा कोई एक (मनुष्य) औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और (एक) कार्मणशरीरकाय- प्रयोगी होता है, २. अथवा एक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं, ३. अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है, ४. अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकाय - प्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकाय - प्रयोगी होते हैं। ये चार भंग हैं । . १. अथवा एक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी और एक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होता हैं, २. अथवा एक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी और अनेक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं, ३. अथवा अनेक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी और एक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होता है, ४. अथवा अनेक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी और अनेक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं। (इस प्रकार) ये चार भंग हैं। १. अथवा एक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी और एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है, २. अथवा एक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं, ३. अथवा अनेक आहारकशरीरकायप्रयोगी और एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है, ४. अथवा अनेक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं। (इस प्रकार ये) चार भंग हैं। १.अथवा एक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है; २. अथवा एक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं, ३. अथवा अनेक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और एक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होता है; ४. अथवा अनेक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं। ये चार भंग हैं। इस प्रकार (द्विकसंयोगी कुल) चौबीस भंग हुए। ___ १. अथवा एक औदारिकशरीरकाय-प्रयोगी, एक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी और एक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होता हैं, २. अथवा एक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, एक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी और अनेक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होते हैं, ३. अथवा एक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, अनेक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी और एक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होता है; ४. अथवा एक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी अनेक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी औद अनेक Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६] [प्रज्ञापनासूत्र आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं; ५. अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, एक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी और एक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होता है; ६. अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी एक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी और अनेक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं; ७. अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, अनेक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी और एक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होता है, ८. अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, अनेक आहारकशरीरकाय - प्रयोगी और अनेक आहारकमिश्रशरीरकाय - प्रयोगी होते हैं। (इस प्रकार) ये आठ भंग हैं। . १. अथवा एक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, एक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी और एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है, २. अथवा एक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, एक आहारकशरीरकायप्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं, ३. अथवा एक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, अनेक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी और एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है;४.अथवा एक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, अनेक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं; ५. अथवा अनेक औदारिकशमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, एक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी और एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता हैं, ६. अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और एक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी, अनेक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं,७. अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, अनेक आहारकशरीरकायप्रयोगी और एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है; ८. अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, अनेक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं। (इस प्रकार) ये आठ भंग हैं। १. अथवा एक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, एक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है; २. अथवा एक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, एक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं, ३. अथवा एक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी अनेक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है; ४. अथवा एक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, अनेक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, एक अनेक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं; ५. अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, एक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, और एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है; ६. अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, एक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं; ७. अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, अनेक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है; ८. अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, अनेक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं। ये ८ भंग हैं । - १. अथवा एक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी, एक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है; २. अथवा एक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी, एक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं; ३. अथवा एक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी, अनेक Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ प्रयोगपद] [२४७ आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है; ४. अथवा एक आहारकशरीरकायप्रयोगी, अनेक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं;५.अथवा अनेक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी, एक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है; ६. अथवा अनेक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी, एक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं; ७. अथवा अनेक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी, अनेक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है, ८. अथवा अनेक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी, अनेक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं। इस प्रकार त्रिकसंयोग से ये चार अष्टभंग होते हैं। ये सब मिलकर कुल बत्तीस भंग जान लेने चाहिए ॥३२॥ १. अथवा एक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, एक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी, एक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है, २. अथवा एक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, एक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी, एक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं, ३. अथवा एक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, एक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी अनेक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है, ४. अथवा एक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, एक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी, अनेक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं;५. अथवा एक औदारिकमिश्र शरीरकाय-प्रयोगी, अनेक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी, एक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है; ६. अथवा एक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, अनेक आहारकशरीरकायप्रयोगी, एक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी अनेक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं; ७. अथवा एक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी अनेक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी, अनेक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है; ८. अथवा एक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, अनेक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी, अनेक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं ; ९. अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, एक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी, एक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, और एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है; १०. अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, एक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी, एक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, और अनेक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं; ११. अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, एक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी, अनेक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है, १२. अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी एक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी, अनेक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं, १३ अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी अनेक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी, एक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, और एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है, १४. अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, अनेक आहारकशरीकाय-प्रयोगी, एक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं, Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ ] [ प्रज्ञापनासूत्र १५. अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकाय प्रयोगी, अनेक आहारकशरीरकाय- प्रयोगी, अनेक आहारकमिश्रशरीरकाय- प्रयोगी और एक कार्मणशरीरकाय- प्रयोगी होता है; १६ अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकाय- प्रयोगी, अनेक आहारकशरीरकाय- प्रयोगी, अनेक आहारकमिश्रशरीरकाय - प्रयोगी . और अनेक कार्मणशरीरकाय - प्रयोगी होते हैं । इस प्रकार चतु:संयोगी ये सोलह भंग होते हैं तथा ये सभी (असंयोगी ८, द्विकसंयोगी २४, त्रिकसंयोगी ३२ और चतु:संयोगी १६ मिलकर अस्सी भंग होते हैं ॥ ८० ॥ विवेचन - मनुष्यों में विभाग से प्रयोग-प्ररूपणा - प्रसतुत सूत्र (१०८३) में असंयोगी, द्विकसंयोगी, त्रिकसंयोगी और चतु:संयोगी ८० भंगो के द्वारा मनुष्यों में पाए जाने वाले प्रयोगों की प्ररूपणा की गई है। मनुष्यों में सदैव पाए जाने वाले ग्यारह पद - मनुष्यों में १५ प्रकार के प्रयोगों में ११ पद (प्रयोग) तो सदैव बहुवचन से पाए जाते हैं, यथा- चारों प्रकार के मनः प्रयोगी, चारों प्रकार के वचन-प्रयोगी तथा औदारिकशरीरकाय-प्रयोगी और वैक्रियद्विकप्रयोगी (वैक्रियशरीरकायप्रयोगी और वैक्रियमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी ) । मनुष्यों में वैक्रियमिश्रशरीरकाय- प्रयोगी विद्याधरों की अपेक्षा से समझना चाहिए; क्योंकि विद्याधर तथा अन्य कतिपय मिथ्यादृष्टि आदि वैक्रियलब्धिसम्पन्न अन्यान्यभाव से सदैव विकुर्वणा करते पाए जाते हैं। मनुष्यों में औदारिकमिश्रशरीरकाय- प्रयोगी और कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी कभी-कभी सर्वथा नहीं भी पाए जाते, क्योंकि ये नवीन उपपात के समय पाए जाते हैं और मनुष्यों के उपपात का विरहकाल बारह मुहूर्त का कहा गया है। आहारकशरीरकाय-प्रयोगी और आहारकमिश्रशरीरकाय- प्रयोगी भी कभी-कभी होते हैं, यह पहले भी कहा जा चुका है। अत: औदारिकमिश्र आदि चारों प्रयोगों का अभाव होने से उपर्युक्त बहुवचन विशिष्ट ग्यारह पदों वाला यह प्रथम भंग है। एकसंयोगी आठ भंग - औदारिकमि श्रशरीरकाय- प्रयोगी एकत्व - बहुत्वविशिष्ट दो भंग, इसी प्रकार आहारकशरीरकाय-प्रयोगी दो भंग, आहारकमिश्रशरीरकाय- प्रयोगी दो भंग, कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी दो भंग इस प्रकार एक-एक का संयोग करने पर आठ भंग होते हैं। द्विकसंयोगी चौवीस भंग - औदारिकमिश्र एवं आहारकपद को लेकर एकवचन बहुवचन से चार, औदारिकमिश्र तथा आहारकमिश्र इन दोनों पदों को लेकर चार, औदारिकमिश्र एवं कार्मण पद को लेकर चार, आहारक और आहारकमिश्र को लेकर चार, आहारक और कार्मण को लेकर चार, तथा आहारकमिश्र और कार्मण को लेकर चार, ये सब मिलाकर द्विकसंयोगी कुल २४ भंग होते हैं । त्रिसंयोगी बत्तीस भंग - औदारिकमिश्र, आहारक और आहारकमिश्र, इन तीन पदों के एकवचन और बहुवचन को लेकर ८ भंग, औदारिकमिश्र, आहारक और कार्मण इन तीनों के ८ भंग, औदारिकमिश्र, आहारकमिश्र और कार्मण, इन तीन पदों के आठ भंग और आहारक, आहारकमिश्र और कार्मण, इन तीनों पदों के आठ, ये सब मिलकर त्रिकसंयोगी कुल ३२ भंग होते हैं । चतु:संयोगी सोलह भंग- औदारिकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र और कार्मण, इन चारों पदों के एकवचन और बहुवचन को लेकर सोलह भंग होते हैं। इस प्रकार असंयोगी, द्विकसंयोगी, त्रिकसंयोगी और Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ प्रयोगपद [२४९ चतु:संयोगी मिलकर ८० भंग होते हैं ।' वाणव्यन्तरादि देवों की विभाग से प्रयोगप्ररूपणा १०८४. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा (सु. १०७९)। [१०८४] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के प्रयोग (सू. १०७९ में उक्त) असुरकुमारों के प्रयोग के समान समझना चाहिए । विवेचन - वाणव्यन्तरादि देवों की विभाग से प्रयोगप्ररूपणा - प्रस्तुत (सूत्र. १०८४) में वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की प्ररूपणा असुरकुमारों के अतिदेशपूर्वक की गई हैं। पांच प्रकार का गतिप्रपात १०८५. कतिविहे णं भंते ! गतिप्पवाए पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते । तं जहा- पओगगती १ ततगती २ बंधणच्छेयणगती ३ उववायगती ४ विहायगती ५ ।. [१०८५ प्र.] भगवन् ! गतिप्रपात कितने प्रकार का कहा गया है ? [१०८५ उ.] गौतम ! (गतिप्रपात) पांच प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार- (१) प्रयोगगति, (२) ततगति, (३) बन्धनछेदनगति, (४) उपपातगति और (५) विहायोगति । विवेचन - पांच प्रकार का गतिप्रपात - प्रस्तुत सूत्र में प्रयोगगति आदि पांच प्रकार के गतिप्रपात का प्रतिपादन किया गया है। गतिप्रपात की व्याख्या - गमन करना, गति या प्राप्ति है। वह प्राप्ति दो प्रकार की है- देशान्तरविषयक और पर्यायान्तरविषयक । दोनों में गति शब्द का प्रयोग देखा जाता है। यथा- 'देवदत्त कहाँ गया है ? पत्तन को गया' तथा 'कहते ही वह कोप को प्राप्त हो गया ।' जैसे- 'परमाणु एक समय में एक लोकान्त से अपर लोकान्त (तक) को जाता है' तथा उन-उन अवस्थान्तरों को प्राप्त होता है। अत: यहां गति का अर्थ है- एक देश से दूसरे देश को प्राप्त होना। अथवा एक पर्याय को त्याग कर दूसरे पर्याय को प्राप्त होना। गति का प्रपात गतिप्रपात कहलाता है। प्रयोगगति- विशेष व्यापार रूप प्रयोग के पन्द्रह प्रकार इसी पद में पहले कहे जा चुके हैं। प्रयोग रूप गति प्रयोगगति है। यह देशान्तरप्राप्ति रूप है, क्योंकि जीव के द्वारा प्रेरित सत्यमन आदि के पुद्गल थोड़ी या बहुत दूर देशान्तर तक गमन करते हैं । १. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक ३२५ प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३२७-३२८ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५०] [प्रज्ञापनासूत्र ततगति- विस्तीर्ण गति ततगति कहलाती है। जैसे- जिनदत्त ने किसी ग्राम के लिए प्रस्थान किया है, किन्तु अभी तक उस ग्राम तक पहुँचा नहीं है, बीच रास्ते में है और एक-एक कदम आगे बढ़ रहा है। इस प्रकार की देशान्तरप्राप्ति रूप गति ततगति है। यद्यपि कदम बढ़ाना जिनदत्त के शरीर का प्रयोग ही है, इस कारण इस गति को भी प्रयोगगति के अन्तर्गत माना जा सकता है, तथापि इसमें विस्तृतता की विशेषता होने से इसका प्रयोगगति से पृथक् कथन किया गया है। इसी प्रकार आगे भी समझ लेना चाहिए । बन्धनछेदनगति- बन्धन का छेदन होना बन्धनछेदन है और उससे होने वाली गति बन्धनछेदन गति है। यह गति जीव के द्वारा विमुक्त (छोड़े हुए) शरीर की, अथवा शरीर से च्युत (बाहर निकले हुए) जीव की होती है। कोश के फटने से एरण्ड के बीज की जो ऊर्ध्वगति होती है, वह एक प्रकार की विहायोगति है, बन्धनछेदगति नहीं, ऐसा टीकाकार का अभिमत है। उपपातगति- उपपात का अर्थ है- प्रादुर्भाव । वह तीन प्रकार का है- क्षेत्रोपपात, भवोपपात और नोभवोपपात । क्षेत्र का अर्थ है- आकाश, जहाँ नारकादि प्राणी, सिद्ध और पुद्गल रहते हैं। भव का अर्थ है - कर्म का संपर्क से होने वाले जीव के नारकादि पर्याय। जिसमें प्राणी कर्म के वशवर्ती होते हैं उसे भव कहते है। भव से अतिरिक्त अर्थात्- कर्मसम्पर्कजनित नारकत्व आदि पर्यायों से रहित पुद्गल अथवा सिद्ध नोभव हैं। उक्त दोनों (तथारूप पुद्गल और सिद्ध) पूर्वोक्त भव के लक्षण से रहित हैं। इस प्रकार की उपपात रूप गति उपपातगति कहलाती है। विहायोगति- विहायस् अर्थात् आकाश में गति होना विहायोगति है । गतिप्रपात के प्रभेद-भेद एवं उनके स्वरूप का निरूपण १०८६. से किं तं पओग्गती ? पओगगती पण्णरसविहा पण्णत्ता । तं जहा- सच्चमणप्पओगगती जाव कम्मगसरीरकायप्पओगगती । एवं जहा पओगो भणिओ तहा एसा वि भाणियव्वा । [१०८३ प्र.] (भगवन् !) वह प्रयोगगति क्या हैं ? [१०८३ उ.] गौतम ! प्रयोगगति पन्द्रह प्रकार की कही है। वह इस प्रकार- सत्यमनः-प्रयोगगति यावत् कार्मणशरीरकायप्रयोगगति। जिस प्रकार प्रयोग (पन्द्रह प्रकार का) कहा गया है, उसी प्रकार यह (गति) भी (पन्द्रह प्रकार की) कहनी चाहिए । १०८७. जीवाणं भंते ! कतिविहा पओगगती पण्णत्ता? गोयमा ! पण्णरसविहा पण्णत्ता । तं जहा- सच्चमणप्पओगगती जाव कम्मासरीरकायप्पओगगती। [१०८७ प्र.] भगवन् ! जीवों की प्रयोगगति कितने प्रकार की कही गई है ? [१०८७ उ.] गौतम ! (वह) पन्द्रह प्रकार की कही गई है, वह इस प्रकार-सत्यमन:- प्रयोगगति Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ प्रयोगपद] यावत् कार्मणशरीरप्रयोगगति । [२५१ १०८८. णेरइयाणं भंते ! कतिविहा पओगगती पण्णत्ता ? गोयमा ! एक्कारसविहा पण्णत्ता । तं जहां- सच्चमणप्पओगगती एवं उवउज्जिऊण जस्स जइविहा तस्स ततिविहा भाणितव्वा जाव वेमाणियाणं । [१०८८ प्र.] भगवन् ! नैरयिकों की कितने प्रकार की प्रयोगगति कही गई हैं ? [ १०८८ उ.] गौतम ! नैरयिकों की प्रयोगगति ग्यारह प्रकार की कही गई है, वह इस प्रकार हैसत्यमनःप्रयोगगति इत्यादि । इस प्रकार उपयोग करके (असुरकुमारों से लेकर) वैमानिक पर्यन्त जिसको जितने प्रकार की गति है, उसकी उतने प्रकार की गति कहनी चाहिए । १०८९. जीवा णं भंते ! किं सच्चमणप्पओगगती जाव कम्मगसरीरकायप्पओगगती ? गोयमा ! जीवा सव्वे वि ताव होज्जा सच्चमणप्पओगगती वि, एवं तं चेव पुव्ववण्णियं भाणियव्वं भंगा तहेव जाव वेमाणियाणं । से त्तं पओगगती । [१०८९ प्र.] भगवन् ! जीव क्या सत्यमनः प्रयोगगति वाले हैं, अथवा यावत् कार्मणशरीरकायप्रयोगगतिक हैं ? [१०८९ उ.] गौतम ! जीव सभी प्रकार की गति वाले होते हैं, सत्यमन: प्रयोगगति वाले भी होते हैं, इत्यादि पूर्ववत् कहना चाहिए। उसी प्रकार (पूर्ववत्) (नैरयिकों से लेकर) वैमानिकों तक कहना चाहिए । यह हुई प्रयोगगति (की प्ररूपणा ।) १०९०. से किं तं ततगती ? ततगती जेणं जं गामं वा जाव सण्णिवेसं वा संपट्टिते असंपत्ते अंतरापहे वट्टति । से त्तं ततगती । [१०९० प्र.] ( भगवन् !) वह ततगति किस प्रकार की है ? [१०९० उ.] (गौतम !) ततगति वह है, जिसके द्वारा जिस ग्राम यावत् सन्निवेश के लिए प्रस्थान किया हुआ व्यक्ति (अभी पहुँचा नहीं, बीच मार्ग में ही है। यह है ततगति ( का स्वरूप 1) १०९१. से किं तं बंधणच्छेयणगती ? बंधणच्छेयणगती जेणं जीवो वा सरीराओ सरीरं वा जीवाओ । से त्तं बंधणच्छेयणगती । [१०९१ प्र.] वह बन्धनछेदगति क्या है ? [१०९१ उ.] बन्धनछेदनगति वह है, जिसके द्वारा जीव शरीर से (बन्धन तोड़कर बाहर निकलता है), अथवा शरीर जीव से (पृथक् होता है।) यह हुआ बन्धनछेदनगति ( का निरूपण) १०९२. से किं तं उववायगती ? Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ ] [ प्रज्ञापनासूत्र खेत्तोववायगती १ भवोववायगती उववायगती तिविहा पण्णत्ता । तं जहा २ णोभवोववातगती ३ । [१०९२ प्र.] उपपातगति कितने प्रकार की है ? [ १०९२ उ.] उपपातगति तीन प्रकार की कही गई है, यथा - १. क्षेत्रोपपातगति, २. भवोपपातगति और ३. नोभवोपपातगति । - १०९३. से किं तं खेत्तोववायगती ? खेत्तोववायगती पंचविहा पण्णत्ता । तं जहा - णेरड्यखेत्तोववातगती १ तिरिक्खजोणियखेत्तोववायगती २ मणूसखेत्तोववातगती ३ देवखेत्तोववातगती ४ सिद्धखेत्तोववायगती ५ । [१०९३ प्र.] क्षेत्रोपपातगति कितने प्रकार की है ? [१०९३ उ.] क्षेत्रोपपातगति पांच प्रकार की कही गई है । यथा- १. नैरयिकक्षेत्रोपपातगति, २ . तिर्यञ्चयोनिकक्षेत्रोपपातगति, ३. मनुष्यक्षेत्रोपपातगति, ४. देवक्षेत्रोपपातगति और ५. सिद्धक्षेत्रोपपातगति । १०९४. से किं तं णेरइयखेत्तोववातगती ? णेरइयखेत्तोववायगती सत्तविहा पण्णत्ता । तं जहा - रयणप्पभापुढविणेरड्यखेत्तोववातगती जाव अहेसत्तमापुढविणेरइयखेत्तोववायगती । से त्तं णेरइयखेत्तोववायगती । [१०९४ प्र.] नैरयिकक्षेत्रोपपातगति कितने प्रकार की है ? [१०९४ उ.] (वह) सात प्रकार की कही गई है- रत्नप्रभापृथ्वीनैरयिकक्षेत्रोपपातगति यावत् अधस्तनसप्तमपृथ्वीनैरयिकक्षेत्रोपपातगति । यह हुई नैरयिकक्षेत्रोपपातगति (की प्ररूपणा) । १०९५. से किं तं तिरिक्खजोणियखेत्तोववायगती ? तिरिक्खजोणियखेत्तोववायगती पंचविहा पण्णत्ता । तं जहा- एगिंदियतिरिक्खजोणियाखेत्तोववायगती जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणियखेत्तोववागती । से त्तं तिरिक्खजोणियखेत्तोववायगती । [१०९५ प्र.] तिर्यञ्चयोनिक क्षेत्रोपपातगति कितने प्रकार की है ? [१०९५ उ.] (वह) पांच प्रकार की कही गई है, वह इस प्रकार - १. एकेन्द्रियतिर्यग्योनिकक्षेत्रोपपातगति, २. द्वीन्द्रियतिर्यग्योनिकक्षेत्रोपपातगति, ३. त्रीन्द्रियतिर्यग्योनिकक्षेत्रोपपातगति, ४. चतुरिन्द्रियतिर्यग्योनिकक्षेत्रोपपातगति और ५ . पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकक्षेत्रोपपातगति । यह हुआ तिर्यग्योनिकक्षेत्रोपपातगति का निरूपण । १०९६. से किं तं मणूसखेत्तोववायगई ? मणूसखेत्तोववायगई दुविहा पण्णत्ता । तं जहा सम्मुच्छिममणूसखेत्तोववायगती गब्भवक्कंतियमणुस्सखेत्तोववायगई । से त्तं मणूसखेत्तोववायगती । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ प्रयोगपद] [२५३ [१०९६ प्र.] वह मनुष्यक्षेत्रोपपातगति कितने प्रकार की है ? [१०९६ उ.] (वह) दो प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार - १. सम्मूर्च्छिम-मनुष्यक्षेत्रोपपातगति और २. गर्भज-मनुष्यक्षेत्रोपपातगति । यह हुआ मनुष्यक्षेत्रोपपातगति का प्रतिपादन । १०९७. से किं तं देवखेत्तोववायगती ? देवखेत्तोववायगती चउव्विहा पण्णत्ता ।तं जहा- भवणवइ जाव वेमाणियदेवखेत्तोववायगती। से त्तं देवखेत्तोववायगती । [१०९७ प्र.] वह देवक्षेत्रोपपातगति कितने प्रकार की है ? [१०९७ उ.] (वह) चार प्रकार की कही गई है, वह इस प्रकार - १. भवनपतिदेवक्षेत्रोपपातगति, यावत् (२. वाणव्यन्तरदेवक्षेत्रोपपातगति, ३. ज्योतिष्कदेवक्षेत्रोपपातगति और) ४. वैमानिक देव क्षेत्रोपपातगति। यह हुआ देवक्षेत्रोपपातगति का निरूपण । १०९८. से किं तं सिद्धखेत्तोववायगती ? सिद्धखेत्तोववायगती, अणेगविहा पण्णत्ता । तं जहा- जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवयवाससपक्खि सपडिदिसिं सिद्धखेत्तोववायगती, जंबुद्दीवे दीवे चुल्लहिमवंत-सिहरिवासहरपव्वयसपक्खि सपडिदिसिं सिद्धखेत्तोववायगती, जंबुद्दीवे दीवे हेमवय-हेरनवयवाससपक्खिं सपडिदिसिं सिद्धखेत्तोववातगती, जंबुद्दीवे दीवे सद्दावति-वियडावतिवट्टवेयड्डसपक्खि सपडिदिसिं सिद्धखेत्तोववायगती, जंबुद्दीवे दीवे महाहिमवंत-रुप्पिवासहरपव्वयसपक्खि सपडिदिसिं सिद्धखेत्तोववातगती, जंबुद्दीवे दीवे हरिवासरम्मगवाससपक्खि सपडिदिसिं सिद्धखेत्तोववातगती, जंबुद्दीवे दीवे गंधावतीमालवंतपरियायवट्टवेयड्ढसपक्खि सपडिदिसिं सिद्धखेत्तोववातगती, जंबुद्दीवे दीवे पुव्वविदेहअवरविदेहसपक्खि सपडिदिसिं सिद्धखेत्तोववातगती, जंबुद्दीवे दीवे देवकुरूत्तरकुरुसपक्खि सपडिदिसिं सिद्धखेत्तोववायगती, लवणसमुद्दे सपक्खि सपडिदिसिं सिद्धखेत्तोववायगती, धायइसंडे दीवे पुरिमद्धपच्छिमद्धमंदरपव्वयस्स सपक्खि सपडिदिसिं सिद्धखेत्तोववातगती, कालोयसमुद्दे सपक्खि सपडिदिसिं सिद्धखेत्तोववातगती, पुक्खरवरदीवड्ड भरहे रवयवाससपक्खि सपडिदिसिं सिद्धखेत्तोववातगती, एवं जाव पुक्खरवरदीवड्डमंदरपव्वयसपक्खि सपडिदिसिं सिद्धखेत्तोववातगती। से त्तं सिद्धखेत्तोववातगती । से त्तं खेत्तोववातगती १ ।। [१०९८ प्र.] वह सिद्धक्षेत्रोपपातगति कितने प्रकार की है ? _[१०९८ उ.] सिद्धक्षेत्रोपपातगति अनेक प्रकार की कही गई है, वह इस प्रकार - जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भरत और ऐरवत वर्ष (क्षेत्र) में सब दिशाओं में, सब विदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति होती है, जम्बूद्वीप नामक द्वीप में क्षुद्र हिमवान् और शिखरी वर्षधरपर्वत में सब दिशाओं में और विदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति होती है, जम्बूद्वीप नामक द्वीप में हैमवत और हैरण्यवत वर्ष में सब दिशाओं और विदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४] [प्रज्ञापनासूत्र होती है, जम्बूद्वीप नामक द्वीप में शब्दापाती और विकटापाती वृत्तवैताढ्यपर्वत में समस्त दिशाओं-विदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति होती है, जम्बूद्वीप नामक द्वीप में महाहिमवन्त और रुक्मी नामक वर्षधर पर्वतों में सब दिशाओं-विदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति होती हैं, जम्बूद्वीप नामक द्वीप में हरिवर्ष और रम्यकवर्ष में सब दिशाओंविदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति होती है, जम्बूद्वीप नामक द्वीप में गन्धावती (गन्धापाती) माल्यवन्तपर्याय वृत्तवैयाढ्यपर्वत में समस्त दिशाओं-विदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति होती है, जम्बूद्वीप नामक द्वीप में निषध और नीलवन्त नामक वर्षधर पर्वत में सब दिशाओं और विदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति होती है, जम्बूद्वीप नामक द्वीप में पूर्वविदेह और अपरविदेह में सब दिशाओं और विदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति होती है, जम्बूद्वीप नामक द्वीप में देवकुरु और उत्तरकुरु (क्षेत्र) में सब दिशाओं-विदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति है तथा जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दरपर्वत की सब दिशाओं और विदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति है। लवणसमुद्र में सब दिशाओं और विदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति है, धातकीषण्डद्वीप में पूर्वार्द्ध और पश्चिमार्द्ध मन्दरपर्वत की सब दिशाओं-विदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति है, कालोदसमुद्र में समस्त दिशाओं-विदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति है, पुष्करवरद्वीपार्द्ध के पूर्वार्द्ध के भरत और ऐरवत वर्ष में सब दिशाओं और विदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति है, पुष्करवरद्वीपार्द्ध के पश्चिमार्द्ध मन्दरपर्वत में सब दिशाओं-विदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति है। यह हुआ सिद्धक्षेत्रोपपातगति का वर्णन । इस प्रकार क्षेत्रोपपातगति का निरूपण पूर्ण हुआ ॥१॥। १०९९. से किं तं भवोववातगती ? भवोववातगती चउव्विहा पण्णत्ता । तं जहा- णेरइय. जाव देवभवोववातगती । से किंतं णेरइयभवोववातगती ? णेरइयभवोववातगती सत्तविहा पण्णत्ता । तं जहा० एवं सिद्धवजो भेओ भाणियव्वो, जो चेव खेत्तोववातगतीए सो चेव भवोववातगतीए ।सेत्तं भवोववातगती २। [१०९९ प्र.] भवोपपातगति कितने प्रकार की है ? [१०९९ उ.] भवोपपातगति चार प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार- नैरयिकभवोपपातगति (से लेकर) देवभवोपपातगति पर्यन्त । [प्र.] नैरयिकभवोपपातगति किस प्रकार की है ? [उ.] नैरयिक भवोपपातगति सात प्रकार की कही गई है, वह इस प्रकार- इत्यादि सिद्धों को छोड़ कर सब भेद (तिर्यग्योनिकभवोपपातगति के भेद, मनुष्यभवोपपातगति के भेद और देवभवोपपातगति के भेद) कहने चाहिए । जो प्ररूपणा क्षेत्रोपपातगति के विषय में की गई थी, वही भवोपपातगति के विषय में कहनी चाहिए । यह हुआ भवोपपातगति का निरूपण । ११००. से किं तं णोभवोववातगती? Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ प्रयोगपद] [२५५ णोभवोववातगती दुविहा पण्णत्ता । तं जहा- पोग्गलणोभवोववातगती य सिद्धणोभवोववातगती य । [११०० प्र.] वह नोभवोपपातगति किस प्रकार की है ? [११०० उ.] नोभवोपपातगति दो प्रकार की कही है, वह इस प्रकार- पुद्गल-नोभवोपपातगति और सिद्ध-नोभवोपपातगति । ११०१. से किं तं पोग्गलणोभवोववातगती? पोग्गलणोभवोववातगती जण्णं परमाणुपोग्गले लोगस्स पुरथिमिल्लओ चरिमंताओ पच्छिमिल्लं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति, पच्छिमिल्लओ वा चरिमंताओ पुरथिमिल्लं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति, दाहिणिल्लओ वा चरिमंताओ उत्तरिल्लं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति, एवं उत्तरिल्लतो दाहिणिल्लं, उवरिल्लाओ हेट्ठिल्लं, हेट्ठिल्लओ वा उवरिल्लं । सेत्तं पोग्गलणोभवोववातगती । [११०१ प्र.] वह पुद्गल-नोभवोपपातगति क्या है ? • [११०१ उ.] जो पुद्गल परमाणु लोक के पूर्वी चरमान्त अर्थात् छोर से पश्चिमी चरमान्त तक एक ही समय में चला जाता है, अथवा पश्चिमी चरमान्त से पूर्वी चरमान्त तक एक समय में गमन करता है, अथवा दक्षिणी चरमान्त से उत्तरी चरमान्त तक एक समय में गति करता है, या उत्तरी चरमान्त से दक्षिणी चरमान्त तक तथा ऊपरी चरमान्त (छोर) से नीचले चरमान्त तक एवं नीचले चरमान्त से ऊपरी चरमान्त तक एक समय में ही गति करता है; यह पुद्गल-नोभवोपपातगति कहलाती है। यह हुआ पुद्गल-नोभवोपपातगति का निरूपण। ११०२. से किं तं सिद्धणोभवोववातगती? सिद्धणोभवोववातगती दुविहा पण्णत्ता । तं जहा- अणंतरसिद्धणोभवोववातगती य परंपरसिद्धणोभवोववातगती य । । [११०२ प्र.] वह सिद्ध-नोभवोपपातगति कितने प्रकार की है ? [११०२ उ.] सिद्ध-नोभवोपपातगति दो प्रकार की कही है, वह इस प्रकार - अनन्तरसिद्ध-नोभवोपपातगति और परम्परसिद्ध-नोभवोपपातगति । ११०३. से किं तं अणंतरसिद्धणोभवोववातगति ? . अणंतरसिद्धणोभवोवंवातगती पन्नरसविहा पण्णत्ता । तं जहा- तित्थसिद्धअणंतरसिद्धणोभवोववातगति य जाव अणेगसिद्धणोभवोववातगती य ।[ से तं अणंतरसिद्धणोभवोववातगती।] [११०३ प्र.] वह अनन्तरसिद्ध-नोभवोपपातगति कितने प्रकार की है ? [११०३ उ.] अनन्तरसिद्ध-नोभवोपपातगति पन्द्रह प्रकार की है। वह इस प्रकार - तीर्थसिद्ध-अनन्तरसिद्ध Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६] [प्रज्ञापनासूत्र नोभवोपपातगति (से लेकर) यावत् अनेकसिद्ध-अनन्तरसिद्ध-नोभवोपपातगति । यह हुआ उस अनन्तरसिद्ध-नोभवोपपातगति का निरूपण । ११०४. से किं तं परंपरसिद्धणोभवोववातगती ? परंपरसिद्धणोभवोववातगती अणेगविहा पण्णत्ता ।तंजहा -अपढमसमयसिद्धणोभवोववातगती एवं दुसमयसिद्धणोभवोववातगती जाव अणंतसमयसिद्धणोभवोववातगती । से त्तं परंपरसिद्धणोभवोववातगती । से त्तं सिद्धणोभवोववातगती । से तं णोभवोववायगती ३ । सेत्तं उववातगती। [११०४ प्र.] परम्परसिद्ध-नोभवोपपातगति कितने प्रकार की है ? [११०४ उ.] परम्परसिद्ध-नोभवोपपातगति अनेक प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकारअप्रथमसमयसिद्ध-नोभवोपपातगति, एवं द्विसमयसिद्ध-नोभवोपपातगति यावत् (त्रिसमय से लेकर संख्यातसमय, असंख्यातसमयसिद्ध) अनन्तसमयसिद्ध-नोभवोपपातगति। यह हुआ परम्परसिद्ध-नोभवोपपातगति (का निरूपण। इसके साथ ही) उक्त सिद्ध-नोभवोपपातगति (का वर्णन हुआ। तदनुसार) पूर्वोक्त नोभवोपपातगति (की प्ररूपणा समाप्त हुई।) (इसकी समाप्ति के साथ ही) उपपातगति (का वर्णन पूर्ण हुआ ।) ११०५. से किं तं विहायगती ? विहायगती सत्तरसविहा पण्णत्ता । तं जहा - फुसमाणगती १ अफुसमाणगती २ उवसंपजमाणगती ३ अणुवसंपजमाणगती ४ पोग्गलगती मंडूयगती ६ णावागती ७ णयगती ८ छायागती ९ छायाणुवायगती १० लेसागती ११ लेस्साणुवायगती १२ उहिस्सपविभत्तगती १३ चउपुरिसपविभत्तगती १४ वंकगती १५ पंकगती १६ बंधणविमोयणगती १७ । [११०५ प्र.] विहायोगति कितने प्रकार है ? - [११०५ उ.] विहायोगति सत्तरह प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार- (१) स्पृशद्गति, २. अस्पृशद्गति, ३. उपसम्पद्यमानगति, ४. अनुपसम्पद्यमानगति, ५. पुद्गलगति, ६. मण्डूकगति, ७. नौकागति, ८. नयगति, ९. छायागति, १०. छायानुपातगति, ११. लेश्यागति, १२. लेश्यानुपातगति, १३. उद्दिश्यप्रविभक्तगति, १४. चतुःपुरुषप्रविभक्तगति, १५. वक्रगति, १६. पंकगति और १७. बन्धनविमोचनगति । ११०६. से किं तं फुसमाणगती ? फुसमाणगती जण्णं परमाणुपोग्गले दुपदेसिय जाव अणंतपदेसियाणं खंधाणं अण्णमण्णं फुसित्ता णं गती पवत्तइ । सेत्तं फुसमाणगती १ । [११०६ प्र.] वह स्पृशद्गति क्या है ? [११०६ उ.] परमाणु पुद्गल की अथवा द्विप्रदेशी (से लेकर) यावत् (त्रिप्रदेशी, चतुःप्रदेशी, पंचप्रदेशी, Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ प्रयोगपद] [२५७ षट्प्रदेशी, सप्तप्रदेशी, अष्टप्रदेशी, नवप्रदेशी, दशप्रदेशी, संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी) अनन्तप्रदेशी स्कन्धों की एक दूसरे को स्पर्श करते हुए जो गति होती है, वह स्पृशद्गति है। यह हुआ स्पृशद्गति का वर्णन ॥ १ ॥ ११०७. से किं तं अफुसमाणगती ? असमाणगती जण्णं एतेसिं चेव अफुसित्ता णं गती पवत्तइ । से त्तं अफुसमाणगती २ । [११०७ प्र.] अस्पृशद्गति किसे कहते हैं ? [११०७ उ.] उन्हीं पूर्वोक्त परमाणु पुद्गलों से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्धों की परस्पर स्पर्श किये बिना ही जो गति होती है; वह अस्पृशद्गति है । यह हुआ अस्पृशद्गति का स्वरूप ॥ २ ॥ १९०८. से किं तं उवसंपज्जमाणगती ? उवसंपज्जमाणगती जण्णं रायं वा जुवरायं वा ईसरं वा तलवरं वा माडंबियं वा कोडुंबियं वा इब्धं वा सिद्धिं वा सेणावई वा सत्थवाहं वा उवसंपज्जित्ता णं गच्छति । से त्तं उवसंपज्जमाणगगी३ । [११०८ प्र.] वह उपसम्पद्यमानगति क्या है ? [११०८ उ.] उपसम्पद्यमानगति वह है, जिसमें व्यक्ति राजा, युवराज, ईश्वर (ऐश्वर्यशाली), तलवर (किसी नृप द्वारा नियुक्त पट्टधर शासक ), माडम्बिक (मण्डलाधिपति), इभ्य ( धनाढ्य ), सेठ, सेनापति या सार्थवाह को आश्रय करके (उनके सहयोग या सहारे से) गमन करता हो। यह हुआ उपसम्पद्यमानगति का स्वरूप ॥ ३ ॥ ११०९. से किं तं अणुवसंपज्जमाणगती ? अणुवसंपज्जमाणगती जण्णं एतेसिं चेव अण्णमण्णं अणुवसंपज्जित्ता णं गच्छति । से तं अणुवसंपज्जमाणगती ४ । [११०९ प्र.] वह अनुपसम्पद्यमानगति क्या है ? [११०९ उ.] इन्हीं पूर्वोक्त (राज आदि) का परस्पर आश्रय न लेकर जो गति होती है, वह अनुपसम्पद्यमान गति है। यह हुआ अनुपसम्पद्यमान गति का स्वरूप ॥४॥ १११०. से किं तं पोग्गलगती ? पोग्गलगती जणं परमाणुपोग्गलाणं जाव अनंतपएसियाणं खंधाणं गती पवत्तति । से तं पोग्गलगती ५ । [१११० प्र.] पुद्गलगति क्या है ? [१११० उ.] परमाणु पुद्गलों की यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्धों की गति पुद्गलगति है । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८] [प्रज्ञापनासूत्र यह हुआ पुद्गलगति का स्वरूप ॥५॥ ११११. से किं तं मंडूयगती ? मंडूयगती जण्णं मंडूए उप्फिडिया उप्फिडिया गच्छति । सेत्तं मंडूयगती ६ । [११११ प्र.] मण्डूकगति का क्या स्वरूप है ? [११११ उ.] मेंढ़क जो उछल-उछल कर गति करता है, वह मण्डूकगति कहलाती है। यह हुआ मण्डूकगति का (स्वरूप ।) ॥६॥ १११२. से किं तं णावागती ? णावागती जण्णं णावा पुव्ववेयालीओ दाहिणवेयालिं जलपहेणं गच्छति, दाहिणवेयालीओ वा अवरवेयालिं जलपहेणं गच्छति । सेत्तं णावागती ७ । [१११२ प्र.] वह नौकागति क्या है ? [१११२ उ.] जैसे नौका पूर्व वैताली (तट) से दक्षिण वैताली की ओर जलमार्ग से जाती है, अथवा दक्षिण वैताली से अपर वैताली की ओर जलपथ से जाती है, ऐसी गति नौकागति है। यह हुआ नौकागति का स्वरूप ॥७॥ . १११३. से किं तं णयगती? णयगती जण्णं णेगम-संगह-ववहार-उज्जुसुय-सह-समभिरूढ-एवंभूयाणं णयाणं जा गती अहवा सव्वणया वि जं इच्छंति। से त्तं णयगती ८ । [१११३ प्र.] नयगति का क्या स्वरूप है ? [१११३ उ.] नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवम्भूत, इन सात नयों की जो प्रवृत्ति है, अथवा सभी नय जो मानते (चाहते या विवक्षा करते) हैं, वह नयगति है। यह हुआ नयगति का स्वरूप ॥८॥ १११४. से किं तं छायागती? छायागती जण्णं हयच्छायं वा गयच्छायं वा नरच्छायं वा किन्नरच्छायं वा महोरगच्छायं वा गंधव्वच्छायं वा उसहच्छायं वा रहच्छायं वा छत्तच्छायंवा उवसंपजित्ताणं गच्छति ।सेत्तं छायागती९। [१११४ प्र.] छायागति किसे कहते हैं ? [१११४ उ.] अश्व की छाया, मनुष्य की छाया, किन्नर की छाया, महोरग की छाया, गन्धर्व की छाया, वृषछाया, रथछाया, छत्रछाया का आश्रय करके (छाया का अनुसरण करके या छाया का आश्रय लेने के Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ प्रयोगपद] लिए) जो गमन होता है, वह छायागति है । यह है छायागति का वर्णन ॥ ९॥ १११५. से किं तं छायाणुवातगती ? छायाणुवातगती जण्णं पुरिसं छाया अणुगच्छति णो पुरिसे छायं अणुगच्छति । से त्तं छायाणु वातगती १० । [२५९ [१११५ प्र.] छायानुपातगति किसे कहते हैं ? [१११५ उ.] छायाः पुरुष आदि अपने निमित्त का अनुगमन करती है, किन्तु पुरुष छाया का अनुगमन नहीं करता, वह छायानुपातगति है। यह हुआ छायानुपातगति ( का स्वरूप । ) ॥ १० ॥ १११६. से किं तं लेस्सागती ? लेस्सांगती जपणं कण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प तारूवत्ताए तावण्णत्ताए तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमति, एवं णीललेस्सा काउलेस्सं पप्प तारूवत्ताए जाव ताफासत्ताए परिणमति, एवं काउलेस्सा वि तेउलेस्सं, तेउलेस्सा वि पम्हलेस्सं, पम्हलेस्सा वि सुक्कलेस्सं पप्प तारूवताए जाव परिणमति । से त्तं लेस्सागती ११ । [१११६ प्र.] लेश्यागति का क्या स्वरूप है ? [१११६ उ.] कृष्णलेश्या (के द्रव्य) को प्राप्त होकर उसी के वर्णरूप में उसी के गन्धरूप में, उसी के रसरूप में तथा उसी के स्पर्शरूप में बार-बार जो परिणत होती है, इसी प्रकार नीललेश्या भी कापोतलेश्या को प्राप्त होकर उसी के वर्णरूप में यावत् उसी के स्पर्शरूप में परिणत होती है, इसी प्रकार कापोतलेश्या भी तेजोलेश्या को, तेजोलेश्या पद्मलेश्या को तथा पद्मलेश्या शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर जो उसी के वर्णरूप में यावत् उसी के स्पर्शरूप में परिणत होती है, वह लेश्यागति है । यह है लेश्यागति का स्वरूप ॥ ११ ॥ १११७. से किं तं लेस्साणुवायगती ? लेस्साणुवायगती जल्लेस्साई दव्वाइं परियाइत्ता कालं करेति तल्लेस्सेसु उववज्जति । तं जहाकण्हलेस्सेसु वा जाव सुक्कलेस्सेसु वा । से त्तं लेस्साणुवायगती १२ । [१११७ प्र.] लेश्यानुपातगति किसे कहते हैं ? [१११७ उ.] जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके (जीव) काल करता (मरता) है, उसी लेश्या वाले (जीवों) में उत्पन्न होता है। जैसे- कृष्णलेश्या वाले यावत् शुक्ललेश्या वाले द्रव्यों में । (इस प्रकार की गति ) श्यानुपातगति है । यह हुआ लेश्यानुपातगति का निरूपण ॥१२॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६०] [ प्रज्ञापनासूत्र १११८. से किं तं उद्दिस्सपविभत्तगती ? उद्दिस्सपविभत्तगती जेणं आयरियं वा उवज्झायं वा थेरं वा पवत्तिं वा गणिं वा गणहरं वा गावच्छेयं वा उद्दिसिय २ गच्छति । से त्तं उद्दिस्सपविभत्तगती १३ । [१११८ प्र.] उद्दिश्यप्रविभक्तगति क्या स्वरूप है ? [१११८ उ.] आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, प्रवर्त्तक, गणि, गणधर अथवा गणावच्छेदक को लक्ष्य (उद्देश्य) करके जो गमन किया जाता है, वह उद्दिश्यप्रविभक्तगति है । यह हुआ उद्दिश्यप्रविभक्तगति का स्वरूप ॥ १३ ॥ १११९. से किं तं चउपुरिसपविभक्तगती ? चउपुरिसपविभत्तगती से जहाणामए चत्तारि पुरिसा समगं पट्ठिता समगं पज्जवट्ठिया १ समगं पट्टिया विसमं पज्जवट्ठिया २ विसमं पट्टिया समगं पज्जवट्ठिया ३ विसमं पट्ठिया विसमं पज्जवट्ठिया ४ | से त्तं चउपुरिसपविभक्तगती १४ । [१११९ प्र.] चतुःपुरुषप्रविभक्तगति किसे कहते हैं ? [१११९ उ.] जैसे- १. किन्हीं चार पुरुषों का एक साथ प्रस्थान हुआ और एक ही साथ पहुँचे, २ . (दूसरे) चार पुरुषों का एक साथ प्रस्थान हुआ, किन्तु वे एक साथ नहीं (आगे-पीछे) पहुँचे, ३. (तीसरे) चार पुरुषों का एक साथ प्रस्थान नहीं ( आगे-पीछे) हुआ, किन्तु पहुँचे चारों एक साथ, तथा ४. (चौथे) चार पुरुषों का प्रस्थान एक साथ नहीं (आगे-पीछे) हुआ और एक साथ भी नहीं (आगे-पीछे) पहुँचे, इन चारों पुरुषों की चतुर्विकल्पात्मकगति चतुः पुरुषप्रविभक्तगति है। यह हुआ चतुःपुरुषप्रविभक्तगति का स्वरूप ॥ १४॥ ११२०. से किं तं वंकगती ? वंकगती चउव्विहा पण्णत्ता । तं जहा- घट्टणया १ थंभणया २ लेसणया ३ पवडणया ४ । से तं वंकगती १५ । [११२० प्र.] वक्रगति किस प्रकार की है ? [११२० उ.] वक्रगति चार प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार - (१) घट्टन से, (२) स्तम्भन से, (३) श्लेषण से और (४) प्रपतन से । यह हुआ वक्रगति (का स्वरूप) ॥ १५ ॥ से किं तं पंकगती ? ११२१. पंगती से जहाणामए केइ पुरिसे सेयंति वा पंकंसि वा उदयंसि वा कार्य उव्वहिया २ गच्छति । से त्तं पंकगती १६ । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ प्रयोगपद] [२६१ [११२१ प्र.] पंकगति का क्या स्वरूप है ? [११२१ उ.] जैसे कोई पुरूष कादे में, कीचड़ में अथवा जल में (अपने) शरीर को दूसरे के साथ जोड़कर गमन करता है, (उसकी) यह (गति) पंकजगति है। ११२२. से किं तं बंधणविमोयणगती ?' बंधणविमोयणगती जण्णं अंबाण वा अंबाडगाण वा माउलुंगाण वा बिल्लाण वा कविट्टाण वा भल्लाण वा फणसाण वा दाडिमाण वा पारेवताण वा अक्खोडाण वा चोराण वा बोराण वा तिंदुयाण वा पक्काणं परियागयाणं बंधणाओ विप्पमुक्काणं णिव्वाघाएणं अहे वीससाए गती पवत्तइ । से त्तं बंधणविमोयणगती १७ ।[से त्तं विहायगती । से त्तं गइप्पवाए ।] ॥पण्णवणाए भगवतीए सोलसमं पओगपयं समत्तं ॥ [११२२ प्र.] वह बन्धनविमोचनगति क्या है ? । [११२२ उ.] अत्यन्त पक कर तैयार हुए, अतएव बन्धन से विमुक्त (छूटे हुए) आम्रों, आम्रातकों, बिजौरों, बिल्वफलों (बेल के फलों) कवीठों, भद्र नामक फलों, कटहलों (पनसों), दाडिमों, पारेवत नामक फलविशेषों, अखरोटों, चोर फलों (चारों), बोरों अथवा तिन्दुकफलों की रुकाटव (व्याघात) न हो तो स्वभाव से ही जो अधोगति होती है, वह बन्धनविमोचनगति है। यह हुआ बन्धनविमोचनगति का स्वरूप ॥ १७॥ इसके साथ ही विहायोगति की प्ररूपणा पूर्ण हुई । यह हुआ गतिप्रपात का वर्णन । विवेचन - गतिप्रपात के भेद-प्रभेद एवं उनके स्वरूप का निरूपण- प्रस्तुत ३७ सूत्रों (सू. १०८६ से ११२२ तक ) में प्रयोगगति आदि पांचों प्रकार के गतिप्रपातों के स्वरूप एवं प्रकारों की प्ररूपणा की गई है। विहायोगति की व्याख्या - आकाश में होने वाली गति को विहायोगति कहते हैं। वह १७ प्रकार की है।(१)स्पृशद्गति- परमाणु आदि अन्य वस्तुओं के साथ स्पृष्ट हो-होकर अर्थात्- परस्पर सम्बन्ध को प्राप्त हो करके जो गमन करते हैं, वह स्पृशद्गति कहलाती है। (२) अस्पृशद्गति- परमाणु आदि अन्य परमाणु आदि से अस्पष्ट रहकर यानि परस्पर सम्बन्ध का अनुभव न करके जो गमन करते हैं, वह अस्पृशद्गति है। जैसे- परमाणु एक ही समय में एक लोकान्त से अपर लोकान्त तक पहुँच जाता है।(३) उपसम्पद्यमानगतिकिसी दूसरे का आश्रय लेकर (यानी दूसरे के सहारे से) गमन करना । जैसे- धन्ना सार्थवाह के आश्रय से धर्मघोष आचार्य का गमन ।(४) अनुपसम्पद्यमानगति-बिना किसी का आश्रय लिये मार्ग में गमन करना। १. ग्रन्थाग्रम् ५००० Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२] [प्रज्ञापनासूत्र (५) पुद्गलगति- पुद्गल की गति । (६) मण्डूकगति- मेंढक की तरह उछल-उछल कर चलना । (७) नौकागति- नौका द्वारा महानदी आदि में गमन करना ।(८) नयगति- नैगमादि नयों द्वारा स्वमत की पुष्टि करना अथवा सभी नयों द्वारा परस्पर.सापेक्ष होकर प्रमाण से अबाधित वस्तु को व्यवस्थापना करना । (९) छायागति- छाया का अनुसरण (अनुगमन) करके अथवा उसके सहारे से गमन करना । (१०) छायानुपातगति- छाया का अपने निमित्तभूत पुरुष का अनुपात-अनुसरण करके गति करना छायानुपातगति है, क्योंकि छाया पुरुष का अनुसरण करती है, किन्तु पुरुष छाया का अनुसरण नहीं करता । (११) लेश्यागति- तिर्यचों और मनुष्यों के कृष्णादि लेश्या कें द्रव्य नीलादि लेश्या के द्रव्यों को प्राप्त करके तद्प में परिणत होते हैं, वह लेश्यागति है।(१२) लेश्यानुपातगति- लेश्या के अनुपात अर्थात्- अनुसार गमन करना लेश्यानुपातगति है। जीव लेश्याद्रव्यों का अनुसरण करता हैं, लेश्याद्रव्य जीव का अनुसरण नहीं करता। जैसा कि मूलपाठ में कहा गया है- जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके जीव काल करता है, वह उसी लेश्या में उत्पन्न होता है। (१३) उद्दिश्यप्रविभक्तगति-प्रविभक्त यानी प्रतिनियत आचार्यादि का उद्देश्य करके उनके पास से धर्मोपदेश सुनने या उनसे प्रश्न पूछने के लिए जो गमन किया जाता है, वह उद्दिश्यप्रविभक्तगति है। (१४) चतुःपुरुषप्रविभक्तगति- चार प्रकार के पुरुषों की चार प्रकार की प्रविभक्त-प्रतिनियत गति चतुःपुरुप्रविभक्तगति कहलाती है।(१५) वक्रगति- चार प्रकार से वक्र-टेढी-मेढी गति करना। वक्रगति के चार प्रकार ये हैं-घट्ठनता- खंजा (लंगड़ी) चाल (गति), स्तम्भनता- गर्दन में धमनी आदि नाड़ी का स्तम्भन होना अथवा आत्मा के अंगप्रदेशों का स्तब्ध हो जाना स्तम्भनता है, श्लेषणता- घुटनों आदि के साथ जांघों आदि का संयोग होना श्लेषणता है, प्रपतन- ऊपर से गिरना । (१६) पंकगति- पंक अर्थात् कीचड़. में गति करना। उपलक्षण से पंक शब्द से 'जल' का भी ग्रहण करना चाहिए । अत: पंक अथवा जल में अपने शरीर को किसी के साथ बांध कर उसके बल से चलना पंकगति है। (१७) बन्धनविमोचनगति- आम आदि फलों का अपने वृन्त (बंधन) से छूट कर स्वभावतः नीचे गिरना, बन्धनविमोचनगति है। सपक्ष सप्रतिदिक्- पक्ष का अर्थ है- पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण रूप पार्श्व । प्रतिदिक् का अर्थ हैविदिशाएँ, इनके साथ। ॥ प्रज्ञापनासूत्र : सोलहवाँ प्रयोगपद समाप्त ॥ १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३२८-३२९ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरसम लेस्सापयं सत्तरहवाँ लेश्यापद प्राथमिक • प्रज्ञापनासूत्र का यह सत्तरहवाँ 'लेश्यापद' है। 'लेश्या' आत्मा के साथ कर्मों को श्लिष्ट करने वाली है। जीव का यह एक परिणाम-विशेष है। इसलिए आध्यात्मिक विकास में अवरोधक होने से लेश्या पर सभी पहलुओं से विचार करना आवश्यक है। इसी उद्देश्य से इस पद में छह उद्देशकों द्वारा लेश्या का सांगोपांग विचार किया गया है। लेश्या का मुश्य कारण मन-वचन-काया का योग है। योगनिमित्तक होने पर भी लेश्या योगान्तर्गत कृष्णादि द्रव्यरूप है। योगान्तर्गत द्रव्यों में कषायों को उत्तेजित करने का सामर्थ्य है। अत: जहाँ कषाय से अनुरंजित आत्मा का परिणाम हुआ, वहाँ लेश्या अशुभ, अशुभतर एवं अशुभतम बनती जाती है, जहाँ अध्यवसाय केवल योग के साथ होता है, वहाँ लेश्या प्रशस्त एवं शुभ होती जाती है।' प्रस्तुत पद के छह उद्देशकों में से प्रथम उद्देशक में नारक आदि चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के आहार, शरीर, श्वासोच्छ्वास, कर्म, वर्ण, लेश्या, वेदना, क्रिया और आयुष्य की समता-विषमता के सम्बन्ध में पृथक्-पृथक् सकारण विचार किया गया है। इसके पश्चात् कृष्णादि लेश्याविशिष्ट २४ दण्डकवर्ती जीवों के विषय में पूर्वोक्त आहारादि सप्त द्वारों की दृष्टि से विचारणा की गई है। . द्वितीय उद्देशक में लेश्या के ६ भेद बता कर नरकादि चार गतियों के जीवों में से छह लेश्याओं में से किसके कितनी लेश्याएँ होती हैं, इसकी चर्चा की गई है। साथ ही कृष्णादिलेश्याविशिष्ट चौवीस दण्डकीय जीवों के अल्पबहुत्व की विस्तृत प्ररूपणा की गई है। अन्त में कृष्णादिलेश्यायुक्त जीवों में कौन किससे अल्पर्द्धिक या महर्द्धिक है ? इसका विचार किया गया है। १. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३२९-३३० (ख) 'लेश्याभिरात्मनि कर्माणि संश्लिष्यन्ते । योग-परिणामो लेश्या । जम्हा अयोगिकेवली अलेस्सो ।' - आवश्यक चूर्णि .. (ग) जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा, पृ. २४७ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४] [प्रज्ञापनासूत्र • तृतीय उद्देशक में कृष्णादिलेश्यायुक्त चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के उत्पाद और उद्वर्तन के सम्बन्ध में ___ एकत्व-बहुत्व एवं सामूहिक लेश्या की अपेक्षा से चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। इस पर से जन्मकाल और मृत्युकाल मे कौन-सा जीव किस लेश्या वाला होता है, यह स्पष्ट फलित हो जाता है। तत्पश्चात् उस-उस लेश्या वाले जीवों के अवधिज्ञान की विषयमर्यादा तथा उस-उस लेश्या वाले जीव में कितने और कौन-से ज्ञान होते हैं ? यह प्ररूपणा की गई है । ॐ चतुर्थ उद्देशक में बताया गया है कि एक लेश्या का, अन्य लेश्या के रूप में परिणमन किस प्रकार होता है। छहों लेश्याओं के पृथक्-पृथक् वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श की प्ररूपणा की गई है। तत्पश्चात् कृष्णादि लेश्याओं के कितने परिणाम, प्रदेश, प्रदेशावगाह, वर्गणा एवं स्थान होते हैं, इसकी प्ररूपणा की गई है। अन्त में कृष्णादि लेश्याओं के स्थान की जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम दृष्टि से द्रव्य, प्रदेश एवं द्रव्य-प्रदेश की अपेक्षा से अल्पबहुत्व की विस्तृत प्ररूपणा की गई है। __ पंचम उद्देशक के प्रारम्भ में तो चतुर्थ उद्देशक के परिणामाधिकार की पुनरावृत्ति की गई है; उसके पश्चात् ऐसा निरूपण है कि उस-उस लेश्या का अन्य लेश्या के रूप में तथा उनके वर्णादि रूप में परिणमन नहीं होता। वृत्तिकार इस पूर्वापर विरोध का समाधान करते हुए कहते हैं कि चतुर्थ उद्देशक में एक लेश्या का अन्य लेश्या के रूप में परिणत होने का जो विधान है, वह तिर्यञ्चों और मनुष्यों की अपेक्षा से समझना चाहिए तथा पंचम उद्देशक में एक लेश्या का दूसरी लेश्या के रूप में परिणत होने का जो निषेध है, वह देवों और नारकों की अपेक्षा से समझना चाहिए। . छठे उद्देशक में भरतादि विविध क्षेत्रों में रहने वाले मनुष्यों और मनुष्य-स्त्रियों की लेश्या सम्बन्धी चर्चा की गई है। इसके बाद यह प्रतिपादन किया गया है कि जनक और जननी की जो लेश्या होती है, वही लेश्या जन्य की होनी चाहिए, ऐसा कोई नियम नहीं है। जनक और जन्य की या जननी और जन्य की लेश्याएँ सम भी हो सकती हैं, विषम भी।' प्रस्तुत लेश्यापद इतना विस्तृत एवं छह उद्देशकों में विभक्त होते हुए भी उत्तराध्ययन आदि आगम-ग्रन्थों में उस-उस लेश्यावाले जीवों के अध्यवसायों की तथा उनके लक्षण, स्थिति, गति एवं परिणति की जैसी विस्तृत चर्चा है तथा भगवतीसूत्र आदि में लेश्या के द्रव्य और भाव, इन दो भेदों का जो वर्णन मिलता है, वह इसमें नहीं है। कहीं-कहीं वर्णन में पुनरावृत्ति भी हुई है। १. (क) पण्णवणासुत्तं भाग. २, प्रस्तावना, पृ. १०४ से १०७ तक (ख) पण्णवणासुत्तं भा. १, पृ. २७४ से ३०३ तक (क) उत्तराध्ययन अ. ३४, गा. २१ से ६१ तक (ख) लेश्याकोषा (संपा. मोहनलाल बांठिया.) (ख) Doctrine of the Jainas (Sheudring) (ग) भगवतीसूत्र श. १२, उद्देशक ५, सू. ४५२ पत्र ४७२ (घ) षट्खण्डागम पु. १, पृ. १३२, ३२६; पु. ३ पु. ४५९; पु. ४ पृ. २९० Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरसमं लेस्सापयं : पढमो उद्देसओ ___सत्तरहवाँ लेश्यापद : प्रथम उद्देशक प्रथम उद्देशक में वर्णित सप्त द्वार __ ११२३. आहार सम सरीरा उस्सासे १ कम्म २ वण्ण ३ लेस्सासु ४ । समवेदण ५ समकिरिया ६ समाउया ७ चेव बोद्धव्वा ॥२०९॥ . [११२३ प्रथम-उद्देशक अधिकारगाथार्थ-] १. समाहार, सम-शरीर और (सम) उच्छ्वास, २. कर्म, ३. समक्रिया तथा ७. समायुष्क, (इस प्रकार सात द्वार प्रथम उद्देशक में) जानने चाहिए ॥ २०९ ॥ . विवेचन- प्रथम उद्देशक में लेश्या से सम्बन्धित सप्तद्वार - प्रस्तुत सूत्र में लेश्यासम्बन्धी समआहार, शरीर-उच्छ्वासादि सातों द्वारों का निरूपण किया गया है। आहारादि प्रत्येक पद के साथ 'सम' शब्द प्रयोग - प्रस्तुत गाथा के पूर्वार्द्ध में 'सम' शब्द का प्रयोग एक बार किया गया है, उसका सम्बनध प्रत्येक पद के साथ जोड़ लेना चाहिए। जैसे- समाहार समशरीर, समउच्छ्वास, समकर्म, समलेश्या, समवेदना, समक्रिया और समायुष्क । लेश्या की व्याख्या - जिसके द्वारा आत्मा कर्मों के साथ श्लेष को प्राप्त होता है, वह लेश्या है। लेश्या की शास्त्रीय परिभाषा है - कृष्णादि द्रव्यों के सान्निध्य से होने वाला आत्मा का परिणाम लेश्या है। कहा भी है - जैसे स्फटिक मणि के पास जिस वर्ण की वस्तु रख दी जाती है, स्फटिक मणि उसी वर्ण वाली प्रतीत होती है, उसी प्रकार कृष्णादि द्रव्यों के संसर्ग से आत्मा में भी उसी तरह का परिणाम होता है। वही परिणाम लेश्या कहलाता है। लेश्या का निमित्तकारण : योग या कषाय ?- कृष्णादि द्रव्य क्या है ? इसका उत्तर यह है कि पाठान्तर - किन्हीं प्रतियों में प्रस्तुत सात द्वारों के बदले 'आहार' के साथ शरीर और उच्छ्वास को सम्मिलित न मान कर पृथक् पृथक् माना है, अतएव नौ द्वार गिनाए हैं । - सं. २. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३२९ (ख) कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात् परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रवर्तते ॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६] [प्रज्ञापनासूत्र योग के सद्भाव में लेश्या का सद्भाव होता है, योग का अभाव होने पर लेश्या का भी अभाव हो जाता है। इस प्रकार योग के साथ लेश्या का अन्वय-व्यतिरेक देखा जाता है। अतएव यह सिद्ध हुआ कि लेश्या योगनिमित्तक है। लेश्या योगनिमित्तक होने पर भी योग के अन्तर्गत द्रव्यरूप है, योगनिमित्तक कर्मद्रव्यरूप नहीं । अगर लेश्या को कर्मद्रव्यरूप माना जाएगा तो प्रश्न होगा - लेश्या घातिकर्मद्रव्यरूप है या अघातिकर्मद्रव्यरूप ? लेश्या घातिकर्मद्रव्यरूप तो हो नहीं सकती, क्योंकि सयोगी केवली में घातिकर्मों का अभाव होने पर भी लेश्या का सद्भाव होता है। वह अघातिकर्मद्रव्य भी नहीं कही जा सकती, क्योंकि अयोगिकेवली में अघातिकर्मों का सद्भाव होने पर भी लेश्या का अभाव होता है। अतएव पारिशेष्यन्याय से लेश्या को योगान्तर्गत द्रव्य ही मानना उचित है। वे ही योगान्तर्गत द्रव्य जब तक कषायों की विद्यमानता है तब तक उनके उदय को भडकाने वाले होते हैं; क्योंकि योग के अन्तर्गत द्रव्यों में कषाय के उदय को भड़काने का सामर्थ्य देखा जाता है। लेश्या कर्मों की स्थिति का कारण नहीं है, किन्तु कषाय स्थिति के कारण हैं। जो लेश्याएँ कषायोदयान्तर्गत होती हैं, वे ही अनुभागबन्ध का हेतु हैं। नैरयिकों में समाहारादि सात द्वारों की प्ररूपणा ११२४. णेरइया णं भंते ! सव्वे समाहारा सव्वे समसरीरा सव्वे समुस्सासणिस्सासा ? गोयमा ! णो इणढे समढें । से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ णेरइया णो सव्वे समाहारा जाव णो सव्वे समुस्सासणिस्सासा? गोयमा ! णेरइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- महासरीरा य अप्पसरीरा य। तत्थ णं जे ते . महासरीरा ते णं बहुतराए पोग्गले आहारेंति बहुतराए पोग्गले परिणामेंति बहुतराए पोग्गले उस्ससंति बहुतराए पोग्गले णीससंति, अभिक्खणं आहारेंति अभिक्खणं परिणामेंति अभिक्खणं ऊससंति अभिक्खणं णीससंति।तत्थ णं जे ते अप्पसरीरा ते णं अप्पतराए पोग्गले आहारेंति अप्पतराए पोग्गले परिणामेंति अप्पतराए पोग्गले ऊससंति अप्पतराए पोग्गले णीससंति आहच्च आहारेंति आहच्च परिणामेंति आहच्च ऊससंति आहच्च णीससंति, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ रइया णो सव्वे समाहारा णो सव्वे समसरीरा णो सव्वे समुस्सासणीसासा १ । [११२४ प्र.] भगवन् ! क्या नारक सभी समान आहार वाले हैं, सभी समान शरीर वाले हैं तथा सभी समान उच्छ्वास-निःश्वास वाले होते है ? [११२४ उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से आप ऐसा कहते हैं कि नारक भी सभी समाहार नहीं है, यावत् सम १. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय: वृत्ति, पत्रांक ३३०-३३१ (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भाग ४, पृ. ४-५ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : प्रथम उद्देशक ] उच्छ्वास-निःश्वास वाले नहीं होते ? [उ.] गौतम ! नारक दो प्रकार के हैं, वे इस प्रकार - महाशरीर वाले और अल्पशरीर वाले । उनमें से जो महाशरीर वाले नारक होते हैं, वे बहुत अधिक पुद्गलों का आहार करते हैं, प्रभूततर पुद्गलों को परिणत करते हैं, बहुत-से पुद्गलों का उच्छ्वास लेते हैं, और बहुत से पुद्गलों का निःश्वास छोड़ते हैं। वे बार-बार आहार करते हैं, बार-बार (पुद्गलों को) परिणत करते हैं, बार-बार उच्छ्वसन करते हैं। वे बार-बार निःश्वसन करते हैं, उनमें जो छोटे (अल्प) शरीर वाले हैं, वे अल्पतर (थोड़े) पुद्गलों का आहार करते हैं, अल्पतर पुद्गलों को परिणत करते हैं, अल्पतर पुद्गलों का उच्छ्वास लेते हैं और अल्पतर पुद्गलों का निःश्वास छोड़ते हैं। वे कदाचित् आहार करते हैं, कदाचित् (पुद्गलों को) परिणत करते हैं तथा कदाचित् उच्छ्वसन करते हैं और कदाचित् निःश्वसन करते हैं। इस हेतु से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि नारक सभी समान आहार वाले नहीं होते, समान शरीर वाले नहीं होते और न ही समान उच्छ्वास- नि:श्वास वाले होते हैं । - प्रथम द्वारा ॥ १ ॥ ११२५. णेरड्या णं भंते सव्वे समकम्मा ? गोयमा ! णो इणट्टे समट्टे । सेकेणणं भंते! एवं वुच्चइ ? णेरड्या णो सव्वे समकम्मा ? गोयमा ! णेरइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - पुव्वोववण्णगा य पच्छोववण्णगा य । तत्थ णं जे ते पुव्वोववण्णगा ते णं अप्पकम्मतरागा । तत्थ णं जे ते पच्छोववण्णगा ते णं महाकम्मतरागा, एणणं गोयमा ! एवं वुच्चइ णेरइया णो सव्वे समकम्मा २ । [११२५ प्र.] भगवन् ! नैरयिक क्या सभी समान कर्म वाले होते हैं ? [११२५ उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । [२६७ [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से आप ऐसा कहते हैं कि नारक सभी समान कर्म वाले नहीं होते ? [उ.] गौतम ! नारक दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार पूर्वोपपन्नक (पहले उत्पन्न हुए) और पश्चादुपपन्नक (पीछे उत्पन्न हुए) । उनमें जो पूर्वोपपन्नक हैं, वे (अपेक्षाकृत) अल्प कर्म वाले हैं और उनमें जो पश्चादुपपन्नक हैं, वे महाकर्म (बहुत कर्म) वाले हैं। इस कारण हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि नैरयिक सभी समान कर्म वाले नहीं होते । - द्वितीय द्वार ॥ २ ॥ ११२६. णेरइया णं भंते ! सव्वे समवण्णा ? गोयमा ! णो इणट्टे | - णणं भंते! एवं वुच्चइ णेरड्या णो सव्वे समवण्णा ? गोमा ! णेरड्या दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - पुव्वोववण्णगा य पच्छोववण्णा । तत्थ जे ते पुव्वोववण्णगा ते णं विसुद्धवण्णतरागा । तत्थ णं जे ते पच्छोववण्णगा ते णं अविसुद्धवण्णतरागा, Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८] [प्रज्ञापनासूत्र से एएणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ णेरइया णो सव्वे समवण्णा ३ । [११२६ प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक सभी समान वर्ण वाले होते हैं ? [११२६ उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से आप ऐसा कहते हैं कि नैरयिक सभी समान वर्ण वाले नहीं होते ? [उ.] गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के कहे गए हैं। वे.इस प्रकार - पूर्वोपपन्नक और पश्चादुपपन्नक। उनमें से जो पूर्वोपपन्नक हैं, वे अधिक विशुद्ध वर्ण वाले होते हैं और उनमें जो पश्चादुपपन्नक होते हैं, वे अविशुद्ध वर्ण वाले होते हैं। इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा जाता हैं कि नैरयिक सभी समान वर्ण वाले नहीं होते । _ -तृतीय द्वार ॥३॥ , ११२७. एवं जहेव वण्णेण भणिया तहेव लेस्सासु वि विसुद्धलेस्सतरागा अविसुद्धलेस्सतरागा य भाणियव्वा ४ । __ [११२७] जैसे वर्ण की अपेक्षा से नारकों को विशुद्ध और अविशुद्ध कहा है, वैसे ही लेश्या की अपेक्षा भी नारकों को विशुद्ध और अविशुद्ध कहना चाहिए । -चतुर्थद्वार ॥ ४॥ ११२८. णेरड्या णं भंते ! सव्वे समवेवणा? गोयमा ! णो इणढे समटे । से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ णेरड्या णो सव्वे समवेयणा ? गोयमा ! णेरइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - सण्णिभूया य असण्णिभूया य । तत्थ णं जे ते सण्णिभूया ते णं महावेदणतरागा । तत्थ णं जे ते असण्णिभूया ते णं अप्पवेदणतरागा, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ नेरइया नो सव्वे समवेयणा ५ । [११२८ प्र.] भगवन् ! सभी नारक क्या समान वेदना वाले होते हैं ? [११२८ उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । [प्र.] भगवन् ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं कि सभी नारक समवेदना वाले नहीं होते? [उ.] गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के कहे हैं, वे इस प्रकार - संज्ञीभूत (जो पूर्वभव में संज्ञी पंचेन्द्रिय थे) और असंज्ञीभूत (जो पूर्वभव में असंज्ञी थे)। उनमें जो संज्ञीभूत होते हैं, वे अपेक्षाकृत महान् वेदना वाले होते हैं और उनमें जो असंज्ञीभूत होते हैं वे अल्पतर वेदना वाले होते हैं। इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सभी नैरयिक समवेदना वाले नहीं होते । -पंचमद्वार ॥५॥ ११२९. णेरइया णं भंते ! सव्वे समकिरिया ? गोयमा ! णो इणढे समटे । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : प्रथम उद्देशक] [२६९ से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ णेरड्या णो सव्वे समकिरिया ? गोयमा ! णेरइया तिविहा पण्णत्ता, तं जहा - सम्मट्ठिी मिच्छट्ठिी सम्मामिच्छट्ठिी । तत्थ णं जे ते सम्मट्ठिी तेसिणं चत्तारि किरियाओ कजंति, तं जहा - आरंभिया १ परिग्गहिया २ मायावत्तिया ३ अपच्चक्खाणकिरिया ४ । तत्थ णं जे ते मिच्छट्ठिी जे य सम्मामिच्छट्टिी तेसिं नियताओ पंच किरियाओ कजंति, तं जहा - आरंभिया १ परिग्गहिया २ मायावत्तिया ३ अपच्चक्खाणकिरिया ४ मिच्छादसणवत्तिया ५, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ णेरइया णो सव्वे समकिरिया ६ । [११२९ प्र.] भगवन् ! सभी नारक क्या समान क्रिया वाले होते हैं ? [११२९ उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से आप ऐसा कहते हैं कि सभी नारक समान क्रिया वाले नहीं होते ? [उ.] गौतम ! नारक तीन प्रकार के कहे हैं - सम्यदृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि। और सम्यग्मिथ्यादृष्टि । उनमें से जो सम्यग्दृष्टि हैं, उनके चार क्रियाएँ होती हैं, वे इस प्रकार - १. आरम्भिकी, २. पारिग्रहिकी, ३. मायाप्रत्यया, ४. अप्रत्याख्यानक्रिया। जो मिथ्यादृष्टि हैं तथा जो सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं, उनके नियम (निश्चितरूप से) पांच कियाएँ होती हैं - १. आरम्भिकी, २. पारिग्रहिकी, ३. मायाप्रत्यया, ४. अप्रत्याख्यानक्रिया और ५. मिथ्यादर्शनप्रत्यया । हे गौतम ! इस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि सभी नारक समान क्रिया वाले नहीं होते । -छठा द्वार ॥६॥ ११३०. णेरइया णं भंते ! सव्वे समाउया ? गोयमा ! णो इणढे समढे । से केणटे णं भंते ! एवं वुच्चइ ? गोयमा ! णेरइया चउव्विहा पण्णत्ता,तं जहा - अत्थेगइया समाउया समोववण्णगा १ अत्थेगइया समाउया विसमोववण्णगा २ अत्थेगइया विसमाउया समोववण्णगा ३ अत्थेगइया विसमाउया विसमोववण्णगा ४, से एएणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ णेरड्या णो सव्वे समाउया णो सव्वे समोववण्णगा ७ । [११३० प्र.] भगवन् ! क्या सभी नारक समान आयुष्य वाले हैं ? [११३० उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । [प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि सभी नारक समान आयु वाले नहीं होते ? [उ.] गौतम ! नैरयिक चार प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार- १. कई नारक समान आयु वाले और समान (एक साथ) उत्पत्ति वाले होते हैं, २.कई समान आयु वाले, किन्तु विषम उत्पत्ति (आगे-पीछे उत्पन्न Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७०] [प्रज्ञापनासूत्र होने) वाले होते हैं, ३. कई विषम (असमान) आयु वाले और एक साथ उत्पत्ति वाले होते हैं तथा ४. कई विषम आयु वाले और विषम ही उत्पत्ति वाले होते हैं। इस कारण से हे गौतम ! सभी नारक न तो समान आयु वाले होते हैं और न ही समान उत्पत्ति (एक साथ उत्पन्न होने) वाले होते हैं। विवेचन - नैरयिकों में समाहारादि सप्त द्वारों की प्ररूपणा - प्रस्तुत सात सूत्रों में नैरयिकों में आहार आदि पूर्वोक्त सात द्वारों से सम्बन्धित समानता-असमानता की चर्चा की गई है। महाशरीर-अल्पशरीर - जिन नारकों को शरीर अपेक्षाकृत विशाल होता है, वे महाशरीर और जिनका शरीर अपेक्षाकृत छोटा होता है, वे अल्पशरीर कहलाते हैं। नारक जीव का शरीर छोटे से छोटा (जघन्य) अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण होता है और बड़े से बड़ा (उत्कृष्ट) शरीर पांच सौ धनुष का होता है। यह प्रमाण भवधारणीय शरीर की अपेक्षा से है, उत्तरवैक्रिय शरीर की अपेक्षा से जघन्य अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट एक हजार धनुष-प्रमाण होता है। शंका-समाधान - नारकों की आहारसम्बन्धी विषमता पहले न बतलाकर पहले शरीरसम्बन्धी विषमता क्यों बतलाई गई है ? इसका कारण यह है कि शरीरों की विषमता बतला देने पर आहार, उच्छ्वास आदि की विषमता शीघ्र समझ में आ जाती है। इस आशय से दूसरे स्थान में प्रतिपाद्य शरीर-सम्बन्धी प्रश्न का समाधान पहले किया गया है। महाशरीरादिविशिष्ट नारकों में विसदृशता क्यों ? - जो नारक महाशरीर होते हैं, वे अपने से अल्प शरीर वाले नारकों की अपेक्षा बहुत पुद्गलों का आहार करते हैं, क्योंकि उनका शरीर बड़ा होता है। लोक में । यह प्रसिद्ध है कि महान् शरीर वाले हाथी आदि अपने से छोटे शरीर वाले खरगोश आदि से अधिक आहार करते हैं। किन्तु यह कथन बाहुल्य की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि कोई-कोई तथाविध मनुष्य के समान बड़े शरीर वाला होकर भी अल्पाहारी होता है और कोई-कोई छोटे शरीर वाला होकर भी अतिभोजी होता है। यहाँ अल्पता और महत्ता भी सापेक्ष समझनी चाहिए । नारक जीव सातावेदनीय के अनुभव के विपरीत असातावेदनीय का उदय होने से ज्यों-त्यों महाशरीर वाले, अत्यन्त दुःखी एवं तीव्र आहाराभिलाषा वाले होते हैं, त्यों-त्यों वे बहुत अधिक पुद्गलों का आहार करते हैं तथा बहुत अधिक पुद्गलों को परिणत करते हैं। परिणमन आहार किये हुए पुद्गलों के अनुसार होता है। यहाँ परिणाम के विषय में प्रश्न न होने पर भी उसका प्रतिपादन कर दिया गया है, क्योंकि वह आहार का कार्य है। इसी प्रकार महाशरीर वाले होने से वे बहुत अधिक पुद्गलों की उच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते हैं और निःश्वास के रूप में छोड़ते हैं। जो बड़े शरीर वाले होते हैं तथा दुःखित भी अधिक होते हैं, इसलिए ऐसे नारक दुःखित भी अधिक कहे गए हैं। आहारादि की कालकृत विषमता - अपेक्षाकृत महाशरीर वाले अपनी अपेक्षा लघुशरीर वालों से शीघ्र और शीघ्रतर तथा पुनः पुनः आहार ग्रहण करते देखे जाते हैं। जब आहार बार-बार करते हैं तो उसका परिणमन भी बार-बार करते हैं तथा वे बार-बार उच्छ्वास ग्रहण करते और नि:श्वास छोड़ते हैं। आशय यह है Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : प्रथम उद्देशक [२७१ कि महाकाय नारक महाशरीर वाले होने से अत्यन्त दुःखित होने के कारण निरन्तर उच्छ्वासदि क्रिया करते रहते हैं । जो नारक अपेक्षाकृत लघुकाय होते हैं, वे महाकाय नारकों की अपेक्षा अल्पतर पुद्गलों का आहार करते हैं, अल्पतर पुद्गलों को ही परिणत करते हैं। तथा अल्पतर पुद्गलो को ही उच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते हैं और निःश्वास के रूप में छोड़ते हैं। वे कदाचित् आहार करते हैं, सदैव नहीं। तात्पर्य यह है कि महाकाय नारकों के आहार का जितना व्यवधनकाल है, उसकी अपेक्षा लघुकाय नारकों के आहार का व्यवधानकाल (अन्तर) अधिक है। कदाचित् आहार करने के कारण वे (अल्पाहारी) उसका परिणणमन भी कदाचित् करते हैं, सदा नहीं। इसी प्रकार वे कदाचित् उच्छ्वास लेते हैं और कदाचित् ही नि:श्वास छोड़ते हैं। क्योंकि लघुकाय नारक महाकाय नारकों की अपेक्षा अल्प दुःख वाले होने से निरन्तर उच्छ्वास-निःश्वास क्रिया नहीं करते, किन्तु बीच में व्यवधान डालकर करते हैं । अथवा अपर्याप्तिकाल में अल्पशरीर वाले होने से लोमाहार की अपेक्षा से वे आहार नहीं करते तथा श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति पूर्ण न होने से उच्छ्वास नहीं लेते; अन्य काल (पर्याप्तिकाल) में आहार और उच्छ्वास लेते हैं । पूर्वोत्पन्न और पश्चादुत्पन्न नारकों में कर्म, वर्ण लेश्या का अन्तर - जो नारक पहले उत्पन्न हो चुके हैं, वे अल्पकर्म वाले होते हैं, क्योंकि पूर्वोत्पन्न नारकों को उत्पन्न हुए अपेक्षाकृत अधिक समय व्यतीत हो चुका है, वे नरकायु, नरकगति और असातावेदनीय आदि कर्मों की बहुत निर्जरा कर चुके होते हैं, उनके ये कर्म थोड़े ही शेष रहे होते हैं। इस कारण पूर्वोत्पन्न नारक अल्पकर्म वाले कहे गए हैं। किन्तु जो नारक बाद में उत्पन्न हुए हैं, वे महाकर्म वाले होते हैं, क्योंकि उनकी नरकायु, नरकगति तथा असातावेदनीय आदि कर्म थोड़े ही निर्जीर्ण हुए हैं, बहुत-से कर्म अभी शेष हैं। इस कारण वे अपेक्षाकृत महाकर्म वाले हैं । यह कथन समान स्थिति वाले नारकों की अपेक्षा से समझना चाहिए, अन्यथा रत्नप्रभापृथ्वी में किसी उत्कृष्ट आयु वाले नारक की आयु का बहुत-सा भाग निर्जीर्ण हो चुका हो, वह सिर्फ एक पल्योपम ही शेष रह गया हो, दूसरी ओर उस समय कोई जघन्य दस हजार वर्षों की स्थिति वाला नारक पश्चात् उत्पन्न हुआ हो तो भी इस पश्चादुत्पन्न नारक की अपेक्षा उक्त पूर्वोत्पन्न नारक भी महान् कर्म वाला ही होता है। इसी प्रकार जिन्हें उत्पन्न हुए अपेक्षाकृत अधिक समय व्यतीत हो चुका है, वे विशुद्धतर वर्ण वाले होते हैं। नारकों में अप्रशस्त (अशुभ) वर्णनामकर्म के उत्कट अनुभाग का उदय होता है, किन्तु पूर्वोत्पन्न नारकों के उस अशुभ अनुभाग का बहुत-सा भाग निर्जीर्ण हो चुकता है, स्वल्प भाग शेष रहता है। वर्णनामकर्म पुद्गलविपाकी प्रकृति है। अतएव पूर्वोत्पन्न नारक विशुद्धतर वर्ण वाले होते हैं, जब कि पश्चादुत्पन्न नारक अविशुद्धतर वर्ण वाले होते हैं, क्योंकि भव के कारण होने वाले उनके अशुभ नामकर्म का अधिकाशं अशुभ तीव्र अनुभाग निर्जीर्ण नहीं होता, सिर्फ थोड़े-से भाग की ही निर्जरा हो पाती है। इस कारण बाद में उत्पन्न नारक अविशुद्धतर वर्ण वाले होते हैं । यह कथन भी समान स्थिति वाले नारकों की अपेक्षा से समझना चाहिए। इसी प्रकार पूर्वोत्पन्न नारक अप्रशस्त लेश्याद्रव्यों के बहुत-से भाग को निर्जीर्ण कर चुकते हैं, इस कारण १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३३२-३३३ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२] [प्रज्ञापनासूत्र वे विशुद्धतर लेश्या वाले होते हैं, जबकि पश्चादुत्पन्न नारक अप्रशस्त लेश्याद्रव्यों के अल्पतम भाग की ही निर्जरा कर पाते हैं, उनके बहुत-से अप्रशस्त लेश्याद्रव्य शेष बने रहते हैं। संज्ञीभूत और असंज्ञीभूत नारकों की वेदना में अन्तर - जो जीव पहले (अतीत में) संज्ञीपंचेन्द्रिय थे और फिर नरक में उत्पन्न हुए हैं, वे संज्ञीभूत नारक कहलाते हैं और जो उनसे विपरीत हों, वे असंज्ञीभूत कहलाते हैं, वे अपेक्षाकृत महावेदना वाले होते हैं, क्योंकि जो (भूतकाल में) संज्ञी थे, उन्होंने उत्कट अशुभ अध्यवसाय के कारण उत्कट अशुभ कर्मों का बन्ध किया है तथा वे महानारकों में उत्पन्न हुए हैं। इसके विपरीत जो नारक असंज्ञीभूत हैं, वे अल्पतर वेदना वाले होते हैं। असंज्ञी जीव नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगति में से किसी भी गति का बन्ध कर सकते हैं। अतएव वे नरकायु का बन्ध करके नरक में उत्पन्न होते हैं, किन्तु अति तीव्र अध्यवसाय न होने से रत्नप्रभापृथ्वी के अन्तर्गत अति तीव्रवेदना न हो ऐसे नारकावासों में ही उत्पन्न होते हैं। अथवा संज्ञी का तात्पर्य यहाँ सम्यग्दृष्टि है। संज्ञीभूत अर्थात् सम्यग्दृष्टि नारक पूर्वकृत अशुभ कर्मों के लिए मानसिक दुःख-परिताप का अनुभव करने के कारण अधिक वेदना वाले होते हैं । असंज्ञीभूत (मिथ्यादृष्टि) नारक को ऐसा परिताप नहीं होता, अतएव वह अल्पवेदना वाला होता है। आरम्भिकी आदि क्रियाओं के लक्षण - आरम्भिकी- जीव-हिंसाकारी प्रवृत्ति (व्यापार) आरम्भ कहलाती है। आरम्भ से होने वाली कर्मबंधकारणभूत क्रिया आरम्भिकी है। धर्मोपकरणों से भिन्न पदार्थों का ममत्ववश स्वीकार करना अथवा धर्मोपकरणों के प्रति मूर्छा होना परिग्रह है, उसके कारण होने वाली क्रिया पारिग्रहिकी क्रिया है। माया, उपलक्षण से क्रोधादि के निमित्त से होने वाली क्रिया। मायाप्रत्यया है। अप्रत्याख्यान क्रिया - अप्रत्याख्यान - पापों से अनिवृत्ति के कारण होने वाली क्रिया। मिथ्यादर्शनप्रत्ययामिथ्यात्व के कारण होने वाली क्रिया।शंका-समाधान- यद्यपि मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चार कर्मबन्ध के कारण बताए गए हैं, जबकि यहाँ आरम्भिकी आदि क्रियाएँ कर्मबन्ध की कारण बताई गई हैं, अतः दोनों में विरोध है, ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यहाँ आरम्भ और परिग्रह शब्द से 'योग' को ग्रहण किया गया है क्योंकि योग आरम्भ-परिग्रहरूप होता है, अतएव इनमें कोई विरोध नहीं है। असुरकुमारादि भवनपतियों में समाहारादि सप्त प्ररूपणा ११३१. असुरकुमारा णं भंते ! सव्वे समाहारा ? सच्चेव पुच्छा । गोयमा ! णो इणढे समढ़े, जहा णेरइया (सु. ११२४)। [११३१ प्र.] भगवन् ! सभी असुरकुमार क्या समान आहार वाले हैं ? इत्यादि पृच्छा (पूर्ववत्) । [११३१ उ.] यह अर्थ समर्थ नहीं है । (शेष सब निरूपण) (सू. ११२४ के अनुसार) नैरयिकों (की १. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक ३३३ २. वही, मलय. वृत्ति. पत्रांक ३३४ ३. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक ३३५ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : प्रथम उद्देशक] [२७३ आहारादि-प्ररूपणा) के समान (जानना चाहिए) । ११३२. असुरकुमारा णं भंते ! सव्वे समकम्मा ? गोयमा ! णो इणढे समढे । से केणतुणं भंते ! एवं वुच्चइ ? गोयमा ! असुरकुमारा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - पुव्वोवण्णगा य पच्छोववण्णगा य।तत्थ णं जे ते पुव्वोववण्णगा ते णं महाकम्मतरागा । तत्थ णं जे ते पच्छोववण्णगा ते णं अप्पकम्मतरागा, से एएणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ असुरकुमारा णो सव्वे समकम्मा । [११३२ प्र.] भगवन् ! सभी असुरकुमार समान कर्म वाले हैं ? [११३२ उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से कहते हैं कि सभी असुरकुमार समान कर्म वाले नहीं हैं ? [उ.] गौतम ! असुरकुमार दो प्रकार के कहे गये हैं, वे इस प्रकार - पूर्वोपपन्नक और पश्चादुपपन्नक। उनमें जो पूर्वोपपन्नक हैं, वे महाकर्म वाले हैं। उनमें जो पश्चादुपपन्नक हैं, वे अल्पतरकर्म वाले हैं । इसी कारण हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सभी असुरकुमार समान कर्म वाले नहीं हैं। ११३३.[१] एवं वण्ण-लेस्साए पुच्छा। तत्थ णं जे ते पुव्वोववण्णगा ते णं अविसुद्धवण्णतरागा । तत्थ णं जे ते पच्छोववण्णगा ते णं विसुद्धवण्णतरागा, से एएणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चति असुरकुमारा सव्वे णो समवण्णा । __ [११३३-१ प्र.] इसी प्रकार वर्ण और लेश्या के लिए प्रश्न कहना चाहिए। (भगवन् ! असुरकुमार क्या सभी समान वर्ण और समान लेश्या वाले हैं ?) [११३-१ उ.] गौतम ! (पूर्वोक्त) दो प्रकार के असुरकुमारों में जो पूर्वोपपन्नक हैं, वे अविशुद्धतर वर्ण वाले हैं तथा उनमें जो पश्चादुपपन्नक हैं, वे विशुद्धतर वर्ण वाले हैं। इस कारण गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सभी असुरकुमार समान वर्ण वाले नहीं होते । [२] एवं लेस्साए वि। [११३३-२] इसी प्रकार लेश्या के विषय में (कहना चाहिए ।) ११३४. वेदणाए जहा णेरइया (सु. ११२८)। [११३४] (असुरकुमारों की) वेदना के विषय में (सू. ११२८ में उक्त) नैरयिकों (की वेदनाविषयक प्ररूपणा) के समान (कहना चाहिए।) Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४] [प्रज्ञापनासूत्र ११३५. अवसेसं जहा णेरइयाणं (सु. ११२९-३०)। [११३५] असुरकुमारों की क्रिया एवं आयु के विषय में शेष सब निरूपण (सू. ११२९-११३० के उल्लिखित) नैरयिकों (की क्रिया एवं आयुविषयक निरूपण) के समान (समझना चाहिए ।) । ११३६. एवं जाव थणियकुमारा । [११३६] इसी प्रकार (असुरकुमारों के आहारादि विषयक निरूपण की तरह नागकुमारों से लेकर) स्तनितकुमारों तक (का निरूपण समझना चाहिए ।) विवेचन - असुरकुमारादि भवनपतियों की समाहारादि-प्ररूपणा - प्रस्तुत छह सूत्रों (सू. ११३१ से ११३६ तक) में असुरकुमारादि दस प्रकार के भवनपतिदेवों की आहारादि सप्त द्वारों द्वारा प्ररूपणा की गई है। असुरकुमारों आदि का महाशरीर - लघुशरीर - असुरकुमारों का अधिक से अधिक बड़ा शरीर सात हाथ का होता है। भवधारणीय शरीर की अपेक्षा से यह प्रमाण है। उनके लघशरीर का जघन्यप्रमाण अंगुल के असंख्यातवें भाग का समझना चाहिए। उत्तरवैक्रिय की अपेक्षा उनका महाशरीर उत्कृष्ट एक लाख योजन और लघुशरीर जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है। इस प्रकार जो असुरकुमार भवधारणीय शरीर की अपेक्षा जितने बड़े शरीर वाले होते हैं, वे उतने ही अधिक पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, और जितने लघुशरीर वाले हैं, वे उतने ही कम पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं । पूर्वोत्पन्न-पश्चादुत्पन्न असुरकुमारादि कर्म के विषय में नारकों से विपरीत - नारकों के विषय में कहा गया था कि पूर्वोत्पन्न नारक अल्पकर्मा और पश्चादुत्पन्न नारक महाकर्मा होते हैं, किन्तु असुरकुमार जो पूर्वोत्पन्न हैं, वे महाकर्मा और जो पश्चादुत्पन्न हैं, वे अल्पकर्मा होते हैं। इसका कारण यह है कि असुरकुमार अपने भव का त्याग करके या तो तिर्यञ्चयोनि में उत्पन्न होते हैं, या मनुष्ययोनि में। तिर्यञ्चयोनि में उत्पन्न होने वाले कई एकेन्द्रियों में - पृथ्वीकाय, अप्काय या वनस्पतिकाय में उत्पन्न होते हैं, और कई पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में भी उत्पन्न होते हैं। जो मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, वे कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, अकर्मभूमिज और समूर्छिम मनुष्यों में नहीं। वहाँ छह महीना आयु शेष रहने पर परभव-सम्बन्धी आयु का बन्ध करते हैं। आयु के बन्ध के समय एकान्त तिर्यञ्चयोग्य अथवा एकान्त मनुष्ययोग्य प्रकृतियों का उपचय करते हैं। इस कारण पूर्वोत्पन्न असुरकुमार महाकर्म वाले होते हैं किन्तु जो बाद में उत्पन्न हुए हैं, उन्होंने अभी तक परभवसम्बन्धी आयुष्य नहीं बांधा है और न ही तिर्यञ्च या मनुष्य के योग्य प्रकृतियों का उपचय किया होता है, इस कारण वे अल्पतर कर्म वाले होते हैं। यह सूत्र पूर्ववत् समान स्थिति वाले, समान भववाले परिमित असुरकुमारों की अपेक्षा से समझना चाहिए । पूर्वोत्पन्न असुरकुमार अविशुद्ध वर्ण-लेश्यावाले, पश्चादुत्पन्न इसके विपरीत - असुरकुमारों को भव की अपेक्षा से प्रशस्त वर्णनामकर्म के शुभ तीव्र अनुभाग का उदय होता है। पूर्वोत्पन्न असुरकुमारों का शुभ १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३३६ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : प्रथम उद्देशक] [२७५ अनुभाग बहुत-सा क्षीण हो चुकता है, इस कारण वे अविशुद्धतर वर्ण वाले होते हैं, किन्तु जो असुरकुमार बाद में उत्पन्न हुए हैं, उनके वर्णनाम कर्म के शुभ अनुभाग का बहुत-सा भाग क्षीण नहीं होता, विद्यमान होता है, अतएव वे विशुद्धतर वर्ण वाले होते हैं। लेश्या के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए। इस विषय में युक्ति यह है कि जो असुरकुमार पहले उत्पन्न हुए हैं, उन्होंने अपनी उत्पत्ति के समय से ही तीव्र अनुभाव वाले लेश्याद्रव्यों को भोग भोग कर उनका बहुत भाग क्षीण कर दिया है। अब उनके मन्द अनुभाग वाले अल्प लेश्याद्रव्य ही शेष रहे हैं । इस कारण पूर्वोत्पन्न असुरकुमार अविशुद्धलेश्या वाले होते हैं और पश्चात् उत्पन्न होने वाले इनसे विपरीत होने के कारण विशुद्धतर लेश्या वाले होते हैं ।" पृथ्वीकायिकों से तिर्यचपंचेन्द्रियों तक में समाहारादि सप्त प्ररूपणा ११३७. पुढविक्वाइया आहार- कम्म-वण्ण-लेस्साहिं जहा णेरइया (सु. ११२४-२७) । [११३७] जैसे (सु. ११२४ से ११२७ तक में) नैरयिकों के (आहार आदि के) विषय में कहा है, उसी प्रकार पृथ्वीकायिकों के (सम-विषम) आहार, कर्म, वर्ण और लेश्या के विषय में कहना चाहिए । ११३८. पुढविक्वाइया णं भंते ! सव्वे समवेदणा ? हंता गोयमा ! सव्वे समवेयणा । सेकेणणं भंते! एवं वुच्चइ ? गोमा ! पुढविक्काइया सव्वे असण्णी असण्णीभूयं अणिययं वेदणं वेर्देति, से तेणट्टेणं गोयमा ! पुढविक्वाइया सव्वे समवेदना | [११३८ प्र.] भगवन् ! क्या सभी पृथ्वीकायिक समान वेदना वाले होते हैं ? [११३८ उ.] हाँ गौतम ! सभी समान वेदना वाले होते हैं । [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से आप ऐसा कहते हैं ? [उ.] गौतम ! सभी पृथ्वीकायिक असंज्ञी होते हैं । असंज्ञीभूत और अनियत वेदना वेदते (अनुभव करते) हैं। इस कारण हे गौतम ! सभी पृथ्वीकायिक समवेदना वाले हैं । ११३९. पुढविक्काइया णं भंते ! सव्वे समकिरिया ? हंता गोयमा ! पुढविक्काइया सव्वे समकिरिया । १. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३३६-३३७ (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भा. ४ पृ. ३८ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ] सेकेणट्टेणं ? तं गोयमा ! पुढविक्काइया सव्वे माइमिच्छद्दिट्ठी, तेसिं णेयतियाओ पंच किरियाओ कज्जंति, जहा- आरंभिया १ परिग्गहिया २ मायावत्तिया ३ अपच्चक्खाणकिरिया ४ मिच्छादंसणवत्तिया ५ । [११३९ प्र.] भगवन् ! सभी पृथ्वीकायिक समान क्रिया वाले होते हैं ? [११३९ उ.] हाँ गौतम ! सभी पृथ्वीकायिक समक्रिया वाले होते हैं । [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? [ प्रज्ञापनासूत्र [उ.] गौतम ! सभी पृथ्वीकायिक मायी - मिथ्यादृष्टि होते हैं, उनके नियत ( निश्चित) रूप से पांचों क्रियाएँ होती हैं। यथा- (१) आरम्भिकी, (२) पारिग्रहिकी, (३) मायाप्रत्यया, (४) अप्रत्याख्यानक्रिया और (५) मिथ्यादर्शनप्रत्यया । ( इसी कारण ) गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सभी पृथ्वीकायिक समान क्रियाओं वाले होते हैं । ११४०. एवं जाव चउरिंदिया | [११४०] पृथ्वीकायिकों के समान ही (अप्कायिकों, तेजस्कायिकों, वायुकायिकों, वनस्पतिकायिकों, द्वीन्द्रियों, त्रीन्द्रियों) यावत् चतुरिन्द्रियों की ( समान वेदना और समान क्रिया कहनी चाहिए) । ११४१. पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा णेरड्या (सु. ११२४-३०) । णवरं किरियाहिं सम्मद्दिट्ठी मिच्छद्दिट्ठी । तत्थ णं जे ते सम्मद्दिट्ठी ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - असंजया य संजयासंजया य । तत्थ णं जे ते संजयासंजया तेसि णं तिण्णि किरियाओ कज्जंति, तं जहा आरंभिया परिग्गहिया मायावत्तिया । तत्थ णं जे ते असंजया तेसि णं चत्तारि किरियाओ कज्जंति, तं जहा आरंभिया १ परिग्गहिया २ मायावत्तिया ३ अपच्चक्खाणकिरिया ४ । तत्थ णं जे ते मिच्छद्दिट्ठी जे य सम्मामिच्छद्दिट्ठी सिं यइयाओ पंच किरियाओ कज्जंति, तं जहा आरंभिया १ परिग्गहिया २ मायावत्तिया ३ अपच्चक्खाणकिरिया ४ मिच्छादंसणवत्तिया ५ । सेसं तं चेव । - - - [११४२] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों का ( आहारादि सप्तद्वार विषयक कथन ) (सू. ११२४ से ११३० तक में उक्त) नैरयिक जीवों के (आहारादि विषयक कथन के अनुसार समझना चाहिए । विशेष यह कि क्रियाओं में नारकों से कुछ विशेषता है। पंचेन्द्रियतिर्यञ्च तीन प्रकार के हैं, यथा सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि । उनमें जो सम्यग्दृष्टि हैं, वे दो प्रकार के हैं - असंयत और संयतासंयत । जो संयतासंयत हैं, उनको तीन क्रियाएँ लगती हैं, वे इस प्रकार - आरम्भिकी, पारिग्रहिकी और मायाप्रत्यया । जो असंयत होते हैं, उनको चार क्रियाएँ लगती हैं ।) इस प्रकार - १. आरम्भिकी, २. पारिग्रहिकी, ३. मायाप्रत्यया और ४. अप्रत्याख्यानक्रिया । (पूर्वोक्त) इन तीनों में से जो मिथ्यादृष्टि हैं और जो सम्यग् - मिथ्यादृष्टि हैं, उनको निश्चित रूप से पांच क्रियाएँ लगती हैं, वे इस प्रकार १. आरम्भिकी, २. पारिग्रहिकी, ३. मायाप्रत्यया, ४ . अप्रत्याख्यानक्रिया और ५. मिथ्यादर्शनप्रत्यया । शेष सब निरूपण उसी प्रकार ( पूर्ववत् करना चाहिए ।) Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : प्रथम उद्देशक ] - विवेचन- पृथ्वीकायिकों से लेकर तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों तक की समाहारादि सप्तद्वार प्ररूपणा - प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. ११३७ से ११४१ तक) में पृथ्वीकायिकों से लेकर तिर्यचपंचेन्द्रियों तक आहाराद सप्तद्वारों की प्ररूपणा की गई हैं । 1 पृथ्वीकायिकों के अल्पशरीर - महाशरीर- यद्यपि सभी पृथ्वीकायिकों का शरीर अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र होता है, तथापि आगम में बताया है कि एक पृथ्वीकायिक दूसरे पृथ्वीकायिक से अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, इत्यादि; तदनुसार वे अपेक्षाकृत महाशरीर और अल्पशरीर सिद्ध होते हैं । जो पृथ्वीकायिक महाशरीर होते है, वे महाशरीर होने के कारण लोमाहार से प्रभूत पुद्गलों का आहार करते हैं, उच्छ्वास लेते है तथा बार-बार आहार करते हैं और श्वासोच्छ्वास लेते हैं। जो अल्पशरीर होते हैं, वे लघुशरीरी होने से अल्प आहार और अल्प श्वासोच्छ्वास लेते हैं, आहार और उच्छ्वास भी कदाचित् लेते हैं, वह पर्याप्तअपर्याप्त अवस्था की अपेक्षा से समझना चाहिए। - पृथ्वीकायिकादि समवेदना वाले क्यों ? - सभी पृथ्वीकायिक असंज्ञी अर्थात् मिथ्यादृष्टि अथवा अमनस्क होते हैं। वे असंज्ञीभूत और अनियत वेदना का वेदन करते हैं। तात्पर्य यह है कि मत्त - मूर्च्छित आदि की तरह तेदना का अनुभव करते हुए भी वे नहीं समझ पाते कि यह मेरे पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मों का परिणाम हैं, क्योंकि वे असंज्ञी और मिथ्यादृष्टि होते हैं । मायी का अर्थ - यहां माया का अर्थ केवल मायाकषाय नहीं, किन्तु अपलक्षण से अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्टय है । अत: मायी का अर्थ यहाँ अनन्तानुबन्धी कषायोदयवान् होने से मिथ्यादृष्टि हैं । मनुष्य में समाहारादि सप्त द्वारों की प्ररूपणा ११४२. मणूसाणं भंते ! सव्वे समाहारा ? गोमा ! णो इट्टे समट्ठे । २. [२७७ सेकेणट्टेणं ? गोमा ! मणूसा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- महासरीरा य अप्पसरीरा य । तत्थ णं जे ते महासरीरा ते णं बहुतराए पोग्गले आहारेंति जाव बहुतराए पोग्गले णीससंति, आहच्च आहारेंति आहच्च णीससंति । तत्थ णं जे ते अप्पसरीरा ते णं अप्पतराए पोग्गले आहारेंति जाव अप्पतराए पोग्गले णीससंति, अभिक्खणं आहारेंति जाव अभिक्खणं नीससंति, एएणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ १. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ३३९ . (ख) 'पुढविकाइए पुढविकाइयस्स ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिए ।' प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३३९ - प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ३३९ में उद्धृत Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८] [ प्रज्ञापनासूत्र मणूसा सव्वे णो समाहारा। सेसं जहा णेरइयाणं (सु. ११२४-३०)। णवरं किरियाहिं मणूसा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा - सम्मद्दिट्ठी मिच्छद्दिट्ठी सम्मामिच्छद्दिट्ठी। तत्थ णं जे ते सम्मद्दिट्ठी ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा- संजया असंजया संजयासंजया। तत्थ णं जे ते संजया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहासरागसंजया य वीयरागसंजया य, तत्थ णं जे ते वीयरागसंजया ते णं अकिरिया। तत्थ णं जे ते सरागसंजया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - पमत्तसंजया य अपमत्तसंजया य, तत्थ णं जे ते अपमत्तसंजया तेसिंएगा मायावत्तिया किरिया कजंति, तत्थ णं जे ते पमत्तसंजया तेसिंदो किरियाओ कजंति, तं जहा - आरंभिया मायावत्तिया य। तत्थ णं जे ते संजयासंजया तेसिं तिण्णि किरियाओ कजंति, तं जहा - आरंभिया १ परिग्गहिया २ मायावत्तिया ३। तत्थ णं जे ते असंजया तेसिं चत्तारि किरियाओ कजंति, तं जहा - आरंभिया १ परिग्गहिया २ मायावत्तिया ३ अपच्चक्खाणकिरिया ४। तत्थ णं जे ते मिच्छद्दिट्ठी जे य सम्मामिच्छद्दिट्ठी तेसिं णेयइयाओ पंच किरियाओ कज्जति, तं जहाआरंभिया १ परिग्गहिया २ मायावत्तिया ३ अपच्चक्खाणकिरिया ४ मिच्छादसणवत्तिया ५ । सेसं जहा णेरइयाणं। [११४२ प्र.] भगवन् ! मनुष्य क्या सभी समान आहार वाले होते हैं ? [११४२ उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि सब मनुष्य समान आहार वाले नहीं है ? [उ.] गौतम ! मनुष्य दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार - महाशरीर वाले और अल्प (छोटे-) शरीर वाले । उनमें जो महाशरीर वाले हैं, वे बहुत-से पुद्गलों का आहार करते हैं, यावत् बहुत-से पुद्गलों का निःश्वास लेते है तथा कदाचित् आहार करते हैं, यावत् कदाचित् निःश्वास लेते हैं। उनमें जो अल्पशरीर वाले हैं, वे अल्पतर पुद्गलों का आहार करते हैं, यावत् अल्पतर पुद्गलों का निःश्वास लेते हैं; बार-बार आहार लेते हैं; यावत् बार-बार निःश्वास लेते हैं। इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सभी मनुष्य समान आहार वाले नहीं है। शेष सब वर्णन (सू. ११२५ से ११३० तक में उक्त) नैरयिकों (के कर्मादि छह द्वारों के निरूपण) के अनुसार (समझ लेना चाहिए ।) किन्तु क्रियाओं की अपेक्षा से (नारकों से किञ्चित्) विशेषता है। (वह इस . प्रकार है -) मनुष्य तीन प्रकार के कहे गए हैं, यथा - सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि । इनमें जो समदृष्टि हैं, वे तीन प्रकार के कहे गए हैं, जैसे कि - संयत, असंयत और संयतासंयत । जो संयत हैं, वे दो प्रकार के कहे हैं - सरागसंयत और वीतरागसंयत । इनमें जो वीतरागसंयत हैं, वे अक्रिय (क्रियारहित) होते हैं। उनमें जो सरागसंयत होते हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा - प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत । इनमें जो अप्रमत्तसंयत होते हैं, उनमें एक मायाप्रत्यया क्रिया ही होती हैं। जो प्रमत्तसंयत होते हैं, उनमें दो क्रियाएँ होती हैं, आरम्भिकी और मायाप्रत्यया । उनमें जो संयतासंयत होते हैं, उनमें तीन क्रियाएँ पाई जाती हैं, यथा - १. आरम्भिकी, २. पारिग्रहकी और ३. मायाप्रत्यया। उनमें जो असंयत हैं, उनमें चार क्रियाएँ पाई जाती हैं, यथा- १. आरम्भिकी, २. पारिग्रहिकी, ३. मायाप्रत्यया और ४. अप्रत्याख्यानक्रिया; किन्तु उनमें जो मिथ्यादृष्टि हैं, अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं, उनमें निश्चितरूप से पांचों क्रियाएँ होती हैं, यथा- १. आरम्भिकी, २. पारिग्रहिकी, Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : प्रथम उद्देशक] [२७९ ३. मायाप्रत्यया, ४. अप्रत्याख्यानक्रिया और ५. मिथ्यादर्शनप्रत्यया। शेष (आयुष्य का) कथन (उसी प्रकार समझ लेना चाहिए,) जैसा नारकों का (किया गया है ।) ___ विवेचन - मनुष्यों में समाहारादि सप्त द्वारों की प्ररूपणा - प्रस्तुत सूत्र (११४२) में मनुष्य में आहारादि सप्त द्वारों की प्ररूपणा की गई हैं । महाशरीर मनुष्यों में आहार एवं उच्छ्वास-निःश्वास-विषयक विशेषता - सामान्यतया महाशरीर मनुष्य बहुतर पुद्गलों का आहार परिणमन तथा उच्छ्वासरूप में ग्रहण और निःश्वासरूप में त्याग करते हैं; किन्तु देवकुरु आदि यौगलिक महाशरीर मनुष्य कवलाहार के रूप में कदाचित् ही आहार करते हैं। उनका आहार अष्टमभक्त से होता है, अर्थात्- वे बीच में तीन-तीन दिन छोड़ कर आहार करते हैं । वे कभी-कभी ही उच्छ्वास और निःश्वास लेते हैं, क्योंकि वे शेष मनुष्यों की अपेक्षा अत्यन्त सुखी होते हैं, इस कारण उनका उच्छ्वास-निश्वास कादाचित्क (कभी-कभी) होता है । अल्पशरीर मनुष्यों के बार-बार आहार एवं उच्छ्वास का कारण - अल्पशरीर वाले मनुष्य बारबार अल्प आहार करते रहते हैं, क्योंकि छोटे बच्चे अल्पशरीर वाले होते हैं, वे बार-बार थोड़ा-थोड़ा आहार करते देखे जाते हैं तथा अल्पशरीर वाले सम्मर्छिम मनुष्यों में सतत आहार सम्भव है; अल्पशरीर वालों में उच्छ्वास-निःश्वास भी बार-बार देखा जाता है, क्योंकि उनमें प्रायः दुःख की बहुलता होती है। पूर्वोत्पन्न मनुष्यों में शुद्ध वर्णादि - जो मनुष्य पूर्वोत्पन्न होते हैं, उनमें तारूण्य के कारण शुद्ध वर्ण आदि होते हैं । सरागसंयत एवं वीतरागसंयत का स्वरूप - जिनके कषायों का उपशम या क्षय नहीं हुआ है, किन्तु जो संयमी हैं, वे सरागसंयमी कहलाते हैं, किन्तु जिनके कषायों का सर्वथा उपशम या क्षय हो चुका है, वे वीतरागसंयमी कहलाते हैं। वीतरागसंयमी में वीतरागत्व के कारण आरम्भादि कोई क्रिया नहीं होती। सरागसंयतों में जों अप्रमत्त संयमी होते हैं, उनमें एकमात्र मायाप्रत्यया और उसमें भी केवल संज्वलनमायप्रत्यया क्रिया होती है, क्योंकि वे कदाचित् प्रवचन (धर्मसंघ) की बदनामी को दूर करने एवं शासन की रक्षा करने में प्रवृत्त होते हैं। उनका कषाय सर्वथा क्षीण नहीं हुआ है। किन्तु जो प्रमत्तसंयत होते हैं, वे प्रमादयोग के कारण आरम्भ में प्रवृत्त होते हैं। इसलिए उनमें आरम्भिकी क्रिया सम्भव है तथा क्षीणकषाय न होने के कारण उनमें मायाप्रत्यया क्रिया भी समझ लेनी चाहिए। शेष सब वर्णन स्पष्ट है। वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिकों की आहारादि विषयक प्ररूपणा ११४३. वाणमंतराणं जहा असुरकुमाराणं (सु. ११३१-३५)। १. 'अट्ठमभत्तस्स आहारो' इति वचनात् । २. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक ३४०-३४१ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८०] [प्रज्ञापनासूत्र [११४३] जैसे असुरकुमारों की (आहारादि की वक्तव्यता सू. ११३१ से ११३५ तक में कही है,) उसी प्रकार वाणव्यन्तर देवों की (आहारादि संबंधी वक्तव्यता कहनी चाहिए ।) ११४४. एवं जोइसिय-वेमाणियाण वि। णवरं ते वेदणाए दुविहा पण्णत्ता, तं जहामाइमिच्छद्दिट्टीउववण्णगाय अमाइसम्मद्दिट्टीउववण्णगा य । तत्थ णं जे ते माइमिच्छद्दिट्टीउववण्णगा ते णं अप्पवेदणतरागा । तत्थ णं जे ते अमाइसम्मद्दिट्ठीउववण्णगा ते णं महावेदणतरागा, से एणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ. । सेसं तहेव । [११४४] इसी प्रकार ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के आहारादि के विषय में भी कहना चाहिए। विशेष यह है कि वेदना की अपेक्षा वे दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार- मायीमिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक । उनमें जो मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक हैं, वे अल्पतर वेदना वाले हैं और जो अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक हैं, वे महावेदना वाले हैं। इसी कारण हे गौतम ! सब वैमानिक समान वेदना वाले नहीं हैं। शेषज्ञ (आहार, वर्ण, कर्म आदि संबंधी सब कथन) पूर्ववत् (असुरकुमारों और वाणव्यन्तरों के समान) समझ लेना चाहिए। विवेचन - वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों की आहारादिविषयक प्ररूपणा - प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. ११४३-११४४) में वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की आहारादिविषयक वक्तव्यता असुकुमारों के अतिदेशपूर्वक कही गई है। ___ वाणव्यन्तरों की समाहारादि वक्तव्यता - असुरकुमार दो प्रकार के होते हैं- संज्ञीभूत और असंज्ञीभूत। जो संज्ञीभूत होते हैं, वे महावेदना वाले और जो असंज्ञीभूत होते हैं, वे अल्पवेदना वाले; इत्यादि कथन किया गया है, उसी प्रकार वाणव्यन्तरों के विषय में भी जानना चाहिए। व्याख्याप्रज्ञप्ति में कहा है- 'असंज्ञी जीवों की उत्पत्ति देवगति में हो तो जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट वाणव्यन्तरों में होती है। अतः असुरकुमारों में असंज्ञी जीवों की उत्पत्ति होती हैं, इस प्रकार जो युक्ति असुरकुमारों के विषय में कही है, वही यहाँ भी जान लेनी चाहिए। ___ असुरकुमारों से ज्योतिष्क, वैमानिकों की वेदना में अन्तर - जैसे असुरकुमारों में कोई असंज्ञीभूत और कोई संज्ञीभूत कहे हैं, वैसे ही ज्योतिष्कों और वैमानिकों में उनके स्थान में मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक कहना चाहिए, क्योंकि ज्योतिष्कनिकाय और वैमानिकनिकाय में असंज्ञी जीव उत्पन्न नहीं होते। इसमें युक्ति यह है कि असंज्ञियों की आयु की उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग की होती है, जबकि ज्योतिष्कों की जघन्यस्थिति भी पल्योपम के असंख्येयभाग की होती है, और वैमानिकों की एक पल्योपम की है। अतएव यह निश्चित है कि उनमें असंज्ञियों का उत्पन्न होना संभव नहीं है। -व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक १, उद्देशक २ १. 'असन्नीसणं जहन्नेणं भवणवासीसु, उक्कोसेणं वाणमंतरेसु ।' २. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३४१ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : प्रथम उद्देशक] [२८१ सलेश्य चौवीसदण्डकवर्ती जीवों की आहारारि सप्तद्वार-प्ररूपणा ११४५. सलेस्सा णं भंते ! णेरइया सव्वे समाहारा समसरीरा समुस्सासणिस्सासा ? सच्चेव पुच्छा। एवं जहा ओहिओ गमओ (सु. ११२४-४४) भणिओ तहा सलेस्सगमओ वि णिरवसेसो भाणियव्वो जाव वेमाणिया । [११४५ प्र.] भगवन् ! सलेश्य (लेश्या वाले) सभी नारक समान आहार वाले, समान शरीर वाले और समान उच्छ्वास-निःश्वास वाले हैं ? (इसी प्रकार आगे के द्वारों के विषय में भी) वही (पूर्ववत्) पृच्छा है, (इसका क्या समाधान ?) [११४५ उ.] (गौतम !) इस प्रकार जैसे सामान्य (समुच्चय नारकों का- औधिक) गम (सू. ११२४ से ११४४ तक में) कहा है, उसी प्रकार सभी सलेश्य (नारकों के सप्तद्वारों के विषय का) समस्त गम यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए । . विवेचन - सलेश्य चौवीसदण्डकवर्ती जीवों की आहारादि सप्तद्वार-प्ररूपणा - प्रस्तुत सूत्र (११४५) में लेश्यावाले नारकों से लेकर वैमानिकों तक समाहारादि सात द्वारों के विषय में प्ररूपणा की गई है। कृष्णादिलेश्याविशिष्ट चौवीस दण्डकों में समाहारादि सप्तद्वार-प्ररूपणा ११४६. कण्हलेस्सा णं भंते ! णेरइया सव्वे समाहारा समसरीरा समुस्सासणिस्सासा पुच्छा ? गोयमा ! जहा ओहिया (सु. ११२४-३०)।णवरं णेरइया वेदणाए माइमिच्छद्दिट्ठिउववण्णगा य अमाइसम्मद्दिट्ठिउववण्णगा य भाणियव्वा । सेसं तहेव जहा ओहियाणं । [११४६ प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या वाले सभी नैरयिक समान आहार वाले, समान शरीर वाले और समान उच्छ्वास-निःश्वास वाले होते हैं । इत्यादि प्रश्न है। [११४६ उ.] गौतम ! जैसे (सू. ११२४ से ११३० तक में) सामान्य (औधिक) नारकों का आहारादिविषयक कथन किया गया है, उसी प्रकार कृष्णलेश्या वाले नारकों का कथन भी समझ लेना चाहिए। विशेषता इतनी है कि वेदना की अपेक्षा नैरयिक मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक, (ये दो प्रकार के) कहने चाहिए । शेष (कर्म, वर्ण, लेश्या, क्रिया और आयुष्य आदि के विषय में) समुच्चय नारकों के विषय में जैसा कहा है, उसी प्रकार (यहाँ भी समझ लेना चाहिए।) ११४७. असुरकुमारा जाव वाणमंतरा एते जहा- ओहिया (सु. ११३१-४३)।णवरं मणूसाणं किरियाहिं विसेसो, जाव तत्थ णं जे ते सम्मद्दिट्टी ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा- संजया असंजया संजयासंजया य, जहा ओहियाणं (सु. ११४२)। [११४७] (कृष्णलेश्यायुक्त) असुरकुमारों से (लेकर नागकुमार आदि भवनपति, पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय, मनुष्य और) यावत् वाणव्यन्तर के आहारादि सप्त द्वारों के विषय में Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ ] [ प्रज्ञापनासूत्र उसी प्रकार कहना चाहिए, जैसा (सू. ११३१ से ११४३ तक में) समुच्चय असुरकुमारादि के विषय में कहा गया है। मनुष्यों में (समुच्चय से) क्रियाओं की अपेक्षा कुछ विशेषता है । जिस प्रकार समुच्चय मनुष्यों का क्रियाविषयक कथन सूत्र ११४२ में किया गया है, उसी प्रकार कृष्णलेश्यायुक्त मनुष्यों का कथन भी यावत्"उनमें से जो सम्यग्दृष्टि हैं, वे तीन प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार - संयत, असंयत और संयतासंयत"; (इत्यादि सब कथन पूर्ववत् करना चाहिए ।) ११४८. जोइसिय-वेमाणिया आइल्लिगासु तिसु लेस्सासु ण पुच्छिज्जंति । [११४८] ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में प्रारम्भ की तीन लेश्याओं (कृष्ण, नील और कापोत लेश्या) को लेकर प्रश्न नहीं करना चाहिए । ११४९. एवं जहा किण्हलेस्सा विचारिया तहा णीललेस्सा विचारियव्वा । [११४९] इसी प्रकार जैसे कृष्णलेश्या वालों (चौवीसदण्डकवर्ती जीवों) का विचार किया है, उसी प्रकार नीललेश्या वालों का भी विचार कर लेना चाहिए । ११५०. काउलेस्सा णेरइएहिंतो आरब्भ जाव वाणमंतरा । णवरं काउलेस्सा णेरड्या वेदणाए जहा ओहिया (सु. ११२८ ) । [११५०] कापोतलेश्या वाले नैरयिकों से प्रारम्भ करके (दस भवनपति, पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, मनुष्य एवं ) वाणव्यन्तरों तक का सप्तद्वारादिविषयक कथन भी इसी प्रकार समझना चाहिए । विशेषता यह है कि कापोतलेश्या वाले नैरयिकों का वेदना के विषय में प्रतिपादन (सू. ११२८ में उक्त) समुच्चय ( औधिक नारकों) के समान (जानना चाहिए ।) ११५१. तेउलेस्साणं भंते ! असुरकुमाराणं ताओ चैव पुच्छाओ । गोयमा ! जव ओहिया तहेव (सु. ११३१ - ३५ ) । णवरं वेदणाए जहा जोतिसिया (सु. ११४४ ) । [११५१ प्र.] भगवन् ! तेजोलेश्या वाले असुरकुमारों के समान आहारादि सप्तद्वारविषयक प्रश्न उसी प्रकार हैं, इनका क्या समाधान है ? [११५१ उ.] गौतम ! जैसे (लेश्यादिविशेषणरहित ) समुच्चय असुरकुमारों का आहारादिविषयक कथन (सू. ११३१ से ११३५ तक में) किया है, उसी प्रकार तेजोलेश्याविशिष्ट असुरकुमारों की आहारादिसम्बन्धी वक्तव्यता समझ लेनी चाहिए । विशेषता यह है कि वेदना के विषय में जैसे (सू. ११४४ में) ज्योतिष्कों की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार यहाँ भी कहनी चाहिए । ११५२. पुढवि - आउ-वणस्सइ-पंचेंदियतिरिक्ख - मणूसा जहा ओहिया ( ११३७-३९, ११४२४२) तहेव भाणियव्वा । णवरं मणूसा किरियाहिं जे संजया ते पमत्ता य अपमत्ता य भाणियव्वा, सरागा वीयरागा णत्थि । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : प्रथम उद्देशक] [२८३ [११५२] (तेजोलेश्या वाले) पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, वनस्पतिकायिक, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों का कथन उसी प्रकार करना चाहिए, जिस प्रकार (सू. ११३७ से ११३९ तक और ११४१-११४२) औधिक सूत्रों में किया गया है। विशेषता यह है कि क्रियाओं की अपेक्षा से तेजोलेश्या वाले मनुष्यों के विषय में कहना चाहिए कि जो संयत हैं, वे प्रमत्त और अप्रमत्त दो प्रकार के हैं तथा सरागसंयत ओर वीतरागसंयत, (ये दो भेद तेजोलेश्या वाले मनुष्यों में) नहीं होते । ११५३. वाणमंतरा तेउलेस्साए जहा असुरकुमारा (सु. ११५१)। [११५३] तेजोलेश्या की अपेक्षा से वाणव्यन्तरों का कथन (सू. ११५१ में उक्त) असुरकुमारों के समान समझना चाहिए । ११५४. एवं जोतिसिय-वेमाणिया वि। सेसं तं चेव । __[११५४] इसी प्रकार तेजोलेश्याविशिष्ट ज्योतिष्क और वैमानिकों के विषय में भी पूर्ववत् कहना चाहिए। शेष आहारादि पदों के विषय में पूर्वोक्त असुरकुमारों के समान ही समझना चाहिए। ११५५. एवं पम्हलेस्सा विभाणियव्वा, णवरं जेसिं अस्थि । सुक्कलेस्सा वि तहेव जेसिं अत्थि । सव्वं तहेव जहा ओहियाणं गमओ । णवरं पम्हलेस्स-सुक्कलेस्साओ पंचेंदियतिरिक्खजोणियमणूसवेमाणियाणं चेव, ण सेसाणं ति । . पण्णवणाए लेस्सापए पढमो उद्देसओ समत्तो ॥ [११५५] इसी (तेजोलेश्या वालों की) तरह पद्मलेश्या वालों के लिये भी (आहारादि के विषय में) कहना चाहिए। विशेष यह है कि जिन जीवों में पद्मलेश्या होती है, उन्हीं मे उसका कथन करना चाहिए। शुक्ललेश्या वालों का आहारादिविषयक कथन भी इसी प्रकार है, किन्तु उन्हीं जीवों में कहना चाहिए, जिनमें वह होती है तथा जिस प्रकार (विशेषणरहित) औघिकों का गम (पाठ) कहा है, उसी प्रकार (पद्मशुक्ललेश्याविशिष्ट जीवों का आहारादिविषयक) सब कथन करना चाहिए। इतना विशेष है कि पद्मलेश्या और शुक्कललेश्या पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों, मनुष्यों और वैमानिकों में ही होती है, शेष जीवों में नहीं । विवेचन - कृष्णादिलेश्याविशिष्ट चौवीस दण्डकों में समाहारादि सप्तद्धार-प्ररूपणा - प्रस्तुत दस सूत्रों (सू. ११४६ से ११५५ तक) में कृष्णादिलेश्याओं से युक्त नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक के समाहार आदि सप्तद्वारों के विषय में प्ररूपणा की गई हैं। कृष्णलेश्याविशिष्टनैरयिकों के नौ पदों के विषय में - जैसे विशेषण रहित सामान्य (औधिक) नारकों का आहार, शरीर, उच्छ्वास-निःश्वास, कर्म, वर्ण, लेश्या, वेदना, क्रिया और उपपात (अथवा आयुष्य), इन नौ द्वारों की अपेक्षा से कथन पहले किया गया है, वैसे ही कृष्णलेश्याविशिष्ट नैरयिकों के विषय में कथन करना चाहिए। किन्तु सामान्य नारकों से कृष्णलेश्याविशिष्ट नारकों में वेदना के विषय में कुछ विशेषता है, वह इस प्रकार - वेदना की अपेक्षा नैरयिक दो प्रकार के हैं- मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायी-सम्यग्दृष्टि Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र २८४ ] उपपन्नक, किन्तु औधिक नारकसूत्र की तरह असंज्ञीभूत और संज्ञीभूत नहीं करना चाहिए, क्योंकि सिद्धान्तानुसार असंज्ञी जीव प्रथम पृथ्वी में कृष्णलेश्या वाले नारक नहीं होते। पंचम आदि जिस नरकपृथ्वी में कृष्णलेश्या पाई जाती है, उसमें असंज्ञी जीव उत्पन्न नहीं होते। अतएव कृष्णलेश्यावान् नारकों में संज्ञीभूत और असंज्ञीभूत, ये भेद नहीं होते । इनमें मायी और मिथ्यादृष्टि नारक महावेदना वाले होते हैं, क्योंकि वे (नारक) अत्यन्त उत्कृष्ट अशुभ स्थिति का उपार्जन करते हैं । मायी मिथ्यादृष्टि नारकों को उस अत्युत्कृष्ट अशुभ स्थिति में महावेदना होती है, इसके विपरीत अन्य अमायी सम्यग्दृष्टि नारकों को अपेक्षाकृत अल्प वेदना होती है। इसके अतिरिक्त शेष आहारादि पदों के विषय में पूर्वोक्त समुच्चय नारकों के समान ही कृष्णलेश्याविशिष्ट नारकों का कथन करना चाहिए । कृष्णलेश्याविशिष्ट मनुष्यों की क्रियाविषयक प्ररूपणा - इसमें समुच्चय से कुछ विशेषता है । वस्तुतः कृष्णलेश्याविशिष्ट मनुष्य सम्यग्दृष्टि आदि के भेद से तीन प्रकार के होते हैं। इनमें से सम्यग्दृष्टि मनुष्यों के तीन प्रकार हैं- संयमी, असंपमी और संयमासंयमी । जैसे औघिक (सामान्य) मनुष्यों के विषय में इन तीनों की क्रियाओं का कथन किया गया है, वैसे ही कृष्णलेश्याविशिष्ट मनुष्यों के विषय में भी कहना चाहिए । जैसे कि वीतरागसंयत मनुष्यों में कोई क्रिया नहीं होती । सरागसंयत मनुष्यों में दो क्रियाएँ होती हैंआरम्भिक और मायाप्रत्यया । कृष्णलेश्या प्रमत्तसंयतों में होती है, अप्रमत्तसंयतों में नहीं। सभी प्रकार के आरम्भ प्रमादयोग में होते है, अतः प्रमत्तसंयतों में आरम्भिकी क्रिया होती है और क्षीणकषाय न होने से उनमें मायाप्रत्यया क्रिया भी होती है । किन्तु जो संयतासंयत हैं, उनमें आरम्भिकी, पारिग्रहिकी और मायाप्रत्यया, तीन तथा असंयत मनुष्य में इन तीनों के उपरांत चौथी अप्रत्याख्यानक्रिया भी पाई जाती है। ? ये कापोतलेश्या वाले नारकों का वेदनासूत्र - कापोतलेश्याविशिष्ट नारकों का वेदनाविषयक कथन समुच्चय नारकों के समान समझना चाहिए, यथा- कापोतलेश्याविशिष्ट नारक दो प्रकार के कहे है- संज्ञीभूत और असंज्ञीभूत, इत्यादि प्रकार से समझना चाहिए। असंज्ञी जीव भी प्रथम नरकपृथ्वी में उत्पन्न होता है, जहाँ कि कापोतलेश्या का सद्भाव है। - तेजोलेश्याविशिष्ट असुरकुमारादि की वक्तव्यता- सिद्धान्तानुसार नारक, तेजस्कायिक, वायुकायिक तथा विकलेन्द्रिय जीवों में तेजोलेश्या नहीं होती, इसलिए तेजोलेश्या की अपेक्षा से सर्वप्रथम असुरकुमारों का कथन किया है। तेजोलेश्याविशिष्ट असुरकुमारों का वेदना के सिवाय शेष आहारादि षट्द्वारों विषय में कथन औधिक अर्थात्- समुच्चय असुरकुमारों के समान समझना चाहिए। इनके वेदनासूत्र के विषय में ज्योतिष्क देवों वेदनासूत्र के समान समझना चाहिए। अर्थात् - इसकी अपेक्षा से असुरकुमारों के संज्ञीभूत, असंज्ञीभूत ये दो १. २. (क) 'असन्नी खलु पढमं'- प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ३४२ उद्धृत (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३४२ प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३४३ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : प्रथम उद्देशक [२८५ भेद न करके मायि-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायि-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक, ये दो भेद कहने चाहिए, क्योंकि असंज्ञी जीवों की तेजोलेश्यावालों में उत्पत्ति असंभव है। तेजोलेश्याविशिष्ट मनुष्यों का क्रियासूत्र - क्रियाओं की अपेक्षा से संयत मनुष्य दो प्रकार के कहने चाहिए - प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत । इन दोनों में तेजोलेश्या सम्भव है। सरागसंयत और वीतरागसंयत ये भेद तेजोलेश्याविशिष्ट मनुष्यों में नहीं करने चाहिए, क्योंकि वीतरागसंयतों में तेजोलेश्या सम्भव नहीं है। वह सरागसंयतों में पाई जाती है। तेजोलेश्यायुक्त वाणव्यन्तरों का कथन - इनका कथन असुरकुमारों के समान समझना चाहिए। ऐसी स्थिति में तेजोलेश्याविशिष्ट वाणव्यन्तरों के संज्ञीभूत और असंज्ञीभूत, यों दो भेद न करके मायिमिथ्यादृष्टि-उपपन्नक, और अमायि-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक, ये दो भेद कहने चाहिए, क्योंकि तेजोलेश्यावाले वाणव्यन्तरों में असंज्ञीजीवों का उत्पाद नहीं होता । __ पालेश्या-शुक्ललेश्या-विशिष्ट जीवों के आहारादिसूत्र - इन दोनों लेश्याओं वाले जीवों के आहारादिसूत्र तेजोलेश्या के समान समझने चाहिए। विशेषताः यह है कि जिन जीवों में ये दो लेश्याएँ पाई जाती हों, उन्हीं के विषय में ये सूत्र कहने चाहिए, अन्य जीवों के विषय में नहीं। ये दोनों लेश्याएँ पंचेन्द्रियतिर्यचों, मनुष्यों और वैमानिक देवों में ही पाई जाती हैं, शेष जीवों में नहीं । ॥ सत्तरहवाँ लेश्यापद : प्रथम उद्देशक समाप्त ॥ १. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक ३४३ २. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक ३४३ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरसमं लेस्सापयं : बीओ उद्देसओ सत्तरहवाँ लेश्यापद : द्वितीय उद्देशक लेश्या के भेदों का निरूपण ११५६. कति णं भंते! लेस्साओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! छल्लेस्साओ पण्णत्तओ । तं जहा- कण्हलेस्सा १ णीललेस्सा २ काउलेस्सा ३ तेउलेस्सा ४ पम्हलेस्सा ५ सुक्कलेस्सा ६ । [११५६ प्र.] भगवन् ! लेश्याएँ कितनी कही गई हैं ? [११५६ उ.] गौतम ! लेश्याएँ छह कही गई हैं। वे इस प्रकार - (१) कृष्णलेश्या, (२) नीललेश्या, (३) कापोतलेश्या, (४) तेजोलेश्या, (५) पद्मलेश्या और (६) शुक्ललेश्या । विवेचन - लेश्या के भेदों का निरूपण - प्रस्तुत सूत्रों में लेश्या के कृष्ण आदि छह भेदों का निरूपण किया गया है। कृष्णलेश्या आदि के शब्दार्थ - कृष्णद्रव्यरूप अथवा कृष्णद्रव्य-जनित लेश्या कृष्णलेश्या कहा है । इसी प्रकार नीललेश्या आदि का शब्दार्थ भी समझ लेना चाहिए । चौवीस दण्डकों में लेश्यासम्बन्धी प्ररूपणा १. ११५७. रइयाणं भंते ! कति लेस्साओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! तिण्णि । तं जहा - किण्हलेस्सा नीललेस्सा काउलेस्सा i [११५७ प्र.] नैरयिकों में कितनी लेश्याएँ होती हैं ? [११५७ उ.] गौतम ! ( उनमें ) तीन लेश्याएँ होती हैं। वे इस प्रकार - (१) कृष्णलेश्या, (२) नीललेश्या और (३) कापोतलेश्या । ११५८. तिरिक्खजोणियाणं भंते ! कति लेस्साओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! छल्लेस्साओ । तं जहा- कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा । प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३४४ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : द्वितीय उद्देशक [२८७ [११५८ प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चयोनिक जीवों में कितनी लेश्याएँ कही गई हैं ? [११५८ उ.] गौतम ! (उनमें) छह लेश्याएँ होती हैं, वे इस प्रकार- कृष्णलेश्या से लेकर शुक्ललेश्या तक । ११५९. एगिंदियाणं भंते ! कति लेस्साओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! चत्तारि लेस्साओ। तं जहा- कण्हलेस्सा जाव तेउलेस्सा । [११५९ प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय जीवों में कितनी लेश्याएँ कही हैं ? [११५९ उ.] गौतम ! (उनमें) चार लेश्याएँ होती हैं। वे इस प्रकार- कृष्णलेश्या से तेजोलेश्या तक । ११६०. पुढविक्काइयाणं भंते ! कति लेस्साओ? गोयमा ! एवं चेव । [११६० प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों में कितनी लेश्याएँ होती हैं ? . [११६० उ.] गौतम ! इनमें भी इसी प्रकार (चार लेश्याएँ समझनी चाहिए ।) ११६१. आउ-वणस्सइकाइयाण वि एवं चेव । [११६१] इसी प्रकार अप्कायिकों और वनस्पतिकायिकों में भी चार लेश्याएँ (जाननी चाहिए।) ११६२. तेउ-वाउ-बेइंदिय-चउरिदियाणं जहा णेरइयाणं (सु. ११५७) । [११६२] तेजस्कायिक, वायुकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में (सू. ११५७ में उक्त) नैरयिकों की तरह (तीन लेश्याएँ होती हैं।) ११६३.[१] पंचेंदियतिरक्खजोणियाणं पुच्छा? गोयमा ! छल्लेसाओ, कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा । [११६३-१ प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों में कितनी लेश्याएं होती हैं ? [११६३-१ उ.] गौतम ! (उनमें) छह लेश्याएँ होती हैं, यथा- कृष्णलेश्या से शुक्ललेश्या तक। [ २ ] सम्मुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहा णेरइयाणं (सु. ११५७) । [११६३-२ प्र.] भगवन् ! सम्मूछिम-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीवों में कितनी लेश्याएँ होती हैं ? [११६३-२ उ.] गौतम ! नारकों के समान (प्रारम्भ की तीन लेश्याएँ) समझनी चाहिए । [३] गब्भवक्कंतियपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा? Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८] [प्रज्ञापनासूत्र गोयमा ! छल्लेसाओ, तं जहा- कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा । [११६३-३ प्र.] भगवन् ! गर्भज-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में कितनी लेश्याएँ होती हैं ? [११६३-३ उ.] गौतम ! (उनमें) छह लेश्याएँ होती हैं- कृष्णलेश्या से शुक्ललेश्या तक । [४] तिरिक्खजोणिणीणं पुच्छा ? गोयमा ! छल्लेसाओ एताओ चेव । [११६३-४ प्र.] भगवन् ! गर्भज तिर्यञ्चयोनिक स्त्रियों में कितनी लेश्याएँ होती हैं ? [११६३-४ उ.] गौतम ! ये ही (कृष्ण आदि) छह लेश्याएँ होती हैं। ११६४.[१] मणुस्साणं पुच्छा? गोयमा ! छल्लेसाओ एताओ चेव । [११६४-१ प्र.] भगवन् ! मनुष्यों में कितनी लेश्याएँ होती हैं ? [११६४-१ उ.] गौतम ! ये ही छह लेश्याएँ होती है। [२] सम्मुच्छिममणुस्साणं पुच्छा ? गोयमा ! जहा णेरइयाणं (सु. ११५७)। [११६४-२] भगवन् ! सम्मूर्छिम मनुष्यों में कितनी लेश्याएँ होती है ? [११६४-२] गौतम ! जैसे नारकों में प्रारम्भ की तीन लेश्याएँ कही है, वैसे ही सम्मूर्छिम मनुष्यों में भी होती हैं। [३] गब्भवकंतयमणूसाणं पुच्छा ? गोयमा ! छल्लेसाओ, तं जहा- कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेसा । [११६४-३ प्र.] भगवन् ! गर्भज मनुष्यों में कितनी लेश्याएँ होती हैं ? [११६४-३ उ.] गौतम ! (उनमें) छह लेश्याएँ होती हैं- कृष्णलेश्या से लेकर शुक्ललेश्या तक। [४] मणुस्सीणं पुच्छा? गोयमा ! एवं चेव । [११६४-४ प्र.] भगवन् ! गर्भज मानुषी (स्त्री) में कितनी लेश्याएँ कही हैं ? [११६४-४ उ.] गौतम ! (जैसे गर्भज मनुष्यों में छह लेश्याएँ होती हैं) इसी प्रकार (गर्भज स्त्रियों में भी) छह लेश्याएँ समझनी चाहिए । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : द्वितीय उद्देशक ] ११६५. [ १ ] देवाणं पुच्छा ? गोयमा ! छ एताओ चेव । [११६५-१ प्र.] भगवन् ! देवों में कितनी लेश्याएँ होती हैं ? [११६५-१ उ.] गौतम ! ये ही छह लेश्याएँ होती हैं । [२] देवीणं पुच्छा ? गोयमा ! चत्तारि । तं जहा- कण्हलेस्सा जाव तेउलेस्सा । [११६५-२ प्र.] भगवन् ! देवियों में कितनी लेश्याएँ होती हैं ? [११६५-२ उ.] गौतम ! ( उनमें ) चार लेश्याएँ होती हैं, वे इस प्रकार- कृष्णलेश्या से लेकर तेजोलेश्या तक । ११६६. [ १ ] भवणवासीणं भंते ! देवाणं पुच्छा ? गोयमा ! एवं चेव । [११६६-१ प्र.] भगवन् ! भवनवासी देवों में कितनी लेश्याएँ कही गई हैं ? [११६६-१ उ.] गौतम ! इसी प्रकार (पूर्ववत् ) इनमें चार लेश्याएँ (होती हैं।) [ २ ] एवं भवणवासिणीण वि । [११६६-२] इसी प्रकार भवनवासी देवियों में भी चार लेश्याएँ समझनी चाहिए । ११६७. [ १ ] वाणमंतरदेवाणं पुच्छा ? [११६७-१ प्र.] भगवन् ! वाणव्यन्तर देवों में कितनी लेश्याएँ कही हैं ? [११६७-१ उ.] गौतम ! इसी प्रकार चार लेश्याएँ (समझनी चाहिए ।) [ २ ] एवं वाणमंतरीण वि । [११६७-२] वाणव्यन्तर देवियों में भी ये ही चार लेश्याएँ समझनी चाहिए । ११६८. [ १ ] जोइसियाणं पुच्छा ? गोयमा ! एगा तेउलेस्सा । [ २८९ [११६८ - १ प्र.] ज्योतिष्क देवों के सम्बन्ध में प्रश्न है ? [११६८ - १ उ.] गौतम ! इनमें एकमात्र तेजोलेश्या होती है। [२] एवं जोइसिणीण वि Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० ] [११६८-२] इसी प्रकार ज्योतिष्क देवियों के विषय में (जानना चाहिए 1) ११६९. [ १ ] वेमाणियाणं पुच्छा ? गोया ! तिणि । तं जहा - तेउलेस्सा पम्हलेस्सा सुक्कलेस्सा [११६९-१ प्र.] भगवन् ! वैमानिक देवों में कितनी लेश्याएँ हैं ? [ प्रज्ञापनासूत्र [११६९-१ उ.] गौतम ! ( उनमें ) तीन लेश्याएँ हैं - १. तेजोलेश्या, २. पद्मलेश्या और ३. शुक्ललेश्या । [२] वेमाणिणीणं पुच्छा ? गोमा ! गाउलेसा । [११६९-२ प्र.] वैमानिक देवियों की लेश्या सम्बन्धी पृच्छा है ? [११६९-२ उ.] गौतम ! उनमें एकमात्र तेजोलेश्या होती है । विवेचन- चौवीस दण्डकों में लेश्यासम्बन्धी प्ररूपणा - प्रस्तुत तेरह सूत्रों में नारक से वैमानिक देवियों पर्यन्त समस्त संसारी जीवों में से किसमें कितनी लेश्याएँ पाई जाती हैं ?, यह प्रतिपादन किया है । सम्बन्धित संग्रहणी गाथायें इस प्रकार हैं किण्हानीला काऊ तेऊलेसा य भवणवंतरिया । जोइस - सोहम्मीसाण तेऊलेसा मुणेयव्वा ॥ १ ॥ कप्पे सणकुमारे माहिंदे चेव बंभलोए य । एएसु पम्हलेसा, तेण परं सुक्कलेसा उ ॥ २ ॥ पुढवी - आऊ - वणस्सइ - बायर - पत्तेय लेस चत्तारि । गब्भय - तिरिय-नरेसु छल्लेसा, तिन्नि सेसाणं ॥३॥ संग्रहणीगाथार्थ - भवनवासियों और व्यन्तर देवों में कृष्ण, नील, कापोल और तेजोलेश्या होती हैं। ज्योतिष्कों तथा सौधर्म और ईशान देवों में केवल तेजोलेश्या होती है। सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक में पद्मलेश्या और उनसे आगे के कल्पों में शुक्ललेश्या होती है। बादर पृथ्वीकाय, अप्काय और प्रत्येक वनस्पतिकाय में प्रारम्भ की चार लेश्याएँ, गर्भज तिर्यञ्चों और मनुष्यों में छह लेश्याएँ और शेष जीवों में प्रथम की तीन लेश्याएँ होती हैं । " सलेश्य अलेश्य जीवों का अल्पबहुत्व १. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक ३४४ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : द्वितीय उद्देशक] [२९१ ११७०. एतेसि णं भंते ! सलेस्साणं जीवाणं कण्हलेस्साणं जाव सुक्कलेस्साणं अलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा ४ ? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा सुक्कलेस्सा, पम्हलेस्सा संखेजगुण, तेउलेस्सा संखेजगुणा, अलेस्सा अणंतगुणा, काउलेस्सा अणंतगुणा, णीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया, सलेस्सा विसेसाहिया । [११७०] भगवन ! इन सलेश्य, कृष्णलेश्या से लेकर शुक्ललेश्या तक के और अलेश्य जीवों में कौन, किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? ___ [११७०] गौतम ! सबसे थोड़े जीव शुक्ललेश्या वाले हैं, (उनसे) पद्मलेश्या वाले संख्यातगुणे हैं, (उनसे) तेजोलेश्या वाले संख्यातगुणे हैं, (उनसे) अलेश्य अनन्तगुणे हैं, उनसे कापोतलेश्या वाले अनन्तगुणे हैं, उनसे नीललेश्या वाले विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्या वाले विशेषाधिक हैं और सलेश्य उनसे भी विशेषाधिक हैं । विवेचन - सलेश्य-अलेश्य आदि जीवों का अल्पबहुत्व - प्रस्तुत सूत्र में सलेश्य, कृष्णलेश्या से लेकर शुक्ललेश्या वाले जीवों और अलेश्य जीवों के अल्पबहुत्व का विचार किया गया है । अल्पबहुत्व की समीक्षा - शुक्ललेश्या वाले सबसे कम इसलिए कहे गए हैं कि शुक्कलेश्या कतिपय पंचेन्द्रियतिर्यचों में, मनुष्यों में और लान्तक आदि कल्पों के देवों में ही पाई जाती है। उनकी अपेक्षा संख्यातगुणे अधिक पद्मलेश्या वाले जीव कहे हैं, क्योंकि वह पंचेन्द्रियतिर्यचों में, मनुष्यों में तथा सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक नाम कल्पों में पाई जाती है। उनसे संख्यातगुणे अधिक तेजोलेश्या वाले जीव इसलिए कहे गए हैं कि तेजोलेश्या बादर पृथ्वीकायिकों, बादर अप्कायिकों, प्रत्येक वनस्पतिकायिकों में तथा पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में, भवनपति, वाणव्यन्तर ज्योतिष्क, सौधर्म और ईशान देवों में पाई जाती है। तेजोलेश्यी जीवों की अपेक्षा अलेश्य जीव अनन्तगुणे अधिक इसलिए कहे गए हैं, क्योंकि सिद्ध जीव अनन्त हैं और वे अलेश्य हैं। अलेश्यों की अपेक्षा कापोतलेश्या वाले वनस्पतिकायिक जीव अनन्तगुणित होने से कापोतलेश्या वाले जीव अलेश्यों से अनन्तगुणे अधिक हैं। क्लिष्ट और क्लिष्टतर अध्यवसाय वाले जीव अपेक्षाकृत अधिक होते हैं, इस कारण कापोतलेश्या वालों की अपेक्षा नीललेश्या वाले और नीललेश्या वालों की अपेक्षा कृष्णलेश्या वाले जीव विशेषाधिक होते हैं। विविधलेश्याविशिष्ट चौवीसदण्डकवर्ती जीवों का अल्पबहुत्व ११७१. एतेसिणं भंते ! णेरइयाणं कण्हलेस्साणं नीललेस्साणं काउलेस्साण य कतरे कतरेहितो जहाँ भी 'अप्पा वा' के आगे'४' का अंक है, वहाँ वह 'बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा' इन शेष तीनों पदों सहित चार पदों सहित चार पदों का सूचक है । प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक ३४५ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२] [प्रज्ञापनासूत्र अप्पा वा ४? गोयमा ! सव्वत्थोवा णेरड्या कण्हलेसा, णीललेस्सा असंखेजागुणा, काउलेस्सा असंखेज्जगुणा। [११७१ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या वाले नारकों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [११७१ उ.] गौतम ! सबसे थोड़े कृष्णलेश्या वाले नारक हैं, उनसे असंख्यातगुणे नीललेश्या वाले हैं और उनसे भी असंख्यातगुणे कापोतलेश्या वाले हैं । ११७२. एतेसिणं भंते ! तिरिक्खजोणियाणं कण्हलेस्साणंजाव सुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा ४? गोयमा ! सव्वत्थोवा तिरिक्खजोणिया सुक्कलेसा, एवं जहा ओहिया (सु. ११७० ) णवरं अलेस्सवजा । [११७२ प्र.] भगवन् ! इन कृष्णलेश्या से लेकर शुक्ललेश्या वाले तिर्यचयोनिकों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? ___ [११७२ उ.] गौतम ! सबसे कम तिर्यञ्च शुक्ललेश्या वाले हैं इत्यादि जैसे पहले सूत्र ११७० में औधिक (समुच्चय) का प्रतिपादन किया गया है, उसी प्रकार यहाँ भी समझ लेना चाहिए । विशेषता यह है कि तिर्यञ्चों में अलेश्य नहीं कहना चाहिए, क्योंकि उनमें अलेश्य होना सम्भव नहीं है)। ११७३. एतेसि णं भंते ! एगिदियाणं कण्हलेस्साणं जाव तेउलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा ४? ___ गोयमा ! सव्वत्थोवा एगिंदिया तेउलेस्सा, काउलेस्सा अणंतगुणा, णीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया । __[११७३ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या से लेकर तेजोलेश्या तक के एकेन्द्रियों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? [११७३ उ.] गौतम ! सबसे कम तेजोलेश्या वाले एकेन्द्रिय हैं, उनसे अनन्तगुणे अधिक कापोतलेश्या वाले एकेन्द्रिय हैं, उनसे नीललेश्या वाले विशेषाधिक हैं और उनसे भी कृष्णलेश्या वाले विशेषाधिक हैं । ११७४. एतेसि णं भंते ! पुढविक्काइयाणं कण्हलेस्साणं जाव तेउलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा ४ ? गोयमा ! जहा ओहिया एगिंदिया (सु. ११७३) । णवरं काउलेस्सा असंखेजगुणा । [११७४ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या से लेकर तेजोलेश्या तक के पृथ्वीकायिकों में से कौन, किनसे अल्प, Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : द्वितीय उद्देशक] [२९३ बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [११७४ उ.] गौतम ! जिस प्रकार समुच्चय एकेनिद्रयों का (सू. ११७३ में) कथन किया है, उसी प्रकार पृथ्वीकायिकों (के अल्पबहुत्व) का कथन करना चाहिए । विशेषता इतनी है कि कापोतलेश्या वाले पृथ्वीकायिक असंख्यातगुणे हैं । ११७५. एवं आउक्काइयाण वि । [११७५] इसी प्रकार कृष्णादिलेश्या वाले अप्कायिकों में अल्पबहुत्व का निरूपण भी समझ लेना चाहिए । ११७६. एतेसि णं भंते ! तेउक्काइयाणं कण्हलेस्साणं णीललेस्साणं काउलेस्साण य कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा ४? गोयमा ! सव्वत्थोवा तेउक्काइया काउलेस्सा,णीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया। [११७६ प्र.] भवगन् ! इन कृष्णलेश्या वाले, नीललेश्या वाले और कापोतलेश्या वाले तेजस्कायिकों में कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [११७६ उ.] गौतम ! सबसे कम कापोतलेश्या वाले तेजस्कायिक हैं, उनसे नीललेश्या वाले विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्या वाले विशेषाधिक हैं । ११७७. एवं वाउक्काइयाण वि। [११७७] इसी प्रकार (कृष्णादिलेश्याविशिष्ट) वायुकायिकों का भी अल्पबहुत्व (समझ लेना चाहिए)। ११७८. एतेसि णं भंते ! वणस्सइकाइयाणं कण्हलेस्साणं जाव तेउलेस्साण य.? जहा एगिंदियओहियाणं (सु. ११७३)। [११७८ प्र.] भगवन् ! इन कृष्णलेश्या से लेकर तेजोलेश्या वाले वनस्पतिकायिकों में (कौन, किनसे अल्व, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ) ? [११७८ उ.] गौतम ! जैसे (सू. ११७३ में) समुच्चय (औधिक) एकेन्द्रिय जीवों का अल्पबहुत्व कहा हैं, उसी प्रकार वनस्पतिकायिकों का अल्पबहुत्व समझ लेना चाहिए । ११७९. बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिदियाणं जहा तेउक्काइयाणं (सु. ११७६)। [११७९] द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों का अल्पबहुत्व (सू. ११७६ में उक्त) तेजस्कायिकों के समान है। ११८०.[१] एतेसि णं भंते ! पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं कण्हलेस्साणं जाव सुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा ४? Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४] [प्रज्ञापनासूत्र गोयमा ! जहाओहियाणं तिरिक्खिजोणियाणं (सु. ११७२ )।णवरं काउलेस्सा असंग्वेजगुणा। [११८०-१ प्र.] भगवन् ! इन कृणलेश्या वालों से लेकर यावत् शुक्ललेश्या वाले पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत तुल्य, और विशेषाधिक हैं ? [११८०-१ उ.] गौतम ! जैसे (सू. ११७२ में कृष्णादिलेश्याविशिष्ट) औधिक (समुच्चय) तिर्यञ्चों का अल्पबहुत्व कहा है, उसी प्रकार पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों का अल्पबहुत्व कहना चाहिए । विशेषता यह है कि कापोतलेश्या वाले पंचेन्द्रियतिर्यञ्च असंख्यातगुणे हैं । [२] सम्मुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं जहा तेउक्काइयाणं । (सु. ११७६) । [११८०-२] (कृष्णादिलेश्यायुक्त) सम्मूछिम-पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों का अल्पबहुत्व (सू. ११७६ में उक्त) तेजस्कायिकों के (अल्पबहुत्व के) समान (समझना चाहिए) । [३] गब्भवक्वंतियपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणां जहा ओहियाणं तिरिक्खजोणियाणं (सु. ११७२) ।णवरं काउलेस्सा संखेजगुणा । [११८०-३] (कृष्णादिलेश्याविशिष्ट) गर्भज-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों का अल्पबहुत्व समुच्चय पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के (सू. ११७२ में उक्त) अल्पबहुत्व के समान जान लेना चाहिए । विशेषता यह है कि कापोतलेश्या वाले (गर्भज-पंचेन्द्रियतिर्यञ्च) संख्यातगुणे (कहने चाहिए) । [४] एवं तिरिक्खजोणिणीणय वि। - [११८०-४] (जैसे गर्भज-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों का अल्पबहुत्व कहा है,) इसी प्रकार गर्भजपंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक स्त्रियों का भी (अल्पबहुत्व कहना चाहिए)। । [५] एतेसिणं भंते ! सम्मुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं गब्भवक्त्रंतियपंचेंदियतिरिक्खजोणियाण य कण्हलेस्साणं जाव सुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्या वा ४ ? ... गोयमा! सव्वत्थोवा गब्भवकंतियपंचेंदियतिरिक्खजोणिया सुक्कलेस्सा, पम्हलेस्सा संखेजगुणा, तेउलेस्सा संखेजगुणा, काउलेस्सा संखेजगुणा, नीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया, काउलेस्सा सम्मुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणिया असंखेजगुणा, णीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया । [११८०-५ प्र.] भगवन् ! इन कृष्णलेश्या वालों से लेकर शुक्ललेश्यायुक्त सम्मूछिम पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों और गर्भज-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? . [११८०-५ उ.] गौतम ! सबसे कम शुक्ल लेश्या वाले गर्भज-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक हैं, उनसे पद्मलेश्यावाले संख्यातगुणे हैं, उनसे तेजोलेश्याविशिष्ट संख्यातगुणे हैं, उनसे नीललेश्याविशिष्ट (गर्भज Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : द्वितीय उद्देशक] [२९५ तिर्यञ्चपंचन्द्रिय) विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्यायुक्त विशेषाधिक हैं, उनसे कापोतलेश्या वाले सम्मूछिमपंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक असंख्यातगुणे हैं, उनसे नीललेश्या वाले विशेषाधिक हैं और उनसे भी कृष्णलेश्या वाले सम्मूछिम-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक विशेषाधिक हैं। [६] एतेसि णं भंते ! सम्मुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं तिरिक्खजोणिणीण य कण्हलेस्साणं जाव सुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा ४ ? गोयमा ! जहेव पंचमं (सु. ११८० [५]) तहा इमं पि छटुं भाणियव्वं । [११८०-६ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले से लेकर शुक्ललेश्या वाले सम्मूछिम पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों और तिर्यञ्चयोनिक स्त्रियों में से कौन, किनसे अलप, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? [११८०-६ उ.] गौतम ! जैसे (स. ११८०-५ में) पंचम (कृष्णादिलेश्यायुक्त तिर्यञ्चयोनिक सम्बन्धी) अल्पबहुत्व कहा है, वैसे ही यह छठा (सम्मूछिम-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और तिर्यञ्चयोनिक स्त्रियों का कृष्णलेश्यादिविषयक) अल्पबहुत्व कहना चाहिए । [७] एतेसि णं भंते ! गब्भवक्कंतियपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं तिरिक्खजोणिणीण य कण्हलेस्साणं जाव सुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा ४ ? गोयमा ! सव्वत्थोवा गब्भवक्वंतियपंचेंदियतिरिक्खजोणिया सुक्कलेस्सा सुक्कलेस्साओ तिरिक्खजोणिणीओ संखेजगुणाओ, पम्हलेस्सा गब्भवक्कंतियपंचेंदियतिरिक्खजोणिया संखेजगुणा, पम्हलेस्साओ तिरिक्खजोणिणीओ, संखेजगुणाओ, तेउलेस्सा० संखेजगुणा, तेउलेस्साओ० संखेजगुणाओ, काउलेस्सा० संखेजगुणा, णीललेस्सा० विसेसाहिया, कण्हलेस्सा० विसेसाहया, काउलेस्साओ० संखेजगुणाओ, णीललेस्साओ० विसेसाहियाओ, कण्हलेस्साओ० विसेसाहियाओ। [११८०-७ प्र.] भगवन् ! इन कृष्णालेश्या वालों से लेकर शुक्ललेश्या वाले गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों और तिर्यञ्चस्त्रियों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? । [११८०-७ उ.] गौतम ! सबसे कम शुक्ललेश्या वाले गर्भज-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक हैं, उनसे संख्यातगुणी शुक्ललेश्या वाली गर्भज-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चस्त्रियाँ हैं, उनसे पद्मलेश्या वाले गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक संख्यातगुणे हैं, उनसे पद्मलेश्या वाली गर्भज-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चस्त्रियाँ संख्यातगुणी हैं, उनसे तेजोलेश्या वाले० संख्यातगुणे हैं, उनसे तेजोलेश्या वाली तिर्यञ्चस्त्रियां संख्यातगुणी हैं, उनसे कापोतलेश्या वाले गर्भजपंचेन्द्रियतिर्यञ्च संख्यातगुणे हैं, उनसे नीललेश्या वाले (गर्भज-पंचेन्द्रियतिर्यञ्च) संक्ष्यातगुणे हैं, उनसे नीललेश्या वाली (गर्भज-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चस्त्रियां) विशेषाधिक हैं, उनसे कृणलेश्या वाली (गर्भज-पंचेन्द्रियस्त्रियां) विशेषाधिक हैं । [८] एतेसि णं भंते ! सम्मुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं गब्भवतंतियपंचेंदियतिरिक्ख जोणियाणं तिरिक्खजोणिणीण य कण्हलेस्साणं जाव सुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा ४? Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६] [प्रज्ञापनासूत्र - गोयमा ! सव्वत्थोवा गब्भवक्कं तियतिरिक्खजोणिया सुक्कलेस्सा, सुक्कलेस्साओ तिरिक्खजोणिणीओ संखेजगुणाओ, पम्हलेस्सा गब्भवक्कंतियतिरिक्खजोणिया संखेजगुणा, पम्हलेस्साओ तिरिक्खजोणिणोओ संखेजगुणाओ, तेउलेस्सा गब्भवक्कंतिरिक्खजोणिया संखेजगुणा, तेउलेस्साओ तिरिक्खजोणिणीओ संखेजगुणाओ, काउलेस्सा तिरिक्खजोणिया संखेजगुणा, णीललेस्सा० विसेसाहिया, कण्हलेस्सा० विसेसाहिया, काउलेस्साओ० संखेजगुणाओ० णीललेस्साओ विसेसाहियाओ, कण्हलेस्साओ० विसेसाहियाओ, काउलेस्सा सम्मुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणिया असंखेजगुणा, णीललेस्सा० विसेसाहिया, कण्हलेस्सा० विसेसाहिया । [११८०-८ प्र.] भगवन् ! कृष्ण लेश्या वाले से लेकर शुक्ललेश्या वाले इन सम्मूर्छिमपंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों, गर्भज-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों तथा तिर्यञ्चयोनिकस्त्रियों में कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [११८०-८ उ.] गौतम! सबसे थोड़े शुक्ललेश्या वाले गर्भज (पंचेन्द्रिय) तिर्यञ्चयोनिक हैं, उनसे शुक्ललेश्या वाली (गर्भज पंचेन्द्रिय) र्यिञ्चस्त्रियां संख्यातगुणी हैं, उनसे पद्मलेश्या वाले गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक संख्यातगुणे हैं, उनसे पद्मलेश्या वाली (गर्भज-पंचेन्द्रिय) तिर्यञ्चस्त्रियां संख्यातगुणी हैं, उनसे तेजोलेश्या वाले गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यञ्च संख्यातगुणे हैं, उनसे तेजोलेश्या वाली (गर्भज-पंचेन्द्रिय) तिर्यञ्चस्त्रियां संख्यातंगुणी हैं, उसे कापोतलेश्या वाले (गर्भज-पंचेन्द्रिय-) तिर्यञ्चयोनिक संख्यातगुणे हैं, उनसे नीललेश्या वाले (तथारूप तिर्यञ्च) विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्या वाले (तथारूप-तिर्यञ्च) विशेषाधिक हैं, उनसे कापोतलेश्या वाली (तथारूप-तिर्यञ्चस्त्रियां) संख्यातगुणी हैं, उनसे नीललेश्या वाली (तथारूप तिर्यञ्चस्त्रियां) विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्या वाली (तथारूप तिर्यञ्चस्त्रियां) विशेषाधिक हैं, (उनसे) कापोतलेश्या वाले सम्मूर्छिमपंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक असंख्यातगुणे हैं, उनसे नीललेश्या वाले (सम्मूर्छिम पंचेन्द्रिय -तिर्यञ्चयोनिक) विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्या वाले सम्मूर्च्छिम-पंचेन्द्रियतिर्यञ्च विशेषाधिक हैं । [९] एतेसि णं भंते ! पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं तिरिक्खजोणिणीय य कण्हलेस्साणं जाव सुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा ४ ? गोयमा ! सव्वत्थोवा पंचेंदियतिरिक्खजोणिया सुक्कलेसा, सुक्कलेस्साओ० संखेजगुणाओ, . पम्हलेस्सा० संखेजगुणा, पम्हलेस्साओ० संखेजगुणाओ, तेउलेस्सा० संखेजगुणा, तेउलेस्साओ० संखेजगुणाओ, काउलेस्साओ० संखेजगुणाओ, णीललेस्साओ० विसेसाहियाओ, कण्हलेस्साओ० विसेसाहियाओ, काउलेस्सा० असंखेजगुणा, णीललेस्सा० विसेसाहिया, कण्हलेस्सा० विसेसाहिया। [११८०-९ प्र.] भगवन् ! इन कृष्णलेश्या वाले से लेकर शुक्ललेश्या वाले पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों और तिर्यञ्चस्त्रियों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत्व, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : द्वितीय उद्देशक ] [२९७ [११८०-९ उ.] गौतम ! सबसे कम शुक्ललेश्या वाले पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक हैं, उनसे शुक्ललेश्या वाली पंचेन्द्रियतिर्यञ्च स्त्रियां संख्यातगुणी हैं, उनसे पद्मलेश्या वाले (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च) संख्यातगुणे हैं, उनसे पद्मलेश्या वाली (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च स्त्रियां) संख्यातगुणी हैं, उनसे तेजोलेश्या वाले (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च ) संख्यातगुणे हैं, उनसे तेजोलेश्या वाली (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च स्त्रियां) संख्यातगुणी हैं, उनसे कापोतलेश्या वाली (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च स्त्रियां) संख्यातगुणी हैं, उनसे नीललेश्या वाली (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च स्त्रियां) विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्या वाली (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च स्त्रियां) विशेषाधिक हैं, उनसे कापोतलेश्या वाले (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च ) असंख्यात गुणे हैं, उनसे नीललेश्या वाले (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च) विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्या वाले (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च) विशेषाधिक हैं । [१०] एतेसि णं भंते ! तिरिक्खजोणियाणं तिरिक्खजोणिणीय य कण्हलेस्साणं जाव सुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा ४ ? गोयमा ! जहेव णवमं अप्पाबहुगं तहा इमं पि, नवरं काउलेस्सा तिरिक्खजोणिया अनंतगुणा । एवं एते दस अप्पाबहुगा तिरिक्खजोणियाणं । [११८०-१० प्र.] भगवन् ! इन तिर्यञ्चयोनिकों और तिर्यञ्चयोनिक स्त्रियों में से कृष्णलेश्या से लेकर शुक्लेश्या वालों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? [११८०-१० उ. ] गौतम ! जैसे नौवाँ कृष्णादिलेश्या वाले तिर्यञ्चयोनिकसम्बन्धी अल्पबहुत्व कहा है, वैसे यह दसवाँ भी समझ लेना चाहिए । विशेषता यह है कि कापोतलेश्या वाले तिर्यञ्चयोनिक अनन्तगुणे होते हैं, कहना चाहिए । इस प्रकार ये (पूर्वोक्त) दस अल्पबहुत्व तिर्यञ्चों के कहे गए हैं । ११८१. एवं मणूसाणं पि अप्पाबहुगा भाणियव्वा । णवरं पच्छिमगं अप्पाबहुगं णत्थि । [११८१] इसी प्रकार (कृष्णादिलेश्याविशिष्ट) मनुष्यों का भी अल्पबहुत्व कहना चाहिए । परन्तु उनका अंतिम अल्पबहुत्व नहीं है । ११८२. [ १ ] एतेसि णं भंते ! देवाणं कण्हलेस्साणं जाव सुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा ४ ? गोयमा ! सव्वत्थोवा देवा सुक्कलेसा, पम्हलेस्सा असंखेज्जगुण, काउलेस्सा असंखेज्जगुणा, णीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया, तेउलेस्सा संखेज्जगुणा । [११८२-१ प्र.] भगवन् ! इन कृष्णलेश्या वाले से लेकर शुक्ललेश्या वाले देवों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [११८२-१ उ.] गौतम ! सबसे थोड़े शुक्ललेश्या वाले देव हैं, उनसे पद्मलेश्या वाले देव असंख्यातगुणे Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८] [प्रज्ञापनासूत्र हैं, उनसे कपोतलेश्यी देव असंख्यातगुणे हैं, उनसे नीललेश्या वाले देव विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्या वाले देव विशेषाधिक हैं और उनसे भी तेजोलेश्या वाले देव संख्यातगुणे हैं । [२] एतेसि णं भंते ! देवीणं कण्हलेस्साणं जाव तेउलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा ४? गोयमा! सव्वत्थोवाओ देवीओ काउलेस्साओ, णीललेस्साओ विसेसाहियाओ, कण्हलेस्साओ विसेसाहियाओ, तेउलेस्साओ संखेजगुणाओ । [११८२-२ प्र.] भगवन् ! इन कृष्णलेश्या वाली यावत् तेजोलेश्या वाली देवियों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? ___ [११८२-२ उ.] गौतम ! सबसे थोड़ी कपोतलेश्या वाली देवियां हैं, उनसे नीललेश्या वाली (देवियां) विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्या वाली (देवियां) विशेषाधिक हैं और उनसे भी तेजोलेश्या वाली (देवियां) संख्यातगुणी हैं। [३] एतेसि णं भंते ! देवाणं देवीण य कण्हलेस्साणं जाव सुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा ४? गोयमा ! सव्वत्थोवा देवा सुक्कलेस्सा, पम्हलेस्सा असंखेजगुणा, काउलेस्सा असंखेजगुणा, नीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया, काउलेस्साओ देवीओ संखेजगुणाओ, णीललेस्साओ विसेसाहियाओ, कण्हलेस्साओ विसेसाहियाओ, तेउलेस्सा देवा संखेजगुणा, तेउलेस्साओ देवीओ संखेजगुणाओ । [११८२-३ प्र.] भगवन् ! इन कृष्णलेश्या वाले यावत् शुक्ललेश्या वाले देवों और देवियों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? __ [११८२-३ उ.] गौतम ! सबसे थोड़े शुक्ललेश्या वाले देव हैं, उनसे पद्मलेश्या वाले (देव) असंख्यातगुणे हैं, उनसे कापोतलेश्या वाले (देव) असंख्यातगुणे हैं, उनसे नीललेश्या वाले (देव) विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्या वाले (देव) विशेषाधिक हैं, उनसे कापोतलेश्या वाली देवियां संख्यातगुणी हैं, उनसे नीललेश्या वाली (देवियां) विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्या वाली (देवियां) विशेषाधिक हैं, उनसे तेजोलेश्या वाले देव संख्यातगुणे हैं, उनसे भी तेजोलेश्या वाली देवियाँ संख्यातगुणी है । ११८३.[१] एतेसिणं भंते ! भवणवासीणं कण्हलेस्साणं जाव तेउलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा ४? गोयमा ! सव्वत्थोवा भवणवासी देवा तेउलेस्सा, काउलेस्सा असंखेजगगुणा, णीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया । [११८३-१ प्र.] भगवन् ! इन कृष्णलेश्या वाले, यावत् तेजोलेश्या वाले भवनवासी देवों में से कौन, Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : द्वितीय उद्देशक] [२९९ किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [११८३-१ उ.] गौतम ! सबसे कम तेजोलेश्या वाले भवनवासी देव हैं, उनसे कापोतलेश्या वाले (भवनवासी देव) असंख्यातगुणे हैं, उनसे नीललेश्या वाले विशेषाधिक हैं और उनसे भी कृष्णलेश्या वाले (भवनवासी देव) विशेषाधिक हैं। । _[२] एतेसि णं भंते ! भवणवासिणीणं देवीणं कण्हलेस्साणं जाव तेउलेस्साण य कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा ४? गोयमा ! एवं चेव । [११८३-२ प्र.] भगवन् ! इन कृष्णलेश्या वाली यावत् तेजोलेश्या वाली भवनवासी देवियों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [११८३-२ उ.] गौतम ! (जैसे कृष्णलेश्या वाले से लेकर तेजोलेश्या पर्यन्त भवनवासी देवों का अल्पबहुत्व कहा है) इसी प्रकार उनकी देवियों का भी अल्पबहुत्व कहना चाहिए । [३] एतेसि णं भंते ! भवणवासीणं देवाणं देवीण य कण्हलेस्साणं जाव तेउलेस्साण य कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा ४? गोयमा ! सव्वत्थोवा भवणवासी देवा तेउलेस्सा, भवणवासिणीओ तेउलेस्साओ संखेजगुणाओ, काउलेस्सा भवणवासी असंखेजगुणा, णीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया, काउलेस्साओ भवणवासिणीओ संखेजगुणाओ, णीललेस्साओ विसेसाहियाओ, कण्हलेस्साओ विसेसाहियाओ। [११८३-३ प्र.] भगवन् ! इन कृष्णलेश्या, यावत् तेजोलेश्या वाले भवनवासी देवों और देवियों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं । [११८३-३ उ.] गौतम ! सबसे थोड़े तेजोलेश्या वाले भवनवासी देव हैं, उनसे तेजोलेश्या वाली भवनवासी देवियां संख्यातगुणी हैं, उनसे कापोतलेश्या वाले भवनवासी देव असंख्यातगुणे हैं, उनसे नीललेश्या वाले (भवनवासी देव) विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्यी (भवनवासी देव) विशेषाधिक हैं, उनसे कापोतलेश्या वाली भवनवासी देवियां संख्यातगुणी हैं, उनसे नीललेश्या वाली (भवनवासी देवियां) विशेषाधिक हैं और उनसे भी कृष्णलेश्या वाली भवनवासी देवियां विशेषाधिक हैं । ११८४. एवं वाणमंतराण वि तिण्णेव अप्पाबहुया जहेव भवणवासीणं तहेव भाणियव्वा (११८३ [१-३])। [११८४] जिस प्रकार (सू. ११८३-१ से ३ तक में) भवनवासी देव-देवियों का अल्पबहुत्व कहा है, इसी प्रकार वाणव्यन्तरों के तीनों ही (देवों, देवियों और देव-देवियों का सम्मिलित) प्रकारों का अल्पबहुत्व Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञापनासूत्र ३०० ] कहना चाहिए । १९८५. एतेसि णं भंते! जोइसियाणं देवाण देवीण य तेउलेस्साणं कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा • बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ४ ? गोयमा ! सव्वत्थोवा जोइसियदेवा तेउलेस्सा, जोइसिणिदेवीओ तेउलेस्साओ संखेज्जगुणाओ । [११८५ प्र.] भगवन् ! इन तेजोलेश्या वाले ज्योतिषक देवों-देवियों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [११८५ उ.] गौतम ! सबसे थोड़े तेजोलेश्या वाले ज्योतिष्क देव हैं, उनसे तेजोलेश्या वाली ज्योतिष्क देवियां संख्यातगुणी हैं । ११९८६. एतेसि णं भंते! वेमाणियाणं देवाणं तेउलेस्साणं पम्हलेस्साणं सुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा ४ । गोयमा ! सव्वत्थोवा वेमाणिया सुक्कलेस्सा, पम्हलेस्सा असंखेज्जगुणा, तेउलेस्सा असंखेज्जगुणा । [११८६ प्र.] भगवन् ! इन तेजोलेश्या वाले, पद्मलेश्या वाले और शुक्ललेश्या वाले वैमानिक देवों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [११८६ उ.] गौतम ! सबसे कम शुक्ललेश्या वाले वैमानिक देव हैं, उनसे पद्मलेश्या वाले असंख्यात हैं और उनसे भी तेजोलेश्या वाले (देव) असंख्यातगुणे हैं । ११८७. एतेसि णं भंते ! वेमाणियाणं देवाणं देवीण य तेउलेस्साणं पम्हलेस्साणं सुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा ४ ? गोयमा ! सव्वत्थोवा वेमाणिया देवा सुक्कलेस्सा, पम्हलेस्सा असंखेज्जगुणा, तेउलेस्सा असंखेज्जगुणा, तेउलेस्साओ वेमाणिणीओ देवीओ संखेज्जगुणाओ । [११८७ प्र.] भगवन् ! इन तेजोलेश्या वाले, पद्मलेश्या वाले और शुक्ललेश्या वाले वैमानिक देवों औद देवियों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? [११८७ उ.] गौतम ! सबसे थोड़े शुक्ललेश्या वाले वैमानिक देव हैं, उनसे पद्मलेश्या वाले (वेमानिक देव) असंख्यातगुणे हैं, उनसे तेजोलेश्या वाले (वैमानिक देव) असंख्यातगुणे हैं, ( उनसे) तेजोलेश्या वाली वैमानिक देवियां संख्यातगुणी हैं । ११८८. एतेसि णं भंते ! भवणवासीणं वाणमंतराणं जोइसियाणं वेमाणियाण य देवाणं कण्हलेस्साणं जाव सुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा ४ ? गोयमा ! सव्वत्थोवा वेमाणिया देवा सुक्कलेस्सा, पम्हलेस्सा असंखेज्जगुणा, तेउलेस्सा Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : द्वितीय उद्देशक] [३०१ असंखेजगुणा; तेउलेस्सा भवणवासी देवा असंखेजगुणा, काउलेस्सा असंखेजगुणा, णीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया; तेउलेस्सा वाणमंतरा देवा असंखेजगुणा, काउलेस्सा असंखेजगुणा, णीललेस्सा विसेसाहिया, किण्हलेस्सा विसेसाहिया; तेउलेस्सा जोइसियदेवा संखेजगुणा । [११८८ प्र.] भगवन् ! इन कृष्णलेश्या वाले यावत् शुक्ललेश्या वाले भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवा में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [११८८ उ.] गौतम ! सबसे थोड़े शुक्ललेश्या वाले वैमानिक देव हैं, उनसे पद्मलेश्या वाले (वैमानिकदेव) असंख्यातगुणे हैं, उनसे तेजोलेश्या वाले (वैमानिक देव) असंख्यातगुणे हैं, उनसे तेजोलेश्या वाले भवनवासी देव असंख्यातगुणे हैं, उनसे कापोतलेश्या वाले (भवनवासी देव) असंख्यातगुणे है, उनसे नीललेश्या वाले (भवनवासी देव) विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्या वाले (भवनवासी देव) विशेषाधिक हैं, उनसे तेजोलेश्या वाले वाणव्यन्तर देव असंख्यातगुणे हैं, उनसे कापोतलेश्या वाले (वाणव्यन्तर देव) असंख्यातगुणे हैं, उनसे नीललेश्या वाले (वाणव्यन्तर देव) विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्या वाले (वाणव्यन्तर देव) विशेषाधिक हैं, उनसे भी तेजोलेश्या वाले ज्योतिष्क देव संख्यातगुणे हैं । ११८९. एतासिं णं भंते ! भवणवासिणीणं वाणमंतरीणं जोइसिणीणं वेमाणिणीण य कण्हलेस्साणं जाव तेउलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा ४ ? गोयमा ! सव्वत्थोवाओ देवीओ वेमाणिणीओ तेउलेस्साओ; भवणवासिणीओ तेउलेस्साओ असंखेजगुणाओ, काउलेस्साओ असंखेजगुणाओ, णीललेस्साओ विसेसाहियाओ, कण्हलेस्साओ विसेसाहियाओ; तेउलेस्साओ वाणमंतरीओ देवीओ असंखेज्जगुणाओ, काउलेस्साओ असंखेजगुणाओ, णीललेस्साओ विसेसाहियाओ, कण्हलेस्साओ विसेसाहियाओ, तेउलेस्साओ जोइसिणीओ देवीओ संखेजगुणाओ । [११८९ प्र.] भगवन् ! इन कृष्णलेश्या वाली ले लेकर तेजोलेश्या वाली भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवियों में से कौन (देवियां), किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [११८९ उ.] गौतम ! सबसे थोड़ी तेजोलेश्या वाली वैमानिक देवियां हैं, उनसे तेजोलेश्या वाली भवनवासी देवियाँ असंख्यातगुणी हैं, उनसे कापोतलेश्या वाली (भवनवासी देवियाँ) असंख्यातगगुणी हैं, उनसे नीललेश्या वाली (भवनवासी देवियाँ) विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्या वाली (भवनवासीदेवियाँ) विशेषाधिक हैं, उनसे तेजोलेश्या वाली वाणव्यन्तर देवियाँ असंख्यातगुणी अधिक हैं, उनसे कापोतलेश्या वाली (वाणव्यन्तर देवियाँ) असंख्यातगुणी हैं, उनसे नीललेश्या वाली (वाणव्यन्तर देवियाँ) विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्या वाली (वाणन्यन्तर देवियाँ) विशेषाधिक हैं। उनसे तेजोलेश्या वाली ज्योतिष्क देवियाँ संख्यातगुणी हैं । ११९०. एतेसि णं भंते ! भवणवासीणं जाव वेमाणियाणं देवाण य देवीण कण्हलेस्साणं Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२] [प्रज्ञापनासूत्र जाव सुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा ४ ? गोयमा ! सव्वत्थोवा वेमाणिया देवा सुक्कलेस्सा, पम्हलेस्सा असंखेजगुणा, तेउलेस्सा असंखेजगुणा, तेउलेस्साओ वेमाणिणीओ देवीओ संखेजगुणाओ, तेउलेस्सा भवणवासी देवा असंखेजगुणा, तेउलेस्साओ भवणवासिणीओ देवीओ संखेजगुणाओ, काउलेस्सा भवणवासी असंखेजगुणा, णीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया, काउलेस्साओ भवणवासिणीओ संखेजगुणाओ, णीललेसाओ विसेसाहियाओ, कण्हलेसाओ विसेसाहियाओ, तेउलेस्सा वाणमंतरा असंखेजगुणा, तेउलेस्साओ वाणमंतरीओ संखेजगुणाओ, काउलेस्सा वाणमंतरा असंखेजगुणा, णीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया, काउलेस्साओ वाणमंतरीओ संखेजगुणाओ, णीललेस्साओ विसेसाहियाओ, कण्हलेस्साओ विसेसाहियाओ, तेउलेस्सा जोइसिया संखेजगुणा, तेउलेस्साओ जोइसिणीओ संखेजगुणाओ।। [११९० प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले से लेकर शुक्ललेश्या वाले तक के भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों और देवियों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? _ . [११९० उ.] गौतम ! सबसे थोड़े शुक्ललेश्या वाले वैमानिक देव हैं, उनसे पद्मलेश्या वाले (वैमानिक देव) असंख्यातगुणे हैं, उनसे तेजोलेश्या वाले (वैमानिक देव) असंख्यातगुणे हैं, उनसे तेजोलेश्या वाली वैमानिक देवियाँ संख्यातगुणी हैं, उनसे तेजोलेश्या वाले भवनवासी देव असंख्यातगुणे हैं, उनसे तेजोलेश्या वाली भवनवासी देवियाँ संख्यातगुणी हैं, उनसे कापोतलेश्या वाले भवनवासी देव असंख्यातगुणे हैं, उनसे नीललेश्या वाले (भवनवासी देव) विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्या वाले (भवनवासी देव) विशेषाधिक हैं, उनसे कापोतलेश्या वाली (भवनवासी देवियाँ) संख्यातगुणी हैं, उनसे नीललेश्या वाली (भवनवासी देवियाँ) विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्या वाली (भवनवासी देवियाँ) विशेषाधिक हैं, उनसे तेजोलेश्या वाले वाणव्यन्तर देव असंख्यातगुणे हैं, उनसे तेजोलेश्या वाली वाणव्यन्तर देवियाँ संख्यातगुणी हैं, उनसे कापोतलेश्या वाले वाणव्यन्तर देव असंख्यातगुणे हैं, उनसे नीललेश्या वाले (वाणव्यन्तर देव) विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्या वाले (वाणव्यन्तर देव) विशेषाधिक हैं, उनसे कापोतलेश्या वाली (वाणव्यन्तर देवियाँ) संख्यातगुणी हैं, उनसे नीललेश्या वाली (वाणव्यन्तर देवियाँ) विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्या वाली (वाणव्यन्तर देवियाँ) विशेषाधिक हैं; उनसे तेजोलेश्या वाले ज्योतिष्क देव संख्यातगुणे हैं, उनसे तेजोलेश्या वाली ज्योतिष्क देवियाँ संख्यातगुणी हैं । विवेचन - विविध लेश्याविशिष्ट चौवीस दण्डकवर्ती जीवों का अल्पबहुत्व - प्रस्तुत बीस सूत्रों (सू. ११७१ से ११९० तक) में कृष्णादिलेश्याविशिष्ट चौवीस दण्डकों के विभिन्न लिंगादियुक्त जीवों के विविध अपेक्षाओं से अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है । .. कृष्ण-नील-कापोतलेश्यायुक्त नारकों का अल्पबहुत्व - नारकों में केवल तीन ही लेश्याएँ पाई जाती हैं - कृष्ण, नील और कापोत । जैसा कि कहा है - प्रारम्भ की दो नरकपृथ्वियों में कापोत, तीसरी Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : द्वितीय उद्देशक [३०३ नरकपृथ्वी में मिश्र (कापोत और नील), चौथी में नील, पांचवी में मिश्र (नील और कृष्ण), छठी में कृष्ण और सातवीं पृथ्वी में महाकृष्ण लेश्या होती है। यही कारण है कि नारकों में कृष्ण, नील और कापोत, इन तीन लेश्या वालों के अल्पबहुत्व का विचार किया गया है । सबसे कम कृष्णलेश्या वाले नारक इस कारण बताए गए हैं कि कृष्णलेश्या पांचवी पृथ्वी के कतिपय नारकों तथा छठी और सातवीं पृथ्वी के नारकों में ही पाई जाती है। कृष्णलेश्या वाले नारक की अपेक्षा नीललेश्या वाले नारक असंख्यातगुणे इसलिए होते हैं कि नीललेश्या कतिपय तृतीय पृथ्वी के, चौथी पृथ्वी के और कतिपय पंचम पृथ्वी के नारकों में पाई जाती है और पूर्वोक्त नारकों से असंख्यातगुणे अधिक हैं। नीललेश्यी नारकों की अपेक्षा कापोतलेश्या वाले नारक इसलिए असंख्यातगुणे अधिक हैं कि कापोतलेश्या प्रथम एवं द्वितीय पृथ्वी के तथा तृतीय पृथ्वी के कतिपय नरकावासों में पाई जाती हैं और वे नारक पूर्वोक्त नारकों से असंख्यातगुणे अधिक हैं । तिर्यचों के अल्पबहुत्व में समुच्चय से विशेषता - समुच्चय सलेश्य जीवों की अल्पबहुत्व की तरह तिर्यचों के अल्पबहुत्व का निर्देश किया गया है, परन्तु समुच्चय से एक विशेषता यह है कि समुच्चय में अलेश्य का भी अल्पबहुत्व कहा गया है, जिसे तिर्यचों मे नहीं कहना चाहिए, क्योंकि तिर्यञ्चों के अलेश्य होना संभव नहीं हैं । एकेन्द्रियों के अल्पबहुत्व की समीक्षा - एकेन्द्रियों में ४ लेश्याएँ ही पाई जाती हैं - कृष्ण, नील, कापोत और तेजस्। अत: यहाँ इन्ही चारों लेश्याओं से विशिष्ट एकेन्द्रियों का ही अल्पबहुत्व प्रदर्शित किया गया है। सबसे कम एकेन्द्रिय तेजोलेश्या वाले इसलिए हैं कि तेजोलेश्या कतिपय बादर पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवों के अपर्याप्त अवस्था में ही पाई जाती है। तेजोलेश्याविशिष्ट एकेन्द्रियों की अपेक्षा कापोतलेश्या वाले अनन्तगुणे अधिक हैं, क्योंकि कापोतलेश्या अनन्त सूक्ष्म एवं बादर निगोद जीवों में पाई जाती है। कापोतलेश्या वालों से नीललेश्या वाले और इनसे कृष्णलेश्या वाले एकेन्द्रिय पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार विशेषाधिक कहे गए हैं। पृथ्वी-जल-वनस्पतिकायिकों में चार लेश्याएँ होने के कारण इनका अल्पबहुत्व समुच्चय एकेन्द्रिय के समान है और तेजस्काय, वायुकाय में कृष्ण, नील, कापोत तीन ही लेश्याएँ हैं। अत: तेजोलेश्या की छोड़कर शेष तीन लेश्याओं वाले विशेषाधिक क्रमशः नीललेश्यी और कृष्णलेश्यी हैं । यही अल्पबहुत्व विकलेन्द्रियाँ में निर्दिष्ट हैं।' १. (क) 'काउय दोसु, तइयाए मीसिया, नीलिया चउत्थीए । पंचमियाए मिस्सा, कण्हा तत्तो परमकण्हा ॥ (ख) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ३४६ २. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३४७ ३. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३४७ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४] [प्रज्ञापनासूत्र कृष्णादिलेश्याविशिष्ट पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों का दशविध अल्पबहुत्व - यों तो समुच्चय तिर्यञ्चों में अल्पबहुत्व के समान ही है, किन्तु जैसे समुच्चय तिर्यञ्च कापोतलेश्या वाले अनन्तगुणे बताए हैं, वैसे कापोतलेश्या वाले पंचेन्द्रियतिर्यञ्च अनन्त नहीं हो सकते, किन्तु वे असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि सभी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च मिलकर भी असंख्यात ही हैं । सामान्य पंचेन्द्रियतिर्यञ्च के इस सूत्र के साथ ही निम्नोक्त विशिष्ट पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के आठ और एक समुच्चय तिर्यंचों का, यों ९ सूत्र और हैं - यथा - (२) सम्मूर्च्छिम-पंचेन्द्रियतिर्यच का, (३) गर्भजपंचेन्द्रियतिर्यञ्च का, (४) गर्भज-पंचेन्द्रियतिर्यच स्त्रियों का, (५) गर्भज-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और सम्मूर्च्छिमपंचेन्द्रियेतिर्यचों का सम्मिलित, (६) सम्मूर्च्छिम-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और तिर्यचस्त्रियों का, (७) गर्भजपंचेन्द्रियतिर्यंचों और तिर्यञ्चस्त्रियों का, (८) सम्मूर्छिम एवं गर्भज-पंचेन्द्रियतिर्यचों और गर्भज-तिर्यञ्चस्त्रियों का, (९) पंचेन्द्रियतिर्यंचों और तिर्यचस्त्रियों का और (१०) तिर्यञ्चों और तिर्यचस्त्रियों का सम्मिलित अल्पबहुत्व। ___एक बात विशेषतः ध्यान देने योग्य है कि सभी लेश्याओं में स्त्रियों की संख्या अधिक पाई जाती है। यों भी सभी तिर्यञ्च पुरूषों की अपेक्षा तिर्यञ्च स्त्रियों की संख्या तिगुनी और तीन अधिक होती है, ऐसा सैद्धान्तिकों का मन्तव्य है। यही कारण है कि सप्तम अल्पबहुत्व में तिर्यञ्च स्त्रियाँ अधिक बताई गई हैं, तत्पश्चात् दसवें अल्पबहुत्व में भी तिर्यञ्चस्त्रियों की संख्या अधिक प्रतिपादित हैं । मनुष्यों के अल्पबहुत्व में पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के अल्पबहुत्व से विशेषता - यों तो मनुष्यों के अल्पबहुत्व की प्रायः सभी वक्तव्यता पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के अल्पबहुत्व के समान ही है, किन्तु मनुष्यों में पिछला अर्थात् दसवां अल्पबहुत्व नहीं होता, क्योंकि मनुष्य में अनन्तसंख्या सम्भव नहीं है। इस कारण 'कापोतलेश्या वाले अनन्तगुणे हैं यह भाग मनुष्यों में सम्भव नहीं हैं।' ___ चारों निकायों के देवों का अल्पबहुत्व - (१) समुच्चय देवों का अल्पबहुत्व - सबसे थोड़े शुक्ललेश्या वाले देव इसलिए हैं कि शुक्ललेश्या लान्तक आदि ऊपर के देवलोकों में ही पाई जाती है। १. ओहिय पणिंदि १ समुच्छिया २ य गब्भे ३ तिरिक्ख इत्थीओ ४ । संमुच्छिमगब्भतिरिया ५, मुच्छतिरिक्खी य ६, गब्भंमि ७ ॥१॥ संमुच्छिमगब्भइत्थी ८, पणिदितिरिगित्थीया ९ य ओहित्थी १० । दस अप्पब हुगभेया तिरियाणं होंति नायव्वा ॥२॥ - प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक ३४९ में उद्धृत २. 'तिगुणातिरूवअहिया तिरियाणं इत्थिया मुणेयव्वा ।' ३. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३४७ ४. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३४९ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : द्वितीय उद्देशक] [३०५ शुक्ललेश्यी देवों से पद्मलेश्यी देव असंख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक कल्प में पद्मलेश्या होती है और वहां के देव लान्तककल्प आदि के देवों की अपेक्षा असंख्यातगुणे अधिक हैं। पद्मलेश्यी देवों से कापोतलेश्यी देवं असंख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि कापोतलेश्या भवनवासी और वाणव्यन्तर देवों में पाई जाती है, जो कि उनकी अपेक्षा असंख्यातगुणे हैं। उनसे नीललेश्यी देव विशेषाधिक इसलिए हैं कि बहुत-से भवनवासियों और वाणव्यन्तरों में नीललेश्या पाई जाती है। नीललेश्यी देवों से कृष्णलेश्यी देव विशेषधिक होते हैं, क्योंकि अधिकांश भवनपति और वाणव्यन्तर देवों में कृष्णलेश्या होती है। इन सब की अपेक्षा से तेजोलेश्याविशिष्ट देव संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि बहुत-से भवनवासियों में, समस्त ज्योतिष्क देवों में तथा सौधर्म-ऐशान देवों में तेजोलेश्या का सद्भाव है। (२) सलेश्य समुच्चय देवियों के अल्पबहुत्व की समीक्षा - कापोतलेश्या वाली देवियाँ सबसे कम इसलिए हैं कि भवनवासी एवं व्यन्तर देवियों में ही कापोतलेश्या होती है, उनसे नीललेश्यायुक्त देवियाँ विशेषाधिक हैं क्योंकि बहुत-सी भवनवासी और वाणव्यन्तर देवियों में नीललेश्या पाई जाती है। इनकी अपेक्षा कृष्णलेश्या वाली देवियाँ विशेषाधिक हैं, क्योंकि अधिकांश भवनपति, वाणव्यन्तर देवियों में कृष्णलेश्या का सद्भाव होता है। इनकी अपेक्षा भी जेतोलेश्या वाली देवियाँ संख्यातगुणी अधिक हैं, क्योंकि तेजोलेश्या सभी ज्योतिष्क देवियों में तथा सौधर्म-ऐशान देवियों में पाई जाती है। एक बात विशेषत: ध्यान देने योग्य है, वह यह है कि देवियाँ सौधर्म और ऐशानकल्पों तक ही उत्पन्न होती हैं, आगे नहीं। अतएव उनमें इन कल्पों के योग्य प्रारम्भ की चार लेश्याएँ ही सम्भव हैं। इसी कारण तेजोलेश्या तक ही इनका अल्पबहुत्व बतलाया है । (३) सलेश्य देवों की अपेक्षा देवियों की संख्या अधिक - सैद्धान्तिक तथ्य यह है कि देवों की अपेक्षा देवियाँ बत्तीसगुनी और बत्तीस अधिक हैं। यही कारण है कि कापोत, नील, कृष्ण और तेजोलेश्या वाले देवों की अपेक्षा देवियाँ कहीं संख्यागुणी अधिक हैं, कहीं विशेषाधिक हैं । तेजोलेश्यी ज्योतिष्क देव-देवियों का अल्पबहुत्व - ज्योतिष्क देवों के सम्बन्ध में यहाँ एक ही अल्पबहुत्वसूत्र का प्रतिपादन किया गया है, क्योंकि ज्योतिष्कनिकाय में एकमात्र तेजोलेश्या ही होती है, कोई अन्य लेश्या नहीं होती । इसी कारण ज्योतिष्क देवों और देवियों का पृथक्-पृथक् अल्पबहुत्व-सूत्र निर्दिष्ट नहीं किया है। सलेश्य सामान्य जीवों और चौवीस दण्डकों में ऋद्धिक अल्पबहुत्व का विचार ११९१. एतेसि णं भंते ! जीवाणं कण्हलेस्साणं जाव सुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पिड्डिया वा महिड्डया वा? गोयमा ! कण्हलेस्सेहितो णीललेस्सा महिड्डिया, णीललेस्सेहिंतो काउलेस्सा महिड्डिया, एवं १. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३४९-३५० (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. ४, पृ. १३१ से १३९ तक Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६] [प्रज्ञापनासूत्र काउलेस्सहिंतो तेउलेस्सा महिड्डिया, तेउलेस्सेहितो पम्हलेस्सा महिड्डिया, पम्हलेस्सेहितो सुक्कलेस्सा महिड्डिया, सव्वप्पिड्डिया जीवा किण्हलेस्सा, सव्वमहिड्डिया जीवा सुक्कलेस्सा । [११९१ प्र.] भगवन् ! इन कृष्णलेश्या वाले, यावत् शुक्ललेश्या वाले जीवों में से कौन, किनसे ल्प ऋद्धिवाले अथवा महती ऋद्धि वाले होते हैं ? __ [११९१ उ.] गौतम ! कृष्णलेश्या वालों से नीललेश्या वाले महर्द्धिक हैं, नीललेश्या वालों से कापोतलेश्या वाले महर्द्धिक हैं, कापोतलेश्या वालों से तेजोलेश्या वाले महर्द्धिक हैं, तेजोलेश्या वालों से पद्मलेश्या वाले महर्द्धिक हैं और पद्मलेश्या वालों से शुक्ललेश्या वाले महर्द्धिक हैं । कृष्णलेश्या वाले जीव सबसे अल्प ऋद्धि वाले हैं और शुक्ललेश्या वाले जीव सबसे महती ऋद्धि वाले हैं । ११९२. एतेसिणं भंते !णेरइयाणं कण्हलेस्साणं णीललेस्साणं काउलेस्साणं य कतरे कतरेहितो अप्पिड्डिया वा महिड्डिया वा ? गोयमा ! कण्हलेस्सेहितो णीललेस्सा महिड्डिया, णीललेस्सेहितो काउलेस्सा महिड्डिया, सव्वप्पिड्डिया णेरइया कण्हलेस्सा, सव्वमहिड्डिया णेरइया काउलेस्सा । [११९२ प्र.] भगवन् ! इन कृष्णलेश्यी, नीललेशी और कापोतलेश्यी नारकों में कौन, कितनी अल्प ऋद्धि वाले अथवा महती ऋद्धि वाले हैं ? [११९२ उ.] गौतम ! कृष्णलेश्यी नारकों से नीललेश्यी नारक महर्द्धिक है, नीललेश्यी नारकों से कापोतलेश्यी नारक महर्द्धिक हैं। कृष्णलेश्या वाले नारक सबसे अल्प ऋद्धि वाले हैं और कापोतलेश्या वाले नारक सबसे महती ऋद्धि वाले हैं । ११९३. एतेसिणं भंते ! तिरिक्खजोणियाणं कण्हलेस्साणंजावसुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पिड्डिया वा महिड्डिया वा? गोयमा ! जहा जीवा। [११९३ प्र.] भगवन् ! इस कृष्णलेश्या वाले वावत् शुक्ललेश्या वाले तिर्यञ्चयोनिकों में से कौन, किनसे अल्पर्द्धिक अथवा महर्द्धिक हैं ? _ [११९३ उ.] गौतम ! जैसे समुच्चय जीवों की (कृष्णादिलेश्याओं की अपेक्षा से) अल्पर्द्धिकतामहर्द्धिकता कही है, उसी प्रकार तिर्यञ्चयोनिकों की (कृष्णादिलेश्याओं की अपेक्षा से अल्पर्द्धिकता और महर्द्धिकता) कहनी चाहिए। ११९४. एतेसि णं भंते ! एगिदियतिरिक्खजोणियाणं कण्हलेस्साणं जाव तेउलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पिड्डिया वा महिड्डिया वा ? गोयमा ! कण्हलेस्सेहितो, एगिंदियतिरिक्खजोणिएहितो णीललेस्सा महिड्डिया णीललेस्सेहितो Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : द्वितीय उद्देशक] काउलेस्सा महिड्डिया, काउलेस्सेहिंतो तेउलेस्सा महिड्डिया, सव्वप्पिड्डिया एगिंदियतिरिक्खजोणिया कण्हलेस्सा, सव्वमहिड्डिया तेउलेस्सा । [ ३०७ [११९४ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले, यावत् तेजोलेश्या वाले एकेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों में से कौन, किससे अल्पर्द्धिक हैं, अथवा महर्द्धिक हैं ? [११९४ उ.] गौतम ! कृष्णलेश्या वाले एकेन्द्रिय तिर्यञ्चों की अपेक्षा नीललेश्या वाले एकेन्द्रिय महर्द्धिक हैं, नीललेश्या वाले (एकेन्द्रियों) से कापोतलेश्या वाले (एकेन्द्रिय) महर्द्धिक हैं, कापोतलेश्या वालों से तेजालेश्या वाले (एकेन्द्रिय) महर्द्धिक है। सबसे अल्पऋद्धि वाले कृष्णलेश्याविशिष्ट एकेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक हैं और सबसे महाऋद्धि वाले तेजोलेश्या वाले एकेन्द्रिय हैं । ११९५. एवं पुढविक्काइयाण वि । [११९५] इसी प्रकार ( सामान्य एकेन्द्रिय तिर्यञ्चों की अल्पर्द्धिकता और महर्द्धिकता की तरह कृष्णादिचतुलेश्याविशिष्ट) पृथ्वीकायिकों की (अल्पर्द्धिकता के विषय में समझ लेना चाहिए ।) १९९६. एवं एतेणं अभिलावेणं जहेव लेस्साआ भावियाओ तहेव णेयव्वं जाव चउरिंदिया । [११९६] इस प्रकार चतुरिन्द्रिय जीवों तक जिनमें जितनी लेश्याएँ जिस क्रम से विचारी - कही गई हैं, उसी क्रम से इस (पूर्वोक्त) आलापक के अनुसार उनकी अल्पर्द्धिकता-महर्द्धिकता समझ लेनी चाहिए । ११९७. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं तिरिक्खजोणिणीणं सम्मुच्छिमाणं गब्भवक्कंतियाण य सव्वेसिं भाणियव्वं जाव अप्पिढिया वेमाणिया देवा तेउलेस्सा, सव्वमहिड्ढिया वेमाणिया देवा कस्सा | [११९७] इसी प्रकार पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों, तिर्यञ्चस्त्रियों, सम्मूर्च्छिमों और गर्भजों - सभी की कृष्णलेश्या से लेकर शुक्ललेश्यापर्यन्त यावत् वैमानिक देवों में जो तेजोलेश्या वाले हैं, वे सबसे अल्पर्द्धिक हैं और जो शुक्ललेश्या वाले हैं, वे सबसे महर्द्धिक हैं, (यहाँ तक अल्पर्द्धिकता-महर्द्धिकता का कथन करना चाहिए ।) १९९८. केइ भांति - चउवीसदंडएणं इड्डी भाणियव्वा । ॥ बीओ उद्देसओ समत्तो ॥ [११९८] कई आचार्यों का कहना है कि चौवीस दण्डकों को लेकर ऋद्धि का कथन करना चाहिए | विवेचन - सलेश्य सामान्यजीवों तथा चौवीस दण्डकों में अल्पर्द्धिकता - महर्द्धिकता- विचार - - प्रस्तुत आठ सूत्रों (११९१ से १९९८ तक) में कृष्णादिलेश्याविशिष्ट सामान्यजीवों और चौवीस दण्डकवर्ती जीवों की अल्पर्द्धिकता और महर्द्धिकता का विचार प्रस्तुत किया गया है । निष्कर्ष - पूर्व-पूर्व की लेश्या वाले अल्पर्द्धिक हैं और क्रमश: उत्तरोत्तर लेश्या वाले महर्द्धिक हैं। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८] [प्रज्ञापनासूत्र इसी प्रकार नारकों, तिर्यञ्चों, मनुष्यों और देवों के विषय में, जिनमें जितनी लेश्याओं की प्ररूपणा की गई, उनमें उनका विचार करके अनुक्रम से अल्पर्द्धिकता और महर्द्धिकता समझ लेनी चाहिए । __अप्कायिकों से चतुरिन्द्रिय जीवों तक - इनमें जो कृष्णलेश्या वाले हैं, वे सबसे कम ऋद्धि वाले हैं और तेजोलेश्या वाले सबसे महाऋद्धि वाले हैं। इसी प्रकार सर्वत्र कह लेना चाहिए । ॥सत्तरहवां लेश्यापद : द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥ १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २५२ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरसमं लेस्सापयं : तइओ उद्देसओ सत्तरहवाँ लेश्यापद : तृतीय उद्देशक चौवीसदण्डकवर्ती जीवों में उत्पाद-उद्वर्तन-प्ररूपणा ११९९.[१]णेरइए णं भंते ! णेरइएसु उववज्जति ? अणेरइए णेरइएसु उववज्जति ? गोयमा ! णेरइए णेरइएसु उववज्जइ, णो अणेरइए णेरइएसु उववजति । [११९९-१ प्र.] भगवन् ! नारक नारकों में उत्पन्न होता है, अथवा अनारक नारकों में उत्पन्न होता है ? । [११९९-१ उ.] गौतम ! नारक नारकों में उत्पन्न होता है, अनारक नारकों में उत्पन्न नहीं होता। . [२] एवं जाव वेमाणियाणं । [११९९-२] इसी प्रकार (नारक के समान ही असुरकुमार आदि भवनपतियों से लेकर) यावत् वैमानिकों की उत्पत्तिसम्बन्धी वक्तव्यता कहनी चाहिए । विवेचन - चौवीसदण्डकवर्ती जीवों में उत्पाद-उद्वर्तन-प्ररूपणा - प्रस्तुत चार सूत्रों में नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक के उत्पाद एवं उद्वर्तन के सम्बन्ध में ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से सैद्धान्तिक प्ररूपणा की गई हैं । प्रश्रोत्तर का आशय - प्रस्तुत दो सूत्रों में दो प्रश्न हैं- १. प्रथम प्रश्न उत्पत्तिविषयक है। नैरयिक नैरयिकों में उत्पन्न होता है, अनैरयिक नहीं। इसका अर्थ यह है कि नारक ही नरकभव में उत्पन्न होता है, क्योंकि नारकभवोपग्राहक आयु ही भव का कारण है। अत: जब नरकायु का उदय होता है, तभी जीव को नरकभव की प्राप्ति होती है तथा जब मनुष्यायु का उदय होता है, तब मनुष्यभव प्राप्त होता है। इसलिए ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से नारकायु आदि के वेदन के प्रथम समय में ही नारक आदि संज्ञा का व्यवहार होने लगता है ।२. दूसरा प्रश्न उद्वर्तन विषयक है। उसका अर्थ है- नारक से भिन्न (अनारक) नारकभव से (नारकों से) उद्वर्तन करता है अर्थात् निकलता है। इसका तात्पर्य यह है कि जब तक किसी जीव के नरकायु का उदय बना हुआ है, तब तक वह नारक कहलाता है और जब तक नरकायु का उदय नहीं रहता, तब वह अनारक (नारकभिन्न) कहलाने लगता है। अत: जब तक नरकायु का उदय है, तब तक कोई जीव नरक से नहीं निकल सकता। इसी कारण कहा गया है- नारक नरक से उद्वृत्त नहीं होता, बल्कि वही जीव नरक से उद्वर्तन करता है, जो अनारक हो, (जिसके नरकायु का उदय न रह गया हो) । निष्कर्ष यह है कि आगामी भव की आयु का Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१०] [ प्रज्ञापनासूत्र उदय होने पर जीव वर्त्तमान भव से उद्वृत्त होता है और जिस भवसम्बन्धी आयु का उदय हो, उसी नाम से उसका व्यवहार होता है । इसी प्रकार असुरकुमार आदि शेष २३ दण्डकों के उत्पाद एवं उद्वर्तन के विषय में समझ लेना चाहिए । लेश्यायुक्त चौवीसदण्डकवर्ती जीवों की उत्पाद - उद्वर्तनप्ररूपणा १२०१.[ १ ] से णूणं भंते ! कण्हलेस्से णेरइए कण्हलेस्सेसु णेरइएसु उववज्जति ? कण्हलेस्से उव्वट्टति ? जल्लेस्से उववज्जति तल्लेसे उव्वदृति ? हंता गोयमा ! कण्हलेसे णेरइए कण्हलेसेसु णेरइएसु उववज्जति, कण्हलेसे उव्वट्टति, जल्लेसे उववज्जति तल्लेसे उव्वट्टति । [१२०१-१ प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या वाला नारक कृष्णलेश्या वाले नारकों में ही उत्पन्न होता है? कृष्णलेश्या वालों ही (नारकों में से) उद्वृत्त होता है ? ( अर्थात्- ) जिस लेश्या वाला होकर उत्पन्न होता है, उसी लेश्या वाला होकर उद्वर्त्तन करता है ? [१२०१-१ उ.] हाँ, गौतम ! कृष्णलेश्या वाला नारक कृष्णलेश्या वाले नारकों में उत्पन्न होता है, कृष्णलेश्या वाला होकर ही ( वहाँ से) उद्वृत्त होता है। जिस लेश्या वाला होकर उत्पन्न होता है, उसी लेश्या वाला होकर उद्वर्त्तन करता (निकलता है। [ २ ] एवं णीललेसे वि काउलेसे वि । [१२०१ -२] इसी प्रकार नीललेश्या वाले और कापोतलेश्या वाले (नारक के उत्पाद और उद्वत्तन के सम्बन्ध में) भी (समझ लेना चाहिए ।) १२०२. एवं असुरकुमारा वि जाव थणियकुमारा वि । णवरं तेउलेस्सा अब्भइया । [१२०२] असुरकुमारों से लेकर स्तनितकुमारों तक भी इसी प्रकार से उत्पाद और उद्वर्तन का कथन करना चाहिए । विशेषता यह है कि इनके सम्बन्ध में तेजोलेश्या का कथन ( अभिलाप) अधिक करना चाहिए। १२०३. [ १ ] से णूणं भंते ! कण्हलेसे पुढविक्काइए कण्हलेस्सेसु पुढविक्काइएसु उववज्जति ? कण्हलेस्से उव्वदृति ? जल्लेसे उववज्जति तल्लेसे उव्वट्टति ? हंता गोयमा ! कण्हलेस्से पुढविक्काइए कण्हलेस्सेसु पुढविक्काइएसु उववज्जति; सिए कण्हलेस्से उव्वदृति, सिय नीललेसे उव्वदृति, सिय काउलेसे उव्वट्टति, सिय जल्लेसे उव्वज्जइ तल्लेसे उव्वट्टति । १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३५३ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : तृतीय उद्देशक] [३११ हा) . [१२०३-१ प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या वाला पृथ्वीकायिक कृष्णलेश्या वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? तथा क्या कृष्णलेश्या वाला होकर (वहाँ से) उद्वर्तन करता है ? जिस लेश्या वाला होकर उत्पन्न होता है, (क्या) उसी लेश्या वाला होकर (वहाँ से) उद्वर्तन करता (मरता) है ? - [१२०३-१ उ.] हाँ, गौतम ! कृष्णलेश्या वाला पृथ्वीकायिक कृष्णलेश्या वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है, (किन्तु) उद्वर्तन (मरण) कदाचित् कृष्णलेश्या वाला हो कर, कदाचित् नीललेश्या वाला हो कर और कदाचित् कापोतलेश्या वाला होकर करता है। (अर्थात्) जिस लेश्या वाला हो कर उत्पन्न होता है, कदाचित् उस लेश्या वाला हो कर उद्वर्तन करता है। और (कदाचित् अन्य लेश्यावाला होकर मरण करता है।) [२] एवं णीलेस्सा काउलेस्सा वि । [१२०३-२] इसी प्रकार नीललेश्या वाले और कापोतलेश्या वाले (पृथ्वीकायिक के उत्पाद और उद्वर्तन के सम्बन्ध में) भी (समझ लेना चाहिए ।) [३] से णूणं भंते ! तेउलेस्से पुढविक्काइए तेउलेस्सेसु पुढविक्काइएसु उव्वजइ ? पुच्छा । __ हंता गोयमा ! तेउलेसे पुढविकाइए तेउलेसेसु पुढविक्काइएसु उववज्जति, सिय कण्हलेसे उव्वट्टइ, सिय णीललेसे उव्वट्टइ, सिय काउलेसे उव्वट्टति; तेउलेसे उववजति, णो चेवणं तेउलेस्से उव्वदृति । [१२०३-३ प्र.] भगवन् ! तेजोलेश्या वाला पृथ्वीकायिक क्या तेजोलेश्या वाल पृथ्वीकायिकों में ही उत्पन्न होता है ? तेजोलेश्या वाला हो कर ही उद्वर्तन करता है ?, (इत्यादि पूर्ववत्) पृच्छा। [१२०३-३ उ.] हाँ, गौतम ! तेजोलेश्या वाला पृथ्वीकायिक तेजोलेश्या वाले पृथ्वीकायिकों में ही उत्पन्न होता है, (किन्तु) उद्वर्त्तन कदाचित् कृष्णलेश्या वाला हो कर, कदाचित् नीललेश्या वाला हो कर, कदाचित् कापोतलेश्या वाला होकर करता है, (वह) तेजोलेश्या से युक्त हो कर उत्पन्न होता है, (परन्तु). तेजोलेश्या से युक्त होकर उद्वर्तन नहीं करता। [४] एवं आउक्काइय-वणस्सइकाइया वि । - [१२०३-४] अप्कायिकों और वनस्पतिकायिकों की (उत्पाद-उद्वर्तनसम्बन्धी) वक्तव्यता भी इसी प्रकार (पृथ्वीकायिकों के समान) समझनी चाहिए। [५] तेऊ वाऊ एवं चेव । णवरं एतेसिं तेउलेस्सा णस्थि । [१२०३-५] तेजस्कायिकों और वायुकायिकों की (उत्पाद-उद्वर्त्तनसम्बन्धी वक्तव्यता) इसी प्रकार है (किन्तु) विशेषता यह है कि इनमें तेजोलेश्या नहीं होती। १२०४. बिय-तिय-चउर दिया एवं चेव तिसु लेसासु । [१२०४] द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों का (उत्पाद-उद्वर्त्तन सम्बन्धी कथन) भी इसी Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२] [प्रज्ञापनासूत्र प्रकार तीनों (कृष्ण, नील एवं कापोत) लेश्याओं में जानना चाहिए । १२०५. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा य जहा पुढविक्काइया आदिल्लियासु तिसु लेस्सासु भणिया (सु. १२०३ [१-२]) तहा छसुविलेसासु भाणियव्वा ।णवरं छप्पि लेसाओ चारियव्वाओ। [१२०५] पंचेन्द्रियतिर्यचयोनिकों और मनुष्यों का (उत्पाद उद्वर्तन सम्बन्धी) कथन भी छहों लेश्याओं में उसी प्रकार है, जिस प्रकार (सू. १२०३-१-२ में) पृथ्वीकायिकों का (उत्पाद-उद्वर्तन-सम्बन्धी कथन) प्रारम्भ की तीन लेश्याओं (के विषय) में कहा है। विशेषता यही है कि (पूर्वोक्त तीन लेश्या के बदले यहाँ) छहों लेश्याओं का कथन (अभिलाप) कहना चाहिए । १२०६. वाणमंतरा जहा असुरकुमारा (सु. १२०२ ।) [१२०६] वाणव्यन्तर देवों की (उत्पाद-उद्वर्तन-सम्बन्धी वक्तव्यता सू. १२०२ में उक्त) असुरकुमारों (की वक्तव्यता) के समान (जाननी चाहिए ।) १२०७.[१]से णूणं भंते ! तेउलेसे जोइसिए तेउलेसेसुजोइसिएसु उवज्जति? जहेव असुरकुमारा। [१२०७-१ प्र.] भगवन् ! क्या तेजोलेश्या वाला ज्योतिष्क देव तेजोलेश्या वाले ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होता है ? (क्या वह तेजोलेश्यायुक्त होकर ही च्यवन करता है ?) [१२०७-१ उ.] जैसा असुरकुमारों के विषय में कहा गया है, वैसा ही कथन ज्योतिष्कों के विषय में समझना चाहिए। [२] एवं वेमाणिया वि । नवरं दाण्ह वि चयंतीति अभिलावो । _ [१२०७-२] इसी प्रकार वैमानिक देवों के उत्पाद और उद्वर्तन के विषय में भी कहना चाहिए। विशेषता यह है कि दोनों प्रकार के (ज्योतिष्क और वैमानिक) देवों के लिए ('उद्वर्तन करते हैं, इसके स्थान में) 'च्यवन करते है' ऐसा अभिलाप (कहना चाहिए ।) । विवेचन - लेश्यायुक्त चौवीसदण्डकवर्ती जीवों की उत्पाद-उद्वर्तन-प्ररूपणा - प्रस्तुत सात सूत्रों (१२०१ से १२०७ तक) में लेश्या की अपेक्षा से चौवीसदण्डकवर्ती जीवों की उत्पाद और उद्वर्त्तन की प्ररूपणा की गई है। नारकों और देवों में उत्पाद और उद्वर्तन का नियम - जीव जिस लेश्यावाला होता है, वह उसी लेश्या वालों में उत्पन्न होता है तथा उसी लेश्या वाला होकर वहाँ से उद्वर्तन करता (मरता) है। उदाहरणार्थकृष्णलेश्या वाला नारक कृष्णलेश्या वाले नारकों में उत्पन्न होता है और जब उद्वर्त्तन करता है, तब कृष्णलेश्या वाला होकर ही उद्वर्त्तन करता है, अन्य लेश्या से युक्त होकर नहीं। इसका कारण यह है कि पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अथवा मनुष्य पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चायु अथवा मनुष्यायु का पूरी तरह से क्षय होने से अन्तर्मुहूर्त पहले उसी लेश्या से युक्त हो जाता है, जिस लेश्या वाले नारक में उत्पन्न होने वाला होता है। तत्पश्चातृ उसी अप्रतिपतित परिणाम से Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : तृतीय उद्देशक] [३१३ नरकायु का वेदन करता है। अतएव कहा है - कृष्णलेश्या वाला नारक कृष्णलेश्या वाले नारकों में ही उत्पन्न होता है, अन्य लेश्या वाले नारकों में उत्पन्न नहीं होता। तत्पश्चात् वहाँ कृष्णलेश्या वाला ही बना रहता है, उसकी लेश्या बदलती नहीं है; क्योंकि देवों और नारकों की लेश्या भव का क्षय होने तक बदलती नहीं है। इसी प्रकार नीललेश्या वाला या कापोतलेश्या वाला नारक उसी लेश्यावाले नारकों में उत्पन्न होता है, अन्य लेश्या वालों में नहीं और न अन्य लेश्या वाला नीललेश्या या कापोतलेश्या वालों में उत्पन्न होता है। नारकों की उद्वर्त्तना के सम्बन्ध में भी यही नियम है कि नीललेश्या वालों में उत्पन्न नारक नीललेश्यायुक्त होकर ही वहाँ से उवृत्त होता है, अन्य लेश्यायुक्त होकर नहीं । पृथ्वीकायिक आदि की उद्वर्तना के सम्बन्ध में - पृथ्वीकायिक आदि तिर्यञ्चों और मनुष्यों की उद्वर्त्तना के विषय में यह नियम एकान्तिक नहीं है कि जिस लेश्या वालों में वह उत्पन्न हो, उसी लेश्या से युक्त होकर उद्वर्तन करे। वह कदाचित् कृष्णलेश्या वाला होकर उदवर्तन करता है, कदाचित् नीललेश्या वाला होकर और कदाचित् कापोतलेश्या वाला होकर उद्वर्तन करता है तथा कदाचित् वह जिस लेश्या वालों में उत्पन्न होता है, उसी लेश्या वाला होकर उद्वर्तन करता है। इसका कारण यह है कि तिर्यञ्चों और मनुष्यों का लेश्या-परिणाम अन्तर्मुहूर्तमात्र स्थायी रहता है, उसके पश्चात् बदल जाता है। अतएव जो पृथ्वीकायिकादि जिस लेश्या से युक्त होकर भी उद्वर्तन करता है। तेजोलेश्या से युक्त होकर उद्वृत्त नहीं होता। इसका कारण यह है कि जब भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म-ईशान कल्पों के देव तेजोलेश्या से युक्त होकर अपने भव का त्याग करके पृथ्वीकायिकों में उप्तन्न होते हैं, तब कुछ काल तक अपर्याप्त अवस्था में उनमें तेजोलेश्या भी पायी जाती है, किन्तु उसके पश्चात् तेजोलेश्या नहीं रहती, क्योंकि पृथ्वीकायिक जीव अपने भवस्वभाव से ही तेजोलेश्या के योग्य द्रव्यों को ग्रहण करने में असमर्थ होते हैं। इस अभिप्राय से कहा है कि तेजोलेश्या से युक्त होकर पृथ्वीकायिक उत्पन्न तो होता है, किन्तु तेजोलेश्या से युक्त होकर उद्वृत्त नहीं होता। पृथ्वीकायिकों की तरह अप्कायिकादि की चार वक्तव्यताएँ - जिस प्रकार पृथ्वीकायिकों की कृष्ण, नील, कापोत एवं तेजोलेश्या सम्बन्धी चार वक्तव्यताएँ कही हैं, उसी प्रकार अप्कायिकों और वनस्पतिकायिकों की भी चार वक्तव्यताएँ कहनी चाहिए, क्योंकि अपर्याप्त अवस्था में उनमें भी तेजोलेश्या पाई जाती है। तेजस्कायिकों, वायुकायिकों तथा विकलेन्द्रियों में तीन वक्तव्यताएँ - तेजस्कायिकों, वायुकायिकों और विकलेन्द्रियों में तेजोलेश्या नहीं होती, क्योंकि उसका होना संभव नहीं है। १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३५३ २. 'अंतोमुहुत्तंमि गए, सेसए आउं (चेव) । लेसाहिं परिणयाहिं जीवा वच्चंति परलोयं ॥' ३. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पंत्रांक ३५४ ४. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३५४ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र ३१४] सामूहिक लेश्या की अपेक्षा से चौवीसदण्डकों में उत्पाद - उद्वर्तननिरूपण १२०८. सेणूणं भंते ! कण्हलेस्से णीलेस्से काउलेस्से णेरइए कण्हलेस्सेसु णीललेस्सेसु काउलेस्सेसु णेरइएस उववज्जति ? कण्हलेस्से णीललेस्से काउलेस्से उव्वट्टति जल्लेसे उववज्जति तल्लेसे उव्वट्टति ? हंता गोयमा ! कण्हलेस्स - णीललेस्स - काउलेस्सेसु उववज्जति, जल्लेसे उववज्जति तल्ले से उव्वट्टति । [१२०८ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या वाला नैरयिक क्या क्रमशः कृष्णलेश्या वाले, नीललेश्या वाले और कापोतलेश्या वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है? क्या वह (क्रमश:) कृष्णलेश्या वाला, नीललेश्या वाला तथा कापोतलेश्या वाला होकर ही ( वहाँ से) उद्वर्त्तन करता है ? (अर्थात्-) (जो नारक) जिस लेश्या से युक्त होकर उत्पन्न होता है, क्या वह उसी लेश्या से युक्त होकर मरण करता ? [१२०८ उ.] हाँ, गौतम ! ( वह क्रमशः) कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या वाले नारकों में उत्पन्न होता है और जो नारक जिस लेश्या वाला होकर उत्पन्न होता है, वह उसी लेश्या से युक्त होकर मरण करता है । १२०९. से णूणं भंते ! कण्हलेस्से जाव तेउलेस्से असुरकुमारे कण्हलेस्सेसु जाव तेउलेस्से असुरकुमारेसु उववज्जति ? एवं जहेव नेरइए (सु. १२०८ ) तहा असुरकुमारे वि जाव थणियकुमारे वि । [१२०९ प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या वाला, यावत् तेजोलेश्या वाला असुरकुमार (क्रमश:) कृष्णलेश्या वाले यावत् तेजोलेश्या वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है ? ( और क्या वह कृष्णलेश्या वाला यावत् तेजोलेश्या वाला होकर ही असुरकुमारों से उद्धृत होता है ? ) [१०९ उ.] हाँ, गौतम ! जैसे (सू. १२०८ में नैरयिक के उत्पाद - उद्वर्त्तन के सम्बन्ध में कहा, , वैसे ही असुरकुमार के विषय में भी, यावत् स्तनितकुमार के विषय में भी कहना चाहिए ।) १२१०.[ १ ]से णूणं भंते ! कण्हल्लेसे जाव तेउल्लेसे पुढविकाइए कण्हल्लेसेसु जाव तेउल्लेसेसु पुढविकाइएसु उववज्जति ? एवं पुच्छा जहा असुरकुमाराणं । हंता गोयमा ! कण्हलेस्से जाव तेउलेस्से पुढविकाइए कण्हलेस्सेसु जाव तेउलेस्सेसु पुढविक्काइए सु उववज्जति, सिय कण्हलेस्से उवट्टति सिय णीललेस्से सिय काउलेस्से उव्वदृति, सिय जल्लेस्से उववज्जइ तल्लेसे उव्वट्ट, तेउलेस्से उववज्जइ, णो चेव णं तेउलेस्से उव्वट्टति । [१२१०-१ प्र.] भगवन् कृष्णलेश्या वाला यावत् तेजोलेश्या वाला पृथ्वीकायिक, क्या (क्रमश:) कृष्णलेश्या वाले यावत् तेजोलेश्या वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? ( और क्या वह जिस लेश्या से युक्त Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : तृतीय उद्देशक] [३१५ होकर उत्पन्न होता है, उसी लेश्या से युक्त होकर उवृत्त होता है ? इस प्रकार जैसी पृच्छा असुरकुमारों के विषय में की गई है, वैसी ही यहाँ भी समझ लेनी चाहिए । [१२१०-१ उ.] हाँ, गौतम ! कृष्णलेश्या वाला यावत् तेजोलेश्या वाला पृथ्वीकायिक (क्रमश:) कृष्णलेश्या वाले यावत् तेजोलेश्या वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है, (किन्तु कृष्णलेश्या में उत्पन्न होने वाला वह पृथ्वीकायिक) कदाचित् कृष्णलेश्यायुक्त होकर उद्वर्तन करता है, कदाचित् नीललेश्या से युक्त होकर उद्वर्त्तन करता है तथा कदाचित् कापोतलेश्या से युक्त होकर उद्वर्तन करता है, कदाचित् जिस लेश्या वाला होकर उत्पन्न होता है, उसी लेश्या वाला होकर उद्वर्तन करता है। (विशेष यह है कि वह) तेजोलेश्या से युक्त होकर उत्पन्न तो होता है, किन्तु तेजोलेश्या वाला होकर उद्बत नहीं होता। [२] एवं आउक्काइय-वणप्फइकाइया वि भाणियव्वा । [१२१०-२] अप्कायिकों और वनस्पतिकायिकों के (सामूहिकरूप से उत्पाद-उद्वर्तन के) विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए । ___ [३] से णूणं भंते ! कण्हलेससे णीललेस्से काउलेस्से तेउक्काइए कण्हलेसेसु णीललेसेसु काउलेसेसु तेउक्काइएसु उववजति ? कण्हलेसे णीललेसे काउलेसे उव्वदृति ? जल्लेसे उववजति तल्लेसे उव्वदृति? हंता गोयमा ! कण्हलेस्से णीललेस्से काउलेस्से तेउक्काइए कण्हलेसेसु णीललेसेसु काउलेसेसु तेउक्काइएसु उववजति, सिय कण्हलेसे उव्वट्टति सिय णीललेसे सिय काउलेस्से उव्वदृति, सिय जल्लेसे उववज्जति तल्लेसे उव्वदृति । _ [१२१०-३ प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या वाला तेजस्कायिक, (क्रमश:) कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या वाले तेजस्कायिकों में ही उत्पन्न होता है ? तथा क्या वह (क्रमशः) कृष्णलेश्या वाला, नीललेश्या वाला तथा कापोतलेश्या वाला होकर ही उद्वृत्त होता है ? (अर्थात् वह) जिस लेश्या से युक्त होकर उत्पन्न होता है, क्या उसी लेश्या से युक्त होकर उद्वृत्त होता है ? [१२१०-३ उ.] हाँ, गौतम ! कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या वाला तेजस्कायिक, (क्रमश:) कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या वाले तेजस्कायिकों में उत्पन्न होता है, किन्तु कदाचित् कृष्णलेश्या से युक्त होकर उद्वर्तन करता है, कदाचित् नीललेश्या से युक्त होकर, कदाचित् कापोतलेश्या से युक्त होकर उद्वर्त्तन करता है। (अर्थात्) कदाचित् जिस लेश्या से युक्त होकर उत्पन्न होता है, उसी लेश्या से युक्त होकर उद्वर्तन करता है, (कदाचित् अन्य लेश्या से युक्त होकर भी उद्वर्तन करता है।) [४] एवं वाउक्काइया बेइंदिय-तेइंदिया-चउरिदिया वि भाणियव्वा । [१२१०-४] इसी प्रकार वायुकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के (उत्पाद उद्वर्तन के) सम्बन्ध में कहना चाहिए । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ ] [ प्रज्ञापनासूत्र १२११. से णूणं भंते ! कण्हलेसे जाव सुक्कलेसे पंचेंदियतिरिक्खजोणिए कण्हलेसेसु जाव सुक्कलेसेसु पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जति ? पुच्छा । हंता गोयमा ! कण्हलेस्से जाव सुक्कलेस्से पंचेंदियतिरिक्खजोणिए कण्हलेस्सेसु जाव सुक्कलेस्सेसु पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जति, सिय कण्हलेस्से उव्वट्टति जाव सिय सुक्कलेस्से उव्वट्टति, सिंय जल्लेसे उववज्जति तल्लेसे उव्वट्टति । [१२११ प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या वाला यावत् शुक्ललेश्या वाला पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक (क्रमश:) कृष्णलेश्या वाले यावत् शुक्ललेश्या वाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होता है ? और क्या उसी कृष्णादि श्या से युक्त होकर (मरण) करता है ? इत्यादि पृच्छा । [१२११ उ.] हाँ गौतम ! कृष्णलेश्या वाला यावतृ शुक्ललेश्या वाला पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक (क्रमश:) कृष्णलेश्या वाले यावत् शुक्ललेश्या वाले पंचेद्रियतिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होता है, किन्तु उद्वर्त्तन (मरण) कदाचित् कृष्णलेश्या वाला होकर करता है, कदाचित् नीललेश्या वाला होकर करता है, यावत् कदाचित् शुक्लेश्या से युक्त होकर करता है, (अर्थात्) कदाचित् जिस लेश्या से युक्त होकर उत्पन्न होता है, उसी लेश्या से युक्त होकर उद्वर्त्तन करता है, (कदाचित् अन्य लेश्या से युक्त होकर भी उद्वर्त्तन करता है ।) १२१२. एवं मणूसे वि । [१२१२] मनुष्य भी इसी प्रकार (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च के समान छहों लेश्याओं में से किसी भी लेश्या से युक्त होकर उसी लेश्या वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है तथा इसका उद्वर्त्तन भी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च के समान चाहिए।) १२१३. वाणमंतरे जहा असुरकुमारे ( सु. १२०९) । [१२१३] वाणव्यन्तर देव का ( सामूहिक लेश्यायुक्त उत्पाद और उद्वर्तन सू. १२०९ में उक्त ) असुरकुमार की तरह समझना चाहिए । १२१४. जोइसिय-वेमाणिए वि एवं चेव । नवरं जस्स जल्लेसा, दोण्ह वि चयणं ति भाणियव्वं । [१२१४] ज्योतिष्क और वैमानिक देव का उत्पाद - उद्वर्त्तनसम्बन्धी कथन भी इसी प्रकार (असुरकुमारों के समान ही समझना चाहिए। विशेष यह है कि जिसमें जितनी लेश्याएँ हों, उतनी लेश्याओं का कथन करना चाहिए तथा दोनों (ज्योतिष्कों और वैमानिकों) के लिए उद्वर्त्तन के स्थान में 'च्यवन' शब्द कहना चाहिए । विवेचन - चौवीसदण्डकवर्ती जीवों का लेश्या की अपेक्षा से सामूहिक उत्पाद - उद्वर्त्तन सम्बन्धी निरूपण प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. १२०८ से १२१४ तक) में चौवीसदण्डकवर्ती प्रत्येक दण्डकीय जीव की संभावित लेश्याओं को लेकर सामूहिकरूप से उत्पाद - उद्वर्तन की पुनः प्ररूपणा की गई है। इन सूत्रों के पुनरावर्तन का कारण यद्यपि नारकों से वैमानिकों तक चौवीस दण्डकों के क्रम से - - Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : तृतीय उद्देशक] [३१७ प्रत्येक दण्डक के जीव की एक-एक लेश्या को लेकर उत्पाद और उद्वर्त्तनसम्बन्धी प्ररूपणा पूर्वसूत्रों (१२०१ से १२०७ तक) में की जा चुकी है, तथापि विभिन्न लेश्या वाले बहुत-से नारकों के उस उस गति में उत्पन्न होने की स्थिति में अन्यथा वस्तुस्थिति की संभावना की जा सकती है, क्योंकि एक-एक में रहने वाले धर्म की अपेक्षा समुदाय का धर्म कहीं अन्य प्रकार का भी देखा जाता है। इसी आशंका के निवारणार्थ जिनमें जितनी लेश्याएँ सम्भव हैं, उनकी उतनी सब लेश्याओं को एक साथ लेकर पूर्वोक्त विषय सामूहिकरूप से पुनः सूत्रबद्ध किया गया है। कृष्णादिलेश्या वाले नैरयिकों में अवधिज्ञान-दर्शन से जानने-देखने का तारतम्य १२१५. [ १ ] कण्हलेस्से णं भंते ! णेरइए कण्हलेस्से णेरइयं पणिहाए ओहिणा सव्वओ समंता समभिलोएमाणे समभिलोएमाणे केवतियं खेत्तं जाणइ ? केवतियं खेत्तं पासइ ? · गोयमा ! णो बहुयं खित्तं जाणइ णो बहुयं खेत्तं पासइ, णो दूरं खेत्तं जाणइ णो दूरं खेत्तं पासति, इत्तरियमेव खेत्तं जाणइ इत्तरियमेव खेत्तं पासइ । णणं भंते! एवं वुच्चइ कण्हलेसे णं णेरइए तं चेव जाव इत्तरियमेव खेत्तं पासइ ? गोयमा ! से जहाणामए केइ पुरिसे बहुसमरमणिज्जंसि भूमिभागंसि ठिच्चा सव्वओ समंता समभिलोएज्जा, तए णं से पुरिसे धरणितलगतं पुरिसं पणिहाए सव्वओ समंता समभिलोएमाणे समभिलोएमाणे णो बहुयं खेत्तं जाव पासइ जाव इत्तरियमेव खेत्तं पासइ । एएणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ कण्हलेसे णं णेरइए जाव इत्तरियमेव खेत्तं पासइ । [१२१५-१ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वाला नैरयिक कृष्णलेश्या वाले दूसरे नैरयिक की अपेक्षा अवधि (ज्ञान) के द्वारा सभी दिशाओं और विदिशाओं में (सब ओर) समवलोकन करता हुआ कितने क्षेत्र को जानता है और ( अवधिदर्शन से) कितने क्षेत्र को देखता है ? [१२१५ - १ उ.] गौतम ! ( एक कृष्णलेश्यी नारक दूसरे कृष्णालेश्यावान् नारक की अपेक्षा) न तो बहुत अधिक क्षेत्र को जानता है और न बहुत क्षेत्र को देखता है, (वह) न बहुत दूरवर्ती क्षेत्र को जानता है और न बहुत दूरवर्ती क्षेत्र को देख पाता है, (वह) थोड़े से अधिक क्षेत्र को जानता है और थोड़े से ही अधिक क्षेत्र को देख पाता है। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि कृष्णलेश्या युक्त नारक न बहुत क्षेत्र को जानता . (इत्यादि) यावत् थोड़े से ही क्षेत्र को देख पाता है ? [उ.] गौतम ! जैसे कोई पुरुष अत्यन्त सम एवं रमणीय भू-भाग पर स्थित होकर चारों और (सभी दिशाओं और विदिशाओं में) देखे, तो वह पुरुष भूतल पर स्थिति (किसी दूसरे) पुरुष की अपेक्षा से सभी १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३५५ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८] [प्रज्ञापनासूत्र दिशाओं-विदिशाओं में बार-बार देखता हुआ न तो बहुत अधिक क्षेत्र को जानता है और न बहुत अधिक क्षेत्र देख पाता है, यावत् (वह) थोड़े ही अधिक क्षेत्र को जानता और देख पाता है। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कृष्णलेश्या वाला नारक ........यावत् थोड़े ही क्षेत्र को देख पाता है। । [२] णीललेसे णं भंते ! णेरइए कण्हलेसं णेरइयं पणिहाय ओहिणा सव्वओ समंता समभिलोएमाणे समभिलोएमाणे केवतियं खेत्तं जाणइ ? केवतियं खेत्तं पासइ ? गोयमा ! बहुतरागं खेत्तं जाणइ बहुतरागं खेत्तं पासइ, दूरतरागं खेत्तं जाणइ दूरतरागं खेत्तं पासइ, वितिमिरतरागं खेत्तं जाणइ वितिमिरतरागं खेत्तं पासइ, विसुद्धतरागं खेत्तं जाणइ विसुद्धतरागं खेत्तं पासइ। ___ सेकेणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ णीललेस्से णंणेरइए कण्हलेस्संणेरइयं पणिहाय जाव विसुद्धतरागं खेत्तं पासइ? गोयमा ! से जहाणामए केइ पुरिसे बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ पव्वयं दुरूहति, दुरूहित्ता सव्वओ समंता समभिलोएज्जा, तए णं से पुरिसे धरणितलगयं पुरिसं पणिहाय सव्वओ समंता समभिलोएमाणे समभिलोएमाणे बहुतरागं खेत्तं जाणइ जाव विसुद्धतरागं खेत्तं पासइ । से एतेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ णीललेस्से णेरइए कण्हलेस्सं जाव विसुद्धतरागं खेत्तं पासइ। [१२१५-२ प्र.] भगवन् ! नीललेश्या वाला नारक, कृष्णलेश्या वाले नारक की अपेक्षा सभी दिशाओं और विदिशाओं में अवधि (ज्ञान) के द्वारा देखता हुआ कितने क्षेत्र को जानता है. और कितने क्षेत्र को (अवधिदर्शन से) देखता है ? [१२१५-२ उ.] गौतम ! (वह नीललेश्या नारक कृष्णलेश्यी नारक की अपेक्षा) बहुतर क्षेत्र को जानता है और बहुतर क्षेत्र को देखता है, दूरतर क्षेत्र को जानता है और दूरतर क्षेत्र को देखता है, (वह) क्षेत्र को वितिमिरतर (भ्रान्तिरहित रूप से) जानता है तथा क्षेत्र को वितिमिरतर देखता है, (वह) क्षेत्र को विशुद्धतर (अत्यन्त स्फुट रूप से) जानता है तथा क्षेत्र को विशुद्धतर (रूप से) देखता है। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि नीललेश्या वाला नारक, कृष्णलेश्या वाले नारक की अपेक्षा यावत् क्षेत्र को विशुद्धतर जानता है तथा क्षेत्र को विशुद्धतर देखता है ? [उ.] गौतम ! जैसे कोई पुरुष अतीव सम, रमणीय भूमिभाग से पर्वत पर चढ़ कर सभी दिशाओंविदिशाओं में अवलोकन करे, तो वह पुरुष भूतल पर स्थित पुरुष की अपेक्षा, सब तरफ देखता-देखता हुआ बहुतर क्षेत्र को जानता-देखता है, यावत् क्षेत्र को विशुद्धतर जानता-देखता है। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि नीललेश्या वाला नारक, कृष्णलेश्या वाले नारक की अपेक्षा क्षेत्र को यावत् विशुद्धतर (रूप से) जानता-देखता है। [३] काउलेसे णं भंते ! णेरइए णीललेस्सं णेरइयं पणिहाय ओहिणा सव्वओ समंता Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : तृतीय उद्देशक] [३१९ समभिलोएमाणे समभिलोएमाणे केवतियं खेत्तं जाणइ ? केवतियं खेत्तं पासइ ? गोयमा ! बहुतरागं खेत्तं जाणइ बहुतरागं खेत्तं पासइ जाव विसुद्धतरागं खेत्तं पासइ ? से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ काउलेसे णं णेरइए जाव विसुद्धतरागं खेत्तं पासइ ? गोयमा ! से जहाणामए केइ पुरिसे बहुसमरमणिजओ भूमिभागाओ पव्वतं दुरूहति, दरूहित्ता रूक्खं दुरूहति, दुरूहित्ता दो वि पादे उच्चाविय सव्वओ समंता समभिलोएज्जा, तए णं से पुरिसे पव्वतगयं धरणितलगयं च पुरिसं पणिहाय सव्वओ समंता समभिलोएमाणे समभिलोएमाणे बहुतरागं खेत्तं जाणइ बहुतरागं खेत्तं पासइ जाव वितिमिरतरागं (विसुद्धतरागं) खेत्तं पासइ । सेएणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ काउलेस्से णं णेरइए णीललेस्सं णेरइयं पणिहाय तं चेव जाव वितमिरतरागं (विसुद्धतरागं) खेत्तं पासइ। [१२१५-३ प्र.] भगवन् ! कापोतलेश्या वाला नारक नीललेश्या वाले नारक की अपेक्षा अवधि (ज्ञान) से सभी दिशाओं-विदिशाओं में (सब ओर) देखता-देखता कितने क्षेत्र को जानता है कितने (अधिक) क्षेत्र को देखता है ? [१२१५-३ उ.] गौतम ! (वह कापोतलेश्यी नारक नीललेश्यी नारक की अपेक्षा) बहुतर क्षेत्र को जानता है, बहुतर क्षेत्र को देखता है, दूरतर क्षेत्र को जानता है, दूरतर क्षेत्र को देखता है तथा यावत् क्षेत्र को विशुद्धतर (रूप से) जानता-देखता है। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि कापोतलेश्याी नारक,.........यावत् विशुद्धतर क्षेत्र को जानता-देखता है ? [उ.] गौतम ! जैसे कोई पुरुष अत्यन्त सम एवं रमणीय भूभाग से पर्वत पर चढ़ जाए, फिर पर्वत से वृक्ष पर चढ़ जाए, तदनन्तर वृक्ष पर दोनों पैरों को ऊँचा करके चारों दिशाओं-विदिशाओं में (सब ओर) जाने-देखे तो वह बहुत क्षेत्र को जानता है, बहुतर क्षेत्र को देखता है यावत् उस क्षेत्र को निर्मलतर (विशुद्धतर रूप से) जानता-देखता है। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कापोतलेश्या वाला नैरयिक नीललेश्या वाले नारक की अपेक्षा........यावत् (अधिक) क्षेत्र को वितिमिरतर (निर्मलतर एवं विशुद्धतर रूप से) जानता और देखता है । विवेचन - कृष्णादिलेश्या वाले नैरयिकों में अविधिज्ञान-दर्शन से जानने-देखने का तारतम्यप्रस्तुत सूत्र (१२१५-१, २, ३) में कृष्णादिलेश्या विशिष्ट नारकों के द्वारा अवधिज्ञान-दर्शन से जानने-देशने के तारतम्य का निरूपण किया गया है। कृष्णलेश्यी दो नारकों में अवधिज्ञान से जानने-देखने में अधिक अन्तर नहीं - कृष्णलेश्यी एक नारक दूसरे कृष्णलेश्यी नारक से बहुत अधिक क्षेत्र को नहीं जानता-देखता, थोड़े-से ही अधिक क्षेत्र को जानता-देखता है। इस कथन का तात्पर्य यह है कि एक कृष्णलेश्यी दूसरे कृष्णलेश्यी नारक से योग्यता में Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२०] [प्रज्ञापनासूत्र विशुद्धि वाला होने पर भी बहुत अधिक दूरवर्ती क्षेत्र को अवधिज्ञान-दर्शन से नहीं जान-देख पाता, बल्कि थोड़े ही अधिक क्षेत्र को जान-देख पाता है। यह कथन एक ही नरकपृथ्वी के नारकों की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि सातवीं नरक का कृष्णलेश्यी नारक जघन्य आधा गाऊ और उत्कृष्ट एक गाऊ जानता है, जबकि छठी नरक का कृष्णलेश्यावान् नारक जघन्य एक गाऊ और उत्कृष्ट डेढ गाऊ जानता है, पांचवीं-छठी नरकपृथ्वी वाला कृष्णलेश्यी नारक जघन्य नारक डेढ गाऊ और उत्कृष्ट किञ्चित् न्यून दो गाऊ जानता है। इस प्रकार विविध पृथ्वी के कृष्णलेश्यी नारकों के जानने-देखने में अन्तर होने से दोषापत्ति होगी; इसलिए एक ही नरकपृथ्वी के कृष्णलेश्यी नारकों की अपेक्षा से यह कथन यथार्थ है। अधिक न देखने-जानने का कारण यह है कि जैसे दो व्यक्ति समतल भूमि पर खड़े होकर इधर-उधर देखें तो उनमें से एक अपने नेत्रों की निर्मलता के कारण भले अधिक देखे किन्तु कुछ ही अधिक क्षेत्र को जान-देख सकता है, बहुत अधिक दूर तक नहीं। इसी प्रकार कोई कृष्णलेश्यी नारक अपनी योग्यतानुसार दूसरे नारक की अपेक्षा अतिविशुद्ध हो तो भी वह कुछ ही अधिक क्षेत्र को जान-देख पाता है, बहुत अधिक क्षेत्र को नहीं । नीललेश्या और कापोतलेश्या वाले का उत्तरोत्तर स्फुट ज्ञान-दर्शन - (१) जैसे कोई व्यक्ति समतल भूभाग से पर्वतारूढ़ होकर चारों ओर देखे तो वह भूतल पर खड़े हुए पुरुष की अपेक्षा क्षेत्र को दूर तक, अधिक स्पष्ट, विशुद्धतर जानता-देखता है, वैसे ही नीललेश्या वाला नारक भूमितल-स्थानीय कृष्णलेश्या वाले नारक की अपेक्षा अपने अवधिज्ञान से क्षेत्र को अतीव दूर तक निर्मलतर, विशुद्धतर जानता-देखता है। (२) जैसे कोई व्यक्ति समतल भूमि से पर्वतारूढ होकर और फिर वहाँ वृक्ष पर चढ़ कर, दोनों पैर ऊँचे करके देखे तो वह नीचे भूतल पर स्थित और पर्वत पर स्थित पुरुषों की अपेक्षा अधिक दूरतर क्षेत्र को अतीव स्फुट एवं विशुद्धतर देखता है, वैसे ही वृक्षस्थानीय कापोतलेश्या वाला, पर्वतस्थानीय नीललेश्यावान् एवं भूमितलस्थानीय कृष्णलेश्यावान् की अपेक्षा अवधिज्ञान से बहुत दूर तक के क्षेत्र को विशुद्धतर जानता-देखता है। कृष्णादिलेश्यायुक्त जीवों में ज्ञान की प्ररूपणा - १२१६. [१] कण्हलेस्से णं भंते ! जीवे कतिसु णाणेसु होज्जा ? गोयमा ! दोसु वा तिसु वा चउसु वा णाणेसु हुजा, दोसु होमाणे आभिणिबोहिय-सुयणाणेसु होजा, तिसु होमाणे आभिणिबोहिय-सुयणाण-ओहिणाणेसु होजा, अहवा तिसु होमाणे आभिणिबोहिय-सुयणाण-मणपजवणाणेसु होजा, चउसु होमाणे आभिणिबोहियणाण-सुयणाणओहिणाण-मणपज्जवणाणेसु होज्जा । [१२१६-१ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वाला जीव कितने ज्ञानों में होता है ? [१२१६-१ उ.] गौतम ! (वह) दो, तीन अथवा चार ज्ञानों में होता है। यदि दो (ज्ञानों) में हो तो १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३५६ २. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३५६ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : तृतीय उद्देशक] [३२१ आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान में होता है, तीन (ज्ञानों) में हो तो आभिनिबोधिक; श्रुत और अवधिज्ञान में होता है, अथवा तीन (ज्ञानों) में हो तो आभिनिबोधिक श्रुतज्ञान और मनः पर्यवज्ञान में होता है और चार ज्ञानों में हो तो आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्यवज्ञान में होता है। [ २ ] एवं जाव पम्हलेस्से । [१२१६-२] इसी प्रकार (नील, कापोत और तेजोलेश्या) यावत् पद्मलेश्या वाले जीव में पूर्वोक्त सूत्रानूसार ज्ञानों की प्ररूपणा समझ लेना चाहिए । १२१७. सुक्कलेस्से णं भंते! जीवे कइसु णाणेसु होज्जा ? गोयमा ! दोसु वा तिसु चउसु एगम्मि वा होज्जा, दोसु होमाणे आभिणिबोहियणाण० एवं जहेव कण्हलेस्साणं (सु. १२१६ [१]) तहेव भाणियव्वं जाव चउहिं, एगम्मि होमाणे एगम्मि केवलणाणे होज्जा । ॥ पण्णवणाए भगवतीए लेस्सापदे ततिओ उद्देसओ समत्तो ॥ [१२१७ प्र.] भगवन् ! शुक्ललेश्या वाला जीव कितने ज्ञानों में होता है ? [१२१७ उ.] गौतम ! शुक्ललेश्या जीव दो, तीन, चार या एक ज्ञान में होता है। यदि दो (ज्ञानों) में हो तो आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतुज्ञान में होता है, तीन या चार ज्ञानों में हो तो (सूं. १२१६-१ में) जैसा कृष्णलेश्या वालों का कथन किया था, उसी प्रकार यावत् चार ज्ञानों में होता है, यहाँ तक कहना चाहिए। यदि एक ज्ञान में हो तो एक केवलज्ञान में होता है। विवेचन - कृष्णादिलेश्यायुक्त जीवों में ज्ञान- प्ररूपणा - प्रस्तुत दो सूत्रों ( १२१६-१२१७) में कृष्णलेश्या से लेकर शुक्ललेश्या तक से युक्त जीव पांच ज्ञानों में से कितने ज्ञानों वाला होता है ? इसका प्रतिपादन का गया है। अवधिज्ञानरहित मनः पर्यायज्ञान किसी-किसी में अवधिज्ञानरहित मन: पर्यायज्ञान भी होता है, 'सिद्धप्राभृत' आदि ग्रन्थों में इसका अनेकबार प्रतिपादन किया गया है तथा प्रत्येक ज्ञान की क्षयोपशमसामग्री विचित्र होती है। आमर्ष-औषधि आदि लब्धियों से युक्त किसी अप्रमत्त चारित्री को विशिष्ट विशुद्ध अध्यवसाय में मन:अपर्यायज्ञानावरण के क्षयोपशम की सामग्री प्राप्त हो जाती है, किन्तु अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम की सामग्री प्राप्त नहीं होती। उसे अवधिज्ञान के बिना भी मन: पर्यायज्ञान होता है । - कृष्णलेश्यावान् में मनः पर्यायज्ञान कैसे ? यहाँ शंका हो सकती है कि मन: पर्यायज्ञान तो अतिविशुद्ध परिणाम वाले व्यक्ति को होता है और कृष्णलेश्या संक्लेशमय परिणाम रूप होती है। ऐसी स्थिति में कृष्णलेश्या वाले जीव में मनःपर्यायज्ञान कैसे हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि प्रत्येक लेश्या के अध्यवसायस्थान असंख्यात लोकाकाशप्रदेशों जितने हैं । उनमें से कोई-कोई मन्द अनुभाव वाले अध्यवसायस्थान Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२] [ प्रज्ञापनासूत्र होते हैं, जो प्रमत्तसंयत में पाए जाते हैं। यद्यपि मनःपर्यायज्ञान अप्रमत्तसंयत जीव को ही उत्पन्न होता है, परन्तु उत्पन्न होने के बाद वह प्रमत्तदशा में भी रहता है । इस दृष्टि से कृष्णलेश्यावाला जीव भी मनःपर्यायज्ञानी हो सकता है। शुक्लेश्या वाले की विशेषता शुक्ललेश्या वाला जीव केवलज्ञान में भी हो सकता है। केवलज्ञान शुक्ललेश्या के ही होता है अन्य किसी में नहीं। यही अन्य लेश्या वालों से शुक्ललेश्या वाले की विशेषता है। ॥ सत्तरहवां लेश्यापद : तृतीय उद्देशक समाप्त ॥ १. २. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३५७ वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक ३५८ ** Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरसमं लेस्सापयं :चउत्थो उद्देसओ सत्तरहवाँ लेश्यापद : चतुर्थ उद्देशक चतुर्थ उद्देशक के अधिकारों की गाथा १२१८. परिणाम १ वण्ण २ रस ३ गंध ४ सुद्ध ५ अपसत्थ ६ संकिलिढण्हा ७-८ । गति ९ परिणाम १० पदेसावगाह ११-१२ वग्गण १३ ठाणाणमप्पबहुं १४-१५॥ ॥२१०॥ [१२१८. चतुर्थ उद्देशक की अधिकार गाथा का अर्थ -] (१) परिणाम, (२) वर्ण, (३) रस, (४) गन्ध, (५) शुद्ध (-अशुद्ध), (६) (प्रशस्त-) अप्रशस्त, (७) संक्लिष्ट (-असंक्लिष्ट), (८) उष्ण (-शीत), (९) गति, (१०) परिणाम, (११) प्रदेश (-प्ररूपणा), (१२) अवगाह, (१३) वर्गणा, (१४) स्थान (-प्ररूपणा) और (१५) अल्पबहुत्व, (ये पन्द्रह अधिकार चतुर्थ उद्देशक में कहे जाएँगें) ॥२१० ॥ लेश्या के छह प्रकार १२१९. कति णं भंते ! लेस्साओ पण्णत्तओ? गोयमा ! छल्लेसाओ पण्णत्ताओ । तं जहा - कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा । [१२१९ प्र.] भगवन् ! लेश्याएँ कितनी हैं ? [१२१९ उ.] गौतम ! लेश्याएँ छह हैं, वे इस प्रकार- कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या। प्रथम परिणामाधिकार १२२०.से णूणं भंते ! कण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प तारूवत्ताए तावण्णत्ताए तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुजो भुजो परिणमति ? हंता गोयमा ! कण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प तारूवत्ताए तावण्णत्ताए तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुजो-भुजो परिणमति । से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ कण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प तारूवत्ताए जाव भुजो-भुजो परिणमति ? .. गोयमा ! से जहाणामए खीरे दूसिं पप्प सुद्धे वा वत्थे रागं पप्प तारूवत्ताए तावण्णत्ताए Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४] [प्रज्ञापनासूत्र तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुजो भुजो परिणमति । सेएणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ कण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प तारूवत्ताए जाव भुजो भुजो परिणमति । [१२२० प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त हो कर उसी रूप में, उसी के वर्णरूप में, उसी के गन्धरूप में, उसी के रसरूप में, उसी के स्पर्शरूप में पुनः पुनः परिणत होती है ? [१२२० उ.] हाँ, गौतम ! कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त होकर उसी रूप में यावत् पुनः पुनः परिणत होती है। - [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त करके उसी रूप में यावत् बार-बार परिणत होती है ? [उ.] गौतम ! जैसे छाछ आदि खटाई का जावण (दूष्य) पाकर दूध अथवा शुद्ध वस्त्र, रंग (लाल, पीला आदि का सम्पर्क) पाकर उस रूप में, उसी के वर्ण-रूप में, उसी के गन्ध-रूप में, उसी के रस-रूप में, उसी के स्पर्श-रूप में पुनः पुनः परिणत हो जाता है, इसी प्रकार हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कृष्णलेश्या नीललेश्या को पा कर उसी के रूप में यावत् पुनः पुनः परिणत होती है। १२२१. एवं एतेणं अभिलावेणंणीललेस्सा काउलेस्सं पप्प, काउलेस्सा तेउलेस्सं पप्प, तेउलेस्सा पम्हलेस्सं पप्प, पम्हलेस्सा सुक्कलेस्सं पप्प जाव भुजो भुजो परिणमति । [१२२१] इसी प्रकार (पूर्वोक्त) कथन (अभिलाप) के अनुसार नीललेश्या कापोतलेश्या को प्राप्त होकर, कापोतलेश्या तेजोलेश्या को प्राप्त होकर, तेजोलेश्या पद्मलेश्या को प्राप्त होकर और पद्मलेश्या शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर उसी के रूप में और यावत् (उसी के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के रूप में) पुनः पुनः परिणत हो जाती है। __ १२२२. से णूणं भंते ! कण्हलेस्सा णीललेस्सं काउलेस्सं तेउलेस्सं पम्हलेस्सं सुक्कलेस्सं पप्प तारूवत्ताए तावन्नत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुजो भुजो परिणमति ? हंता गोयमा ! कण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प जाव सुक्कलेस्सं पप्प तारूवत्ताए तावन्नत्ताए तागंधत्ताए ताफासत्ताए भुजो भुजो परिणमति । से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चति किण्हलेस्सा णीललेस्सं जाव सुक्कलेस्सं पप्प तारूवत्ताए जाव भुजो भुजो परिणमति ? गोयमा ! से जहाणामए वेरूलियमणी सिया किण्णसुत्तए वा णीलसुत्तए वा लोहियसुत्तए वा हालिद्दसुत्तए वा सुकिल्लसुत्तए वा आइए समाणे तारूवत्ताए जाव भुजो भुजो परिणमति । सेएणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ किण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प जाव सुक्कलेस्सं पप्प तारूवत्ताए Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२५ सत्तरहवाँ लेश्यापद : चतुर्थ उद्देशक ] जव भुज भुजो परिणमति । [१२२२ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या क्या नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर उन्हीं के स्वरूप में (उनमें से किसी भी लेश्या के रूप में), उन्हीं के वर्णरूप में, उन्हीं के गन्धरूप में, उन्हीं के रसरूप में, उन्हीं के स्पर्शरूप में पुन: पुन: परिणत होती है ? [१२२२ उ.] हाँ गौतम ! कृष्णलेश्या, नीललेश्या को यावत् शुक्ललेश्या को प्राप्त हो कर उन्हीं के स्वरूप में यावत् (उनमें से किसी भी लेश्या के वर्णादिरूप में) पुन: पुन: परिणत होती है ? [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से आप ऐसा कहते है कि कृष्णलेश्या, नीललेश्या को यावत् शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर उन्हीं के स्वरूप में यावत् (उन्हीं के वर्णादिरूप मे) पुन: पुन: परिणत हो जाती है ? [उ.] गौतम ! जैसे कोई वैडूर्यमणि काले सूत्र में या नीले सूत्र में, लाल सूत्र में या पीले सूत्र में अथवा श्वेत (शुक्ल) सूत्र में पिरोने पर वह उसी के रूप में यावत् (उसी के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के रूप मे) पुनः पुनः परिणत हो जाती है, इसी प्रकार हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि कृष्णलेश्या, नीललेश्या यावत् शुक्लेश्या को प्राप्त होकर उन्हीं के रूप में यावत् उन्हीं के वर्णादिरूप में पुन: पुन: परिणत हो जाती है । १२२३. से णूणं भंते ! णीललेस्सा किण्हलेस्सं जाव सुक्कलेस्सं पप्प तारूवत्ताए जाव भुजो भुजो परिणमति ? हंता गोयमा ! एवं चेव । [१२२३ प्र.] भगवन् ! क्या नीललेश्या, कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या को पाकर उन्हीं के स्वरूप में यावत् (उन्हीं के वर्णादिरूप मे) बार-बार परिणत होती है ? [१२२३ उ.] हाँ गौतम ! ऐसा ही है, (जैसा कि ऊपर कहा गया है।) १२२४. एवं काउलेस्सा कण्हलेस्सं णीललेस्सं तेउलेस्सं पम्हलेस्सं सुक्कलेस्सं, एवं तेउलेस्सा किण्हलेसं णीललेसं काउलेसं पम्हलेसं सुक्कलेसं, एवं पम्हलेस्सा कण्हलेसं णीललेसं काउलेसं तेउलेसं सुक्कलेस्सं । [१२२४] इसी प्रकार कापोतलेश्या, कृष्णलेश्या, नीललेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर, इसी प्रकार तेजोलेश्या, कृष्णलेश्या, कापोतलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्कललेश्या को प्राप्त होकर, इसी प्रकार पद्मलेश्या, कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या को प्राप्त होकर (उनके स्वरूप में तथा उनके वर्ण, गंध, रस और स्पर्श के रूप में परिणत हो जाती है ।) १२२५. सेणूणं भंते ! सुक्कलेस्सा किण्ह० णील० काउ० तेउ० पम्हलेस्सं पप्प जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति ? हंता गोयमा ! एवं चेव । Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६] [प्रज्ञापनासूत्र . [१२२५ प्र.] भगवन् ! क्या शुक्ललेश्या, कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या और पद्मलेश्या को प्राप्त होकर यावत् (उन्हीं के स्वरूप में तथा उन्हीं के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के रूप में) बारबार परिणत होती है ? [१२२५ उ.] हाँ गौतम ! ऐसा ही है, (जैसा कि ऊपर कहा गया है।) विवेचन- प्रथम परिणामाधिकार - प्रस्तुत छह सूत्रों (सू. १२२० से १२२५) में कृष्णादि लेश्याओं की विभिन्न वर्णादिरूप में परिणत होने की प्ररूपणा की गई है। लेश्याओं के परिणाम की व्याख्या - परिणाम का अर्थ यहाँ परिवर्तन है। अर्थात्- एक लेश्या का दूसरी लेश्या के रूप में तथा उसी के वर्णादि के रूप में परिणत हो जाना लेश्यापरिणाम है। कृष्णलेश्या का नीललेश्या के रूप में परिणमन - प्रस्तुत में कृष्णलेश्या अर्थात्- कृष्णलेश्या के द्रव्य, नीललेश्या को अर्थात्- नीललेश्या के द्रव्यों को प्राप्त होकर, यानी परस्पर एक दूसरे के अवयवों के संस्पर्श को पाकर उसी के- नीललेश्या के रूप में अर्थात् नीललेश्या के स्वभाव के रूप में बार-बार परिणत होती है। तात्पर्य यह है कि कृष्णलेश्या का स्वभाव नीललेश्या के स्वभाव के रूप में बदल जाता है। स्वभाव का किस प्रकार परिवर्तन होता है ? इसे विशद रूप में बताते हैं - कृष्णलेश्या नीललेश्या के वर्ण के रूप में, गन्ध के रूप में, रस के रूप में और स्पर्श के रूप में परिणत- परिवर्तित हो जाती है। यह परिणमन अनेकों बार होता है। इसका आशय यह है कि जब कोई कृष्णलेश्या के परिणमन वाला मनुष्य या विर्यञ्च भवान्तर में जाने वाला होता है और वह नीललेश्या के योग्य द्रव्यों को ग्रहण करता है, तब नीललेश्या के द्रव्यों के सम्पर्क से वे कृष्णलेश्यायोग्य द्रव्य तथारूप जीव-परिणामरूप सहकारी कारण को पाकर नीललेश्या के द्रव्य रूप के परिणत हो जाते है; क्योंकि पुद्गलों के विविध प्रकार से परिणत- परिवर्तित होने का स्वभाव है। तत्पश्चात् वह जीव केवल नीललेश्या के योग्य द्रव्यों के सम्पर्क से नीललेश्या के परिणमन से युक्त होकर काल करके भवान्तर में उत्पन्न होता है। यह सिद्धान्तवचन है कि' 'जीव जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके काल करता (मरता) है, उसी लेश्या वाला होकर उत्पन्न होता', तथा वही तिर्यच अथवा मनुष्य उसी भव में विद्यमान रहता हुआ जब कृष्णलेश्या में परिणत होकर नीललेश्या के रूप- स्वभाव में परिणत होता है, तब भी कृष्णलेश्या के द्रव्य तत्काल ग्रहण किए हुए नीललेश्या के द्रव्यों के सम्पर्क से नीललेश्या के द्रव्यों के रूप में परिणत (परिवर्तित) हो जाते हैं। इसी तथ्य को दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं- जैसे छाछ आदि किसी खट्टी वस्तु के संयोग से दूध के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श में परिवर्तन हो जाता है, वह तक्र (छाछ) आदि के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के रूप में पलट जाता है। इसी प्रकार कृष्णलेश्यायोग्य द्रव्यों का स्वरूप तथा उसके वर्ण-गन्धादि नीललेश्यायोग्य द्रव्यों के सम्पर्क से नीललेश्या के वर्णादिरूप में परिवर्तित हो जाते हैं । यहाँ तिर्यंचों और मनुष्यों के लेश्याद्रव्यों का पूर्णरूप से वद्रूप में परिणमन माना गया है। देवों और नारकों के लेश्याद्रव्य भवपर्यन्त स्थायी रहते हैं। जल्लेसाई दव्वाइं परियाइत्ता कालं करेइ, तल्लेसे उववज्जइ । - प्रज्ञा. म. वृ., प. ३५९ " २. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३५९-३६० Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : चतुर्थ उद्देशक [३२७ ____ पूर्व-पूर्व लेश्या का उत्तरोत्तर लेश्या के रूप में परिणमन - सूत्र १२२०-१२२१ में यह बताया गया है कि पूर्व-पूर्व लेश्या उत्तर-उत्तर लेश्या को प्राप्त होकर उसी के वर्णादि रूप में परिणत हो जाती है। किसी भी एक लेश्या का अन्य समस्त लेश्याओं के रूप के परिणमन - सू. १२२२ से १२२५ तक यह बताया गया है कि कोई भी एक लेश्या क्रम से या व्युत्क्रम से किसी भी अन्य लेश्या के वर्णगन्धादिरूप में परिणत हो सकती है। किन्तु यहाँ यह ध्यान रखना है कि कोई भी एक लेश्या परस्पर विरूद्ध होने से एक ही साथ अनेक लेश्याओं में परिणत नहीं होती। एक लेश्या का अन्य सभी लेश्याओं में से किसी एक लेश्या के रूप में परिणमन कैसे हो जाता है ? इस सम्बन्ध में दृष्टान्त यह है कि जैसे एक ही वैडूर्यमणि उन-उन उपाधिद्रव्यों के सम्पर्क से उस-उस रूप में परिणत हो जाती है, इसी प्रकार एक लेश्याद्रव्य भी कृष्ण, नील आदि रूपों में परिणत हो जाते हैं। इसी अंश में दृष्टान्त की समानता समझनी चाहिए, अन्य अनिष्ट अंशों में नहीं । द्वितीय वर्णाधिकार १२२६. कण्हलेस्सा णं भंते ! वण्णेणं केरिसिया पण्णत्ता ? गोयमा ! से जहाणामए जीमूए इ वा अंजणे इ वा खंजणे इ वा कजले इ वा गवले इ वा गवलवलए इ वा जंबूफलए इ वा अद्दारिट्ठए इ वा परपुढे इ वा भमरे इ वा भमरावली इ वा गयकलभे इवा किण्हकेसे इ वा आगासथिग्गले इ वा किण्हासोए इ वा किण्हकणवीरए इ वा किण्हबंधुजीवए इवा। भवेतारूवा? गोयमा ! णो इणढे समढे, किण्हलेस्सा णं एत्तो अणिद्रुतरिया चेव अकंततरिया चेव अप्पियतरिया चेव अमणुण्णतरिया चेव अमणामतरिया चेव वण्णेणं पण्णत्ता । [१२२६ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वर्ण से कैसी है ? __ [१२२६ उ.] गौतम ! जैसे कोई जीमूत (वर्षारम्भकालिक मेघ) हो, अथवा (आँखों में आंजने का सौवीरादि) अंजन (काला सुरमा अथवा अंजन नामक रत्न) हो, अथवा खंजन (गाड़ी की धुरी में लगा हुआ कीट-औंघन, अथवा दीवट के लगा मैल (कालमल) हो, कज्जल (काजल) हो, गवल (भैंस का सींग) हो, अथवा गवलवृन्द (भैंस के सींगो का समूह) हो, अथवा जामुन का फल हो, या गीला अरीठा (या अरीठे का फूल) हो, या परपुष्ट (कोयल) हो, भ्रमर हो, या भ्रमरों की पंक्ति हो, अथवा हाथी का बच्चा हो या काले केश हों, अथवा आकाशथिग्गल (शरद्ऋतु के मेघों के बीच का आकाशखण्ड) हो, या काला अशोक हो, काला कनेर हो, अथवा काला बन्धुजीवक (विशिष्ट वृक्ष) हो, (इनके समान कृष्णलेश्या काले वर्ण की है।) [प्र.] (भगवन् !) क्या कृष्णलेश्या (वास्तव में) इसी रूप की होती है ? १. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक ३५९-३६० Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८] [प्रज्ञापनासूत्र [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है। कृष्णलेश्या इससे भी अनिष्टतर है, अधिक अकान्त (असुन्दर), अधिक अप्रिय, अधिक अमनोज्ञ और अधिक अमनाम (अत्यधिक अवांछनीय) वर्ण वाली कही. गई है। १२२७. णीललेस्सा णं भंते ! केरिसिया वण्णेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! से जहाणामए भिंगे इ वा भिंगपत्ते इ वा चासे इ वा चासपिच्छे इ वा सुए इ वा सुयपिच्छे इ वा सामा इ वा वणराई इ वा उच्चंतए इ वा पारेवयगीवा इ वा मोरगीवा इ वा हलधरवसणे इ वा अयसिकुसुमए इ वा बाणकुसुमए इ वा अंजणकेसियाकुसुमए इ वा णीलुप्पले इ वा नीलासोए इ वा णीलकणवीरए इ वा णीलबंधुजीवए इ वा । भवेतारूवा? गोयमा ! णो इणढे, एत्तो जाव अमणामतरिया चेव वण्णेणं पण्णत्ता ? [१२२७ प्र.] भगवन् ! नीललेश्या वर्ण से कैसी है ? [१२२७ उ.] गौतम ! जैसे कोई भंग (पक्षी) हो, भृगपत्र हो, अथवा पपीहा (चास पक्षी हो, या चासपक्षी की पांख हो, या शुक (तोता) हो, तोते की पांख हो, श्यामा (प्रियंगुलता) हो, अथवा वनराजि हो, या दन्तराग (उच्चन्तक) हो, या कबूतर की ग्रीवा हो, अथवा मोर की ग्रीवा हो, या हलधर (बलदेव) का (नील) वस्त्र हो, या अलसी का फूल हो, अथवा वण (बाण) वृक्ष का फूल हो, या अंजनकेसि का कुसुम हो, नीलकमल हो, अथवा नील अशोक हो, नीला कनेर हो, अथवा नीला बन्धुजीवक वृक्ष हो, (इनके समान नीललेश्या नीले वर्ण की है।) [प्र.] भगवन् ! क्या नीललेश्या (वस्तुतः) इस रूप की होती है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ (योग्य) नहीं है । नीललेश्या इससे भी अनिष्टतर, अधिक अकान्त, अधिक अप्रिय, अधिक अमनोज्ञ और अधिक अमनाम वर्ण से कही गई है। १२२८. काउलेस्सा णं भंते ! केरिसिया वण्णेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! से जहाणामए खयरसारे इ वा कयरसारे इ वा धमाससारे इ वा तंबे इ वा तंबकरोडए इ वा तंबच्छिवाडिया इ वा वाइंगणिकुसुमए इ वा कोइलच्छदकुसुमए इ वा < जवासाकुसुमे इ वा कलकुसुमे इ वा )। भवेतारूवा? गोयमा ! णो इणढे समढे, काउलेस्सा णं एत्तो अणिद्रुतरिया जाव अमणामतरिया चेव वण्णेणं <> इस चिन्ह के सूचित पाठ मलयगिरि वृत्ति में नहीं है । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : चतुर्थ उद्देशक] [३२९ पण्णत्ता । [१२२८ प्र.] भगवन् ! कापोतलेश्या वर्ण से कैसी है ? [१२२८ उ.] गौतम ! जैसे कोई खदिर (खैर-कत्था) के वृक्ष का सार भाग (मध्यवर्ती भाग) हो, खैर का सार हो, अथवा धमास वृक्ष का सार हो, ताम्बा हो, या ताम्बे का कटोरा हो, या ताम्बे की फली हो, या बैंगन का फूल हो, कोकिलच्छद (तैलकण्टक) वृक्ष का फूल हो, अथवा जवासा का फूल हो, अथवा कलकुसुम हो, (इनके समान वर्ण वाली कापोतलेश्या है।) [प्र.] भगवन् ! क्या कपोतलेश्या ठीक इसी रूप की है ? [उ.] यह अर्थ समर्थ नहीं है। कापोतलेश्या वर्ण से इससे भी अनिष्टतर यावतृ अमनाम (अत्यन्त . अवांछनीय) कही है। । १२२९. तेउलेस्सा णं भंते ! करिसिया वण्णेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! से जहाणामए ससरुहिरे इ वा उरभरुहिरे इ. वा वराहरुहिरे इ वा संबररुहिरे इ वा मणुस्सरुहिरे इ वा बालिंदगोवे इ वा बालदिवागरे इ वा संझब्भरागे इ वा गुंजद्धरागे इ वा जाइहिंगुलए इ वा पवालंकुरे इ वा लक्खारसे इ वा लोहियक्खमणी इ वा किमिरागकंबले इ वा गयतालुए इ वा चीणपिट्ठरासी इ वा पालियायकुसुमे इ वा जासुमणाकुसुमे इ वा किंसुयपुप्फरासी इ वा रत्तुप्पले इ वा रत्तासोगे इ वा रत्तकणवीरए इ वा रत्तबंधुजीवए इ वा ? भवेयारूवा ? गोयमा ! णो इणढे समढे, तेउलेस्सा णं एत्तो इट्ठतरिया चेव जाव मणामतरिया चेव वन्नेणं पण्णत्ता। [१२२९ प्र.] भगवन् ! तेजोलेश्या वर्ण से कैसी है ? [१२२९ उ.] गौतम ! जैसे कोई खरगोश का रक्त हो, मेष (मेंढे) का रूधिर हो, सूअर का रक्त हो, सांभर का रूधिर हो, मनुष्य का रक्त हो, या इन्द्रगोप (वीरबहूटी) नामक कीड़ा हो, अथवा बाल-इन्द्रगोप हो, या बाल-सूर्य (उगते समय का सूरज) हो, सन्ध्याकालीन लालिमा हो, गुंजा (चिरमी) के आधे भाग की लालिमा हो, उत्तम (जातिमान्) हींगलू हो, प्रवाल (मूंगे) का अंकुर हो, लाक्षारस हो, लोहिताक्षमणि हो, किरमिची रंग का कम्बल हो, हाथी का तालु (तलुआ) हो, चीन नामक रक्तद्रव्य के आटे की राशि हो, पारिजात का फूल हो, जपापुष्प हो, किंशुक (टेसू) के फूलों की राशि हो, लाल कमल हो, लाल अशोक हो, लाल कनेर हो, अथवा लालबन्धुजीवक हो, (ऐसे रक्त वर्ण की तेजोलेश्या होती है।) [प्र.] भगवन् ! क्या तेजोलेश्या इसी रूप की होती है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। तेजोलेश्या इन से भी इष्टतर, यावत् (अधिक कान्त, अधिक Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३०] [प्रज्ञापनासूत्र प्रिय, अधिक मनोज्ञ और) अधिक मनाम वर्ण वाली होती है। १२३०. पम्हलेस्सा णं भंते ! केरिसिया वण्णेणं पणात्ता ? गोयमा ! से जहाणामए चंपे इ वा चंपयछल्ली इ वा चंपयभेदे इ वा हलिहा इ वा हलिद्दगुलिया इ वा हलिहाभेए इ वा हरियाले इ वा हरियालगुलिया इ वा हरियालभेए इ वा चिउरे इ वा चिउररागे इ वा सुवण्णसिप्पी इ वा वरकणगणिहसे इ वा वरपुरिसवसणे इ वा अल्लइकुसुमे इ वा चंपयकुसुमे इ वा कणियारकुसुमे इ वा कुहंडियाकुसुमे इ वा. सुवण्णजूहिया इ वा सुहिरणियाकुसुमे इ वा कोरेंटमल्लपदामे इ वा पीयासोगे इ वा पीयकणवीरए इ वा पीयबंधुजीवए इ वा । भवेतारूवा? गोयमा ! णोक इणढे समढे, पम्हलेस्सा णं एत्तो इट्टतरिया चेव जाव मणामतरिया चेव वण्णेणं पण्णत्ता । [१२३० प्र.] भगवन् ! पद्मलेश्या वर्ण से कैसी है ? [१२३० उ.] जैसे कोई चम्पा हो, चम्पक की छाल हो, चम्पक का टुकड़ा हो, हल्दी हो, हल्दी की गुटिका (गोली) हो, हरताल हो, हरताल की गुटिका (गोली) हो, हरताल का टुकड़ा हो, चिकुर नामक पीत वस्तु हो, चिकुर का रंग हो, या स्वर्ण की शक्ति हो, उत्तम स्वर्ण-निकष (कसौटी पर खींची हुई स्वर्णरेखा) हो, श्रेष्ठ पुरुष (वासुदेव) का पीताम्बर हो, अल्लकी का फूल हो, चम्पा का फूल हो, कनेर का फूल हो, कूष्माण्ड (कोले) की लता का पुष्प हो, स्वर्णयूथिका (जूही) का फूल हो, सुहिरण्यिका-कुसुम हो, कोरंट के फूलों की माला हो, पीत अशोक हो, पीला कनेर हो, अथवा पीला बन्धुजीवक हो, (इनके समान पद्मलेश्या पीले वर्ण की कही गई है।) [प्र.] भगवन् ! क्या पद्मलेश्या (वास्तव में ही) ऐसे रूप वाली होती है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। पद्मलेश्या वर्ण में इनसे भी इष्टतर, यावत् अधिक मनाम (वांछनीय) होती है। १२३१. सुक्कलेस्सा णं भंते ! केरिसया वण्णेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! से जहाणामए अंके इ वा संखे इ वा चंदे इ वा कुंदे इ वा दगे इ वा दगरए इ वा दही इ वा दहिघणे इ वा खीरे इ वा खीरपूरे इ वा सुक्कछिवाडिया इ वा पेहुणमिंजिया इ वा धंतधोयरूप्पपट्टे इ वा सारइयबलाहए इ वा कुमुददले इ वा पोंडरियदले इ वा सालिपिट्ठरासी इ वा कुडगपुप्फरासी ति वा सिंदुवारवरमल्लदामे इ वा सेयासोए इ वा सेयकणवीरे इ वा सेयबंधुजीवए इ वा । भवेतारूया ? गोयमा ! णो इणटे समटे, सुक्कलेंस्सा णं एत्तो इद्रुतरिया चेव कंततरिया चेव पियतरिया चेव Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : चतुर्थ उद्देशक [३३१ मणुण्णतरिया चेव मणामतरिया चेव वण्णेणं पण्णत्ता । [१२३१ प्र.] भगवन् ! शुक्ललेश्या वर्ण से कैसी है ? [१२३१ उ.] गौतम ! जैसे कोई अंकरत्न हो, शंख हो, चन्द्रमा हो, कुन्द (पुष्प) हो, उदक (स्वच्छ जल) हो, जलकण हो, दही हो, जमा हुआ दही (दधिपिण्ड) हो, दूध हो, दूध का उफान हो, सूखी फली हो, मयूरपिच्छ की मिंजी हो, तपा कर धोया हुआ चांदी का पट्ट हो, शरद् ऋतु का बादल हो, मुकुद का पत्र हो, पुण्डरीक कमल का पत्र हो, चावलों (शालिधान्य) के आटे का पिण्ड (राशि) हो, कुटज के पुष्पों की राशि हो, सिन्धुवार के श्रेष्ठ फूलों की माला हो, श्वेत अशोक हो, श्वेत कनेर हो, अथवा श्वेत बन्धुजीवक हो, (इनके समान शुक्ललेश्या श्वेतवर्ण की कही है।) [प्र.] भगवन् ! क्या शुक्ललेश्या ठीक ऐसे ही रूप वाली है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। शुक्ललेश्या इनसे भी वर्ण में इष्टतर यावत् अधिक मनाम होती १२३२. एयाओ णं भंते ! छल्लेस्साओ कतिसु वण्णेसु साहिजति ? गोयमा ! पंचसु वण्णेसु साहिजति । तं जहा- कण्हलेसा कालएणं वण्णेणं साहिजति, णीललेस्सा णीलएणं वण्णेणं साहिज्जति, काउलेस्सा काललोहिएणं वण्णेणं साहिज्जति, तेउलेस्सा लोहिएणं वण्णेणं साहिज्जइ, पम्हलेस्सा हालिद्दएणं वण्णेणं साहिजइ, सुक्कलेस्सा सुक्किलएणं वण्णेणं साहिज्जइ । [१२३२ प्र.] भगवन् ! ये छहों लेश्याएँ कितने वर्णों द्वारा कही जाती है ? [१२३२ उ.] गौतम ! (ये) पांच वर्णों वाली है। वे इस प्रकार हैं - कृष्णलेश्या काले वर्ण द्वारा कही जाती है, नीललेश्या नीले वर्ण द्वारा कही जाती है, कापोतलेश्या काले और लाल वर्ण द्वारा कही जाती है, तेजोलेश्या लाल वर्ण द्वारा कही जाती है, पद्मलेश्या पीले वर्ण द्वारा कही जाती है और शुक्ललेश्या श्वेत (शुक्ल) वर्ण द्वारा कही जाती है। विवेचन - द्वितीय : वर्णाधिकार - प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. १२२६ से १२३२ तक) में पृथक्-पृथक् छहों लेश्याओं के वर्गों की विभिन्न वर्ण वाली वस्तुओं से उपमा देकर प्ररूपणा की गई है। कृष्णलेश्या के लिए अनिष्टतर आदि पांच विशेषण क्यों ? - कृष्णलेश्या वर्षारम्भकालीन काले कजरारे मेघ आदि उल्लिखित काली वस्तुओं से भी अधिक अनिष्ट होती है, यह बताने के लिए कृष्णलेश्या के लिए अनिष्टतर विशेषण का प्रयोग किया गया है। किन्तु कस्तूरी जैसी कोई-कोई वस्तु अनिष्ट (काली) होने पर भी कान्त (कमनीय) होती है, परन्तु कृष्णलेश्या ऐसी भी नहीं है। यह बताने हेतु कृष्णलेश्या के लिए अकान्ततर (अत्यन्त अकमनीय) विशेषण का प्रयोग किया गया है। कोई वस्तु अनिष्ट और अकान्त होने पर भी किसी को प्रिय होती है, किन्तु कृष्णलेश्या प्रिय भी नहीं होती, यह बताने हेतु कृष्णलेश्या के लिए अप्रियतर Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२] प्रज्ञापनासूत्र (अत्यन्त अप्रिय) विशेषण प्रयोग किया गया है। इसी कारण कृष्णलेश्या अमनोज्ञतर (अत्यन्त अमनोज्ञ) होती है। वास्तव में उसके स्वरूप का सम्यक् परिज्ञान होने पर मन उसे किंचित् भी उपादेय नहीं मानता। कड़वी औषध जैसी कोई वस्तु अमनोज्ञतर होने पर भी मध्यमस्वरूप होती है किन्तु कृष्णलेश्या सर्वथा अमनोज्ञ है; यह अभिव्यक्त करने के लिए उसके लिए 'अमनामतर' (सर्वथा अवांछनीय) विशेषण का प्रयोग किया गया है। इसी प्रकार नीललेश्या और कापोतलेश्या के लिए शास्त्रकार ने इन्हीं पांच विशेषणों का प्रयोग किया है। जबकि अन्त की तीन लेश्याओं के लिए इनसे ठीक विपरीत 'इष्टतर' आदि पांच विशेषणों का प्रयोग किया गया है। 'साहिज्जंति' पद का अर्थ - कही जाती है, प्ररूपित की जाती है। तृतीय रसाधिकार १२३३. कण्हलेस्सा णं भंते ! केरिसिया आसाएणं पण्णत्ता ? गोमा ! से हाणामए णिंबे इ वा लिंबसारे इ वा णिंबछल्ली इ वा णिंबफाणिए इ वा कुड इ वा कुडगफले इ वा कुडगछल्ली इ वा कुडगफाणिए इ वा कडुगतुंबी इ वा कडुगतुम्बीफले इवा खारतउसी इ वा खारतउसीफले इ वा देवदाली इ वा देवदालिपुप्फे इ वा मियवालुंकी इ वा मियवालुंकीफले इ वा घोसाडिए इ वा घोसाडइफले इ वा कण्हकंदए इ वा वज्जकंदए इ वा । भवेतरूवा ? गोमा ! णो ण समट्ठे, कण्हलेस्सा णं एत्तो अणिट्ठतरिया चेव जाव अमणामतरिया चेव अस्साएणं पण्णत्ता। [१२३३ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या आस्वाद (रस) से कैसी कही है ? [१२३३.उ.] गौतम ! जैसे कोई नीम हो, नीम का सार हो, नीम की छाल हो, नीम का क्वाथ (काढ़ा) हो, अथवा कुटज हो, या कुटज का फल हो, अथवा कुटज की छाल हो; या कुटज का क्वाथ (काढ़ा) हो, अथवा कड़वी तुम्बी हो, या कटुक तुम्बीफल (कड़वा तुम्बा) हो, कड़वी ककड़ी (त्रपुषी) हो, या कड़वी ककड़ी का फल हो अथवा देवदाली (रोहिणी) हो या देवदाली (रोहिणी) का पुष्प हो, या मृगवालुंकी हो अथवा मृगवालुंकी का फल हो, या कड़वी घोषातिकी हो, अथवा कड़वी घोषातिकी का फल हो, या कृष्णकन्द हो, अथवा वज्रकन्द हो; (इन वनस्पतियों के कटु रस के समान कृष्णलेश्या का रस (स्वाद) कहा गया है ।) १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३६२ २. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक ३६२ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : चतुर्थ उद्देशक) [३३३ [प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या रस से इसी रूप की होती है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। कृष्णलेश्या स्वाद में इन (उपर्युक्त वस्तुओं के रस) से भी अनिष्टतर, अधिक अकान्त, अधिक अप्रिय, अधिक अमनोज्ञ और अतिशय अमनाम है। १२३४. णीललेस्सा पुच्छा। गोयमा ! से जहाणामए भंगी ति वा भंगीरए इ वा पाढा इ वा चविता इ वा चित्तामूलए इ वा पिप्पलीमूलए इ वा पिप्पली इ वा पिप्पलिचुण्णे इ वा मिरिए इ वा मिरियचुण्णे इ वा सिंगबेरे इ वा सिंगबेरचुण्णे इ वा । भवेतारूवा? गोयमा ! णो इणढे समढे, णीललेस्सा णं एत्तो जाव अमणामतरिया चेव अस्साएणं पण्णत्ता। [१२३४ प्र.] भगवन् ! नीललेश्या आस्वाद में कैसी है ? [१२३४ उ.] गौतम ! जैसे कोई भुंगी (एक प्रकार की मादक वनस्पति) हो, अथवा भुंगी (वनस्पति) का कण (रज) हो, या पाठा (नामक वनस्पति) हो, या चविता हो अथवा चित्रमूलक (वनस्पति) हो, या पिप्पलीमूल (पीपरामूल) हो, या पीपल हो, अथवा पीपल का चूर्ण हो, (मिर्च हो, या मिर्च का चूरा हो, अंगबेर (अदरक) हो, या श्रृंगबेर (सूखी अदरक-सोंठ) का चूर्ण हो; (इन सबके रस के समान चरपरा (तिक्त) नीललेश्या का आस्वाद (रस) कहा गया है।) [प्र.] भगवन् ! क्या नीललेश्या रस से इसी रूप की होती है ? ___ [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। नीललेश्या रस (आस्वाद) में इससे भी अनिष्टतर, अधिक अकान्त, अधिक अप्रिय, अधिक अमनोज्ञ और अत्यधिक अमनाम (अवांछनीय) कही गयी है। १२३५. काउलेस्साए पुच्छा। गोयमा ! से जहाणामए अंबाण वा अंबाडगाण वा माउलुंगाण वा बिल्लाण वा कविट्ठाण वा भट्ठाण' वा फणसाण वा दालिमाण वा पारेवयाण वा अक्खोडाण वा पोराण वा बोराण वा तेंदुयाण वा अपक्काणं अपरियागाणं वण्णेणं अणुववेयाणं गंधेण अणुववेयाणं फासेणं अणुववेयाणं। भवेतारूवा? गोयमा ! णो इणढे समटे, जाव एत्तो अमणामतरिया चेव काउलेस्सा अस्साएणं पण्णत्ता। [१२३५ प्र.] भगवन् ! कापोतलेश्या आस्वाद में कैसी है ? १. पाठान्तर - 'भट्ठाण' के बदले श्रीजीवविजयकृत स्तबक में भच्चाण' पाठान्तर है, अर्थ किया गया है - भर्च वृक्ष के फल तथा श्री धनविमलगणिकृत स्तबक में 'भद्दाण' पाठान्तर है, जिसका अर्थ किया गया है - अपक्व जैसी द्राक्षा - सं. Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४] [प्रज्ञापनासूत्र [१२३५ उ.] गौतम ! जैसे कोई आमों का, आम्राटक के फलों का, बिजौरों का, बिल्वफलों (बेल के फलों) का, कवीटों का, भट्ठों का, पनसों (कटहलों) का, दाडिमों (अनारों) का, पारावत नामक फलों का, अखरोटों का, प्रौढ़- बड़े बेरों का, बेरों का तिन्दुकों के फलों का, जो कि अपक्व हों, पूरे पके हुए न हों, वर्ण से रहित हों, गन्ध से रहित हों और स्पर्श से रहित हों; (इनके आस्वाद- रस के समान कापोतलेश्या का रस (स्वाद) कहा गया है।) [प्र.] भगवन् ! क्या कापोतलेश्या रस से इसी प्रकार की होती है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। कापोतलेश्या स्वाद में इनमे भी अनिष्टतर यावत् अत्यधिक अमनाम कही है। १२३६. तेउलेस्सा णं पुच्छा ? गोयमा! से जहाणामए अंबाण वा जाव तेंदुयाण वा पक्काणं परियावण्णाणं वण्णेणं उववेताणं पसत्थेणं जाव फासेणं जाव एत्तो मणामतरिया चेव तेउलेस्सा अस्साएणं पण्णत्ता। [१२३६ प्र.] भगवन् ! तेजोलेश्या आस्वाद में कैसी है ? [१२३६ उ.] गौतम ! जैसे किन्हीं आम्रों के यावत् (आम्राटकों से लेकर) तिन्दुकों तक के फल जो कि परिपक्व हों, पूर्ण परिपक्व अवस्था को प्राप्त हों, परिपक्व अवस्था के प्रशस्त वर्ण से, गन्ध से और स्पर्श से युक्त हों, (इनका जैसा स्वाद होता है, वैसा ही तेजोलेश्या का है।) [प्र.] भगवन् ! क्या तेजोलेश्या इस आस्वाद की होती है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। तेजोलेश्या स्वाद में इनसे भी इष्टतर यावत् अधिक मनाम होती १२३७. पम्हलेस्साए पुच्छा? गोयमा ! से जहाणामए चंदप्पभा इ वा मणिसिलागा इ वा वरसीधू इ वा वरवारुणी ति वा पत्तासवे इ वा पुण्फासवे इ वा फसासवे इ वा चोयासवे इ वा आसवे इ वा मधू इ वा मेरए इ वा कविसाणए इ वा खज्जूरसारए इ वा मुद्दियासारए इ वा सपक्कखोयरसे इ वा अट्ठपिटुणिट्ठिया इ वा जंबूफलकालिया इवा वरसपण्णा इवा आसला मासला पेसला ईसी ओढावलंबिणी ईसिंवोच्छेयकडुई ईसी तंबच्छिकरणी उक्कोसमयपत्ता वण्णेणं जाव फासेणं आसायणिज्जा वीसायणिज्जा पीणणिज्जा विंहणिज्जा दीवणिज्जा दप्पणिज्जा मयणिज्जा सव्विंदिय-गायपल्हायणिज्जा । भवेतारूवा? गोयमा ! णो इणटे समढे, पम्हलेस्सा णं एत्तो इद्रुतरिया चेव जाव मणामतरिया चेव अस्साएणं पण्णत्ता? Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : चतुर्थ उद्देशक] [३३५ [१२३७ प्र.] भगवन् ! पद्मलेश्या का आस्वाद कैसा है ? [१२३७ उ.] गौतम ! जैसे कोई चन्द्रप्रभा नामक मदिरा, मणिशलाका मद्य, श्रेष्ठ सीधु नामक मद्य हो, उत्तम वारूणी (मदिरा) हो, (धातकी के) पत्तों से बनाया हुआ आसव हो, पुष्पों का आसव हो, फलों का आसव हो, चोय नाम के सुगन्धित द्रव्य से बना आसव हो, अथवा सामान्य आसव हो, मधु (मद्य) हो, मैरेयक या कापिशायन नामक मद्य हो, खजूर का सार हो, द्राक्षा (का) सार हो, सुपक्व इक्षुरस हो, अथवा (शास्त्रोक्त) अष्टविध पिष्टों द्वारा तैयार की हुए वस्तु हो, या जामुन के फल की तरह काली (स्वादिष्ट वस्तु) हो, या उत्तम प्रसन्ना नाम की मदिरा हो, (जो) अत्यन्त स्वादिष्ट हो, प्रचुर रस से युक्त हो, रमणीय हो, (अतएव आस्वादयुक्त होने से) झटपट ओठों से लगा ली जाए (अर्थात् जो मुखमाधुर्यकारिणी हो तथा) जो पीने के पश्चात् (इलायची, लौंग आदि द्रव्यों के मिश्रण के कारण) कुछ तीखी-सी हो, आंखों को ताम्रवर्ण की बना दे तथा उत्कृष्ट मादक (मदप्रापक) हो, जो प्रशस्त वर्ण, गन्ध और स्पर्श से युक्त हो, जो आस्वादन करने योग्य हो, विशेष रूप से आस्वादन करने योग्य हो, जो प्रीणनीय (तृप्तिकारक) हो, बृहणीय- वृद्धिकारक हो, उद्दीपन करने वाली, दर्पजनक, मदजनक तथा सभी इन्द्रियों और शरीर (गात्र) को आह्रादजनक हो, इनके रस के समान पद्मलेश्या का रस (आस्वाद) होता है ? [प्र.] भगवन् ! क्या पद्मलेश्या के रस का स्वरूप ऐसा ही होता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। पद्मलेश्या तो स्वाद (रस) में इससे भी इष्टतर यावत् अत्यधिक मनाम कही है। १२३८. सुक्कलेस्सा णं भंते ! केरिसिया अस्साएणं पण्णत्ता ? गोयमा ! से जहाणामए गुले इ वा खंडे इ वा सक्करा इ वा मच्छंडिया इ वा पप्पडमोदए इ वा भिसकंदे इ वा पुप्फुत्तरा इ वा पउमुत्तरा इ वा आयंसिया इ वा सिद्धत्थिया इ वा आगासफालिओवमा इ वा अणोवमाइ वा ? भवेतारूवा? गोयमा ! णो इणढे समढे, सुक्कलेस्सा णं एत्तो इट्टतरिया चेव कंततरिया चेव पियतरिया चेव मणामतरिया चेव अस्साएणं पण्णत्ता । [१२३८ प्र.] भगवन् ! शुक्ललेश्या स्वाद में कैसी है ? [१२३८ उ.] गौतम ! जैसे कोई गुड़ हो, खांड हो, या शक्कर हो, या मिश्री हो, (अथवा मत्स्यण्डी) (खांड से बनी शक्कर) हो, पर्पटमोदक (एक प्रकार का मोदक अथवा मिश्री का पापड़ और लड्डू) हो, भिस (विस) कन्द हो, पुष्पोत्तर नामक मिष्ठान्न हो, पद्मोत्तरा नाम की मिठाई हो, आदंशिका (सन्देश ?) नामक मिठाई हो, या सिद्धार्थिका नाम की मिठाई हो, आकाशस्फटिकोपमा नामक मिठाई हो, अथवा अनुपमा नामक मिष्ठान्न हो; (इनके स्वाद के समान शुक्ललेश्या का स्वाद (रस) है।) Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । प्रज्ञापनासूत्र ३३६] [प्र.] भगवन् ! क्या शुक्ललेश्या स्वाद में ऐसी होती है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। शुक्ललेश्या आस्वाद में इनसे भी इष्टतर, अधिक कान्त (कमनीय), अधिक प्रिय एवं अत्यधिक मनोज्ञ- मनाम कही गई है। विवेचन - तृतीय रसाधिकार - प्रस्तुत छह सूत्रों (सू. १२३३ से १२३८ तक) में छहों लेश्याओं के रसों का पृथक्-पृथक् विविध वस्तुओं के रसों की उपमा देकर निरूपणा किया गया है।' चतुर्थ गन्धाधिकार से नवम गति-अधिकार तक का निरूपण १२३९. कति णं भंते ! लेस्साओ दुब्भिगंधाओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! तओ लेस्साओ दुब्भिगंधाओ पण्णत्ताओ । तं जहा - किण्हलेस्सा णीललेस्सा काउलेस्सा। [१२३९ प्र.] भगवन् ! दुर्गन्ध वाली कितनी लेश्याएँ कही हैं ? [१२३९ उ.] गौतम ! तीन लेश्याएँ दुर्गन्ध वाली कही हैं, वे इस प्रकार - कृष्णलेश्या नीललेश्या और कापोतलेश्या। १२४०. कति णं भंते ! लेस्साओ सुब्भिगंधाओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! तओ लेस्साओ सुब्भिगंधाओ पण्णत्ताओ ।तं जहा- तेउलेस्सा पम्हलेस्सा सुक्कलेस्सा। [१२४० प्र.] भगवन् ! कितनी लेश्याएँ सुगन्ध वाली कही हैं ? [१२४० उ.] गौतम ! तीन लेश्याएँ सुगन्ध वाली कही हैं, वे इस प्रकार - तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या। १२४१. एवं तओ अविसुद्धाओ तओ विसुद्धाओ, तओ अप्पसत्थाओ तओ पसत्थाओ, तओ संकिलिट्ठाओ तओ असंकिलिट्ठाओ, तओ सीयलुक्खाओ तओ निधुण्हाओ, तओ दुग्गइंगामिणीओ तओ सुगइगामिणीओ। [१२४१] इसी प्रकार (पूर्ववत् क्रमशः) तीन (लेश्याएँ) अविशुद्ध और तीन विशुद्ध हैं, तीन अप्रशस्त हैं और तीन प्रशस्त हैं, तीन संक्लिष्ट हैं और तीन असंक्लिष्ट हैं, तीन शीत और रूक्ष (स्पर्श वाली) हैं, और तीन उष्ण और स्निग्ध (स्पर्श वाली) हैं, (तथैव) तीन दुर्गतिगामिनी (दुर्गति में ले जाने वाली) हैं और तीन सुगतिगामिनी (सुगति में ले जाने वाली) हैं। विवेचन - चौथे गन्धाधिकार से नौवें गति-अधिकार तक की प्ररूपणा - प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. १. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ३६५-३६६ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : चतुर्थ उद्देशक] [३३७ १२३९ से १२४१ तक) में तीन-तीन दुर्गन्धयुक्त-सुगन्धयुक्त लेश्याओं का, अविशुद्ध-विशुद्ध का, अप्रशस्तप्रशस्त का, संक्लिष्ट-असंक्लिष्ट का, शीत-रूक्ष, उष्ण-स्निग्ध स्पर्शयुक्त का, दुर्गतिगामिनी-सुगतिगामिनी का निरूपण किया गया है। ४. गन्धद्वार- प्रारम्भ की तीन लेश्याएँ मृतमहिष आदि के कलेवरां से भी अनन्तगुणी दुर्गन्ध वाली हैं तथा अन्त की तीन लेश्याएँ पीसे जाते हुए सुगन्धित वास एवं सुगन्धित पुष्पों से भी अनन्तगुणी उत्कृष्ट सुगन्ध वाली होती हैं। ५.अविशुद्ध-विशुद्धद्वार - प्रारम्भ की तीन लेश्याएँ अप्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाली होने से अविशुद्ध और अन्त की तीन लेश्याएँ प्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाली होने से विशुद्ध होती हैं। ६. अप्रशस्त-प्रशस्तद्वार - आदि की तीन लेश्याएँ अप्रशस्त होती हैं, क्योंकि वे अप्रशस्त द्रव्यरूप होने के कारण अप्रशस्त अध्यवसाय की तथा अन्त की तीन लेश्याएँ प्रशस्त होती हैं, क्योंकि वे प्रशस्त द्रव्यरूप होने से प्रशस्त अध्यवसाय की निमित्त होती हैं। ७.संक्लिष्टाऽसंक्लिष्टद्वार - प्रथम की तीन लेश्याएँ संक्लिष्ट होती हैं, क्योंकि वे संक्लेशमय आर्त्तध्यानरौद्रध्यान के योग्य अध्यवसाय को उत्पन्न करती तथा अन्तिम तीन लेश्याएँ असंक्लिष्ट हैं, क्योंकि वे धर्मध्यान के योग्य अध्यवसाय को उत्पन्न करती हैं। ८. स्पर्श-प्ररूपणाधिकार - प्रारम्भ की तीन लेश्याएँ शीत और रूक्ष स्पर्श वाली हैं, इनके शीत और रूक्ष स्पर्श चित्त में अस्वस्थता उत्पन्न करने के निमित्त हैं, जबकि अन्त की तीन लेश्याएँ उष्ण और स्निग्ध स्पर्श वाली हैं । यद्यपि लेश्याद्रव्यों के कर्कश आदि स्पर्श आगे कहे गए हैं, परन्तु यहाँ उन्हीं स्पर्शों का कथन किया गया है, जो चित्त में अस्वस्थता-स्वस्थता पैदा करने में निमित बनते हैं। ९. दुर्गति-सुगतिद्वार - प्रारम्भ की तीन लेश्याएँ संक्लिष्ट अध्यवसाय की कारण होने से दुर्गति में ले जाने वाली हैं, जबकि अन्तिम तीन प्रशस्त अध्यवसाय की कारण होने से सुगति में ले जाने वाली हैं। दशम परिणामाधिकार १२४२. कण्हलेस्सा णं भंते ! कतिविधं परिणामं परिणमति ? गोयमा ! तिविहं वा नवविहं वा सत्तावीसतिविहं वा एक्कासीतिविहं वा बेतेयालसतविहं वा बहुं १. तुलना - जह गोमडस्स गंधो नागमडस्स व जहा अहिमडस्स । एत्तो उ अणंतगुणो लेस्साणं अपसत्थाणं ॥१॥ जहा सुरभिकुसुमगंधो गंधवासाण पिस्समाणाण । एत्तो उ अणंतगुणो पसत्थलेस्साण तिण्हं पि ॥२॥ २. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३६७ - उत्तराध्ययन Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८] [प्रज्ञापनासूत्र वा बहुविहं वा परिणामं परिणमति। एवं जाव सुक्कलेस्सा। [१२४२ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या कितने प्रकार के परिणाम में परिणत होती हैं ? [१२४२ उ.] गौतम ! कृष्णलेश्या तीन प्रकार के, नौ प्रकार के, सत्ताईस प्रकार के, इक्यासी प्रकार के या दो सौ तेतालीस प्रकार के अथवा बहुत-से या बहुत प्रकार के परिणाम में परिणत होती है। कृष्णलेश्या के परिणामों के कथन की तरह नीललेश्या से लेकर शुक्ललेश्या तक के परिणामों का भी कथन करना चाहिए। विवेचन - दसवाँ परिणामाधिकार - प्रस्तुत सूत्र में कृष्णादि छहों लेश्याओं के विभिन्न प्रकार के परिणामों से परिणत होने की प्ररूपणा की गई है। परिणामों के प्रकार - (१)तीन - जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट परिणाम । (२) नौ - इन तीनों में से प्रत्येक के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद करने से नौ प्रकार का परिणाम होता है।(३) सत्ताईस- इन्हीं नौ में प्रत्येक के पुनः तीन-तीन भेद करने पर २७ भेद हो जाते हैं। (४) इक्यासी - इन्हीं २७ भेदों के फिर वे ही जघन्य-मध्यम-उत्कृष्ट भेद करने पर इक्यासी प्रकार हो जाते हैं। (५) दो सौ तेतालीस भेद- उनके पुनः तीन-तीन भेद करने पर २४३ भेद होते हैं । इस प्रकार उत्तरोत्तर भेद-प्रभेद किये जाएँ तो बहुत और बहुत प्रकार के परिणमन कृष्णलेश्या के होते हैं। ऐसे ही परिणामें के प्रकार शुक्ललेश्या तक समझ लेने चाहिए।' ग्यारहवें प्रदेशाधिकार से चौदहवें स्थानाधिकार तक की प्ररूपणा १२४३. कण्हलेस्सा णं भंते ! कतिपदेसिया पण्णत्ता ? गोयमा ! अणंतपदेसिया पण्णत्ता । एवं जाव सुक्कलेस्सा। [१२४३ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या कितने प्रदेश वाली कही है ? [१२४३ उ.] गौतम ! (कृष्णलेश्या) अनन्तप्रदेशों वाली है (क्योंकि कृष्णलेश्यायोग्य परमाणु अनन्तानन्त संख्या वाले हैं)। इसी प्रकार (नीललेश्या से) यावत् शुक्ललेश्या तक (प्रदेशों का कथन करना चाहिए।) १२४४. कण्हलेस्सा णं भंते ! कइपएसोगाढा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेजपएसोगाढा पण्णत्ता । एवं जाव सुक्कलेस्सा। [१२४४ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या आकाश के कितने प्रदेशों में अवगाढ़ हैं ? [१२४४ उ.] गौतम ! (कृष्णलेश्या) असंख्यात आकाश प्रदेशों में अवगाढ़ है। इसी प्रकार शुक्ललेश्या तक असंख्यात प्रदेशावगाढ़ समझनी चाहिए। १२४५. कण्हलेस्साए णं भंते ! केवतियाओ वग्गणाओ पण्णत्ताओ? १. प्रज्ञापनाात्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३६८ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : चतुर्थ उद्देशक [३३९ गोयमा ! अणंताओ वग्गणाओ पण्णत्ताओ। एवं जाव सुक्कलेस्साए। [१२४५ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या की कितनी वर्गणाएँ कही गई हैं ? [१२४५ उ.] गौतम ! (उनकी) अनन्त वर्गणाएँ कही गई हैं। इसी प्रकार यावत् शुक्ललेश्या तक की (वर्गणाओं का कथन करना चाहिए।) १२४६. केवतिया णं भंते ! कण्हलेस्साठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा कण्हलेस्साठाणा पण्णत्ता। एवं जाव सुक्कलेस्साए । [१२४६ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या के स्थान (तर-तमरूप भेद) कितने कहे गये हैं? .. [१२४६ उ.] गौतम ! कृष्णलेश्या के असंख्यात स्थान कहे गए हैं। इसी प्रकार शुक्ललेश्या तक (के स्थानों की प्ररूपणा करनी चाहिए।) विवेचन - ग्यारहवें प्रदेशाधिकार से चौदहवें स्थानाधिकार तक की प्ररूपणा - प्रस्तुत चार सूत्रों में प्रदेश, प्रदेशावगाढ़, वर्गणा और स्थान की प्ररूपणा की गई है। 'कृष्णादि लेश्याएँ अनन्तप्रादेशिकी - कृष्णादि छहों लेश्याओं में से प्रत्येक के योग्य परमाणु अनन्त-अनन्त होने से उन्हें अनन्तप्रादेशिकी कहा है। कृष्णादि लेश्याएँ असंख्यात प्रदेशावगाढ़ - यहाँ प्रदेश का अर्थ आकाश प्रदेश है, क्योंकि अवगाहन आकाश के प्रदेशों में ही होता है। यद्यपि एक-एक लेश्या की वर्गणाएँ अनन्त-अनन्त है, तथापि उन सबका अवगाहन असंख्यात आकाश प्रदेशों में ही हो जाता है, क्योंकि सम्पूर्ण लोकाकाश के असंख्यात ही प्रदेश हैं। कृष्णादिलेश्याएँ अनन्त वर्गणायुक्त - औदारिक शरीर आदि के योग्य परमाणुओं के समूह के समान कृष्णलेश्या के योग्य परमाणुओं के समूह को कृष्णलेश्या की वर्गणा कहा गया है। ये वर्गणाएँ वर्णादि के भेद से अनन्त होती हैं। कृष्णादिलेश्याओं के असंख्यात स्थान - लेश्यास्थान कहते हैं- प्रकर्ष-अपकर्षकृत अर्थात् अविशुद्धि और विशुद्धि की तरतमता से होने वाले भेदों को। जब भावरूप कृष्णादि लेश्याओं का चिन्तन किया जाता है, तब एक-एक लेश्या के प्रकर्ष-अपकर्ष कृत स्वरूपभेदरूप स्थान, काल की अपेक्षा से असंख्यात उत्सर्पिणीअवसर्पिणी कालों के समयों के बराबर हैं । क्षेत्र की अपेक्षा से- असंख्यात लोकाकाश प्रदेशों के बराबर स्थान अर्थात्- विकल्प हैं। कहा भी हैं- असंख्यात उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों के जितने समय होते हैं, अथवा असंख्यात लोकों के जितने प्रदेश हों, उतने ही लेश्याओं के स्थान (विकल्प) हैं। किन्तु विशेषता यह है कि कृष्णादि तीन अशुभ भावलेश्याओं के स्थान संक्लेशरुप होते हैं और तेजोलेश्यादि तीन शुभ भावलेश्याओं के स्थान विशुद्ध होते हैं। १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३६८ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० ] [ प्रज्ञापनासूत्र इन भावलेश्याओं के कारणभूत द्रव्यसमूह भी स्थान कहलाते हैं । यहाँ उन्हीं को ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि इस उद्देशक में कृष्णादिलेश्याद्रव्यों का ही प्ररूपण किया गया है। वे स्थान प्रत्येक लेश्या के असंख्यात होते हैं। तथाविध एक ही परिणाम के कारणभूत अनन्त द्रव्य भी एक ही प्रकार के अध्यवसाय के हेतु होने से स्थूल रूप से एक ही कहलाते हैं। उनमें से प्रत्येक के दो भेद हैं- जघन्य और उत्कृष्ट । जो जघन्य लेश्यास्थानरूप परिणाम के कारण हों, वे जघन्य और उत्कृष्ट लेश्यास्थानरूप परिणाम के कारण हों, वे उत्कृष्ट कहलाते हैं । जो जघन्य स्थानों के समीपवर्ती मध्यम स्थान हैं, उनका समावेश जघन्य में और उत्कृष्टस्थानों के निकटवर्ती हैं, उनका अन्तर्भाव उत्कृष्ट में हो जाता है। ये एक-एक स्थान, अपने एक ही मूल स्थान के अन्तर्गत होते हुए भी परिणाम-गुण-भेद के तारतम्य से असंख्यात हैं। आत्मा में जघन्य एक गुण अधिक, दो गुण अधिक लेश्याद्रव्यरूप उपाधि के कारण असंख्य लेश्या - परिणामविशेष होते हैं । व्यवहारदृष्टि से वे सभी अल्पगुण वाले होने से जघन्य कहलाते हैं। उनके कारणभूत द्रव्यों के स्थान भी जघन्य कहलाते हैं। इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थान भी असंख्यात समझ लेने चाहिए ।" पन्द्रहवाँ : अल्पबहुत्वाधिकार १२४७. एतेसि णं भंते ! कण्हलेस्साठाणाणं जाव सुक्कलेस्साठाणाण य जहण्णगाणं दव्वट्टयाए पएसट्टयाए दव्वट्ठपएसट्टयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा ४ ? गोयमा ! सव्वत्थोवा जहण्णगा काउलेस्साठाणा दव्वट्टयाए, जहण्णगा णीललेस्साठाणा दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा, जहण्णगा कण्हलेस्साठाणा दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा, जहण्णगा तेउलेस्सठाणा दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा, जहण्णगा पम्हलेस्साठाणा दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा, जहण्णगा सुक्कलेस्साठाणा दव्वट्टयाए असंखेजगुणा । पदेसट्टयाए- सव्वत्थोवा जहण्णगा काउलेस्साठाणा पएसट्टयाए, जहण्णगा णीललेस्सठाणा पएसट्टयाए असंखेज्जगुणा, जहण्णगा कण्हलेस्साठाणा पएसट्टयाए असंखेज्जगुणा, जहण्णगा तेउलेस्सठाणा पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा, जहण्णगा पम्हलेस्सठाणा पएसट्टयाए असंखेज्जगुणा, जहण्णगा सुक्कलेस्साठाणा पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा; दव्वट्ठपदेसट्टयाए- सव्वत्थोवा जहण्णगा काउलेस्सठाणा दव्वट्टयाए, जहण्णगा णीललेस्सट्ठाणा दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा, एवं कण्हलेस्सद्वाणा तेउलेस्सद्वाणा पम्हलेस्सट्ठाणा, जहण्णगा सुक्कलेस्सट्ठाणा दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा, जहण्णएहिंतो सुक्कलेस्सठ्ठाणेहिंतो दव्वठ्ठयाए जहणणगा काउलेस्सट्टाणा पदेसट्टयाए अनंतगुणा, जहण्णगा णीललेस्सद्वाणा परसट्टयाए असंखेज्जगुणा, एवं जाव सुक्कलेस्सट्ठाणा । [१२४७ प्र.] भगवन् ! इन कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या के जघन्य स्थानों में से द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से और द्रव्य तथा प्रदेशों की अपेक्षा से कौन, किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? १. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक ३६९ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : चतुर्थ उद्देशक [३४१ ___ [१२४७ उ.] गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से, सबसे थोड़े जघन्य कापोतलेश्यास्थान हैं, उनसे नीललेश्या के जघन्य स्थान द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, उनसे कृष्णलेश्या के जघन्य स्थान द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, उनसे तेजोलेश्या के जघन्य स्थान द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, उनसे पद्मलेश्या के जघन्य स्थान द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, उनसे शुक्ललेश्या के जघन्यस्थान द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं। प्रदेशों की अपेक्षा से - सबसे थोड़े कापोतलेश्या के जघन्य स्थान हैं, उनसे नीललेश्या के जघन्य स्थान प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, उनसे कृष्णलेश्या के जघन्य स्थान प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) तेजोलेश्या के जघन्य स्थान प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, उनसे पद्मलेश्या के जघन्य स्थान प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणें हैं, उनसे शुक्ललेश्या के जघन्य स्थान प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं। द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से - सबसे कम कापोतलेश्या के जघन्य स्थान द्रव्य की अपेक्षा से हैं, उनसे नीललेश्या के जघन्य स्थान द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, उनसे जघन्य कृष्णलेश्यास्थान, तेजोलेश्यास्थान, पद्मलेश्या तथा इसी प्रकार शुक्ललेश्यास्थान द्रव्य की अपेक्षा से (क्रमश:) असंख्यातगुणे हैं। द्रव्य की अपेक्षा से शुक्ललेश्या के जघन्य स्थानों से, कापोतश्लेश्या के जघन्य स्थान प्रदेशों की अपेक्षा से अनन्तगुणे हैं, उनसे नीललेश्या के जघन्य स्थान प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, इसी प्रकार कृष्णलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या एवं शुक्ललेश्या के जघन्य स्थान प्रदेशों की अपेक्षा से उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे हैं। १२४८. एतेसि णं भंते ! कण्हलेस्सट्ठाणाणं जाव सुक्कलेस्सट्ठाणाण य उक्कोसगाणं दव्वट्ठयाए पएसट्ठयाए दव्वट्ठपएसट्टयाए कतरे कतरेहितो अप्पा वा ४? गोयमा ! सव्वत्थोवा उक्कोसगा काउलेस्सटाणा दव्वट्ठयाए, उक्कोसगाणीललेस्सट्ठाणा दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा, एवं जहेव जहण्णगा तहेव उक्कोसगा वि, णवरं उक्कोस त्ति अभिलावो। . [१२४८ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या के उत्कृष्ट स्थानों (से लेकर) यावत् शुक्ललेश्या के उत्कृष्ट स्थानों में द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से तथा द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से कौन, किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [१२४८ उ.] गौतम ! सबसे थोड़े कापोतलेश्या के उत्कृष्ट स्थान द्रव्य की अपेक्षा से हैं। (उनसे) नीललेश्या के उत्कृष्ट स्थान द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार जघन्यस्थानों के अल्पबहुत्व की तरह उत्कृष्ट स्थानों का भी अल्पबहुत समझ लेना चाहिए। विशेषता यह है कि 'जघन्य' शब्द के स्थान में (यहाँ) 'उत्कृष्ट' शब्द कहना चाहिए । १२४९. एतेसिणं भंते ! कण्हलेस्सट्ठाणाणं जावसुक्कलेस्सट्ठाणाण य जहण्णुक्कोसगाणं दव्वट्ठयाए पएसट्ठयाए दव्वट्ठपएसट्ठयाए कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा ४ ? Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२] [प्रज्ञापनासूत्र गोयमा ! सव्वत्थोवा जहण्णगा काउलेस्सट्ठाणा दव्वट्ठयाए, जहण्णया णीललेस्सट्ठाणा दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा, एवं कण्हलेस्सट्ठाणा तेउलेस्सट्ठाणा पम्हलेस्सट्ठाणा, जहण्णगा सुक्कलेसटाणा दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा। जहण्णएहिंतो सुक्कलेस्सहाणेहिंतो दव्वट्ठयाए उक्कोसा काउलेस्सट्ठाणा दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा, उक्कोसा नीललेसट्ठाणा दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा, एवं कण्हलेस्सट्ठाणा तेउलेसट्ठाणा पम्हलेसट्ठाणा, उक्कोसा सुक्कलेस्सट्ठाणा दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा। पदेसट्ठयाए - सव्वत्थोवा जहण्णगा काउलेस्सट्टाणा पएसट्ठयाए, जहण्णगाणीललेसट्टयाए पएसट्टयाए असंखेजगुणा, एवं जहवे दव्वट्ठयाए तहेव पएसट्ठयाए वि भाणियव्वं, णवरं पएसट्टयाए त्ति अभिलावविसेसो। दव्वटुपएसट्टयाए- सव्वत्थोवा जहण्णगा काउलेस्सट्ठाणा दव्वट्ठया, जहण्णगा णीललेसट्ठाणा दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा, एवं कण्हलेसट्टाणा तेउलेसट्ठाणा पम्हलेसट्टाणा, जहण्णया सुक्कलेसट्ठाणा दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा। जहण्णएहिंतो सुक्कलेसट्ठाणेहिंतो दव्वट्ठयाए उक्कोसा काउलेसट्ठाणा दव्वयाए असंखेजगुणा, उक्कोसा णीललेसटाणाए दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा, एवं कण्हलेसटाणा तेउलेसट्ठाणा पम्हलेसट्टाणा, उक्कोसागा सुक्कलेसट्ठाणा दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा। उक्कोसएहितो सुक्कलेसट्ठाणेहिंतो दव्वट्ठयाए जहण्णगा काउलेसट्ठाणा पदेसट्ठयाए अणंतगुणा, जहण्णगा णीललेसट्ठाणा पएसट्ठयाए असंखेज्जगुणा, एवं कण्हलेस्ट्ठाणा तेउलेसट्ठाणा पम्हलेसट्ठाणा, जहण्णगा सुक्कलेसट्ठाणा असंखेज्जगुणा, जहण्णएहिंतो सुक्कलेसट्ठाणेहिंतो पदेसट्ठयाए उक्कोसा काउलेसट्टाणा पदेसट्ठयाए असंखेजजगुणा, उक्कोसया णीललेसट्ठाणा पदेसट्ठयाए असंखेजगुणा, एवं कण्हलेसट्ठाणा तेउलेसट्ठाणा पम्हलेसट्ठाणा, उक्कोसया सुक्कलेसट्ठाणा पएसट्टयाए असंखेजगुणा । ॥पण्णवणाए भगवतीए लेस्सापदे चउत्थो उद्देसओ समत्तो ॥ [१२४९ प्र.] भगवन् ! इस कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या के जघन्य स्थानों में द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से तथा द्रव्य और प्रदेशों (उभय) की अपेक्षा से कौन, किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं? __ [१२४९ उ.] गौतम ! सबसे थोड़े द्रव्य की अपेक्षा से कापोतलेश्या के जघन्य स्थान हैं, उनसे नीललेश्या के जघन्य स्थान द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, इसी प्रकार कृष्णलेश्या तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्लेश्या के जघन्य स्थान द्रव्य की अपेक्षा से (उत्तरोत्तर) असंख्यातगुणे हैं। द्रव्य की अपेक्षा से जघन्य शुक्ललेश्यास्थानों से उत्कृष्ट कापोतलेश्यास्थान असंखतगुणे हैं, उनसे नीललेश्या के उत्कृष्ट स्थान द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, इसी प्रकार कृष्णलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या के उत्कृष्ट स्थान (उत्तरोत्तर) द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं। प्रदेशों की अपेक्षा से सबसे कम कापोतलेश्या के जघन्य स्थान हैं, उनसे नीललेश्या के जघन्य स्थान, प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, इसी प्रकार जैसे द्रव्य की अपेक्षा से अल्पबहुत्व का कथन किया गया है, वैसे ही प्रदेशों की अपेक्षा से भी अल्पबहुत्व कहना चाहिए। विशेषता यह है कि यहाँ प्रदेशों की अपेक्ष से' Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : चतुर्थ उद्देशक ] [३४३ ऐसा कथन करना चाहिए। द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से सबसे थोड़े कापोतलेश्या के जघन्य स्थान द्रव्य की अपेक्षा से हैं, उनसे नीललेश्या के जघन्य स्थान द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, इसी प्रकार कृष्णलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या के जघन्य स्थान द्रव्य की अपेक्षा से (उत्तरोत्तर) असंख्यातगुणे हैं, द्रव्य की अपेक्षा से जघन्य शुक्ललेश्या स्थानों से उत्कृष्ट कापोतलेश्या स्थान असंख्यातगुणे हैं, उनसे नीललेश्या के उत्कृष्ट स्थान द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, इसी प्रकार कृष्णलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या एवं शुक्ललेश्या के उत्कृष्ट स्थान द्रव्य की अपेक्षा से (उत्तरोत्तर) असंख्यातगुणे हैं । द्रव्य की अपेक्षा से उत्कृष्ट शुक्लेश्यास्थानों से जघन्य कापोतलेश्यास्थान प्रदेशों की अपेक्षा से अनन्तगुणे हैं, उनसे जघन्य शुक्ललेश्या स्थान प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, इसी प्रकार कृष्णलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या एवं शुक्ललेश्या के जघन्यस्थान प्रदेशों की अपेक्षा से (उत्तरोत्तर) असंख्यातगुणे हैं। प्रदेश की अपेक्षा से जघन्य शुक्ललेश्यास्थानों से, उत्कृष्ट कापोतलेश्यास्थाना प्रदेशों से असंख्यातगुणे हैं, उनसे उत्कृष्ट नीललेश्यास्थान प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यात हैं, इसी प्रकार कृष्णलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या एवं शुक्ललेश्या के उत्कृष्टस्थान प्रदेशों की अपेक्षा से (उत्तरोत्तर) असंख्यातगुणे हैं । विवेचन - पन्द्रहवाँ अल्पबहुत्वाधिकार - प्रस्तुत तीन सूत्रों में छहों लेश्याओं के जघन्य और उत्कृष्ट स्थानों का द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से और द्रव्य-प्रदेशों की अपेक्षा से अल्पबहुत्व का प्रतिपादन किया गया है। निष्कर्ष - जगन्य और उत्कृष्ट स्थानों में द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से तथा द्रव्य एवं प्रदेशों की अपेक्षा से सबसे कम कापोतलेश्या के स्थान हैं, उससे नील, कृष्ण, तेजो, पद्म एवं शुक्ललेश्या के स्थान उत्तरोत्तर प्रायः असंख्यातगुणे हैं, क्वचित् प्रदेशों की अपेक्षा शुक्ललेश्यास्थानों से कापोतलेश्यास्थान अनन्तगुणे कहे गए हैं । ॥ सत्तरहवाँ लेश्यापद : चतुर्थ उद्देशक समाप्त ॥ १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३७० Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरसमं लेस्सापयं : पंचमो उद्देसओ सत्तरहवाँ लेश्यापद : पंचम उद्देशक लेश्याओं के छह प्रकार १२५०. कति णं भंते लेस्साओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! छल्लेसाओ पण्णत्ताओ । तं जहा - कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा । [१२५० प्र.] भगवन् ! लेश्याएँ कितनी हैं ? [१२५० उ.] गौतम ! लेश्याएँ छह हैं - कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या । लेश्याओं के परिणामभाव की प्ररूपणा १२५१. से णूणं भंते ! कण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प तारूवत्ताए तावण्णत्ताए तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमति ? तो आढत्तं जहा उत्थुद्देसए तहा भाणियव्वं जाव वेरुलियमणिदिट्टंतो त्ति । [१२५१ प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त होकर उसी के स्वरूप में, उसी के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के रूप में पुनः पुनः परिणत हो जाती है ? [ १२५१ उ.] यहाँ से प्रारम्भ करके यावत् वैडूर्यमणि के दृष्टान्त तक जैसे चतुर्थ उद्देशक में कहा है, वैसे कहना चाहिए । १२५२. से णूणं भंते ! कण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए णो तावण्णत्ताए णो तागंधत्ताए णो तारसत्ताए णो ताफासत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमति ? हंता गोयमा ! कण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए णो तावण्णत्ताए णो तागंधत्ताए णो तारसत्ताए णो ताफासत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमति । सेकेणट्ठे भंते! एवं वुच्चति ? गोयमा ! आगारभावमाताए वा से सिया पलिभागभावमाताए वा से सिया कण्हलेस्सा णं सा, खलु ाणीललेस्सा, तत्थ गता उस्सक्कति से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चति कण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प णो तारूवत्ता जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति ? [१२५२ प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त होकर नीललेश्या के स्वभावरूप में तथा उसी के वर्णरूप में, गन्धरूप में, रसरूप में एवं स्पर्शरूप में बार-बार परिणत नहीं होती है ? Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : पंचम उद्देशक] [३४५ [१२५२ उ.] हाँ, गौतम ! कृष्णलेश्या को प्राप्त होकर न तो उनके स्वभावरूप में, न उसके वर्णरूप में, न उसके गन्धरूप में, न उसके रसरूप में और न उसके स्पर्शरूप में बार-बार परिणत होती है। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त होकर, न तो उसके स्वरूप में यावत् (न उसके वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शरूप में) बार-बार परिणत होती हैं ? [उ.] गौतम ! वह (कृष्णलेश्या) आकार भावमात्र से हो, अथवा प्रतिभाग भावमात्र (प्रतिविम्बमात्र) से (नीललेश्या) होती है। (वास्तव में) यह कृष्णलेश्या ही (रहती) है, वह नीललेश्या नहीं हो जाती। वह (कृष्णलेश्या) वहाँ रही हुई उत्कर्ष को प्राप्त होती है, इसी हेतु से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त होकर न तो उसके स्वरूप में, यावत् (न ही उसके वर्ण-गंध-रस स्पर्शरूप में) बार बार परिणत होती हैं। १२५३. से णूणं भंते !णीललेस्सा काउलेस्सं पप्पणो तारूवत्ताए जाव भुजो भुज्जो परिणमति? हंता गोयमा ! णीललेस्सा काउलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुजो भुजो परिणमति। से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ णीललेस्सा काउलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुजो भुजो परिणमति ? गोयमा ! आगारभावमाताए वा से सिया पलिभागभावमाताए वा सिया णीललेस्सा णं सा, णो खलु सा काउलेस्सा, तत्थ गता उस्सक्वति वा ओसक्कति वा, सेएणतुणं गोयमा ! एवं वुच्चइ णीललेस्सा काउलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुजो भुजो परिणमति । ___ [१२५३ प्र.] भगवन् ! क्या नीललेश्या, कापोतलेश्या को प्राप्त होकर न तो उसके स्वरूप में यावत् (न ही उसके वर्ण-गंध-रस-स्पर्शरूप में) बार बार परिणत होती है ? [१२५३ उ.] हाँ, गौतम ! नीललेश्या कापोतलेश्या को प्राप्त होकर न उसके स्वरूप में यावत् (न ही उसके वर्ण-गंध-रस-स्पर्शरूप में) बार बार परिणत होती है। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि नीललेश्या, कापोतलेश्या को प्राप्त होकर न उसके स्वरूप में, यावत् पुनः पुनः परिणत होती हैं ? [उ.] गौतम ! वह (नीललेश्या) आकारभावमात्र से ही, अथवा प्रतिविम्बमात्र से (कापोतलेश्या) होती है, (वास्तव में) वह नीललेश्या ही (रहती) है; वास्तव में वह कापोतलेश्या नहीं हो जाती। वहाँ रही हुई (वह नीललेश्या) घटती-बढ़ती है। इसी कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि नीललेश्या कापोतलेश्या को प्राप्त होकर न तो तद्रूप में यावत् (न ही उसके वर्ण-गंध-रस-स्पर्शरूप में) बार बार परिणत होती है। १२५४. एवं काउलेस्सा तेउलेस्सं पप्प, तेउलेस्सा पम्हलेस्सं पप्प, पम्हलेस्सा सुक्कलेस्सं पप्प । ' [१२५४] इसी प्रकार कापोतलेश्या तेजोलेश्या को प्राप्त होकर, तेजोलेश्या पद्मलेश्या को प्राप्त होकर और पद्मलेश्या शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर (उसी के स्वरूप में, अर्थात्- वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शरूप में परिणत नहीं होती, ऐसा पूर्वयूक्तिपूर्वक समझना चाहिए ।) Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६] [प्रज्ञापनासूत्र १२५५. से णूणं भंते ! सुक्कलेस्सा पम्हलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव परिणमति ? हंता गोयमा ! सुक्कलेस्सा तं चेव । से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ सुक्कलेस्सा जाव णो परिणमति ? गोयमा ! आगारभावमाताए वा जाव सुक्कलेस्सा णं सा, णो खलु सा पम्हलेस्सा, तत्थ गता ओसक्वति, सेएणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ जाव णो परिणमति । ॥लेस्सापदे पंचमो उद्देसओ समत्तो ॥ [१२५५ प्र.] भगवन् ! क्या शुक्ललेश्या, पद्मलेश्या को प्राप्त होकर उसके स्वरूप में यावत् (उसके वर्ण-गंध-रस-स्पर्शरूप में पुनः पुनः) परिणत नहीं होती ? _[१२५५] हाँ गौतम ! शुक्ललेश्या पद्मलेश्या को पा कर उसके स्वरूप में परिणत नहीं होती, इत्यादि सब वही (पूर्ववत् कहना चाहिए।) [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि शुक्ललेश्या (पद्मलेश्या को प्राप्त होकर) यावत् (उसके स्वरूप में तथा उसके वर्ण-गन्ध-रस स्पर्शरूप में) परिणत नहीं होती? [उ.] गौतम ! आकारभावमात्र से अथवा प्रतिविम्बमात्र से यावत् (वह शुक्ललेश्या पद्मलेश्या-सी प्रतीत होती है), वह (वास्तव में) शुक्ललेश्या ही है, निश्चय ही वह पद्मलेश्या नहीं होती। शुक्ललेश्या वहाँ (स्व-स्वरूप में) रहती हुई अपकर्ष (हीनभाव) को प्राप्त होती है। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि यावत् (शुक्ललेश्या पद्मलेश्या को प्राप्त होकर उसके स्वरूप में) परिणत नहीं होती । विवेचन - लेश्याओं के परिणामभाव की प्ररूपणा - प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. १२५१ से १२५५ तक) में एक लेश्या का दूसरी लेश्या को प्राप्त कर उसके स्वरूप में परिणत होने का निषेध किया गया है। पूर्वापर विरोधी कथन कैसे और क्या समाधान ? - यहाँ आशंका होती है कि पूर्व सूत्रों (सू. १२२० से १२२५ चतुर्थ उद्देशक, परिणामाधिकार) में कृष्णादि लेश्याओं को, नीलादि लेश्याओं के स्वरूप में तथा उनके वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शरूप में परिणत होने का विधान किया गया है, परन्तु यहाँ उसके तद्प-परिणमन का निषेध किया गया है। ये दोनों कथन पूर्वापर विरोधी हैं। इसका क्या समाधन ? वृत्तिकार इसका समाधान करते हुए कहते हैं कि पहले परिणमन का जो विधान किया गया है, वह तिर्यचों और मनुष्यों की अपेक्षा से है और इन सूत्रों में परिणमन का निषेध किया गया है, वह देवों और नारकों की अपेक्षा से है। इस प्रकार दोनों कथन विभिन्न अपेक्षाओं से होने के कारण पूर्वापरविरोधी नहीं हैं । देव और नारक अपने पूर्वभवगत अन्तिम अन्तर्मुहूर्त से लेकर आगामी भव के प्रथम अन्तर्मुहूर्त तक उसी लेश्या में अवस्थित होते हैं। अर्थात् उनकी जो लेश्या पूर्वभव के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में थी, वही वर्तमान देवभव या नारकभव में भी कायम रहती है और आगामी भव के प्रथम अन्तर्मुहूर्त में भी रहती है। इस कारण देवों और नारकों के कृष्णलेश्यादि के द्रव्यों का परस्पर सम्पर्क होने पर भी वे एक-दूसरे को अपने स्वरूप में परिणत नहीं करते। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : पंचम उद्देशक] [३४७ लेश्याओं का परस्पर सम्पर्क होने पर भी एक दूसरे के रूप में परिणत क्यों नहीं ? इस प्रश्न का समाधान मूल में किया गया है कि कृष्णलेश्या आकार भाव मात्र से ही अथवा प्रतिविम्बमात्र से ही नीललेश्या होती है, वास्तव में वह नीललेश्या नहीं बन जाती। आकारभाव का अर्थ- छाया-मात्र सिर्फ झलक। आशय यह है कि कृष्णलेश्या के द्रव्यों पर नीललेश्या के द्रव्यों की छाया पड़ती है, इस कारण वह नीललेश्या-सी प्रतीत होती है। अथवा जैसे दर्पण आदि पर प्रतिबिम्ब पड़ने पर दर्पणादि उस वस्तु-से प्रतीत होने लगते हैं। उसी प्रकार कृष्णलेश्या के साथ नीललेश्या का सन्निधान (निकटता) होने पर कृष्णलेश्या पर नीललेश्या के द्रव्यों का प्रतिबिम्ब पड़ता है, तब कृष्णलेश्याद्रव्य नीललेश्याद्रव्यों के रूप में प्रतिबिम्बित हो जाते हैं, किन्तु उनमें परिणम्य-परिणामकभाव घटित नहीं होता। जैसे दर्पण अपने आप में दर्पण हो रहता है, उसमें प्रतिबिम्बित होने वाली वस्तु नहीं बन जाता। इसी प्रकार कृष्णलेश्या पर नीललेश्या का प्रतिबिम्ब पड़ने पर वह नीललेश्या-सी प्रतीत होती है, किन्तु वास्तव में वह नीललेश्या में परिणत नहीं होती, वह कृष्णलेश्या ही बनी रहती है। यों प्रतिबिम्ब या छाया के अभिप्राय से मूल में कहा परिणमन उसमें नहीं होता। इसी अभिप्राय से मूल में कहा गया है- वह वस्तुतः कृष्णलेश्या ही है, नीललेश्या नहीं, क्योंकि उसने अपने स्वरूप का परित्याग नहीं किया है। जैसे दर्पण आदि जपाकुसुम आदि औपाधिक द्रव्यों के सन्निधान से उनके प्रतिबिम्बमात्र को धारण करते हुए दर्पण आदि ही बने रहते हैं तथा जपाकुसुमादि भी दर्पण नहीं बन जाते । इसी प्रकार कृष्णलेश्या नीललेश्या नहीं बन जाती, अपितु कृष्णलेश्या से नीललेश्या विशुद्ध होने के कारण कृष्णलेश्या अपने स्वरूप में स्थित रहती हुई नीललेश्या के आकारभावमात्र या प्रतिबिम्बमात्र को धारण करती हुई किञ्चित् विशुद्ध हो जाती है। इसी अभिप्राय से यहाँ कहा गया है- 'तत्थ गता ओस्सक्नति'- उस रूप में रहती हुई कृष्णलेश्या (नीललेश्या के सन्निधान से) उत्कर्ष को प्राप्त होती है। किन्तु शुक्ललेश्या से पद्मलेश्या हीनपरिणाम वाली होने से पद्मलेश्या के सन्निधान से उसके आकारभाव या प्रतिबिम्बमात्र को धारण करके कुछ अविशुद्ध हो जाती है- अपकर्ष को प्राप्त हो जाती हैं। अन्य लेश्याओं के सम्बन्ध में अतिदेश - यद्यपि मूलपाठ में अन्य लेश्याओं सम्बन्धी वक्तव्यता नहीं दी है, तथापि मूल टीकाकार ने उनके सम्बन्ध में व्याख्या की है। इसलिए शुक्ललेश्या के साथ जिस प्रकार पद्मलेश्या की वक्तव्यता है उसी प्रकार पद्मलेश्या के साथ तेजोलेश्या, कापोतलेश्या, नीललेश्या और कृष्णलेश्या सम्बन्धी वक्तव्यता, तेजोलश्या के साथ कापोत, नील और कृष्णलेश्या-विषयक वक्तव्यता, कापोतलेश्या के साथ नील और कृष्णलेश्या-विषयक वक्तव्यता तथा नीललेश्या को लेकर कृष्णलेश्या सम्बन्धी वक्तव्यता घटित कर लेनी चाहिए । ॥सत्तरहवाँ लेश्यापद : पंचम उद्देशक समाप्त ॥ १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३७२-३७२ २. वही मलय. वृत्ति, पत्रांक ३७२ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरसमं लेस्सापयं :छट्टो उद्देसओ सत्तरहवाँ लेश्यापद : छठा उद्देशक लेश्या के छह प्रकार १२५६. कति णं भंते ! लेस्साओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! छल्लेसाओ पण्णत्ताओ । तं जहा - कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा । [१२५६ प्र.] भगवन् ! लेश्याएँ कितनी हैं ? ६.१२५६ उ.] गौतम ! छह लेश्याएँ कही गई हैं - कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या । मनुष्यों में लेश्याओं की प्ररूपणा १२५७. [१] मणूसाणं भंते ! कति लेस्साओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! छल्लेसाओ पण्णत्ताओ । तं जहा - कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा । [१२५७-१ प्र.] भगवन् ! मनुष्यों में कितनी लेश्याएँ होती हैं ? [१२५७-१ उ.] गौतम ! छह लेश्याएँ होती हैं, वे इस प्रकार- कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या । [२] मणूसीणं पुच्छा। गोयमा ! छल्लेसाी पण्णत्ताओ । तं जहा - कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा। . [१२५७-२ प्र.] भगवन् ! मनुष्यस्त्रियों में कितनी लेश्याएँ होती हैं ? [१२५७-२ उ.] गौतम ! (उनमें भी) छह लेश्याएँ हैं - कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या । [३] कम्मभूमयमणूसाणं भंते ! कति लेस्साओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! छ। तं जहा - कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा । [१२५७-३ प्र.] भगवन् ! कर्मभूमिक मनुष्यों में कितनी लेश्याएँ हैं ? [१२५७-३ उ.] गौतम ! (उनमें) छह (लेश्याएँ होती हैं।) वे इस प्रकार - कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : छठा उद्देशक ] [ ३४९ [ ४ ] एवं कम्मभूमयमणूसीण वि । [१२५७-४] इसी प्रकार कर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियों की भी लेश्याविषयक प्ररूपणा करनी चाहिए। [ ५ ] भरहेरवयमणूसाणं भंते ! कति लेस्साओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! छ। तं जहा - कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा । [१२५७–५ प्र.] भगवन् ! भरतक्षेत्र और ऐरवतक्षेत्र के मनुष्यों में कितना लेश्याएँ पाई जाती हैं ? [१२५७-५] गौतम ! ( उनमें भी) छह (लेश्याएँ होती) यथा - कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या । [६] एवं मणुस्सीण वि । [१२५७-६] इसी प्रकार ( इन क्षेत्रों की) मनुष्यस्त्रियों में भी (छह लेश्याओं की प्ररूपणा करनी चाहिए ।) [ ७ ] पुव्वविदेह-अवरविदेहकम्मभूमयमणूसाणं भंते ! कति लेस्साओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! छ लेस्साओ । तं जहा- कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा । [१२५७-७ प्र.] भगवन् ! पूर्वविदेह और अपरविदेह के कर्मभूमिज मनुष्यों में कितनी लेश्याएँ होती हैं? [१२५७-७ उ.] गौतम ! ( इन दोनों क्षेत्रों की) छह लेश्याएँ कही गई हैं- कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या । [८] एवं मणूसीण वि । [१२५७-८] इसी प्रकार ( इन दोनों क्षेत्रों की ) मनुष्यस्त्रियों में भी (छह लेश्याएँ समझनी चाहिए ।) [ ९ ] अकम्मभूमयमणूसाणं पुच्छा ? गोयमा ! चत्तारि लेस्साओ पण्णत्ताओ । तं जहा - कण्हलेस्सा जाव तेउलेस्सा | [१२५७-९] भगवन् ! अकर्मभूमिज मनुष्यों में कितनी लेश्याएँ कही गई हैं ? [१२५७-९] गौतम ! ( उनमें ) चार लेश्याएँ कही गई हैं। वे इस प्रकार हैं- कृष्णलेश्या यावत् तेजोलेश्या । [ १० ] एवं अकम्पभूमयमणूसीण वि । [१२५७-१०] इसी प्रकार अकर्मभूमिज मनुष्यस्त्रियों में भी ( चार लेश्याएँ कहनी चाहिए।) [ ११ ] एवं अंतरदीवयमणूसाणं मणूसीण वि । [१२५७-११] इसी प्रकार अन्तरद्वीपज मनुष्यों में और मनुष्यस्त्रियों में भी ( चार लेश्याएँ समझनी चाहिए ।) Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५०] [प्रज्ञापनासूत्र [१२] हेमवय-एरण्णवयअकम्मभूमयमणूसाणं मणूसीण य कति लेस्साओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! चत्तारि । तं जहा - कण्हलेस्सा जाव तेउलेस्सा । [१२५७-१२ प्र.] भगवन् ! हैमवत और ऐरण्यवत अकर्मभूमिज मनुष्यों और मनुष्यस्त्रियों में कितनी लेश्याएँ होती हैं ? [१२५७-१२ उ.] गौतम ! (इन दोनों क्षेत्रों के पुरुषों और स्त्रियों में) चार लेश्याएँ होती हैं। वे इस प्रकार- कृष्णलेश्या यावत् तेजोलेश्या । [१३] हरिवास-रम्मयअकम्मभूमयमणुस्साणं मणूसीण य पुच्छा ? गोयमा ! चत्तारि । तं जहा- कण्हलेस्सा जाव तेउलेस्सा । [१२५७-१३ प्र.] भगवन् ! हरिवर्ष और रम्यकवर्ष के अकर्मभूमिज मनुष्यों और मनुष्यस्त्रियों में कितनी लेश्याएँ होती हैं ? . [१२५७-१३ उ.] गौतम ! (इन दोनों क्षेत्रों के अकर्मभूमिज पुरुषों और स्त्रियों में) चार लेश्याएँ होती हैं। वे इस प्रकार - कृष्णलेश्या यावत् तेजोलेश्या । [१४] देवकुरूत्तरकुरुअकम्मभूमयमणुस्साणं एवं चेव ।। [१२५७-१४] देवकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्र के अकर्मभूमिज मनुष्यों में भी इसी प्रकार (चार लेश्याएँ जाननी चाहिए ।) [१५] एतेसिं चेव मणूसीणं एवं चेव । । [१२५७-१५] इन (पूर्वोक्त दोनों क्षेत्रों) की मनुष्यस्त्रियों में भी इसी प्रकार (चार लेश्याएँ समझनी चाहिए ।) [१६] घायइसंड पुरिमद्धे एवं चेव, पच्छिममद्धे वि। एवं पुक्खरद्धे वि भाणियव्वं ।' [१२५७-१६] वातकीषण्ड के पूर्वार्द्ध में तथा पश्चिमार्द्ध में भी मनुष्यों और मनुष्यस्त्रियों में इसी प्रकार (चार लेश्याएँ) कहनी चाहिए। इसी प्रकार पुष्करार्द्ध द्वीप में भी कहना चाहिए। विवेचन - विभिन्न क्षेत्रीय मनुष्यों में लेश्याओं की प्ररूपणा - प्रस्तुत सूत्र (१२५७/१६ तक) में सामान्य मनुष्यों से लेकर सभी क्षेत्रों के सभी प्रकार के कर्मभूमिज और अकर्मभूमिज मनुष्यों तथा वहाँ की स्त्रियों में लेश्याओं की प्ररूपणा की गई हैं। निष्कर्ष- प्रत्येक क्षेत्र के कर्मभूमिज मनुष्यों और स्त्रियों में छह लेश्याएँ और अकर्मभूमिक मनुष्यों और १. ग्रन्थाग्रम् ५५०० Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : छठा उद्देशक] [३५१ स्त्रियों में चार लेश्याएँ पाई जाती हैं। अकर्मभूमिक नर-नारियों में पद्म और शुक्ललेश्या नही होती । लेश्या को लेकर गर्भोत्पत्ति सम्बन्धी प्ररूपणा १२५८.[१] कण्हलेस्से णं भंते ! मणूसे कण्हलेस्सं गब्भं जणेजा ? हंता गोयमा ! जणेज्जा। [१२५८-१ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वाला मनुष्य कृष्णलेश्यावान् गर्भ को उत्पन्न करता है ? [१२५७-१ उ.] हाँ, गौतम ! वह उत्पन्न करता है । [२] कण्हस्लेसे णं भंते मणूसे णीललेस्सं गब्भं जणेजा? हंता गोयमा ! जणेजा। [१२५८-२ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वाला मनुष्य नीललेश्यावान् गर्भ को उत्पन्न करता है ? [१२५८-२ उ.] हाँ, गौतम ! वह उत्पन्न करता हैं । [३] एवं काउलेस्सं तेउलेस्सं पम्हलेस्सं सुक्कलेस्सं छप्पिमालावगा भाणियव्वा । [१२५८-३] इसी प्रकार (कृष्णलेश्या वाले पुरुष से) कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या वाले गर्भ की उत्पत्ति के विषय में अलापक कहने चाहिए । [४] एवं णीललेसेणं काउलेसेणं तेउलेसेण वि पम्हलेसेण वि सुक्कलेसेण वि, एवं एते छत्तीसं आलावगा। [१२५८-४] इसी प्रकार (कृष्णवाले पुरूष की तरह) नीललेश्या वाले, कापोतलेश्या वाले, तेजोलेश्या वाले, पद्मलेश्यावाले और शुक्ललेश्या वाले प्रत्येक मनुष्य से इस प्रकार पूर्वोक्त छहों लेश्या वाले गर्भ की उत्पत्तिसम्बन्धी छह-छह आलापक होने से सब छत्तीस आलापक हुए । [५] कण्हलेस्सा णं भंते ! इत्थिया कण्हलेस्सं गब्भं जणेज्जा? हंता गोयमा ! जणेजा । एवं एते वि छत्तीसं आलावगा । [१२५८-५ प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या वाली स्त्री कृष्णलेश्या वाले गर्भ को उत्पन्न करती है? _ [१२५८-५ उ.] हाँ, गौतम ! उत्पन्न करती है। इसी प्रकार (पूर्यवत्) ये भी छत्तीस आलापक कहने चाहिए । [६] कण्हलेस्से णं भंते ! मणूसे कण्हलेसाए इत्थियाए कण्हलेस्सं गब्भं जणेज्जा? १. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ) भा. १, पृ. ३०१-३०२ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२] [प्रज्ञापनासूत्र ___ हंता गोयमा ! जणेज्जा । एवं एते छत्तीसं आलावगा। [१२५८-६ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वाला मनुष्य क्या कृष्णलेश्या वाली स्त्री से कृष्णलेश्या वाले गर्भ को उत्पन्न करता है ? [१२५८-६ उ.] हाँ, गौतम ! वह उत्पन्न करता है। इस प्रकार (पूर्ववत्) ये भी छत्तीस आलापक हुए। [७] कम्मभूमयकण्हलेस्से णं भंते ! मणुस्से कण्हलेस्साए इत्थियाए कण्हलेस्सं गब्भं जणेजा? हंता गोयमा ! जणेज्जा एवं एते वि छत्तीसं आलावगा। [१२५८-७ प्र.] भगवन् ! कर्मभूमिक कृष्णलेश्या वाला मनुष्य कृष्णलेश्या वाली स्त्री से कृष्णलेश्या वाले गर्भ को उत्पन्न करता है ? [१२५८-७ उ.] हाँ, गौतम ! वह उत्पन्न करता है। इस प्रकार (पूर्वोक्तानुसार) ये भी छत्तीस आलापक [८] अकम्मभूमयकण्हलेसे णं भंते ! मणूसे अकम्मभूमयकण्हलेस्साए इत्थियाए अकम्मभूमयकण्हलेसं गब्भं जणेज्जा ? हंता गोयमा ! जणेजा, णवरं चउसु लेसासु सोलस आलावगा । एवं अंतरदीवगा वि । छट्ठो उद्देसओ समत्तो ॥ ॥पण्णवणाए भगवईए सत्तरसमं लेस्सापयं समत्तं ॥ [१२५८-८ प्र.] भगवन् ! अकर्मभूमिक कृष्णलेश्या वाला मनुष्य अकर्मभूमिक कृष्णलेश्या वाली स्त्री से अकर्मभूमिक कृष्णलेश्या वाले गर्भ को उत्पन्न करता है ? [१२५८-८ उ.] हाँ, गौतम ! वह उत्पन्न करता है। विशेषता यह है कि (इनमें पाई जाने वाली) चार लेश्याओं से (सम्बन्धित) कुल १६ आलापक होते हैं। इसी प्रकार अन्तरद्वीपज (कृष्णलेश्यादि वाले मनुष्य से) भी अन्तरद्वीपज कृष्णलेश्यादि वाली स्त्री से अन्तरद्वीपज कृष्णलेश्यादि वाले गर्भ की उत्पत्ति-सम्बन्धी सोलह आलापक होते हैं। विवेचन - लेश्या को लेकर गर्भोत्पत्तिसम्बन्धी प्ररूपणा - प्रस्तुत सूत्र (१२५८-८ तक) में कृष्णादि छहों लेश्याओं वालों में से प्रत्येक लेश्यावाले पुरूष से, प्रत्येक लेश्यावाली स्त्री से प्रत्येक लेश्यावाले गर्भ की उत्पत्ति का कथन किया गया है। अपने से भिन्न लेश्यावाले गर्भ को कैसे उत्पन्न करता है ? - अपने से भिन्न लेश्यावाले गर्भ को उत्पन्न करने का कारण यह है कि उत्पन्न होने वाला जीव पूर्वजन्म में लेश्या को ग्रहण करके उत्पन्न होता है। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : छठा उद्देशक] [३५३ वे लेश्याद्रव्य किसी जीव के कोई और किसी के कोई अन्य होते हैं। इस कारण जनक या जननी या दोनों भले ही कृष्णलेश्या में परिणत हों, जन्य जीव की लेश्या उससे भिन्न भी हो सकती है। इसी प्रकार अन्य लेश्याओं के विषय में भी समझ लेना चाहिए। आलापक - इस कारण कृष्णलेश्या वाला मनुष्य अपनी लेश्या वाले गर्भ के अतिरिक्त अन्य पांचों लेश्याओं वाले गर्भ को उत्पन्न करता है। इस दृष्टि से कृष्णलेश्या से षट्लेश्यात्मक गर्भ के उत्पन्न होने से एतत्सम्बन्धी छह आलापक हुए तथा शेष नीलादि लेश्याओं के भी ६-६ आलापक होने से ३६ विकल्प हो गए। इसी तरह कृष्णादि छहों लेश्या वाली स्त्रियों में से प्रत्येक लेश्या वाली स्त्री से प्रत्येक लेश्या वाले गर्भ की उत्पत्ति सम्बन्धी.३६ आलापक होते हैं। कृष्णादिलेश्या वाले पुरुष द्वारा कृष्णादिलेश्या वाली स्त्री से कृष्णादिलेश्या वाले गर्भ की उत्पत्ति सम्बन्धी भी ३६ आलापक हैं। फिर अकर्मभूमिक, अन्तरद्वीपज कृष्णादिलेश्या वाले पुरुष द्वारा तथा अकर्मभूमिक एवं अन्तरद्वीपज कृष्णादिलेश्या वाली स्त्री से इसी प्रकार की लेश्या वाले गर्भ को उत्पत्ति सम्बन्धी क्रमशः १६-१६ आलापक होते हैं । ॥सत्तरहवाँ लेश्यापद : छठा उद्देशक समाप्त ॥ ॥ प्रज्ञापनासूत्र : सत्तरहवाँ लेश्यापद सम्पूर्ण ॥ १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३७३ २. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ) भा. १, पृ. ३०२-३०३ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठारसमं कायद्विइपयं अठारहवाँ कायस्थितिपद प्राथमिक प्रज्ञापनासूत्र का यह अठारहवाँ 'कायस्थितिपद' पद है। + 'काय' का अर्थ यहाँ 'पर्याय' है। सामान्य रूप अथवा विशेषरूप पर्याय (काय) में किसी जीव के लगातार- निरन्तर रहने को कायस्थिति कहते हैं। इस कायस्थितिपद में चिन्तन प्रस्तुत किया गया है कि चौवीसदण्डकवर्ती जीव और अजीव अपनी-अपनी पर्याय में लगातार कितने काल तक रहते हैं। * चतुर्थ 'स्थितिपद' और इस 'कायस्थितिपद' में यह अन्तर है कि स्थितिपद में तो चौवीसदण्डकवर्ती जीवों की भवस्थिति, अर्थात्- एक भव की अपेक्षा से आयुष्य का विचार है, जबकि इस पद में यह विचार किया गया है कि एक जीव मर कर बारंबार उसी भव में जन्म लेता रहे तो, ऐसे सब भवों की परम्परा की कालमर्यादा अथवा उन सभी भवों के आयुष्य का कुल जोड़ कितना होगा? प्रस्तुत पद में जीव, गति, इन्द्रिय, काय, योग, भेद, कषाय, लेश्या, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, संयत, उपयोग, आहार, भाषक, परीत, पर्याय, सूक्ष्म, संज्ञी, भवसिद्धिक, अस्तिकाय और चरम, इन २२ द्वारों के माध्यम से चौवीसदण्डकवर्ती समस्त जीवों की उस-उस काय में रहने की कालावधि का विचार किया गया है। प्रथम जीवद्वार-जीव का अस्तित्व सर्वकाल में है। इससे जीव का अविनाशित्व सिद्ध होता है। द्वितीय गतिद्वार में चारों गतियों के जीवों के स्त्री-पुरुष रूप पर्याय की कालावस्थिति का विचार है। तृतीय इन्द्रियद्वार में सेन्द्रिय निरिन्द्रिय तथा एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों की स्व-स्वपर्याय में कालावस्थिति का विचार है। चतुर्थ कायद्वार में तैजस-कार्मण काय या षट्काय वाले जीवों के स्व-स्वपर्याय में निरन्तर रहने की कालावधि बताई है। पंचम योगद्वार में मनोयोगी और वचनयोगी का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक का बताया है। काययोगी की कायस्थिति उत्कृष्ट वनस्पति की बताई है। छठे वेदद्वार में सवेदक, अवेदक, स्त्री-पुरूष-नपुंसकवेदी की कायस्थिति बताई है। सप्तम o . १. (क) पण्णवणासुत्तं भा. २ प्रस्तावना, पृ. १०७ से ११० तक (ख) जैनागम साहित्य : मनन और मीमांसा, पृ. २४७-२४८ (ग) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ३७४ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद ] [३५५ कषायद्वार में सकषाय, अकषाय और क्रोधदिकषाययुक्त जीवों की कायस्थिति का विचार हैं । अष्टम लेश्याद्वार में विविध लेश्या वाले जीवों को स्वपर्याय में रहने को कालस्थिति बताई है। नव सम्यक्त्वद्वार सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि वाले जीवों की पर्यायस्थिति का विचार है। इसके पश्चात् क्रमश: ज्ञान, दर्शन, संयत, उपयोग आहार का काल बताया है। इसके पश्चात् भाषक, परीत, पर्याप्त, सूक्ष्म, संज्ञी, भवसिद्धिक एवं चरम आदि द्वारों के माध्यम से तद्विशिष्ट जीव स्व-स्वपर्याय में निरन्तर कितने काल रहते हैं ? इसका चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। इक्कीसवे अस्तिकाय द्वार में धर्मास्तिकाय आदि अजीवों की कायस्थिति का विचार किया गया है। जन्म-मरण की मरम्परा से मुक्ति चाहने वाले मुमुक्षु जीवों के लिए कायस्थिति का यह चिन्तन अतीव उपयोगी है। १. पण्णवणासुत्तं (मू. पा.) भा. १, पृ. ३०४ से ३१७ तक Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठारसमं कायट्टिइपयं अठारहवाँ कायस्थितिपद कायस्थितिपद के अन्तर्गत बाईस द्वार १२५९. जीव १ गतिंदिय २-३ काए ४ जोगे ५ वेदे ६ कसाय ७ लेस्सा ८ य । सम्म ९ णाण १० दंसण ११ संजय १२ उवओग १३ आहारे १४ ॥२११॥ भासग १५ परित्त १६ पज्जत्त १७ सुहुम १८ सण्णी १९ भव स्थि २०-२१ चरिमे २२ य । एतेसिं तु पदाणं कायठिई होति णायव्वा ॥ २१२ ॥ [१२५९.] अधिकारसंग्रहणीगाथाओं का अर्थ ] (१) जीव, (२) गति, (३) इन्द्रिय, (४) काय, (६) वेद, (७) कषाय, (८) लेश्या, (९) सम्यक्त्व, (१०) ज्ञान, (११) दर्शन, (१२) संयत, (१३) उपयोग, (१४) आहार, (१५) भाषक, (१६) परीत, (१७) पर्याप्त, (१८) सूक्ष्म, (१९) संज्ञी, (२०) भव (सिद्धिक), (२१) अस्ति (काय) और (२२) चरम, इन पदों की कायस्थिति जाननी चाहिए | ॥२११२११ ॥ विवेचन - कायस्थितिपद के अन्तर्गत बाईस द्वार - प्रस्तुत सूत्र में जीवादि बाईस पदों को लेकर कायस्थिति का वर्णन किया जाएगा, इसका दो गाथाओं द्वारा निर्देश किया गया है। कायस्थिति की परिभाषा - कायपद का अर्थ है- जीव- पर्याय । यहाँ कायपद से पर्याय का ग्रहण किया गया है। पर्याय के दो प्रकार हैं- सामान्यरूप और विशेषरूप । जीव का विशेषणरहित जीवत्वरूप सामान्यपर्याय है तथा नारकत्वादिरूप विशेषपर्याय है । इस प्रकार के पर्यायरूप काय की स्थिति - अवस्थान कायस्थिति है । तात्पर्य यह है कि इस प्रकार सामान्यरूप अथवा विशेषरूप पर्याय से किसी जीव का अविच्छिन्नरूप से (निरन्तर) होना कायस्थिति है । प्रथम-द्वितीय : जीवद्वार - गतिद्वार १. १२६०. जीवे णं भंते ! जीवे त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! सव्वद्धं । दारं १ ॥ प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३७४ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँकायस्थितिपद] 1३५७ [१२६० प्र.] भगवन् ! जीव कितने काल तक जीव (जीवपर्याय में) रहता है ? [१२६० उ.] गौतम ! (वह) सदा काल रहता है। प्रथम द्वार ॥१॥ १२६१. णेरइए णं भंते ! नेरइए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साइं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई । [१२६१ प्र.] भगवन् ! नारक नारकत्वरूप (नारकपर्याय) में कितने काल तक रहता है ? [१२६१ उ.] गौतम ! (नारक) जघन्य दस हजार वर्ष तक, उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम तक (नारकपर्याय से युक्त रहता है।) १२६२.[१]तिरिक्खजोणिए णं भंते ! तिरिक्खजोणिए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अणंत कालं, अणंताओ उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अणंता लोगा, असंखेजा पोग्गलपरियट्ठा, ते णं पोग्गलपरियट्ठा आवलिया असंखेजतिभागो । [१२६२-१ प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चयोनिक कितने काल तक तिर्यग्योनिकत्व रूप में रहता है ? [१२६२-१ उ.] गौतम ! (तिर्यञ्च) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक तिर्यञ्चरूप में रहता है। कालतः अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल तक, क्षेत्रतः अनन्त लोक, असंख्यात पुद्गलपरावर्त्तनों तक (तिर्यञ्च तिर्यञ्च, ही बना रहता है।) वे पुद्गलपरावर्तन आवलिका के असंख्यातवे भाग (जितने समझने चाहिए।) [२] तिरिक्खजोणिणी णं भंते ! तिरिक्खजोणिणीति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोहुमुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं पुव्वकोडिपुहुत्तअब्भहियाई। [१२६२-२ प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चनी कितने काल तक तिर्यञ्चनी रूप में रहती हैं ? [१२६२-२ उ.] गौतम ! (वह) जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्टतः पृथक्त्वकोटि पूर्व अधिक तीन पल्योपम तक (तिर्यञ्चनी रहती है।) १२६३.[१] एवं मणूसे वि। [१२६३-१] मनुष्य की कायस्थिति के विषय में भी (इसी प्रकार समझना चाहिए।) [२] मणूसी वि एवं चेव । [१२६३-२] इसी प्रकार मानुषी (नारी) की कायस्थिति के विषय में (समझना चाहिए।) १२६४.[१] देवे णं भंते ! देवे त्ति कालओ केवचिरं होइ ? Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८] [प्रज्ञापनासूत्रं गोयमा ! जहेव णेरइए (सु. १२६१)। [१२६४-१ प्र.] भगवन् ! देव कितने काल तक देव बना रहता है ? [१२६४-१ उ.] गौतम ! जैसा (सू. १२६१ में) नारक के विषय में कहा, वैसा ही देव (की कायस्थिति) के विषय में (कहना चाहिए।) [२] देवी णं भंते ! देवीति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहणणेणं दस वाससहस्साई उक्कोसेणं पणपण्णं पलिओवमाई । [१२६४-२ प्र.] भगवन् ! देवी, देवी के पर्याय में कितने काल तक रहती है ? [१२६४-२ उ.] गौतम ! जघन्यत: दस हजार वर्ष तक और उत्कृष्टतः पचपन पल्योपम तक (देवीरूप में कायम रहती है।) १२६५. सिद्धे णं भंते ! सिद्धे त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! सादीए अपज्जवसिए । [१२६५ प्र.] भगवन् ! सिद्ध जीव कितने काल तक सिद्धपर्याय से युक्त रहता है ? [१२६५ उ.] गौतम ! सिद्ध जीव सादि-अनन्त होता है। (अर्थात्- सिद्धपर्याय सादि है, किन्तु अन्तरहित है।) १२६६.[१] णेरइय-अपजत्तए णं भंते ! णेरइय-अपजत्तए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहूत्तं । [१२६६-१ प्र.] भगवन् ! अपर्याय नारक जीव अपर्याप्तक नारकपर्याय में कितने काल तक रहता है ? [१२६६-१ उ.] गौतम ! अपर्याप्तक नारक जीव अपर्याप्तक नारकपर्याय में जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। [२] एवं जाव देवी अपज्जत्तिया । [१२६६-२] इसी प्रकार (तिर्यञ्चयोनिक-तिर्यञ्चनी, मनुष्य-मानुषी, देव और) यावत् देवी की अपर्याप्त अवस्था अन्तर्मुहूर्त तक ही रहती है। १२६७. णेरइयपजत्तए णं भंते ! णेरइयपजत्तए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साइं अंतोमुहूत्तूणाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई। [१२६७ प्र.] भगवन् ! पर्याप्त नारक कितने काल तक पर्याप्त नारकपर्याय में रहता है ? Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद] [३५९ _ [१२६७ उ.] गोतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागरोपम तक (पर्याप्त नारकरूप में बना रहता है।) १२६८.[१]तिरिक्खजोणियपजत्तए णं भंते ! तिरिक्खजोणियपजत्तए त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई । [१२६८-१ प्र.] भगवन् ! पर्याप्त तिर्यञ्चयोनिक कितने काल तक पर्याप्त तिर्यञ्चरूप में रहता है ? [१२६८-१ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम तीन पल्योपम तक (पर्याप्त तिर्यञ्चरूप में रहता है।) [२] एवं तिरिक्खजोणिणिपज्जत्तिया वि। [१२६८-२] इसी प्रकार पर्याप्त तिर्यञ्चनी (तिर्यञ्च स्त्री) की कायस्थिति के विषय में भी (समझना चाहिए।) - १२६९. मणूसे मणूसी वि एवं चेव । [१२६९] (पर्याप्त) मनुष्य (नर) और मानुषी (मनुष्यस्त्री) की कायस्थिति के विषय में भी इसी प्रकार (समझना चाहिए।) . १२७०.[१] देवपजत्तए जहा णेरड्यपजत्तए (सु. १२६७) । [१२७०-१] पर्याप्त देव (की कायस्थिति) के विषय में (सू. १२६७ में अंकित) पर्याप्त नैरयिक (की कायस्थिति) के समान (समझना चाहिए ।) [२] देविपज्जत्तिया णं भंते ! देविपज्जत्तिय त्ति कालओ केवचिरं होई ? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साइं अंतोमुहूत्तूणाई, उक्कोसेणं पणपण्णं पलिओवमाइं अंतोमुहूत्तूणाई । दारं २ ॥ [१२७०-२ प्र.] भगवन् ! पर्याप्त देवी, पर्याप्त देवी के रूप में कितने काल तक रहती है ? [१२७०-२ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम पचपन पल्योपम तक पर्याप्त देवी-पर्याय में रहती है। विवेचन - प्रथम-द्वितीय जीवद्वार-गतिद्वार - प्रस्तुत ग्यारह सूत्रों (सू. १२६० से १२७०) में जीवसामान्य की तथा नारकादि चार गति वाले विशिष्ट जीवों की कायस्थिति का निरूपण किया गया है। जीव में सदैव निरन्तर जीवनपर्यारू क्यों और कैसे? - जीव सदा काल जीवनपर्याय से युक्त रहता है, क्योंकि जीव वही कहलाता है, जो जीवनपर्याय से विशिष्ट हो । जीवन का अर्थ है- प्राण धारण करना। प्राण Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६०] [प्रज्ञापनासूत्रं दो प्रकार के होते हैं- द्रव्यप्राण और भावप्राण । द्रव्यप्राण दस है - पांच इन्द्रियाँ, तीन बल, उच्छ्वास-नि:श्वास और आयु। भावप्राण- ज्ञान, दर्शन, वीर्य और सुख, ये ४ हैं। संसारी जीवों में आयुःकर्म का अनुभवरूप प्राणधारण सदैव रहता है। संसारियों की ऐसी कोई भी अवस्था नहीं है, जिसमें आयुकर्म का अनुभव न हो। सिद्ध जीव द्रव्यप्राणों से रहित होने पर भी ज्ञानादिरूप भावप्राणों के सद्भाव से सदैव जीवित रहता है। इस कारण संसारी अवस्था में और मुक्तावस्था में भी सर्वत्र जीवनपर्याय है, अतएव जीव में जीवनपर्याय सर्वकालभावी गति की अपेक्षा जीवों की कायस्थिति - नारक की कायस्थिति - जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट ३३ सागरोपम तक नारक नारकपर्याय से युक्त रहता है। यही नारक की कायस्थिति है। क्योंकि नारकभव का स्वभाव ही ऐसा है कि एक बार नरक से निकला हुआ जीव अगले ही भव में फिर नरक में उत्पन्न नहीं होता। इस कारण उनकी जो भवस्थिति का परिमाण है, वही उनकी कायस्थिति का परिमाण है। तिर्यञ्च नर की कायस्थिति - इसकी जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक को कायस्थिति इसलिए है कि जब कोई देव, मनुष्य या नारक तिर्यचयोनिक नर के रूप में उत्पन्न होता है और वहाँ अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त रह कर फिर देव, मनुष्य या नारक भव में जन्म ले लेता है, उस अवस्था में जघन्य कायस्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है। यद्यपि तिर्यञ्च की एकभवसम्बन्धी स्थिति तो अधिक से अधिक तीन पल्योपम की है, उससे अधिक नहीं, तथापि जो तिर्यञ्च तिर्यञ्चभव को त्याग कर लगातार तिर्यञ्चभव में ही उत्पन्न होते रहते हैं, बीच में किसी अन्य भव में उत्पन्न नहीं होते, वे अनन्तकाल तक तिर्यञ्च ही बने रहते हैं। उस अनन्तकाल का परिमाण यहाँ क्षेत्र और काल की दृष्टि से बताया गया है- काल की अपेक्षा से अनन्त उत्सर्पिणियाँ और अवसर्पिणियाँ व्यतीत हो जाती हैं, फिर भी विर्यञ्चयोनिक तिर्यञ्चयोनिक ही बना रहता है। उस अनन्तकाल का यह परिमाण असंख्यात पुद्गलपरावर्तन समझना चाहिए। आवलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं, उतने असंख्यात पुद्गलपरावर्त समझने चाहिए। तिर्यग्योनिक की यह कायस्थिति वनस्पतिकायिक की अपेक्षा से है, उससे भिन्न तिर्यञ्चों की अपेक्षा से नहीं, क्योंकि वनस्पतिकायिक के सिवाय अन्य तिर्यञ्चों की कायस्थिति इतनी नहीं होती। तिर्यचयोनिक स्त्री की कायस्थिति - इसकी कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक की और उत्कृष्ट पृथक्त्व करोड़ पूर्व अधिक तीन पल्योपम तक की है, क्योंकि संज्ञोपंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों और मनुष्यों की कायस्थिति अधिक से अधिक आठ भवों की है। असंख्यात वर्ष की आयु वाले जीव मृत्यु के पश्चात् अवश्य देवलोक में उत्पन्न होते हैं, तिर्यचयोनि में नही; अतएव सात भव करोड़ पूर्व की आयु वाले समझना चाहिए और आठवाँ अन्तिम भव देवकुरू आदि मे। इस तरह पृथक्त्व करोड़ पूर्व अधिक तीन पल्योपम समझना चाहिए। देव देवियों की कायस्थिति - देवों और देवियों की कायस्थिति भवस्थिति के अनुसार ही समझनी चाहिए। देवयिों की उत्कृष्ट कायस्थिति पचपन पल्योपम की है, यह ऐशान देवियों की अपेक्षा से कही गयी है, अन्य देवियों की अपेक्षा से नहीं। Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद] [३६१ सिद्धजीव की कायस्थिति सादि-अनन्त - सिद्ध जीव सादि-अनन्त होता है। सिद्धपर्याय की आदि है, अन्त नहीं। सिद्धपर्याय अक्षय है। क्योंकि रागादि दोष ही जन्ममरण के कारण हैं, जो सिद्ध-जीव में नही होते; वे रागद्वेष के कारणभूत कर्मों का सर्वथा क्षय कर चुकते हैं। ____ अपर्याप्त नारक आदि की कायस्थिति - नारक आदि जीवों की जो समग्र स्थिति है, उसमें से अपर्याप्त अवस्था का एक अन्तर्मुहूर्त कम कर देने से पर्याप्त अवस्था की भवस्थिति होती है। पर्याप्त अवस्था की जो भवस्थिति है, वही पर्याप्त नारक की कायस्थिति भी है। तृतीय इन्द्रियद्वार १२७१. सइंदिए णं भंते ! सइंदिए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! सइंदिए दुविहे पण्णत्ते । तं जहा- अणाईए वा अपजवसिए १ अणाईए वा सपज्जवसिए २। [१२७१ प्र.] भगवन् ! सेन्द्रिय (इन्द्रिय सहित) जीव सेन्द्रिय रूप में कितने काल तक रहता है ? . [१२७१ उ.] गौतम ! सेन्द्रिय जीव दो प्रकार के कहे गये हैं - १. अनादि-अनन्त और २. अनादिसान्त। १२७२. एगिदिए णं भंते ! एगिदिए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं वणस्सइकालो । [१२७२ प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव एकेन्द्रियरूप में कितने काल तक रहता है ? [१२७२ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल-वनस्पतिकालपर्यन्त (एकेन्द्रिय रूप में रहता है।) १२७३. बेइंदिए णं भंते ! बेइंदिए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहणणेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं संखेनं कालं। [१२७३ प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव द्वीन्द्रियरूप में कितने काल तक रहता है ? [१२७३ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यातकाल तक (द्वीन्द्रियरूप में रहता है।) १२७४. एवं तेइंदिय-चउरिदिए वि। [१२७४] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय की त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय रूप में अवस्थिति के विषय १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३७४ से ३७७ तक Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२] [प्रज्ञापनासूत्रं में (समझना चाहिए।) १२७५. पंचेंदिए णं भंते ! पंचेंदिए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहूत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसहस्सं सातिरेगं । . [१२७५ प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय के रूप में कितने काल तक रहता है ? [१२७५ उ.] गौतम ! (वह) जघन्यः अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्टतः सहस्रसागरोपम से कुछ अधिक (काल तक पंचेन्द्रिय रूप में रहता है।) १२७६. अणिदिए णं ० पुच्छा । गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । [१२७६ प्र.] भगवन् ! अनिन्द्रिय (सिद्ध) जीव कितने काल तक अनिन्द्रिय बना रहता है? [१२७६ उ.] गौतम ! (अनिन्द्रिय) सादि-अनन्त (काल तक अनिन्द्रियरूप में रहता है।) १२७७. सइंदियअपजत्तए णं भंते ! ० पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं । [१२७७ प्र] भगवन् ! सेन्द्रिय-अपर्याप्तक कितने काल तक सेन्द्रिय-अपर्याप्तरूप में रहता है ? . [१२७७ उ.] गौतम ! (वह) जघन्यतः भी और उत्कृष्टतः भी अन्तर्मुहूर्त तक (सेन्द्रिय-अपर्याप्तरूप में रहता है।) १२७८. एवं जाव पंचेंदियअपजत्तए । [१२७८] इसी प्रकार (एकेन्द्रिय-अपर्याप्तक से लेकर) यावत् पंचेन्द्रिय-अपर्याप्तक तक (अपर्याप्तरूप में अवस्थिति) के विषय में (समझना चाहिए।) १२७९. सइंदियपजत्तए णं भंते ! सइंदियपजत्तए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसतपुहत्तं सातिरोगं। [१२७९ प्र.] भगवन् ! सेन्द्रिय-पर्याप्तक, सेन्द्रिय-पर्याप्तरूप में कितने काल काल तक रहता है? [१२७९ उ.] गौतम ! (वह) जघन्यः अन्तर्मुहूर्त तक तथा उत्कृष्टतः शतपृथक्त्वसागरोपम से कुछ अधिक तक (सेन्द्रिय-पर्याप्त जीव सेन्द्रिय-पर्याप्त बना रहता है।) १२८०. एगिदियपज्जत्तए णं भंते ! ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं संखेजाइं वाससहस्साई । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँकायस्थितिपद] [३६३ [१२८० प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय-पर्याप्तक कितने काल तक एकेन्द्रिय-पर्याप्तरूप में बना रहता है ? [१२८० उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्षों तक (वह एकेन्द्रिय-पर्याप्तक रूप में बना रहता है।) १२८१. बेइंदियपजत्तए णं भंते ! बेइंदियपज्जत्तए त्ति ० पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहूत्तं, उक्कोसेणं संखेजाइं वासाई । [१२८१ प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय-पर्याप्तक, द्वीन्द्रिय-पर्याप्तक रूप में कितने काल तक रहता है ? [१२८१ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट संख्यात वर्षों तक (द्वीन्द्रिय-पर्याप्तक रूप में रहता है।) १२८२. तेइंदियपजत्तए णं भंते ! तेइंदियपजत्तए त्ति ० पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जाइं रातिंदियाई । . [१२८२ प्र.] भगवन् ! त्रीन्द्रिय-पर्याप्तक, त्रीन्द्रिय-पर्याप्तकरूप में कितने काल तक बना रहता है ? [१२८२ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट संख्यात रात्रि-दिन तक (त्रीन्द्रियपर्याप्तकरूप में रहता है।) १२८३. चउरिदियपजत्तए णं भंते ! ० पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेजा मासा। [१२८३ प्र.] भगवन् ! चतुरिन्द्रिय-पर्याप्तक, चतुरिन्द्रिय-पर्याप्तकरूप में कितने काल तक रहता है ? [१२८३ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट संख्यात मास तक (चतुरिन्द्रियपर्याप्तकरूप में बना रहता है।) १२८४. पंचेंदियपजत्तए णं भंते ! पंचेंदियपजत्तए त्ति कालओ केवचिरं होड ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहत्तं । दारं ३॥ [१२८४ प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक, पंचेन्द्रिय-पर्याप्तकरूप में कितने काल तक रहता है ? [१२८४ उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट सौ पृथक्त्व सागरोपमों तक (पंचेन्द्रियपर्याप्त. पर्याय में रहता है।) विवेचन - तृतीय इन्द्रियद्वार - प्रस्तुत १४ सूत्रों (सू. १२७१ से १२८४ तक) में सेन्द्रिय, निरिन्द्रिय तथा पर्याप्तक-अपर्याप्तक जीवों की उस पर्याय में अवस्थिति के विषय में निरूपण किया गया है। सेन्द्रिय-निरिन्द्रिय - इन्द्रिययुक्त जीव को सेन्द्रिय और द्रव्येन्द्रिय-भावेन्द्रिय रहित जीव (सिद्ध) को Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४] [प्रज्ञापनासूत्रं निरिन्द्रिय कहते हैं। सेन्द्रिय जीव की सेन्द्रियपर्याय में अवस्थिति - सेन्द्रिय जीव दो प्रकार के कहे गए हैं- अनादिअनन्त और अनादि-सान्त । जो सेन्द्रिय है, वह नियमतः संसारी होता है और संसार अनादि है। जो सिद्ध हो जाएगा, वह अनादि-सान्त है। क्योंकि मुक्ति-अवस्था में सेन्द्रियत्व पर्याय का अभाव हो जाएगा। जो कदापि सिद्ध नहीं होगा, वह अनादि-अनन्त है। क्योकि उसके सेन्द्रियत्वपर्याय का भी अन्त नहीं होगा। पन्न नहीं होगा। अनिन्द्रिय-पर्याप्त-अपर्याप्त विशेषण से रहित हैं। सेन्द्रिय जीव पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों प्रकार के हैं। जो अपर्याप्तक हैं, वे लब्धि और करण की अपेक्षा से समझने चाहिये। दोनों प्रकार से उनकी पर्याय जघन्यतः और उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है तथा पर्याप्त यहाँ लब्धि की अपेक्षा से समझना चाहिए। वह विग्रहगति में भी संभव है, भले ही वह करण से अपर्याप्त हो। अतएव वह उत्कृष्टत: सौ सागरोपम पृथक्त्व अर्थात् दो सौ से नौ सौ सागरोपम से कुछ अधिक काल में सिद्ध हो जाता है। अन्यथा करणपर्याप्त का काल तो अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागरोपम प्रमाण ही है। अत: पूर्वोक्त कथन सुसंगत नहीं होगा। इसलिए यहाँ और आगे भी लब्धि की अपेक्षा से ही पर्याप्तत्व समझना चाहिए। वनस्पतिकाल का प्रमाण - कालतः अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त अवसर्पिणो काल; क्षेत्रतः अनन्तलोक, असंख्यात पुद्गलपरावर्त और वे पुद्गलपरावर्त आवलिका के असंख्यातवें भाग समझना चाहिए। अर्थात् आवलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं, उतने पुद्गलपरावर्त यहाँ समझना चाहिए। संख्यातकाल का तात्पर्य - द्वीन्द्रिय की अवस्थिति संख्यातकाल की बताई है, उसका अर्थ संख्यात. वर्ष, यानी संख्यात हजार वर्ष का काल। . पंचेन्द्रिय का काल - कुछ अधिक हजार सागरोपम तक पंचेन्द्रिय जीव लगातार पंचेन्द्रिय बना रहता है। यह काल नारक, तिर्यच, मनुष्य तथा देवगति इन चारों में भ्रमण करने से होता है। एकेन्द्रिय पर्याप्तजीव की लगातार अवस्थिति - एकेन्द्रिय पर्याप्त उत्कृष्ट हजार वर्ष तक एकेन्द्रिय पर्याप्त रूप से बना रहता है। इसका कारण यह है पृथ्वीकायिक की उत्कृष्ट भवस्थिति २२ हजार वर्ष की, अप्कायिक की ७ हजार वर्ष की, वायुकायिक की ३ हजार वर्ष की और वनस्पतिकायिक की १० हजार वर्ष की भवस्थिति है। ये सब मिलकर संख्यात हजार वर्ष होते हैं। द्वीन्द्रिय पर्याप्त की कायस्थिति - द्वीन्द्रिय पर्याय जीव उत्कृष्ट संख्यात वर्षों तक द्वीन्द्रिय पर्याप्त बना रहता है। द्वीन्द्रिय जीव की अवस्थिति का काल उत्कृष्ट बारह वर्ष का है, मगर सभी भवों में उत्कृष्ट स्थिति तो हो नहीं सकती। अतएव लगातार कतिपय पर्याप्त भवों को मिलाने पर भी संख्यात वर्ष ही हो सकते हैं, सैकड़ों या हजारों वर्ष नहीं। १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३७७-३७८ २. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक ३७७ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद ] [ ३६५ न्द्र पर्याप्त की कायस्थिति - उत्कृष्ट संख्यात रात्रि-दिन तक त्रीन्द्रिय पर्याप्त इसी रूप में रहता है। त्रीन्द्रिय जीव की भवस्थिति उत्कृष्ट ४९ दिन की होती है। अतएव वह लगातार कतिपय भव करे तो भी सब मिलकर वे संख्यात रात्रि - दिन ही होते हैं। चतुरिन्द्रिय पर्याप्त की कायस्थिति - उत्कृष्ट संख्यात मास तक वह चतुरिन्द्रिय पर्याप्तपर्याय से युक्त रहता है, क्योंकि चतुरिन्द्रिय की उत्कृष्ट भवस्थिति ६ महीने की है। अतएव वह लगातार कतिपय भव करे तो भी संख्यात मास ही होते हैं।" चतुर्थ कायद्वार १२८५. सकाइए णं भंते ! सकाइए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! सकाइए दुविहे पण्णत्ते । तं जहा - अणादीए वा अपज्जवसिए १ अणादीए वा सपज्जवसिए २ । [१२८५ प्र.] भगवन् ! सकायिक जीव सकायिकरूप में कितने काल तक रहता है ? [१२८५ उ.] गौतम ! सकायिक दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार - (१) अनादि - अनन्त और (२) अनादि - सान्त । १२८६. पुढविक्काइए णं ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं, असंखेज्जाओ उस्सप्पिणिओपप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ असंखेज्जा लोगा । [१२८६ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव कितने काल तक लगातार पृथ्वीकायिक पर्याययुक्त रहता है? [१२८६ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक; (अर्थात् ) काल की अपेक्षा- असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्णियों तक (पृथ्वीकायिक पर्याय वाला बना रहता है।) क्षेत्र से - असंख्यात लोक तक । १२८७. एवं आउ-तेउ-वाउक्काइया वि। [१२८७] इसी प्रकार अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक भी ( जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक अपने-अपने पर्यायों से युक्त रहते हैं ।) १२८८. वणस्सइकाइया णं ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणतं कालं, अणंताओ उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीओ १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३७८ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६] [ प्रज्ञापनासूत्रं कालओ, खेत्तओ अणंता लोगा, असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, ते णं पोग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेजइभागे। [१२८८ प्र.] भगवन् ! वनस्पतिकायिक जीव कितने काल तक लगातार वनस्पतिकायिक पर्याय में रहते हैं ? ___ [१२८८ उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक, उत्कृष्ट अनन्तकाल तक (वे) वनस्पतिकायिक पर्याययुक्त बने रहते हैं। (वह अनन्तकाल) कालत:- अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी परिमित एवं क्षेत्रतः अनन्त लोक प्रमाण या असंख्यात पुद्गलपरावर्त समझना चाहिए। वे पुद्गलपरावर्त्त आवलिका के असंख्यातवें भाग-प्रमाण १२८९. तसकाइए णं भंते ! तसकाइए त्ति ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेजवासअब्भइयाई । [१२८९ प्र.] भगवन् ! त्रसकायिक जीव त्रसकायिकरूप में कितने काल तक रहता है ? [१२८९ उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक और उत्कृष्ट संख्यातवर्ष अधिक दो हजार सागरोपम तक (त्रसकायिकरूप में लगातार बना रहता है।) १२९०. अकाइए णं भंते ! ० पुच्छा ? गोयमा ! अकाइए सादीए अपज्जवसिए । [१२९० प्र.] भगवन् ! अकायिक कितने काल तक अकायिकरूप में बना रहता है ? [१२९० उ.] गौतम ! अकायिक सादि-अनन्त होता है। १२९१. सकाइयअपजत्तए णं ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेण विउक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । [१२९१ प्र.] भगवन् ! सकायिक अपर्याप्त कितने काल तक सकायिक अपर्याप्तक रूप में लगातार रहता [१२९१ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त तक (सकायिक अपर्याप्त रूप में लगातार रहता है।) १२९२. एवं जाव तसकाइयअपज्जत्तए । [१२९२] इसी प्रकार (अप्कायिक अपर्याप्तक से लेकर) त्रसकायिक अपर्याप्तक तक समझना चाहिए। १२९३. सकाइयपज्जत्तए णं ० पुच्छा ? Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद] 1३६७ गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कासेणं सागरोवमसयपुहत्तं सातिरेगं ? [१२९३ प्र.] भगवन् ! सकायिक पर्याप्तक के विषय में (भी पूर्ववत्) पृच्छा है, (उसका क्या समाधान [१२९३ उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक सौ सागरोपमपृथक्त्व तक (वह सकायिक पर्याप्तकरूप में) रहता है। १२९४. पुढविक्काइयपजत्तए णं ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जाइं वासहस्साई। [१२९४ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक पर्याप्तक जीव के विषय में (भी पूर्ववत्) पृच्छा है ? [१२९४ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्षों तक (पृथ्वीकायिक पर्याप्तकरूप में बना रहता है।) १२९५. एवं आऊ वि। [१२९५] इसी प्रकार अप्कायिक पर्याप्तक के विषय में भी समझना चाहिए। १२९६. तेउक्काइयपज्जत्तए णं ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जाइं राइंदियाई । [१२९६ प्र.] भगवन् ! तेजस्कायिक पर्याप्तक कितने काल तक (लगातार) तेजस्कायिक पर्याप्तक बन रहता है ? [१२९६ उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात रात्रि-दिन तक (वह) तेजस्कायिकपर्याप्तकरूप में बना रहता है। १२९७. वाउक्काइयपज्जत्तए णं ० पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं संखेजाइं वाससहस्साई । [१२९७ प्र.] भगवन् ! वायुकायिक पर्याप्तक के विषय में भी (इसी प्रकार की) पृच्छा है। [१२९७ उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्षों तक (वह वायुकायिक पर्याप्तपर्याय में रहता है।) १२९८. वणस्सइकाइयपजत्तए णं ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं संखेजाइं वाससहस्साई । [१२९८ प्र.] भगवन् ! वनस्पतिकायिक पर्याप्तक के विषय में भी (पूर्ववत्) प्रश्न है। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८] | प्रज्ञापनासूत्रं [१२९८ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्षों तक (वनस्पतिकायिक पर्याप्त पर्याय में बना रहता है।) १२९९. तसकाइयपजत्तए णं पुच्छा ? गोयमा ! जहणणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमयपुहत्तं । [१२९९ प्र.] भगवन् ! जसकायिक-पर्याप्तक कितने काल तक त्रसकायिकपर्याय में बना रहता है ? [१२९९ उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक शतसागरोपम-पृथक्त्व तक (वह पर्याप्त त्रसकायिक रूप में रहता है।) १३००. सुहुमे णं भंते ! सुहुमे त्ति कालओ केवचिरं होति ? गोयमा !जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं असंखेनं कालं असंखेजाओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ असंखेजा लोगा। [१३०० प्र.] भगवन् ! सूक्ष्म जीव कितने काल तक सूक्ष्म रूप में रहता है ? [१३०० उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट असंख्यातकाल तक, (अर्थात्) कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणियों तक और क्षेत्रत: असंख्यातलोक तक (सूक्ष्म जीव सूक्ष्मपर्याय में बना रहता है।) - १३०१. सुहुमपुढविक्काइए सुहुमआउक्काइए सुहुमतेउक्काइए सुहुमवाउक्काइए सुहुमवणस्सइकाइए सुहुमणिगोदे वि जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं असंखेजं कालं, असंखेजाओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ असंखेज्जा लोगा। [१३०१] इसी प्रकार सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, सूक्ष्म अप्कायिक सूक्ष्म तेजस्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक एवं सूक्ष्म निगोद भी जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक और उत्कृष्ट असंख्यातकाल तक(अर्थात्-) कालत:- असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियों तक एवं क्षेत्रतः असंख्यात लोक तक (ये स्वस्वपर्याय में बने रहते हैं।) १३०२. सुहुमे णं भंते ! अपज्जत्तए त्ति ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं । [१३०२ प्र.] भगवन् ! सूक्ष्म अपर्याप्तक, सूक्ष्म अपर्याप्तक रूप में कितने काल तक लगातार रहता है ? [१३०२ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। १३०३. पुढविक्काइय-आउक्काइए-तेउक्काइए-वाउक्काइय-वणस्सइकाइयाण य एवं चेव। [१३०३] (सूक्ष्म) पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद ] ( अपर्याप्तक की कायस्थिति के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए ।) १३०४. पज्जत्तयाण वि एवं चेव । [१३०४] (इन पूर्वोक्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक के) पर्याप्तकों (के विषय में भी ) ऐसा ही (समझना चाहिए।) [ ३६९ १३०५. बादरे णं भंते ! बादरे त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं, असंखेज्जाओ उसप्पिणि ओसप्पिणीओ, खेत्तओ अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं । [१३०५ प्र.] भगवन् ! वादर जीव, बादर जीव के रूप में (लगातार) कितने काल तक रहता है ? [१३०५ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक (अर्थात्) कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी तक, क्षेत्रत: अंगुल के असंख्यातवें भाग-प्रमाण (बादर जीव के रूप में लगातार रहता है ।) १३०६. बादरपुढविक्काइए णं भंते ! बादरपुढविक्काइए त्ति पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ । [१३०६ प्र.] भगवन् ! बादर पृथ्वीकायिक बादर पृथ्वीकायिक रूप में कितने काल तक (लगातार) रहता है ? [१३०६ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सत्तर कोडाकोडी सागरोपम तक (बादर पृथ्वीकायिक रूप में लगातार रहता है ।) १३०७. एवं बादरआउक्काइए वि जाव बादरवाउक्काइए वि । [१३०६] इसी प्रकार बादर अप्कायिक एवं बादर वायुकायिक ( के विषय में भी समझना चाहिए ।) १३०८. बादरवणस्सइकाइए णं भंते ! बादरवणस्सइकाइए त्ति पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं जाव खेत्तओ अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं । [१३०८ प्र.] भगवन् ! बादर वनस्पतिकायिक बादर वनस्पतिकायिक के रूप में कितने काल तक रहता ! है ? [१३०८ उ.] गौतम ! ( वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक, (अर्थात्- ) कालतः - असंख्यात उत्सर्पिणी- अवसर्पिणियों तक, क्षेत्रतः अंगुल के असंख्यातवें भाग - प्रमाण (बादर वनस्पतिकायिक के रूप में रहता है।) Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७०] [प्रज्ञापनासूत्रं १३०९. पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइए णं भंते ! ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ । [१३०९ प्र.] भगवन् ! प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक (उक्त स्वपर्याय में कितने काल तक लगातार रहता है ?) [१३०९ उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट सत्तर कोटाकोटी सागरोपम तक (वह प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिकरूप में बना रहता है।) १३१०. णिगोए णं भंते ! णिगोए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अणंत कालं, अणंताओ उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अड्डाइजा पोग्गलपरियट्टा । [१३१० प्र.] भगवन् ! निगोद, निगोद के रूप में कितने काल तक (लगातार) रहता है ? [१३१० उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक, उत्कृष्ट अनन्तकाल तक, कालतः अनन्त उत्सर्पिणीअवसर्पिणियों तक, क्षेत्रतः ढाई पुद्गलपरिवर्त्त तक (वह निगोदपर्याय में बना रहता है।) १३११. बादरनिगोदे णं भंते ! बादर ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ। [१३११ प्र.] भगवन् ! बादर निगोद, बादर निगोद के रूप में कितने काल तक रहता है ? ' [१३११ उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सत्तर कोटाकोटी सागरोपम तक बादर निगोद के रूप में बना रहता है। १३१२. बादरतसकाइए णं भंते ! बादयरतसकाइए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेजवासअब्भहियाइं । [१३१२ प्र.] भगवन् ! बादर त्रसकायिक बादर त्रसकायिक के रूप में कितने काल तक रहता है ? [१३१२ उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यातवर्ष अधिक दो हजार सागरोपम तक (वह त्रसकायिक-पर्याय वाला बना रहता है।) १३१३. एतेसिं चेव अपजत्तगा सव्वे वि जहण्णेणं वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं । [१३१३] इन (पूर्वोक्त) सभी (बादर जीवों) के अपर्याप्तक जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त काल तक अपने-अपने पूर्व पर्यायों में बने रहते हैं। १३१४. बादरपज्जत्तए णं भंते ! बादरपज्जत्त ० पुच्छा? Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद ] गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसतपुहुत्तं सातिरेगं । [१३१४ प्र.] भगवन् ! बादर पर्याप्तक, बादर पर्याप्तक के रूप में कितने काल तक बना रहाता है ? [१३१४ उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक शतसागरोपमपृथक्त्व तक (बादर पर्याप्तक के रूप में रहता है ।) [ ३७१ १३१५. बादरपुढविक्वाइयपज्जत्तए णं भंते ! बादर ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जाई वाससहस्साइं । [१३१५ प्र.] भगवन् ! बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तक कितने काल तक बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तक रूप में रहता है ? [१३१५ उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्षों तक (वह बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तकरूप के रहता है ।) १३१६. एवं आउक्काइए वि । [१३१६] इसी प्रकार (बादर) अप्कायिक (के विषय में) भी (समझना चाहिए ।) १३१७. तेडक्वाइयपज्जत्तए णं भंते ! तेडक्वाइयपज्जत्तए ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जाई राइंदियाइं । [१३१७ प्र.] भगवन् ! तेजस्कायिक पर्याप्तक (बादर) तेजस्कायिक पर्याप्तक के रूप में कितने काल तक रहता है ? [१३१७ उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात रात्रि - दिन तक ( वह तेजस्कायिक पर्याप्तक के रूप में रहता है ।) १३१८. वाउक्काइए वणस्सइकाइए पत्तेयसरीरबायरवणस्सइकाइए य पुच्छा ? गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जाई वाससहस्साइं । [१३१८ प्र.] भगवन् ! वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक (पर्याप्तक) कितने काल तक अपने-अपने पर्याय में रहते हैं ? [१३१८ उ.] गौतम ! ये जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्षों तक अपने-अपने पर्याय में रहते हैं । १३१९. णिगोयपज्जत्तए बादरणिगोयपज्जत्तए य पुच्छा ? गोयमा ! दोणि वि जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२] [प्रज्ञापनासूत्रं । [१३१९ प्र.] भगवन् ! निगोदपर्याप्तक और बादर निगोदपर्याप्तक कितने काल तक निगोदपर्याप्तक के रूप में रहते हैं? [१३१९ उ.] गौतम ! ये दोनों जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त तक (स्व-स्वपर्याय में बने रहते १३२०. बादरतसकाइयपजत्तए णं भंते ! बादरतसकाइयपज्जत्तए त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसतपुहुत्तं सातिरेगं । दारं ४॥ [१३२० प्र.] भगवन् ! बादर त्रसकायिकपर्याप्तक बादर त्रसकायिकपर्याप्तक के रूप में कितने काल तक . रहता है ? [१३२० उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक शतसागरोपमपृथक्त्व पर्यन्त बादर त्रसकायिकपर्याप्तक के रूप में बना रहता है। चतुर्थ द्वार ॥४॥ विवेचन - चतुर्थ कायद्वार - प्रस्तुत छत्तीस सूत्रों (सू. १२८५ से १३२० तक) में षट्काय के विभिन्न पर्यायों की अपेक्षा से कायस्थिति (उस रूप में लगातार कालावधि) की प्ररूपणा की गई है। सकायिक की व्याख्या - जो कायसहित हो, वह सकायिक कहलाता है। यद्यपि काय के पांच भेद हैं- औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण; तथापि यहां तैजस और कार्मण काय ही समझना चाहिए, क्योंकि ये दोनों संसार-पर्यन्त रहते हैं, अन्यथा विग्रहगति में वर्तमान एवं शरीर-पर्याप्ति से अपर्याप्त जीव के तैजस और कार्मण के सिवाय अन्य शरीर नहीं होते । ऐसी स्थिति में वह जीव अकायिक हो जाएगा और मूलसूत्रोक्त संसारी और संसारपारगामी, ये दो भेद नहीं बनेंगे। मूल में सकायिक के दो भेद बताए हैं - अनादिअपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित। जो संसारपारगामी नहीं होगा, वह अभव्य अनादि-अनन्त-सकायिक है. क्योंकि उसके काय का व्यवच्छेद कदापि सम्भव नहीं। जो मोक्षगामी है. वह अनादि-सान्त है. क्योंकि वह मक्ति अवस्था में सर्वात्मना सर्वशरीरों से रहित हो जाता है। यों षटकाय की दष्टि से भी पथ्वीकायिक. अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक तथा त्रसकायिक, ये छह भेद हैं।' असंख्यातकाल की व्याख्या - कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीकाल जानना चाहिए। क्षेत्रतः असंख्यात लोक समझने चाहिए। अभिप्राय यह है कि लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश हैं। ऐसे-ऐसे (कल्पित) असंख्यात लोकाकाशों के समस्त प्रदेशों में से एक-एक समय में एक-एक प्रदेश के क्रम से अपहरण किया जाए तो जितनी उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी उस अपहरण से व्यतीत हों उतनी ही उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी यहाँ समझना चाहिए। सारांश यह है कि अधिक से अधिक इतने काल तक सूक्ष्म जीव निरन्तर सूक्ष्म पर्याय में बना रहता है। यह प्ररूपणा सांव्यवहारिक जीवराशि की अपेक्षा से समझनी चाहिए। १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३७९ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद] [३७३ अव्यवहारराशि के अन्तर्गत सूक्ष्मनिगोदिया जीव की अनादिता होने से उससे असंख्यातकाल का कथन सुसंगत नहीं हो सकता। क्षेत्र की अपेक्षा से अंगुल के असंख्यातवें भाग की व्याख्या - इसका अभिप्राय यह है कि अंगुल के असंख्यातवें भाग में जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उनका एक-एक समय में एक-एक के हिसाब से अपहरण करने पर जितनी उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी व्यतीत हों, उतनी उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी यहां जानना चाहिए। प्रश्न होता है- अंगुल के असंख्यातवें भाग जितने स्वल्प क्षेत्र के परमाणुओं का अपहरण करने में असंख्यात उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी काल किस प्रकार व्यतीत हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि क्षेत्र, काल की अपेक्षा बहुत सूक्ष्म होने से ऐसा हो सकता है। कहा भी है- काल सूक्ष्म होता है, किन्तु क्षेत्र उससे भी अधिक सूक्ष्म होता है। यह कथन बादर वनस्पतिकाय की अपेक्षा से है, क्योंकि बादर वनस्पतिकाय के अतिरिक्त अन्य . किसी बादर की इतने काल की स्थिति सम्भव नहीं है।' पंचम योगद्वार १३२१. सजोगी णं भंते ! सजोगि त्ति कालओ केवचिरं होई ? गोयमा ! सजोगी दुविहे पण्णत्ते । तं जहा- अणादीए वा अपजवसिए १ अणादीए वा सपज्जवसिए २। [१३२१ प्र.] भगवन् ! सयोगी जीव कितने काल तक सयोगीपर्याय में रहता है ? [१३२१ उ.] गौतम ! सयोगी जीव दो प्रकार के कहे हैं। वे इस प्रकार- १. अनादि-अपर्यवसित और २. अनादि-सपर्यवसित । १३२२. मणजोगी णं भंते ! मणजोगि त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । [१३२२ प्र.] भगवन् ! मनोयोगी कितने काल तक मनोयोगी अवस्था में रहता है ? [१३२२ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक मनोयोगी अवस्था में रहता है। १३२३. एवं वयजोगी वि। १. (क) वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक ३८२ (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी भा. ४, पृ. ३७४ २. (क) वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक ३८२ (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी. भा. ४, पृ. ३७७ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४] [प्रज्ञापनासूत्रं [१३२३] इसी प्रकार वचनयोगी (का वचनयोगी रूप में रहने का काल समझना चाहिए ।) १३२४. कायजोगी णं भंते ! कायजोगि त्ति०? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो ।' [१३२४ प्र.] भगवन् ! काययोगी, काययोगी के रूप में कितने काल तक रहता है ? [१३२४ उ.] गौतम ! जघन्य-अन्तर्मुहूर्त तक ओर उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक (वह काययोगीपर्याय में रहता है।) १३२५. अजोगी णं भंते ! अजोगीति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! सादीए अपज्जवसिए । दारं ५॥ [१३२५ प्र.] भगवन् ! अयोगी, अयोगीपर्याय में कितने काल तक रहता है ? [१३२४ उ.] गौतम ! (वह) सादि-अपर्यवसित (अनन्त) है। पंचमद्वार ॥ ५ ॥ विवेचन - पंचम योगद्वार - प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. १३२१ से १३२५ तक) में सयोगी, मन-वचनकाययोगी और अयोगी की स्व-स्वपर्याय में रहने की कालस्थिति सम्बन्धी प्ररूपणा की गयी है। __योग और सयोगी-अयोगी - मन, वचन और काय का व्यापार योग कहलाता है। वह योग जिसमें विद्यमान हो, वह सयोगी कहलाता है। जैनसिद्धान्त की दृष्टि से सयोगी-अवस्था तेरहवें गुणस्थानपर्यन्त रहती . है। उसके पश्चात् चौदहवें गुणस्थान में जीव अयोगी हो जाता है। सिद्ध-अवस्था भी अयोगी अवस्था है, जिसकी आदि तो है, पर अन्त नहीं हैं, क्योंकि सिद्धावस्था प्राप्त होने के बाद योगों से सर्वथा छुटकारा हो जाता है। सयोगी जीव के दो भेद- अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त । जीव भविष्य में कभी मोक्ष प्राप्त नहीं करेगा, सदैव कम से कम एक योग से युक्त बना रहेगा, ऐसा अभव्य जीव अनादि-अनन्त सयोगी है। जो जीव भविष्य में कभी मोक्ष प्राप्त करेगा, वह अनादि-सान्त सयोगी है। वह भव्य जीव है। मनोयोगी की मनोयोगिपर्याय में कालस्थिति - मनोयोगी जीव जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक लगातार मनोयोगीपर्याय से युक्त रहता है। जब कोई जीव औदारिककाययोग के द्वारा प्रथम समय में मनोयोग्य पुद्गलों को ग्रहण करके, दूसर समय में उन्हें मन के रूप में परिणत करके त्यागता है और तृतीय समय में उपरत हो (रूक) जाता है, या मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, तब वह एक समय तक मनोयोगी रहता है। उत्कृष्ट : अन्तर्मुहूर्त तक मनोयोगी रहता है। जब जीव निरन्तर मनोयोग्य पुद्गलों का ग्रहण और त्याग करता है, तब वह अन्तर्मुहूर्त तक ही ऐसा करता है। उसके पश्चात् अवश्य ही जीव उससे स्वभावतः उपरत हो जाता है। तत्पश्चात् वह दोबारा मनोयोग्य पुद्गलों का ग्रहण एवं निसर्ग करता है, किन्तु काल की सूक्ष्मता के कारण कदाचित् उसे बीच के व्यवधान का संवेदन नहीं होता। तात्पर्य यह है कि मनोयोग्य पुद्गलों के ग्रहण Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद ] [ ३७५ और त्याग का यह सिलसिला अन्तर्मुहूर्त तक लगातार चालू रहता है । उसके बाद अवश्य ही उसमें व्यवधान पड़ जाता है, क्योंकि जीव का स्वभाव ही ऐसा है। इसलिए यहाँ मनोयोग का अधिक अन्तर्मुहूर्त कहा गया है। अधिक काल वचनयोगी की कालस्थिति - वचनयोगी की भी कालस्थिति मनोयोगी के समान है । वह भी जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। जीव प्रथम समय में काययोग के द्वारा भाषायोग्य द्रव्यों को ग्रहण करता है, द्वितीय समय में उन्हीं को भाषारूप में परिणत करके त्यागता है और तृतीय समय में वह उपरत हो जाता है, या मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार वाग्योगी को एक समय लगता है। इसका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त हैं, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त तक वह भाषायोग्य पुद्गलों का ग्रहण- निसर्ग करता हुआ अवश्य उपरत हो ता है। जीव का स्वभाव ही ऐसा है । काययोगी की कालस्थिति - काययोगी जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक लगातार काययोगी बना रहता है। द्वीन्दियादि जीवों में वचनयोग भी पाया जाता है। जब वचनयोग या मनोयोग भी होता है, उस समय काययोग की प्रधानता नहीं होती। अत: वह सादि-सान्त होने से जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक काययोग में रहता है। उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक काययोग रहता है । वनस्पतिकाल का परिणाम पहले बताया जा चुका है। वनस्पतिकायिक जीवों में केवल काययोग ही पाया जाता है, वचनयोग और मनोयोग नहीं होता है । इस कारण अन्य योग का अभाव होने से उनमें तब तक निरन्तर काययोग ही रहता है, जब तक उन्हें त्रसपर्याय प्राप्त न हो जाए। छा १३२६. सवेदए णं भंते ! सवेदए त्ति ० ? गोयमा ! सवेदए तिविहे पण्णत्ते । तं जहा- अणादीए वा अपज्जवसिए १ अणादी वा सपज्जवसिए २ सादीए वा सपज्जवसिए ३ । तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंत कालं, अनंताओ उस्सप्पिणी- ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अवड्ढं पोग्गलपरियहं । [१३२६ प्र.] भगवन् ! सवेद जीव कितने काल तक सवेदरूप में रहता है ? [१३२६ उ.] गौतम ! सवेद जीव तीन प्रकार के कहे गए हैं। यथा- ( १ ) अनादि - अनन्त, (२) अनादि-सान्त और (३) सादि - सान्त । उनमें से जो सादि- सान्त है, वह जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्टतः अनन्तकाल तक ( निरन्तर सवेदकपर्याय से युक्त रहता है ।) (अर्थात् - उत्कृष्टतः) काल से अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियों तक यथा क्षेत्र की अपेक्षा से देशोन अपार्द्धपुद्गलपरावर्त्त तक (जीव सवेद रहता है।) १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३८२ २. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३८२-३८३ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६] [प्रज्ञापनासूत्रं १३२७. इत्थिवेद णं भंते ! इत्थिवेदे त्ति कालओ केवचिरं होति ? गोयमा ! एगेणं आदेसेणं जहण्णेणं एक्कं सययं उक्कोसेणं दसुत्तरं पलिओमसतं पुव्वकोडिपुहुत्तमब्भहियं १ एगेणं आदेसेणं एगं समयं उक्कोसेणं अट्ठारस पलिओवमाइं पुव्वकोडिपुहुत्तमब्भइयाइं २ एगेणं आदेसेणं जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं चोद्दस पलिओवमाई पुव्वकोडिपुहुत्तमब्भइयाइं ३ एगेणं आदेसेणं जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं पलिओवमसयं पुव्वकोडिपुहुत्तमब्भइयं ४ एगेणं आदेसेणं जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं पलिओवमपुहुत्तं पुव्वकोडिपुहुत्तमब्भइयं ५। [१३२७ प्र.] भगवन् ! स्त्रीवेदक जीव स्त्रीवेदकरूप में कितने तक रहता है ? [१३२७ उ.] गौतम ! १-एक अपेक्षा (आदेश) से (वह) जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक एक सौ दस पल्योपम तक, २-एक अपेक्षा से जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक अठारह पल्योपम तक, ३-एक अपेक्षा से जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक चौदह पल्योपम तक, ४-एक अपेक्षा से जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक सौ पल्योपम तक, ५-एक अपेक्षा से जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक पल्योपमपृथक्त्व तक स्त्रीवेदी स्त्रीवेदीपर्याय में लगातार रहता है। १३२८. पुरिसवेदे णं भंते ! पुरिसवेदे त्ति ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसतपुहत्तं सातिरेगं। . [१३२८ प्र.] भगवन् ! पुरुषवेदक जीव पुरुषवेदकरूप में (लगातार) कितने काल तक रहता है ? [१३२८ उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक सागरोपमशतपृथक्त्व तक (वह पुरुषवेदकरूप में रहता है।) १३२९. नपुंसगवेदे णं भंते ! णपुंसगवेदे त्ति० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं एवं समयं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। [१३२९ प्र.] भगवन् ! नपुंसकवेदक (लगातार) कितने काल तक नपुंसकवेदकपर्याययुक्त बना रहता [१३२९ उ.] गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट वनस्पतिकालपर्यन्त वह लगातार नपुंसकवेदकरूप में रहता है। १३३०. अवेदए णं भंते ! अवेदए त्ति० पुच्छा ? गोयमा ! अवेदए दुविहे पण्णत्ते । तं जहा-सादीए वा अपज्जवसिए १ सादीए वा सपज्जवसिए २। तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं। दारं ६॥ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद] [३७७ [१३३० प्र.] भगवन् ! अवेदक, अवेदकरूप में कितने काल तक रहता है ? [१३३० उ.] गौतम ! अवेदक दो प्रकार के कहे गए हैं, वह इस प्रकार- (१) सादि-अनन्त और (२) सादि-सान्त । उनमें से जो सादि-सान्त है, वह जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक (निरन्तर अवेदकरूप में रहता है।) छठा द्वार ॥ ५॥ विवेचन - छठा वेदद्वार - प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. १३२६ से १३३० तक) में सवेदक, अवेदक और स्त्री-पुरूष-नपुंसकवेदी की कायस्थिति का निरूपण किया गया है। - त्रिविध सवेदक-(१) अनादि-अपर्यवसित - जो जीव कभी उपशमश्रेणी अथवा क्षपकश्रेणी को प्राप्त नहीं करेगा, वह अनादि-अपर्यवसित (अनन्त) कहलाता है, उसके वेद के उदय का कदापि विच्छेद नहीं होगा। (२) अनादि-सपर्यवसित- जिसकी आदि न हो, पर अन्त हो। जो जीव कभी न कभी उपशमश्रेणी अथवा क्षपकश्रेणी को प्राप्त करेगा, किन्तु जिसने अभी तक कभी प्राप्त नहीं की है, वह अनादि-सपर्यवसित सवेदक है। ऐसे जीव के उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणी प्राप्त कर लेने पर वेद का उदय हट जाता है। (३) सादि-सपर्यवसित- जो जीव उपशमश्रेणी को प्राप्त हो कर वेदातीत दशा प्राप्त कर चुकता है, किन्तु उपशमश्रेणी से गिर पुनः सवेद-अवस्था प्राप्त कर लेता है, वह सादि-सपर्यवसित सवेदक कहलाता है। सादि-सपर्यवसित सवेदक की कालस्थिति - ऐसे सवेदक का कालमान जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट अनन्तकाल (मूलपाठोक्त कालिकपरिमाण) तक सवेदकपर्याय से युक्त निरन्तर बना रहता है। तात्पर्य यह है कि जब कोई जीव उपशमश्रेणी पर आरूढ़ हो कर तीनों वेदों का उपशम करके अवेदी बन जाता है, किन्तु उपशमश्रेणी से पतित हो कर फिर सवेदक अवस्था को प्राप्त करके पुनः झटपट उपशमश्रेणी को, अथवा कार्मग्रन्थिकों के मतानुसार क्षपकश्रेणी को प्राप्त करता है और फिर तीनों वेदों का अन्तर्मुहूर्त में ही उपशम या क्षय कर देता है, तब वह जीव अन्तर्मुहूर्त तक ही सवेद-अवस्था में रहता है। उत्कृष्ट देशोन अर्धपुद्गलपरावर्त तक जीव सवेद रहता है। क्योंकि उपशमश्रेणी से पतित हो कर वह जीव इतने काल तक ही संसार में परिभ्रमण करता है। इसलिए सादि-सान्त सवेदक जीव का पूर्वोक्त उत्कृष्ट कालमान सिद्ध हो जाता स्त्रीवेदी की पांच अपेक्षाओं से कालस्थिति का स्पष्टीकरण - स्त्रीवेदी का जघन्य कालमान एक समय का है, वह इस प्रकार है- कोई स्त्री उपशमश्रेणी में तीनों वेदों का उपशम करके अवेदक पर्याय प्राप्त करके, तत्पश्चात् नीचे गिर कर एक समय तक स्त्रीवेदक का अनुभव करे, पुनः दूसरे समय में काल करके देवों में उत्पन्न हो जाए। वहाँ वह जीव पुरूषवेदी होता है, स्त्रीवेदी नहीं। इस प्रकार स्त्रीवेदी का जघन्यकाल एक समय मात्र सिद्ध हो जाता है। प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३८३ २. वही, मलय. वृत्ति. पत्रांक ३८४ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८] [प्रज्ञापनासूत्रं (१) प्रथम आदेशानुसार - उत्कृष्टत: पृथक्त्वकोटिपूर्व अधिक एक सौ दस पल्योपम कालमान का स्पष्टीकरणा इस प्रकार है- कोई जीव करोड़ पूर्व की आयुवाली स्त्रियों में या तिर्यचनिमों में पांच-छह भव करके ईशानकल्प में पचपन पल्योपम की आयु की उत्कृष्टस्थिति वाली अपरिगृहीता देवियों में देवीरूप में उत्पन्न हो और आयु का क्षय होने पर वहाँ से च्यव कर पुनः कोटिपूर्व की आयु वाली स्त्रियों में अथवा तिर्यचनियों में स्त्रीरूप में उत्पन्न हो, उसके पश्चात् पुनः दूसरी बार ईशानकल्प में पचपन पल्योपम की उत्कृष्ट स्थिति वाली परिगृहीता देवियों में देवीरूप में उत्पन्न हो उसके पश्चात् तो उसे अवश्य ही दूसरे वेद की प्राप्ति होती है। इन प्रकार उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक एक सौ दस पल्योपम तक निरन्तर स्त्रीवेदी का स्त्रीवेदपर्याय से युक्त होना सिद्ध होता है। (२) द्वितीय आदेशानुसार - पूर्वकोटिपृथक्त्व-अधिक अठारह पल्योपम का स्पष्टीकरणकोई जीव पूर्ववत् करोड़पूर्व की आयु वाली नारियों या तिर्यचनियों में पांच-छह भवों का अनुभव करके पूर्वोक्त प्रकार से दो बार ईशानदेवलोक में उत्कृष्ट स्थिति वाली देवियों में उत्पन्न हो, वह भी परिगृहीता देवियों में उत्पन्न हो, अपरिगृहीता देवियों में नहीं। ऐसी स्थिति में स्त्रीवेदी की उत्कृष्ट कालस्थिति लगातार पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक अठारह पल्योपम की सिद्ध होती है। __ (३) तृतीय आदेशानुसार - उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व-अधिक चौदह पल्योपम कालमान का स्पष्टीकरण - कोई जीव सौधर्मदेवलोक में सात पल्योपम की उत्कृष्ट आयु वाली परिगृहीता देवियों में दो बार उत्पन्न होता है। इस प्रकार दो बार देवीभवों के चौदह पल्योपम और नारियों या तिर्यचनियों के भवों के कोटिपूर्वपृथक्त्व अधिक स्त्रीवेदी का अस्तित्व होने से स्त्रीवेदी की निरन्तर कालावस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक चौदह पल्योपम तक सिद्ध होती है। ___(४) चतुर्थ आदेशानुसार - पूर्वकोटिपृथक्त्व-अधिक पल्योपम कालमान का स्पष्टीकरणकोई जीव सौधर्म देवलोक में ५० पल्योपम की उत्कृष्ट आयु वाली अपरिगृहीता देवियों में पूर्वोक्त प्रकार से दो बार देवीरूप में उत्पन्न हो, तो स्त्रीवेदी की उत्कृष्ट कालावस्थिति लगातार पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक सौ पल्योपम की सिद्ध हो जाती है। (५) पंचम आदेशानुसार - उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक पल्योपमपृथक्त्व कालमान का स्पष्टीकरण - नाना भवों में भ्रमण करते हुए कोई भी जीव अधिक पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक से अधिक पल्योपमपृथक्त्व तक ही लगातार स्त्रीवेदी रह सकता है, इससे अधिक नहीं, क्योंकि पूर्वकोटि की आयु वाली नारियों में या तिर्यञ्चनियों में सात भवों का अनुभव करके आठवें भव में देवकुरु आदि क्षेत्रों में तीन पल्योपम की स्थिति वाली स्त्रियों में स्त्रीरूप में उत्पन्न हो, तत्पश्चात् काल करके सौधर्मदेवलोक में जघन्य स्थिति वाली देवियों में देवीरूप से उत्पन्न हो तो तदनन्तर अवश्य ही वह जीव दूसरे वेद को प्राप्त हो जाता है। इस दृष्टि से स्त्रीवेदी की उत्कृष्ट स्थिति लगातार पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक पल्योपमपृथक्त्व सिद्ध हो जाती है। १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३८४-३८५ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद ] [ ३७९ अवेदक जीव की स्थिति अवेदक जीव दो प्रकार के हैं- सादि - अपर्यवसित और सादि - सपर्यवसित । जो जीव क्षपक श्रेणी को प्राप्त करके अवेदी हो जाता है, वह सादि-अपर्यवसित अवेदी कहलाता है, क्योंकि ऐसा जीव फिर कभी सवेदी नहीं हो सकता। जो जीव उपशम श्रेणी को प्राप्त करके अवेदक होता है, वह सादि - सपर्यवसित कहलाता है, क्योंकि उसकी अवेद - अवस्था की आदि भी है और गिर कर नौवें गुणस्थान में आने पर अन्त भी हो जाता है। इनमें से जो सादि सपर्यवसित अवेदक है, वह जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक निरन्तर अवेदक रहता है, क्योंकि जो जीव एक समय तक अवेदक रह कर दूसरे ही समय में मर कर देवगति में जन्म लेता है, वह पुरुषवेद का उदय होने से सवेदक हो जाता है। इस कारण यहाँ अवेदक का कालमान जघन्य एक समय कहा है। उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कहने का कारण यह है कि अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् श्रेणी से पतित होने पर उसके वेद का उदय हो जाता है । नपुंसकवेदी की उत्कृष्ट कालावस्थिति - नपुंसकवेदी की उत्कृष्ट कालावस्थिति वनस्पतिकाल तक अर्थात्- अनन्तकाल तक की बताई है, उसका कारण यह है कि वनस्पति के जीव नपुंसकवेदी होते हैं और उनका काल अनन्त है । सातवाँ कषायद्वार - १३३१. सकसाई णं भंते ! सकसाईति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! सकसाई तिविहे पण्णत्ते । तं जहा- अणादीए वा अपज्जवसिए १ अणादीए वा सपज्जवसिए २ सादीए वा सपज्जवसिए ३ जाव (सु. १३२६ ) अवड्डुं पोग्गलपरियट्टं देसूणं । [१३३१ प्र.] भगवन् ! सकषायी जीव कितने काल तक सकषायीरूप में रहता है ? [१३३१ उ.] गौतम ! सकषायी जीव तीन प्रकार के कहे हैं, वे इस प्रकार - ( १ ) अनादि अपर्यवसित, (२) अनादिं-सपर्यवसित और (३) सादि - सपर्यवसित। इनमें से जो सादि - सपर्यवसित है, उसका कथन सू. १३२६ में उक्त सादि-सपर्यवसित सवेदक के कथनानुसार यावत् क्षेत्रतः देशोन अपार्द्ध पुद्गलपरावर्त तक (करना चाहिए।) १. [१३३२ उ.] गौतम ! ( वह) जघन्यत: भी उत्कृष्टत: भी अन्तर्मुहूर्त तक ( क्रोधकषायी रूप में रहता है ।) इसी प्रकार यावत् (मानकषायी और) मायाकषायी (की कालावस्थिति कहनी चाहिए । ) २. १३३२. कोहकसाई णं भंते ! कोहकसाई त्ति० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । एवं जाव मायकसाई । [१३३२ प्र.] भगवन् ! क्रोधकषायी क्रोधकषायीपर्याय से युक्त कितने काल तक रहता है ? (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३८५ (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भाग ४, पृष्ठ ३९९-४०० Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८०] [प्रज्ञापनासूत्रं १३३३. लोभकसाई णं भंते ! लोभ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं एवं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं। [१३३३ प्र.] भगवन् ! लोभकषायी, लोकषायी के रूप में कितने काल तक (लगातार) रहता है ? [१३३३ उ.] गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक (लोभकषायी निरन्तर लोभकषायीपर्याय से युक्त रहता है।) १३३४. अकसाई णं भंते ! अकसाई ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! अकसाई दुविहे पण्णत्ते। तं जहा - सादीए वा अपज्जवसिए १ सादीए वा सपज्जवसिए २। तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं। दारं ७॥ [१३३४ प्र.] भगवन् ! अकषायी, अकषायी के रूप में कितने काल तक रहता है ? [१३३४ उ.] गौतम ! अकषायी दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार - (१) सादि-अपर्यवसित और (२) सादि-अपर्यवसित। इनमें से जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक (अकषायीरूप में रहता है।) - सप्तम द्वार ॥७॥ __ विवेचन - सप्तम कषायद्वार - प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. १३३१ से १३३४ तक) में सकषायी, अकषायी तथा क्रोधदिकषायी के स्व-स्वपर्याय में निरन्तर अवस्थित रहने का कालमान बताया गया है। त्रिविध सकषायी की व्याख्या- जो जीव कषायसहित होता है, वह सकषायी कहलाता है। कषाय जीव का एक विकारी परिणाम है। सकषायी जीव तीन प्रकार के होते हैं- (१) अनादि-अनन्त- जो जीव उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणी को कदापि प्राप्त नहीं करेगा, वह अनादि-अनन्त सकषायी है, क्योंकि उसके कभी विच्छेद नहीं हो सकता।(२)अनादि-सान्त- जो जीव कभी उपशमश्रेणी या क्षपक श्रेणी को प्राप्त करेगा, वह अनादि-सान्त सकषायी है, क्योंकि उपशमश्रेणी अथवा क्षपकश्रेणी प्राप्त करने पर ग्यारहवें गुणस्थान में या बारहवें गुणस्थान में उसके कषायोदय का विच्छेद हो जाता है।(३) सादि-सान्तजो जीव उपशमश्रेणी प्राप्त करके और अकषायी होकर पुन: उपशमश्रेणी से प्रतिपतित होकर सकषायी हो जाता है, वह सादि-सान्त सकषायी कहलाता है। क्योंकि उसके कषायोदय की आदि भी है और भविष्य में पुनः कषायोदय का अन्त भी हो जाएगा। इनमें जो सादि-सान्त सकषायी है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक निरन्तर सकषायी रहता है। इस विषय में अनन्तकाल का काल और क्षेत्र की दृष्टि से परिमाण और तद्विषयक युक्ति १. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३८६ (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भाग ४, पृ. ४०४ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँकायस्थितिपद] ३८१ सवेदी की तरह समझनी चाहिए। क्रोध-मान-मायाकषायी की कालावस्थिति - क्रोध, मान और माया कषाय से युक्त जीव निरन्तर क्रोधादि कषायी के रूप में अन्तर्मुहूर्त तक ही रहते हैं, क्योंकि क्रोधदि किसी एक कषाय का उदय (विशिष्ट उपयोग) कम से कम और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक ही रह सकता है। जीव का स्वभाव ही ऐसा है कि क्रोधादि कषाय का उदय अन्तर्मुहूर्त के अधिक नहीं रहता। लोभकषायी जीव की कालावस्थिति - जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक लोभकषायी, लोभकषायी के रूप में निरन्तर रहता है। जब कोई उपशमक जीव उपशमश्रेणी का अन्त होने पर (ग्यारहवें गुणस्थान में) उपशान्तराग होने के बाद उपशमश्रेणी से गिरता है और लोभ के अंश के वेदन के प्रथम समय में ही मृत्यु को प्राप्त होकर देवलोक में उत्पन्न होता है तथा क्रोधकषायी, मानकषायी और मायाकषायी होता है, उस समय एक समय तक लोभकषायी पाया जाता है। ___ प्रश्न किया जा सकता है कि जो युक्ति लोभकषाय के सम्बन्ध में दी गई है, उसी युक्ति के अनुसार क्रोधादि का भी जघन्य एक समय तक रहना क्यों नहीं बतलाया गया ? इसका समाधान यह है कि यद्यपि उपशमश्रेणी से गिरता हुआ जीव क्रोधकषाय के वेदन के प्रथम समय में, मान के वेदन के प्रथम समय में अथवा माया के वेदन के प्रथम समय में मृत्यु पाकर देवलोक में उत्पन्न होता है, तथापि स्वभावशात् जिस कषाय के उदय के साथ जीव ने काल किया है, वही कषाय आगामी भव में भी अन्तर्मुहूर्त तक रहती है। इसी से अधिकृत सूत्र. के प्रामण्य से ज्ञात होता है कि क्रोध, मान और माया कषाय अनेक समय तक रहती है। अकषायी की कालावस्थिति - अकषायी-विषयक सूत्र, अवेदक सूत्र की युक्ति के अनुसार समझ लेना चाहिए। क्षपकश्रेणी प्राप्त अकषायी सादि-अनन्त होता है, क्योंकि क्षपकश्रेणी से उसका प्रतिपात नहीं होता। किन्तु जो उपशमश्रेणी-आरूढ़ होकर अकषायी होता है, वह सादि-सान्त होता है। अत: जघन्य एक समय तक अकषायपर्याय से युक्त रहता है। एक समय अकषायी होकर दूसरे समय में वह मर कर तत्काल (उसी समय में) देवलोक में उत्पन्न होता है और कषाय के उदय से सकषायी हो जाता है। इस कारण अकषायित्व का जघन्यकाल एक समय का है। उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक वह अकषायी रहता है, तत्पश्चात् उपशमश्रेणी से अवश्य ही पतित होकर सकषायी हो जाता है। आठवाँ लेश्याद्वार १३३५. सलेस्से णं भंते ! सेलेसे त्ति० पुच्छा ? गोयमा ! सलेसे दुविहे पण्णतते । तं जहा- अणाादीए वा अपज्जवसिए १ अणादीए वा सपज्जवसिए २। १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३८६ २. प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भाग ४, पृ. ४०८ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२] [प्रज्ञापनासूत्रं [१३३५ प्र.] भगवन् ! सलेश्यजीव सलेश्य-अवस्था में कितने काल तक रहता है ? [१३३५ उ.] गौतम ! सलेश्य दो प्रकार के कहे गए हैं । वे इस प्रकार- (१) अनादि-अपर्यवसित और (२) अनादि-सपर्यवसित। १३३६. कण्हलेसे णं भंते ! कण्हलेसे त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमब्भइयाई। [१३३६ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वाला जीव कितने काल तक कृष्णलेश्या वाला रहता है ? [१३३६ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम तक (लगातार कृष्णलेश्या वाला रहता है)। १३३७. णीललेसे णं भंते ! णाीललेसे त्ति० पुच्छा. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहूत्तं, उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं पलिओवमासंखेजइभागब्भइयाई। [१३३७ प्र.] भगवन् ! नीललेश्या वाला जीव कितने काल तक नीललेश्या वाला रहता है ? [१३३७ उ.] गौतम ! (वह) जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दस सागरोपम तक (लगातार नीललेश्या वाला रहता है)। १३३८. काउसस्से णं० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि सागरोवमाइं पलिओवमासंखेज्जइभागब्भइयाई। [१३३८ प्र.] भगवन् ! कापोतलेश्यावान् जीव कितने काल तक कापोतलेश्या वाला रहता है ? [१३३८ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन सागरोपम तक (कापोतलेश्या वाला लगातार रहता है)। १३३९. तेउलेस्सेणं० पुच्छाा? गोयमा ! जहण्णेणां अंतोमुहत्तं, उक्काोसेणं दो सागरोवमाइं पलिओवमासंखेज्जइभागब्भइयाई। [१३३९ प्र.] भगवन् ! तेजोलेश्यावान् जीव कितने काल तक तेजोलेश्या वाला रहता है ? [१३३९ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दो सागरोपम तक (तेजोलेश्यायुक्त रहता है)। १३४०. पम्हलेस्से णं० पुच्छा? Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद |३८३ गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तब्भइयाई। [१३४० प्र.] भगवन् ! पद्मलेश्यावान् जीव कितने काल तक पद्मलेश्या वाला रहता है ? [१३४० उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक दस सागरोपम तक (पद्मलेश्या से युक्त रहता है)। १३४१. सुक्कलेस्से णं भंते ! ० पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं अंतोमुहत्तब्भइयाई । [१३४१ प्र.] भगवन् ! शुक्ललेश्यावान् जीव कितने काल तक शुक्ललेश्या वाला रहता है ? [१३४१ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम तक (शुक्ललेश्या वाला रहता है)। १३४२. अलेस्से णं० पुच्छा? गोयमा ! सादीए अपज्जवसिए । दारं ८॥ [१३४२ प्र.] भगवन् ! अलेश्यी जीव कितने काल तक अलेश्यीरूप में रहता है ? [१३४२ उ.] गौतम ! (अलेश्य-अवस्था) सादि-अपर्यवसित है। अष्टम द्वार ॥८॥ विवेचन - अष्टम लेश्याद्वार - प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. १३३५ से १३४२ तक) में सलेश्य, अलेश्य तथा कृष्णादि षट्लेश्या वाले जीवों का स्व-स्व-पर्याय में रहने का कालमान प्ररूपित किया गया है। द्विविध सलेश्य जीवों की कालावस्थिति - जो लेश्या से युक्त हों, वे सलेश्य कहलाते हैं। वे दो प्रकार के हैं- (१) अनादि-अपर्यवसित - जो कदापि संसार का अन्त नहीं कर सकते, (२) अनादिसपर्यवसित- जो संसारपारगामी हों। लेश्याओं का जघन्य एवं उत्कृष्ट काल - तिर्यञ्चों और मनुष्यों के लेश्याद्रव्य अन्तर्मुहूर्त तक रहते हैं, उसके बाद अवश्य ही बदल जाते हैं। किन्तु देवों और नारकों के लेश्याद्रव्य पूर्वभव सम्बन्धी अन्तिम अन्तर्मुहूर्त से प्रारम्भ होकर परभव के प्रथम अन्तर्मुहूर्त तक स्थायी रहते हैं। इसलिए लेश्याओं का जघन्यकाल (अन्तर्मुहूर्त) सर्वत्र मनुष्यों और तिर्यञ्चों की अपेक्षा से तथा उत्कृष्ट काल देवों और नारकों की अपेक्षा से जानना चाहिए। यहां उत्कृष्ट लेश्याकाल विभिन्न प्रकार का है। वह इस प्रकार है - कृष्णलेश्यी का उत्कृष्टकाल - कृष्णलेश्या का उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम का कहा है, वह सातवीं नरकभूमि की अपेक्षा से जानना चाहिए। क्योंकि सप्तम नरकपृथ्वी के नारक कृष्णालेश्या वाले होते हैं और उनकी उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की होती है तथा पूर्वभव और उत्तरभव सम्बन्धी दो १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३८६ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४] अन्तर्मुहूर्त हैं, वे दोनों मिलकर भी अन्तर्मुहूर्त ही होते हैं, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त के भी असंख्य भेद हैं। नीलेश्यी का उत्कृष्टकाल - पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दस सागरोपम का है। यह उत्कृष्ट कालमान पांचवीं नरकपृथ्वी की अपेक्षा से समझना चाहिए। क्योंकि पांचवें नरक के प्रथम पाथड़े (प्रस्तट) में नीललेश्या होती है। उक्त पाथड़े में उपर्युक्त स्थिति होती है। पूर्वभव और उत्तरभव सम्बन्धी दोनों अन्तर्मुहूर्त पल्योपम के असंख्यातवें भाग में ही सम्मिलित हो जाते हैं। अतएव उनकी पृथक् विवक्षा नहीं की गई है। कापोतलेश्यी जीव का उत्कृष्टकाल - पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन सागरोपम कहा गया है। वह तीसरी नरकपृथ्वी की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि तीसरी नरकपृथ्वी के प्रथम पाथड़े में इतनी स्थिति है और उसमें कापोतलेश्या भी होती हैं। तेजोलेश्यी जीव का उत्कृष्टकाल - पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दो सागरोपम कहा गया है। यह ईशान देवलोक की अपेक्षा से समझना चाहिए। क्योंकि ईशान देवलोक के देवों में तेजोलेश्या होती है और उनकी उत्कृष्ट स्थिति भी यही है । पद्मलेश्यी जीव का उत्कृष्टकाल - अन्तर्मुहूर्त अधिक दस सागरोपम का कहा गया है। वह ब्रह्मलोक कल्प की अपेक्षा से समझना चाहिए। ब्रह्मलोक के देव पद्मलेश्या वाले होते हैं और उनकी उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम की है। पूर्वभव और उत्तरभव सम्बन्धी दोनों अन्तर्मुहूर्त एक ही अन्तर्मुहूर्त में समाविष्ट हो जाते हैं, इसी कारण यहाँ अन्तर्मुहूर्त अधिक कहा गया है। शुक्लेश्यावान् का उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम कहा गया है । यह कथन अनुत्तरविमानवासी देवों की अपेक्षा से समझना चाहिए । क्योंकि उनमें शुक्ललेश्या होती है और उनकी उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की है । अन्तर्मुहूर्त अधिक पूर्वोक्त युक्ति से समझ लेना चाहिए ।" [ प्रज्ञापनासूत्रं १. - अलेश्य जीवों की कालावस्थिति- अलेश्य जीव अयोगीकेवली और सिद्ध होते हैं, वे सदाकाल लेश्यातीत रहते हैं। इसलिए अलेश्य अवस्था को सादि-अनन्त कहा गया है। नौवाँ सम्यक्त्वद्वार १३४३. सम्मद्दिट्ठी णं भंते ! सम्मद्दिट्टि० केवचिरं होइ ? गोमा ! सम्मट्ठी दुविहे पण्णत्ते । तं जहा (क) 'पंचमियाए मिस्सा ।' (ख) 'तईयाए मीसिया ।' (ग) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३८७ २. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३८७ - सादीए वा अपज्जवसिए १ सादीए वा Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद] [३८५ सपज्जवसिए २। तत्था णं जे से सादीए सपज्जवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं, छावडिं सागरोवमाइँ सातिरेगाई। [१३४३ प्र.] भगवन् ! सम्यग्दृष्टि कितने काल तक सम्यग्दृष्टिरूप में रहता है ? __ [१३४३ उ.] गौतम ! सम्यग्दृष्टि दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार- (१) सादि-अपर्यवसित और (२) सादि-सपर्यवसित। इनमें से जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक छियापसठ सागरोपम तक (सादि-सपर्यवसित सम्यग्दृश्टि रूप में रहता है।) १३४४. मिच्छद्दिट्ठी णं भंते ! ० पुच्छा? - गोयमा ! मिच्छट्ठिी तिविहे पण्णत्ते । तं जहा- अणादीए वा अपज्जवसिए १ अणाईए वा सपज्जवसिएं २ सादीए वा सपजवसिए ३। तत्थ णं जे सादीए सपजवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंत कालं, अणंताओ उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीओ कालओ,खेत्तओ अवडं पोग्गलपरियट्टे देसूणं । __ [१३४४ प्र.] भगवन् ! मिथ्यादृष्टि कितने काल तक मिथ्यादृष्टिरूप में रहता है ? [१३४४ उ.] गौतम ! मिथ्यादृष्टि तीन प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार- (१) अनादि-अपर्यवसित, (२) अनादि-सपर्यवसित और (३) सादि-सपर्यवसित । इनमें से जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक; (अर्थात्) काल की अपेक्षा से अनन्त उत्सर्पिणो-अवसर्पिणियों तक और क्षेत्र की अपेक्षा से देशोन अपार्द्ध पुद्गल-परावर्त तक (मिथ्यादृष्टि पर्याय से युक्त रहता है।) १३४५. सम्मामिच्छट्टिी ण० पुच्छा ? . गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । दारं ९॥ [१३४५ प्र.] भगवन् ! सम्यग्मिथ्यादृष्टि कितने काल तक सम्यमिथ्यादृष्टि बना रहता है ? [१३४५ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त तक सम्यग्मिथ्यादृष्टिपर्याय में , रहता है। . विवेचन- नौवाँ सम्यक्त्वद्वार - प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. १३४३ से १३४५ तक) में सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि इन तीनों के स्व-स्वपर्याय को कालस्थिति का निरूपण किया गया है। सम्यग्दृष्टि की व्याख्या - जिसको दृष्टि सम्यक्, यथार्थ या अविपरीत हो अथवा जिनप्रणीत वस्तुतत्त्व पर जिसकी श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि सम्यक् हो, उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं। सम्यग्दृष्टि दो प्रकार के होते हैं- सादि-अनन्त- जिसे क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है, वह सादि अनन्त सम्यग्दृष्टि है क्योंकि एक बार उत्पन्न होने पर क्षायिक सम्यक्त्व का विनाश नहीं होता।क्षायोपशमिक और औपशमिक सम्यक्त्व की अपेक्षा से सम्यग्दृष्टि सादि-सान्त होता है, क्योंकि ये दोनों सम्यक्त्व अनन्त Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६] [प्रज्ञापनासूत्रं नहीं, सान्त हैं। औपशमिक समयक्त्व अन्तर्मुहूर्त तक और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व छियासठ सागरोपम तक रहता है। इसी अपेक्षा से कहा गया है कि सादि-सान्त सम्यग्दृष्टि जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक सम्यग्दृष्टिपर्याययुक्त रहता है, उसके पश्चात् उसे मिथ्यात्व की प्राप्ति हो जाती है। यह कथन औपशमिक सम्यक्त्व की दृष्टि से है। उत्कृष्ट किंचित् अधिक ६६ सागरोपम तक सम्यग्दृष्टि बना रहता है। यह कथन क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की अपेक्षा से है। यदि कोई जीव दो बार विजयादि विमानों में सम्यक्त्व के साथ उत्पन्न हो अथवा तीन बार अच्छुतकल्प में उत्पन्न हो तो छियासठ सागरोपम व्यतीत हो जाते हैं और जो किञ्चित् अधिक काल कहा है, वह बीच के मनुष्यभवों का समझना चाहिए।' .. त्रिविधमिथ्यादृष्टि - (१) अनादि-अनन्त- जो अनादिकाल से मिथ्यादृष्टि है और अनन्तकाल तक बना रहेगा, वह अभव्यजीव, (२) अनादि-सान्त- जो अनादिकाल से मिथ्यादृष्टि तो है, किन्तु भविष्य में जिसे सम्यक्त्व की प्राप्ति होगी, (३) सादि-सान्त-मिथ्यादृष्टि- जो सम्यक्त्व को प्राप्त करने के पश्चात् पुनः मिथ्यादृष्टि हो गया है और भविष्य में पुनः सम्यक्त्व प्राप्त करेगा। इन तीनों में से जो सादि-सान्त मिथ्यादृष्टि है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक मिथ्यादृष्टि रहता है। अन्तर्मुहूर्त तक मिथ्यादृष्टि रहने के पश्चात् उसे पुनः सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है। उत्कृष्ट अनन्तकाल तक वह मिथ्यादृष्टि बना रहता है और अनन्तकाल व्यतीत होने के पश्चात् उसे सम्यक्त्व प्राप्त होता है। अनन्तकाल - कालतः अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियां समझनी चाहिए तथा क्षेत्रतः देशोन अपार्द्ध (क्षेत्र) पुद्गलपरावर्तन सर्वत्र समझना चाहिए।' ____ सम्यग्मिथ्यादृष्टि की कालावस्थिति - मिश्रदृष्टि अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् नहीं रहती। अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् मिश्रदृष्टि वाला जीव या तो सम्यग्दृष्टि हो जाता है, या मिथ्यादृष्टि हो जाता है, इसलिए सम्यग्मिथ्यादृष्टि का जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त का ही समझना चाहिए। दसवाँ ज्ञानद्वार १३४६. णाणी णं भंते ! णाणीति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! णाणी दुविहे पण्णत्ते । तं जहा - सादीए वा अपजवसिए १ सादीए वा सपजवसिए १. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३८७-३८८ (ख) प्रज्ञापनासूत्र. प्रमेयबोधिनी टीका भा. ४, पृ. ४२०-४२१ । (ग) "दो वारे विजयाइस गयस तिनिऽच्चुए अहव ताई । अरेगं नरभवियं................" २. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक ३८८ ३. वही मलय. वृत्ति, पत्रांक ३८८-३८९ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद [३८७ २। तत्थ णं जे से सादीए सपजवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाई सााइरेगाई। [१३४६ प्र.] भगवन् ! ज्ञानी जीव कितने काल तक ज्ञानीपर्याय में निरन्तर रहता है ? [१२४६ उ.] गौतम ! ज्ञानी दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार - (१) सादि-अपर्यवसित और - (२) सादि-सपर्यवसित। इनमें से जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक छियापठ सागरोपम तक (लगातार ज्ञानीरूप में बना रहता है।) १३४७. आभिणिबोहियणाणी णं भंते ! ० पुच्छा ? गोयमा ! एवं चेव । [१३४७ प्र.] भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञानी आभिनिबोधिकज्ञानी के रूप में कितने काल तक रहता है? [१३४७ उ.] गौतम ! (सामान्य ज्ञानी के विषय में जैसा कहा है) इसी प्रकार (इसके विषय में समझ लेना चाहिए।) १३४८ एवं सुयणाणी वि। [१३४८] इसी प्रकार श्रुतज्ञानी (का भी कालमान समझ लेना चाहिए।) १३४९. ओहिणाणी वि एवं चेव। णवरं जहणेणं एक्कं समयं। [१३४९] अवधिज्ञानी का कालमान भी इसी प्रकार है, विशेषता यह है कि वह जघन्य एक समय तक ही (अवधिज्ञानी के रूप में रहता है।) १३५०. मणपजवणाणी णं भंते ! मणपजवणाणीति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं देसूणं पुव्वकोडिं। [१३५० प्र.] भगवन् ! मनःपर्यवज्ञानी कितने काल तक (निरनन्तर) मनःपर्यवज्ञानी के रूप में रहता है ? [१३५० उ.] गौतम ! (वह) जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि (करोड़-पूर्व) तक (सतत मनःपर्यवज्ञानीपर्याय में रहता है।) १३५१. केवलणाणी णं ० पुच्छा ? गोयमा ! सादीए अपजवसिए । [१३५१ प्र.] भगवन् ! केवलज्ञानी, केवलज्ञानी के रूप में कितने काल तक रहता है ? [१३५१ उ.] गौतम ! (केवलज्ञानी-पर्याय) सादि-अपर्यवसित होती है। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८] [प्रज्ञापनासूत्रं १३५२. अण्णाणी-मइअण्णाणी-सुयअण्णाणी णं० पुच्छा ? गोयमा ! अण्णाणी मतिअण्णाणी सुयअण्णाणी तिविहे पण्णत्ते। तं जहा - अणादीए वा अपज्जवसिए १ अणादीए वा सपजवसिए २ सादीए वाा सपजवसिए ३। तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं, अणंताओ उस्सप्पिणि ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अवढं पोग्गलपरियट्ट देसूणं । [१३५२ प्र.] भगवन् ! अज्ञानी, मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी कितने काल तक (निरन्तर स्व-पर्याय में रहते हैं ?) [१३५२ उ.] गौतम ! अज्ञानी, मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी तीन-तीन प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार- (१) अनादि-अपर्यवसित, (२) अनादि-सपर्यवसित और (३) सादि-सपर्यवसित। उनमें से जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक (अर्थात्) काल की अपेक्षा से अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियों तक एवं क्षेत्र की अपेक्षा से देशोन अपार्द्ध पुद्गलपरावर्त तक (निरन्तर स्वस्वपर्याय में रहते हैं।) १३५३. विभंगणाणी णं भंते ! ० पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई देसूणाए पुव्वकोडीए अब्भइयाई। दारं १०॥ [१३५३ प्र.] भगवन् ! विभंगज्ञानी कितने काल तक विभंगज्ञानी के रूप में रहता है ? [१३५३ उ.] गौतम ! जघन्य एक समय तक, उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम तक (वह विभंगज्ञानी-पर्याय में लगातार बना रहता है।) दसवाँ द्वार ॥१०॥ विवेचन - दसवाँ ज्ञानद्वार- प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. १३४६ से १३५३ तक) में सामान्य ज्ञानी आभिनिबोधिक आदि ज्ञानी, अज्ञानी, मत्यादि अज्ञानी, स्व-स्वपर्याय में कितने काल तक रहते हैं ? इसका चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। ज्ञानी-अज्ञानी की परिभाषा- जिसमें सम्यग्दर्शनपूर्वक सम्यग्ज्ञान हो, वह ज्ञानी कहलाता है; जिसमें सम्यग्ज्ञान न हो, वह अज्ञानी कहलाता है। द्विविध ज्ञानी - (१) सादि-अपर्यवसित- जिस जीव को सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् सदैव बना रहे, वह क्षायिक सम्यग्दृष्टि ज्ञानी या केवलज्ञानी सादि-अपर्यवसित ज्ञानी है।(२)सादि-सपर्यवसितजिसका सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन का अभाव होने पर नष्ट होने वाला है, वह सादि-सपर्यवसित ज्ञानी है। केवलज्ञान के सिवाय अन्य ज्ञानों की अपेक्षा ऐसा ज्ञानी सादि-सपर्यवसित कहलाता है, क्योंकि वे ज्ञान नियतकालभावी हैं, अनन्त नहीं हैं। इन दोनों में से सादि-सान्त ज्ञानी-अवस्था जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक रहती है, उसके पश्चात् मिथ्यात्व के उदय से ज्ञानपरिणाम का विनाश हो जाता है। उत्कृष्टकाल जो ६६ सागरोपम से कुछ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद] [३८९ अधिक कहा गया है, उसका स्पष्टीकरण सम्यग्दृष्टि के समान ही समझ लेना चाहिए, क्योंकि सम्यग्दृष्टि ही ज्ञानी होता है। अवधिज्ञानी का अवस्थानकाल-अवधिज्ञानी का जघन्य अवस्थानकाल एक समय का है, अन्तर्मुहूर्त का नहीं, क्योंकि विभंगज्ञानी कोई तिर्यचपंचेन्द्रिय, मनुष्य अथवा देव जब सम्यक्त्व प्राप्त करता है। किन्तु देव के च्यवन के कारण और अन्य जीव की मृत्यु होने पर या अन्य कारणों से अनन्तर समय में ही जब वह अवधिज्ञान नष्ट हो जाता है, तब उसका अवस्थान एक समय तक रहता है। इसकी उत्कृष्ट अवस्थिति ६६ सागरोपम की है। वह इस प्रकार से है - अप्रतिपाती- अवधिज्ञान प्राप्त जीव दो बार विजय आदि विमानों में जाता है, अथवा तीन बार अच्युतदेवलोक में उत्पन्न होता है, तब उसकी स्थिति छियासठ सागरोपम की होती है। मनःपर्यवज्ञानी का अवस्थानकाल - मनःपर्यवज्ञानी मनःपर्यवज्ञानी-अवस्था में जघन्य एक समय तक रहता है। जब अप्रमत्त-अवस्था में वर्तमानः किसी संयत को मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न होता है और अप्रमत्तसंयतअवस्था में ही उसकी मृत्यु हो जाती है, तब वह मनःपर्यवज्ञानी एक समय तक ही मनःपर्यवज्ञानी के रूप में रहता है। उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि तक अवस्थिति का कारण यह है कि इससे अधिक संयम रहता ही नहीं है और संयम के अभाव में मनःपर्यवज्ञान भी रह नहीं सकता। त्रिविध अज्ञानी, मत्यज्ञानी तथा श्रुताज्ञानी- अनादि-अनन्त- जिसने कभी सम्यग्ज्ञान प्राप्त नहीं किय है और जो भविष्य में भी ज्ञान प्राप्त नहीं करेगा, वह अनादि-अनन्त अज्ञानी। (२) अनादि-सान्तजिसने कभी ज्ञान प्राप्त नहीं किया है, किन्तु कभी प्राप्त करेगा, वह अनादि-सान्त अज्ञानी है। (३) सादिसान्त- जो जीव सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके पुनः मिथ्यात्वोदय से अज्ञानी हो गया हो, किन्तु भविष्य में पुनः ज्ञान प्राप्त करेगा; वह सादि-सान्त अज्ञानी है। सादि-सान्त अज्ञानी लगातार जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक अज्ञानी-पर्याय से युक्त रहता है, तत्पश्चात् सम्यक्त्व प्राप्त करके ज्ञानी बन जाता है, उसकी अज्ञानी-पर्याय नष्ट हो जाती है। उत्कृष्ट अनन्तकाल तक वह अज्ञानी रहता है, इसका कारण पहले कहा चुका है। इतने काल (अनन्त उत्सर्पिणीअवसर्पिणिीकाल) के अनन्तर उस जीव को अवश्य ही सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है और उसका अज्ञानपरिणाम दूर हो जाता है। विभंगज्ञानी का अवस्थानकाल - वह जघन्य एक समय, उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम तक विभंगज्ञानी बना रहता है। जब कोई पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, मनुष्य अथवा देव सम्यग्दृष्टि होकर अवधिज्ञानी होता है और फिर मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है, तब मिथ्यात्व की प्राप्ति के समय मिथ्यात्व के १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३८९ २. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक ३८९ ३. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक ३८९-३९० Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० ] [ प्रज्ञापनासूत्रं प्रभाव से उसका अवधिज्ञान विभंगज्ञान के रूप में परिणत हो जाता है। इस प्रकार मिथ्यात्वप्राप्ति के अनन्तर समय में ही जब उस विभंगज्ञानी देव, मनुष्य या पंचेन्द्रियतिर्यच की मृत्यु हो जाती है, तब विभंगज्ञान का अवस्थान एक समय तक ही रहता है। जब कोई मिथ्यादृष्टि पंचेन्द्रियतिर्यच या मनुष्य करोड़ पूर्व की आयु के कतिपय वर्ष व्यतीत हो जाने पर विभंगज्ञान प्राप्त करता है और उक्त विभंगज्ञान के साथ ही सप्तम नरकभूमि में तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले नारकों में उत्पन्न होता है, उस समय विभंगज्ञानी का अवस्थानकाल देशोन पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम का होता है। तदनन्तर वह जीव या तो सम्यक्त्व को प्राप्त करके अवधिज्ञानी बन जाता है, अथवा उसका विभंगज्ञान नष्ट ही हो जाता है। ग्यारहवाँ दर्शनद्वार १३५४. चक्खुदंसणी णं भंते ! ० पुच्छा ? गोमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसहस्सं सातिरेगं । [१३५४ प्र.] भगवन् ! चक्षुर्दर्शनी कितने काल तक चक्षुर्दर्शनीपर्याय में रहता है ? [ १३५४ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार सागरोपम तक (चक्षुर्दर्शनीपर्याय में रहता है) । १३५५. अचक्खुदंसणी णं भंते ! अचक्खुदंसणी त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा! अचक्खुदंसणी दुविहे पण्णत्ते । तं जहा - अणादीए वा अपज्जवसिए १ अणादीए वा जवस २ । [१३५५ प्र.] भगवन् ! अचक्षुर्दर्शनी, अचक्षुर्दर्शनीयरूप में कितने काल तक रहता है ? [१३५५ उ.] गौतम ! अचक्षुर्दर्शनी दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार अपर्यवसित और २. अनादि - सपर्यवसित । १. अनादि १३५६. ओहिदंसणी णं० पुच्छा ? गोयमा ! जहणेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं दो छावट्ठीओ सागरोवमाणं सातिरेगाओ । [१३५६ प्र.] भगवन् ! अवधिदर्शनी, अवधिदर्शनीरूप में कितने काल तक रहता है ? [१३५६ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक दो छियासठ सागरोपम तक (अवधिदर्शनीपर्याय में रहता है) । १३५७. केवलदंसणी णं० पुच्छा ? १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९० Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद ] गोमा ! सादीए अपज्जवसिए । दारं ११ ॥ [ १३५७ प्र.] भगवन् ! केवलदर्शनी कितनी काल तक केवलदर्शनीरूप में रहता है ? [१३५७ उ.] गौतम ! केवलदर्शनी सादि-अपर्यवसित होता है । बारहवाँ संयतद्वार [३९१ ग्यारहवाँ द्वार ॥११॥ १३५८. संजए णं भंते ! संजए ति० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्वं समयं, उक्कोसेणं देसूणं पुव्वकोडिं । [१३५८ प्र.] भगवन् ! संयत कितने काल तक संयतरूप में रहता है ? [१३५८ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट देशोन करोड़ पूर्व तक संयतरूप में रहता है। १३५९. असंजए णं भंते ! असंजए त्ति० पुच्छा ? गोयमा ! असंजए तिविहे पण्णत्ते । तं जहा - अणादीए वा अपज्जवसिए १ अणादीए वा सपज्जवसिए २ सादीए वा सपज्जवसिए ३ । तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अनंत कालं, अणंताओ उस्सप्पिणी ओसप्पिणीओ कालतो, खेत्तओ अवडुं पोग्गलपरियट्टं देसूणं । [१३५९ प्र.] भगवन् ! असंयत कितने काल तक असंयतरूप में रहता है ? [ १३५९ उ.] गौतम ! असंयत तीन प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार - १. अनादि - अपर्यवसित, २. अनादि-सपर्यवसित और ३. सादि - सपर्यवसित। उनमें से जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक, (अर्थात्) काल की अपेक्षा- अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियों तक तथा क्षेत्र की अपेक्षा-देशोन अपार्द्ध पुद्गलपरावर्त्त तक (वह असंयतपर्याय में रहता है) । १३६०. संजयासंजए जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं देसूणं पुव्वकोडिं । [१३६०] संयतासंयत जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि तक (संयतासंयतरूप में रहता है)। पुच्छा ? १३६१. णोसंजए णोअसंजए णोसंजयासंजए णं० गोयमा ! सादीए अपज्जवसिए । दारं १२ ॥ [१३६१ प्र.] भगवन् ! नोसंयत, नोअसंयत, नोसंयतासंयत कितने काल तक नोसंयत, नोअसंयत, नोसंयतासंयतरूप में बना रहता है ? [ १३६१ उ.] गौतम ! वह सादि - अपर्यवसित है । बाहरवाँ द्वार ॥१२॥ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२] [प्रज्ञापनासूत्रं तेरहवा उपयोगद्वार १३६२. सागारोवउत्ते णं भंते ! ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं। [१३६२ प्र.] भगवन् ! साकारोपयोगयुक्त जीव निरन्तर कितने काल तक साकारोपयोगयुक्तरूप में बना रहता है ? [१३६२ उ.] गौतम ! (वह) जघन्यतः और उत्कृष्टत: भी अन्तर्मुहूर्त तक साकारोपयोग से युक्त बना रहता है। १३६३. अणागारोवउत्ते वि एवं चेव । दारं १३॥ [१३६३] अनाकारोपयोगयुक्त जीव भी इसी प्रकार जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक (अनाकारोपयोगयुक्त बना रहता है)। तेरहवाँ द्वार ॥१३॥ विवेचन - ग्यारहवाँ, बारहवाँ और तेरहवाँ दर्शन, संयत और उपयोग द्वार - प्रस्तुत दस सूत्रों (सू. १३५४ से १३६३ तक) में चक्षुर्दर्शनी आदि चतुष्टय, संयत असंयत, संयतासंयत और नोसंयत, नोअसंयत, नोसंयतासंयत तथा साकारोपयोगयुक्त एवं अनाकारोपयोगयुक्त जीव का स्व-स्वपर्याय में अवस्थानकालमान प्रतिपादित किया गया है। चक्षुर्दर्शनी का अवस्थान काल - चक्षुर्दर्शनी जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कष्ट कुछ अधिक हजार . सागरोपम तक निरन्तर चक्षुर्दर्शनी बना रहता है । जब कोई त्रीन्द्रिय जीव चतुरिन्द्रियादि में उत्पन्न होकर उस पर्याय में उन्तर्महूर्त तक स्थित रह कर पुनः त्रीन्द्रिय आदि में उत्पन्न हो जाता है, तब चक्षुर्दर्शनी अन्तर्मुहूर्त चक्षुर्दर्शनीपर्याय से युक्त होता है । उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार सागरोपम जो कहा है, वह चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रियतिर्यञ्च एवं नारक आदि भवों में भ्रमण करने के कारण समझना चाहिए। द्विविध अचक्षुर्दर्शनी -१. अनादि-अनन्त-जो जीव कभी सिद्धि प्राप्त नहीं करेगा । २. अनादिसान्त-जो कदाचित् सिद्धि प्राप्त करेगा । अवधिदर्शनी का अवस्थानकालमान - जघन्य एक समय और उत्कृष्ट कुछ अधिक दो छियासठ सागरोपम है। वह इस प्रकार - बारहवाँ देवलोक २२ सागरोपम की स्थिति वाला है। उसमें कोई भी जीव यदि विभंगज्ञान लेकर जाए तथा लौटते समय अवधिज्ञान लेकर लौटे तो इस प्रकार बाईस सागरोपम काल विभंगज्ञान का और बाईस सागरोपम काल अवधिज्ञान का हुआ। पूर्वोक्त प्रकार से ही यदि तीन बार विभंगज्ञान लेकर जाए तथा अवधिज्ञान लेकर आए तो ६६ सागरोपम काल विभंगज्ञान का और ६६ सागरोपम काल अवधिज्ञान का हुआ। बीच के मनुष्यभवों का काल कुछ अधिक जानना चाहिए। इस प्रकार कुल कुछ अधिक दो छिपासठ सागरोपम काल होता है। ध्यान में रहे कि विभंगज्ञानी का दर्शन भी अवधिदर्शन ही कहलाता है, १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९० Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद] [३९३ विभंगदर्शन नहीं। त्रिविध असंयत- १. अनादि-अपर्यवसित- जिसने कभी संयम पाया नहीं और कभी पाएगा भी नहीं, २. अनादि-सपर्यवसित- जिसने कभी संयम पाया नहीं, भविष्य में पाएगा, ३. सादि-सपर्यवसितजो जीव संयम प्राप्त करके उससे भ्रष्ट हो गया है, किन्तु पुनः संयम प्राप्त करेगा। सादि-सान्त असंयत जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक असंयतपर्याय से युक्त रहता है। अनन्तकाल (अपार्ध पुद्गलपरावर्त) व्यतीत होने के पश्चात् उसे संयम की प्राप्ति अवश्य ही होती है। संयतासंयत एवं संयत का अवस्थानकाल - देशविरति की प्रतिपत्ति का उपयोग जघन्य अन्तर्मुहूर्त का होता है। अतएव यहाँ जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कहा है। देशविरति में दो करण तीन योग आदि अनेक भंग होते हैं । अतः उसे अंगीकार करने में अन्तर्मुहूर्त लग ही जाता है। सर्वविरति में सर्वसावध के त्याग के रूप में प्रतिज्ञा अंगीकार करने का उपयोग एक समय में भी हो सकता है, इसी कारण संयत का जघन्य काल एक समय कहा गया है। नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत- जो संयत भी नहीं, असंयत भी नहीं और संयतासंयत भी नहीं, ऐसा जीव सिद्ध ही होता है और सिद्धपर्याय सादि-अनन्त है। साकारोपयोग तथा अनाकारोपयोग युक्त का अवस्थानकाल - जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त का होता है। छद्मस्थ जीवों का उपयोग, चाहे वह साकारोपयोग हो अथवा अनाकारोपयोग, अन्तर्मुहूर्त का ही होता है। केवलियों का एकसामयिक उपयोग यहाँ विवक्षित नहीं है। चौदहवाँ आहारद्वार १३६४. आहारए णं भंते ! • पुच्छा? गोयमा ! आहारए दुविहे पण्णत्ते । तं जहा- छउमत्थआहारए य केवलिआहारए य। १. सुत्ते विभंगस्स वि परूवियं ओहिदंसणं बहुसो । कीस पुणो पडिसिद्धं कम्मपगडीपगरणंमि ॥१॥ विभंगे वि दरिसणं सामण्ण-विसेसविसयओ सुत्ते । तं चऽविसिट्ठमणागारमेत्तं तोऽवहि विभंगाणं ॥२॥ कम्मपगडीमयं पुण सागारेयरविसेसभावे वि। न विभंगनाणदंसण विसेसणमणिच्छयत्तणओ ॥३॥ (प्रज्ञा. म. वृ. पत्र ३९१) - विशेषणवती (जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण) २. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९२ ३. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९२ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४] [प्रज्ञापनासूत्रं [१३६४ प्र.] भगवन् ! आहारक जीव (लगातार) कितने काल तक आहारकरूप में रहता है? [१३६४ उ.] गौतम ! आहारक जीव दो प्रकार के कहे हैं, यथा- छद्मस्थ-आहारक और केवलीआहारक। १३६५. छउमत्थाहारए णं भंते ! छउमत्थाहारए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं खुड्डागभवग्गहणं दुसमऊणं, उक्कोसेणं असंखेनं कालं, असंखेजाओ उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अंगुलस्स संखेजइभाग। [१३६५ प्र.] भगवन् ! छद्मस्थ-आहारक कितने काल तक छद्मस्थ-आहारक के रूप में रहता है ? [१३६५ उ.] गौतम ! जघन्य दो समय कम शूद्रभव ग्रहण जितने काल और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक (लगातार छद्मस्थ-आहारकरूप में रहता है)। (अर्थात्-) कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियों तक तथा क्षेत्रत: अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण (समझना चाहिए।) १३६६. केवलिआहारए णं भंते ! केवलिआहारए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं देसूणं पुव्वकोडिं। [१३६६ प्र.] भगवन् ! केवली-आहारक कितने काल तक केवली-आहारक के रूप में रहता है ? [१३६६ उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट देशोन कोटिपूर्व तक (केवली-आहारक निरन्तर केवली-आहारकरूप में रहता है)। १३६७. अणाहारए णं भंते ! अणाहारए त्ति ० पुच्छा ? गोयमा ! अणाहारए दुविहे पण्णत्ते । तं जहाा- छउमत्थअणाहारए य १ केवलिअणाहारए य२। [१३६७ प्र.] भगवन् ! अनाहारकजीव, अनाहारकरूप में निरन्तर कितने काल तक रहता है ? [१३६७ उ.] गौतम ! अनाहारक दो प्रकार के होते हैं, यथा - (१) छद्मस्थ-अनाहारक और (२) केवली-अनाहारक। १३६८. छउमत्थअणाहारए णं भंते ! ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं दो समया। [१३६८ प्र.] भगवन् ! छद्मस्थ-अनाहारक, छद्मस्थ-अनाहारक के रूप में निरन्तर कितने काल तक रहता है ? [१३६८ उ.] गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट दो समय तक (छद्मस्थ-अनाहारकरूप में Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद ] रहता है ।) १३६९. केवलिअणाहारए णं भंते ! केवलिअणाहारए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! केवलिअणाहारए दुविहे पण्णत्ते । तं जहा- सिद्धकेवलिअणाहारए य १ भवत्थकेवलिअणाहारए य २ । [३९५ [१३६९ प्र.] भगवन् ! केवली - अनाहारक, केवली - अनाहारक के रूप में निरन्तर कितने काल तक रहता है ? [१३६९ उ.] गौतम ! केवली - अनाहारक दो प्रकार के हैं, १. सिद्धकेवली - अनाहारक और २. भवस्थकेवली - अनाहारक । १३७०. सिद्धकेवलिअणाहारए णं ० पुच्छा ? गोयमा ! सादीए अपज्जवसिए । [१३७० प्र.] भगवन् ! सिद्धकेवली - अनाहारक कितने काल तक सिद्धकेवली - अनाहारक के रूप में रहता है ? [१३७० उ.] गौतम ! (वह) सादि - अपर्यवसित है । १३७१. भवत्थकेवलिअणाहारए णं भंते ! ० पुच्छा ? गोयमा ! भवत्थकेवलिअणाहारए दुविहे पण्णत्ते । तं जहा - सजोगिभवत्थकेवलिअणाहारए य १ अजोगिभवत्थकेवलिअणाहारए य २ । [१३७१ प्र.] भगवन् ! भवस्थकेवली-अ - अनाहारक कितने काल तक ( निरन्तर) भवस्थकेवली. अनाहारकरूप में रहता है ? [१३७१ उ.] गौतम ! भवस्थकेवली - अनाहारक दो प्रकार के हैं - १. सयोगि-भवस्थकेवली- अनाहारक और २. अयोगि- भवस्थकेवली - अनाहारक । १३७२. सजोगिभवत्थकेवलिअणाहारए णं भंते ! ० पुच्छा ? गोयमा ! अजहण्णमणुक्कोसेणं तिण्णि समया । [१३७२ प्र.] भगवन् ! सयोगि-भवस्थकेवली - अनाहारक कितने काल तक सयोगि- भवस्थकेवलीअनाहारक के रूप में रहता है ? [१३७२ उ.] गौतम ! अजघन्य- अनुत्कृष्ट तीन समय तक (सयोगिभवस्थकेवली - अनाहारकरूप में रहता है।) Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ ] १३७३. अजोगिभवत्थकेवलिअणाहारए णं ० पुच्छा ? गोयमा ! जहणणेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । दारं १४ ॥ [१३७३ प्र.] भगवन् ! अयोगि-भवस्थकेवली अनाहारक कितने काल तक अयोगि-भवस्थकेवलीअनाहारकरूप में रहता है ? [१३७३ उ.] गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त तक ( अयोगिभवस्थकेवली अनाहारकरूप में रहता है।) - चौहदवां द्वार ॥१४॥ विवेचन - चौदहवाँ आहारकद्वार प्रस्तुत दस सूत्रों (सू. १३६४ से १३७३ तक) में विविध आहारक और अनाहारक के अवस्थानकालमाान की प्ररूपणा की गई है। [ प्रज्ञापनासूत्रं - छद्मस्थ आहारक का कालमान- जघन्य दो समय कम क्षुद्रभव ग्रहणकाल और उत्कृष्ट असंख्यातकाल तक वह निरन्तर छद्मस्थ आहारक रूप में रहता है। क्षुद्रभव या क्षुल्लक भवग्रहण दो सौ छप्पन आवलिका रूप जानना चाहिए। जघन्यकालमान का स्पष्टीकरण - यद्यपि विग्रहगति चार और पांच समय की भी होती है, तथापि बहुलता से वह दो या तीन समय की होती है, चार या पांच समय को नहीं, वह विग्रहगति यहां विवक्षित नहीं है । अत: जब तीन समय की विग्रहगति होती है, तब जीव प्रारम्भ के दो समयों तक अनाहारक रहता है। अतएव आहारकत्व की प्ररूपणा में उन दो समयों से न्यून क्षुद्रभवग्रहण का कथन किया गया है। उत्कृष्ट असंख्यातकाल तक आहारक रहता है, तत्पश्चात् नियम से विग्रहगति होती है और विग्रहगति मैं अनाहारक- पर्याय हो जाती है। इसी कारण यहाँ अनन्तकाल नहीं कहा है। छद्मस्थ-अनाहारक का कालमान- जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट दो समय तक छद्मस्थअनाहारक जीव छद्मस्थ- अनाहारकपर्याय में रहता है। यहाँ तीन समय वाली विग्रहगति की अपेक्षा से दो समय का कथन किया गया है। चार और पांच समय वाली विग्रहगति यहाँ विवक्षित नहीं है। उत्कृष्ट १. सयोगि-भवस्थकेवली- अनाहारक का अवस्थानकालमान- ( वह अजघन्य - अनुत्कृष्ट तीन समय तय अनाहरकपर्याय में रहता है। यह विधान केवलीसमुद्घात की अपेक्षा से है। आठ समय के केवलीसमुद्घात में तीसरे चौथे और पांचवें समय में केवली अनाहारकदशा में रहते हैं। इसमें जघन्य - उत्कृष्ट का विकल्प २. (क) उज्जुया एगबंका, दुहतो बंका गति विणिदिट्ठा । जुज्जइति चउवंकावि नाम चउपंच समयाओ ॥ १ ॥ (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९३ प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९३ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद] [३९७ नहीं है। पन्द्रहवाँ भाषकद्वार १३७४. भासए णं ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं एवं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं। [१३७४ प्र.] भगवन् ! भाषक जीव कितने काल तक भाषकरूप में रहता है ? [१३७४ उ.] गौतम ! जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक (भाषकरूप में रहता है।) १३७५. अभासए णं? गोयमा ! अभासए तिविहे पण्णत्ते । तं जहा- अणाईए वा अपजवसिए १ अणाईए वा सपज्जवसिए २ सादीए वा सपजवसिए ३।तत्थ णंजे से सादीए सपजवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणप्फइकालो । दारं १५॥ [१३७५ प्र.] भगवन् ! अभाषक जीव अभाषकरूप में कितने काल तक रहता है ?, _[१३७५ उ.] गौतम ! अभाषक तीन प्रकार के कहे गये हैं- (१) अनादि-अपर्यवसित, (२) अनादिसपर्यवसित और (३) सादि-सपर्यवसित। उनमें से जो सादि-सपर्यवसित हैं, वे जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट वनस्पतिकालपर्यन्त (अभाषकरूप में रहते हैं)। - पन्द्रहवाँ द्वार ॥१५॥ विवेचन-पन्द्रहवाँ भाषकद्वार - प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. १३७४-१३७५) में भाषक और अभाषक जीव के स्वपर्याय में अवस्थान का कालमान प्रतिपादित किया गया है। भाषक का कालमान- यहाँ भाषक का अवस्थानकाल निरन्तर जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक जो बताया गया है वह, वचनयोगी की अपेक्षा से समझना चाहिए । १. दण्डे प्रथमे समये कपाटमथ चोत्तरे तथा समये । मन्थानमस्थ तृतीय लोकव्यापी चतुर्थे तु ॥१॥ संहरति पंचमे त्वन्तराणि मन्थानमथ तथा षष्ठे । सप्तमके तु कपाटं संहरति तोऽष्टमे दण्डम् ॥ २॥ औदारिकप्रयोक्ता प्रथमाष्टमसमयोरसाविष्टः । मिश्रौदारिकयोक्ता सप्तम-षष्ठ-द्वितीयेषु ॥३॥ कार्मणशरीरयोगी चतुर्थके पंचमे तृतीये च ॥ समयत्रयेऽपि तस्मिन् भवत्यनाहारको नियमात् ॥४॥ २. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९४ -प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९३ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८] [प्रज्ञापनासूत्रं अभाषक का कालमान - सादि-सान्त भाषक (जो भाषक होकर फिर अभाषक हो गया है, वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक अभाषक पर्याय से युक्त रहता है, फिर कुछ काल रुक कर भाषक बन जाता है और फिर अभाषक हो जाता है। अथवा द्वीन्द्रिय आदि भाषक जीव एकेन्द्रियादि अभाषकों में उत्पन्न होकर वहाँ अन्तर्मुहूर्त तक जीवित रह कर फिर द्वीन्द्रियादि भाषकरूप में उत्पन्न होता है। उस समय जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक अभाषक रहता है। उत्कृष्ट वनस्पतिकाल - अर्थात्- पूर्वोक्त अनन्तकाल तक लगातार अभाषक बना रहता सोलहवाँ परीतद्वार १३७६. परित्ते णं भंते ! ० पुच्छा? गोयमा ! परित्ते दुविहे पण्णत्ते । तं जहा - कायपरित्ते य १ संसारपरित्ते य २। [१३७६ प्र.] भगवन् ! परीत जीव कितने काल तक निरन्तर परीतपर्याय में रहता है ? [१३७६ उ.] गौतम ! परीत दो प्रकार के हैं । यथा- (१) कायपरीत और (२) संसारपरीत । १३७७. कायपरित्ते णं ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुढविकालो असंखेजाओ उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीओ। [१३७७ प्र.] भगवन् ! कायपरीत कितने काल तक कायपरीतपर्याय में रहता है ? [१३७७ उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट पृथ्वीकाल तक, (अर्थात्-) असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियों तक (कायपरीतपर्याय में निरन्तर बन रहता है)। १३७८. संसारपरित्ते णं० पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं जााव अवर्ल्ड पोग्गलपरियट्टे देसूण। [१३७८ प्र.] भगवन् ! संसारपरीत जीव कितने काल तक संसारपरीतपर्याय में रहता है ? [१३७८ उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक, यावत् देशोन अपार्द्ध पुद्गलपरावर्त (संसारपरीतपर्याय में रहता है)। १३७९. अपरित्ते णं ० पुच्छा? गोयमा ! अपरित्ते दुविहे पण्णत्ते । तं जहा- कायअपरित्ते य १ संसारअपरित्ते य २। [१३७९ प्र.] भगवन् ! अपरीत जीव कितने काल तक अपरीतपर्याय में रहता है ? [१३७९ उ.] गौतम ! अपरीत दो प्रकार के हैं, वह इस प्रकार - (१) काय-अपरीत और (२) संसार १. वही मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९४ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद] [३९९ अपरीत। १३८०. कायअपरित्ते णं० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। [१३८० प्र.] भगवन् ! काय - अपरीत निरन्तर कितने काल तक काय-अपरीत-पर्याय से युक्त रहता है। [१३८० उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक (काय-अपरीतपर्याय से युक्त रहता है)। . १३८१. संसारअपरित्ते णं० पुच्छा? गोयमा ! संसारअपरित्ते दुविहे पण्णत्ते । तं जहा- अणादीए वा अपजवसिए १ अणादीए वा सपज्जवसिए २। [१३८१ प्र.] भगवन् ! संसार-अपरीत कितने काल तक संसार-अपरीत-पर्याय में रहता है ? [१३८१ उ.] गौतम ! संसार-अपरीत दो प्रकार के हैं। यथा - (१) अनादि-अपर्यवसित और (२) अनादि-सपर्यवसित। १३८२. णोपरित्ते-णोअपरित्ते णं० पुच्छा ? गोयमा ! सादीए अपजवसिए । दारं १६॥ [१३८२ प्र.] भगवन् ! नोपरीत-नोअपरीत कितने काल तक (लगातार) नोपरीत-नोअपरीत-पर्याय में रहता है ? [१३८२ उ.] गौतम ! (वह) सादि-अपर्यवसित है। सोलहवाँ द्वार ॥१६॥ विवेचन - सोलहवाँ परीतद्वार - प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. १३७३ से १३८२) में द्विविध परीत व द्विविध अपरीत और नोपरीत-नोअपरीत जीवों के स्व-स्वपर्याय में अवस्थानकाल की प्ररूपणा की गई हैं। कायपरीत का स्वपर्याय में निरन्तर अवस्थानकाल - प्रत्येकशरीरी जीव कायपरीत कहलाता है। वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट पृथ्वीकाल-अर्थात्-असंख्यातकाल तक कायपरीत बना रहता है। यदि कोई जीव निगोद से निकल कर प्रत्येक-शरीररूप में उत्पन्न होता है, उस समय वह अन्तर्मुहूर्त तक जीवित रह कर फिर निगोद में उत्पन्न हो जाता है। उस समय वह अन्तर्मुहूर्त तक ही कायपरीत रहता है। अतएव यहाँ कायपरीत का जघन्य अवस्थानकाल अन्तर्मुहूर्त का कहा है। उत्कृष्टरूप से कायपरीत असंख्यातकाल तक कायपरीत-पर्याय में निरन्तर रहता है। यहाँ असंख्यातकाल पृथ्वीकाल की कालस्थिति के जितना समझना चाहिए। असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी जितना पृथ्वीकाल यहाँ असंख्यातकाल विवक्षित है। क्षेत्रत: Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० ] 'असंख्यात लोकप्रमाण है । संसारपरीत का लक्षण - जिसने सम्यक्त्व प्राप्त करके अपने भवभ्रमण को परिमित कर लिया हो, वह संसारपरीत कहलाता है। उत्कृष्टत: अनन्तकाल व्यतीत होने पर संसारपरीत जीव अवश्य ही मुक्ति प्राप्त कर लेता है । [ प्रज्ञापनासूत्र काय - अपरीत और संसार - अपरीत- अनन्तकायिक जीव काय- अपरीत कहलाता है तथा संसारअपरीत वह है, जिसने सम्यक्त्व प्राप्त करके संसार को परिमित नहीं किया है। काय - अपरीत जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल (अनन्तकाल ) तक निरन्तर काय - अपरीतपर्याय- युक्त रहता है। जब कोई जीव प्रत्येक शरीर से उद्वर्तन करके निगोद में उत्पन्न होता है और वहाँ अन्तर्मुहूर्त तक ठहर कर पुनः प्रत्येकशरीरीपर्याय में उत्पन्न हो जाता है, उस समय जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त होता है । उत्कृष्ट वनस्पतिकाल जितना अनन्तकालसमझना चाहिए। उसके बाद अवश्य ही उद्वर्तना हो जाती है। द्विविध संसारपरीत- ( १ ) अनादि - सान्त - जिसके संसार का अन्त कभी न कभी हो जाएगा, वह अनादि-सान्त संसारपरीत कहलाता है। तथा (२) अनादि - अनन्त - जिसके संसार का कदापि विच्छेद नहीं होगा, वह अनादि-अनन्त संसार - अपरीत कहलाता है। नोपरीत - नोअपरीत- ऐसा जीव सिद्ध होता है। यह पर्याय सादि - अनन्त है ।" सत्तरहवाँ पर्याप्तद्वार १. १३८३. पज्जत्तए णं० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहत्तं सातिरेगं । [१३८३ प्र.] भगवन् ! पर्याप्त जीव कितने काल तक निरन्तर पर्याय-अवस्था में रहता है ? [१३८३ उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक शतसागरोपम पृथक्त्व क (निरन्तर पर्याप्त-अवस्था में रहता है) । १३८४. अपज्जत्तए णं० पुच्छा ? गोमा ! जहणेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । [१३८४ प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त जीव, अपर्याप्त अवस्था में निरन्तर कितने काल तक रहता है? [१३८४ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त तक (अपर्याप्त-अवस्था में रहता है) । १३८५. णोपज्जत्तए - णोअपज्जत्तए जं० पुच्छा ? प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९४ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद] [४०१ गोयमा ! सादीए अपज्जवसिए । दारं १७॥ [१३८५ प्र.] भगवन् ! नोपर्याप्त-नोअपर्याप्त जीव कितने काल तक नोपर्याप्त-नोअपर्याप्त-अवस्था में रहता है? [१३८५ उ.] गौतम ! (वह) सादि-अपर्यवसित है। सत्तरहवाँ द्वार ॥१७॥ विवेचन - सत्तरहवाँ पर्याप्तद्वार - प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. १३८३ से १३८५ तक) में पर्याप्त, अपर्याप्त और नोपर्याप्त-नोअपर्याप्त जीवों के स्व-स्वपर्याय में निरन्तर अवस्थान का काल प्रतिपादित किया गया है। तीनों के कालमान का विश्लेषण-(१) पर्याप्त जीव जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक सागरोपमशतपृथक्त्व तक लगातार पर्याप्त-पर्याय में रहता है, क्योंकि पर्याप्तलब्धि इतने समय तक ही रह सकती है। (२) अपर्याप्त जीव जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक लगातार अपर्याप्त रहता है, इसके पश्चात् अवश्य ही पर्याप्त हो जाता है। (३) नोपर्याप्त-नोअपर्याप्त जीव-सिद्ध ही होता है और सिद्धत्व पर्याय सादि-अनन्त अठारहवाँ सूक्ष्मद्वार १३८६. सुहुमे णं भंते ! सुहुमे त्ति० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुढविकालो । [१३८६ प्र.] भगवन् ! सूक्ष्म जीव कितने काल तक सूक्ष्म-पर्यायवाला लगातार रहता है ? [१३८३ उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट पृथ्वीकाल तक (वह सूक्ष्म-पर्याय में रहता १३८७. बादरे णं० पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं असंखेजं कालं जाव(सु. १३६५) खेत्तओ अंगुलस्स असंखेजइभागं । [१३८७ प्र.] भगवन् ! बादर जीव कितने काल तक (लगातार) बादर-पर्याय में रहता है ? । [१३८७ उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट असंख्यातकाल (सू. १३६५ में उक्त कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी - अवसर्पिणीकाल) यावत् क्षेत्रत: अंगुल के असंख्यातवें भाग-प्रमाण रहता है। १३८८. णोसुहुमणोबादरे णं भंते ! • पुच्छा ? गोयमा ! सादीए अपजवसिए । दारं १८॥ १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९५ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२] [प्रज्ञापनासूत्र [१३८८ प्र.] भगवन् ! नोसूक्ष्म-नोबादर कितने काल तक पूर्वोक्त पर्याय से युक्त रहता है ? [१३८८ उ.] गौतम ! यह पर्याय सादि-अपर्यवसित है। अठारहवाँ द्वार ॥१८॥ विवेचन- अठारहवाँ सूक्ष्मद्वार- प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. १३८३ से १३८८ तक) में सूक्ष्म, बादर नोसूक्ष्म-नोबादर के जघन्य और उत्कृष्ट अवस्थानकाल का निरूपण किया गया है। सूक्ष्म जीव का अवस्थानकाल- सूक्ष्म-जीव जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यातकाल तक सूक्ष्मपर्याययुक्त रहता है। वह असंख्ययातकाल पृथ्वीकायिक जीव की कायस्थिति के काल जितना समझना चाहिए। नोसूक्ष्म-नोबादर जीव- सिद्ध हैं और सिद्धपर्याय सदाकाल रहती है। उन्नीसवाँ संज्ञीद्वार १३८९. सण्णी णं भंते ! ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहत्तं सातिरेगे। [१३८९ प्र.] भगवन् ! संज्ञी जीव कितने काल तक संज्ञीपर्याय में लगातर रहता है ? [१३८९ उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक शतसागरोपमपृथक्त्वकाल तक (निरन्तर संज्ञीपर्याय में रहता है)। १३९०.असण्णी णं भंते ! ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। [१३९० प्र.] भगवन् ! असंज्ञी जीव असंज्ञी पर्याय में कितने काल तक रहता है ? [१३९० उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक (असंज्ञी जीव असंज्ञीपर्याय में निरन्तर रहता है)। १३९१. णोसण्णी णोअसण्णी णं पुच्छा ? गोयमा ! सादीए अपजवसिए । दारं १९॥ [१३९१ प्र.] भगवन् ! नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीव कितने काल तक नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी रहता है ? [१३९१ उ.] गौतम ! (वह) सादि-अपर्यवसित है। - उन्नीसवाँ द्वार ॥१९॥ विवेचन - उन्नीसवाँ संज्ञीद्वार - प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. १३८९ से १३९१ तक) में संज्ञी, असंज्ञी और प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९५ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद] [४०३ नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीवों के स्व-स्वपर्याय में निरन्तर अवस्थान का कालमान बताया गया है। संज्ञी-पर्याय की कालावस्थिति - जघन्य अन्तर्मुहूर्त अर्थात् जब कोई जीव असंज्ञीपर्याय से निकलकर संज्ञीपर्याय में उत्पन्न होता है और उस पर्याय में अन्तर्मुहूर्त तक जीवित रह कर पुनः असंज्ञी-पर्याय में उत्पन्न हो जाता है, तब वह अन्तर्मुहूर्त तक ही संज्ञी-अवस्था में रहता है और उत्कृष्ट कुछ अधिक शतसागरोपमपृथक्त्व काल तक संज्ञीजीव निरंतर संज्ञी रहता है। असंज्ञीपर्याय की कालावस्थिति - जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकल तक असंज्ञीजीव निरन्तर असंज्ञीपर्याययुक्त रहता है। जब कोई जीव संज्ञियों में से निकल कर असंज्ञीपर्याय में जन्म लेता है, वहाँ अन्तर्मुहूर्त रहकर पुनः संज्ञीपर्याय में उत्पन्न हो जाता है। उस समय यह अन्तर्मुहूर्त तक ही असंज्ञीपर्याय से युक्त रहता है। नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी का अवस्थानकाल - नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीव केवली है और केवली का काल सादि-अपर्यवसित है। बीसवाँ भवसिद्धिद्धार १३९२. भवसिद्धि णं भंते ! ० पुच्छा । गोयमा ! अणादीए सपजवसिए। [१३९२ प्र.) भगवन् ! भवसिद्धिक (भव्य) जीव निरन्तर कितने काल तक भवसिद्धिक पर्याययुक्त रहता है ? [१३९२ उ.] गौतम ! (वह) अनादि-सपर्यवसित है। १३९३. अभवसिद्धिए णं भंते ० पुच्छा। गोयमा ! अणादीए अपजवसिए। [१३९३ प्र.] भगवन् ! अभवसिद्धि (अभव) जीव लगातार कितने काल तक अभवसिद्धिकपर्याय से युक्त रहता है ? [१३९३ उ.] गौतम ! (वह) अनादि-अपर्यवसित है। १३९४. णोभवसिद्धियणोअभवसिद्धिए णं ० पुच्छा । गोयमा ! सादीए अपज्जवसिए । दारं २०॥ [१३९४ प्र.] भगवन् ! नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक जीव कितने काल तक लगातार नोभवसिद्धिक १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९५ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४] नोअवसिद्धिक-अवस्था में रहता है ? - बीसवाँ द्वार ॥२०॥ [ १३९४ उ.] गौतम ! (वह) सादि - अपर्यवसित है । विवेचन - बीसवाँ भवसिद्धिकद्वार प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. १३९२ से १३९४ तक) में भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक और नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक जीवों के अवस्थान का कालमान प्ररूपित किया गया है। भवसिद्धिक का कालमान - भवसिद्धिक ( भव्य ) अनादि - सपर्यवसित (सान्त) है। भव्यत्व भाव पारिणामिक है, इसलिए वह अनादि है, किन्तु मुक्ति प्राप्त होने पर उसका सद्भाव नहीं रहता, इसलिए सपर्यवसित है। अभवसिद्धिक का कालमान- यह भी पारिणामिक भाव होने से अनादि है और उसका (अभव्यत्व का) कभी अन्त नहीं होता। इसलिए अनन्त है । नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक का कालमान- ऐसा जीव सिद्ध ही होता है, इसलिए अपर्यवसित होता है ।" इक्कीसवाँ अस्तिकायद्वार [ प्रज्ञापनासूत्रं १३९५. धम्मत्थिकाए णं० पुच्छा । गोयमा ! सव्वद्धं । [१३९५ प्र.] भगवन् ! धर्मास्तिकाय कितने काल तक लगातार धर्मास्तिकायरूप में रहता है ? [१३९५. उ.] गौतम ! वह सर्वकाल रहता है । १३९६. एवं जाव अद्धासमए । दारं २१ ॥ [१३९६] इसी प्रकार यावत् (अधर्मास्तिकाय, आकाशस्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और) अद्धासमय (कालद्रव्य) के अवस्थानकाल के लिये भी समझना चाहिए। - इक्कीसवाँ द्वार ॥२१॥ विवेचन - इक्कीसवाँ अस्तिकायद्वार प्रस्तुत दो सूत्रों ( १३९५ - १३९६ ) के धर्मास्तिकायादि ६ द्रव्यों के स्व-स्वरूप में अवस्थानकाल की चर्चा की गई है। - १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९५ २. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९५ धर्मास्तिकायादि षट् द्रव्यों का अवस्थानकाल- धर्मास्तिकाय आदि छहों द्रव्य अनादि - अनन्त हैं । ये सदैव अपने स्वरूप में अवस्थित रहते हैं । Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद] [४०५ । बाईसवाँ चरमद्वार १३९७. चरिमे णं० पुच्छा। गोयमा ! अणादीए सपज्जवसिए । [१३९७ प्र.] भगवन् ! चरमजीव कितने काल तक चरमपर्याय वाला रहता है ? [१३९७ उ.] गौतम ! (वह) अनादि-सपर्यवसित होता है। १३९८. अचरिमे दुविहे पण्णत्ते तं जहा- अणदीए वा अपजवसिए १ सादीए वा अपजवसिए २।दारं २२॥ ॥पण्णवणाए भगवतीए अट्ठारसमं कयट्ठिइपयं समत्तं ॥ [१३९८ प्र.] भगवन् ! अचरमजीव कितने काल तक अचरमपर्याय-युक्त रहता है ? [१३९८ उ.] गौतम अचरम दो प्रकर का कहा गया है, वह इस प्रकार है - (१) अनादि-अपर्यवसित और (२) सादि-अपर्यवसित । विवेचन- बाईसवाँ चरम-अचरम द्वार- प्रस्तुत दो सूत्रों (१३९७-१३९८) में चरमजीव के स्वस्वपर्याय में निरन्तर अवस्थान का कालमन प्ररूपित किया गया है। चरम-अचरम की परिभाषा - जिसका भव चरम अर्थात् अन्तिम होगा, वह 'चरम' कहलाता है। चरम का सरल अर्थ है- भव्यजीव। जो चरम से भिन्न हो, वह अचरम' है। अभव्य जीव अचरम कहलाता है, क्योंकि उसका कदापि चरम भव नहीं होगा। वह सदाकाल जन्ममरण करता ही रहेगा। एक दृष्टि से सिद्ध जीव भी अचरम हैं, क्योंकि उनमें भी चरमत्व नहीं होता। इसी कारण अचरम के दो प्रकार बताये गए हैं- (१) अनादि-अनन्त और (२) सादि-अनन्त । इनमें से अनादि-अनन्त (अपर्यवसित) जीव अभव्य हैं और सादिपपर्यवसित जीव सिद्ध हैं। ॥ प्रज्ञापनासूत्र : अठारहवाँ कयस्थितिपद समाप्त ॥ १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९५ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + + १. २. ३. एगूणवीसइमं सम्मत्तपयं उन्नीसवाँ सम्यक्त्वपद प्राथमिक प्रज्ञापनासूत्र का यह उन्नीसवाँ 'सम्यक्त्वपद' पद है। मोक्षमार्ग और संसारमार्ग, ये दो मार्ग हैं, जीव की उन्नति और अवनति के लिए। जब जीव सम्यग्दृष्टि हो जाता है तो वह मोक्षमार्ग की सम्यक् आराधना करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है। जब तक वह मिथ्यादृष्टि रहता है, तब तक उसकी प्रवृत्ति संसारमार्ग की ओर ही होती है। उसकी व्रताचरण, तपश्चर्या, नियम, त्याग-प्रत्याख्यान अदि जितनी भी धार्मिक क्रियाएँ होती हैं वे अशुद्ध होती हैं, उसका पराक्रम अशुद्ध होता है, उससे संसारवृद्धि ही होती है। कर्मक्षय करके मोक्ष उपलब्धि वह नहीं कर सकता। इसी आशय से शास्त्रकार प्रस्तुत पद में तीनों दृष्टियों की चर्चा करते हैं ।" जिनेन्द्र-प्र - प्रज्ञप्त जीवादि समग्र तत्त्वों के विषय में जिसकी दृष्टि अविपरीत- सम्यक् हो, वह सम्यग्दृष्टि, जिनप्रज्ञप्त तत्त्वों के विषय में जिसे जरा भी विप्रतिपत्ति (अन्यथाभाव या अश्रद्धा) हो, वह मिथ्यादृष्टि कहलाता है तथा जिसे उस विषय में सम्यक् श्रद्धा भी न हो, और विप्रतिपत्ति भी न हो, वह सम्यग्मिथ्यादृष्टि है। जैसे चावल आदि के विषय में अनजान मनुष्य को उनमें रुचि या अरुचि, दोनों में से एक भी नहीं होती, वैसे ही सम्यग्मिथ्यादृष्टि को जिन - प्रज्ञप्त तत्त्वों (पदार्थों) के विषय में रुचि भी नहीं होती, अरुचि भी नहीं होती। इस पद में जीवसामान्य, सिद्धजीव और चौवीसदण्डकवर्ती जीवों में सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि की विचारणा की गई है। इसमें बताया गया है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि केवल पंचेन्द्रिय ही होते हैं। एकेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। सिद्ध जीव एकान्त सम्यग्दृष्टि होते हैं। द्वीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक के जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते । षट्खण्डागम में संज्ञी और असंज्ञी, ऐसे दो भेदों में पंचेन्द्रिय को विभक्त करके असंज्ञीपंचेन्द्रिय को मिथ्यादृष्टि ही कहा है। सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक होते हैं । षट्खण्डागम में बताया गया है कि जीव किन-किन कारणों से सम्यक्त्व प्राप्त करता है, तथा अन्तिम समय में सम्यक्त्व की मनःस्थिति कैसी होती है ? ++ (ख) असुद्धं तेसिं परक्कंतं, अफला होइ सव्वसो । - सूत्र कृ. (क) नादंसणिस्स नाणं० प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति. पत्रांक ३८८ (क) पण्णवणासुतं भा १, पृ. ३१८ (ग) -उत्तरा. अ. गा. (ख) पण्णवणासुत्तं भा. २, प्रस्तावना पृ. १०१ षट्खण्डागम. पु. १, पृ. २५८, पुस्तक ६, पृ. ४१८-४३७ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगूणवीसइमं सम्मत्तपयं उन्नीसवाँ सम्यक्त्वपद समुच्चय जीवों के विषय में दृष्टि की प्ररूपणा १३९९. जीवा णं भंते ! किं सम्मद्दिट्ठी मिच्छहिंट्ठी सम्मामिच्छद्दिट्ठी ? गोयमा ! जीवा सम्मद्दिट्ठी वि मिच्छद्दिट्ठी वि सम्मामिच्छद्दिट्ठी वि । [१३९९ प्र.] भगवन् ! जीव सम्यग्दृष्टि हैं, मिथ्यादृष्टि हैं अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं ? [१३९९ उ.] गौतम ! जीव सम्यग्दृष्टि भी हैं, मिथ्यादृष्टि भी हैं और सम्यग्मिथ्यादृष्टि भी हैं । विवेचन - समुच्चय जीवों के विषय में दृष्टि की प्ररूपणा प्रस्तुत सूत्र में बताया है कि समुच्च्य जीवों में सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि, ये तीनों ही दृष्टियाँ पाई जाती हैं । - चौवीस दण्डकवर्ती जीवों और सिद्धों में सम्यक्त्वप्ररूपणा १४००. एवं णेरड्या वि । [१४००] इसी प्रकार नैरयिक जीवों में भी तीनों दृष्टियाँ होती हैं । १४०१. असुरकुमारा वि एवं चेव जाव थणियकुमारा । [१४०१] असुरकुमारों से लेकर स्तनितकुमारों तक (के भवनवासी देव) भी इसी प्रकार (सम्यग्दृष्टि भी, मिथ्यादृष्टि भी और सम्यग्मिथ्यादृष्टि भी होते हैं) । १४०२. पुढविक्काइयाणां पुच्छा । गोयमा ! पुढविक्काइया णो सम्मद्दिट्ठी, मिच्छद्दिट्ठी, णो सम्मामिच्छद्दिट्ठी । एवं जाव वणस्सइकाइया | [१४०२ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव सम्यग्दृष्टि होते हैं, मिथ्यादृष्टि होते हैं या सम्यग्मिथ्यादृष्टि होते हैं ? यह प्रश्न है । [१४०२ उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव सम्यग्दृष्टि नहीं होते, वे मिथ्यादृष्टि होते हैं, सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते। इसी प्रकार यावत् (अप्कायिकों, तेजस्कायिकों, वायुकायिकों एवं ) वनस्पतिकायिकों के सम्यक्त्व की प्ररूपणा समझ लेनी चाहिए। १४०३. बेइंदियाणं पुच्छा । गोया ! बेइंदिया सम्मद्दिट्ठी वि, मिच्छद्दिट्ठी वि, णो सम्मामिच्छद्दिट्ठी । एवं जाव चउरेंदिया । Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८] [प्रज्ञापनासूत्रं [१४०३ प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव सम्यग्दृष्टि होते हैं, मिथ्यादृष्टि होते हैं, अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि होते हैं? ___ [१४०३ उ.] गौतम ! द्वीन्द्रिय जीव सम्यग्दृष्टि भी होते हैं, मिथ्यादृष्टि भी होते हैं किन्तु सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते। इसी प्रकर चतुरिन्द्रिय जीवों तक (प्ररूपणा करना चाहिए)। १४०४. पंचेंदियतिरिक्खजोणिय मणुस्सा वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया य सम्मट्ठिी वि, मिच्छट्ठिी वि, सम्मामिच्छद्दिट्ठी वि।। [१४०४.] पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव सम्यग्दृष्टि भी होते हैं, मिथ्यादृष्टि भी होते हैं और मिश्र (सम्यग्मिथ्या) दृष्टि भी होते हैं। १४०५. सिद्धाणं पुच्छा। गोयमा ! सिद्धा णं सम्मट्ठिी, णो मिच्छट्टिी णो सम्मामिच्छट्ठिी। ॥पण्णवणाए भगवतीए एगूणवीसइमं सम्मत्तपयं समत्तं॥ [१४०५ प्र.] भगपन् ! सिद्ध (मुक्त) जीव सम्यग्दृष्टि होते हैं, मिथ्यादृष्टि होते हैं या सम्यग्मि,यादृष्टि होते हैं? [१४०५ उ.] गौतम ! सिद्ध जीव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, वे न तो मिथ्यादृष्टि होते हैं, और न सम्यग्मिथ्यादृष्टि होते हैं। विवेचन - चौवीस दण्डकवर्ती जीवों और सिद्धों में सम्यक्त्व की प्ररूपणा - प्रस्तुत छह सूत्रों में नैरयिकों से लेकर वैमानिक देवों तक तथा सिद्धजीव सम्यग्दृष्टि होते हैं, मिथ्यादृष्टि होते हैं या मिश्रदृष्टि ? इसका विचार किया गया है। निष्कर्ष - समुच्चय जीव, नैरयिक, भवनवासी देव, तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय, मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में तीनों ही दृष्टियाँ पाई जाती हैं। विकलेन्द्रिय सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते, सिद्धजीव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं। पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय जीव मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। एक ही जीव में एक साथ तीनों दृष्टियाँ नहीं होती - जिन जीवों में तीनों दृष्टियाँ बताई हैं, वे एक जीव में एक साथ एक समय में नही होती, परस्पर विरोधी होने के कारण एक जीव में, एक समय में एक ही दृष्टि हो सकती है। अभिप्राय यह है कि जैसे कोई जीव सम्यग्दृष्टि होता है, कोई मिथ्यादृष्टि और कोई सम्यग्मिथ्यादृष्टि होता है, उसी प्रकार कोई नारक देव, मनुष्य या पंचेन्द्रियतिर्यञ्च सम्यग्दृष्टि होता है, तो कोई मिथ्यादृष्टि होता है, तथैव कोई सम्यग्मिथ्यादृष्टि होता है। एक समय में एक जीव में एक ही दृष्टि होती हैं, तीनों दृष्टियाँ नहीं। ॥प्रज्ञापनासूत्र : उन्नीसवाँ सम्यक्त्वपद समाप्त ॥ १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९३ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. १. वीसइमं : अंतकिरियापयं वीसवाँ : अन्तक्रियापद प्राथमिक यह प्रज्ञापनासूत्र का बीसवाँ अन्तक्रियापद है । इस पद में विविध पहलुओं से अन्तक्रिया और उससे होने वाली विशिष्ट उपलब्धियों के विषय गूढ़ विचारणा की गई है । में भारत का प्रत्येक आस्तिक धर्म और दर्शन या मत-पंथ पुनर्जन्म एवं मोक्ष मानता है और अगला जन्म अच्छा मिले या जन्म-मरण से सर्वथा छुटकारा मिले, इसके लिए विविध साधनाएँ, तप, संयम, त्याग, प्रत्याख्यान, व्रत, नियम आदि का निर्देश करता है । प्राणी का जन्म लेना जितना महत्वपूर्ण है, उतना ही, बल्कि उससे भी अधिक उसके जीवन का अन्त महत्वपूर्ण माना जाता है । अन्तक्रियापद में इसी का विचार किया गया है, ताकि प्रत्येक मुमुक्षु साधक यह जान सके कि किसकी अन्तक्रिया अच्छी और बुरी होती है और क्यों ? 'अन्तक्रिया का अर्थ है - भव (जन्म) का अन्त करने वाली क्रिया । इस क्रिया से दो परिणाम आते हैंया तो नया भव (जन्म) मिलता है, अथवा मनुष्यभव का सर्वथा अन्त करके जन्म-मरण से सर्वथा मुक्त हो जाता है । अतः अन्तक्रिया शब्द यहाँ दोनों अर्थो में प्रयुक्त हुआ है - (१) मोक्ष, (२) इस भव के शरीरदि से छुटकारा - मरण । इस अन्तक्रिया का विचार प्रस्तुत पद में चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में दस द्वारों द्वारा किया गया है(१) अन्तक्रियाद्वार, (२) अनन्तरद्वार, (३) एकसमयद्वार, (४) उद्वृत्तद्वार, (५) तीर्थकरद्वार, (६) चक्रीद्वार, (७) बलदेवद्वार, (८) वासुदेवद्वार, (९) माण्डलिकद्वार और (१०) रत्नद्वार। प्रस्तुतपद के उपसंहार में बतलाया गया है, कौन-सा आराधक या विराधक मर कर कौन-कौन से देवों में उत्पन्न होता है ? अन्त में अन्तक्रिया से सम्बन्धित असंज्ञी (अकामनिर्जरायुक्त जीव) के आयुष्यबन्ध की और प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्र ३९७ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१०] । प्रज्ञापनासूत्र उसके अल्पबहुत्व की चर्चा है । + प्रथम अन्तक्रियाद्वार-में यह विचारणा की गई है कि कौन जीव अन्तक्रिया (मोक्षप्राप्ति) कर लेता है, कौन नहीं ? एकमात्र मनुष्य ही इस प्रकार की अन्तक्रिया का अधिकारी है । जीव के नारक आदि अनेक पर्याय होते है । अत: नारकपर्याय में रहा जीव मनुष्यभव में जाकर तथाविधयोग्यता प्राप्त करके अन्तक्रिया (मोक्षप्राप्ति) कर सकता है, इसलिए कहा जाता है कोई नारक मुक्त हो सकता है, कोई नहीं। + द्वितीय अनन्तरद्वार-में यह विचारणा की गई है कि नारकादि जीव अनन्तरागत अन्तक्रिया करते हैं या परम्परागत अन्तक्रिया करते हैं ? अर्थात्-कोई जीव नारकादि भव में से मर कर व्यवधान बिना ही मनुष्यभव में आकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है, अथवा 'नारकादि भव के पश्चात् एक या अनेक भव करके फिर मनुष्यभव में आकर मुक्ति प्राप्त करता है ? इसका उत्तर यह है कि प्रारम्भ के चार नरकों में से आने वाला नारक अनन्तरागत और परम्परागत दोनों प्रकार से अन्तक्रिया कर सकता है । परन्तु बाद के तीन नारकों में से आने वाला नारक परम्परा से ही अन्तक्रिया कर पाता है, अर्थात्-नरक के बाद एक या अनेक भव करके फिर मनुष्यभव में आकर तथाविध साधना करके मोक्ष प्राप्त कर सकता है। भवनपति एवं पृथ्वी-अप्-वनस्पतिकाय में से आने वाले जीव दोनों प्रकार से अन्तक्रिया कर सकते है। तेजस्कायिक, वायुकायिक एवं विकलेन्द्रिय जीव परम्परागत ही अन्तक्रिया कर सकते है । + तृतीय एकसमयद्वार-में अनन्तरागत अन्तक्रिया कर सकने वाले नारकादि एक समय में जघन्य और उत्कृष्ट कितनी संख्या में अन्तक्रिया करते हैं ? इसकी प्ररूपणा की गई है । चतुर्थ उद्वृत्तद्वार-में यह बताया गया है कि नैरयिक आदि चौवीस दण्डकवर्ती जीव मर कर सीधा (बिना व्यावधान के) चौवीस दण्डकों में से कहाँ उत्पन्न हो सकता है ? यद्यपि यहाँ उद्वृत्त शब्द समस्त गतियों में होने वाले मरण के लिए प्रयुक्त है, परन्तु षट्खण्डागम में उसके बदले उवृत्त, कालगत और च्युत शब्दों का प्रयोग किया गया है । सामान्यतया जैनागमों में वैमानिक तथा ज्योतिष्क देवों के अन्यत्र जाने के लिए कालगत और नारक, भवनवासी और वाणव्यन्तर के लिए उद्वृत्त शब्दप्रयोग दिखाई देता है । इसके साथ ही इस द्वार में मर कर उस-उस स्थान में जाने के बाद जीव क्रमशः धर्मश्रवण, बोध, श्रद्धा, मतिश्रुतज्ञान, व्रतग्रहण, अवधिज्ञान, अनगारत्व, मनःपर्यायज्ञान, केवलज्ञान और अन्तक्रिया (सिद्धि), इन में से क्या-क्या प्राप्त हो सकते है ? इसकी चर्चा है । २. ३. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्र ३९७ वही, पत्र ३९७ षट्खण्डागम पुस्तक ६, पृ. ४७७ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद] [ ४११ + पंचम तीर्थंकरद्वार-में यह निर्देश किया है कि नारकादि मर कर सीघे मनुष्यभव में आकर तीर्थंकर पद प्राप्त कर सकता है, या नहीं? साथ ही यह भी बताया गया है कि अगर तीर्थंकर-पद नहीं प्राप्त कर सकता है तो विकास क्रम में-अन्तक्रिया, विरति, विरताविरति, सम्यक्त्व, मोक्ष, धर्मश्रवण, मनःपर्यायज्ञान, इनमें से क्या प्राप्त कर सकता है ? छठे से दसवें द्वार तक-में क्रमशः चक्रवर्तीपद, बलदेवपद, वासुदेवपद, माण्डलिकपद एवं चक्रवर्ती के १४ रत्नों में से कोई भी एक रत्न, नारकों आदि सीघे कौन प्राप्त कर सकता है ? यह बताया गया है।' अन्त में असंयम भव्यद्रव्यदेव, संयम-अविराधक, संयम-विराधक, संयमासंयम-अविराधक, संयमासंयम-विराधक, असंज्ञी (अकामनिर्जरायुक्त) तापस, कान्दार्पिक, चरक-परिव्राजक, किल्विषिक, तैरश्चिक, आजीवक, आभियोगिक, स्वलिंगी एवं दर्शनभ्रष्ट, इनमें से किसकी किन देवों में उत्पत्ति है, यह बताया गया है। ++ १. पण्णवण्णासुत्तं भा. १, पृ. ३२७ पण्णवण्णासुत्तं भा. २, पृ. १६५-१६६ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसइमं : अंतकिरियापयं वीसवाँ : अन्तक्रियापद अर्थाधिकार १४०६. णेरइय अंतक्रिरिया १ अणंतरं २ एगसमय ३ उव्वट्ठा ४ । तित्थगर ५ चक्कि ६ बल ७ वासुदेव ८ मंडलिय ९ रयणा य १० ॥२१३ ॥दारगाहा ॥ द्वारगाथार्थ - अन्तक्रियासम्बन्धी १० द्वार-(१) नैरयिकों की अन्तक्रिया, (२) अनन्तरागत जीवअन्तक्रिया, (३) एक समय में अन्तक्रिया, (४) उद्धृत जीवों की उत्पत्ति, (५) तीर्थकर द्वार, (६) चक्रवर्तीद्वार, (७) बलदेवद्वार, (८) वासुदेवद्वार, (९) माण्डलिकद्वार और (१०) (चक्रवर्ती के सेनापति आदि) रत्नद्वार । यह द्वार-गाथा है ॥२१३ ।। विवेचन - बीसवें पद में अन्तक्रिया आदि से सम्बन्धित दस द्वारों का निरूपण किया गया है । वे इस प्रकार हैं - (१) अन्तक्रियाद्वार - इसमें नारक आदि चौवीस दण्डकों की अन्तक्रिया-सम्बन्धी प्ररूपणा है। (२)अनन्तरद्वार - इसमें अनन्तरागत एवं परम्परागत जीव को अन्तक्रिया से सम्बन्धित निरूपण है। (३) एकसमयद्वार - इसमें एक समय के जीवों की अन्तक्रिया से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर है । (४) उवृत्तद्वार - इसमें नैरयिकों से उद्वृत्त होकर नैरयिक आदि में उत्पन्न होने तथा पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के धर्मश्रवण, केवलज्ञानदि तथा शील, व्रत, गुणव्रत प्रत्याख्यान एवं पौषधोपवास आदि के सम्बन्ध मे प्रश्नोत्तर है। (५) तीर्थकरद्वार - नैरयिकों से लेकर सर्वार्थसिद्ध देवों से उद्धृत जीवों का तीर्थकरत्व प्राप्त होने के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर हैं । ... (६) चक्रिद्वार - इसमें चौवीस दण्डकों से उद्धृत जीवों को चक्रवर्तित्व प्राप्त होने के सम्बन्ध में चर्चा Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद] [ ४१३ (७) बलदेवद्वार - इसमें बलदेवत्वप्राप्ति सम्बन्धी चर्चा है । (८) वासुदेवद्वार - इसमें वासुदेवत्वप्राप्ति सम्बन्धी चर्चा है (९) माण्डलिकद्वार - इसमें माण्डलिकत्वप्राप्ति सम्बन्धी चर्चा है । (१०) रत्नद्वार - इसमें सेनापतिरत्न आदि चक्रवर्ती के रत्नों की प्राप्ति से सम्बन्धित निरूपण है। अन्तक्रियाः दो अर्थों में - प्रस्तुत पद में अन्तक्रिया शब्द दो अर्थो में प्रयुक्त हुआ है-(१) कर्मों या भव के अन्त (क्षय) करने की क्रिया और (२) अन्त अर्थात्-अवसान (मरण) की क्रिया। वैसे तो जैनागमों में अन्तक्रिया समस्त कर्मो (या भव) के अन्त करने के अर्थ में रूढ़ है, तथापि भव का अन्त करने को क्रिया से दो परिणाम आते हैं-या तो मोक्ष प्राप्त होता है, या मरण होता है-उस भव के शरीर से छुटकारा मिलता है । इसलिए यहाँ अन्तक्रिया शब्द इन दोनों (मोक्ष और मरण) अर्थो में प्रयुक्त हुआ है। प्रस्तुत पद में इसी अन्तक्रिया का विचार चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में दस द्वारों के माध्यम से किया गया है । इन दस द्वारों के आधार पर कहा जा सकता है कि प्रथम के तीन द्वारों में अन्तक्रिया अर्थात्-मोक्ष को चर्चा है और बाद के द्वारों का सम्बन्ध भी अन्तक्रिया के साथ है, किन्तु वहाँ अन्तक्रिया का अर्थ मृत्यु करें तभी संगति बैठ सकती है । इसके अतिरिक्त इन द्वारों में अन्तक्रिया का अर्थ-मोक्ष भी घटित हो सकता है, क्योंकि उन द्वारों में उन-उन योनियों में उद्वर्त्तना आदि करने वालों को मोक्ष संभव है या नहीं? ऐसा प्रश्न भी प्रस्तुत किया गया है। प्रथम : अन्तक्रियाद्वार १४०७.[१] जीवे णं भंते । अंतकिरियं करेजा ? गोयमा ! अत्थेगइए करेजा, अत्थेगइए, णो करेजा? [१४०७-१ प्र.] भगवन् ! क्या जीव अन्तक्रिया करता है ? [ए.] हाँ गौतम ! कोई जीव (अन्तक्रिया करता है ।) (और) कोई जीव नहीं करता है । [२] एवं णेरइए जाव वेमाणिए। ___ [१४०७-२] इसी प्रकार नैरयिक से लेकर वैमानिक तक की अन्तक्रिया के सम्बन्ध में समझ लेना चाहिए। १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९६-३९७ २. (क) अन्तक्रियामिति - अन्तः-अवसानं, तच्च प्रस्तावादिह कर्मणामवसातव्यम्, तस्य क्रिया - करणमन्तक्रिया - कर्मान्तकरण मोक्ष इति भावार्थः। - प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्र ३९७ (ख) पण्णवण्णासुत्तं (परिशिष्ट-प्रस्तावनात्मक) भा. २, पृ. ११२ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र विवेचन - प्रस्तुत सूत्र के प्रथम अंश में समुच्चय जीवों की अन्तक्रिया के सम्बन्ध में चर्चा की गई है, जबकि द्वितीय अंश में नैरयिक से वैमानिक तक चौवीस दण्डकवर्ती जीवों की अन्तक्रिया के विषय में चर्चा है । ४१४ ] अन्तक्रिया - प्राप्ति - अप्राप्ति का रहस्य - जो जीव तथाविध भव्यत्व के परिपाकवश मनुष्यत्व आदि समग्र सामग्री प्राप्त कर के उस सामग्री के बल से प्रकट होने वाले अतिप्रबल वीर्य के उल्लास से क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर केवलज्ञान प्राप्त करके केवल घातिकर्मों का ही नहीं अघातिकर्मों का भी क्षय कर देता है, वही अन्तक्रिया करता है, अर्थात् समस्त कर्मो का क्षय करके मोक्ष प्राप्त करता है। इससे विपरीत प्रकार का जीव अन्तक्रिया (मोक्ष) प्राप्त नहीं कर पाता । इसी रहस्य के अनुसार समस्त जीवों की अन्तक्रिया की प्राप्तिअप्राप्ति समझ लेनी चाहिए । १४०८.[ १ ] णेरइए णं भंते ! णेरइएस अंतकिरियं करेज्जा ? गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे । १. [१४०८-१ प्र.] क्या नारक, (नरकगति) में रहता हुआ अन्तक्रिया करता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है । [ २ ] णेरइए णं भंते ! असुरकुमारेसु अंतकिरियं करेज्जा ? गोमा ! णो इट्ठे समट्ठे । [१४०८-२ प्र.] भगवन् ! क्या नारक, असुरकुमारों में अन्तक्रिया करता है ? [3] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । [ ३ ] एवं जाव वेमाणिएसु । णवरं मणूसेसु अंतकिरियं करेज त्ति पुच्छा । गोयमा ! अत्थेगइए करेज्जा, अत्थेगइए णो करेज्जा । [१४०८-३] इसी प्रकार नारक की वैमानिकों तक में ( अन्तक्रिया की असमर्थता समझ लेनी चाहिए।) [प्र.] विशेष प्रश्न ( यह है कि ) नारक क्या मनुष्यों में (आकर ) अन्तक्रिया करता है ? [उ.] गौतम ! कोई नारक (अक्रिया) करता है और कोई नहीं करता । १४०९. एवं असुरकुमारे जाव वेमाणिए । एवमेते चडवीसं चउवीसदंडगा ५७६ भवंति । ॥ दारं १ ॥ प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्र ३९७ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद ] [१४०९] इसी प्रकार असुरकुमार से लेकर वैमानिक तक के विषय में भी समझ लेना चाहिए । इसी तरह चौवीस दण्डकों (में से प्रत्येक) का चौवीस दण्डकों में ( अन्तक्रिया का निरूपण करना चाहिए ।) (वे सब मिला कर २४४ X २४ = ) ५७६ (प्रश्नोत्तर) हो जाते हैं । प्रथम द्वार ॥ १ ॥ विवेचन - नारक की नारकादि में अन्तक्रिया को असमर्थता का कारण नारक जीव नारक पर्याय में रहते हुए अन्तक्रिया इसलिए नहीं कर सकते कि समस्त कर्मों का क्षय (मोक्ष) तभी होता है, जब सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चरित्र, ये तीनों मिलकर प्रकर्ष को प्राप्त हों । नैरयिक- पर्याय से सम्यग्दर्शन का प्रकर्ष कदाचित् क्षायिक - सम्यग्दृष्टि जीव में हो भी जाए, किन्तु सम्यग्ज्ञान के प्रकर्ष की योग्यता और सम्यक्चारित्र के परिणाम नारकपर्याय में उत्पन्न हो नहीं सकते, क्योंकि नारक भव का ऐसा ही स्वभाव है । [ ४१५ - इसी प्रकार नारकजीव, असुरकुमारों से लेकर स्तनितकुमारों में, पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रियों में, विकलेन्द्रियों में, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों में, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों में रहता हुआ अन्तक्रिया नहीं कर सकता । इसका भी कारण वही भवस्वभाव है । मनुष्यों में नारकादि के जीवों की अन्तक्रिया - मनुष्य पर्याय से आया हुआ कोई नारक, जिसे मनुष्यत्व आदि की परिपूर्ण सामग्री प्राप्त हो गई हो, वह पूर्वोक्त प्रकार क्रमशः समस्त कर्म क्षय करके अन्तक्रिया करता है और कोई नारक, जिसे परिपूर्ण सामग्री प्राप्त नही होती, वह अन्तक्रिया नहीं कर पाता । इसी प्रकार मनुष्यों में आया हुआ कोई-कोई असुरकुमार आदि (असुरकुमार से लेकर वैमानिक देव तक) का जीव, जिसे परिपूर्ण सामग्री प्राप्त हो जाती है, वह अन्तक्रिया कर लेता है और जिसे परिपूर्ण सामग्री नहीं मिलती, वह अन्तक्रिया नहीं कर पाता । १. २. ३. प्रत्येक दण्डकवर्ती जीव की चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में अन्तक्रिया - नारक आदि प्रत्येक दण्डक का जीव, नारक आदि दण्डकों में से प्रत्येक दण्डक में रहते हुए अन्तक्रिया कर सकता है या नहीं ? इस प्रकार के कुल २४x२४ = ५७६ प्रश्नोत्तर विकल्प हो जाते हैं । द्वितीय : अनन्तरद्वार १४१०. [१] णेरड्या णं भंते ! कि अर्णतरागता अंतकिरियं करंति परंपरागया अंतकिरियं करेंति ? गोयमा ! अणंतरागया वि अंतकिरियं करेंति, परंपरागता वि अंतकिरियं करेति । प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्र ३९७ वही, पत्र ३९७ वही, पत्र ३९७ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ ] [प्रज्ञापनासूत्र [१४१०-१ प्र.] भगवन् ! नारक (जीव) क्या अनन्तरागत अन्तक्रिया करते हैं, अथवा पराम्परागत अन्तक्रिया करते हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) अनन्तरागत भी अन्तक्रिया करते हैं और परम्परागत भी अन्तक्रिया करते हैं । [२] एवं रयणप्पभापुढविणेरइया वि जाव पंकप्पभापुढविणेरड्या । [१४१०-२ प्र.] इसी प्रकार रत्नप्रभा नरकभूमि के नारकों से लेकर पंकप्रभा नरकभूमि के नारकों तक की अन्तक्रिया के विषय में समझ लेना चाहिए । [३] धूमप्पभापुढविणेरड्या णं भंते ! पुच्छा। गोयमा ! णो अणंतरागया अंतकिरियं करेंति, परंपरागया अंतकिरियं करेंति । एवं जाव अहेसत्तमापुढविणेरइया । [१४१०-३ प्र.] (अब) प्रश्न है - क्या धूमप्रभापृथ्वी के अनन्तरागत नारक अन्तक्रिया करते हैं या परम्परागत अन्तक्रिया करते हैं ? [उ.] हे गोतम ! (वे) अनन्तरागत अन्तक्रिया नहीं करते, (किन्तु) परम्परागत अन्तक्रिया करते हैं । इसी प्रकार अध:सप्तमपृथ्वी (तमस्तमाभूमि तक) के नैरयिकों (की अन्तक्रिया के विषय में जान लेना चाहिए)। १४११. असुरकुमारा जाव थणियकुमारा पुढवि-आउ-वणस्सइकाइया य अर्णतरागया वि अंतकिरियं करेंति, परम्परागया वि अंतकिरियं करेंति । [१४११] असुरकुमार से (लेकर) स्तनितकुमार (तक के भवनपति देव) तथा पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक और (एकेन्द्रिय जोव) अनन्तरागत भी अन्तक्रिया करते हैं और परम्परागत भी अन्तक्रिया करते हैं । १४१२. तेउ-वाउ-बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिदिया णो अणंतरगया अंतकिरियं पकरेंति, परंपरागया अंतकिरियं पकरेंति । ___ [१४१२] तेजस्कायिक, वायुकायिक (एवं) द्वोन्द्रिय, त्रीन्द्रिय (और) चतुरिन्द्रिय (विकलेन्द्रिय त्रस जीव) अनन्तरागत अन्तक्रिया नहीं करते, किन्तु परम्परागत अन्तक्रिया करते है । १४१३. सेसा अणंतरागया वि अंतकिरियं पकरेंति, परंपरागया विअंतकिरियंपकरेंति ।दारं२॥ [१४१३] शेष (सभी जीव) अनन्तरागत भी अन्तक्रिया करते हैं और परम्परागत भी अन्तक्रिया करते -द्वितीय द्वार ॥२॥ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद] [ ४१७ विवेचन - अन्तक्रिया : अनन्तरागत या परम्परागत ? - अन्तक्रिया (मुक्ति) केवल मनुष्यभव में ही हो सकती है, इसलिए द्वितीय द्वार में नारक से लेकर वैमानिक तक के सभी जीवों के विषय में प्रश्न है कि वे नारक आदि के जीव जो अन्तक्रिया करते है, वे नारकादिभव में से मर कर व्यवधानरहित सीधे मनुष्यभव में आकर (अनन्तरागत ) अन्तक्रिया (मोक्षप्राप्ति) करते हैं, या नारकादिभव के बाद एक या अनेक भव करके फिर मनुष्यभव में आकर (परम्परागत) अन्तक्रिया करते हैं ? यह इन सभी प्रश्नों का आशय है ।' जीवों की अनन्तरागत और परम्परागत अन्तक्रिया का निर्णय - समुच्चयरूप से नारक जीव दोनों प्रकार से अन्तक्रिया करते हैं । अर्थात् नरक से सीधे मनुष्यभव में आ कर भो अन्तक्रिया करते हैं और नरक से निकल कर तिर्यञ्च आदि के भव करके फिर मनुष्यभव में आ कर भो अन्तक्रिया करते हैं। किन्तु विशेषरूप से रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रथा और पंकप्रभा, इन चारों नरकभूमियों के नारक अनन्तरागत अन्तक्रिया करते हैं और परम्परागत भी । किन्तु शेष तीन (धूमप्रभा, तमःप्रभा और तमस्तम:प्रभा) नरकभूमियों के नारक केवल परम्परागत अन्तक्रिया करते हैं । इसका कारण पूर्वोक्त ही समझना चाहिए। असुरकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक १० प्रकार के भवनपति देव तथा पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक, ये तीन प्रकार के एकेन्द्रिय जीव अनन्तरागत और परम्परागत दोनों प्रकार से अन्तक्रिया करते हैं । तेजस्कायिक, वायुकायिक जीव मर कर मनुष्य होते ही नहीं, इस कारण और तीन विकलेन्द्रिय जीव भवस्वभाव के कारण परम्परागत अन्तक्रिया ही करते हैं । ये जीव सीधे मनुष्यभव में आकर अन्तक्रिया नहीं कर सकते, ये अपने-अपने भव से निकल कर तिर्यञ्चादिभव करके फिर मनुष्यभव में आ कर अन्तक्रिया करते हैं । इनके अतिरिक्त पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य, , वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों में से जिनकी योग्यता होती, वे अनन्तरागत अन्तक्रिया करते हैं और जिनकी योग्यता नहीं होतो, वे परम्परागत अन्तक्रिया करते हैं । इन सम्बन्ध में पूर्वोक्त युक्ति ही समझनी चाहिए। तृतीय : एकसमयद्वार १४१४.[१] अणंतरागया णं भंते ! णेरइया एगसमएणं केवतिया अंतकिरियं पकरेंति ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं दस । [१४१४-१ प्र.] भगवन् ! अनन्तरागत कितने नारक एक समय में अन्तक्रिया करते हैं ? [उ.] गोतम ! (वे एक समय में) जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट दस (अन्तक्रिया करते हैं ।) [२] रयणप्पभापुढविणेरइया वि एवं चेव जाव वालुयप्पभापुढविणेरइया । (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्र ३९७ (क) प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्र ३९७ (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी. भा. ४. पृ. ४९२ (ख) पण्णवण्णासुत्तं (परिशिष्ट) भा. २, पृ. ११२ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र [१४१४-२] (अनन्तरागत) रत्नप्रभापृथ्वी के नारक भी इसी प्रकार ( अन्तक्रिया करते हैं) यावत् बालुकाप्रभापृथ्वी के नारक भी ( इसी प्रकार अन्तक्रिया करते हैं ।) १८] [ ३ ] अणंतरागता णं भंते ! पंकप्पभापुढविणेरड्या एगसमएणं केवतिया अंतकिरियं पकरेंति ? गोयमा ! जहणेणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं दस । [१४१४-३ प्र.] भगवन् ! अनन्तरागत पंकप्रभापृथ्वी के कितने नारक एक समय में अन्तक्रिया करते हैं ? [उ.] गौतम ! (वे एक समय में) जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट दस ( अन्तक्रिया करते हैं ।) १४१५. [ १ ] अणंतरागया णं भंते ! असुरकुमारा एगसमएणं केवइया अंतकिरियं पकरेंति ? गोयमा ! जहणेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं दस । [१४१५-१ प्र.] भगवन् ! अनन्तरागत कितने असुरकुमार एक समय में अन्तक्रिया करते हैं ? [उ.] गौतम ! (वे एक समय में) जघन्य एक, दो या तीन (और) उत्कृष्ट दस ( अन्तक्रिया करते हैं ।) [ २ ] अणंतरागयाओ णं भंते ! असुरकुमारीओ एगसमएणं केवतियाओ अंतकिरियं पकरेंति ? गोयमा ? जहणेणं एक्का वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं पंच । [१४१५-२ प्र.] भगवन् ! अनन्तरागता कितनी असुरकुमारियाँ एक समय में अन्तक्रिया करती हैं ? [उ.] गौतम ! (वे एक समय में) जघन्य एक, दो या तीन (और) उत्कृष्ठ पांच ( अन्तक्रिया करती हैं ।) [३] एवं जहा असुरकुमारा सदेवीया तहा जाव थणियकुमारा । [१४१५-३] इसी प्रकार जैसे अनन्तरागत असुरकुमारों तथा उनकी देवियों की ( संख्या एक समय में अन्तक्रिया करने को बताई है) उतनी हो स्तनितकुमारों (तथा उनकी देवियों) तक की संख्या ( अन्तक्रिया के सम्बन्ध में समझ लेना चाहिए ।) १४१६. [ १ ] अणंतरागया णं भंते ! पुढविक्काइया एगसमएणं केवतिया अंतकिरियं पकरेंति ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं चत्तारि । [१४१६-१ प्र.] भगवन ! कितने अनन्तरागत पृथ्वीकायिक एक समय में अन्तक्रिया करते हैं? Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद] [ ४१९ [उ.] गौतम ! (वे एक समय में) जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट चार (अन्तक्रिया करते हैं।) [२] एवं आउक्काइया वि चत्तरि । वणस्सइकाइया छ । पंचेंदियतिरिक्खजोणिया दस । तिरिक्खजोणिणीओ दस । मणूसा दस । मणूसीओ वीसं । वाणमंतरा दस । वाणमंतरीओ पंच। जोइसिया वींस । वेमाणिया अट्ठसतं । वेमाणिणीओ वीसं । दारं ३ ॥ [१४१६-२] इसी प्रकार (अप्कायिक आदि जघन्य तो एक समय में एक दो या तीन और उत्कृष्टतः) अप्कायिक भी चार (अन्तक्रिया करते हैं ;) वनस्पतिकायिक छह, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च दस, (पंचेन्द्रिय) तिर्यञ्च स्त्रियाँ दस, मनुष्य दस, मनुष्यनियाँ बीस, वाणव्यन्तर देव दस, वाणव्यन्तर देवियाँ पांच, ज्योतिष्क देव दस, ज्योतिष्क देवियाँ बीस, वैमानिक देव एक सौ आठ, वैमानिक देवियाँ वीस (अन्तक्रिया करती हैं ।) विवेचन - प्रस्तुत द्वार में केवल अनन्तरागत अन्तक्रिया कर सकने वाले जीवों के सम्बन्ध में प्रश्र है कि वे एक समय में कितनी संख्या में अन्तक्रिया करते हैं ? अनन्तरागत अन्तक्रिया कर सकने वाले जीवों की संख्या-सूचक तालिका. इस प्रकार है - अनन्तरागत जीव जघन्य संख्या उत्कृष्ट संख्या नारक (समुच्चय) १,२,३, प्रथम, द्वितीय, तृतीय नारक १,२,३ चतुर्थ पृथ्वी के नारक १,२,३ समस्त भवनपति देव १,२,३ समस्तं भवनपति देवियाँ १,२,३ पृथ्वीकाय, अप्काय १,२,३ वनस्पतिकायिक १,२,३ पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च १,२,३ पंचेन्द्रिय तिर्यञ्ची (स्त्री) १,२,३ मनुष्य (नर) १,२,३ मनुष्य (नारी) १,२,३ वाणव्यन्तर देव १,२,३ वाणव्यन्तर देवियाँ १,२,३ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र १,२,३ - २०१ ४२० ] ज्योतिष्क देव १,२,३ ज्योतिष्क देवियाँ . . २० वैमानिक देव १,२,३ १०८ वैमानिक देवियाँ १,२,३ अनन्तरागत जीव : पूर्वभव-पर्याय की अपेक्षा से - यद्यपि नारक आदि जीव नरक आदि से निकल कर सीधे मनुष्यभव में आ जाने के बाद नारक आदि नहीं रहते, वे सब मनुष्य हो जाते हैं, फिर भी उन्हे शास्त्रकार ने जो अनन्तरागत आदि कहा है, वह कथन पूर्वभव-पर्याय की अपेक्षा से समझना चाहिए । वस्तुतः अनन्तरागत नारक आदि से तात्पर्य उन जीवों से है, जो पूर्वभव में नारक आदि थे और वहाँ से निकल कर सीघे मनुष्यभव में आ कर मनुष्य बने हैं । चतुर्थ : उद्वृत्तद्वार १४१७. णेरइए णं भंते ! णेरइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता णेरइएसु उववजेजा? गोयमा ! णे इणढे समठे । [१४१७ प्र.] भगवन् ! नारक जीव, नारकों में से उद्धर्तन (निकल) कर क्या (सीधा) नारकों में उत्पन्न होता है? [उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात)समर्थ (शक्य) नहीं है । १४१८. णेरइए णं भंते ! णेरइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता असुरकुमारेसु उववजेजा? गोयमा ! णे इणढे समढे । [१४१८ प्र.] भगवन् ! नारक जीव नारकों में से निकल कर क्या (सीधा) असुरकुमारों में उत्पन्न हो सकता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । १४१९. एवं निरंतरं जाव चउरि दिएसु पुच्छा । गोयमा ! णो इणढे समढे । १. २. पण्णवणासुत्तं (परिशिष्ट) भा. २, पृ. ११३ (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९८ (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी. भा. ४, पृ. ४९८ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद] [४२१ [१४१९ प्र.] इसी तरह (नैरयिकों में से निकल कर) निरन्तर (व्यवधानरहित-सीधा) (नागकुमारों से ले कर) चतुरिन्द्रिय जीवों तक में (उत्पन्न हो सकता है ?) ऐसी पृच्छा करनी चाहिए । [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । १४२०. [१] णेरइए णं भंते ! णेरइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जेज्जा? गोयमा ! अत्थेगइए अववजेजा, अत्यंगइए णो उववजेजा। [१४२०-१ प्र.] भगवन् ! नारक जीव नारकों में से उद्वर्त्तन कर अन्तर (व्यवधान) रहित (सीधा) पंचेन्द्रियतिर्यञ्च में अत्पन्न हो सकता है ? गौतम ! (इनमें से) कोई उत्पन्न हो सकता है (और) कोई उत्पन्न नहीं हो सकता । [२] जे णं भंते ! णेरइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु उववजेजा से णं केवलिपण्णत्तं धर्म लभेजा सवणयाए ? गोयमा ! अत्थेगइए लभेजा अत्थेगइए णो लभेजा। [१४२०-२ प्र.] भगवन् ! जो नारक नारकों में से निकल कर सीधा तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों में उत्पन्न होता है, क्या वह केवलिप्ररूपित धर्मश्रवण को प्राप्त कर सकता है ? [उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई धर्मश्रवण को प्राप्त कर सकता है और कोई नहीं कर सकता। [३] जे णं भंते ! केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए से णं केवलं बोहिं बुझेजा। गोयमा ! अत्थेगइए बुझेजा, अत्थेगइए णो बुझेजा । [१४२०-३ प्र.] भगवन् ! जो (पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में उत्पन्न जीव) केवलि-प्ररूपित धर्मश्रवण प्राप्त कर सकता है, क्या वह केवल (शुद्ध) वोधि को समझ सकता है ? [उ.] गौतम ! (इनमें से) कोई (केवलबोधि) को समझ पाता है (और) कोई नहीं समझ पाता। [४] जे णं भंते ! केवलं बोहिं बुझेजा से णं सद्दहेज्जा पत्तिएजा रोएज्जा? गोयमा ! सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा । [१४२०-४ प्र.] भगवन् ! जो (नैरयिकों से तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय में अनन्तरागत जीव) केवल बोधि को समझ पाता है, क्या वह (उस पर) श्रद्धा करता है, प्रतीति करता है (तथा) रुचि करता है ? [उ.] (हाँ) गौतम ! (वह) श्रद्धा करता है, प्रतीति करता है (तथा) रुचि करता है । Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ ] [प्रज्ञापनासूत्र [५]जेणंभंते ! सद्दहेजा पत्तिएजारोएजा से णं आभिणिबोहियणाण-सुयणाणाई उप्पाडेजा? हंता ! गोयमा ! उप्पाडेजा। [१४२०-५ प्र.] भगवन् ! जो (उस पर) श्रद्धा, प्रतीति और रुचि करता है (क्या) वह आभिनिबोधिकज्ञान (और) श्रुतज्ञान उपार्जित (प्राप्त) कर लेता है ? [उ.] हाँ गौतम ! वह (इन ज्ञानों को) प्राप्त कर लेता है । [६] जे णं भंते ! आभिणिबोहियणाण-सुयणाणाइं उप्पाडेजा से णं संचाएज्जा सीलं वा वयं गुणं वा वेरमणं वा पच्चक्खाणं वा पोसहोववासं वा पडिवजित्तए ? गोयमा ! अत्थेगइए संचाएज्जा, अत्थेगइए णो पडिवजित्तए ? [१४२०-६ प्र.] भगवन् ! जो (अनन्तरागत तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय) आभिनिबोधिकज्ञान एवं श्रुतज्ञान को प्राप्त कर लेता है, (क्या) वह शील, व्रत, गुण, विरमण, प्रत्याख्यान अथवा पौषधोपवास अंगीकार करने में समर्थ होता है ? - [उ.] गौतम ! (कोई तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय) (शील यावत् पौषधोपवास की अंगीकार) कर सकता है और कोई नहीं कर सकता है । [७] जे णं भंते ! संचाएजा सीलं वा जाव पोसहोववासं वा पडिवजित्तए से णं ओहिणाणं उप्पाडेज्जा? गोयमा ! अत्थेगइए उप्पाडेजा, अत्थेगइए णो उप्पाडेजा। [१४२०-७ प्र.] भगवन् ! जो (तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय) शील यावत् पौषधोपवास अंगीकार कर सकता है (क्या) वह अवधिज्ञान को उपार्जित (प्राप्त) कर सकता है ? [उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई (अवधिज्ञान) प्राप्त कर सकता है (और) कोई प्राप्त नहीं कर सकता [८] जे णं भंते ओहिणाणं अप्पाडेजा से णं संचाएजा मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए? गोयमा ! णो इणठे समढे।.. [१४२०-८ प्र.] भगवन् ! जो (तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय) अवधिज्ञान उपार्जित कर लेता है, (क्या) वह मुण्डित हो कर अगारत्व से अनगारत्व (अनगारधर्म) में प्रव्रजित होने में समर्थ है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद] [ ४२३ १४२१.[१] णेरइए णं भंते ! णेरइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता मणूसेसु उववजेजा ? गोयमा ! अत्थेगइए उववजेजा, अत्यंगइए णो उववजेजा। [१४२१-१ प्र.] भगवन् ! नारक, जीव नारकों में से अद्वर्तन (निकल) कर क्या सीधा मनुष्यों में उत्पन्न हो जाता है ? [उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई (मनुष्यों में) उत्पन्न होता है और कोई उत्पन्न नहीं होता है । [२] जे णं भंते ! उववजेज्जा से णं केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए ? गोयमा !जहाणं पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु(सु. १४२०[२-७]) जावजेणंभंते ! ओहिणाणं उप्पाडेज्जा से णं संचाएजा मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए ? गोयमा ! अत्थेगइए संचाएज्जा, अत्थेगइए णो संचाएज्जा । [१४२१-२ प्र.] भगवन् ! जो (नारकों में से अनन्तरागत जीव मनुष्यों में) उत्पन्न होता है, (क्या) वह केवलि-प्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त कर लेता है ? ' [१४२१-२ उ.] गौतम ! जैसे पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों में (आकर उत्पन्न जीव) के विषय में धर्मश्रवण से (लेकर) अवधिज्ञान प्राप्त कर लेता है, तक कहा है, वैसे ही यहाँ कहना चाहिए। (विशेष प्रश्न यह है-) भगवन् ! जो (मनुष्य) अवधिज्ञान प्राप्त कर लेता है, (क्या) वह मुण्डित होकर अगारत्व से अनगारधर्म में प्रवजित हो सकता है ? [उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई प्रव्रजित हो सकता है और कोई प्रव्रजित नहीं हो सकता है। [३]जेणं भंते ! संचाएजा मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए से णं मणपज्जवणाणं उप्पाडेज्जा? गोयमा ! अत्थेगइए उप्पाडेजा, अत्थेगइए णो उप्पाडेजा। [१४२१-३ प्र.] भगवन् ! जो (मनुष्य) मुण्डित होकर अगारित्व से अनगारधर्म में प्रव्रजित होने से समर्थ है, (क्या) वह मनः पर्यवज्ञान को उपार्जित कर सकता है ? [उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई (मनःपर्यवज्ञान को) उपार्जित कर सकता है (और) कोई उपार्जित नहीं कर सकता है । [४] जे णं भंते ! मणपज्जवणाणं उप्पाडेजा से णं केवलणाणं उप्पाडेजा? गोयमा ! अत्थेगइए उप्पाडेजा, अत्थेगइए णो उप्पाडेजा । [१४२१-४ प्र.] भगवन् ! जो (मनुष्य) मनःपर्यवज्ञान को उपार्जित कर लेता है, (क्या) वह Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ ] केवलज्ञान को उपार्जित कर सकता है ? [उ.] गौतम ! ( उनमें से) कोई केवलान को उपार्जित कर सकता है (और) कोई उपार्जित नहीं कर सकता है। [ प्रज्ञापनासूत्र [५] जे णं भंते! केवलणाणं उप्पाडेजा से णं सिज्झेज्जा बुज्झेजा मुच्चेजा सव्वदुक्खाणं अंत करेजा ? गोयमा ! सिज्झेजा जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेज्जा । [१४२१-५ प्र.] भगवन् ! जो (मनुष्य) केवलज्ञान को उपार्जित कर लेता है, (क्या) वह सिद्ध हो सकता है, बुद्ध हो सकता है, मुक्त हो सकता है, यावत् सब दुःखों का अन्त कर सकता है ? [उ.] (हाँ) गौतम ! वह (अवश्य ही) सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाता है, यावत् समस्त दुःखों का अन्त कर देता है। १४२२. रइए णं भंते ! णेरइएहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता वाणमंतर - जोइसिय-वेमाणिएसु उववज्जेज्जा ? गोया ! णो इण समट्टे । [१४२२ प्र.] भगवन् ! नारक जीव, नारकों में से निकल कर (क्या सीधा ) वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क या वैमानिकों में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है। विवेचन - नारकों में से नारकादि में उत्पत्ति, धर्मश्रवणादि-विषयक चर्चा - प्रस्तुत द्वार के प्रथम ६ सूत्रों (सू. १४१७ से १४२२ तक) में नारकों में से मर सीधे नारकों, भवनपतियों, विकलेन्द्रियों, तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों और मनुष्यों, वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों में उत्पत्ति की चर्चा है। फिर तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों और मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले जीव केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण, शुद्ध बोधि, श्रद्धा, प्रतीति, रुचि, मति - श्रुतज्ञान, शील - व्रत-गुण-विरमण - प्रत्याख्यान - पौषधोपवासग्रहण, अवधि - मनः पर्यव - केवल ज्ञान एवं सिद्धि (मुक्ति), इनमें से क्या-क्या प्राप्त कर सकते हैं ? इसकी चर्चा की गई है। - उद्वर्त्तनः विशेषार्थ में प्रस्तुत शास्त्र में 'उद्वृत्त' शब्द समस्त गतियों में होने वाले 'मरण' के लिए प्रयुक्त किया गया है, जबकि 'षट्खण्डागम' में मरण के लिए तीन शब्द प्रयुक्त किये गए हैं- नरक, भवनवासी, वाणव्यन्तर एवं ज्योतिष्क गति में से मर कर जाने वालों के लिए 'उद्वृत्त', तिर्यञ्च और मनुष्यगति में से मर कर जाने वालों के लिए 'कालगत' और वैमानिक देवों में से मर कर जाने वालों के लिए पण्णवणासुत्तं (परिशिष्ट) भा. २, पृ. ११३ १. Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद] [ ४२५ 'च्युत' शब्द। नारकों का उद्वर्त्तन तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों और मनुष्यों में - इस पाठ से स्पष्ट है कि नारकजीव नारकों में से निकल फिर सीधा नारकों, भवनपतियों और विकलेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं हो सकता है, उसका कारण पूर्वोक्त ही है । वह नारकों में से निकल कर सीधा तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों और मनुष्यों में उत्पन्न हो सकता है । तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय और मनुष्य में उत्पन्न होने-वाले भूतपूर्व नारकों में से कोई-कोई केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण, केवलबोधि, श्रद्ध-प्रतीति-रुचि, आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, शील-व्रत-गुण-विरमण-प्रत्याख्यानपौषधोपवास-ग्रहण, अवधिज्ञान तक प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले भूतपूर्व नारकों में से कोई-कोई इससे आगे बढ़कर अनगारत्व, मन:पर्याय ज्ञान, केवलज्ञान और सिद्धत्व को प्राप्त कर सकते ____विशिष्ट शब्दों के अर्थ - केवलिपन्नत्तं धम्मं - केवली द्वारा प्ररूपित-उपदिष्ट श्रुत-चारित्ररूप धर्म को। लभेज सवणयाए-श्रवण प्राप्त करता है । केवलं बोहिं : दो अर्थ - (१) केवल-विशुद्ध बोधिधर्मप्राप्ति (धर्मदेशना), (२) केवली द्वारा साक्षात् या परम्परा से उपदिष्ट (कैवलिक) बोधि । · · प्रश्न का आशय - केवलिप्रज्ञप्तधर्म का श्रोता क्या उपर्युक्त कैवलिक बोधि को यथोक्तरूप से जानतासमझता है ? शील आदि शब्दों के विशिष्ट अर्थ - शील-ब्रह्मचर्य, व्रत-विविध द्रव्यादिविषयक नियम, गुण, भावना आदि अथवा उत्तरगुण, विरमण-अतीत स्थूल प्राणातिपात आदि से विरति, प्रत्याख्यान - अनागतकालीन स्थूल प्राणातिपात आदि का त्याग, पोषधोपवास - पोषध-धर्म का पोषण करने वाले अष्टमी आदि पों में उपवास पोषधोपवास। - अवधिज्ञान किनको? - तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों और मनुष्यों को भवप्रत्यय अवधिज्ञान नहीं होता, गुणप्रत्यय होता है ।शीलव्रत आदि विषयक गुणों के धारकों में जिनके उत्कृष्ट परिणाम होते हैं, उनको अवधिज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम हो जाता है और उन्हें (तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों और मनुष्यों को, अवधिज्ञान प्राप्त होता है, सभी को नहीं । मनःपर्यायज्ञान किनको? - मनःपर्यायज्ञान अनगार को ही प्राप्त होता है, वह भी उसी संयमी को होता है, जो समस्त प्रमादों से रहित हो, विविध ऋद्धियों से सम्पन्न हो । इसलिए तिर्यञ्चों को अनगारत्व भी १. (ख) षट्खण्डागम भा.६, पृ. ४७७ में विशेषार्थ (क) वही, पृ. ११३ प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनीटीका, भा.४, पृ.५०९ प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति पत्र ३९९ वही, पत्र ३९९ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ ] [ प्रज्ञापनासूत्र प्राप्त नहीं होता, तब मन:पर्यायज्ञान और केवलज्ञान कहाँ से प्राप्त होगा ! मनुष्यों में भी उसी को मन:पर्यायज्ञान प्राप्त होता है, जो अनगार हो, अप्रमत्त तथा निर्मल चारित्री एवं ऋद्धिमान् हो ।' मुंडे भवित्ता : भावार्थ - मुण्ड दो प्रकार का होता है- द्रव्यमुण्ड और भावमुण्ड । केशादि कटाने से द्रव्यमुण्ड होता है, सर्वसंग परित्याग से भावमुण्ड का ग्रहण किया गया है । अर्थात्-भाव से मुण्डित होकर।* सिज्झेज्जा बुज्झेजा मुच्चेज्जा: प्रासंगिक विशेषार्थ - सिज्झेज्जा - सर्व कार्य सिद्ध कर लेता है, कृतकृत्य हो जाता है, बुज्झेज्जा - समस्त लोकालोक के स्वरूप को जानता - देखता है, मुच्चेज्जा - भवोपग्राही कर्मों से भी मुक्त हो जाता है। असुरकुमारादि की उत्पत्ति की प्ररूपणा १४२३. असुरकुमारे णं भंते ! असुरकुमारेहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता णेरइएसु उववज्जेज्जा ? गोमा ! णो इण समट्ठे । [१४२३ प्र.] भगवन् ! असुरकुमार, असुरकुमारों में से निकल कर (सीधा) नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है। १४२४. असुरकुमारे णं भंते! असुरकुमारेहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता असुरकुमारेसु उववज्जिज्जा ? गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे । एवं जाव थणियकुमारेसु । [१२२४ प्र.] भगवन् ! असुरकुमार, असुरकुमारों में से निकल (उद्वर्त्तन) कर (सीधा) असुरकुमारों में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। इसी प्रकार यावत् स्तनिकुमारों में भी (असुरकुमार, असुरकुमारों में से उद्वर्त्तन करके सीधे ) उत्पन्न नहीं होते, यह समझ लेना चाहिए। १४२५. [ १ ] असुरकुमारे णं भंते ! असुरकुमारेहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता पुढविक्काइए उववज्जेज्जा ? हंता ! गोयमा ! अत्थेगइए उववज्जेज्जा, अत्थेगइए नो उववज्जेज्जा । १. २. वही. पत्र ४०० मुण्डो द्विधा - द्रव्यतो भावतश्च । द्रव्यतः केशाद्यपनयनेन, भावतः सर्वसंगपरित्यागेन । तत्रेह द्रव्यमुण्डत्वासंभवात् भावमुण्डः परिगृह्यते । वही, पत्र ४०० - Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद] [ ४२७ [१४२५-१ प्र.] भगवन् ! (क्या) असुरकुमार, असुरकुमारों में से निकल कर सीधा पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम ! (उसमें से) कोई (पृथ्वीकायिक में) उत्पन्न होता है (और) कोई उत्पन्न नहीं होता। [२] जे णं भंते ! उववजेजा से णं केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेजा सवणसाए ? गोयमा ! नो इणढे समढे । [१४२५-२ प्र.] भगवन् ! जो (असुरकुमार पृथ्वीकायिकों में) उत्पन्न होता है, (क्या) वह केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त कर सकता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । [३] एवं आउ-वणस्सईसु वि । [१४२५-३ प्र.] इसी प्रकार अष्कायिक और वनस्पतिकायिक जीवों के (उत्पन्न होने तथा धर्मश्रवण के) विषय में समझ लेना चाहिए । १४२६. असुरकुमारे णं भंते ! असुरकुमारेहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता तेउ-वाउ-बेइंदिय-तेइंदियचउरिदिएसु उववज्जेज्जा? गोयमा ! णो इणढे समढे । अवसेसेसु पंचसु पंचेंदियतिरिक्खजोणियादिसु असुरकुमारे जहा णेरइए (सु. १४२०-२२)। [१४२६-१ प्र.] भगवन् ! असुरकुमार, असुरकुमारों में से निकल कर (क्या) सीधा (अनन्तर) तेजस्कायिक, वायुकायिक (तथा) द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। अवशिष्ट पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक आदि (मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक) इन पांचों में असुरकुमार की उत्पत्ति आदि की वक्तव्यता [सू १४२०-२२ में उक्त] नैरयिक (की उत्पत्ति आदि की वक्तव्यता के अनुसार समझनी चाहिए ।) [२] एवं जाव थणियकुमारे । [१४२६-२] इसी प्रकार स्तनितकुमार पर्यन्त जानना चाहिये । १४२७. [१] पुढविकाइए णं भंते ! पुढविक्काइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता णेरइएसु उववज्जेज्जा? गोयमा ! णो इणठे समढे । [१४२७-१ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिकों में से उद्वर्त्तन कर (क्या) सीधा Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ ] [प्रज्ञापनासूत्र नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं हैं । [२] एवं असुरकुमारेसु वि जाव थणियकुमारेसु वि । [१४२७-२] इसी प्रकार (की वक्तव्यता) असुरकुमारों से स्तनितकुमारों तक (की उत्पत्ति के विषय में समझ लेना चाहिए ।) १४२८. [१] पुढविक्काइए णं भंते ! पुढविक्काइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता पुढविक्काइएसु उववज्जेज्जा? गोयमा ! अत्थेगइए उववजेज्जा, अत्थेगइए णो उववजेजा। [१४२८-१ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिकों में से निकल कर (क्या) सीधां पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई (पृथ्वीकायिकों में ) उत्पन्न होता है, (और)कोई उत्पन्न नहीं होता। [२] जे णं भंते ! उववजेजा से णं केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए ? गोयमा ! णो इणदृठे समढे । [१४२८-२ प्र.] भगवन् ! (उनमें से) जो (पृथ्वीकायिकों में) उत्पन्न होता है, (क्या) वह केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त कर सकता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं हैं । - [३] एवं आउक्काइयादिसु णिरंतरं भाणियव्वं जाव चउरि दिएसु । [१४२८-३] इसी प्रकार की वक्तव्यता अप्कायिक आदि (अप्कायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय) से लेकर चतुरिन्द्रिय जीवों तक में निरन्तर (उत्पत्ति के विषय में) कहना चाहिए । [४] पंचेंदियतिरिक्खजोणिय-मणूसेसु जहा णेरइए (सु. १४२०-२२) । [१४२८-४] (पृथ्वीकायिक की पृथ्वीकायिकों में से निकल कर सीधे) पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों और मनुष्यों में (उत्पत्ति के विषय में) [सू. १४२०-२१ में उक्त] नैरयिक (की वक्तव्यता) के समान (कहना चाहिए ।) [५] वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएसु पडिसेहो । [१४२८-५] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों में (पृथ्वीकायिक की उत्पत्ति का) निषेध (समझना Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद] [४२९ चाहिए ।) १४२९. एवं जहा पुढविक्काइओ भणिओ तहेव आउक्काइओ विवणस्सइकाइओ विभाणियव्वयो। [१४२९] जैसे पृथ्वीकायिक (की चौवीस दण्डकों में उत्पत्ति के विषय में) कहा गया है, उसी प्रकार अप्कायिक एवं वनस्पतिकायिक के विषय में भी कहना चाहिए । १४३०.[१] तेउक्काइए णं भंते ! तेउक्काइएहितो अणंतरं अव्वट्टित्ता णेयइसु उववजेजा ? गोयमा ! णो इणठे समढे । [१४३०-१ प्र.] भगवन् ! तेजस्कायिक जीव, तेजस्कायिकों में से उद्वृत्त होकर क्या सीधा नारकों में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [२] एवं असुरकुमारेसु वि जाव थणियकुमारेसु वि । .. [१४३०-२] इसी प्रकार (तेजस्कायिक जीव की) असुरकुमारों से लेकर स्तनितकुमारों तक में भी उत्पत्ति का निषेध समझना चाहिए । १४३१. [१] पुढविक्काइय-आउ-तेउ-वाउ-वणस्सइ-बेइंदिय-तेइंदिए-चउरिं दिएसुअत्थेगइए उववजेजा, अत्थेगइए णो उपवज्जेजा। [१४३१-१] पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक एवं वनस्पतिकायिकों में तथा द्वीन्द्रिय-त्रोन्द्रिय-चतुरिन्द्रियों में कोई (तेजस्कायिक) उत्पन्न होता है और कोई उत्पन्न नहीं होता है । [२] जे णं भतें ! उववज्जेज्जा से णं केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए ? गोयमा ! णो इणठे समढे । [१४३१-२ प्र.] भगवन् ! जो तेजस्कायिक (इनमें) उत्पन्न होता है, (क्या) वह केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त कर सकता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं हैं । १४३२.[१] तेउक्काइए णं भंते ! तेउक्काइएहितो अणंतरं अव्वट्टित्ता पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जेज्जा? गोयमा ! अत्थेगइए उववजेजा, अत्थेगइए णो उववजेजा। [१४३२-१ प्र.] भगवन् ! तेजस्कायिक जीव, तेजस्कायिकों में से निकल कर क्या सीधा Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० ] [प्रज्ञापनासूत्र पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकों में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम ! कोई उत्पन्न होता है और कोई उत्पन्न नहीं होता है । [२] जे णं भंते ! उववजेजा से णं केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए ? गोयमा ! अत्थेगइए लभेजा, अत्थेगइए णो लभेजा । [१४३२-२ प्र.] भगवन् ! जो (तेजस्कायिक, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में) उत्पन्न होता है, (क्या) वह केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त कर सकता है ? [उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई (धर्मश्रवण) प्राप्त करता है (और) कोई प्राप्त नहीं करता है । [३] जे णं भंते ! केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए से णं केवलं बोहि बुझेजा? गोयमा ! णो इणढे समढे । [१४३२-३ प्र.] भगवन् ! जो (तेजस्कायिक) केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त करता है, (क्या) वह केवल (केवलिप्रज्ञप्त) बोधि (धर्म) को समझ पाता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। १४३३. मणूस-वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएसु पुच्छा । गोयमा ! णो इणढे समढे । [१४३३ प्र.] भगवन् ! (अब प्रश्न है कि तेजस्कायिक जीव, इन्हीं में से निकल कर सीधा) मनुष्य तथा वाणव्यन्तर-ज्योतिष्क-वैमानिकों में (उत्पन्न होता है ?) [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं हैं। १४३४. एवं जहेव तेउक्काइए णिरंतरं एवं वाउक्काइए वि । [१४३४] इसी प्रकार जैसे तेजस्कायिक जीव की अनन्तर उत्पत्ति आदि के विषय में कहा है, उसी प्रकार वायुकायिक के विषय में भी समझ लेना चाहिए । १४३५. बेइंदिए णं भंते ! वेइंदिएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता णेरइएसु उववजेजा? गोयमा ! जहा पुढविक्काए (सु. १४२७-२८)।णवरं मणूसेसुजाव मणपजवणाणं उप्पाडेजा। [१४३५ प्र.] भगवन् ! (क्या) द्वीन्द्रिय जीव, द्वीन्द्रिय जीवों में से निकल कर सीधा नारकों में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम ! जैसे पृथ्वीकायिक जीवों के विषय में [१४२७-२८ में] कहा है, वैसा ही द्वीन्द्रिय Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद] [ ४३१ जीवों के विषय में भी समझना चाहिए । (पृथ्वीकायिकों से) विशेष (अन्तर) यह है कि (पृथ्वीकायिक जीवों के समान द्वीन्द्रिय जीव मनुष्यों में उत्पन्न होकर अन्तक्रिया नहीं कर सकते ; किन्तु) वे मनःपर्यायज्ञान तक प्राप्त कर सकते हैं । १४३६. [१] एवं तेइंदिय-चउर दिया वि जाव मणपज्जवनाणं उप्पाडेजा। [१४३६-१] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीव भी यावत् मनःपर्यायज्ञान प्राप्त कर सकते है। [२] जे णं भंते ! मणपजवनाणं उप्पाडेजा से णं केवलणाणं उप्पाडेज्जा ? गोयमा ! णो इणढे समढे । [१४३६-२] जो (विकलेन्द्रिय मनुष्यों में उत्पन्न हो कर) मनःपर्यायज्ञान प्राप्त करता है, (क्या) वह केवलज्ञान प्राप्त कर सकता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । १४३७. [१] पंचेंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! पंचिंदियरितिरिक्खजोणिएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता णेरइएसु उववज्जेजा? गोयमा ! अत्थेगइए उववजेजा, अत्थेगइए णो उववजेजा । [१४३७-१ प्र.] भगवन् ! (क्या) पंचेन्द्रियतिर्यञ्च पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में से उद्वृत्त होकर सीधा नारकों में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई (पंचेन्द्रियतिर्यज्य जीव) उत्पन्न होता है और कोई उत्पन्न नहीं होता [२] जे णं भंते ! उववजेजा से णं केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए ? गोयमा ! अत्थेगइए लभेजा, अत्थेगइए णो लभेजा । [१४३७-२ प्र.] भगवन् ! जो (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च नारकों में) उत्पन्न होता है, क्या वह केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त करता है ? [उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई प्राप्त करता है और कोई प्राप्त नहीं करता है । [३] जे णं केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए से णं केवलं बोहिं बुझेजा। गोयमा ! अत्यंगइए बुझेजा, अत्थेगइए नो बुझेजा । [१४३७-३ प्र.] भगवन् ! जो केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त करता है, (क्या) वह केवलबोधि (केवलिप्रज्ञप्त Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ ] [प्रज्ञापनासूत्र धर्म) को समझ पाता है ? [उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई केवलबोधि (का अर्थ) समझता है (और) कोई नहीं समझता है । [४] जेणं भतें ! केवलं बोहिं बुज्झेजा से णं सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा रोएजा? हंता गोयमा ! जाव' रोएज्जा । [१४३७-४ प्र.] भगवन् ! जो केवलबोधि (का अर्थ) समझता है, (क्या) वह (उस पर) श्रद्धा करता है ? प्रतीति करता है ? (और) रुचि करता है ? [उ.] हाँ गौतम ! (वह) श्रद्धा, प्रतीति और रुचि करता है । [५] जे णं भंते ! सद्दहेजा ३२ से णं आभिणिबोहियणाण-सुयणाण-ओहिणाणाणि उप्पाडेजा? हंता गोयमा ! उप्पाडेजा। [१४३७-५ प्र.] भगवन् ! जो श्रद्धा-प्रतीति-रुचि करता है (क्या) वह आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान उपार्जित (प्राप्त) कर सकता है ? [उ.] हाँ गौतम ! (वह आभिनिबोधिक-श्रुत-अवधि ज्ञान) प्राप्त कर सकता है। [६] जे णं भंते ! आभिणिबोहियणाण-सुयणाण-ओहिणाणाई उप्पाडेज्जा से णं संचाएज्जा सोलं वा जाव' पडिवजित्तए ? गोयमा ! णो इणढे समठे। [१४३७-६ प्र.] भगवन् ! जो आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान प्राप्त करता है, (क्या) वह शील (आदि) से लेकर पोषधोपवास तक अंगीकार कर सकता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । १४३८. एवं असुरकुमारेसु वि जाव थणियकुमारे । [१४३८] इसी प्रकार (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च की, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में से उद्वृत्त हो कर सीधा) असुरकुमारों में यावत् स्तनितकुमारों में उत्पत्ति के विषय में (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च से निरन्तर उद्वृत्त होकर उत्पन्न हुए नारक को वक्तव्यता के समान समझना चाहिए ।) १. यहाँ 'जाव' शब्द 'सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा' का सूचक है । २. '३' का अंक पत्तिएज्जा - प्रतीति और रोएज्जा - रुचि करता है शब्द का द्योतक है । ३. यहाँ जाव' शब्द (१४२०-६ में उक्त) 'सीलं वा, वयं वा, गुणं वा, वेरमणं वा, पच्चक्खाणं वा पीसहोबबासं वा' का सूचक है। Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. बीसवाँ अन्तक्रियापद ] १४३९. एंगिदिय-विगलिंदिएसु जहा पुढविक्काइए (सू. १५२८ [१३])। [१४३९] एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों में (पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों की) उत्पत्ति की वक्तव्यता (सू. १४२८ - [१-३] में उक्त) पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति के समान समझ लेनी चाहिए । १४४०. पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु मणूसेसु य जहा णेरइए (सू. १४२०-२२) । [१४४०] पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों और मनुष्यों में (सू. १४२०-२२ में) जैसे नैरयिक के (उत्पाद की प्ररूपणा की गई) वैसे ही पंचेन्द्रियतिर्यञ्च की प्ररूपणा करनी चाहिए । १४४१. वाणमंतर-जाइसिय-वेमाणिएसु जहा णेरइएसु उववज्जेज्जत्ति पुच्छा भणिया (सु. १४३७ ) । [१४४१] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में पंचेन्द्रियतिर्यञ्च के उत्पन्न होने (आदि) को पुच्छा का कथन उसी प्रकार किया गया है, जैसे (सू. १४३७ में) नैरयिकों में उत्पन्न होने का ( कथन किया गया है । १४४२. एवं मणूसे वि । [१४४२] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक के उत्पाद का कथन (चौवीस दण्डकों में (सू.१४२३२६ में) असुरकुमार (के उत्पाद) के समान है । विवेचन - असुरकुमार से लेकर वैमानिक तक चौवीस दण्डकों में उत्पत्ति आदि सम्बन्धी चर्चा - प्रस्तुत २१ सूत्रों (१४२३ से १४४३ तक) में असुरकुमार से लेकर अवशिष्ट नौ प्रकार के भवनपति देव, पृथ्वीकायादि पंच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय, मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों की नारक से वैमानिक तक 'अनन्तर उद्वृत्त होकर उत्पन्न होने की चर्चा की गई है । जीव [ ४३३ नारक उद्वृत्तद्वार का सार इस प्रकार है www मर कर सीधा कहाँ उत्पन्न हो सकता है ? पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च या मनुष्य में १. पण्णवणासुतं (मूलपाठ - टिप्पणयुक्त) भा. १, पृ. ३२२ से ३२४ तक २. पण्णवणासुत्तं (परिशिष्ट-प्रस्तावना सहित) भा. २, पृ. ११४ मर कर नये जन्म में धर्मश्रवणादि की संभावना देशविरति के शीलादि और अवधिज्ञान एवं मोक्ष (मनुष्यभव में) Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ ] दस भवनपति पृथ्वी, अप्, वनस्पति मनुष्यों में तथा पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में पृथ्वीकायिकों से लेकर चतुरिन्द्रियों तक में पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में द्वि-त्रि- चतुरिन्द्रिय पृथ्वीकायिकों से लेकर पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में कई मनुष्यों में भवनपतियों में तेज, वायु पंचेन्द्रियतिर्यञ्च मनुष्य वाणव्यन्तर, एवं वैमानिक पृथ्वी, अप्, वनस्पति में तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय या मनुष्य में पृथ्वी, अप्, तेज और वायु में तथा विकलेन्द्रियों में ज्योतिष्क १. २. एकेन्द्रिय से लेकर यावत् चतुरिन्द्रियों में पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में या मनुष्यों के वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिकों में उपर्युक्त जीवों में [ प्रज्ञापनासूत्र नारकों के समान प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्र ४०० वही, पत्र ४०० नारकों के समान धर्मश्रवण पृथ्वीकायिक के समान मनः पर्यवज्ञान अवधिज्ञान भवनपति देवों के समान उत्पत्ति नरक के समान तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों और मनुष्यों की उपलब्धि में अन्तर - यों तो तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों के समान प्रायः मनुष्य से सम्बन्धित सारी वक्तवयता है, किन्तु मनुष्यों की सर्वभावों की संभावना होने से उनकी मन:पर्यवज्ञान और केवलज्ञान उपलब्ध हो सकता है, अनगारत्व भी प्राप्त हो सकता है ।" पृथ्वीकायिक के समान नारक के समान नारक के समान नारक के समान सिज्झेज्जा आदि पदों का अर्थ पहले लिखा जा चुका है । नैरयिकों की सीधी उत्पत्ति नहीं - नैरयिकों के भवस्वभाव के कारण वे नैरयिकों में से मर कर सीधे नैरयिकों में, भवनपति, वाणव्यन्तर ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों में उत्पन्न नहीं होते, क्योंकि नैरयिकों का नैरयिकभव या देवभव का आयुष्यबन्ध होना असम्भव है ।" Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद] [४३५ __ पृथ्वीकायिकों की उत्पत्ति आदि - पृथ्वीकायिक जीव नारकों और देवों में सीधे उत्पन्न नहीं होते, क्योकि उनमें विशिष्ट मनोद्रव्य सम्भव नहीं होता, इस कारण तीव्र संक्लेश एवं विशुद्ध अध्यवसाय नहीं हो सकता । मनुष्यों में उत्पन्न होने पर ये अन्तक्रिया भी कर सकते हैं । ___ भवनपति देवों की उत्पत्ति आदि - असुरकुमारदि १० प्रकार के भवनपति देव पृथ्वी-वायु-वनस्पति में उत्पन्न होते हैं । उधर ईशान (द्वितीय) देवलोक तक उनकी उत्पत्ति होती है । इन देवों में उत्पन्न होने पर वे केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण नहीं कर सकते । शेष सब बातें नैरयिकों के समान समझ लेनी चाहिए ।। तेजस्कायिक, वायुकायिक का मनुष्यों में उत्पत्तिनिषेध - ये दोनों सीधे मनुष्यों में उत्पन्न नहीं हो सकते, क्योंकि इनके परिणाम क्लिष्ट होने से इनके मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और मनुष्यायु का बन्ध होना असम्भव होता है । ये तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों में उत्पन्न होकर श्रवणन्द्रिय प्राप्त होने से केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु संक्लिष्ट परिणाम होने से कैवलिकीबोधि (धर्म) का बोध प्राप्त नहीं कर सकते । विकलेन्द्रियों की उत्पत्ति-प्ररुपणा - द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय जीव, पृथ्वीकायिकों के समान देवों और नारकों को छोड़ कर शेष समस्त स्थानों में उत्पन्न हो सकते हैं । ये तथाविध भवस्वभाव के कारण अन्तक्रिया नहीं कर पाते, किन्तु मनुष्यों में उत्पन्न होने पर अनगार बन कर मनःपर्यवज्ञान तक भी प्राप्त कर सकते हैं । पंचम : तीर्थकरद्वार १४४४. रयणप्पभापुढविणेरइए णं भंते ! रयणप्पभापुढविणेरइहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता तित्थगरत्तं लभेजा? गोयमा ! अत्थेगइए लभेजा, अत्थेगइए णो लभेजा। से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ अत्थेगइए लभेजा अत्थेगइए णो लभेजा ? गोयमा ! जस्स णं रयप्पभापुढविणेरइयस्स तित्थगरणाम-गोयाइं बद्वाइं पढ़ाई निधत्ताई कडाई पट्ठवियाई णिविट्ठाइं अभिनिविट्ठाइं अभिसमण्णागयाइं उदिण्णाइं णो उवसंताई भवंति से णं रयणप्पभापुढविणेरइए रयणप्पभापुढविणेरइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता तित्थगरत्तं लभेजा, जस्स णं रयप्पभापुढविणेरइयस्स तित्थगरणाम-गोयाई णो बद्वाइं जाव णो उदिण्णाई उवसंताई भवंति से णं रयणप्पभापुढविणेरइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता तित्थगरत्तं णो लभेजा। वही, पत्र ४०१ वही, पत्र ४०० वही, पत्र ४०१ वही, पत्र ४०२ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ ] [प्रज्ञापनासूत्र से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ अत्थेगइए लभेज्जा अत्थेगइए णो लभेज्जा। [१४४४ प्र.] भगवन् ! (क्या) रत्नप्रभापृथ्वी का नारक रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों से निकल कर सीधा तीर्थकरत्व प्राप्त करता है ? [उ.] गौतम ! उनमें से कोई तीर्थकरत्व प्राप्त करता है और कोई प्राप्त नहीं कर पाता है । [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते है कि (रत्नप्रभापृथ्वी का नारक) सीधा (मनुष्य भव में उत्पन्न होकर) कोई तीर्थकरत्व प्राप्त कर लेता है और कोई प्राप्त नहीं कर पाता है ? [उ.] गौतम ! जिस रत्नप्रभापृथ्वी के नारक ने (पहले कभी) तीर्थकर नाम-गोत्र कर्म बद्ध किया है, स्पृष्ट किया है, निधत्त किया है, प्रस्थापित, निविष्ट और अभिनिविष्ट किया है, अभिसमन्वागत (सम्मुख आगत) है, उदीर्ण (उदय में आया) है, उपशान्त नहीं हुआ है, वह रत्नप्रभापृथ्वी का नैरयिक रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में से उदवृत्त होकर सीधा (मनुष्यभव में उत्पन्न होकर) तीर्थकरत्व प्राप्त कर लेता है, किन्तु जिस रत्नप्रभापृथ्वी के नारक के तीर्थकर नाम-गोत्र कर्म बद्ध नहीं होता यावत् उदीर्ण नहीं होता, उपशान्त होता है, वह रत्नप्रभापृथ्वी का नारक रत्नप्रभापृथ्वी से निकल कर सीधा तीर्थकरत्व प्राप्त नहीं कर सकता है । इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कोई नैरयिक तीर्थकरत्व प्राप्त करता है और कोई प्राप्त नहीं कर पाता है । १४४५. एवं जाव वालुयप्पभापुढविणेरइएहितो तित्थगरत्तं लभेज्जा । [१४४५] इसी प्रकार यावत् वालुकाप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में से (निकल कर कोई नारक मनुष्यभव प्राप्त करके) सीधा तीर्थकरत्व प्राप्त कर लेता है और (कोई नारक नहीं प्राप्त करता है ।) १४४६. पंकप्पभापुढविणेरइए णं भंते ! पंकप्पभापुढविणेरइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता तित्थगरत्तं लभेजा? गोयमा ! णो इणठे, अंतकिरियं पुण करेजा। [१४४६ प्र.] भगवन् ! पंकप्रभापृथ्वी का नारक पंकप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में से निकल कर क्या सीधा तीर्थकरत्व प्राप्त कर लेता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह अन्तक्रिया कर सकता है । १४४७. धूमप्पभापुढविणेरइए णं ० पुच्छा। गोयमा ! णो इणढे समढे विरतिं पुण लभेजा। [१४४७ प्र.] धूमप्रभापृथ्वी के नैरयिक के सम्बन्ध में प्रश्न है (कि क्या वह धूमप्रभापृथ्वी के नारकों Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद] [४३७ में से निकल कर सीधा तीर्थकरत्व प्राप्त कर सकता है ?) . [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह विरति प्राप्त कर सकता है । १४४८. तमापुढविणेरइए णं ० पुच्छा गोयमा ! णो इणढे समढे विरयाविरइं पुण लभेजा। [१४४८ प्र.] (इसी प्रकार का) प्रश्न तम:पृथ्वी के नारक के सम्बन्ध में है । [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह (तम:पृथ्वी का नारक) विरताविरति को प्राप्त कर सकता है । १४४९. अहेसत्तमाए ० पुच्छा। गोयमा ! णो इणढे समठे सम्मत्तं पुण लभेजा। [१४४९ प्र.] (अब) अधःसप्तमपृथ्वी के (नैरयिक के विषय में) पृच्छा (कि क्या वह तीर्थकरत्व प्राप्त कर सकता है ?) [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है । १४५०. असुरकुमारे णं ० पुच्छा। गोयमा ! णो इणढे समढे, अंतकिरियं पुण लभेजा । [१४५० प्र.] इसी प्रकार की पुच्छा असुरकुमार के विषय में है (कि क्या वह असुरकुमारों में से : निकल कर सीधा तीर्थकरत्व प्राप्त कर सकता है ?) [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह अन्तक्रिया (मोक्षप्राप्ति) कर सकता है । १४५१. एवं निरंतरं जाव आउक्काइए। [१४५१] इसी प्रकार (असुरकुमार की भाँति) लगातार अप्कायिक तक (अपने-अपने भव से उद्वर्तन कर सीधे तीर्थकरत्व प्राप्त नहीं कर सकते, किन्तु अन्तक्रिया कर सकते हैं ।) १४५२. तेउक्काइए णं भंते ! तेउक्काइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता उववजेजा (त्ता) तित्थगरत्तं लभेज्जा? गोयमा ! णो इणढे समठे, केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए। [१४५२ प्र.] भगवन् ! तेजस्कायिक जीव तेजस्कायिकों में से उद्वृत्त होकर बिना अन्तर के (मनुष्य भव में) उत्पन्न हो कर क्या तीर्थकरत्व प्राप्त कर सकता है ? Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ ] [प्रज्ञापनासूत्र [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, (किन्तु वह) केवलिप्ररूपित धर्म का श्रवण प्राप्त कर सकता है १४५३. एवं वाउक्काइए वि। [१४५३] इसी प्रकार वायुकायिक के विषय में भी समझ लेनी चाहिए। १४५४. वणस्सइकाइए णं ० पुच्छा । गोयमा ! णो इणढे समठे, अंतकिरियं पुण करेजा । । [१४५४ प्र.] वनस्पतिकायिक जीव के विषय में पृच्छा है (कि क्या वह वनस्पतिकायिकों में से निकल कर तीर्थकरत्व प्राप्त कर सकता है ?) [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह अन्तक्रिया कर सकता है। १४५५. वेइंदिय-तेइंदिय-चउरिदिए णं ० पुच्छा । गोयमा ! णो इणढे समठे, मणपजवणाणं पुण उप्पाडेजा। [१४५५ प्र.] द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय के विषय में भी यही प्रश्न है (कि क्या ये अपने-अपने भवों में से उवृत्त हो कर सीधे तीर्थकरत्व प्राप्त कर सकते हैं ?) [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, (किन्तु ये) मनःपर्यवज्ञान का उपार्जन कर सकते हैं। १४५६. पंचेंदियतिरिक्खजोणिय-मणूस-वाणमंतर-जोइसिए णं ० पुच्छा । गोयमा ! णो इणढे समढे, अंतकिरियं पुण करेजा। [१४५६ प्र.] अब पृच्छा है (कि क्या) पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य, वाणव्यन्तर एवं ज्योतिष्कदेव अपने-अपने भवों में उद्तर्तन करके सीधे तीर्थकरत्व प्राप्त कर सकते हैं ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह अन्तक्रिया (मोक्ष प्राप्त) कर सकता है । १४५७. सोहम्मगदेवे णं भंते ! अणंतरं चयं चइत्ता तित्थगरत्तं लभेज्जा? गोयमा ! अत्थेगइए लभेजा, अत्थेगइए णो लभेजा, एवं जहा रयणप्पभापुढविणेरइए (सु. १४४४)। [१४५७ प्र.] भगवन् ! सौधर्मकल्प का देव, अपने भव से च्यवन करके सीधा तीर्थकरत्व प्राप्त कर सकता है ? [उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई (सौधर्मकल्प का देव तीर्थकरत्व) प्राप्त करता है और कोई प्राप्त नहीं Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद ] करता, इत्यादि (सभी) बातें रत्नप्रभापृथ्वी के नारक के ( विषय में सू. १४४४ में उक्त कथन के) समान जाननी चाहिए ? १४५८. एवं जाव सव्वट्ठसिद्धगदेवे । दारं ५ ॥ [१४५८] इसी प्रकार (ईशानकल्प के देव से लेकर) सर्वार्थसिद्ध विमान के देव तक (सभी वैमानिक देवों के लिये समझना चाहिए ।) विवेचन - तीर्थकरपद - प्राप्ति की विचारणा प्रस्तुत पंचम द्वार में नारक आदि मर कर अन्तर के बिना सीधे मनुष्य में जन्म लेकर तीर्थकरपद प्राप्त कर सकते हैं या नहीं ? इसकी विचारणा की गई है । साथ ही यह बताया गया है कि यदि वह जीव तीर्थकरपद प्राप्त नहीं कर सकता, तो विकासक्रम में क्या प्राप्त कर सकता है ? [ ४३९ - सार - इस समस्त पद का निष्कर्ष यह है कि केवल नारकों और वैमानिक देवों में से मर कर सीधा मनुष्य होने वाला जीव ही तीर्थकरपद प्राप्त कर सकता है, अन्य नहीं ।" १. २. 'बद्धाई' आदि पदों के विशेषार्थ - 'बद्धाइं' - सुइयों के ढेर को सूत के धागे से बांधने की तरह आत्मा के साथ (तीर्थकर नाम - गोत्र आदि ) कर्मो का साधारण संयोग होना 'बद्ध' है ।‘पुट्ठाई’-जैसे उन सूइयों के ढेर को अग्नि से तपा कर एक बार धन से कूट दिया जाता है, तब उनमें परस्पर जो सघनता उत्पन्न हो जाती है, उसी प्रकार आत्मप्रदेशों और कर्मों में परस्पर सघनता उत्पन्न होना 'स्पृष्ट' होना है। 'निधत्ताई'उद्वर्त्तनाकरण और अपवर्त्तनाकरण के सिवाय शेष करण जिसमें लागू न हो सकें, इस प्रकार से कर्मों को व्यवस्थापित करना 'निधत्त' कहलाता है । 'कडाइ' अर्थात् कृत । कृत का अभिप्राय है कर्मों को निकाचित कर लेना, अर्थात् समस्त कारणों के लागू होने के योग्य न हो, इस प्रकार से कर्मों को व्यवस्थापित करना । 'पट्ठवियाई' - मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय एवं यशः कीर्त्ति नामकर्म के उदय के साथ व्यवस्थापित होना प्रस्थापित है । 'निविट्ठाई' - बद्ध कर्मों का तीव्र अनुभाव - जनक के रूप में स्थित होना निविष्ट का अर्थ है । 'अभिनिविट्ठाई' - वही कर्म जब विशिष्ट, विशिष्टतर, विलक्षण अध्यवसायभाव के कारण अति तीव्र अनुभावजनक के रूप में व्यवस्थित होता है, तब अभिनिविष्ट कहलाता है । 'अभिसमन्नागयाई' - कर्म का उदय के अभिमुख होना 'अभिसमन्वागत' कहलाता है । 'उदिण्णाई' - कर्मों का उदय में आना, उदयप्राप्त होना उदीर्ण कहलाता है । अर्थात् कर्म जब अपना फल देने लगता है, तब उदयप्राप्त या उदीर्ण कहलाता है । 'नो उपसंताई'-कर्म का उपशान्त न होना । उपशान्त न होने के यहाँ दो अर्थ हैं- (१) कर्मबन्ध का सर्वथा अभाव को प्राप्त न होना, (२) अथवा कर्मबन्ध (बद्ध) हो चुकने पर भी i पण्णवणासुतं (मूलपाठ- टिप्पण) भा. १, पृ. ३२५-६२६ पण्णवणासुतं (प्रस्तावना आदि) भा. २, पृ. ११४ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० ] [प्रज्ञापनासूत्र निकाचित या उदयादि अवस्था के उद्रेक से रहित न होना । ये सभी शब्द कर्मसिद्धान्त के पारिभाषिक शब्द हैं ।। आशय - प्रस्तुत प्रसंग में इनसे आशय यही है कि रत्नप्रभादि तीन नरकपृथ्वी के जिस नारक ने पूर्वकाल में तीर्थकर नामकर्म का बन्ध किया है और बांधा हुआ वह कर्म उदय में आया है, वही नारक तीर्थकरपद प्राप्त करता है । जिसने पूर्वकाल में तीर्थकर नामकर्म का बंध ही नहीं किया, अथवा बंध करने पर भी जिसके उसका उदय नहीं हुआ, वह तीर्थकरपद प्राप्त नहीं करता । अन्तिम चार नरकपृथ्वियों के नारकों की उपलब्धि - पंक, धूप, तमः और तमस्तमःपृथ्वी के नारक अपने-अपने भव से निकल कर तीर्थकरपद प्राप्त नहीं कर सकते, वे क्रमशः अन्तक्रिया, सर्वविरति, देशविरति चारित्र तथा सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकते हैं । असुरकुमारदि से वनस्पतिकायिक तक - के जीवन अपने-अपने भवों से उद्तन करके सीधे तीर्थकरपद प्राप्त नहीं कर सकते, किन्तु अन्तक्रिया (मोक्षप्राप्ति) कर सकते हैं। वसुदेवचरित में नागकुमारों में से उवृत्त हो कर सीधे ऐरवत क्षेत्र में इसी अवसर्पिणीकाल में चौबीसवें तीर्थकर होने का कथन है। इस विषय में क्या रहस्य है, यह केवली ही जानते हैं। नीचे इस द्वार की तालिका दी जाती है, जिससे जीव का विकासक्रम जाना जा सके। मनुष्य का अनन्तर पूर्वभव मनुष्यों में सम्भवित उपलब्धि रत्नप्रभा से वालुकाप्रभा तक के नारक तीर्थकरपद पंकप्रभा के नारक मोक्ष धूमप्रभा के नारक सर्वविरति तमःप्रभा के नारक देशविरति तमस्तमःप्रभा के नारक सम्यक्त्व समस्त भवनपति देव मोक्ष पृथ्वीकायिक-अप्कायिक जीव मोक्ष तेजस्कायिक-वायुकायिक जीव (मनुष्यभव नहीं) तिर्यञ्चभव में धर्मश्रवण १. २. ३. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्र ४०२-४०३ प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका भा. ४, पृ. ५५५ प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्र ४०३ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद ] वनस्पतिकायिक जीव द्वि-त्रि- चतुरिन्द्रिय जीव पंचेन्द्रियतिर्यञ्च मोक्ष मन: पर्यायज्ञान मोक्ष मोक्ष मोक्ष मोक्ष तीर्थकरपद मनुष्य वाणव्यन्तर देव ज्योतिष्क देव समस्त वैमानिक देव छठा चक्रिद्वार १४५९. रयणप्भापुढविणेरइए णं भंते! अणंतरं उव्वट्टित्ता चक्कवट्टितं लभेज्जा ? गोमा ! अथेइ लभेज्जा, अत्थेगइए णो लभेज्जा । सेकेणट्ठेणं भंते ! एवं वुच्चइ ? गोमा ! जहा रयणप्पभापुढविणेरइयस्स तित्थगरत्ते (सु. १४४४) । [१४५९ प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी का नैरयिक (अपने भव से) उद्वर्त्तन करके क्या चक्रवर्तीपद • प्राप्त कर सकता है ? [ ४४१ [उ.] गौतम ! (इनमें से कोई (नारक) चक्रवर्तीपद प्राप्त करता है, कोई प्राप्त नहीं करता है । [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि कोई ( रत्नप्रभापृथ्वी का नारक) चक्रवर्तित्व प्राप्त कर सकता है और कोई प्राप्त नहीं करता है ? [उ.] गौतम ! जैसे (सू. १४४४ में) रत्नप्रभापृथ्वी के नारक को तीर्थकरत्व (प्राप्त होने, न होने के कारणों का कथन किया है, उसी प्रकार उसके चक्रपर्तीपद प्राप्त होने न होने का कथन समझना चाहिए ।) " १. १४६०. सक्करप्पभापुढविणेरइए अनंतरं उव्वट्टित्तं लभेजा ? गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे । [१४६० प्र.] (भगवन्) ! शर्कराप्रभापृथ्वी का नारक (अपने भव से) उद्वर्त्तन करके सीधा चक्रवर्तीपद पा सकता है ? पण्णवणासुत्तं (प्रस्तावना आदि) भा. २. पृ. ११५ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ ] [प्रज्ञापनासूत्र [उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है । १४६१. एवं जाव अहेसत्तमापुढविणेरइए । [१४६१] इसी प्रकार (वालुकाप्रभापृथ्वी के नारक से ले कर) अधःसप्तमपृथ्वी के नारक तक (के विषय में समझ लेना चाहिए ।) १४६२. तिरिय-मणुएहितो पुच्छा । गोयमा ! णो इणढे समढे । [१४६२ प्र.] (तिर्यञ्चयोनिक और मनुष्यों के विषय में) पृच्छा है (कि ये) तिर्यञ्चयोनिकों और मनुष्यों से (निकल कर सीधे क्या चक्रवर्ती पद प्राप्त कर सकते हैं ?) [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । १४६३. भवणवइ-वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएहितो पुच्छा। गोयमा ! अत्थेगइए लभेजा, अत्थेगइए नो लभेजा। दारं ६ ॥ [१४६३ प्र.] (इसी प्रकार) भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव के सम्बन्ध में प्रश्न है कि (क्या वे अपने-अपने भवों से च्यवन कर सीधे चक्रवर्तीपद पा सकते हैं ?) [उ.] गौतम ! (इनमें से) कोई चक्रवर्तीपद प्राप्त कर सकता है (और) कोई प्राप्त नहीं कर सकता है ___ -छठा द्वार ॥ ६ ॥ विवेचन - चक्रवर्तीपद-प्राप्ति की विचारणा - प्रस्तुत सप्तम द्वार में चक्रवर्तीपद किसको प्राप्त होता है, किसको नहीं ? इस विषय में विचारणा की गई है । निष्कर्ष - चक्रवर्तीपद के योग्य जीव प्रथम नरक के नारक और चारों प्रकार के देवों में से अनन्तर मनुष्यभव मे जन्म लेने वाले है । शेष जीव (द्वितीय से सप्तम नरक तक तथा तिर्यञ्चों एवं मनुष्यों मे से उत्पन्न होने वाले) नहीं । तीर्थकरत्व-प्राप्ति की योग्यता के विषय में जो कारण प्रस्तुत किये गये थे, वे ही कारण चक्रवर्तित्व प्राप्ति की योग्यता के हैं। सप्तम : बलदेवत्वद्वार १४६४. एवं बलदेवत्तं पि । णवरं सक्करप्पभापुढविणेरइए वि लभेजा । दारं ७॥ [१४६४] इसी प्रकार बलदेवत्व के विषय में भी समझ लेना चाहिए । विशेष यह है कि शर्कराप्रभापृथ्वी १. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ४०३ (ख) पण्णवणासुत्तं (प्रस्तावनादि) भा. २, पृ. ११५ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद ] का नारक भी बलदेवत्व प्राप्त कर सकता है । - सप्तम द्वार ॥ ७ ॥ विवेचन - बलदेवत्व - प्राप्ति की विचारणा- चक्रवर्तिपद प्रात्ति के समान बलदेवपद - प्राप्ति का कथन समझना चाहिए । अर्थात् रत्नप्रभापृथ्वी के नारक तथा चारों प्रकार के देव अपने-अपने भवों से उद्वर्त्तन करके सीधे कोई (अमुक योग्यता से सम्पन्न ) बलदेवपद प्राप्त कर सकते हैं, कोई (अमुक योग्यता से रहित ) नहीं । किन्तु यहाँ विशेषता यह है कि शर्कराप्रभापृथ्वी का नारक भी अनन्तर उद्धर्त्तन करके बलदेवपद प्राप्त कर सकता है। [ ४४३ अष्टम : वासुदेवत्वद्वार १४६५. एवं वासुदेवत्तं दोहिंतो पुढवीहिंतो य अणुत्तरोववातियवज्जेहिंतो, सेसेसु णो इणट्ठे समट्ठे । दारं ८ ॥ [१४६५] इसी प्रकार दो पृथ्वियों ( रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा पृथ्वी) से, तथा अनुत्तरौपपातिक देवों को छोड़कर शेष वैमानिकों से वासुदेवत्व प्राप्त हो सकता है, शेष जीवों में यह अर्थ समर्थ नहीं अर्थात् ऐसी योग्यता नहीं होती । विवेचन - वासुदेवपदप्राप्ति की विचारणा प्रस्तुत द्वार में वासुदेवत्वप्राप्ति के सम्बन्ध में विचारणा की गई है । वासुदेवपद केवल रत्नप्रभा एवं शर्कराप्रभा पृथ्वी के नारकों से तथा पांच अनुत्तरविमान के देवों को छोड़कर शेष वैमानिक देवों से अनन्तर उद्वर्त्तन करके मनुष्यभव में उत्पन्न होने वाले जीवों को प्राप्त हो सकता है, शेष भवों से आए हुए जीव वासुदेव नहीं हो सकते हैं। नवम : माण्डलिकत्वद्वार - १४६६. मंडलियत्तं अहेसत्तमा- तेउ वाउवज्जेहिंतो । दारं ९ ॥ [१४६६] माण्डलिकपद, अधः सप्तमपृथ्वी के नारकों तथा तेजस्कायिक, वायुकायिक भवों को छोड़कर (शेष सभी भवों से अनन्तर उद्वर्त्तन करके मनुष्यभव में आए हुए जीव प्राप्त कर सकते हैं ।) - नवम द्वार ॥ ९ ॥ १. प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. ४, पृ. ५६७-५६८ २. प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भाग ४, पृष्ठ ५६८ ३. पण्णवणासुत्तं (प्रस्तावनादि) भा. २, पृ. ११५ विवेचन- माण्डलिकपदप्राप्ति का निषेध - केवल सप्तम नरक तथा तेजस्काय एवं वायुकाय में से निकलकर जन्म लेने वाले मनुष्य माण्डलिकपद प्राप्त नहीं कर सकते हैं । Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ ] [प्रज्ञापनासूत्र दशम : रत्नद्वार १४६७. सेणावइरयणत्तं गाहावइरयणत्तं वड्डइरयणत्तं पुरोहियरयणत्तं इत्थिरयणत्तं च एवं चेव, णवरं अणुत्तरोववाइयवजेहिंतो । - [१४६७] सेनापतिरत्नपद, गाथापतिरत्नपद, वर्धकीरत्नपद, पुरोहितरत्नपद और स्त्रीरत्नपद की प्राप्ति के सम्बन्ध में इसी प्रकार (अर्थात्-माण्डलिकत्वप्राप्ति के कथन के समान समझना चाहिए ।) विशेषता यह है कि अनुत्तरौपपातिक देवों को छोड़ कर (सेनापतिरत्न आदि हो सकते है ।) १४६८.आसरयणत्तं हत्थिरयणत्तं च रयणप्पभाओ णिरंतरं जाव सहस्सारो अत्थेगइए लभेजा, अत्थेगइए णो लभेजा। [१४६८] अश्वरत्न एवं हस्तिरत्नपद रत्नप्रभापृथ्वी से लेकर निरन्तर (लगातार) सहस्रार देवलोक के देव तक का कोई (जीव) प्राप्त कर सकता है, कोई प्राप्त नहीं कर सकता है । १४६९. चक्करयणत्तं छत्तरयणत्तं चम्मरयणत्तं दंडरयणत्तं असिरयणत्तं मणिरयणत्तं कगिणिरयणत्तं एतेसि णं असुरकुमारेहिंतो आरद्धं निरंतरं जाव ईसाणेहिंतो उववाओ, सेसेहिंतो णो इणढे समढे । दारं १० ॥ _ [१४६९] चक्ररत्न, छत्ररत्न, चर्मरत्न, दण्डरत्न, असिरत्न, मणिरत्न, एवं काकिणीरत्न पर्याय में उत्पत्ति, असुरकुमारों से लेकर निरन्तर (लगातार) यावत् ईशानकल्प के देवों से हो सकती है, शेष भवों से (आए हुए जीवों में) यह योग्यता नहीं है । - -दशम द्वार ॥ १० ॥ विवेचन - चक्रवर्ती के विविधरत्नपद की प्राप्ति की विचारणा - प्रस्तुत रत्नद्वार में चक्रवर्ती के १४ रत्नों में से कौन-सा रत्न किन-किन को प्राप्त हो सकता है ? इस सम्बन्ध के विचारणा की गई है । रत्नद्वार का सार यह है कि चक्रवर्ती के १४ रत्नों में से सेनापतिरत्न, गाथापतिरत्न, वर्धकीरत्न, पुरोहितरत्न और स्त्रीरत्न पद के लिए माण्डलिकत्व के समान सप्तम नरक, तेजस्काय, वायुकाय और अनुत्तर विमान में से बिना व्यवधान के आने वाले अयोग्य हैं । अश्वरत्न और हस्तिरत्न पद के लिए प्रथम नरक से लेकर लगातार सहस्रारकल्प तक के देव योग्य हैं तथा चक्ररत्न, चर्मरत्न, छत्ररत्न, असिरत्न, मणिरत्न और काकिणीरत्न के लिए असुरकुमार से लेकर ईशानकल्प से आने वाले योग्य हैं । भव्य-द्रव्यदेव-उपपात-प्ररूपणा १४७०. अह भंते ! असंजयभवियदव्वदेवाणं अविराहियसंजमाणं विराहियसंजमाणं अविराहियसंजमासंजमाणं विराहियसंजमासंजमाणं असण्णीणं तावसाणं कंदप्पियाणं चरग १. पण्णवणासुत्तं (प्रस्तावनादि) भा. ४, पृ. ५६९ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद ] परिव्वायगाणं किब्बिसियाणं तिरिच्छियाणं आजीवियाणं आभिओगियाणं सलिंगीणं दंसणवादण्णगाणं देवलोगेसु उववज्जमाणाणं कस्स कहिं उववाओ पण्णत्तो ? [ ४४५ गोयमा ! अस्संजयभवियदव्वदेवाणं जहण्णेणं भवणवासीसु उक्कोसेणं उवरिमगेवेज्जगेसु, अविराहियसंजमाणं जहणणेणं सोहम्मे कप्पे उक्कोसेणं सव्वट्ठसिद्धे, विराहियसंजमाणं जहण्णेणं भवणवासीसु उक्कोसेणं सोहम्मे कप्पे, अविराहियसंजमासंजमाणं जहण्णेणं सोहम्मे कप्पे उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे, विराहियसंजमासंजमाणं जहण्णेणं भवणवासीसु उक्कोसेणं जोइसिएसु, असण्णीणं जहणं भवणवासीसु उक्कोसेणं वाणमंतरेसु, तावसाणं जहण्णेणं भवणवासीसु उक्कोसेणं जोइसिएसु, कंदप्पियाणं जहणणेणं भवणवासीसु उक्कोसेणं सोहम्मे कप्पे, चरग-परिव्वायगाणं जहणणेणं भवणवासीसु उक्कोसेणं बंभलोए कप्पे, किब्बिसियाणं जहण्णेणं सोहम्मे कप्पे उक्कोसेणं लंतए कप्पे, तेरिच्छियाणं जहण्णेणं भवणवासीसु उक्कोसेणं सहस्सारे कप्पे, आजीवियाणं जहण्णेणं भवणवासीसु उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे, एवं आभिओगाण वि, सलिंगीणं दंसणवावप्णगाणं जहण्णेणं भवणवासीसु उक्कोसेणं उवरिमगेवेज्जएसु । [१४७० प्र.] भगवन् ! असंयत भव्य - द्रव्यदेव ( अर्थात् जो असंयमी आगे जाकर देव होने वाले हैं जिन्होंने संयम की विराधना नहीं की है जिन्होंने संयम की विराधना की है, जिन्होंने संयमासंयम की विराधना नहीं की है, (तथा) जिन्होंने संयमासंयम की विराधना की है, जो असंज्ञी हैं, तापस हैं, कान्दर्पिक हैं, चरक - परिव्राजक हैं, किल्विषिक हैं, तिर्यञ्च गाय आदि पाल कर आजीविका करने वाले हैं अथवा आजीविकमतानुयायी हैं, जो अभियोगिक (विद्या, मंत्र, तंत्र आदि अभियोग करते) हैं, जो स्वलिंगी (समान वेष वाले) साधु हैं तथा जो सम्यग्दर्शन का वमन करने वाले ( सम्यग्दर्शनव्यापन्न) हैं, ये जो देवलोकों में उत्पन्न हों तो (इनमें से) किसका कहाँ उपपात कहा गया है ? | [उ.] असंयत भव्य-द्रव्यदेवों का उपपाद जघन्य भवनवासी देवों में और उत्कृष्ट उपरिम ग्रेवेयक देवों में हो सकता है । जिन्होंने संयम की विराधना नहीं की है, उनका उपपाद जघन्य सौधर्मकल्प में और उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध में हो सकता है । जिन्होंने संयम की विराधना की है, उनका उपपात जघन्य भवनपतियों में, और उत्कृष्ट सौधर्मकल्प में होता है । जिन्होंने संयमासंयम की विराधना नहीं की है, उनका उपपात जघन्य सौधर्मकल्प में और उत्कृष्ट अच्युतकल्प में होता है । जिन्होने संयमासंयम की विराधना की है, उनका उपपाद जघन्य भवनपतियों में और उत्कृष्ट ज्योतिष्कदेवों में होता है । असंज्ञी साधकों का उपपात जघन्य भवनपतियों में और उत्कृष्ट वाणव्यन्तर देवों में होता है । तापसों का उपपाद जघन्य भवनवासीदेवों में और उत्कृष्ट ज्योतिष्कदेवों' में, कान्दर्पिकों का उपपात जघन्य भवनपतियों में, उत्कृष्ट सौधर्मकल्प में, चरक - परिव्राजकों का उपपात जघन्य भवनपतियों में और उत्कृष्ट ब्रह्मलोककल्प में तथा किल्विषिकों का उपपात जघन्य • सौधर्मकल्प में और उत्कृष्ट लान्तककल्प में होता है । तैरश्चिकों का उपपात जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट सहस्रारकल्प में, आजीविकों का उपपात जघन्य भवनपतियों में और उत्कृष्ट उच्युतकल्प में होता है, Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ ] [प्रज्ञापनासूत्र इसी प्रकार आभियोगिक साधकों का उपपात भी जान लेना चाहिए । स्वलिंग (समान वेष वाले) साधुओं का तथा दर्शन-व्यापन्न व्यक्तियों का उपपात जघन्य भवनवासीदेवों में और उत्कृष्ट उपरिम-ग्रैवेयकदेवों में होता विवेचन - मर कर देवलोकों में उत्पन्न होने वालों की चर्चा - प्रस्तुत सूत्र (१४७०) में भविष्य में देवगति में जाने वाले विविध साधकों के विषय में चर्चा की गई है कि वे मरकर कहाँ, किन देवों में उत्पन्न हो सकते हैं ? वस्तुतः इस चर्चा-विचारणा का परम्परा से अन्तक्रिया से सम्बन्ध है । विशिष्ट पारिभाषिक शब्दों के विशेषार्थ - असंयत भव्यद्रव्यदेव : दो अर्थ - (१) चारित्र के परिणामों से शून्य (भव्य देवत्वयोग्य अथवा मिथ्यादृष्टि अभव्य या भव्य श्रमणगुणधारक अखिल समाचारी के अनष्ठान से यक्त द्रव्यलिंगधारी (मलयगिरि के मत से) तथा (२) अन्य अचार्यों के मतानसार-देवों में उत्पन्न होने योग्य असंयतसम्यग्दृष्टि जीव । अविराधितसंयम-प्रव्रज्याकाल से लेकर जिनके चारित्रपरिणाम अखण्डित रहे हैं, किन्तु संज्वलन कषाय के सामर्थ्य से अथवा प्रमत्तगुणस्थानकवश स्वल्प मायादि दोष की सम्भावना होने पर जिन्होंने सर्वथा आचार का उपघात नहीं किया है, वे अविराधितसंयम हैं । विराधितसंयमजिन्होंने संयम को सर्वात्मना खण्डित-विराधित कर दिया है, प्रायश्चित्त लेकर भी पुनः खण्डित संयम को सांधा (जोड़ा) नहीं है, वे विराधितसंयम हैं । अविराधितसंयमासंयम-वे श्रावक, जिन्होंने देशविरतिसंयम को स्वीकार करने के समय से देशविरति के परिणामों को अखण्डित रखा है । विराधितसंयमासंयम-वे श्रावक, जिन्होंने देशविरतिसंयम को सर्वथा खण्डित कर दिया और संयमासंयम के खण्डन का प्रायश्चित्त लेकर पुनर्नवीकरण नहीं किया है ; वे । असंज्ञी-मनोलब्धि से रहित अकामनिर्जरा करने वाले साधक। तापस-बालतपस्वी, जो सूखे या वृक्ष से झड़े हुए पत्तों आदि का उपभेग करते हैं । कान्दार्पिक-व्यवहार से चरित्रपालन करने वाले, किन्तु जो कन्दर्प एवं कुत्सित चेष्टा करते हैं, हँसी-मजाक करते हैं, लोगो की अपनी वाणी और चेष्टा से हँसाते हैं । हाथ की सफाई, जादू आदि बाह्य चमत्कार बताकर लोगों को विस्मय में डाल देते हैं । चरक-परिव्राजक-कपिलमतानुयायी त्रिदण्डी, जो घाटी के साथ भिक्षाचर्या करते हैं अथवा चरककच्छोटक आदि साधक एवं परिव्राजक । किल्विषिक-व्यवहार से चारित्रवान् किन्तु जो ज्ञान, (दर्शन, चारित्र) केवली, धर्माचार्य एवं सर्वसाधुओं का अवर्णवाद करने का पाप करते हैं, अथवा इनके साथ माया (कपट) करते हैं । दूसरे के गुणों और अपने दोषों को जो छिपाते हैं, जो पर-छिद्रन्वेषी हैं, चोर की तरह सर्वत्र शंकाशील, गूढाचारी, असत्यभाषी, क्षणे रुष्टा क्षणे तुष्टा (तुनुकमिजाजी) एवं निह्नव हैं, वे किन्विषिक कहलाते हैं । तैरश्चिक-जो साधक गाय आदि पशुओं का पालन करके जीते हैं, या देशविरत हैं ।आजीविकजो अविवेकपूर्वक लाभ, पूजा, सम्मान, प्रसिद्धि, आदि के लिए चारित्र का पालन करते हुए आजीविका करते हैं, अथवा आजीविकमत (गोशालकमत) के अनुयायी पाखण्डि-विशेष । आभियोगिक-जो साधक अपने गौरव के लिए चूर्णयोग, विद्या, मंत्र आदि से दूसरों का वशीकरण, सम्मोहन, आकर्षण आदि (अभियोग) करते हैं । वे केवल व्यवहार से चारित्रपालन करते हैं, किन्तु मंत्रादिप्रयोग करते हैं । स्वलिंगी-दर्शनव्यापन्न Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद] [४४७ ॐ जो साधु रजोहरण आदि साधुवेष से स्वलिंगी हों, किन्तु सम्यग्दार्शन से भ्रष्ट हों, ऐसे निह्नव ।। इनमें से कोई देव हो तो किस देवलोक तक जाता है ? इसके लिए तालिका देखिये - क्रम साधक का प्रकार देवलोक में कहाँ से कहाँ तक जाता है ? १. असंयत भव्यद्रव्यदेव भवनवासी से नौ ग्रैवेयक देवों तक २. संयम का अविराधक सौधर्मकल्प से सर्वार्थसिद्धविमान तक ३. संयम का विराधक भवनपति देवों से लेकर सौधर्मकल्प तक ४. संयमासंयम (देशविरति)का अविराधक सौधर्मकल्प से अच्युतकल्प तक संयमासंयम का विराधक भवनवासी से ज्योतिष्क देवों तक ६. अकामनिर्जराशील असंज्ञी भवनवासी से वाणव्यन्तर देवों तक ७. तापस भवनवासी से ज्योतिष्क देवों तक ८. कान्दर्पिक भवनवासी से सौधर्मकल्प तक चरक-परिव्राजक भवनवासी देवों से ब्रह्मलोक तक १०. किल्विषिक भवनवासी से लान्तक तक ११. तैरश्चिक (अथवा देशविरति तिर्यञ्च) भवनवासी से सहस्रारकल्प तक १२. आजीविक या आजीवक भवनवासी से अच्युतकल्प तक १३. आभियोगिक भवनवासी से अच्युतकल्प तक १४. स्वलिंगी, किन्तु दर्शनभ्रष्ट (निह्नव) भवनवासी से ग्रैवेयक देव तक फलितार्थ - इस समग्रचर्चा के आधार से निम्नोक्त मन्तव्य फलित होता है - ___(१) आन्तरिक योग्यता के बिना भी बाह्य आचरण शुद्ध हो, तो जीव ग्रैवयेक देवलोक तक जाता है।। (२) इससे अन्ततोगत्वा जैनलिंग धारण करने वाले का भी महत्व है, यह नं. १ और नं. १४ के साधक के १. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्र ४०४ से ४०६ तक (ख) बृहत्कल्पभाष्य १२९४-१३०१, १३०२-१३०७, तथा १३०८ से १३१४ गा. (ग) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. ४. प.५७४ से ५७७ तक २. पण्णवणासुत्तं (प्रस्तावनादि) भा. २, पृ. ११५-११६ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ ] [प्रज्ञापनासूत्र लिए दिए गए निर्णय से फलित होता है । (३) आन्तरिक योग्यतापूर्वक संयम का यथार्थ पालन करे तो सर्वोच्च सर्वाथसिद्ध देवलोक तक में जाता है । असंज्ञी-आयुष्यप्ररूपण १४७१. कतिविहे णं भंते ! असण्णिआउए पण्णत्ते ? गोयमा ! चउव्विहे असण्णिआउए पण्णत्ते । तं जहा-णेरइयअसण्णिआउए जाव देवअसण्णिआउए। [१४७१ प्र.] भगवन् ! असंज्ञी-आयुष्य कितने प्रकार का कहा गया है ? [१४७१ उ.] गौतम ! असंज्ञि-आयुष्य चार प्रकार का कहा गया है । वह इस प्रकार - नैरयिकअसंज्ञि-आयुष्य से लेकर देव-असंज्ञि-आयुष्य तक। . १४७२. असण्णो णं भंते ! जीवे किं णेरइयाउयं पकरेइ जाव देवाउयं पकरेइ ? गोयमा ! णेरइयायउयं पकरेइ जाव देवाउयं पकरेइ, णेरइयाउयं पकरेमाणे जहण्णेणं दस वाससहस्साइं उक्कोमेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागंपकरेइ,तिरिक्खजोणियाउयंपकरेमाणेजहणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागंपकरेइ, एवं मणुयाउयंपि, देवाउयं जहाणेरइयाउयं। [१४७२ प्र.] भगवन् ! क्या असंज्ञी (जीव) नैरयिक की आयु का उपार्जन करता है अथवा यावत् देवायु का उपार्जन करता है ? [१४७२ उ.] गौतम ! वह नैरयिक-आयु का भी उपार्जन करता है, यावत् देवायु का भी उपार्जन करता है । नारकायु का उपार्जन करता हुआ असंज्ञी जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग की आयु का उपार्जन (बन्ध) कर लेता है । तिर्यञ्चयोनिक-आयुष्य का उपार्जन (बन्ध) करता हुआ वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त का और उष्कृष्टतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग का उपार्जन करता है । इसी प्रकार मनुष्यायु का एवं देवायु का उपार्जन (बन्ध) भी नारकायु के समान कहना चाहिए । १४७३. एयस्सणं भंते ! णेरइयअसण्णिआउयस्स जाव देवअसण्णिआउयस्स य कतरे कतरेहितो अप्पा वा ४? - गोयमा! सव्वत्थोवे देवअसण्णिआउए, मणुयअसण्णिआउए असंखेजगुणे,तिरिक्खजोणियअसण्णिआउए असंखेजगुणे, नेरइयअसन्निआउए असंखिजगुणे । ॥पण्णवणाए भगवतोए वीसइमं अंतकिरियापयं समत्तं ॥ [१४७३ प्र.] भगवन् ! इस नैरयिक-असंज्ञी आयु यावत् देव-असंज्ञी-आयु में से कौन किससे अल्प, १. वही भा. २, पृ. ११६ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद] [४४९ बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? [१४७३ उ.] हे गौतम ! सबसे अल्प देव-असंज्ञी-आयु है, (उससे) मनुष्य-असंज्ञी-आयु असंख्यातगुणी (अधिक) है, (उससे) तिर्यञ्चयोनिक असंज्ञी-आयु असंख्यातगुणी (अधिक) है, (और उससे भी) नैरयिक-असंज्ञी-आयु असंख्यातगुणी (अधिक) है । विवेचन-असंज्ञी की आयु : प्रकार, स्थिति और अल्पबहुत्व - प्रस्तुत तीन सूत्रों (१४७१ से १४७३) मे असंज्ञी-अवस्था में नरकादि आयु का जो बन्ध होता है, उसकी तथा उसके बांधने वाले के अल्पबहुत्व की चर्चा की गई है । . असंज्ञि-आयु का विवक्षित अर्थ - असंज्ञी होते हुए जीव परभव के योग्य जिस आयु का बन्ध करता है, वह असंज्ञी-आयु कहलाती है । नैरयिक के योग्य असंज्ञी की आयु नैरयिक-असंज्ञी-आयु कहलाती है। इसी प्रकार तिर्यग्योनिक-असंज्ञी-आयु, मनुष्य-असंज्ञी-आयु तथा देवासंज्ञी-आयु भी समझ लेनी चाहिए। यद्यपि असंज्ञी-अवस्था में भोगी जाने वाली आयु भी असंज्ञी-आयु कहलाती है, किन्तु यहाँ उसकी विवेक्षा नहीं है। __चारों प्रकार की असंज्ञी-आयु की स्थिति-(१) जघन्य नरकायु का बन्धं १० हजार वर्ष का कहा है, वह प्रथम नरक के प्रथम प्रस्तट (पाथड़े) की अपेक्षा से समझना चाहिए तथा उत्कृष्ट नरकायुबन्ध पल्योपम के असंख्यातवें भाग को उपार्जित करता है, यह कथन रत्नप्रभापृथ्वी के चौथे प्रतर के मध्यम स्थिति वाले नारक की अपेक्षा से समझना चाहिए । क्योंकि रत्नप्रभापृथ्वी के प्रथम प्रस्तट में जघन्य १० हजार वर्ष की स्थिति है, जबकि उत्कृष्ट स्थिति ९० हजार वर्ष की है । दूसरे प्रस्तट मे जघन्य १० लाख वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति ९० लाख वर्ष की है । इसी के तृतीय प्रस्तट में जघन्य स्थिति ९० लाख वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति एक कोटि पूर्व की है । चतुर्थ प्रस्तट में जघन्य एक कोटि पूर्व की है और उत्कृष्ट स्थिति सागरोपम के दशवें भाग की है । अत: यहाँ पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति मध्यम है । तिर्यञ्चयोनिक असंज्ञी-आयु उत्कृष्टतः पल्योपम के असंख्यातवे भाग की कही है, वह युगलिया तिर्यञ्च की अपेक्षा से समझना चाहिए । इसी प्रकार असंज्ञी-मनुष्यायु भी जो उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग की कही है, वह भी युगलिक नरों की उपेक्षा से समझना चाहिए । असंज्ञी-आयुष्यों का अल्पबहुत्व - भी इन चारों के ह्रस्व और दीर्घ की अपेक्षा से समझना चाहिए। ॥प्रज्ञापना भगवती का बीसवाँ अन्तक्रियापद समाप्त ॥ १. २. ३. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्र ४०७ वही, मलय. वृत्ति, पत्र ४०७ वही, मलय. वृत्ति, पत्र ४०७ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगवीसइमं : ओगाहणसंठाणपयं इक्कीसवाँ : अवगाहना-संस्थान - पद प्राथमिक यह प्रज्ञापनासूत्र का इक्कीसवाँ अवगाहना- संस्थान - पद है। + इस पद में शरीर के सम्बन्ध में विविध पहलुओं से विचारणा की गई है। + पूर्वपदों से इस पद में अन्तर - बारहवें 'शरीरपद' में, सोलहवें 'प्रयोगपद' में भी शरीर-सम्बन्धों चर्चा की गई है, परन्तु शरीरपद में नारकादि चौवीस दण्डकों में पांच शरीरों में से कौन-कौन सा - शरीर किसके होता है ? तथा बद्ध और मुक्त शरीरों की द्रव्य, क्षेत्र और काल की अपेक्षा से कितनी संख्या है ? इत्यादि विचारणा गई है और सोलहवें प्रयोगपद में मन, वचन और काय के आधार से आत्मा के द्वारा होने वाले व्यापार एवं गतियों का वर्णन है । प्रस्तुत अवगाहना - संस्थान - पद में शरीर के प्रकार, आकार, प्रमाण, पुद्गलचयोपचय, एक साथ एक जीव में पाये जाने वाले शरीरों की संख्या, शरीरगत द्रव्य एवं प्रदेशों का अल्पबहुत्व एवं अवगाहना के अल्पबहुत्व की सात द्वारों में विस्तृत चर्चा की गई है ।" + + १. २. शरीर आत्मा का सबसे निकटवर्ती धर्मसाधना में सहायक है । आत्मविकास, जप, तप, ध्यान, सेवा आदि सब स्वस्थ एवं सशक्त शरीर से ही हो सकते हैं । इनमें आहारकशरीर इतना चमत्कारी, हल्का और दिव्य, भव्य एवं स्फटिक-सा उज्जवल होता है कि किसी प्रकार की शंका उपस्थित होने पर चतुर्दशपूर्वधारी मुनि उक्त शरीर को तीर्थकर के पास भेजता है । वह उसके माध्यम से समाधान पा लेता है । उसके पश्चात् शीघ्र ही वह शरीर पुनः औदारिक शरीर में समा जाता है। प्रस्तुत पद में सात द्वार हैं- (१) विधिद्वार, (२) संस्थानद्वार, (३) प्रमाणद्वार, (४) पुद्गलचयनद्वार, (५) शरीरसंयोगद्वार, (६) द्रव्य - प्रदेशाल्प - बहुत्वद्वार और (७) शरीरावगाहनाल्पबहुत्वद्वार । प्रथम विधिद्वार में शरीर के मुख्य ५ प्रकार हैं- औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण । उपनिषदों में आत्मा के ५ कोषों की चर्चा है । उनमें से सिर्फ अन्नमयकोष के साथ औदारिक शरीर की तुलना हो सकती है । सांख्य आदि दर्शनों में अव्यक्त, सूक्ष्म या लिंग शरीर बताया गया है, जिसकी तुलना जैनसम्मत पण्णवणात्तं भा. २, पृ. ८८ तथा १०१ - १०२ वही, पृ. ८९ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] [४५१ + कार्मणशरीर से हो सकती है । सर्वप्रथम औदारिक शरीर के भेद, संस्थान और प्रमाण, इन तीन द्वारों को क्रमशः एक साथ लिया गया है । औदारिक शरीर के भेदों की गणना में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय-मनुष्य तक के जितने जीव-भेद-प्रभेद हैं, उतने ही भेद औदारिक शरीर के गिनाए हैं । औदारिक शरीर का संस्थान-आकृति का भी इतने ही जीवभेदों के क्रम से विचार किया गया है । पृथ्वीकाय का मसूर की दाल जैसा, अप्काय का स्थिर जलबिन्दु जैसा, तेजस्काय का सुइयों के ढेर-सा, वायुकाय का पताका जैसा और वनस्पतिकाय का नाना प्रकार का आकार है। द्वीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय एवं सम्मूछिमपंचेन्द्रिय का हुंडकसंस्थान है। सम्मूछिम के सिवाय बाकी के औदारिक शरीरी जीवों के छहों प्रकार के संस्थान होते है । औदारिकादि शरीर के प्रमाणों अर्थात्-ऊँचाई का विचार भी एकेन्द्रियादि जीवों की अपेक्षा से किया गया है । वैक्रिश् शरीर का भी जीवों के भेदों के अनुसार विचार किया गया है । उनमें बादर-पर्याप्त वायु और पंचेन्द्रियतिर्यचों में संख्यात वर्षायुष्क पर्याप्त गर्भजों को उक्त शरीर होता है और पर्याप्त मनुष्यों में से कर्मभूमि के मनुष्य के ही होता है । सभी देवों एवं नारकों के वैक्रिय शरीर होता है, यह बता कर उसकी आकृति का वर्णन किया है । भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय, इन दोनों को लक्ष्य में रखा गया है । आहारक शरीर एक ही प्रकार का है । वह कर्मभूमि के ऋद्धिसम्पन्न प्रमत्तसंयम मनुष्य को ही होता है । उसका संस्थान समचतुरत्न होता है । उत्कृत्ट ऊँचाई पूर्ण हाथ जितनी होती है ।' तैजस और कार्मण शरीर एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सभी जीवों के होता है । इसलिए जीव के भेदों जितने हों उसके उतने भेद होते हैं । तैजस और कार्मण शरीर की अवगाहना का विचार मारणान्तिकसमुद्घात को लक्ष्य में रख कर किया गया है । मृत्यु के समय जीव को मर कर जहाँ जाना होता है, वहाँ तक की अवगाहना यहाँ कही गई है । शरीर के निर्माण के लिए पुद्गलों का चय-उपचय एवं अपचय कितनी दिशाओं से होता है-इसका उल्लेख भी चौथे द्वार में किया गया है । पाँचवें द्वार में-एक जीव में एक साथ कितने शरीर रह सकते हैं ? उसका उल्लेख है । छठे द्वार में शरीरगत द्रव्यों और प्रदेशों के अल्प-बहुत्व की चर्चा की गई है । सातवें द्वार में अवगाहना का अल्पबहुत्व जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट की अपेक्षा से प्रतिपादित है । मूलपाठ में ही उक्त सभी विषय स्पष्ट हैं । + + * (ख) तैत्तिरीयोपनिषद् भृगुवल्ली (वेलवलकर) २. (क) भगवती १७।१ सू. ५९२ (ग) सांख्यकारिका (वेलवलकर और रानडे) पण्णवणासुत्तं भा. २, पृ. ११७. वही, भा. २, पृ. ११८ वही, भा. २, पृ. ११९ ४. Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगवीसइमं : ओगाहणसंठाणपयं इक्कीसवाँ : अवगाहना-संस्थान - पद अर्थाधिकार- प्ररूपणा १४७४. विहि १ संठाण २ पमाणं ३ पोग्गलचिणणा ४ सरीरसंजोगो ५ । दव्व-पएसप्पबहुं ६ सरीरओगाहणप्पबहुं ७ ॥ २१४ ॥ [१४७४ गाथार्थ] (इस इक्कीसवें पद में ७ द्वार हैं -) (१) विधि, (२) संस्थान, (३) प्रमाण, (४) पुद्गलचयन, (५) शरीरसंयोग, (६) द्रव्य-प्रदेशों का अलपबहुत्व, एवं (७) शरीरावगाहना - अल्पबहुत्व। विवेचन - शरीरसम्बन्धी सात द्वार प्रस्तुत पदों में शरीर से सम्बन्धित सात द्वारों का वर्णन है, जिनके नाम मूलगाथा में दिये गए हैं । - सात द्वारों में विशेष निरूपण - (१) विधिद्वार इसमें शरीर के प्रकार और उनके भेद-प्रभेदों का वर्णन है, (२) संस्थानद्वार - पंचविध शरीरों के संस्थानों- आकारों का निरूपण है: (३) प्रमाणद्वारऔदारिक आदि शरीरों की लम्बाई-चौड़ाई (अवगाहना) के प्रमाण का वर्णन है, (४) पुद्गलचयनद्वारऔदारिक आदि शरीर के पुद्गलों का चय-उपचय कितनी दिशाओं से होता है ? इसका निरूपण है, (५) शरीरसंयोगद्वार किस शरीर के साथ किस शरीर का संयोग अवश्यम्भावी है, किसके साथ वैकल्पिक है। ? इसका वर्णन है, ( ६ ) द्रव्यप्रदेशाल्पबहुत्वद्वार - द्रव्यों और प्रदेशों की अपेक्षा के अल्पबहुत्व का वर्ण है और (७) शरीरावगाहनाऽल्पबहुत्वद्वार - पांचों शरीरों की अवगाहना के अल्पबहुत्व का निरूपण है । १-२-३. विधि - संस्थान - प्रमाणद्वार १. - - १४७५ कति णं भंते ! सरोरया पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच सरीरया पण्णत्ता । तं जहा ओरालिए १ वेउव्विए २ आहारए ३ तेयए ४ कम्पए ५ । [१४७५ प्र.] भगवन् ! कितने शरीर कहे गए हैं ? प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. ४, पृ. ५८७ - Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] [ ४५३ - [उ.] गौतम ! पांच शरीर कहे गए है । वे इस प्रकार - (१) औदारिक, (२) वैक्रिय, (३) आहारक, (४) तैजस और (५) कार्मण । विवेचन - शरीर के मुख्य पांच प्रकार-प्रस्तुत सूत्र में शरीर के मुख्य ५ प्रकारों का निरूपण है । प्रतिक्षण शीर्ण-क्षीण होते हैं, इसलिए ये शरीर कहलाते हैं । ___पांचों शरारों के लक्षण-(१) औदारिकशरीर-जो उदार अर्थात् प्रधान हो, उसे औदारिक शरीर कहते हैं । औदारिक शरीर की प्रधानता तीर्थकर, गणधर आदि के औदारिक शरीर होने की अपेक्षा से है । अथवा उदार का अर्थ विशाल यानी बृहत्परिमाण वाला है । क्योंकि औदारिक शरीर एक हजार योजन से भी अधिक लम्बा हो सकता है, इसलिए अन्य शरीरों की अपेक्षा यह विशाल परिमाण वाला है । औदारिक शरीर की यह विशालता भवधारणीय शरीर की अपेक्षा से समझनी चाहिए, अन्यथा उत्तरवैक्रिय शरीर तो एक लाख योजन का भी हो सकता है। (२) वैक्रियशरीर-जिस शरीर के द्वारा विविध, विशिष्ट या विलक्षण क्रियाएँ हों, वह वैक्रियशरीर कहलाता है । जो शरीर एक होता हुआ, अनेक बन जाता है, अनेक होता हुआ, एक हो जाता है, छोटे ये बड़ा और बड़े से छोटा, खेचर से भूचर और भूचर से खेचर हो जाता है तथा दृश्य होता हुआ अदृश्य और अदृश्य होता हुआ दृश्य बन जाता है, इत्यादि विलक्षण लक्षण वाला शरीर वैक्रिय है। वह दो प्रकार का होता है औपपातिक (जन्मजात) और लब्धि-प्रत्यय । औपपातिक वैक्रियशरीर उपपात-जन्म वाले देवों और नारकों का होता है और लब्धि-प्रत्यय वैक्रियशरीर लब्धिनिमित्तक होता है, जो तिर्यञ्चों और मनुष्यों में किसीकिसी में पाया (३) आहारकशरीर-चतुर्दशपूर्वधारी मुनि तीर्थंकरों का अतिशय देखने आदि के प्रयोजनवश विशिष्ट आहारकलब्धि से जिस शरीर का निर्माण करते हैं, वह आहारकशरीर कहलाता है । "श्रुतकेवली द्वारा प्राणिदया, तीर्थंकरादि की ऋद्धि के दर्शन, सूक्ष्मपदार्थावगाहन के हेतु से तथा किसी संशय के निवारणार्थ जिनेन्द्र भगवान् के चरणों में जाने का कार्य होने पर अपनी विशिष्ट लब्धि से शरीर निर्मित किये जाने के कारण इसको आहारकशरीर कहा गया है ।" यह शरीर वैक्रियशरीर की अपेक्षा अत्यन्त शुभ और स्वच्छ स्फटिक शिला के सदृश शुभ पुद्गलसमूह से रचित होता है ।। १. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ४०९ २. वही, पत्र ४०९ ..३. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्र ४०९ (ख) "कजंमि समुप्पण्णे सुयकेवलिणा विसिट्ठलद्धीए । जं एत्थ आहरिज्जइ, भणितं आहारगं तं तु ॥१॥ पाणिदयरिद्धि-दंसणसुहमपयत्थावगहणहेडं वा । संसयवोच्छेयत्थं गमणं जिणपायमूलंमि ॥२॥ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ ] [प्रज्ञापनासूत्र (४) तैजसशरीर-तैजसपुद्गलों से जो शरीर बनता है, वह तैजसशरीर कहलाता है । यह शरीर उष्मारूप और भुक्त आहार के परिणमन (पाचन) का कारण होता है । तैजसशरीर के निमित्त से ही विशिष्ट तपोजनित लब्धि वाले पुरुश के शरीर से तेजोलेश्या का निर्गम होता है । यह तैजसशरीर सभी संसारी जीवों को होता है, शरीर की उष्मा (उष्णता) से इसकी प्रतीति होती होता है । इसी कारण इसे तैजसशरीर समझना चाहिए । (५) कार्मणशरीर-जो शरीर कर्मज (कर्म से उत्पन्न) हो, अथवा जो कर्म का विकार हो, वह कार्मणशरीर है । आशय यह है, कि कर्म परमाणु ही आत्मप्रदेशों के साथ दूध-पानी की भांति एकमेक हो कर परस्पर मिलकर शरीर के रूप में परिणत हो जाते हैं, तब वे कार्मण (कर्मज) शरीर कहलाते हैं । कहा भी है-कार्मणशरीर कर्मों का विकार (कार्य) है, वह अष्टविध विचित्र कर्मों से निष्पन्न होता है । इस शरीर को समस्त शरीरों का कारण समझना चाहिए । अतः औदरिक आदि समस्त शरीरों का बीजरूप (कारणरूप) कार्मणशरीर ही है । जब तक भवप्रपञ्च रूपी अंकुर के बीजभूत कार्मणशरीर का उच्छेद नहीं हो जाता, तब तक शेष शरीरों का प्रादुर्भाव रुक नहीं सकता। यह कर्मज शरीर ही जीव को (मरने के बाद) दूसरी गति में संक्रमण कराने में कारण है । तैजससहित कार्मणशरीर के युक्त हो कर जीव जंब मर कर अन्य गति में जाता है । अथवा दूसरी गति से मनुष्यगति में आता है, तब उन पुद्गलों की अतिसूक्ष्मता के कारण जीव चर्मचक्षुओं से नहीं दिखाई देता । अन्यतीर्थिकों ने भी कहा है-"यह भवदेह बीच में (जन्म और मरण के मध्यकाल में) भी रहता है, किन्तु अतिसूक्ष्म होने के कारण शरीर से निकलता अथवा प्रवेश करता हुआ दिखाई नहीं देता ।" तैजस और कार्मणशरीर के बदले अन्य धर्मों में सूक्ष्म और कारण शरीर माना गया है । औदारिकशरीर में विधिद्वार १४७६. ओरालियंसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते । तं जहा-एगिदियओरालियसरीरे जाव पंचेंदियओरालियसरीरे। [१४७६ प्र.] भगवन् ! औदारिकशरीर कितने प्रकार का कहा गया है । ___ (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्र ४०९ (ख) "सव्वस्स उम्हसिद्धं रसाइ आहारपाकजणगं च । तेयगलद्धिनिमित्तं च तेयगं होइ नायव्वं ॥" प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्राांक ४१० - ख) "कम्मविगारो कम्मणविहविचित्तकम्मनिष्फनं । . सर्वस सरीराणं कारणभूतं मुणेयव्वं ॥" (ग) “अन्तरा भवदेहोऽपि, सूक्ष्मत्वान्नोपलभ्यते । निष्कामन् प्रविशन् वापि, नाभावोऽनीक्षणादपि ॥" Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४५५ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान - पद ] [उ.] गौतम ! वह पांच प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर यावत् पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर । 1 १४७७. एगिंदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते । तं जहा - पुढविक्वाइयएगिंदियओरालियसरीरे जाव वणस्सइकाइयएगिंदियओरालियसरीरे । [१४७७ प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! वह (एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर) पांच प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकारपृथ्वीकायिक- एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर यावत् वनस्पतिकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर । १४७८. [१] पुढविक्काड्यएगिंदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते । तं जहा - सुहुमपुढविक्वाइयएगिंदियओरालियसरीरे य बादरपुढविक्काइयएगिंदियओरालियसरीरे य । [१४७८-१ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) दो प्रकार का कहा गया है, यथा- सूक्ष्मपृथ्वीकायिक- एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर और बादरपृथ्वीकायिक- एकेन्द्रिय औदारिकशरीर । [ २ ] सुहुमपुढविक्वाइयएगिंदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते । तं जहा - पज्जत्तगसुहुमपुढविक्वाइयएगिंदियओरालियसरीरे य अपज्जत्तगसुहुमपुढविक्वाइयएगिंदियओरालियसरीरे य । [१४७८-२ प्र.] भगवन् ! सूक्ष्मपृथ्वीकायिक- एकेन्द्रिय-औदारिकशरीरे कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! दो प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार पर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक-एकेन्द्रियऔदारिकशरीर और अपर्याप्तक-सूक्ष्मपृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर । - [३] बादरपुढविक्काइया वि चेव । [१४७८-३] इसी प्रकार बादर - पृथ्वीकायिक- (एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर के भी पर्याप्तक और अपर्याप्तक, ये दो भेद समझ लेने चाहिए ।) १४७९. एवं जाव वणस्सइकाइयएगिंदियओरालिय त्ति । [१४७९] इसी प्रकार (अप्कायिक से लेकर) वनस्पतिकायिक- एकेन्द्रिय-औदारिक- शरीर (तक के Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ ] [प्रज्ञापनासूत्र भी सूक्ष्म, बादर पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद से दो-दो प्रकार समझ लेनी चाहिए ।) १४८०. बेइंदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते । तं जहा - पजत्तबेइंदियओरालियसरीरे य अपजत्तबेइंदियओरालियसरीरे य। [१४८० प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय-औदारिकशरीर कितने प्रकार का कह गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) दो प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार - पर्याप्तद्वीन्द्रिय-औदारिकशरीर और अपर्याप्तद्वीन्द्रिय-औदारिकशरीर । . १४८१. एवं तेइंदिय-चरिं दिया वि । [१४८१] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय (औदारिक शरीर के भी पर्याप्त और अपर्याप्तक, ये दोदो प्रकार जान लेने चाहिए ।) १४८२. पंचेंदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते । तं जहा - तिरिक्खपंचेंदियओरालियसरीरे यं मणुस्सपंचेंदियओरालियसरीरे य । [१४८२ प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) दो प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार-तिर्यञ्च-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर और मनुष्य-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर । १७८३. तिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरेणं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते। तं जहा - जलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य १ थलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य २ खहयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य३। __ [१४८३ प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर कितने प्रकार का कहा गया है? [उ.] गौतम ! (वह)तीन प्रकार का कहा गया है, यथा- (१) जलचर-तिर्यञ्चयोनिकपंचेन्द्रियऔदारिकशरीर (२) स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर और (३) खेचर-तिर्यञ्चयोनिकपंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर । १४८४. [१] जलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरेणं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते । तं जहा - सम्मुच्छिमजलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] [४५७ य गब्भवक्कंतियजलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य । .. [१४८४-१ प्र.] भगवन् ! जलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) दो प्रकार का कहा गया है । यथा - सम्मूछिम-जलचर-तिर्यञ्चयोनिकपंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर और गर्भज (गर्भव्युत्क्रान्तिक)-जलचर-तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय-औदारिक-शरीर। [२] सम्मुच्छिमजलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरेणं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते। तं जहा - पजत्तगसम्मच्छिमतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य ।अपजत्तगसम्मुच्छिमतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य । - [१४८४-२ प्र.] भगवन् ! सम्मूछिम-जलचर-तिर्यंचचोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? ___ [उ.] गौतम ! (वह) दो प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार - पर्याप्तक-सम्मूछिम-तिर्यञ्चयोनिकपंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर और अपर्याप्तक-सम्मूछिम-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर । [३] एवं गब्भवक्कंतिए वि । - [१४८४-३] इसी प्रकार गर्भज (जलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर) के भी (पर्याप्तक और अपर्याप्तक, ये दो भेद समझ लेना चाहिए) । १४८५.[१] थलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते? ‘गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते । तं जहा - चउप्पयथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य परिसप्पथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य । [१४८५-१ प्र.] भगवन् ! स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) दो प्रकार का कहा गया है, यथा - चतुष्पद-स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिकपंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर और परिसर्प-स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर । [२] चउप्पयथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते । तं जहा - सम्मुच्छिमचउप्पयथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य गब्भवक्वंतियचउप्पयथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य । [१४८५-२ प्र.] भगवन् ! चतुष्पद-स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर कितने प्रकार Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ ] [प्रज्ञापनासूत्र का कहा गया है ? - [उ.] गौतम ! (वह) दो प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार - सम्मूछिम-चतुष्पद-स्थलचरतिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर और गर्भज-चतुष्पद-स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियऔदारिकशरीर । __[३] सम्मुच्छिमचउप्पयथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे . पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते । तं जहा - पजत्तसम्मुच्छिमचउप्पयथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य अपजत्तसम्मुच्छिमचउप्पयथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य। [१४८५-३ प्र.] भगवन् ! सम्मूछिम-चतुष्पद-स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) दो प्रकार का कहा गया है, जैसे-पर्याप्तक-सम्मूछिम-चतुष्पद-स्थलचरतिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर और अपर्याप्तक-सम्मूछिम-चतुष्पद-स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिकपंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर । [४] एवं गब्भवक्कंतिए वि। .. [१४८५-४] इसी प्रकार गर्भज (-चतुष्पद-स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर) के भी (पर्याप्तक और अपर्याप्तक, ये दो प्रकार समझ लेने चाहिए ।) [५] परिसप्पथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरेणं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते । तं जहा - उरपरिसप्पथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य भुयपरिसप्पथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य । ... [१४८५-५ प्र.] भगवन् ! परिसर्प-स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? . [उ.] गौतम ! (वह) दो प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार - उर:परिसर्प-स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिकपंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर और भुजपरिसर्प-स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर । [६] उरपरिसप्पथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरेणं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते । तं जहा - सम्मुच्छिमउरपरिसप्पथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य गब्भवक्कंतियउरपरिसप्पथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य । Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान- पद ] [ ४५९ [१४८५-६ प्र.] भगवन् ! उरः परिसर्प-स्थलचर - तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [3] गौतम ! ( वह) दो प्रकार का कहा गया है, जैसे- सम्मूच्छिम - उरः परिसर्प- स्थलचरतिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर और गर्भज - उर : परिसर्प-स्थलचर - तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियऔदारिकशरीर । [७] सम्मुच्छिमे दुविहे पण्णत्ते । तं जहा - अपज्जत्तसम्मुच्छिमउरपरिसप्पथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य पज्जत्तसम्मुच्छिमउरपरिसप्पथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य । [१४८५-७] सम्मूर्च्छिम ( - उरः परिसर्प-स्थलचर - तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय - औदारिकशरीर) दो प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार - अपर्याप्तक- सम्मूच्छिम - उर : परिसर्प-स्थलचर - तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियऔदारिकशरीर और पर्याप्तक- सम्मूर्चिछम-उरः परिसर्प-स्थलचर - तिर्यञ्चयोनिक - पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर । [ ८ ] एवं गब्भवक्कंतियउरपरिसप्पचउक्कओ भेदो । [ १४८५-८] इसी प्रकार गर्भज - उर: परिसर्प- (स्थलचर - तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर) के भी (पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो प्रकार मिला कर सम्मूच्छिम और गर्भज दोनों के कुल ) चार भेद समझ लेने चाहिए । [ ८ ] एवं भुयपरिसप्पा वि सम्मुच्छिम-गब्भक्कंतिय-पज्जत्त-अपज्जत्ता । [१४८५-९] इसी प्रकार भुजपरिसर्प - ( स्थलचर - तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर) के भी सम्मूच्छिम एवं गर्भज (तथा दोनों के) पर्याप्तक और अपर्याप्तक ( ये चार भेद समझने चाहिए)। १४८६. [ १ ] खहयरा दुविहा पण्णत्ता । तं जहा सम्मुच्छिमा या गब्भववंतिया य । - [१४८६-१] खेचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर भी दो प्रकार का कहा गया है, यथासम्मूच्छिम और गर्भज । [२] सम्मुच्छिमा दुविहा पण्णत्ता । तं जहा - पज्जत्ता य अपज्जत्ता य । [१४८६ - २] सम्मूच्छिम - (खेचर-ति० - पं०- औदारिकशरीर) दो प्रकार का कहा गया है, यथा पर्याप्त और अपर्याप्त । [ ३ ] गब्भवद्वंतिया वि पज्जत्ता य अपज्जत्ता य । [१४८६-३] गर्भज (खेचर- तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर) भी पर्याप्त और अपर्याप्त (के Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० ] भेद से दो प्रकार का कहा गया है) । १४८७. [ १ ] मणूसपंचेंदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते । तं जहा सम्मुच्छिममणूसपंचेंदियओरालियसरीरे य गब्भवक्कंतियमणूसपंचेंदियओरालियसरीरे य । [१४८७-१ प्र.] भगवन् ! मनुष्य-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) दो प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार - सम्मूच्छिम मनुष्य-पंचेन्द्रियऔदारिकशरीर और गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रिय-औदारिक प्रज्ञापनासूत्र [ २ ] गब्भवक्कंतियमणूसपंचेंदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते । तं जहा - पज्जत्तगगब्भवक्कंतियमणूसपंचेंदियओरालियरीरे अपज्जत्तगगब्भवक्कंतियमणूसपंचेंदियओरालियसरीरे य । [१४८७-२ प्र.] भगवन् ! गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) दो प्रकार का कहा गया है, यथा- पर्याप्तक - गर्भज- मनुष्य-पंचेन्द्रियऔदारिकशरीर और अपर्याप्तक- गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर । विवेचन - औदारिकशरीर के भेद-प्रभेद - प्रस्तुत १२ सूत्रों ( १४७६ से १४८७ तक) में विधिद्वार. के सन्दर्भ में औदारिकशरीर के भेद-प्रभेदों का निरूपण किया गया है । औदारिकशरीरधारी जीव नारकों और देवों को छोड़ कर एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तिर्यचों और मनुष्यों के जितने भी जीव हैं और उन जीवों के जितने भी भेद-प्रभेद हैं, उतनी ही औदारिकशरीर के भेदप्रभेदों की संख्या है ।' T औदारिकशरीर के भेदों की गणना - पांच प्रकार के एकेन्दियों के औदारिक शरीरों के प्रत्येक के सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त, ये चार-चार भेद होने से कुल २० भेद हुए । तीन विकलेन्द्रियों के पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से ६ भेद हुए । तत्पश्चात् औदारिकशरीर पंचेन्द्रिय के मुख्य दो भेद - तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय और मनुष्यपंचेन्द्रिय । तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय - औदारिकशरीर के मुख्य तीन भेद - जलचर, स्थलचर और खेचर सम्बन्धी । फिर जलचर शरीर के दो भेद - सम्मूच्छिम एवं गर्भज । सम्मूच्छिम और गर्भज दोनों के पर्याप्तक और अपर्याप्तक, ये दो-दो भेद । स्थलचर शरीर के मुख्य दो भेद - चतुष्पद और परिसर्प । चतुष्पद स्थलचर शरीर के दो भेद - सम्मूच्छिम और गभर्ज, फिर इन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त, ये दो-दो प्रकार । परिसर्प पण्णवण्णासुत्तं (प्रस्तावनादि) भा. २, पृ. ११७ १. Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] [ ४६१ स्थलचर शरीर के मुख्य दो भेद-उर:परिसर्प और भुजपरिसर्प । उर:परिसर्प और भुजपरिसर्प, इन दोनों के शरीर के सम्मूछिम और गर्भज तथा उनके पर्याप्तक और अपर्याप्तक प्रभेद होते हैं । खेचर शरीर के भी सम्मुछिम, गर्भज तथा उनके पर्याप्त, अपर्याप्त भेद । मनुष्य शरीर के मुख्य दो भेद-सम्मूछिम और गर्भज । फिर गर्भज मनुष्य शरीर के दो भेद-पर्याप्तक और अपर्याप्तक । इस प्रकार औदारिकशरीर के कुल ५० भेदप्रभेदों की गणना कर लेनी चाहिए ।' औदारिकशरीर में संस्थानद्वार १४८८. ओरालियसरीरे णं भंते ! किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! णाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते । [१४८८ प्र.] भगवन् ! औदारिकशरीर का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गोयमा ! (वह) नाना संस्थान वाला कहा गया है । . १४८९. एगिंदियओरालियसरीरे णं भंते ! किंसंठिए पण्णत्ते ? • गोयमा ! णाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते । [१४८९ प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर किस संस्थान (आकार) का कहा गया है ? [उ.] गोयमा ! (वह) नाना संस्थान वाला कहा गया है ? १४९०.[१] पुढविक्काइयएगिंदियओरालियसरीरे णं भंते ! किंसंठाणसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! मसूरचंदसंठाणसंठिए पण्णत्ते । [१४९० प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर किस प्रकार के संस्थान वाला कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) मसूर-चन्द्र (मसूर की दाल) जैसे संस्थान वाला कहा गया है। [२] एवं सुहुमपुढविक्काइयाण वि। [१४९०-२] इसी प्रकार सूक्ष्मपृथ्वीकायिकों का (औदारिकशरीर-संस्थान) भी (मसूर की दाल के समान है।) [३] बायराण वि एवं चेव। [१४९०-३] बादरपृथ्वीकायिकों का (औदारिकशरीर-संस्थान) भी इसी के समान (समझना चाहिए।) - प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्र ४१० ---- Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ ] [प्रज्ञापनासूत्र [४] पजत्तापज्जत्ताण वि एवं चेव। [१४९०-४] पर्याप्तक और अपर्याप्तक (पृथ्वीकायिकों का औदारिकशरीर-संस्थान भी इसी प्रकार (जानना चाहिए।) १४९१.[१]आउक्काइयएगिंदियओरालियसरीरे णं भंते ! किंसंठाणसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! थिबुगबिंदुसंठाणसंठिए पण्णत्ते। [१४९१-१] भगवन् ! अप्कायिक-एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर का संस्थान कैसा कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (अप्कायिकों के शरीर का संस्थान) स्तिबुकबिन्दु (स्थिरजलबिन्दु) जैसा कहा गया [२]एवं सुहुम-बायर-पजत्तापज्जत्ताण वि। [१४९५-२] इसी प्रकार का संस्थान अप्कायिकों के सूक्ष्म, बादर, पर्याप्तक और अपर्याप्तकों के शरीर का समझना चाहिए। १४९२. [१] तेउक्काइयएगिंदियओरालियसरीरे णं भंते ! किंसंठाणसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! सूईकलावसंठाणसंठिए पण्णत्ते। [१४९२-२] भगवन् ! तेजस्कायिक-एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है। [उ.] गौतम ! तेजस्कायिकों के शरीर का संस्थान सूइयों के ढेर (सूचीकलाप) के जैसा कहा गया है। [२] एवं सुहम-बादर-पजत्तापजत्ताण वि। [१४९२-२] इसी प्रकार (का संस्थान तेजस्कायिकों के) सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्तों के शरीरों का (समझना चाहिए।) १४९३.[१] वाउक्काइयाणं पडागासंठाणसंठिए पण्णत्ते। [१४९३-१] वायुकायिक जीवों (के औदारिकशरीर) का संस्थान पताका के समान है। [२] एवं सुहुम-बायर-पजत्तापज्जत्ताण वि। [१४९३-२] इसी प्रकार का संस्थान (वायुकायिकों के) सूक्ष्म, बारद, पर्याप्तक और अपर्याप्तकों के शरीरों का भी समझना चाहिए। १४९४.[१] वणस्सइकाइयाणं णाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते। Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] [ ४६३ [१४९४-१] वनस्पतिकायिकों के शरीर का संस्थान नाना प्रकार का कहा गया है। [२] एवं सुहुम-बायर-पज्जत्तापजत्ताण वि। [१४९४-२] इसी प्रकार (वनस्पतिकायिकों के) सूक्ष्म, बादर, पर्याप्तकों अपर्याप्तकों के शरीरों का संस्थान भी (नाना प्रकार का है।) १४९५.[१] बेइंदियओरालियसरीरे णं भंते ! किंसंठाणसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! हुंडसंठाणसंठिए पण्णत्ते। [१४९५-१ प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय-औदारिकशरीर का संस्थान किस प्रकार का कहा गया हैं ? [उ.] गौतम ! (वह) हुंडकसंस्थान वाला कहा गया है। [२] एवं पजत्तापज्जत्ताण वि। [१४९५-२] इसी प्रकार पर्याप्तक और अपर्याप्तक (द्वीन्द्रिय-औदारिकशरीरों का संस्थान भी हुंडक कहा गया है।) १४९६. एवं तेइंदिय-चउरि दियाण वि। [१४९६-१] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय (के पर्याप्तक, अपर्याप्तक शरीरों) का संस्थान भी (हुण्डक समझना चाहिए।) १४९७.[१] तिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे णं भंते ! किंसंठाणसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! छव्विहसंठाणसैठिए पण्णत्ते।तं जहा - समचउरंससंठाणसंठिए जाव' हुंडसंठाणसंठिए वि। एवं पज्जत्ताऽपजत्ताण वि ३। [१४९७-१ प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर किस संस्थान वाला कहा गया __ [उ.] गौतम ! (वह) छहों प्रकार के संस्थान वाला कहा गया है, यथा - समचतुरस्र-संस्थान से लेकर हुंडकसंस्थान पर्यन्त। इसी प्रकार पर्याप्तक, अपर्याप्तक (तिर्यञ्च-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर के संस्थान) के विषय में भी (समझ लेना चाहिए।) [२] सम्मुच्छिमतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे णं भंते ! किंसंठाणसंठिए पत्ते ? गोयमा ! हुंडसंठाणसंठिए पण्णत्ते। एवं पजत्तापज्जत्ताण वि ३। १. 'जाव' शब्द 'नग्गोहपरिमंडलसंठाणसंठिए, साइसं०, वामणसं०, खुजसंठाणसंठिए, हंडसंठाणसंठिए, शब्दों का सूचक है। Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र [१४९७-२ प्र.] भगवन् ! सम्मूर्च्छिम-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर किस संस्थान वाला कहा गया है ? ४६४ ] [उ.] गौतम ! (वह) हुंडक संस्थान वाला कहा गया है। इसी प्रकार पर्याप्तक, अपर्याप्तक (सम्मूर्च्छिमतिर्यञ्चपंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर) का (संस्थान) भी (हुण्डक ही समझना चाहिए।) [ ३ ] गब्भवक्कंतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे णं भंते! किंसंठाणसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! छव्विहसंठाणसंठिए पण्णत्ते । तं जहा - समचउरंसे जाव हुंडसंठाणसंठिए । एवं पज्जत्तापज्जत्ताण वि३ । एवमेते तिरिक्खजोणियाणं ओहियाणं णव आलावगा । [१४९७-३ प्र.] भगवन् ! गर्भज-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर किस संस्थान वाला कहा गया है ? [उ.] गौ म ! (वह) छहों प्रकार के संस्थान वाला कहा गया है, यथा- समचतुरस्त्रसंस्थान से लेकर संस्थान तक। इस प्रकार पर्याप्तक, अपर्याप्तक (गर्भज - तिर्यञ्च-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीरों) के भी (ये छह संस्थान समझने चाहिए।) इस प्रकार औधिक (सामान्य) तिर्यञ्चयोनिकों (तिर्यञ्च-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीरों के संस्थानों) के ये (पूर्वोक्त) नौ आलापक समझने चाहिए। १४९८. [ १ ] जलयरतिरिक्खजोणिय-पंचेंदिय-ओरालियसरीरे णं भंते ! किंसंठाणसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! छव्विहसंठाणसंठिए पण्णत्ते । तं जहा - समचउरंसे जाव हुंडे | [१४९८- १ प्र.] भगवन् ! जलचर - तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर किस संस्थान वाला कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) छहों प्रकार के संस्थान वाला कहा गया है, जैसे- समचतुरस्र यावत् हुण्डक संस्थान । [ २ ] एवं पज्जत्तापज्जत्ताण वि । [१४९८-२] इसी प्रकार पर्याप्त, अपर्याप्तक ( जलचर-1 र- तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीरों) के भी संस्थान (छहों प्रकार के) समझने चाहिए । ,[ ३ ] सम्मुच्छिमजलयरा हुंडसंठाणसंठिया । एतेसिं चेव पज्जत्तापज्जत्तगा वि एवं चेव । Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] [ ४६५ _ [१४९८-३] सम्मूर्छिम-जलचरों (तिर्यञ्च-पंचेन्द्रिय) के औदारिकशरीर हुण्डसंस्थान वाले हैं। उनके पर्याप्तक, अपर्याप्तकों के (औदारिकशरीर) भी इसी प्रकार (हुण्डकसंस्थान) के होते हैं। [४] गब्भवक्कंतियजलयरा छव्विहसंठाणसंठिया। एवं पजत्तापजत्तगा वि। [१४९८-४] गर्भज-जलचर (तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों के औदारिकशरीर) छहों प्रकार के संस्थान वाले हैं। इसी प्रकार पर्याप्तक, अपर्याप्तक (गर्भज-जलचर-तिर्यञ्च-पंचेन्द्रियों के औदारिकशरीर भी (छहों संस्थान वाले समझने चाहिए।) १४९९.[१] एवं थलयराण वि णव सुत्ताणि। [१४९९-१] इसी प्रकार स्थलचर- (तिर्यञ्च-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर-संस्थानों) के नौ सूत्र (भी पूर्वोक्त प्रकार से समझ लेने चाहिए।) [२] एवं चउप्पयथलयराण वि उरपरिसप्पथलयराण वि भुयपरिसप्पथलयराण वि। [१४९९-२] इसी प्रकार चतुष्पद-स्थलचरों, उर:परिसर्प-स्थलचरों एवं भुजपरिसर्प-स्थलचरों के औदारिकशरीर संस्थानों के (नौ-नौ सूत्र) भी (पूर्वाक्त प्रकार से समझ लेने चाहिए।) १५००.एवं खहयराण विणव सुत्ताणि।णवरंसव्वत्थ सम्मुच्छिमा हुंडसंठाणसंठिया भाणियव्वा, इयरे छसु वि। [१५००] इसी प्रकार खेचरों के (औदारिकशरीरसंस्थानों के) भी नौ सूत्र (पूर्वोक्त प्रकार से समझने चाहिए।) विशेषता यह है कि सम्मूर्छिम (तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों के औदारिकशरीर) सर्वत्र हुण्डकसंस्थान वाले कहने चाहिए। शेष सामान्य, गर्भज आदि के शरीर तो छहों संस्थानों वाले होते हैं। १५०१.[१] मणूसपंचेंदियओरालियसरीरे णं भंते ! किंसंठाणसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! छव्विहसंठाणसंठिए पण्णत्ते। तं जहा- समचउरंसे जाव हुंडे। [१५०१-१ प्र.] भगवन् ! मनुष्य-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर किस संस्थान वाला कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) छहों प्रकार के संस्थान वाला कहा गया है, जैसे- समचतुरस्र यावत् हुण्डक्संस्थान वाला । [२] पजत्तापजत्ताण वि एवं चेव । [१५०१-२] पर्याप्तक और अपर्याप्त (मनुष्य-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर) भी इसी प्रकार छहों संस्थान वाले होते हैं ।) [३] गब्भवक्कंतियाणं वि एवं चेव । पजत्ताऽपज्जत्तगाण वि एवं चेव । Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र [१५०१ - ३] गर्भज (मनुष्य-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर) भी इसी प्रकार (छहों संस्थान ( वाले होते हैं।) पर्याप्तक-अपर्याप्तक (गर्भज मनुष्यों) के ( औदारिकशरीर भी छह संस्थान वाले समझने चाहिए ।) ४६६ ] [४] सम्मुच्छिमाणं पुच्छा । गोयमा ! हुंडठाणसंठिया पण्णत्ता । [१५०१-४] सम्मूच्छिम मनुष्यों (चाहे पर्याप्तक हो, या अपर्याप्तक) के ( औदारिकशरीर किस संस्थान वाले होते हैं ? [उ.] गोयमा ! (सम्मूच्छिम मनुष्यों के औदारिकशरीर) हुण्डकसंस्थान वाले होते हैं । विवेचन - सर्वविध औदारिकशरीरों की संस्थानसम्बन्धी प्ररूपणा - प्रस्तुत १४ सूत्रों (सू. १४८८ से १५०१) में एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय-मनुष्य तक के विविध औदारिकशरीरों के संस्थानों की प्ररूपणा की गई है । संस्थानों की प्ररूपणा का क्रम औदारिकशरीर के भेदों के क्रम के अनुसार रखा गया है। औदारिकशरीरों की संस्थान-सम्बन्धी तालिका - इस प्रकार है औदारिकशरीर क्रम १. पृथ्वीकायिक सूक्ष्म - बादर, पर्याप्त अपर्याप्त औदारिकशरीर २. अप्कायिक सूक्ष्म - बादर, पर्याप्त - अपर्याप्त औदारिकशरीर ३. स्कायिक सूक्ष्म - बादर, पर्याप्त - अपर्याप्त औदारिकशरीर ४. वायुकायिक सूक्ष्म - बादर, पर्याप्त - अपर्याप्त औदारिकशरीर ५. वनस्पतिकायिक सूक्ष्म- बादर, पर्याप्त अपर्याप्त औदारिकशरीर द्वि-त्रि- चतुरिन्द्रिय पर्याप्त - अपर्याप्त औदारिकशरीर ६. ७. तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय औदारिकशरीर ८. सम्मूच्छिम ति. पं. औदारिकशरीर पर्याप्त अपर्याप्त ९. गर्भज ति. पं. औदारिकशरीर पर्याप्त अपर्याप्त १०. जलचरति. पं. औदारिकशरीर पर्याप्त अपर्याप्त ११. सम्मूच्छिम जलचर ति. पं. औदारिकशरीर पर्याप्त अपर्याप्त १. पण्णवणासुत्तं (प्रस्तावना परिशिष्टादि) भा. २, पृ. ११७ संस्थान मसूर की दाल के समान स्थिर जलबिन्दु के समान. सूइयों के ढेर के समान पताका के आकार के समान नाना प्रकार के संस्थान वाला हुंडकसंस्थान वाले छहों प्रकार के संस्थान वाला हुंडकसंस्थान वाला षड्विध संस्थान वाला षड्विध संस्थान वाला हुंडकसंस्थान Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान - पद ] सम्मूच्छिम स्थलचर, खेचर ति. पं. औदारिकशरीर पर्याप्त अपर्याप्त हुंडकसंस्थान १२. स्थलचर चतुष्पद, उरः परिसर्प, भुजपरिसर्प ति. पं. पर्याप्त अपर्याप्त १३. खेचर ति. पं. पर्याप्त अपर्याप्त औदारिकशरीर [ ४६७ छहों प्रकार के संस्थान छहों प्रकार के संस्थान छहों प्रकार के संस्थान १४. मनुष्य पंचेन्द्रिय, गर्भज, पर्याप्त अपर्याप्त औदारिकशरीर १५. सम्मूच्छिम मनुष्य पं. औदारिकशरीर, पर्याप्त अपर्याप्त हुंडकसंस्थान ' मसूरचंद आदि शब्दों के विशेषार्थ - मसूरचंदसंठाण - मसूर एक प्रकार का धान्य होता है, जिसकी दाल बनती है । मसूर का चन्द्र अर्थात् चन्द्राकार अर्थात् (दाल) मसूरचन्द्र ; उसके समान आकार । थिबुगबिन्दुसंठाण- स्तिबुकबिन्दु - पानी के बुदबुद जैसा होता है, जो बूंद वायु आदि के द्वारा इधर-उधर बिखरे या फैले नहीं, जमा हुआ हो, वह स्तिबुकबिन्दु कहलाता है, उसके जैसा आकार। नाना संठाणसंठियादेश, जाति और काल आदि के भेद से उनके आकार में भिन्नता होने से विविध प्रकार के आकार वाले । १. पण्णवणासुत्तं ( मूलपाठ - टिप्पणयुक्त) भा. १, पृ. ३३१ से ३३३ तक २. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति पत्र ४११ संस्थान : प्रकार और स्वरूप- शरीर की आकृति या रचना - विशेष को संस्थान कहते हैं । उसके ६ प्रकार हैं- (१) समचतुरस्र, (२) न्यग्रोध - परिमण्डल, (३) सादि (स्वाति), (४) वामन, (५) कुब्जक और (६) हुण्डकसंस्थान । छहों का स्वरूप इस प्रकार है- (१) समचतुरस्त्र - जिस शरीर के चारों ओर के चारों अस्र-कोण या विभाग सामुद्रिकशास्त्र में कथित लक्षणों के अनुसार सम हों, वह समचतुरस्रसंस्थान है, ( २ ) न्यग्रोध-परिमण्डल - न्यग्रोध का अर्थ है- वट या बड़ । जैसे वटवृक्ष का ऊपरी भाग विस्तीर्ण या पूर्णोपेत होता है और नीचे का भाग हीन या संक्षिप्त होता है, वैसे ही जिस शरीर के नाभि के ऊपर का भाग पूर्णप्रमाणोपेत हो, किन्तु नीचे का भाग (निचले अवयव) हीन या संक्षिप्त हों, वह न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान है । (३) सादिसंस्थान - सादि शब्द में जो 'आदि' शब्द है, वह नाभि के नीचे के भाग का वाचक है । नाभि के अधस्तन-भागरूप आदि सहित, जो संस्थान हो, वह 'सादि' कहलाता है । आशय यह है कि जो संस्थान नाभि के नीचे प्रमाणोपेत हो, किन्तु जिसमें नाभि के ऊपरी भाग हीन हों, वह सादिसंस्थान है । कई आचार्य इसे साचीसंस्थान कहते हैं । साची कहते हैं - शाल्मली (सेमर) वृक्ष को । शाल्मली वृक्ष का स्कन्ध (नीचे का भाग) अतिपुष्ट होता है, किन्तु ऊपर का भाग तदनुरूप विशाल या पुष्ट नहीं होता, उसी तरह जिस शरीर का अधोभाग परिपुष्ट व परिपूर्ण हो और ऊपर का भाग हीन हो, वह साचोसंस्थान है । ( ४ ) कुब्जकसंस्थानजिस शरीर के सिर, गर्दन, हाथ-पैर आदि अवयव आकार में प्रमाणोपेत हों, किन्तु वक्षस्थल, उदर आदि टेढ़े-मेढ़े बेडौल या कुबड़े हों, वह कुब्जकसंस्थान है । ( ५ ) वामनसंस्थान - जिस शरीर के छाती, पेट आदि अवयव प्रमाणोपेत हों, किन्तु हाथ-पैर आदि अवयव हीन हों, जो शरीर बौना हो, वह वामनसंस्थान है । Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ ] [प्रज्ञापनासूत्र (६) हुण्डकसंस्थान-जिस शरीर के सभी अंगोपांग बेडौल हों, प्रमाण और लक्षण से हीन हों, वह हुण्डकसंस्थान कहलाता है । औधिक तिर्यचयोनिकों के नौ आलापक- ये नौ आलापक इस प्रकार है- समुच्चय पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों का एक इनके पर्याप्तकों का एक और अपर्याप्तकों का एक, यों तीन आलापक ; सम्मूछिमपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक का एक, इनके पर्याप्तक-अपर्याप्तकों के दो, यों कुल तीन आलापक तथा गर्भजपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक का एक, उनके पर्याप्तक अपर्याप्तक का एक-एक, यों कुल तीन आलापक । ये सब मिलाकर ९ आलापक हुए । स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों के औदारिकशरीर-सम्बन्धी नौ सूत्र- समुच्चय स्थलचरों का, उनके पर्याप्तकों का, अपर्याप्तकों का ; सम्मूछिम स्थलचरों का, उनके पर्याप्तकों का, अपर्याप्तकों का तथा गर्भज स्थलचरों का, उनके पर्याप्तकों का एवं अपर्याप्तकों का एक-एक सूत्र होने से कुल नौ सूत्र होते हैं । औदारिकशरीर में प्रमाणद्वार १५०२ औरालियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोसेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं । [१५०२ प्र.] भगवन् ! औदारिकशरीर की अवगाहना कितनी कही गई है ? [उ.] गौतम ! (औदारिकशरीरावगाहना) जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग की (और) उत्कृष्टः कुछ अधिक हजार योजन की है। १५०३. एग्रिदियओरालियस्स वि एवं चेव जहा ओहियस्स (सु. १५०२)। [१५०३] एकेन्द्रिय के औदारिकशरीर की अवगाहना भी जैसी (सू. १५०२ में) औधिक (सामान्य औदारिकशरीर) की (कही है उसी प्रकार समझनी चाहिए ।) १५०४. [१] पुढविक्काइयएगिदियओरालियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभागं । [१५०४-१ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर की अवगाहना कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (उसकी अवगाहना) जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग की है । १. प्रज्ञापना, मलयवृत्ति, पत्र ४१२ २. (क) वही, मलयवृत्ति, पत्र ४१२ (ख) प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनीटीका भा. ४, पृ. ६३२ ३. (क) वही, मलयवृत्ति, पत्र ४१२ (ख) प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनीटीका भा. पृ. ६३३ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] [४६९ [२] एवं अपजत्तयाण वि पजत्तयाण वि । [१५०४-२] इसी प्रकार अपर्याप्तक एवं पर्याप्तक, (पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिक-शरीरों) की भी (अवगाहना इतनी ही समझनी चाहिए ।) [३] एवं सुहुमाण वि पज्जत्तापज्जत्ताणं । [१५०४-३] इसी प्रकार सूक्ष्म पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक-(पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिकशरीरों) की (अवगाहना) भी समझनी चाहिए । [४] बादराणं पजत्तापजत्ताण वि एवं । एसो णवओ भेदो । [१५०४-४] बादर पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक (पृ० ए० औदारिकशरीरों) की (अवगाहना की वक्तव्यता) भी इसी प्रकार (समझनी चाहिए ।) (इस प्रकार पृथ्वीकायिकों के शरीरावगाहनासम्बन्धी) ये नौ भेद (आलापक) हुए । १५०५. जहा पुढविक्काइयाणं तहा आउक्काइयाण वि तेउक्काइयाण वि वाउक्काइयाण वि । . [१५०५] जिस प्रकार पृथ्वीकायिकों के (औदारिकशरीरावगाहना-सम्बन्धी ९ आलापक-भेद हुए,) उसी प्रकार अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों के भी (औदारिकशरीरावगाहना-सम्बन्धी) आलापक कहने चाहिए । १५०६.[१] वणस्सइकाइयओरालियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोसेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं । [१५०६-१ प्र.] भगवन् ! वनस्पतिकायिकों के औदारिकशरीर की अवगाहना कितनी है ? [उ.] गौतम ! (उसकी अवगाहना) जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार योजन की है। [२] अपजत्तगाणं जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेजइभागं । - [१५०६-२] (वनस्पतिकायिक) अपर्याप्तकों (के औदारिकशरीर) की जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना भी अंगुल के असंख्यातवें भाग की है। [३] पजत्तगाणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभाग, उक्कोसेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं। · [१५०६-३] (वनस्पतिकायिक) पर्याप्तकों (के औदारिकशरीर) की (अवगाहना) जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग (और) उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार योजन की है । [४] बादराणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोसेणं सातिरेगंजोयणसहस्सं । पज्जत्तण Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० ] [प्रज्ञापनासूत्र वि एवं चेव । अपजत्ताणं जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेजइभागं । [१५०६-४] बादर (वनस्पतिकायिकों के औदारिकशरीर) की (अवगाहना ) जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग (और) उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार योजन की है । (इनके) पर्याप्तकों की (औदारिकशरीरावगाहना) भी इसी प्रकार की (समझनी चाहिए ।) (इनके) अपर्याप्तकों की (औदारिकशरीरावगाहना) जघन्य और उत्कृष्ट (दोनों प्रकार से) अंगुल के उसंख्यातवें भाग की (समझनी चाहिए ।) [५] सुहुमाणं पजत्तापजत्ताण य तिण्ह वि जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेजइ भागं । [१५०६-५] (वनस्पतिकायिकों के) सूक्ष्म, पर्याप्तक और अपर्याप्तक, इन तीनों की (औदारिकशरीरावगाहना) जघन्य और उत्कृष्ट (दोनों रूप से) अंगुल के असंख्यातवें भाग की है । १५०७.[१] बेइंदियओरालियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोसेणं बारस जोयणाई। [१५०७-१] भगवन् ! द्वीन्द्रियों के औदारिकशरीर की अवगाहना कितनी कहीं गई है ? [उ.] गौतम ! (इनकी शरीरावगाहना) जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और अत्कृष्ट बारह योजन की है। [२] एवं सक्थ वि अपजत्तयाणं अंगुलस्स असंखेजइभागं जहण्णेण वि उक्कोसेण वि। [१५०७-२] इसी प्रकार सर्वत्र (द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियों में) अपर्याप्त जीवों की औदारिकशरीरावगाहना भी जघन्य और उत्कृष्ट (दोनों प्रकार से) अंगुल के असंख्यातवें भाग की कहनी चाहिए। [३] पजत्तयाणं जहेव ओरालियस्स ओहियस्स (सु. १५०७-१)। [१५०७-३] पर्याप्त द्वीन्द्रियों के औदारिकशरीर की अवगाहना भी उसी प्रकार है, जिस प्रकार [१५०७-१ सू. में] (द्वीन्द्रियों के) औधिक (औदारिकशरीर) की (कही है ।) अर्थात् जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट बारह योजन की होती है । ) १५०८. एवं तेइंदियाणं तिण्णि गाउयाइं । चउरि दियाणं चत्तारि गाउयाई । [१५०८] इसी प्रकार (औधिक और पर्याप्तक) त्रीन्द्रियों (के औदारिक शरीर) की (उत्कृष्ट अवगाहना) तीन गव्यूति (गाऊ) की है तथा (औधिक और पयौप्तक) चतुरिन्द्रियों (के औदारिकशरीर) की (उत्कृष्ट Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४७१ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान - पद ] अवगाहना) चार गव्यूति (गाउ) की है । १५०९. पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं उक्कोसेणं जोयणसहस्सं ३, एवं सम्मुच्छिमाणं ३, गब्भवक्कंतियाण वि३ । एवं चेव णवओ भेदो भाणियव्वो । [१५०९] पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों के (१) औधिक औदारिकशरीर की, उनके (२) पर्याप्तकों के औदारिकशरीर को तथा उनके (३) अपर्याप्तकों के औदारिकशरीर (की उत्कृष्ट अवगाहना एक हजार योजन की है ।) तथा सम्मूच्छिम (पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के औधिक और पर्याप्तक) औदारिकशरीर की उत्कृष्ट अवगाहना इसी प्रकार (एक हजार योजन) की ( समझनी चाहिए किन्तु सम्मूच्छिम अपर्याप्तक- तिर्यञ्च-पंचेन्द्रिय के औदारिकशरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग की होती है ।) गर्भजपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों तथा उनके पर्याप्तकों के औदारिकशरीर की उत्कृष्ट अवगाहना भी इसी प्रकार समझती चाहिए, किन्तु इनके अपर्याप्तकों के औदारिकशरीर की पूर्ववत् अवगाहना होती है । इस प्रकार पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों की औदारिकशरीरावगाहना सम्बन्धी कुल ९ भेद (आलापक) होते हैं । १५१०. एवं जलयराण वि जोयणसहस्सं, णवओ भेदो । [१५१०] इसी प्रकार औघिक और पर्याप्तक जलचरों के औदारिकशरीर की उत्कृष्ट अवगाहना एक हजार योजन की (पं० ति० की औ० - शरीरावगाहना के समान) होती है । ( अपर्याप्त जलचरों की औ० - शरीरावगाहना जघन्य और उत्कृष्ट पूर्ववत् जाननी चाहिए ।) इसी प्रकार पूर्ववत् इसकी औदारिकशरीरावगाहना के ९ भेद (विकल्प) होते हैं । १५११. [ १ ] थलयराण वि णवओ उक्कोसेणं भेदो उक्कोसेणं छग्गाउयाई, पज्जत्ताण वि एवं चेव ३ । सम्मुच्छिमाणं पज्जत्ताण य उक्कोसेणं गाउयपुहत्तं । गब्भवक्कंतियाणं उक्कोसेणं छग्गाउयाई पज्जत्ताण य २ । ओहियचउप्पयपज्जत्तय-गब्भवक्कतियपज्जत्तयाण य उक्कोसेणं छग्गाउयाइं । सम्मुच्छिमाणं पज्जत्ताण य गाउयपुहत्तं उक्कोसेणं । [१५११-१] स्थलचर-पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों की औदारिकशरीरावगाहना-सम्बन्धी पूर्ववत् ९ विकल्प होते हैं । (समुच्चय) स्थलचर पं० ति० की औदारिकशरीरावगाहना उत्कृष्टत: छह गव्यूति की होती है। सम्मूच्छिम स्थलचर पं० तिर्यञ्चों के एवं उनके पर्याप्तकों के औदारिकशरीर की उत्कृष्ट अवगाहना गव्यूतिपृथक्त्व (दो गाऊ से नौ गाऊ तक) की होती है । उनके अपर्याप्तकों की जघन्य और उत्कृष्ट शरीरावगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की होती है । गर्भज - तिर्यञ्च - पंचेन्द्रियों के औदारिकशरीर की अवगाहना उत्कृष्ट छह गव्यूति की और (उनके) पर्याप्तकों (के औदारिकशरीर) की (उत्कृष्ट अवगाहना) भी ( इतनी ही होती है।) औघिक चतुष्पदों के, इनके पर्याप्तकों के तथा गर्भज-चतुष्पदों के तथा इनके पर्याप्तकों के औदारिकशरीर की अवगाहना उत्कृष्टतः छह गव्यूति की होती है । (इनके अपर्याप्तकों की अवगाहना पूर्ववत् होती है ।) सम्मूच्छिम चतुष्पद (स्थलचर-पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों) के तथा (उनके) पर्याप्तकों (के औदारिकशरीर) की Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ ] [प्रज्ञापनासूत्र (अवगाहना) उत्कृष्ट रूप से गब्यूतिपृथक्त्व की (होती है।) । [२] एवं उरपरिसप्पाण वि ओहिय-गब्भवक्वंतियपजत्तयाणं जोयणसहस्सं । सम्मुच्छिमाणं जोयणपुहत्तं । ___ [१५११-२] इसी प्रकार उरः परिसर्प-(स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यचों के) औधिक, गर्भज तथा (उनके) पर्याप्तकों (के औदारिकशरीर) की (उत्कृष्ट अवगाहना) एक हजार योजन की होती है। सम्मूछिम(उर:परिसर्प स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों के तथा) उनके पर्याप्तकों (के औदारिकशरीर) की (उत्कृष्ट अवगाहना) योजनपृथक्त्व की (होती है ।) इनके अपर्याप्तकों की पूर्ववत् होती है । [३] भुजपरिसप्पाणं ओहियगब्भवक्कंतियाण य उक्कोसेणं गाउयपुहत्तं । सम्मुच्छिमाणं धणुपुहत्तं । [१५११-३] भुजपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के औधिक, गर्भज तथा उनके पर्याप्तंकों के औदारिकशरीर की अवगाहना उत्कृष्टत: गव्यूति-पृथक्त्व की होती है । सम्मूछिम-(भुजपरिसर्प-स्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यचञ्चों के तथा उनके पर्याप्तकों के औदारिकशरीर) की उत्कृष्ट अवगाहना धनुषपृथक्त्व की होती है । (इनके अपर्याप्तकों के औदारिकशरीर की अवगाहना पूर्ववत् समझें ।) . १५१२. खहयराणं ओहिय-गब्भवक्कंतियाणं सम्मच्छिमाण य तिण्ह वि उक्कोसेणं धणुपुहत्तं। इमाओ संगहणिगाहाओ जोयणसहस्स छग्गाउयाई तत्तो य जोयणसहस्सं । गाउयपुहत्त भुजए धणूपुहत्तं च पक्खीसु ॥२१५॥ जोयणसहस्स गाउयपुहत्त तत्तो य जोयणपुहत्तं । दोण्हं तु धणुपुहत्तं सम्मच्छिमे होति उच्चत्तं ॥२१६॥ _[१५१२] खेचर-(पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों के) औधिकों, गर्भजों एवं सम्मच्छिमों, इन तीनों के औदारिकशरीरों की उत्कृष्ट अवगाहना धनुषपृथक्त्व की होती है । [गाथार्थ -(गर्भज जलचरों की उत्कृष्ट अवगाहना) एक हजार योजन की, चतुष्पद-स्थलचरों की उत्कृष्ट अवगाहना छह गव्यूति की, तत्पश्चात् उरः परिसर्प-स्थलचरों की अवगाहना एक हजार योजन की (होती है ।) भुजपरिसर्प-स्थलचरों की गव्यूतिपृथक्त्व की और खेचर पक्षियों की धनुषपृथक्त्व की औदारिकशरीरावगाहना होती है । ॥२१५ ॥ . सम्मूछिम (स्थलचरों) की औदारिकशरीरावगाहना उत्कृष्टतः एक हजार योजन की, चतुष्पदस्थलचरों की अवगाहना गव्यूतिपृथक्त्व की उरः परिसों की योजनपृथक्त्व की, भुजपरिसों की तथा Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] [४७३ (औघिक और पर्याप्तक) इन दोनों एवं सम्मच्छिम खेचर पक्षियों की धनुषपृथक्तव की उत्कृष्ट औदारिकशरीरावगाहना (ऊंचाई) समझनी चाहिए ॥ २१३ ॥ १५१३.[१] मणुस्सोरालियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? . गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाई। [१५१३-१] भगवन् ! मनुष्यों के औदारिकशरीर की अवगाहना कितनी कही गई है ? [उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट तीन गव्यूति की होती है । [२] अपज्जत्ताणं जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेजइभागं । [१५१३-२] अपर्याप्तक (मनुष्यों के औदरिकशरीर) की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग की (होती है ।) [३] सम्मुच्छिमाणं जहण्णेण वि उक्कोसण वि अंगुलस्स असंखेजइभागं । [१५१३-३] सम्मूछिम (मनुष्यों के औदारिकशरीर) की जघन्यतः और उत्कृष्टतः (अवगाहना) अंगुले के असंख्यातवें भाग की (होती है ।) [४] गब्भवक्कंतियाणं पजत्ताण य जहण्णेणें अगुंलसस असंखेजइभागं, उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाइं। _ [१५१३-४] गर्भज मनुष्यों के तथा इनके पर्याप्तकों के औदारिकशरीर की अवगाहना जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्टः तीन गव्यूति की होती है । विवेचन - सर्वविध औदारिक शरीरों की अवगाहना-सम्बन्धी प्ररूपणा - प्रस्तुत १२ सूत्रों (सू. १५०२ से १५१३) में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय-मनुष्यों तक के सभी प्रकार के औदारिकशरीरों की जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना की प्ररूपणा की गई है ।' इसे सुगमता से समझने के लिए तालिका दी जा रही हैक्रम औदारिकशरीधारी जघन्य अवगाहना उत्कृष्ट अवगाहना . १. समुच्चय औदारिकशरीर की अंगुल की कुछ अधिक एक हजार योजन असंख्यातवाँ भाग २. एकेन्द्रिय के औदारिकशरीर की १. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. १, पृ. ३३१ से ३३५ तक Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ ] [प्रज्ञापनासूत्र ३. पृथ्वीकायिकों, पर्याप्तक-अपर्याप्तकों के औदारिकशरीर की अंगुल का असंख्यातवाँ भाग पृथ्वीकायिकों के सूक्ष्म, बादर के औदारिक शरीर की ४. अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकयिकों के. औदारिकशरीर की ५. वनस्पतिकायिकों के औदारिकशरीर की कुछ अधिक एक हजार योजन वनस्पति अपर्याप्तकों के औदारिकशरीर की " अंगुल का असंख्यातवाँ भाग वनस्पति पर्याप्तकों के औदारिकशरीर की कुछ अधिक एक हजार योजन वनस्पति बादर, पर्याप्तकों के औ.श. की अंगुल का कुछ अधिक एक हजार योजन वनस्पति बादर अपर्याप्तकों के औ.श. की असंख्यातवाँ भाग अंगुल का असंख्यातवाँ भाग वनस्पति सूक्ष्म, पर्याप्तक, अपर्याप्तकों के औदारिकशरीर की द्वीन्द्रियों के औदारिकशरीर की बारह योजन द्वीन्द्रियों के पर्याप्तकों के औ. शरीर की द्वीन्द्रियों के अपर्याप्तकों के औ. शरीर की अंगुल का असंख्यातवाँ भाग ७. त्रीन्द्रियों के अपर्याप्तकों के औ. शरीर की त्रीन्द्रियों के औघिक एवं पर्याप्तकों के औ. शरीर की तीन गव्यूति (६ कोस) ८. चतुरिन्द्रियों के औधिक एवं पर्याप्तकों के औदारिकशरीर की चार गव्यूति (८ कोस) पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के औदारिकशरीर की एक हजार योजन ३. औधिक पर्याप्त अपर्याप्त के औ. श. की अपर्याप्त का अंगुल का अ.भाग ३. सम्मूछिम पर्याप्त अपर्याप्त के औ. श. की " एक हजार योजन, अप.की Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान - पद ] अं. अ.भा ३. गर्भज पर्याप्त अपर्याप्त के औ.श. की १०. जलचर पति के औदारिकशरीर की जलचर ३. औधिक पर्याप्तक अपर्याप्तक के औदारिकशरीर जलचर ३, सम्मूच्छिम पर्याप्तक अपर्याप्तक के औदारिकशरीर की जलचर ३. गर्भज पर्याप्तक अपर्याप्तक के औदारिकशरीर की ११. स्थलचर प. ति के औधिक के औ. श. की स्थलचर चतुष्पद पति के, पर्याप्तक, गर्भज, पर्यापतक के औदारिकशरीर की स्थलचर चतुष्पद सम्मुच्छिम प. ति. के, पर्याप्त के औदारिकशरीर की स्थलचर उरः परिसर्प प. ति. के औधिक, गर्भज, पर्याप्तक के औदारिकशरीर की भुजपरिसर्प पति के औधिक, गर्भज, सम्मूच्छिम के औदारिकशरीर की १२. खेचर प. ति. के औधिक, गर्भज, सम्मूच्छिम के औदारिकशरीर की १३. मनुष्यों के औधिक, पर्याप्तक के औ. श. की मनुष्यों के अपर्याप्तकों व सम्माच्छिहमों के औदारिकशरीर की मनुष्यों के गर्भजों तथा पर्याप्तकों के " 1.1 "" 11 अंगुल का 11 छह ि छह गव्यूति अपर्याप्तक की पूर्ववत् गव्यूतिपृथक्त्व, अपर्याप्तक की 11 गव्यूति पृथक्त्व योजनपृथक्त्व धनुष्य पृथक्त्व "" तीन गव्यूति 19 " "" 11 "" 1:3 11 "1 19 11 11 11 99 [ ४७५ 11 71 अंगुल का असंख्यातवाँ भाग Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ ] औदारिकशरीर की असंख्यातवाँ भाग तीन गव्यूति' समुच्चय औदारिकशरीर की उत्कृष्ट अवगाहना - कुछ अधिक एक हजार योजन की कही गई है, वह समुद्र गोतीर्थ आदि में पद्मनाल आदि की अपेक्षा से समझना चाहिए । यहाँ के सिवाय अन्यत्र इतनी अवगाहना वाला औदारिकशरीर सम्भव नहीं है । [ प्रज्ञापनासूत्र नौ-नौ सूत्रो का समूह - पृथ्वीकायिकदि एकेन्द्रियों के प्रत्येक के नौ-नौ सूत्र इस प्रकार है(१-३) औघिकसूत्र, औधिक अपर्यापतसूत्र, औधिक पर्याप्तसूत्र; (४-६) सूक्ष्मसूत्र, सूक्ष्म- अपर्याप्तकसूत्र और सूक्ष्म-पर्याप्तकसूत्र ; तथा (७-९) बादरसूत्र, बादर - अपर्यापतकसूत्र और बादर - पर्याप्तकसूत्र ; ये तीनों के त्रिक मिला कर पृथ्वीकायिक से वनस्पतिकायिकों तक के ९ - ९ सूत्र हुए । इसी तरह द्वि-त्रि- चतुरिन्द्रियों के औषिकसूत्र, पर्याप्तसूत्र और अपर्यापतसूत्र ; यों तीन-तीन सूत्र होते हैं । जलचरों के औधिक, उसके पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये तीन सूत्र, गर्भज, उसके पर्याप्तक और पर्याप्तक ये तीन सूत्र, इस प्रकार तीनों त्रिक मिला कर जलचरों के ९ सूत्र होते हैं । इसी प्रकार स्थलचर चतुष्पद, उरः परिसर्प, भुजपरिसर्प, खेचरपंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के प्रत्येक के औधिकत्रिक, गर्भजत्रिक एवं सम्मूच्छिमत्रिक के हिसाब से ९ - ९ सूत्र होते. है । मनूष्यों के औदारिकशरीर की उत्कृष्ट अवगाहना - तीन गव्यूति ( ६ कोस) की कही गई हैं, वह देवकुरू आदि के मनुष्यों की अपेक्षा से इतनी उत्कृष्ट अवगाहना समझनी चाहिए । वैक्रियशरीर में विधिद्वार १५१४. वेडव्वियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोमा ! दुविहे पण्णत्ते । तं जहा- एगिंदियवेडव्वियसरीरें य पंचेंदियवेडव्वियसरीरे य । [१५१४ प्र.] भगवन् ! वैक्रियशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? (उ.) गौतम ! ( वह) दो प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार - एकेन्द्रिय-वैक्रियशरीर और पंचेन्द्रिय- वैक्रियशरीर । १५१५. [ १ ] जदि एगिंदियवेडव्वियसरीरे किं वाउक्काइयएगिंदियवेडव्वियसरीरे अवाउक्का १. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ - टिप्पण) भाग-१, पृ. ३३३ से ३३५ तक २. प्रज्ञापना., मलयवृत्ति, पत्र ४१३ ३. प्रज्ञापतना., मलयवृत्ति, पत्र ४१३- ४१४ वही, मलयवृत्ति, पत्र ४१४ ४. Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना - संस्थान - पद ] इयएगिंदियवेडव्वियसरीरे ? गोयमा ! वाउक्वाइयएगिंदियवेडव्वियसरीरे, णो अवाउक्वाइयएगिंदियवेडव्वियसरीरे । [१५१५-१] (भगवन् !) यदि एकेन्द्रिय जीवों के वैक्रियशरीर होता है, तो क्या वायुकायिकएकेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता या अवायुकायिक- एकेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है ? [ ४७७ [उ.] गौतम ! वायुकायिक- एकेन्द्रियों के वैक्रियशरीरं होता है, अवायुकायिक- एकेन्द्रिय के वैक्रियशरीर नहीं होता है । [ २ ] जदि वाउक्वाइयएगिंदियवेडव्वियसरीरे किं सुहुमवाउक्वाइयएगिंदियवेडव्वियसरीरे बादरवाउक्काइयएगिंदियवेउव्वियसरीरे ? गोयमा ! णो सुहुमवाउक्काइयएगिंदियवेडव्वियसरीरे, बायरवाउक्काइयएगिंदियवेडव्वियसरीरे । [१५१५-२](भगवन् !) यदि वायुकायिक- एकेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, तो क्या सूक्ष्मवायुकायिक- एकेन्द्रिय के होता है, अथवा बादर - वायुकायिक- एकेन्द्रिय के होता है ? [उ.] गौतम ! सूक्ष्म-वायुकायिक- एकेन्द्रिय के वैक्रियशरीर नहीं होता; (किन्तु) बादर - वायुकायिकएकेन्द्रिय के वैक्रियशरीर होता है । [ ३ ] जदि बादरवाउक्काइयएगिंदियवेडव्वियसरीरे किं पज्जत्तबायरवाउक्काइयएगिंदयवेउव्वियसरीरे अपज्जत्तबायरवाउक्काइयएगिंदियवेडव्वियसरीरे ? गोयमा ! पज्जत्तबायर वाउ क्वाइयएगिंदियवे उव्वियसरीरे णं अपज्जत्तबादरवाउक्काइयएगिंदयवेउव्वियसरीरे । [१५१५-३](भगवन् !) यदि बादर - वायुकायिक- एकेन्द्रिय के वैक्रियशरीर होता है तो क्या पर्याप्तबादर-वायुकायिक-एकेन्द्रिय के वैक्रियशरीर होता है, अथवा अपर्याप्त - बादर - वायुकायिक- एकेन्द्रिय के होता है ? [उ.] गौतम ! पर्याप्त- बादर - वायुकायिक- एकेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, अपर्याप्तबादर-वायुकायिकएकेन्द्रियों के वैक्रियशरीर नहीं होता है । १५१६. जदि पंचेंदियवेडव्वियसरीरे किं णेरइयपंचेंदियवेडव्वियसरीरे जाव किं देवपंचेंदियवेडव्वियसरीरे ? गोयमा ! णेरइयपंचेंदियवेडव्वियसरीरे वि जाव देवपंचेंदियवेडव्वियसरीरे वि । [१५१६-१ प्र.] (भगवन्!) यदि पंचेन्दियों के वैक्रियशरीर होता है तो क्या नारकपंचेन्द्रिय के Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र ४७८ ] वैक्रियशरीर होता है, अथवा यावत् देव-पंचेन्द्रिय के वैक्रियशरीर होता है ? [उ.] गौतम ! नारक-पंचेन्द्रियों के भी वैक्रियशरीर होता है यावत् देव - पंचेन्द्रियों के भी वैक्रियशरीर होता है । १५१७. [ १ ] जदि णेरइयपंचेंदियवेउव्वियसरीरे किं रयणप्पभापुढविणेरइयपंचेंदियवेउव्वियसरीरे जाव किं अहेसत्तमापुढविणेरइयपंचेंदियवेडब्जियसरीरे ? गोयमा ! रयणप्पभापुढविणेरइयपंचेंदियवेडव्वियसरीरे वि जाव किं अहेसत्तमापुढविणेरइयपंचेंदियवेडव्वियसरीरे वि । [१५१७-१ प्र.](भगवन् !) यदि नारक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है तो क्या रत्नप्रभा - पृथ्वी के नारक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है अथवा यावत् अधः सप्तमपृथ्वी के नारक - पंचेन्द्रियों के वैक्रिायशरीर होता है ? [उ.] गौतम ! रत्नप्रभापृथ्वी के नारक-पंचेन्द्रियों के भी वैक्रियशरीर होता है और यावत् अधः सप्तमपृथ्वी के नैरयिक-पंचेन्द्रियों के भी वैक्रियशरीर होता है । [ २ ] जदि रयणप्पभापुढविणेरइयपंचें दियवेड व्वियसरीरे किं पज्जत्तगरयणप्पभापुढविणेरइयपंचेंदियवेडव्वियसरीरे अपज्जत्तगरयणप्पभापुढविणेरइयपंचेंदियवेडव्वियसरीरे ? गोयमा ! पज्जत्तगरयणप्पभापुढविणेरइयपंचेंदियवेडव्वियसरीरे वि अपज्जत्तगरयणप्पभापुढविणेरइयपंचेंदियवेडव्वियसरीरे वि । [१५१७-२ प्र.](भगवन् !) यदि रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है तो क्या रत्नप्रभा पृथ्वी के पर्याप्तक नैरयिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है अथवा रत्नप्रभापृथ्वी के अपर्याप्तक नैरयिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है ? [उ.] गौतम ! रत्नप्रभापृथ्वी के पर्याप्तक नैरयिक-पंचेन्द्रियों के भी वैक्रियशरीर होता है और रत्नप्रभा पृथ्वी अपर्याप्त नैरयिक-पंचेन्द्रियों के भी वैक्रियशरीर होता है । [ ३ ] एवं जाव अहेसत्तमाए दुगतो भेदो भाणियव्वो । [ १५१७-३] इसी प्रकार शर्कराप्रभापृथ्वी के नैरयिक-पंचेन्द्रियों से लेकर अधः सप्तमपृथ्वी के नैरयिकपंचेन्द्रियों के पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों भेदों में वैक्रियशरीर होने का कथन करना चाहिए? १५१८. [ १ ] जदि तिरिक्खजोणियपंचेंदियवेडव्वियसरीरे किं सम्मुच्छिमतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेडव्वियसरीरे गब्भवक्कंतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेडव्वियसरीरे ? गोमा ! णो सम्मुच्छिमतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेडव्वियसरीरे, गब्भवक्कंतियतिरिक्ख Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान - पद ] जोणियपंचेंदियवेडव्वियसरीरे । [१५१८-१ प्र.](भगवन् !) यदि तिर्यञ्चयोनिक - पञ्चेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है तो क्या सम्मूच्छिमतिर्यञ्चयोनिक- पञ्चेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है अथवा गर्भज - तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है ? [ ४७९ [उ.] गौतम ! सम्मूच्छिम तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर नहीं होता, (किन्तु) गर्भजतिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है । [२] जदि गब्भवक्वतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेडव्वियसरीरे किं संखेज्जवासाउयगब्भवक्कंतियतिरिक्खजोणियपंचें दियवेड व्वियसरीरे असंखेज्जवासाउयगब्भवक्कंतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेडव्वियसरीरे ? गोयमा ! संखेज्जवासाउयगब्भवक्कंतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउव्वियसरीरे, णो असंखेज्जवासाउयगब्भवक्कंतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउव्वियसरीरे । .[१५१८-२ प्र.](भगवन् !) यदि गर्भज - तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है तो क्या संख्यात वर्ष की आयु वाले गर्भज - तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है अथवा असंख्यात वर्ष की आयु वाले गर्भज-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है ? [उ.] गौतम ! संख्यात वर्ष की आयु वाले गर्भज - तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, (किन्तु ) अंसख्यात वर्ष की आयु वाले गर्भज - तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर नहीं होता है । [३] जदि संखेज्जवासाउयगब्भवक्कंतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेडव्वियसरीरे किं पज्जत्तगसंखेज्जवासाउयगब्भवक्कं तियतिरिक्खजोणियपंचें दियवेड व्वियसरीरे अपज्जत्तग संखेज्जवासाउयगब्भवक्कंतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेडव्वियसरीरे ? गोयमा ! पज्जत्तगसंखेज्जवासाउयगब्भवक्कंतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेडव्वियसरीरे, णो अपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयगब्भवक्कंतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेडव्वियसरीरे । [१५१८-३ प्र.](भगवन् !) यदि संख्यात वर्ष की आयु वाले गर्भज - तिर्यञ्चयोनिकपंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, तो क्या पर्याप्तक- संख्यातवर्षायुष्क- गर्भज- तिर्यञ्च-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है अथवा अपर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-गर्भज- पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है ? . [उ.] गौतम ! पर्याप्तक- संख्यातवर्षायुष्क- गर्भज - तिर्यञ्च - पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, किन्तु अपर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क- गर्भज - तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रियों के वैक्रियशरीर नहीं होता है । [४] जदि संखेज्जवासाउयगब्भवक्कंतियतिरिक्खजोणियपंचें दियवेडव्वियसरीरे किं Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० ] [ प्रज्ञापनासूत्र जलयरसंखेजवासाउयगब्भवक्कंतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउव्वियसरीरे थलयरसंखेजवासाउयगब्भवक्कंतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउव्वियसरीरे खहयरसंखेजवासाउयगब्भवक्कंतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउब्वियसरीरे ? गोयमा ! जलयरसंखेजवासाउयगब्भवक्कंतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउव्वियसरीरे वि, थलयरसंखेजवासाउयगब्भवक्कंतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउव्वियसरीरे वि, खहयरसंखेजवासाउयगब्भवक्कंतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउव्वियसरीरे वि। . [१५१८-४ प्र.](भगवन् !) यदि संख्यातवर्षायुष्क-गर्भज-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है तो क्या जलचर-संख्यातवर्षायुष्क-गर्भज-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है,स्थलचरसंख्यातवर्षायुष्क-गर्भज-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है अथवा खेचर-गर्भज-तिर्यञ्चयोनिकपंचेन्द्रियों के भी वैक्रियशरीर होता है ? [उ.] गौतम ! जलचर-संख्यातवर्षायुष्क-गर्भज-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, स्थलचर-संख्यातवर्षायुष्क-गर्भज-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है तथा खेचरसंख्यातवर्षायुष्क-गर्भज-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है । [५] जदि जलयरसंखेजवासाउयगब्भवक्कंतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउव्वियसरीरे किं पजत्तगजलयरसंखेजवासाउयगब्भवक्त्रंतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउव्वियसरीरे अपजत्तगजलयरसंखेजवासाउयगब्भवक्कंतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउब्वियसरीरे ? ... गोयमा ! पजत्तगजलयरसंखेजवासाउयगब्भवतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउब्वियसरीरे णो अपजत्तगजलयरसंखेजवासाउयगब्भवक्कंतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउव्वियसरीरे । __ [१५१८-५ प्र.](भगवन् !) यदि जलचर-संख्यातवर्षायुष्क-गर्भज-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है तो क्या पर्याप्तक-जलचर-संख्यातवर्षायुष्क-गर्भज-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, अथवा अपर्याप्तक-जलचर-संख्यातवर्षायुष्क-गर्भज-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है? [उ.] गौतम ! पर्याप्तक-जलचर-संख्यातवर्षायुष्क-गर्भज-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, (किन्तु) अपर्याप्तक-जलचर-संख्यातवर्षायुष्क-गर्भज-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर नहीं होता है। [६] जदि थलयरसंखेजवासाउयगब्भवक्कंतियतिरिक्खजोणियपंचेंदिय जाव सरीरे किं चउप्पय जाव सरीरे परिसप्प जाव सरीरे ? गोयमा ! चउप्पय जाव सरीरे वि परिसप्प जाव सरीरे वि । Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] [ ४८१ [१५१८-६ प्र.](भगवन् !) यदि स्थलचर-संख्यातवर्षायुष्क-गर्भज-तिर्यञ्चयोनिक पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है ? तो क्या पर्याप्तक-स्थलचर या अपर्याप्तक-स्थलचर.....तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों के होता है ? अथवा चतुष्पद-स्थलचर....तिर्यञ्च-पंचेन्द्रियों के होता है या फिर उर:-परिसर्प-पर्याप्तक अथवा भुजपरिसर्पपर्याप्तक-स्थलचर..........यावत् तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के भी वैक्रियशरीर होता है ? __[उ.] गौतम ! (पर्याप्तक) चतुष्पद-(स्थलचर.....तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों) के भी (वैक्रिय) शरीर (होता है,) यावत् परिसर्प (उरः परिसर्प एवं भुजपरिसर्प.....तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों) के भी (वैक्रिय) शरीर (होता है ।) [७] एवं सव्वेसिंणेयं जाव खहयराणं, णो अपज्जत्ताणं । [१५१८-७ प्र.] इसी प्रकार खेचर-संख्यातवर्षायुष्क-गर्भज-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के भी वैक्रियशरीर जान लेना चाहिए, (विशेष यह है कि) खेचर-पर्याप्तकों के वैक्रियशरीर होता है, अपर्याप्तकों के नहीं होता है । १५७९. [१] जदि मणूसपंचेंदियवेउव्वियसरीरे किं सम्मूच्छिममणूसपंचेंदियवेउव्वियसरीरे गब्भवक्कंतियमणूसपंचेंदियवेउव्वियसरीरे ? गोयमा ! णो सम्मूच्छिममणूसपंचेंदियवेउव्वियसरीरे, गब्भवक्वंतियमणूस-पंचेंदियवेउव्वियसरीरे । [१५१९-१ प्र.](भगवन् !) यदि मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है तो क्या सम्मूछिममनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, अथवा गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है ? । [उ.] गौतम ! सम्मूछिम-मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर नहीं होता, (किन्तु) गर्भज-मनुष्यपंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है । [२] जदि गब्भवक्कं तियमणूसपंचेंदियवेउव्वियसरीरे किं कम्मभूमगगब्भवक्वंतियमणूसपंचेंदियवेउव्वियसरीरे अकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूसपंचेंदियवेउव्वियसरीरे अंतरदीवयगब्भवक्वंतियमणूसपंचेंदियवेउव्वियसरीरे ? ___गोयमा ! कम्मभूमगगब्भवक्त्रंतियमणूसपंचेंदियवेउव्वियसरीरे, णो अकम्मभूमगगब्भवक्वंतियमणूसपंचेंदियवेउब्वियसरीरे नो अंतरदीवयगब्भववंतियमणूसपंचेंदियवेउब्वियसरीरे य। __ [१५१९-२ प्र.](भगवन् !) यदि गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है तो क्या कर्मभूमिकगर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, अकर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, अथवा अन्तरद्वीप-गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है ? Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ ] [प्रज्ञापनासूत्र [उ.] गौतम ! कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, (किन्तु) न तो अकर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है और न ही अन्तरद्वीपज-गर्भज-मनुष्यपंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है । [३] जदि कम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूसपंचेंदियवेउव्वियसरीरे किं संखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्वंतियमणूसपंचेंदियवेउव्वियसरीरे असंखेजवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूसपंचेंदियवेउव्वियसरीरे ? . गोयमा ! संखेजवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्त्रंतियमणूसपंचेंदियवेउब्वियसरीरे, णो असंखेजवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूसपंचेंदियवेउव्वियसरीरे । [१५१९-३ प्र.](भगवन् !) यदि कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है तो क्या संख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, अथवा असंख्येयवर्षायुष्ककर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है ? [उ.] गौतम ! संख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, किन्तु असंख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर नहीं होता है । [४] जदि संखेजवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्वंतियमणूसपंचेंदियवेउव्वियसरीरे किं पजत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूसपंचेंदियवेउव्वियसरीरे अपजत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूसपंचेंदियवेउब्वियसरीरे ? गोयमा ! पजत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूसपंचेंदियवेउव्वियसरीरे, णो अपजत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूसपंचेंदियवेउब्वियसरीरे । [१५१९-४ प्र.](भगवन् !) यदि संख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है तो क्या पर्याप्तक-संख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, (अथवा) अपर्याप्तक-संख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है ? [उ.] गौतम ! पर्याप्तक-संख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है (किन्तु) अपर्याप्तक-संख्येयवर्षायुष्क- कर्मभूमिक- गर्भज- मनुष्य- पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर नहीं होता है । १५२०. [१] जदि देवपंचेंदियवेउव्वियसरीरे किं भवणवासिदेवपंचेंदियवेउब्वियसरीरे जाव वेमाणियदेवपंचेंदियवेउव्वियसरीरे ? गौयमा ! भवणवासिदेवपंदियवेउव्वियसरीरे विजाव वेमाणियदेवपंचेंदियवेउब्वियसरीरे वि। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] [ ४८३ [१५२०-१ प्र.](भगवन् !) यदि देव-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, तो क्या भवनवासी-देवपंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, (अथवा) यावत् वैमानिक-देव-पंचेन्द्रियों के (भी) वैक्रियशरीर होता [उ.] गौतम ! भवनवासी-देव-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है और यावत् वैमानिक-देव-पंचेन्द्रियों के भी वैक्रियशरीर होता है । [२] जदि भवणवासिदेवपंचेंदियवेउव्वियसरीरे किं असुरकुमारभवणवासि-देवपंचेंदियवेउव्वियसरीरे जाव थणियकुमारभवणवासिदेवपंचेंदियवेउव्वियसरीरे ? गोयमा ! असुरकुमार ० जाव थणियकुमारभवणवासिदेवपंचेंदियवेउव्वियसरीरे वि । __ [१५२०-२ प्र.](भगवन् !) यदि भवनवासी-देव-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है तो क्या असुरकुमारभवनवासी-देव-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, (अथवा) यावत् स्तनितकुमार-भवनवासी-देव-पंचेन्द्रियों के (भी) वैक्रियशरीर होता है ? [उ.] गौतम ! असुरकुमार-भवनवासी-देव-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है (और) यावत् स्तनितकुमार-भवनवासी-देव-पंचेन्द्रियों के भी वैक्रियशरीर होता है । [३] जदि असुरकुमारभवणवासिदेवपंचेंदियवेउव्वियसरीरे किं पजत्तगअसुरकुमारभवणवासिदेवपंचेंदियवेउब्वियसरीरे अपज्जत्तगअसुरकुमारभवणवासिदेवपंचेंदियवेउव्वियसरीरे? गोयमा ! पज्जत्तगअसुरकुमारभवणवासिदेवपंचेंदियवेउब्वियसरीरे वि पजत्तगअसुरकुमारभवणवासिदेवपंचेंदियवेउव्वियसरीरे वि । एवं जाव थणियकुमारे वि णं दुगओ भेदो । [१५२०-३ प्र.](भगवन् !) यदि असुरकुमार-भवनवासी-देव-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, तो क्या पर्याप्तक-असुरकुमार-भवनवासी-देव-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, (अथवा) अपर्याप्तकअसुरकुमार-भवनवासी-देव-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है ? [उ.] गौतम ! पर्याप्तक-असुरकुमार-भवनवासी-देव-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है और अपर्याप्तकअसुरकुमार-भवनवासी-देव-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है । इसी प्रकार स्तनितकुमार-(भवनवासी-देव-पंचेन्द्रियों) के दोनों (पर्याप्तक-अपर्याप्तक) भेदो के (वैक्रियशरीर जानना चाहिए ।) [४] एवं वाणमंतराणं अट्ठविहाणं, जोइसियाणं पंचविहाणं । [१५२०-४] इसी तरह आठ प्रकार के वाणव्यन्तर-देवों के (तथा) पांच प्रकार के ज्योतिष्क-देवों के (वैक्रियशरीर होता है ।) Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ ] [प्रज्ञापनासूत्र [५] वेमाणिया दुविहा-कप्पोवगा कप्पातीता य । कप्पोवगा बारसविहा, तेसिं एि एवं चेव दुगतो भेदो । कप्पातीता दुविहा-गेवेजगा य अणुत्तरा य । गेवेजगा णवविहा, अणुत्तरोववाइया पंचविहा, एतेसिं पजत्तापजत्ताभिलावेणं दुगतो भेदो । _[१५२०-५] वैमानिक-देव दो प्रकार के होते हैं-कल्पोपपन्न और कल्पातीत । कल्पोपपन्न बारह प्रकार के हैं । उनके भी (पर्याप्तक और अपर्याप्तक, यों) दो-दो भेद होते हैं । उन सभी के वैक्रियशरीर होता है ।) कल्पातीत वैमानिक देव दो प्रकार के होते हैं-ग्रैवेयकवासी और अनुत्तरोपपातिक । ग्रैवेयक देव नौ प्रकार के होते हैं, और अनुत्तरौपपातिक पांच प्रकार के । इन सबके पर्याप्तक और अपर्याप्तक से दो-दो भेद (कहने चाहिए) । इन सबके वैक्रियशरीर होता है ।) विवेचन - वैक्रियशरीर के भेद-प्रभेद - प्रस्तुत सात सूत्रों (१५१४ से १५२० तक) में वैक्रियशरीर के विधिद्वार के सन्दर्भ में उसके एकेन्द्रियगत और पंचेन्द्रियगत भेद-प्रभेदों का निरूपण किया गया है। फलितार्थ - वैक्रियशरीर के सभी भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा का फलितार्थ यह कि एकेन्द्रियों में केवल पर्याप्तक-बादर-वायुकायिक जीवों के वैक्रियशरीर होता है । पंचेन्द्रियों में - पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में - संख्यातवर्षायुष्क-गर्भज-पर्याप्तकों के वैक्रियशरीर होता है ; जबकि मनुष्यों में-पंचेन्द्रिय-गर्भज-कर्मभूमिक-संख्यातवर्षायुष्क-पर्याप्तक-मनुष्यों के वैक्रियशरीर होता है । देवों में सभी प्रकार के पर्याप्तक-अपर्याप्तक-भवनपतियों, वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों के वैक्रियशरीर होता है । नारकों में-सातों ही नरकपृथ्वियों के पर्याप्तक-अपर्याप्तक नारकों के वैक्रियशरीर होता __ निष्कर्ष यह है, वायुकायिकों में, पर्याप्तक-अपर्याप्तक-सूक्ष्म और अपर्याप्तक-बादर-वायुकायिकों में वैक्रियलब्धि नहीं होती । पंचेन्द्रियों में जलचर-स्थलचर-चतुष्पद, उर:परिसर्प, भुजपरिसर्प और खेचर तिर्यञ्च-पंचेन्द्रियों को तथा मनुष्यों में गर्भज, पर्याप्तक, संख्येयवर्षायुष्क-मनुष्यों को छोड़ कर शेष मनुष्यों में वैक्रियलब्धि सम्भव नहीं हैं । वाणमंतराणं अट्ठविहाणं-वाणव्यन्तरदेव ८ प्रकार के हैं-(१)यक्ष, (२)राक्षस, (३)किन्नर, (४) किम्पुरुष, (५) भूत, (६)पिशाच, (७)गन्धर्व और (८)महारोग । जोइसियाणं पंचविहाणं-ज्योतिष्कदेरव ५ प्रकार के हैं- (१)चन्द्र, (२)सूर्य, (३)ग्रह, (४)नक्षत्र और (५)तारा । १.. पण्णवणासुत्तं (प्रस्तावनादि) भाग-२, पृ. ११८ २. प्रज्ञापना., मलयवृत्ति, पत्र ४१६ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४८५ इक्कीसवाँ अवगाहना - संस्थान- पद ] वेज्जगा णवविहा- ग्रैवेयकदेव नौ प्रकार के हैं - ( -१ से ३ उपरितनत्रिक के ४ से ६ मध्यमत्रिक के और ७ से ९ अधस्तनत्रिक के 1) अणुत्तरोववाइया पंचविहा- अनुत्तरौपपातिक देव ५ प्रकार के हैं - (१) विजय, (२) वैजयन्त, (३) जयन्त, (४) अपराजित और (५) सर्वार्थसिद्ध विमानवासी । कप्पोवगा बारसविहा- कल्पोपपन्न वैमानिक देव बारह प्रकार के है - सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, और अच्युत देवलोकों के वैक्रियशरीर में संस्थान द्वार १५२१. वेडव्वियसरीरे णं भंते ! किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! णाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते । [१५२१ प्र.] भगवन् ! वैक्रियशरीर किस संस्थान वाला कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) नाना संस्थान वाला कहा गया है । १५२२. वाउक्काइयएगिंदियवेडव्वियसरीरे णं भंते! किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! पडागासंठाणसंठिए पण्णत्ते । [१५२२ प्र.] भगवन् ! वायुकायिक- एकेन्द्रियों का वैक्रियशरीर किस प्रकार के संस्थान वाला कहा गया है ? [उ.] गौतम (वह) पताका के आकार का कहा गया है । १५२३. [ १ ] णेरइयपेंचेंदियवेडव्वियसरीरे णं भंते ! किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! णेरइयपंचेंदियवेडव्वियसरीरे दुविहे पण्णत्ते । तं जहा भवधारणिज्जे य उत्तरवेडव्विए य । तत्य णं जे से भवधारणिज्जे से हुंडसंठाणसंठिए पण्णत्ते । तत्थ णं जे से उत्तरवेउव्विए से वि हुंडसंठाणसंठिए पण्णत्ते । १. [१५२३-१ प्र.] भगवन् ! नैरयिक-पंचेन्द्रियों का वैक्रियशरीर किस संस्थान का कहा गया है ? [उ.] गौतत ! नैरयिक-पंचेन्द्रिय-वैक्रियशरीर दो प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार - भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । उनमें से जो भवधारणीय- वैक्रियशरीर है, उसका संस्थान हुंडक है तथा जो उत्तरवैक्रियशरीर (क) प्रज्ञापना - प्रमेयबोधिनीटीका, भा. ४, पृ. ३८९ - ३९० (ख) तत्त्वार्थसूत्र अ. ४, सू. ११, १२, १३, २० Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ ] [प्रज्ञापनासूत्र है, वह भी हुंडकसंस्थान वाला होता है । [२] रयणप्पभापुढविणेरड्यपंचेंदियवेउव्वियसरीरे णं भंते ! किंसंठाणसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! रयणप्पभापुढविणेरइयाणं दुविहे सरीरे पण्णत्ते । तं जहा-भवधारणिजे य उत्तरवेउव्विए य । तत्थ णं जे से भवधारणिजे से वि हुंडे, जे वि उत्तरवेउव्विए से वि हुंडे । एवं जाव अहेसत्तमापुढविणेरइयवेउव्वियसरीरे । [१५२३-२ प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नारक-पंचेन्द्रियों का वैक्रियशरीर किस संस्थान का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक-पंचेन्द्रियों का (वैक्रिय) शरीर दो प्रकार का कहा गया हैभवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । उनमें से जो भवधारणीय-वैक्रियशरीर है, वह हुंडकसंस्थान वाला है और उत्तरवैक्रिय भी हुंडक-संस्थान वाला होता है । इसी प्रकार (शर्कराप्रभापृथ्वी से लेकर) अधःसप्तमपृथ्वी के नारकों (तक के ये दोनों प्रकार के वैक्रियशरीर हुंडकसंस्थान वाले होते हैं ।) १५२४.[१] तिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउब्वियसरीरे णं भंते ! किंसंठाणसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! णाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते । [१५२४-१ प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों का वैक्रियशरीर किस संस्थान का कहा गया है? [उ.] गौतम ! (वह) अनेक संस्थानों वाला कहा गया है । [२] एवं जलयर-थलयर-खहयराण वि । थलयराण चउप्पय-परिसप्पाण वि । परिसप्पाण उरपरिसप्प-भुयपरिसप्पाण वि । ___ [१५२४-२] इसी प्रकार (समुच्चय तिर्यञ्च-पंचेन्द्रियों की तरह,) जलचर, थलचर और खेचरों(के वैक्रियशरीरों) का संस्थान भी (नाना प्रकार का कहा गया है।) तथा स्थलचरों में चतुष्पद और परिसों का और परिसों में उर:परिसर्प और भुजपरिसॉ के (वैक्रियशरीर) का (संस्थान भी नाना प्रकार का समझना चाहिए ।) १५२५. एवं मणूसपंचेंदियवेउव्विसरीरे वि । [१५२५] इसी (तिर्यञ्च-पंचेन्द्रियों की) तरह मनुष्य-पंचेन्द्रियों का (वैक्रियशरीर) भी (नाना संस्थानों वाला कहा गया है ।) १५२६.[१] असुरकुमारभवणवासिदेवपंचेंदियवेउब्वियसरीरे णं भंते ! किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! असुरकुमाराणं देवाणं दुविहे सरीरे पण्णत्ते । तं जहा-भवधारणिजे य उत्तरवेउव्विए Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान पद ] [ ४८७ य । तत्थ णं जे से भवधारणिज्जे से णं समचउरंससंठाणसंठिए पण्णत्ते । तत्थ णं जे से उत्तरवेउव्विए से णं णाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते । [१५२६-१ प्र.] भगवन् ! असुरकुमार - भवनवासी- देव-पंचेन्द्रियों का वैक्रियशरीर किस संस्थान का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! असुरकुमार देवों का (वैक्रिय) शरीर दो प्रकार का कहा गया है- भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । उनमें से जो भवधारणीयशरीर है, वह समचतुरस्त्र संस्थान वाला होता है, तथा जो उत्तरवैक्रियशरीर है, वह अनेक प्रकार के संस्थान वाला होता है । [ २ ] एवं जाव थणियकुमारदेवपंचेंदियवेडव्वियसरीरे । [१५२६-२] इसी प्रकार (असुरकुमार देवों की भांति) नागकुमार से लेकर स्तनितकुमार पर्यन्त के भी वैक्रियशरीरों का संस्थान समझ लेना चाहिए । [ ३ ] एवं वाणमंतराण वि । णवरं ओहिया वाणमंतरा पुच्छिज्जंति । [१५२६-३] इसी प्रकार वाणवयन्तरदेवों के वैक्रियशरीर का संस्थान भी असुरकुमारादि की भांति भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय की अपेक्षा से क्रमशः समचतुरस्र तथा नाना संस्थान वाला कहना चाहिए । विशेषता यह है कि यहाँ प्रश्न ( इनके भेद - प्रभेदों के विषय में न कर) औघिक - (समुच्चय) वाणव्यन्तरदेवों (के वैक्रियशरीर के संस्थान के सम्बन्ध में करना चाहिए ।) [ ४ ] एवं जोइसियाण वि ओहियाणं । [१५२६-४] इसी प्रकार ( वाणव्यन्तरों की तरह) औघिक (समुच्चय) ज्योतिष्कदेवों के वैक्रियशरीर (भवधारणीय और उत्तरवैद्रिय) के संस्थान के सम्बन्ध में समझना चाहिए । [ ५ ] एवं सोहम्म जाव अच्चुयदेवसरीरे । [१५२६-५] इसी प्रकार सौधर्म से लेकर अच्युत कल्प के ( कल्पोपपन्न वैमानिकों के भवधारणीय और उत्तर वैक्रियशरीर के संस्थानों का कथन करना चाहिए ।) [ ६ ] गेवेज्जगकप्पातीयवेमाणियदेवपंचेंदियवेउव्वियसरीरे णं भंतें ! किसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! गेवेज्जगदेवाणं एगे भवधारणिजे सरीरए, से णं समचउरंससंठाणसंठिए पण्णत्ते । [१५२६-६ प्र.] भगवन् ! ग्रैवेयककल्पातीत वैमानिकदेव-पंचेन्द्रियों का वैक्रियशरीर किस संस्थान का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! ग्रैवेयकदेवों के एकमात्र भवधारणीय- (वैक्रिय) शरीर ही होता है और वह Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ ] समचतुरस्त्रसंस्थान वाला होता है । [ ७ ] एवं अणुत्तरोववातियाणवि । [१५२६-७] इसी प्रकार पांच अनुत्तरौपपातिक - वैमानिकदेवों के भी ( भवधारणीय वैक्रियशरीर ही होता है और वह समचतुरस्रसंस्थान वाला होता है ।) विवेचन - वैक्रियशरीरों के संस्थान का निरूपण प्रस्तुत ६ सूत्रों (सू. १५२१ से १५२६ तक) में समस्त प्रकार के वैक्रियशरीरधारी जीवों को लक्ष्य में लेकर तदनुसार उनके संस्थानों का निरूपण किया गया है । [ प्रज्ञापनासूत्र - वैक्रियशरीर के प्रकार एवं तत्सम्बन्धी संस्थान- विचार - समुच्चय वैक्रियशरीर, वायुकायिक वैक्रियशरीर तथा समस्त तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रियों और मनुष्यों के वैक्रियशरीर के सिवाय समस्त नारकों और समस्त देवों के वैक्रियशरीर के संस्थान की चर्चा करते समय भवधारणीय और उत्तरवैक्रियशरीरों को लक्ष्य में लेकर उनके संस्थानों का विचार किया गया है । भवधारणीयवैक्रियशरीर वह है, जो जन्म से ही प्राप्त होता है और उत्तरवैक्रियशरीर स्वेच्छानुसार नाना आकृति का निर्मित किया जाता है । १. पण्णवणासुत्तं (परिशिष्ट - प्रस्तावनादि) भाग - २, पृ. ११८ २. वही. भा. २, पृ. ११८ (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४१६ ४१७ (ख) प्रज्ञापना, प्रमेयबोधिनीटीका भा. ४, पृ. ६९७, ७०३ नैरयिकों के अत्यन्त क्लिष्टकर्मोदयवश, भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय, दोनों शरीर हुण्डकसंस्थान वाले ही होते हैं । उनका भवधारणीयशरीर भवस्वभाव से ही ऐसे पक्षी के समान बीभत्स हुण्डकसंस्थान वाला होता है, जिसके सारे पंख तथा गर्दन आदि के रोम उखाड़ दिये गए हों । यद्यपि नारकों को नाना शुभआकृति बनाने के लिए उत्तरवैक्रियशरीर मिलता है, तथापि अत्यन्त अशुभत्तर नामकर्म के उदय से उसका भी. आकार हुण्डकसंस्थान जैसा होता है । अतएव वे शुभ आकार बनाने का विचार करते हैं, किन्तु अत्यन्त अशुभनामकर्मोदयवश हो जाता है - अत्यन्त अशुभतर । तिर्यञ्च - पंचेन्द्रियों और मनुष्यों को जन्म से वैक्रियशरीर नहीं मिलता, तपस्या आदि जनित लब्धि के प्रभाव से मिलता है । वह नानासंस्थानों वाला होता है । दस प्रकार के भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और कल्पोपपन्नवैमानिक देवों का भवधारणीयशरीर भवस्वभाव से तथाविध शुभनामकर्मोदयवश समचतुरस्त्रसंस्थान वाला होता है । इच्छानुसार प्रवृत्ति करने के कारण इनका उत्तरवैक्रियशरीर नाना संस्थान वाला होता है । उसका कोई एक नियत आकार नहीं होता । नौ ग्रैवेयक के देवों तथा पांच अनुतर विमानवासी देवों को उत्तरवैक्रियशरीर का कोई प्रयोजन न होने से वे उत्तरवैक्रियशरीर का निर्माण ही नहीं करते, क्योंकि उनमें परिचारणा या गमनागमन आदि नहीं होते । अतः उन कल्पातीत वैमानिक देवों में केवल भवधारणीयशरीर ही पाया जाता है और उसका संस्थान समचतुरस्र ही होता है । I ३. Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद | [४८९ वैक्रियशरीर में प्रमाणद्वार १५२७. वेउव्वियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोसेणं सातिरेगं जोयणसयसहस्सं । [१५२७ प्र.] भगवन् ! वैक्रियशरीर की अवगाहना कितनी है ? [उ.] गौतम ! (वह) जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्टत: कुछ अधिक (सातिरेक) एक लाख योजन की कही गई है । १५२८. वाउक्काइयएगिंदियवेउव्वियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णेण अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभागं । [१५२८ प्र.] भगवन् ! वायुकायिक-एकेन्द्रियों के वैक्रियशरीर की अवगाहना कितनी कही गई है ? [उ.] गौतम ! (वह) जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट भी अंगुल के असंख्यातवें भाग की (कही गई है।) १५२९.[१] णेरइयपंचेंदियवेउव्वियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता । तं जहा - भवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विया य । तत्थ णंजा सा भवधारणिजा सा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोसेणं पंचधणुसयाई। तत्थ णं जा सा उत्तरवेउव्विया सा जहण्णेणं अंगुलस्स संखेजइभागं, उक्कोसेणं धणुसहस्सं । [१५२९-१ प्र.] भगवन् ! नैरयिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर की अवगाहना कितनी कही गई है ? [उ.] गौतम ! (वह) दो प्रकार की कही गई है, यथा- भवधारणीया और उत्तरवैकिया अवगाहना । उनमें से जो उनकी भवधारणीया-अवगाहना है, वह जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग की है और उत्कृष्टतः पाँचसौ धनुष की है तथा उत्तरवैक्रिया-अवगाहना जघन्यतः अंगुल के संख्यातवें भाग की और उत्कृष्टत: एक हजार धनुष की है । [२] रयणप्पभापुढविणेरइयाणं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता । तं जहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विया य । तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोसेणं सत्त धणूई तिण्णि रयणीओ छच्च अंगुलाई । तत्थ णं जा सा उत्तरवेउव्विया सा जहण्णेणं अंगुलस्स संखेजइभागं, उक्कोसेणं पण्णरस धूणूई अड्डाइजाओ रयणीओ। [१५२९-२ प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नारकों की शरीरावगाहना कितनी कही गई है ? Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० ] [प्रज्ञापनासूत्र [उ.] गौतम ! (वह अवगाहना) दो प्रकार की कही गई है, यथा-भवधारणीया और उत्तरवैकिया अवगाहना । उनमें से भवधारणीया-शरीरावगाहना जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग है और उत्कृष्टतः सात धनुष, तीन रनि (मुंड हाथ) और छह अंगुल की है । उनकी उत्तरवैक्रिया-अवगाहना जघन्यतः अंगुल के संख्यातवें भाग और उत्कृष्टतः पन्द्रह धनुष, ढाई रनि (मुंड हाथ) की है । _ [३] सक्करप्पभाए पुच्छा । गोयमा ! जाव तत्थ णंजा सा भवधारणिजा सा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोसेणं पण्णरस धणूई अड्डाइजाओ रयणीओ । तत्थ णं जा सा उत्तरवेउव्विया सा जहण्णेणं अंगुलस्स संखेजइभागं, उक्कोसेणं एक्कतीसं धणूई एक्का य रयणी । [१५२९-३ प्र.] इसी प्रकार की पृच्छा शर्कराप्रभा के नारकों की शरीरावगाहना के विषय में करनी चाहिए । [उ.] गौतम ! यावत् (दो प्रकार की अवगाहना कही है, उनमें से) भवधारणीया (अवगाहना) जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्टतः पन्द्रह धनुष, ढाई रत्नि की है (तथा) उत्तरवैक्रिया (अवगाहना) जघन्यतः अंगुल के संख्यातवें भाग है, (और) उत्कृष्टः इकतीस धनुष एक रत्नि की है। [४] वालुयप्पभाए भवधारणिजा एक्कतीसं धणूई एक्का य रयणी, उत्तरवेउव्विया बावढि धणूई दोण्णि य रयणीओ। [१५२९-४ प्र.] बालुकाप्रभा (पृथ्वी के नारकों) की भवधारणीया (अवगाहना)इकतीस धनुष एक रनि की है (और) उत्तरवैक्रिया (अवगाहना) बासठ धनुष, दो हाथ की है । [५] पंकप्पभाए भवधारणिज्जा बावर्द्धि धणूई दोण्णि य रयणीओ, उत्तरवेउव्विया पणुवीसं धणुसयं । [१५२९-५] पंकप्रभा-(पृथ्वी के नारकों) की भवधारणीया (अवगाहना) बासठ धनुष दो हाथ की है (और) उत्तरवैक्रिया (अवगाहना) एक सौ पच्चीस धनुष की है। . [६] धूमप्पभाए भवधारणिज्जा पणुवीसं धणुसयं, उत्तरवेउव्विया अड्डाइजाइं धणुसयाई। __ [१५२९-६] धूम प्रभा-(पृथ्वी के नारकों) की भवधारणीया (अवगाहना) एक सौ पच्चीस धनुष की है (और) उत्तरवैक्रिया (अवगाहना) अढाई सौ धनुष की है । [७] तमाए भवधारणिज्जा अड्डाइजाइं धणुसयाई, उत्तरवेउब्विया पंच धणुसयाई। [१५२९-७] तमः (पृथ्वी के नारकों) की भवधारणीया (अवगाहना) अढाई सौ धनुष की है (और) उत्तरवैक्रिया (अवगाहना) पांच सौ धनुष की है । Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] [ ४९१ [८] अहेसत्तमाए भवधारणिज्जा पंच धणुसयाई, उत्तरवेउव्विया धणुसहस्सं । एयं उक्कोसेणं। [१५२९-८] अध:सप्तम (पृथ्वी के नारकों) की भवधारणीया (अवगाहना) पांच सौ धनुष की है (और) उत्तरवैक्रिया (अवगाहना) एक हजार धनुष की है । यह (समस्त नरकपृथ्वियों के नारकों के भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय शरीर की) उत्कृष्ट (अवगाहना कही गई) है । [९] जहण्णेणं भवधारणिजा अंगुलस्स असंखेजइभाग, उत्तरवेउब्विया अंगुलस्स संखेजइभागं [१५२९-९] (इन सबकी) जघन्यतः भवधारणीया (अवगाहना) अंगुल के असंख्यातवें भाग है (और) उत्तरवैक्रिया (अवगाहना) अंगुल के संख्यातवें भाग है । १५३०.तिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउव्वियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहण पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स संखेजइभाग, उक्कोसेणं जोयणसयपुहत्तं । [१५३० प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर की अवगाहना कितनी कही गई है? [उ.] गौतम ! जघन्यतः अंगुल के संख्यातवें भाग (और) उत्कृष्टतः शतयोजनपृथक्त्व की होती है । . १५३१. मणूसपंचेदियवेउब्वियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स संखेजइभागं, उक्कोसेणं सातिरेगं जोयणसयसहस्सं । [१५३१ प्र.] भगवन् ! मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर की अवगाहना कितनी है ? [उ.] गौतम ! (वह) जघन्यतः अंगुल के संख्यातवें भाग (और) उत्कृष्टतः कुछ अधिक एक लाख योजन की है। १५३२ [१] असुरकुमारभवणवासिदेवपंचेंदियवेउव्वियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? गोयमा ! असुरकुमाराणं देवाणं दुविहा सरीरोगाहण पण्णत्ता । तं जहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विया य । तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोसेणं सत्तरयणीओ । तत्थ णं जा सा उत्तरवेउव्विया सा जहण्णेणं अंगुलस्स संखेजइभागं, उक्कोसेणं जोयणसयसहस्सं । ___ [१५३२-१ प्र.] भगवन् ! असुरकुमार-भवनवासी देव-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर की अवगाहना कितनी कही है ? [उ.] गौतम ! असुरकुमार की दो प्रकार की शरीरावगाहना कही गई है, यथा-भवधारणीया और Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ ] [प्रज्ञापनासूत्र उत्तरवैक्रिया । उनमें से भवधारणीया-(शरीरावगाहना जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग (प्रमाण) है (और) उत्कृष्टतः सात हाथ की है । (उनकी) उत्तरवैक्रिया-अवगाहना जघन्यत: अंगुल के संख्यातवें भाग(प्रमाण) है (और) उत्कृष्टतः एक लाख योजन की है । [२] एवं जाव थणियकुमाराणं । - [१५३२-२] इसी प्रकार-(असुरकुमारों की शरीरावगाहना के समान)-(नागकुमार देवों से लेकर) स्तनितकुमार देवों (तक) की (भवधारणीया और उत्तरवैक्रिया शरीरावगाहना जघन्यतः और उत्कृष्टतः) समझ लेनी चाहिए। [३] एवं ओहियाणं वाणमंराणं । [१५३२-३] इसी प्रकार (पूर्ववत्) औधिक (समुच्चय) वाणव्यन्तरदेवों की (उभयरूपा जघन्य, उत्कृष्ट शरीरावगाहना समझ लेनी चाहिए ।) [४] एवं जोइसियाण वि। [१५३२-४] इसी तरह ज्योतिष्कदेवों की (उभयरूपा जघन्य, उत्कृष्ट शरीरावगाहना) भी (जान लेनी चाहिए ।) सोहम्मीसाणगदेवाणं एवं चेव उत्तरवेउव्विया जाव अच्चुओ कप्पो । णवरं सणंकुमारे भवधारणिज्जा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं उक्कोसेणं छ रयणीओ, एवं माहिंदे वि, बंभलोयलंतगेसु पंच रयणीओ, महासुक्क-सहस्सारेसु चत्तारि रयणीओ, आणय-पाणय-आरणअच्चुएसु तिण्णि रयणीओ। [१५३२-५] सौधर्म और ईशान कल्प के देवों का यावत् अच्युतकल्प के देवों तक की भवधारणीयाशरीरावगाहना भी इन्हीं के समान समझनी चाहिए, उत्तरवैक्रिया-शरीरावगाहना भी पूर्ववत् समझनी चाहिए । विशेषता यह है कि सनत्कुमारकल्प के देवों की भवधारणीया-शरीरावगाहना जधन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग-(प्रमाण) है और उत्कृष्ट छह हाथ की है, इतनी ही माहेन्द्रकल्प के देवों की शरीरावगाहना होती है । ब्रह्मलोक और लान्तक कल्प के देवों की शरीरावगाहना पांच हाथ की (तथा) महाशुक्र और सहस्रार कल्प के देवों की शरीरावगाहना चार हाथ की, (एवं) आनत, प्राणत, आरण और अच्युतकल्प के देवों की शरीरावगाहना तीन हाथ की होती है । [६]गेवेजगकप्पातोतवेमाणियदेवपंचेंदियवेउव्वियसरीरस्सणं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? गोयमा ! गेवेजगदेवाणं एगा भवधारणिजा सरीरोगाहणा पण्णत्ता, सा जहण्णेणं Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] [४९३ अंगुलस्सअसंखेजइभागं उक्कोसेणं दो रयणीओ । [१५३२-६ प्र.] भंते ! ग्रैवेयक-कल्पातीत-वैमानिकदेव-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर की अवगाहना कितनी कही गई है ? __[उ.] गौतम ! ग्रैवेयकदेवों की एक मात्र भवधारणीया शरीरावगाहना होती है । वह जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग-(प्रमाण) और उत्कृष्टतः दो हाथ की है । . [७] एवं अणुत्तरोववाइयदेवाण वि । णवरं एक्का रयणी । [१५३२-७] इसी प्रकार अनुत्तरौपपातिकदेवों की भी (भवधारणीया-शरीरावगाहना जघन्यतः इतनी ही समझनी चाहिए) विशेष यह है कि (इनकी) उत्कृष्ट (शरीरावगाहना) एक हाथ की होती है। विवेचन - वैक्रियशरीरी जीवों की शरीरावगाहना - प्रस्तुत छह सूत्रों (सू. १५२१ से १५२६ तक) में वैक्रियशरीर के प्रमाणद्वार के प्रसंग में वैक्रियशरीरी जीवों के भवधारणीय और उत्तरवैक्रियशरीरों को लक्ष्य में रख कर उनको जघन्य, उत्कृष्ट शरीरावगाहना की प्ररूपणा की गई है। ___विविध वैक्रियशरीरी जीवों की शरीरावगाहना को सुगमता से समझने के लिए तालिका दी जा रही हैक्रम वैक्रियशरीर के प्रकार भवधारणीय-शरीरावगाहना ज. उ. उत्तरवैक्रियाशरीरावगा हना ज. उ. १. औधिक वैक्रियशरीर जघन्य-अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्ट-कुछ अधिक एक लाख योजन २ वायुकायिक ए. वै. जघन्य-अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्ट-अंगुल के असंशरीर ख्यातवें भाग । ३. समुच्चय नारकों के वै. भव.जघन्य-अंगुल के असंख्यातवें भाग, ज.-अंगुल के संख्यातवें शरीर उ.५०० धनु. भाग उ. १००० योजन । ४. रत्नप्रभा के ना. के वै. भव.जघन्य-अंगुल के असंख्यातवें भाग, ज.-अंगुल के संख्यातवें शरीर उ.७ ध. ३ हाथ ६ अं. भाग उ. १५धनु. २ ॥ हाथ ५. शर्कराप्रभा के ना. के जघन्य-अंगुल के असंख्यातवें भाग, उ ज.-अंगुल के संख्यातवें वै. शरीर १५ ध. २॥ हाथ भाग उ. ३१ धनु. १ हाथ ६. वालुकाप्रभा के ना. के जघन्य-अंगुल के असंख्यातवें भाग, उ. ज.-अंगुल के संख्यातवें Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ ] [प्रज्ञापनासूत्र वै. शरीर ७. पंकप्रभा के ना. के वै. शरीर ८. धूमप्रभा के ना. के वै. शरीर ९. तमःप्रभा के ना. के शरीर धनुष १०. अधःसप्तम के ना. के वै.-शरीर ११. तिर्यञ्च पं. के वैक्रिय- शरीर १२. मनुष्य पं. के वैक्रिय- ३१ धनु. १ हाथ • भाग . ६२ धनु. २ हाथ ज.-अंगुल के असंख्यातवें भाग, उ. ६२ ज.-अंगुल के संख्यातवें धनु. २ हाथ भाग उ. १२५ धनुष ज.-अंगुल के असंख्यातवें भाग, उ. १२५ ज.-अंगुल के संख्यातवें धनुष भाग उ. २५० धनुष ज.-अंगुल के असंख्यातवें भाग, उ. २५०. ज.-अंगुल के संख्यातवें भाग उ. ५०० धनुष ज.-अंगुल के असंख्यातवें भाग, उ. ५०० ज.-अंगुल के संख्यातवें धनुष भाग उ. १००० धनुष जघन्य-अंगुल के संख्यातवें भागप्रमाण उत्कृष्ट योजनशत.पृथक्त्व की .. जघन्य-अंगुल के संख्यातवें भागप्रमाण, उ. कुछ अधिक एक लाख योजन की ज.-अंगुल के असंख्यातवें भाग, उ.७ हाथ की जं. अंगुल के संख्यातवें भाग उ. १ लाख योजन " " " " ज.-अंगुल के संख्यातवें भाग उ.१ लाख योजन " " " " शरीर १३. समस्त भवनपति देवों के वै. शरीर १४. समस्त वाणव्यन्तरों के वै. शरीर १५. समस्त ज्योतिष्कों के वै. शरीर १६. सौधर्म से अच्युतकल्प तक के देवों के वै. श. सनत्कुमार देवों के वै. ज.-अंगुल के असंख्यातवें भाग, उ.७ हाथ की ज.-अंगुल के असंख्यातवें भाग, Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] [४९५ ज.-अंगुल के संख्यातवें भाग उ.१ लाख योजन शरीर उ. ६ हाथ की माहेन्द्रकल्प के देवों के. ज.-अंगुल के असंख्यातवें भाग, वै. श. उ. ६ हाथ की ब्रह्मलोक लान्तक दे. ज.-अंगुल के असंख्यातवें भाग, के वै. श. उ.५ हाथ की महाशुक्र सहस्रार दे. ज.-अंगुल के असंख्यातवें भाग, उ. ४ हाथ की आनत-प्राणत-आरण ज.-अंगुल के असंख्यातवें भाग, । अच्युत कल्प के दे. के उ. ३ हाथ की वै.श. वै. श. १७. नवग्रैवेयकों के वै. श. ज.-अंगुल के असंख्यातवें भाग, उ. २ हाथ की १८. पंच अनुत्तरौपपातिक ज.-अंगुल के असंख्यातवें भाग, उ. १ हाथ की दे. के वै. शरीर नारकों की अवगाहना के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण - रत्नप्रभापृथ्वी के नारकों की- जो भवधारणीयशरीरावगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की कही है, वह उत्पत्ति के प्रथम-समय में होती है तथा जो उत्कृष्ट अवगाहना ७ धनुष ३ हाथ ६ अंगुल की बताई है, वह पर्याप्तअवस्था की अपेक्षा से तेरहवें प्रस्तट (पाथड़े) में जाननी चाहिए। इससे पूर्व के प्रस्तटों में क्रमशः थोड़ी-थोड़ी अवगाहना उत्तरोत्तर बढ़ती जाती हैं। वह इस प्रकार - रत्नप्रभापृथ्वी के प्रथम प्रस्तट में उत्कृष्ट अवगाहना तीन हाथ की, दूसरे प्रस्तट में १ धनुष १ हाथ ८॥ अंगुल की, तीसरे प्रस्तट में १ धनुष ३ हाथ १७ अंगुल की, चौथे प्रस्तट में २ धनुष २ हाथ १॥ अंगुल की, पाँचवें प्रस्तट में ३ धनुष १० अंगुल की, छटे प्रस्तट में ३ धनुष २ हाथ १॥ अंगुल की, सातवें प्रस्तट में ४ धनुष १ हाथ ३ अंगुल की, आठवें प्रस्तट में ४ धनुष ३ हाथ १॥ अंगुल की, नौवें प्रस्तट में ५ धनुष १ हाथ २० अंगुल की, दसवें प्रस्तट में ६ धनुष ४॥ अंगुल की, ग्यारहवें प्रस्तट में ६ धनुष २ हाथ १३ अंगुल की, बारहवें प्रस्तंट में ७ धनुष २१॥ अंगुल की और १३ वें प्रस्तट में पूर्वोक्त अवगाहना होती है। शर्कराप्रभापृथ्वी के नारकों की जो भवधारणीय उत्कृष्ट शरीरावगाहना १५ धनुष २ ॥ हाथ की बताई १. पण्णवण्णासुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. १ पृ. २४०-३४१ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ ] [प्रज्ञापनासूत्र है, वह ग्यारहवें प्रस्तट की अपेक्षा से समझनी चाहिए। क्रमशः अन्य प्रस्तटों की अवगाहना इस प्रकार हैप्रथम प्रस्तट में ७ धनुष ३ हाथ ६ अंगुल की, दूसरे प्रस्तट में ८ धनुष २ हाथ ९ अंगुल की, तीसरे प्रस्तट में ९ धनुष १ हाथ १२ अंगुल की, चौथे में १० धनुष १५ अंगुल की, पांचवें प्रस्तट में १० धनुष ३ हाथ १८. अंगुल की, छठे प्रस्तट में ११ धनुष २ हाथ २१ अंगुल की, सातवें में १२ धनुष २ हाथ की, आठवें प्रस्तट में १३ धनुष १ हाथ ३ अंगुल की, नौवें प्रस्तट में १४ धनुष ६ अंगुल की, दसवें प्रस्तट में १४ धनुष ३ हाथ और ९ अंगुल की तथा ग्यारहवें प्रस्तट में पूर्वोक्त शरीरावगाहना समझनी चाहिए। . बालुकाप्रभापृथ्वी के नारकों की जो भवधारणीय उत्कृष्ट शरीरावगाहना ३१ धनुष १ हाथ बताई है, वह नौवें प्रस्तट की अपेक्षा से समझनी चाहिए। अन्य प्रस्तटों में अवगाहना इस प्रकार है - प्रथम प्रस्तट में १५ धनुष २ हाथ १२ अंगुल की, दूसरे प्रस्तट में १७ धनुष २ हाथ ७॥ अंगुल की, तीसरे प्रस्तट में १९ धनुष २ हाथ ३ अंगुल की, चौथे प्रस्तट में २१ धनुष १ हाथ २२ ।। अंगुल की, पांचवें प्रस्तट में २३ धनुष १ हाथ १८ अंगुल की, छठे प्रस्तट में २५ धनुष १ हाथ १३ ॥ अंगुल की, सातवें प्रस्तट में २७ धनुष १ हाथ ९ अंगुल की, आठवें प्रस्तट में २९ धनुष १ हाथ ४॥ अंगुल की और नौवें प्रस्तट में पूर्वोक्त शरीरावगाहना समझनी चाहिए। पंकप्रभापृथ्वी में उत्कृष्ट भवधारणीय शरीरावगाहना ६२ धनुष २ हाथ की बताई गई हैं, वह सातवें प्रस्तट में जाननी चाहिए। अन्य प्रस्तटों में अवगाहना इस प्रकार है - प्रथम प्रस्तट में ३१ धनुष १ हाथ की, दूसरे प्रस्तट में छत्तीस धनुष १ हाथ २० अंगुल की, तीसरे प्रस्तट में ४१ धनुष २ हाथ १६ अंगुल की, चौथे प्रस्तट में ४६ धनुष ३ हाथ १२ अंगुल की, पांचवें प्रस्तट में ५२ धनुष ८ अंगुल की, छठे प्रस्तट में ५७ धनुष १ हाथ ४ अंगुल की और सातवें प्रस्तट में पूर्वोक्त अवगाहना होती हैं। धूमप्रभापृथ्वी में उत्कृष्ट भवधारणीय शरीरावगाहना १२५ धनुष को बताई है, वह पंचम प्रस्तट की अपेक्षा से समझनी चाहिए। इसके प्रथम प्रस्तट में ६२ धनुष २ हाथ की, दूसरे में ७८ धनुष १ बितस्ति (बीता), तीसरे में ९३ धनुष ३ हाथ, चौथे प्रस्तट (पाथड़े) में १०९ धनुष १ हाथ और १ बितस्ति और पांचवें प्रस्तट में पूर्वोक्त अवगाहना समझनी चाहिए। तमः प्रभापृथ्वी के नारकों की उत्कृष्ट भवधारणीय अवगाहना २५० धनुष की है, वह तृतीय पाथड़े की अपेक्षा से है। अन्य पाथड़ों का परिमाण है- प्रथम पाथड़े में १२५ धनुष की, दूसरे पाथड़े में १८७॥ धनुष की और तीसरे पाथड़े की अवगाहना पूर्वोक्त परिमाण वाली है। तमस्तमापृथ्वी के नारकों की उत्कृष्ट भवधारणीय शरीरावगाहना ५०० धनुष की कही गई है। रत्नप्रभापृथ्वी की उत्तरवैक्रिय-शरीरावगहना उत्कृष्टतः १५ धनुष २॥ हाथ की होती है, यह अवगाहना १३ वें पाथड़े में पाई जाती है। अन्य पाथड़ों में पूर्वोक्त भवधारणीय शरीरावगाहना के परिमाण से दुगुनी समझनी चाहिए। Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] [ ४९७ शर्कराप्रभापृथ्वी की उत्तरवैक्रिय-शरीरावगाहना उत्कृष्ट ३१ धनुष १ हाथ की होती है, जो ११ वें पाथड़े में पाई जाती है। अन्य पाथड़ों में अपने-अपने भवधारणीय-शरीर की अवगाहना से उत्तरवैक्रियशरीर की अवगाहना दुगुनी-दुगुनी होती है। बालुकाप्रभा की उत्तरवैक्रिय-शरीरावगाहना उत्कृष्ट ६२ धनुष २ हाथ की होती है, जो उसके नौवें पाथड़े की अपेक्षा से है। अन्य पाथड़ों में अपने-अपने भवधारणीय-अवगाहना-प्रमाण से दुगुनी-दुगुनी अवगाहना होती है। पंकप्रभा की उत्कृष्ट उत्तरवैक्रिय-शरीरावगाहना १२५ धनुष की है, जो उसके सातवें पाथड़े में पाई जाती है। अन्य पाथड़ों में अपनी-अपनी भवधारणीय-शरीरावगाहना से दुगुनी-दुगुनी अवगाहना समझ लेनी चाहिए। धूमप्रभापृथ्वी की उत्कृष्ट उत्तरवैक्रिय-शरीरावगाहना २५० धनुष की है, जो उसके पांचवें पाथड़े की अपेक्षा से है। बाकी के पाथड़ों की उत्तरवैक्रियावगाहना, अपनी-अपनी भवधारणीय-अवगाहना से दुगुनीदुगुनी है। · तमःप्रभापृथ्वी की उत्कृष्ट उत्तरवैक्रिय-शरीरावगाहना ५०० धनुष की है, जो उसके तीसरे पाथड़े की अपेक्षा से है। प्रथम और द्वितीय प्रस्तट की उत्तरवैक्रियावगाहना अपनी-अपनी भवधारणीय शरीरावगहाना से दुगुनी-दुगुनी होती है। सातवीं पृथ्वी के नारकों की उत्कृष्ट उत्तरवैक्रिय-शरीरावगाहना १००० धनुष की होती है। स्थिति के अनुसार वैमानिक-देवों की भवधारणीय उत्कृष्ट अवगाहना- सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प में जिन देवों की स्थिति दो सागरोपम की है, उनकी भवधारणीय-अवगाहना पूरे सात हाथ की होती है, जिनकी स्थिति ३ सागरोपम की है, उनकी अवगाहना ६ हाथ तथा एक हाथ के ४/११ भाग की है। जिनकी स्थिति ४ सागरोपम की है, उनकी अवगाहना ६ हाथ और एक हाथ के ३/११ भाग की है, जिनकी स्थिति ५ सागरोपम की है, उनकी अवगाहना ६ हाथ और एक हाथ के २/११ भाग की है, जिनकी स्थिति ६ सागरोपम की है, उनकी अवगाहना ६ हाथ और १/११ भाग की है। जिनकी स्थिति पूरे ७ सागरोपम की है, उनकी अवगाहना पूरे ६ हाथ की है। ब्रह्मलोक और लान्तककल्प- जिन देवों की स्थिति ब्रह्मलोक कल्प में ७ सागरोपम की है, उनकी भवधारणीय उत्कृष्ट अवगाहना पूरे ६ हाथ की है, जिनकी स्थिति ८ सागरोपम की है, उनकी भवधारणीय शरीरावगाहना ५ हाथ एवं ६/११ हाथ की होती है, जिनकी स्थिति नौ सागरोपम की है, उनकी अवगाहना ५ हाथ और ५/११ हाथ की होती है। जिनकी स्थिति १० सागरोपम की है, उनकी अवगाहना ५ हाथ और ४/११ १. प्रज्ञापना मलयवृत्ति, पत्र ४१८ से ४२० तक Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ ] [प्रज्ञापनासूत्र हाथ की होती है। जिनकी स्थिति १० सागरोपम की है, उनकी उत्कृष्ट अवगाहना ५ हाथ और ४/११ हाथ की होती है, जिनकी स्थिति ११ सागरोपम की है, उनकी अवगाहना ५ हाथ और ३/११ हाथ की होती है। जिनकी स्थिति १३ सागरोपम की है, उनकी अवगाहना ५ हाथ और १/११ हाथ की होती है तथा जिनकी स्थिति १४ सागरोपम की है, उनकी अवगाहना पूरे ५ हाथ की होती है। महाशुक्र और सहस्रार में जिन देवों की स्थिति महाशुक्रकल्प में १४ सागरोपम की है, उनकी उत्कृष्ट भवधारणीय-शरीरावगाहना पूरे ५ हाथ की होती है, जिनकी स्थिति १५ सागरोपम की है, उनकी उ. भ. शरीरावगाहना ४ हाथ और ३/११ हाथ की होती है, जिनकी स्थिति १६ सागरोपम की है, उनकी अवगाहना ४ हाथ और २/११ हाथ की होती है, जिनकी स्थिति १७ सागरोपम की है, उनकी अवगाहना ४ हाथ और १/११ हाथ की होती है। सहस्रारकल्प में भी १७ सागरोपम वाले देवों की उत्कृष्ट भ. अवगाहना इतनी ही होती है। जिनकी स्थिति पूरे १८ सागरोपम की है, उनकी अवगाहना पूरे ४ हाथ की होती है। आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्प देवों की अवगाहना- आनतकल्प में जिनकी स्थिति पूरे १८ सागरोपम की है, उनकी भ. उ. शरीरावगाहना पूरे ४ हाथ की होती है, जिनकी स्थिति १९ सागरोपम की है, उनकी अवगाहना ३ हाथ और ३/११ हाथ की होती है । प्राणतकल्प में जिनकी स्थिति २० सागरोपम की है, उनकी अवगाहना ३ हाथ और २/११ हाथ की होती है । आरणकल्प में जिन देवों की स्थिति २० सागरोपम की है उनकी अवगाहना ३ हाथ और २/११ भाग की होती है, जिनकी स्थिति २१ सागरोपम की है, उनकी ३ हाथ और १/११ हाथ की होती है । अच्युतकल्प में जिनकी स्थिति २१ सागरोपम की है, उनकी भी भ. शरीरावगाहना ३ हाथ १/११ हाथ की होती है, जिन देवों की अच्युतकल्प में २२ सागरोपम की स्थिति है, उनकी उत्कृष्ट शरीरावगाहना ३ हाथ की होती है। प्रथम ग्रैवेयक में जिनकी स्थिति २३ सागरोपम की है, उनकी उ. अवगाहना ३ हाथ की होती है । द्वितीय ग्रैवेयक में जिनकी स्थिति २३ सागरोपम की है, उनकी अवगाहना २ हाथ और ८/११ हाथ की होती है । द्वितीय ग्रैवेयक में जिनकी स्थिति २४ सागरोपम की है उनकी उ. अवगाहना २ हाथ ७/११ हाथ की होती है । तृतीय ग्रैवेयक में जिनकी स्थिति २४ सागरोपम की है, उनकी उत्कृष्ट शरीरावगाहना २ हाथ और ७/११ हाथ की होती है । तृतीय ग्रैवेयक में २५ सागरोपम की स्थिति वाले देवों की उ. शरीरावगाहना २ हाथ ६/११ हाथ की होती है । चौथे ग्रैवेयक में जिन देवों की स्थिति २५ सागरोपम की है, उनकी भी भ. शरीरावगाहना पूर्ववत् होती है । चौथे ग्रैवेयक में २६ सागरोपम की स्थति वाले देवों की भ. शरीरावगाहना २ हाथ व ५/११ हाथ की होती है । पांचवें ग्रैवेयक में जिन देवों की स्थिति २६ सागरोपम की है, उनकी भी उ. शरीरावगाहना पूर्ववत् ही है । पांचवें ग्रैवेयक में जिन देवों की स्थिति २७ सागरोपम की है, उनकी भी उ. भ. शरीरावगाहना २ हाथ और २/११ हाथ की होती है । छठे ग्रैवेयक में जिन देवों की स्थिति २७ सागरोपम की होती है, उ. भव. शरीरावगाहना भी पूर्ववत् होती है । छठे ग्रैवेयक में जिन देवों की स्थिति २८ सागरोपम की है, उनकी उ. भव. शरीरावगाहना २ हाथ और ३/११ हाथ की होती है । सातवें ग्रैवेयक में जिन देवों की स्थिति २८ सागरोपम की है, उनकी भी शरीरावगाहना पूर्ववत् Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] [४९९ होती है । सातवें ग्रैवेयक में भी जिनकी स्थिति २९ सागरोपम की है, उनकी उ. शरीरावगाहना २ हाथ और २/११ हाथ की होती है । आठवें ग्रैवेयक में भी जिनकी स्थिति २९ सागरोपम की है, उनकी भ. उ. शरीरावगाहना पूर्ववत् होती है । आठवें ग्रैवेयक में जिनकी स्थिति ३० सागरोपम की है, उनकी भ. उ. शरीरावगाहना २ हाथ व १/११ हाथ की होती है । नौवें ग्रैवेयक में जिन देवों की स्थिति ३० सागरोपम की होती है, उनकी भ. उ. शरीरावगाहना भी पूर्ववत् होती है । नौवें ग्रैवेयक में जिन देवों की स्थिति ३१ सागरोपम की है, उनकी भवधारणीय शरीरावगाहना पूरे २ हाथ की होती है । विजयादि चार अनुत्तर विमानवासी-जिन देवों की स्थिति ३१ सागरोपम की है, उनकी भ. उ. अवगाहना २ हाथ की होती है । विजयादि चार अनुत्तरविमानवासी जिन देवों की मध्यम-स्थिति ३१ सागरोपम की होती है उनकी भ. उ. अवगाहना १ हाथ और १/११ हाथ की होती है तथा सर्वार्थसिद्ध विमान में देवों की स्थिति ३३ सागरोपम की होती है. उनकी अवगाहना १ हाथ की होती है। १५३३. [१] आहारगसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! एगागारे पण्णत्ते । [१५३३-१ प्र.] भंते ! आहारकशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! वह एक ही प्रकार का कहा गया है । [२] जदि एगागारे पण्णत्ते किं मणूसआहारगसरीरे अमणूसआहारगसरीरे ? गोयमा ! मणूसआहारगसरीरे, णो अमणूसआहारगसरीरे । - [१५३३-२ प्र.] (भगवन् !) यदि आहारकशरीर एक ही प्रकार का कहा गया है तो वह आहारकशरीर मनुष्य के होता है अथवा अमनुष्य के होता है ? [उ.] गौतम ! मनुष्य के आहारकशरीर होता है, किन्त मनुष्येतर के आहारकशरीर नहीं होता है। [३] जदि मणूसआहारगसरीरे किं सम्मच्छिममणूसआहारगसरीरे गब्भवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे? गोयमा ! णो सम्मूच्छिममणूसआहारगसरीरे गब्भवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे । [१५३३-३ प्र.] (भगवन् !) यदि मनुष्यों के आहारकशरीर होता है तो क्या सम्मूछिम मनुष्य के होता है, या गर्भज-मनुष्य के होता है ? [उ.] गौतम ! सम्मूछिम-मनुष्य के आहारकशरीर नहीं होता, (अपितु) गर्भज-मनुष्य के आहारकशरीर १. प्रज्ञापना मलय-वृत्ति, पत्र ४२१ से ४२३ तक Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र ५०० ] होता है । [ ४ ] जदि गब्भवक्कंतियमणूस आहारगसरीरे कम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूस आहारगसरीरे अकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूस आहारगसरीरे अंतरदीवगगब्भवक्कंतियमणूस आहारगसरीरे ? गोयमा ! कम्मभूमगगब्भवक्कं तियमणूस आहार गसरीरे, णो अकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे, णो अंतरदीवगगब्भवक्कंतियमणूस आहारगसरीरे । [१५३३-४ प्र.] (भगवन् !) यदि गर्भज- मनुष्य के आहारकशरीर होता है तो क्या कर्मभूमिकगर्भज-मनुष्य के आहारकशरीर होता है, अकर्मभूमिक- गर्भज - मनुष्य के होता है, अथवा अन्तरद्वीपक मनुष्य के होता है ? [१५३३-४] गौतम ! कर्मभूमिक- गर्भज मनुष्य के आहारकशरीर होता है, किन्तु न तो अकर्मभूमिक- गर्भज - मनुष्य के होता है और न अन्तरद्वीपक - गर्भज- मनुष्य के होता है । [ ५ ] जदि कम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूस आहारगसरीरे किं संखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवकंतियमणूस आहारगसरीरे असंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूस आहारगसरीरे ? गोयमा ! संखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूस आहारगसरीरे, णो असंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूस आहारगसरीरे । [१५३३-५] (भगवन् !) यदि कर्मभूमिक- गर्भज - मनुष्य के आहारकशरीर होता है, तो क्या संख्यातवर्षायुष्क-कमै भूमिक- गर्भज-मनुष्य के होता है या असंख्यात वर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज - मनुष्य के होता है ? [उ.] गौतम ! संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक- गर्भज मनुष्य के आहारकशरीर होता है, किन्तु असंख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक- गर्भज - मनुष्य के नहीं होता है। [ ६ ] जदि संखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूस आहारगसरीरे किं पज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूस आहारगसरीरे अपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवनंतियमणूस आहारगसरीरे ? गोयमा ! पज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूस आहारगसरीरे, णो अपजत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूस आहारगसरीरे । [१५३३-६] (भगवन् !) यदि संख्यातवर्षायुष्क- कर्मभूमिक- गर्भज - मनुष्यों के आहारक शरीर होता है, (तो) क्या पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक- गर्भज - मनुष्य के होता है (अथवा ) अपर्याप्तकसंख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक- गर्भज- मनुष्य के होता है ? Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान - पद ] [ ५०१ ! [उ.] गौतम ! पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक- गर्भज-मनुष्यों के आहारकशरीर होता है किन्तु अपर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क- कर्मभूमिक- गर्भज-मनुष्यों के नहीं होता है । [ ७ ] जदि पज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूस आहारगसरीरे किं सम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कं तियमणूस आहारगसरीरे मिच्छद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूस आहारगसरीरे सम्मामिच्छद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूस आहारगसरीरे ? गोयमा ! सम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूस आहारगसरीरे, णो मिच्छद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूस आहारगसरीरे, णो सम्मामिच्छद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्वंतियमणूस आहारगसरीरे । [१५३३-७] (भगवन् !) यदि पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्यों के आहारकशरीर होता है तो क्या सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क- कर्मभूमिक- गर्भज- मनुष्यों के आहारकशरीर होता है, मिथ्यादृष्टि - पर्याप्तक- संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक- गर्भज-मनुष्यों के होता है, अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टिपर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक- गर्भज-मनुष्य के होता है ? [उ.] गौतम ! सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक- संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक- गर्भज - मनुष्यों के आहारकशरीर होता है, (किन्तु) न तो- मिथ्यादृष्टि - पर्याप्तंक - संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक- गर्भज - मनुष्यों के होता है और न ही सम्यग्मिथ्यादृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क - कर्मभूमिक- गर्भज - मनुष्यों के होता है और न ही सम्यग्मिथ्यादृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक- गर्भज - मनुष्यों के होता 1 [ ८ ] जदि सम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूस आहारगसरीरे किं संजयसम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूस आहारगसरीरे असंजयसम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूस आहारगसरीरे संजयासंजयसम्म - द्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूस आहारगसरीरे ? गोयमा ! संजयसम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूस आहारगसरीरेण असंजयसम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमंगगब्भवक्कंतियमणूस आहारगसरीरे णो संजयासंजयसम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूस आहारगसरीरे । [१५३३-८ प्र.] (भगवन् !) यदि सम्यग्दृष्टि - पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक- गर्भज-मनुष्यों के आहारकशरीर होता है तो क्या संयत- सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क- कर्मभूमिक- गर्भज-मनुष्यों के होता है, या असंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्यों के होता है, अथवा संयतासंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क - कर्मभूमिक- गर्भज - मनुष्यों के होता है ? Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ ] [प्रज्ञापनासूत्र [उ.] गौतम ! संयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्यों के आहारकशरीर होता है, (किन्तु) न (तो) असंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्यों के होता है और न ही संयतासंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्यों के होता है। [९]जदि संजयसम्मद्दिछिपजत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूस-आहारगसरीरे किं पमत्तसंजयसम्मद्दिछिपजत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे अपमत्तसंजयसम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्वंतियमणूसआहारगसरीरे ? गोयमा ! पमत्तसंजयसम्मद्दिट्ठि पजत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कं तियमणूसआहारगसरीरे, णो अपमत्तसंजयसम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे। __[१५३३-९ प्र.] (भगवन् !) यदि संयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भजमनुष्यों के आहारकशरीर होता है तो क्या प्रमत्तसंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिकगर्भज-मनुष्यों के होता है, अथवा अप्रमत्तसंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भजमनुष्यों के होता है ? ___ [उ.] गौतम ! प्रमत्तसंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्यों के आहारकशरीर होता है, अप्रमत्तसंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्यों के नहीं होता है। [१०] जदि पमत्तसंजयसम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे, किं इड्डिपत्तपमत्तसंजयसम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कं तियमणूसआहारगसरीरे, अणिड्डि पत्तपमत्तसंजयसम्मद्दिट्ठि पजत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्वंतियमणूसआहारगसरीरे ? गोयमा ! इड्विपत्तपमत्तसंजयसम्मद्दिट्ठिपजत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे, णो अणिड्डिपत्तपमत्तसंजयसम्मद्दिट्ठि पजत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमगगब्भववंतियमणूसआहारगसरीरे । [१५३३-१० प्र.] (भगवन् !) यदि प्रमत्तसंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिकगर्भज-मनुष्यों के आहारकशरीर होता है तो क्या ऋद्धिप्राप्त-प्रमत्तसंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्ककर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्यों के होता है, अथवा अनृद्धिप्राप्त-प्रमत्तसंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्ककर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्यों के होता है ? Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्की वगअवगहहग स्थग्ह-वद ] [उ.] गौतम ! ऋद्धिप्राप्त-प्रमत्तसंयत- सम्यग्दृष्टि - पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्यों के आहारकशरीर होता है (किन्तु ) अनृद्धिप्राप्त - प्रमत्तसंयत- सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिकगर्भज - मनुष्यों के नहीं होता है । विवेचन - आहारकशरीर का अधिकारी प्रस्तुत सूत्र (सू. १५३३) के दस भागों में एकविध आहारकशरीर किसको प्राप्त होता है, किसको नहीं ? इसकी चर्चा की गई है । निष्कर्ष - आहारकशरीर एक ही प्रकार का होता है और वह कर्मभूमि के गर्भज - सम्यग्दृष्टिऋद्धिप्राप्त - प्रमत्तसंयमी - मनुष्य को होता है । संजत आदि शब्दों के विशेषार्थ प्रमत्त- जो प्रमाद करते हैं, मोहनीयादि कर्मोदयवश तथा संज्वलनकषाय-निद्रादि में से किसी भी प्रमाद के योग से संयमप्रवृत्तियों (योगों) में कष्ट पाते हैं। वे प्रायः गच्छवासी (स्थविरकल्पी) होते हैं, क्योंकि वे कहीं-कहीं उपयोगशून्य होते हैं । [ ५०३ अप्रमत्त - इनसे विपरीत जो प्रमादरहित हों, वे प्राय: जिनकल्पी, परिहारविशुद्धिक, यथालन्दकल्पिक एवं प्रतिमाप्रतिपन्न साधु होते हैं । वे सदा उपयोगयुक्त रहते हैं ।" एक स्पष्टीकरण जैनसिद्धान्तानुसार जिनकल्पी आदि लब्धि-उपजीवी नहीं होते । क्योंकि उनका वैसा ही कल्प है । जो गच्छवासी आहारकशरीर का निर्माण करते हैं, वे उस समय लब्ध्युपजीवों एवं उत्सुकता के कारण प्रमत्त होते हैं । आहारकशरीर को छोड़ने में भी वे प्रमत्त होते हैं । औदारिकशरीर में आत्मप्रदेशों का सर्वात्मना (चारों ओर से) उपसंहरण करने से व्याकुलता आती है । आहारकशरीर में वह अन्तर्मुहूर्त तक रहते हैं । अतः यद्यपि उसके बीच के काल में थोड़ी देर के लिए जरा-सा विशुद्धिभाव आ जाता है । कर्मग्रन्थकार इस स्थिति को अप्रमत्तता कहते हैं, किन्तु वास्तव में देखा जाए तो लब्धुपजीविता के कारण वे प्रमत्त हैं | I इड्डित्त - ऋद्धिप्राप्त- आमर्षौषधि इत्यादि ऋद्धियाँ - लब्धियाँ जिन्हें प्राप्त हों । आहारकशरीर में संस्थानद्वार १. २. ३. ४. १५३४. आहारगसरीरे णं भंते ! किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! समचउरंससंठाणसंठिए पण्णत्ते । पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ) ३४२-३४३ प्रज्ञापना, मलय. वृत्ति, पत्र ४२४-४२५ वही, पत्र ४२४ - ४२५ वही, पत्र ४२४-४२५ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ ] [प्रज्ञापनासूत्र [१५३४ प्र.] भगवन् ! आहारकशरीर किस संस्थान (आकार) का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) समचतुरस्रसंस्थान वाला कहा गया है । विवेचन - आहारकशरीर का आकार - आहारकशरीर एक ही प्रकार का होता है और उसका संस्थान एक ही प्रकार का-'समचतुरस्र' कहा गया है । आहारकशरीर में प्रमाणद्वार १५३५. आहारगसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णेणं देसूणा रयणी, उक्कोसेणं पडिपुण्णा रयणी । [१५३५ प्र.] भगवन् ! आहारकशरीर की अवगाहना कितनी कही गयी है ? [उ.] गौतम ! (उसकी अवगाहना) जघन्य देशोन (कुछ कम) एक हाथ की, उत्कृष्ट पूर्ण एक हाथ को होती है । विवेचन - आहारकशरीर की अवगाहना - प्रस्तुत सूत्र में आहारकशरीर की ऊँचाई का प्रमाण (अवगाहना) बताया गया है । आहारकशरीर का प्रमाण - उसकी कम से कम अवगाहना, कुछ कम एक रनि प्रमाण (एक हाथ) बतायी गयी है । प्रारम्भ समय में उसकी इतनी ही अवगाहना होती है, उसका कारण तथाविध प्रयत्न है । आहारकशरीर की उत्कृष्ट अवगाहना पूर्ण रनि प्रमाण बताई गई है। तैजसशरीर में विधिद्वार १५३६. तेश्गसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते । तं जहा-एगिदियतेयगसरीरे जाव पंचेदियतेयगसरीरे । [१५३६ प्र.] भगवन् ! तैजसशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) पाँच प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार - एकेन्द्रियतैजसशरीर यावत् पंचेन्द्रियतैजसशरीर । १५३७. एगिंदियतेयगसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते । तं जहा-पुढविक्काइया जाव वणस्सइकाइयएगिंदियतेयगसरीरे। [१५३७ प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रियतैजसशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? १. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४२५-४२६ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] [५०५ ___ [उ.] गौतम ! (वह) पाँच प्रकार का कहा गया है, यथा-पृथ्वीकायिक-तैजसंशरीर यावत् वनस्पतिकायिक-तैजसशरीर । १५३८. एवं जहा ओरालियसरीरस्स भेदो भणिया (सु. १४७७-८१). तहा तेयगस्स वि जाव चउरि दिया। __ [१५३८ प्र.] इस प्रकार जैसे औदारिकशरीर के भेद (सूत्र १५७७ से १५८१ तक में) कहे हैं, उसी प्रकार तैजसशरीर के भी (भेद) चतुरिन्द्रिय तक के (कहने चाहिए ।) १५३९. [१] पंचेंदियतेयगसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते? गोयमा ! चउबिहे पण्णत्ते । तं जहा-णेरइयतेयगसरीरे जाव देवतेयगसरीरे । [१५३९-१ प्र.] भगवन् ! पंचेंद्रियतैजसशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) चार प्रकार का कहा गया है, यथा - नैरयिकतैजसशरीर यावत् देवतैजसशरीर। [२] णेरइयाणं दुगतो भाणियव्वो जहा वेउब्वियसरीर (सु. १५१७-२)। [१५३९-२] जैसे नारकों के वैक्रियशरीर के (सू. १५१७-२) में पर्याप्तक और अपर्याप्तक, ये दो भेद कहे गये हैं, उसी प्रकार यहाँ नारकों के तैजसशरीर के भी भेद (कहने चाहिए ।) __[३]पंचेदियतिरिक्खजोणियाणं मणूसाण य जहा ओरालियसरीरे भेदो भणियो (सु. १४८२८७) तहा भाणियव्वो। [१५३९-३] जैसे (सू. १५८२ से १५८७ तक में ) पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों के औदारिकशरीर के भेदों का कथन किया है, उसी प्रकार (यहाँ भी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों के तैजसशरीर के भेदों का) कथन करना चाहिए। [४] देवाणं जहा वेउव्वियसरीरे भेओ भणिओ (सु. १५२०) तहा (तेयगस्स वि) भाणियव्वो जाव सव्वट्ठसिद्धदेवे त्ति। __ [१५३९-४] जैसे- (चारों प्रकार के) देवों के (सू. १५२० में) वैक्रियशरीर के भेद कहे गए हैं, वैसे ही (यहाँ भी) यावत् सर्वार्थसिद्ध देवों (तक) के (तैजसशरीर के भेदों) का कथन करना चाहिए। विवेचन - तैजसशरीर के भेद-प्रभेदों का निरूपण - प्रस्तुत ४ सूत्रों (१५३६ से १५३९ तक में समस्त संसारी जीवों के तैजसशरीर के भेद-प्रभेदों का निरूपण किया गया है। फलितार्थ - तैजसशरीर एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के समस्त जीवों के अवश्यमेव होता है। इसलिए जीवों के जितने भेद हैं, उतने ही तैजसशरीर के भेद हैं। यथा एक-द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियगत औदारिक Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ ] [ प्रज्ञापनासूत्र शरीर तक के जितने भेद कहे गए हैं, उतने ही भेद इनके तैजसशरीर के कहने चाहिए। पंचेन्द्रिय तैजसशरीर नरक आदि चार भेद बताए हैं। उनमें से नारकों के वैक्रियशरीर के पर्याप्तक- अपर्याप्तक ये दो भेद कहे गए हैं, वैसे ही इनके तैजसशरीर के भी दो भेद कहने चाहिए । तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों और मनुष्यों के औदारिकशरीर के जितने भेद कहे हैं, उतने ही उनके तैजसशरीर के भेद कहने चाहिए। चारों प्रकार के देवों के (सर्वार्थसिद्ध तक के) वैक्रियशरीर के जितने भेद कहे हैं, उतने ही इनके तैजसशरीरगत भेद कहने चाहिए ।' तैजसशरीर में संस्थानद्वार १५४०. तेयगसरीरे णं भंते ! किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा । णाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते । [१५४० प्र.] भगवन् ! तैजसशरीर का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) नाना संस्थान वाला कहा गया है। 1 १५४१. एगिंदियतेयगसरीरे णं भंते ! किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! णाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते । [१५४१ प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रियतैजसशरीर किस संस्थान का होता है ? [उ.] गौतम ! (वह) नाना प्रकार के संस्थान वाला होता है। १५४२. पुढविक्वाइयएगिंदियतेयगसरीरे णं भंते! किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! मसूरचंदसंठाणसंठिए पण्णत्ते । [१५४२ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक- एकेन्द्रियतैजसशरीर किस संस्थान वाला कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) मसूरचन्द्र (मसूर की दाल) के आकार का कहा गया है। १५४३. एवं ओरायिसंठाणाणुसारेणं भाणियव्वं (सु. १४९० - ९६ ) जाव चउरिंदियाणं ति । [१५४३] इसी प्रकार ( अन्य एकेन्द्रियों से लेकर) यावत् चतुरिन्द्रियों के तैजसशरीर संस्थान का कथन (सू. १४९० से १५९६ तक में उक्त) इनके औदारिकशरीर-संस्थानों के अनुसार कहना चाहिए । १५४४. [ १ ] णेरइयाणं भंते ! तेयगसरीरे किसंठिए पण्णत्ते ? गोमा ! जहा वेडव्वियसरीरे (सु. १५२३) १. (क) पण्ण्वणासुत्तं (प्रस्तावनादि) भा. २, पृ. ११८ (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४२७ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान- पद ] [१५४४-१] भगवन् ! नैरयिकों का तैजसशरीर किस संस्थान का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! जैसे (सू. १५२३ में) (इनके) वैक्रियशरीर (के संस्थान) का ( कथन किया है) ( उसी प्रकार इनके तैजसशरीर के संस्थान का कथन करना चाहिए ।) [ २ ] पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं मणूसाण य जहा एतेसिं चेव ओरालिय त्ति (सु. १५२४ २५) [१५४४-२] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों और मनुष्यों के तैजसशरीर के संस्थान का कथन उसी प्रकार करना चाहिए, जिस प्रकार (सू. १५२४ - १५२५ में ) इनके औदारिकशरीरगत संस्थानों का कथन किया गया है । [ ५०७ [ ३ ] देवाणं भंते ! तेयगसरीरे किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! जहा (सु. १५२६) जाव अणुत्तरोववाइय त्ति । [१५४४-३ प्र.] भगवन् ! देवों के तैजसशरीर का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! जैसे (सू. १५२६ में असुरकुमार से लेकर) यावत् अनुत्तरौपपातिक देवों के वैक्रियशरीर के संस्थान का कथन किया है, उसी प्रकार इनके तैजसशरीर के संस्थान का कथन करना चाहिए । विवेचन - एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के तैजसशरीर का संस्थान - एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के तैजसशरीरों के संस्थान की चर्चा प्रस्तुत ५ सूत्रों (१५४० से १५४४) में की गई है । तैजसशरीर का संस्थान औदारिक- वैक्रियशरीरानुसारी क्यों ? - तैजसशरीर जीव के प्रदेशों के अनुसार होता है । अतएव जिस भव में जिस जीव के औदारिक अथवा वैक्रिय शरीर के अनुसार आत्मप्रदेशों जैसा आकार होता है, वैसा ही उन जीवों के तैजसशरीर का आकार होता है। तैजसशरीर में प्रमाणद्वार १५४५. जीवस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहस्स तेयासरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! सरीरपमाणमेत्ता विक्खंभ-बाहल्लेणं; आयामेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागो, उक्कोसेणं लोगंताओ लोगंतो । १. [१५४५ प्र.] भगवन् ! मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत ( समुद्घात किये हुए) जीव के तैजसशरीर की अवगाहना कितनी होती है ? प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्र ४२७ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ ] [ प्रज्ञापनासूत्र ___(उ.) गौतम ! विष्कम्भ, अर्थात्-उदर आदि के विस्तार और बाहल्य, अर्थात्-छाती और पृष्ठ की मोटाई के अनुसार शरीरप्रमाणमात्र ही अवगाहना होती है । लम्बाई की अपेक्षा तैजसशरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की होती है और उत्कृष्ट अवगाहना लोकान्त से लोकान्त तक होती है । १५४६. एगिंदियस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं सनोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? गोयमा ! एवं चेव, जाव पुढवि-आउ-तेउ-वाउ-वणस्सइकाइयस्स । [१५४६ प्र.] भगवन् ! मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत एकेन्द्रिय के तैजसशरीर की अवगाहना कितनी कही गई है ? [उ.] गौतम ! इसी प्रकार (समुच्चय जीव के समान मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत एकेन्द्रिय के तैजसशरीर की अवगाहना भी) विष्कम्भ और बाहल्य की अपेक्षा से शरीरप्रमाण और लम्बाई की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना ) पृथ्वी-अप्-तेजो-वायु-वनस्पतिकायिक तक पूर्ववत् समझनी चाहिए । १५४७.[१]वेइंदियस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? गोयमा ! सरीरपमाणमेता विक्खंभ-बाहल्लेणं ;आयामणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं तिरियलोगाओ लीगंतो । ___[१५४७-१] भगवन् ! मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत द्वीन्द्रिय के तैजसशरीर की अवगाहना कितनी बड़ी कही गई है ? - [उ.] गौतम ! विष्कम्भ अर्थात्-उदर आदि विस्तार एवं बाहल्य, अर्थात्-वक्षस्थल एवं पृष्ठ (पीठ) की मोटाई की अपेक्षा से शरीरप्रमाणमात्र होती है । तथा लम्बाई की अपेक्षा से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट तिर्यक् (मध्य) लोक से (ऊर्ध्वलोकान्त या अधो-) लोकान्त तक अवगाहना समझनी चाहिए। [२] एवं जाव चउरि दियस्स । [१५४७-२] इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय तक के (जीवों के तैजसशरीर की अवगाहना समझ लेनी चाहिए ।) १५४८. णंरइयस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? गोयमा ! सरीरपमाणमेत्ता विक्खंभ-बाहल्लेणं ; आयामेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं, उक्कोसेणं Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान - पद ] अहे जाव अहेसत्तमा पुढवो, तिरियं जाव सयंभुरमणे समुद्दे, उड्ढं जाव पंडगवणे पुक्खरिणीओ। [.१५४८ प्र.] भगवन् ! मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत नारक के तैजसशरीर की अवगाहना कितनी कही गई है ? [ ५०९ [उ.] गौतम ! विष्कम्भ और बाहल्य की अपेक्षा से शरीरप्रमाणमात्र तथा आयाम ( लम्बाई) की अपेक्षा से जघन्य सातिरेक (कुछ अधिक) एक हजार योजन की और उत्कृष्ट नीचे की ओर अधः सप्तमनरकपृथ्वी तक, तिरछी यावत् स्वयम्भूरमणसमुद्र तक और ऊपर पण्डकवन में स्थित पुष्करिणी तक ( की अवगाहना होती है ।) १५४९. पंचेंदियतिरिक्खजोणियस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहा बेइंदियसरीरस्स (सु. १५४७ [१])। [१५४९ प्र.] भगवन् ! मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च के तैजसशरीर की अवगाहना कितनी कही गई है ? [उ.] गौतम ! जैसे (सू. १५४७ - १ में) द्वीन्द्रिय (के तैजसशरीर) की अवगाहना कही है, उसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक की अवगाहना समझनी चाहिए।) १५५०. मणूसस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! समयखेत्ताओ लोगंतो । [१५५० प्र.] भगवन् ! मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत मनुष्य के तैजसशरीर की अवगाहना कितनी बड़ी गई है ? [उ.] गौतम ! (मनुष्य के तैजसशरीर की उत्कृष्ट अवगाहना) समयक्षेत्र (मनुष्यक्षेत्र) से लोकान्त (ऊर्ध्वलोक या अधोलोक के अन्त) तक (की होती है।). १५५१. [१] असुरकुमारस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! सरीरपमाणमेत्ता विक्खंभ- बाहल्लेणं, आयामेणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं अहे जाव तच्चाए पुढवीए हेट्ठिल्ले चरिमंते, तिरियं जाव सयंभुरमणसमुद्दस्स बाहिरिल्ले वेइयंते, उड्डुं जाव इसीपब्भारा पुढवी । Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० ] [प्रज्ञापनासूत्र [१५५१-१ प्र.] भगवन् ! मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत अ. रकुमार के तैजसशरीर की अवगाहना कितनी कही गई है? [उ.] गौतम ! विष्कम्भ और बाहल्य की अपेक्षा से शरीरप्रमाणमात्र (शरीर के बराबर) तथा आयाम की अपेक्षा से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट नीचे की ओर तीसरी (नरक) पृथ्वी के अधस्तनचरमान्त तक, तिरछी स्वयम्भूरमणसमुद्र की बाहरी वेदिका तक एवं ऊपर ईषत्प्राग्भारपृथ्वी तक (असुरकुमार के तैजसशरीर की अवगाहना होती है।) [२] एवं जाव थणियकुमारतेयगसरीरस्स। __[१५५१-२] इसी प्रकार (असुरकुमार के तैजसशरीर की अवगाहना के समान) नागकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक की (तैजसशरीरीय अवगाहना समझ लेनी चाहिए।) [३] वाणमंतर-जोइसिया सोहम्मीसाणगा य एवं चेव। [१५५१-३] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं सौधर्म ईशान (कल्प के देवों की तैजसशरीरीय अवगाहना भी इसी प्रकार (असुरकुमार के समान) समझनी चाहिए। [४] सणंकुमारदेवस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ?. गोयमा ! सरीरपमाणमेत्ता विक्खंभ-बाहल्लेणं,आयामेणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं अहे जाव महापातालाणं दोच्चे तिभागे, तिरियं जाव सयंभुरमणसमुद्दे, उड्डे जाव अच्चुओ कप्यो। _ [१५५१-४ प्र.] भगवन् ! मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत सनत्कुमार-देव तैजसशरीर की अवगाहना कितनी बड़ी कही गई है ? - [उ.] गौतम ! विष्कम्भ एवं बाहल्य की अपेक्षा से शरीर-प्रमाणमात्र (होती है) और आयाम की अपेक्षा से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की तथा उत्कृष्ट नीचे महापाताल (कलश) के द्वितीय त्रिभाग तक की, तिरछी स्वयम्भूरणसमुद्र तक की और ऊपर अच्युतकल्प तक की (इसकी तैजसशरीरावगाहना होती है।) [५] एवं जाव सहस्सारदेवस्स । [१५५१-५] इसी प्रकार (सनत्कुमारदेव की तैजसशरीरीय अवगाहना के समान) (माहेन्द्रकल्प से लेकर) सहस्रारकल्प के देवों तक की (तैजसशरीरावगाहना समझ लेना चाहिए ।) [६] आणयदेवस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालिया Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] [५११ सरीरोगाहणा पण्णत्ता? गोयमा !सरीरपमाणमेत्ता विक्खंभ-बाहल्लेणं आयामेणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं अहे जाव अहेलोइयगामा, तिरियं जाव मणूसखेत्ते, उड्ढं जाव अच्चुओ कप्पो।। [१५५१-६ प्र.] भगवन् ! मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत आनत (कल्प के) देव के तैजसशरीर की अवगाहना कितनी बड़ी कही गई है ? [उ.] गौतम ! (इसकी तैजसशरीरावगाहना) विष्कम्भ और बाहल्य की अपेक्षा से शरीर के प्रमाण के बराबर होती है और आयाम की अपेक्षा से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की, उत्कृष्ट-नीचे की ओर अधोलौकिकग्राम तक की, तिरछी मनुष्यक्षेत्र तक की और ऊपर अच्युतकल्प तक की (होती है ।) [७] एवं जाव आरणदेवस्स । ___ [१५५१-७] इसी प्रकार (आनतदेव की तैजसशरीरावगाहना के समान) प्राणत और आरण तक को (तैजसशरीरावगाहना समझ लेनी चाहिए ।) • [८] अच्चुयदेवस्स वि एवं चेव । णवरं उड्ढं जाव सगाई विमाणाई। [१५५१-८] अच्चुतदेव की (तैजसशरीरावगाहना) भी इन्हीं के समान होती है । विशेष इतनाकहै कि ऊपर (उत्कृष्ट तैजसशरीरावगाहना) अपने-अपने विमानों तक की होती है । [९] गेवेजगदेवस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता। गोयमा! सरीरपमाणमेत्ता विक्खंभ-बाहल्लेणं; आयामेणं जहण्णेणं विजाहरसेढीओ, उक्कोसेणं जाव अहेलोइयगामा, तिरियं जाव मणूसखेत्ते, उड्ढं जाव सगाई विमाणाई। [१५५१-९ प्र.] भगवन् ! मारणान्तिक समुद्घात से समवहत ग्रैवेयकदेव के तैजसशरीर की अवगाहना कितनी कही गई है ? [उ.] गौतम ! विष्कम्भ और बाहल्य की अपेक्षा से शरीरप्रमाणमात्र होती है तथा आयाम की अपेक्षा से जघन्य विद्याघर श्रेणियों तक की और उत्कृष्ट नीचे की ओर अधोलौकिकग्राम तक की, तिरछी मनुष्यक्षेत्र तक की और ऊपर अपने विमानों तक की (होती है ।) [१०] अणुत्तरोववाइयस्स वि एवं चेव । [१५५१-१०] अनुत्तरौपपातिकदेव की तैजसशरीरावगाहना भी इस प्रकार (ग्रवेयकदेव की तैजसशरीरावगाहना के समान) समझनी चाहिए । Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ ] [प्रज्ञापनासूत्र विवेचन - सभी जीवों की तैससशरीरावगाहना - प्रस्तुत ७ सूत्रों (सू. १५४५ से १५५१ तक) में विभिन्न सांसारिक जीवों के तैजसशरीर की अवगाहना जब वह मारणान्तिकसमुद्घात किया हुआ हो, उस समय की अपेक्षा से प्रतिपादित की गई है । मारणान्तिकसुद्घात से समवहत जीव की तैजसशरीरावगाहना की तालिका इस प्रकार है विष्कम्भ-बाहल्य तैजसशरीरी जीव के नाम की अपेक्षा से आयाम की अपेक्षा से जघन्य-उत्कृष्ट १. समुच्चय जीवों की तै.श.अ. शरीरप्रमाणमात्र ज.-अंगुल के असंख्यातवें भाग की, उ. लोकान्त से लोकन्त तक २. एकेन्द्रियों की तै. श. अ. ३. विकलेन्द्रिय की तै. श. अ. " " " उ.-तिर्यक्लोकान्त तक ४. नारकों की तै. श. अ. ज.-सातिरेक सहस्रयोजन की उ.-अधःसप्तमनरक तक, तिर्यक्स्वयंभूरमण समुद्र तक और ऊपर पंडकवन की पुष्करिणी तक की. ५. तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों की तै. श. अ. " ज.-अंगुल के असं, भाग, उ.-तिर्यक् लोकान्त तक की ६. मनुष्यों की तै. श. अ. ज.-" " उ.-मनुष्यक्षेत्र तक ७. भवनपति, वाणव्यन्तर, ज.- " " उ.-नीचे तीसरी ज्योतिष्क और सौधर्म, ईशान नरक के अधस्तनचरमान्त तक, तिरछी स्वयंभू रमण तक, ऊपर ईषत्प्राग्भारा पृथिवी तक ८.सनत्कुमार से सहस्रार देव तक " ज.-अंगुल के असं.भाग, उ.-नीचे अधोलौकिक ग्राम तक, तिरछी स्वयम्भूरमण तक, ऊपर अच्युतकल्प तक ९. आनत-प्राणत-आरण देव तक " ज.-अंगुल के असं. भाग, उ.-नीचे अधोलौकिक ग्राम तक, तिरछी मनुष्यक्षेत्र तक, ऊपर अच्युतकल्प तक Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] [ ५१३ १०. अच्युतदेव की " " ऊपर स्वकीयविमान तक ११. ग्रैवेयक एवं अनुत्तर-विमान " ज.-विद्याधरश्रेणी तक, उत्कृष्ट नीचेअधोलौकिक देव की ग्राम तक, तिरछी मनुष्यक्षेत्र तक, ऊपर स्वविमान तक । लोगंताओ लोगंतो - लोकान्त से लोकान्त तक, अर्थात्-अधोलोक के चरमान्त से ऊर्ध्वलोक के चरमान्त तक, अथवा ऊर्ध्वलोक के चरमान्त से अधोलोक के चरमान्त तक । यह तैजसशरीरीय उत्कृष्ट अवगाहना सूक्ष्म या बादर एकेन्द्रिय के तैजसशरीर की अपेक्षा से समझनी चाहिए । क्योंकि सूक्ष्म और बादर एकेन्द्रिय ही यथायोग्य समस्त लोक में रहते हैं । अन्य जीव नहीं । इसलिए एकेन्द्रिय के सिवाय अन्य किसी जीव की इतनी अवगाहना नहीं हो सकती है । प्रस्तुत में तैजसशरीरीय अवगाहना मृत्यु के समय जीव को मरकर जिस गति या योनि में जाना होता है, वहाँ तक की लक्ष्य में रख कर बताई गई है । अतएव जब कोई एकेन्द्रिय जीव (सूक्ष्म या बादर) मृत्यु के समय अधोलोक के अन्तिम छोर में स्थित हो और ऊर्ध्वलोक के अन्तिम छोर में उत्पन्न होने वाला हो, अथवा वह मरणसमय में ऊर्ध्वलोक के अन्तिम छोर में स्थित हो और अधोलोक के अन्तिम छोर में उत्पन्न होने वाला हो और जब वह मारणान्तिक समुद्घात करता है, तब उसकी उत्कृष्ट अवगाहना लोकान्त से लोकान्त तक होती है । तिरियलोगाओलोगंतो-तिर्यक्लोक से लोकान्त तक अर्थात्-तिर्यग्लोक से अधोलोकान्त तक अथवा ऊर्ध्वलोकान्त तक । आशय यह है कि जब तिर्यग्लोक में स्थित कोई द्वीन्द्रिय जीव ऊर्ध्वलोकान्त या अधोलोकान्त में एकेन्द्रिय के रूप में उत्पन्न होने वाला हो और मारणान्तिकसमुद्घात करे, उस समय तैजसशरीर की पूर्वोक्त अवगाहना होती है । उड्ढं जाव पंडगवणे पुक्खरिणीओ - ऊपर-उ. अवगाहना पण्डकवन में स्थित पुष्करिणी तक की होती है । इसका आशय यह है कि सातवीं नरकपृथ्वी से लेकर तिरछी स्वयम्भूरमणसमुद्र-पर्यन्त और ऊपर पण्डकवन पुष्करिणी तक की अवगाहना तभी पाई जाती है जब सातवीं नरक का नारक स्वयम्भूरमणसमुद्र के पयार्यन्त-भाग में मत्स्यरूप में या पण्डकवन की पुष्करणियों में उत्पन्न होता है । तब उस सप्तमपृथ्वी के नारक की तैजसशरीरीय अवगाहना इतनी होती है । जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं - द्वीन्द्रिय के तैजसशरीर की अवगाहना आयाम की अपेक्षा से जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग की बताई गई है । इतनी अवगाहना द्वीन्द्रिय की तभी होती है, जब अंगुल के असंख्यातवें भाग वाला अपर्याप्त औदारिकशरीरी द्वीन्द्रिय अपने निकटवर्ती प्रदेश में एकेन्द्रिय रूप में उत्पन्न होता है अथवा जिस शरीर में स्थित होकर मारणान्तिकसमुद्घात करता है, उस शरीर से १. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. १, पृ. ३४५-३४६ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ ] [प्रज्ञापनासूत्र मारणान्तिकसमुद्घातवश बाहर निकले हुए तैजसशरीर के आयाम-विष्कम्भ एवं विस्तार की अपेक्षा से अवगाहना का विचार किया जाता है, उस शरीरसहित का नहीं, अन्यथा भवनपति आदि का जो जघन्यतः आयाम अंगुल का असंख्यातवें भाग का कहा गया है उससे विरोध आएगा । क्योंकि भवनपति आदि का शरीर सात आदि हस्तप्रमाण है । अतः यही उचित तथ्य होता है कि महाकाय द्वीन्द्रिय जीव भी जब अपने निकटवर्ती प्रदेश में एकेन्द्रिय रूप में उत्पन्न होता है, तब भी अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण उसकी तैजसशरीरावगाहना होगी, ऐसा समझना चाहिए । सातिरेगं जोयणसहस्सं - नारक के तैजसशरीर की अवगाहना आयाम की दृष्टि से जघन्य सातिरेक सहस्रयोजन की कही गई है । वह इस प्रकार समझनी चाहिए - वलयामुख आदि चार पातालकलश लाख योजन के अवगाह वाले हैं । उनकी ठीकरी एक हजार योजन मोटी है । उन पातालकलशों के नीचे का त्रिभाग वायु से परिपूर्ण है, ऊपर का त्रिभाग जल से परिपूर्ण है तथा मध्य का त्रिभाग वायु तथा जल के अनुसरण और नि:स्सरण का मार्ग है । जब कोई सीमन्तक आदि नरकेन्द्रकों में विद्यमान पातालकलंश का निकटवर्ती नारक अपनी आयु का क्षय होने से मर कर पातालकलश की एक हजार योजन मोटी दीवार का भेदन करके पातालकलश के भीतर दूसरे या तीसरे त्रिभाग में मत्स्यरूप में उत्पन्न होता है, तब मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत उस नारक की जघन्य तैजसशरीरावगाहना एक हजार योजन से कुछ अधिक होती है । समयखेत्ताओ लोगंतो - मनुष्य के तैजसशरीर की अवगाहना उत्कृष्टतः समयक्षेत्र से लोकान्त तक की कही है, अर्थात्-मनुष्य की तैजसशरीरावगाहना मनुष्यक्षेत्र से अधोलोक के चरमान्त तक या ऊर्ध्वलोक के चरमान्त तक समझनी चाहिए, क्योंकि मनुष्य का भी एकेन्द्रिय में उत्पन्न होना सम्भव है। तात्पर्य यह है कि मनुष्य का जन्म या संहरण समय क्षेत्र से अन्यत्र सम्भव नहीं है । अतः इससे अधिक उसको तैजसशरीरावगाहना नहीं हो सकती । इसे समयक्षेत्र इसलिए कहते हैं कि यह ढाईद्वीपप्रमाणक्षेत्र ही ऐसा है, जहाँ सूर्य आदि के संचार के कारण समय (काल) का व्यक्त व्यवहार होने से समयप्रधान क्षेत्र है। __वाणव्यन्तर से सौधर्म-ईशान तक के देवों की तैजसशरीरावगाहना - लम्बाई की अपेक्षा से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट नीचे तृतीय नरकपृथ्वी के अधस्तनचरमान्त तक की, तिरछी, स्वयम्भूरमणसमुद्र के बाह्य वेदिकान्त तक की और ऊपर ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी तक की कही गई है । इसका तात्पर्य यह है कि असुरकुमार आदि सभी भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क तथा सौधर्म-ईशानदेव एकेन्द्रियों में भी उत्पन्न होते है । जब वे च्यवन के समय अपने केयूर आदि आभूषणों में, कुण्डल आदि में या पद्मराग आदि माणियों में लुब्ध-मूछित होकर, उसी के अध्यवसाय में मग्न होकर अपने शरीर के उन्हीं निकटवर्ती आभूषणों में पृथ्वीकायिक के रूप में उत्पन्न होते हैं, तब उन देवों के तैजसशरीर की अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की होती है । १. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४२७-४२९ तक Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] [ ५१५ जब कोई भवनपति आदि देव प्रयोजनावश तृतीय नरकपृथ्वी के अधस्तन (नीचले) चरमान्त (अन्तिम छोर) प्रदेश में जाता है और आयु का क्षय होने से वहीं मर जाता है, तब तिरछे स्वयम्भूरमणसमुद्र के बाह्य वेदिकान्त में अथवा ईषत्प्राग्भारापृथ्वी के पर्यन्तभाग में पृथ्वीकायिक रूप में उत्पन्न होता है । उस समय उसकी तैजसशरीरावगाहना नीचे-तृतीय नरकपृथ्वी के चरमान्त तक, मध्य में स्वयम्भूरमण के बाह्य वेदिकान्त तक और ऊपर ईषत्प्रारभारापृथ्वी के पर्यन्त भाग तक की होती है। सनत्कुमारादि देवों की तैजसशरीरावगाहना - सनत्कुमार आदि देव अपने भवस्वभाववश एकेन्द्रियों में या विकलेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होते । वे पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों अथवा मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं । अतएव मन्दरपर्वत की पुष्करिणी आदि में जलावगाहन करते समय आयु का क्षय होने पर उसी स्थान में निकटवर्ती प्रदेश में मत्स्यरूप में उत्पन्न हो जाते हैं, तब उनके तैजसशरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की होती है । यदि कोई सनत्कुमारादि देव दूसरे देव के निश्राय से अच्युतकल्प में चला जाए और वहीं उसकी आयु का क्षय हो जाए तो वह काल करके तिरछे-स्वयम्भूरमणसमुद्र के पर्यन्तभाग में अथवा नीचे पातालकलश के दूसरे त्रिभाग में, मत्स्य आदि के रूप में जन्म ले लेता है, तब उसकी ऊपर, नीचे, और तिरछे. पर्वोक्त.तैजसशरीरावगाहना होती है. ऐसा समझना चाहिए । अच्युतदेवों की ऊर्ध्व तैजसशरीरावगाहना - अच्युतदेव ऊपर में अच्युतविमान तक ही रहता है। इसलिए उसकी तैजसशरीरावगाहना की प्ररूपणा करते समय ऊपर में अच्युतकल्प तक नहीं कहना चाहिए। यह देव अच्युतकल्प में रहता अवश्य है, किन्तु कदाचित् अपने विमान की ऊँचाई तक जाता है और वहीं आयुष्यक्षय हो जाता है तो च्यव कर अच्युतविमान के पर्यन्त में उत्पन्न होता है । तब उसकी इतनी तैजसशरीरावगाहना होती है । कार्मणशरीर में विधि-संस्थान-प्रमाणद्वार १५५२. कम्मगसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते । तं जहा - एगिदियकम्मगसरीरे जाव पंचेन्दिय ० । एवं जहेव तेयगसरीरस्स भेदो संठाणं ओगाहणा य भणिया (सु. १५३६-५१) तहेव णिरवसेसं भाणियव्वं जाव अणुत्तरोववाइय त्ति । [१५५२-प्र.] भगवन् ! कार्मणशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) पांच प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार - एकेन्द्रियकार्मणशरीर यावत् १. वही, पत्र ४२९ प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्राांक ४३० वही, पत्र ४३० ३. Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ ] [प्रज्ञापनासूत्र पंचेन्द्रिय कार्मण-शरीर । इस प्रकार जैसे तैजस-शरीर के भेद, संस्थान और अवगाहना का निरूपण (सू. १५३६ से १५५१ तक में) किया गया है, उसी प्रकार से सम्पूर्ण कथन (एकेन्द्रियकार्मणशरीर से लेकर) अनुत्तरौपपातिक (देवपंचेन्द्रिय कार्मणशरीर) तक करना चाहिए । विवेचन-कार्मणशरीर : तैजसशरीर का सहचर - जहाँ तैजसशरीर होगा, वहाँ कार्मणशरीर अवश्य होगा और जहाँ कार्मणशरीर होगा, वहाँ तैजसशरीर अवश्य होगा । दोनों का अविनाभावी सम्बन्ध है । तैजस-कार्मण दोनो की अवगाहना का विचार विशेषत: मारणान्तिकसमुद्घात को लक्ष्य में लेकर किया गया है । कार्मणशरीर भी तैजसशरीर की तरह जीवप्रदेशों के अनुसार संस्थानवाला है । इसलिए जैसे तैजसशरीर के प्रकार, संस्थान और अवगाहना के विषय में कहा गया है, वैसे ही कार्मणशरीर के प्रकार, संस्थान एवं अवगाहना के विषय में कथन का निर्देश किया गया है। पुद्गल-चयन-द्वार १५५३. ओरालियसरीरस्स णं भंते ! कतिदिसिं पोग्गला चिजति ? . गोयमा ! णिव्वाघाएणं छद्दिसिं, वाघातं पडुच्च सिय तिदिसिं सिय चउदिसिं सिय पंचदिसिं। [१५५३ प्र.] भगवन् ! औदारिकशरीर के लिए कितनी दिशाओं से (आकर) पुद्गलों का चय होता [उ.] गौतम ! निर्व्याघात की अपेक्षा से छह दिशाओं से, व्याघात की अपेक्षा से कदाचित् तीन दिशाओं से, कदाचित् चार दिशाओं से और कदाचित् पाँच दिशाओं से (पुद्गलों का चय होता है।) १५५४. वेउव्वियसरीरस्स णं भंते ! कतिदिसिं पोग्गला चिजंति ? गोयमा ! णियमा छद्दिसिं। [१५५४ प्र.] भगवन् ! वैक्रियशरीर के लिए कितनी दिशाओं से पुद्गलों का चय होता है ? [उ.] गौतम ! नियम से छह दिशाओं से (पुद्गलों का चय होता है ।) १५५५. एवं आहारगसरीस्स वि । [१५५५] इसी प्रकार (वैक्रियशरीर के समान) आहारकशरीर के पुद्गलों का चय भी नियम से छह दिशाओं से होता है । ... १५५६. तेया-कम्मगाणं जहा ओरालियसरीरस्स (सु. १५५३)। १. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र १३० (ख) पण्णवणासुत्तं (प्रस्तावनादि) भा. २, पृ. ११८ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] - [५१७ [१५५६] तैजस और कार्मण (शरीर के पुद्गलों का चय) [सू. १५५३ में उक्त] औदारिकशरीर के (पुद्गलों के चय के) समान (समझना चाहिए ।) १५५७. ओरालियसरीरस्स णं भंते ! कतिदिसिं पोग्गला उवचिजति ? गोयमा ! एवं चेव, जाव कम्मगसरीरस्स । [१५५७ प्र.] भगवन् ! औदारिकशरीर के पुद्गलों का उपचय कितनी दिशाओं से होता है ? [उ.] गौतम ! (जैसे चय के विषय में कहा है,) इसी प्रकार (उपचय के विषय में भी औदारिकशरीर • से लेकर) कार्मणशरीर (तक कहना चाहिए ।) १५५८. एवं उवचिजति (?) अवचिजति । [१५५८] (औदारिकशरीर आदि पांचों शरीरों के पुद्गलों का जिस प्रकार)उपचय होता है, उसी प्रकार (उनका) अपचय भी होता है । विवेचन - पांचों शरीरों के पुद्गलों के चय, उपचय-अपचय-सम्बन्धी विचारणा - प्रस्तुत चतुर्थ द्वार में ६ सूत्रों (१५५३ से १५५८ तक) में औदारिक आदि पांचों शरीरों के पुद्गलों के चय, उपचय एवं अपचय से सम्बन्धित विचारणा की गई है । चय, उपचय और अपचय की परिभाषा-चय का अर्थ है-पुद्गलों का संचित होना-समुदित या एकत्रित होना । उपचय का अर्थ है-प्रभूतरूप से चय होना, बढना, वृद्धिंगत होना । अपचय का अर्थ हैपुद्गलों का ह्रास होना, घट जाना या हट जाना । औदारिक, तैजस और कार्मण शरीरों के निर्माण, वृद्धि और ह्रास के लिए पुद्गलों का स्वयं चंय और उपचय किसी प्रकार का व्याघात (रूकावट या बाधा) न हो तो छहों दिशाओं (पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व और अधोदिशा) से आकर होता है और पुद्गल स्वयं अपचित होते हैं । आशय यह है कि त्रसनाडी के अन्दर या बाहर स्थित औदारिक, तैजस एवं कार्मण शरीर के धारक जीव जब एक भी दिशा अलोक, से व्याहत (रुकी हुई) नहीं होती तब नियम से छहों दिशाओं से पुद्गलों का आगमन या निर्गमन होता है । वैक्रियशरीर और आहारकशरीर त्रसनाडी में ही सम्भव होते हैं, अन्यत्र नहीं । वहाँ किसी प्रकार का अलोक का व्याघात नहीं होता, इस कारण उनके लिए पुद्गलों का चय-उपचय नियम से छहों दिशाओं से होता है।' किन्तु औदारिक, तैजस और कार्मण शरीर के पुद्गलों के आगमन में व्याघात हो, अर्थात् अलोक आ जाने से प्रतिस्खलन या रुकावट हो तो कदाचित् चार और कदाचित् पांच दिशाओं से उनके पुद्गलों का चय, १. (क) प्रज्ञापना, मलयवृत्ति, पत्र ४३२ (ख) प्रज्ञापना, प्रमेयबोधिनी टीका भा. ४, पृ.८०९ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ ] [प्रज्ञापनासूत्र उपचय होता है । तात्पर्य यह है कि यदि एक दिशा में अलोक आ जाए तो पांच दिशाओं से, दो दिशाओं में अलोक आ जाए तो चार दिशाओं से और यदि तीन दिशाओं में अलोक आ जाए तो तीन दिशाओं से पुद्गलों का चय-उपचय होता है । उदाहरणार्थ-कोई औदारिकशरीरधारी सूक्ष्मजीव हो और वह लोक के सर्वोच्च (सर्वोर्ध्व) प्रतर में आग्नेयकोणरूप लोकान्त में स्थित हो, जिसके ऊपर (लोकाकाश न हो, पूर्व तथा दक्षिण दिशा में भी लोक न हो, वह जीव अधोदिशा, पश्चिम और उत्तर दिशा, इन तीन दिशाओं से ही पुद्गलों का चय, उपचय करेगा क्योंकि शेष तीन दिशाएं अलोक से व्याप्त होती हैं । जब वही औदारिकशरीरी सूक्ष्म जीव पश्चिमदिशा में रहा हुआ हो, तब उसके लिए पूर्वदिशा अधिक हो जाती है, इस कारण चार दिशाओं से पुद्गलों का आगमन होगा । जब वह जीव अधोदिशा में द्वितीय आदि किसी प्रतर में रहा हुआ हो और पश्चिमदिशा का अवलम्बन लेकर स्थित हो, तब वहाँ ऊर्ध्वदिशा भी अधिक लब्ध हो तो केवल दक्षिणदिशा ही अलोक से व्याहत (रुकी हुई) होती है, इस कारण पांचों दिशाओं से वहां पुद्गलों का आगमन (चय) होता है। तैजस-कार्मणशरीर तो समस्त संसारी जीवों के होते हैं, इसलिए औदारिकशरीर की तरह उनका भी चय-उपचय समझना चाहिए । जिस प्रकार चय का कथन किया है, उसी प्रकार उपचय और अपचय का कथन करना चाहिए। शरीरसंयोगद्वार १५५९. जस्स णं भंते ! ओरालियसरीरं तस्स णं वेउव्वियसरीरं ? जस्स वेउव्वियसरीरं तस्स ओरालियसरीरं? गोयमा ! जस्स ओरालियसरीरं तस्स वेउब्वियसरीरं सिय अस्थि सिय णत्थि, जस्स वेउब्वियसरीरं तस्स ओरालियसरीरं सिय अस्थि सिय णत्थि । [१५५९. प्र.] भगवन् ! जिस जीव के औदारिकशरीर होता है, क्या उसके वैक्रियशरीर (भी) होता है ? (और) जिसके वैक्रियशरीर होता है, क्या उसके औदारिकशरीर (भी) होता है ? [उ.] गौतम ! जिसके औदारिकशरीर होता है, उसके वैक्रियशरीर कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं होता है (और) जिसके वैक्रियशरीर होता है, उसके औदारिकशरीर कदाचित् होता है, (तथा) कदाचित् नहीं होता है। १५६०. जस्स णं भंते ! ओरालियसरीरं तस्स आहारगसरीरं ? जस्स आहारगसरीरं तस्स १. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४३२ (ख) पण्णवणासुत्तं (प्रस्तावनादि) भा. २, पृ. ११८ (ग) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा.४, पृ.८०५-८०६ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] [५१९ ओरालियसरीरं? गोयमा ! जस्स ओरालियसरीरं तस्स आहारगसरीरं सिय अस्थि सिय णत्थि, जस्स पुण आहारगसरीरं तस्स ओरालियसरीरं णियमा अस्थि । । [१५६० प्र.] भगवन् ! जिसके औदारिकशरीर होता है, क्या उसके आहारकशरीर होता है ? तथा जिसके आहारकशरीर होता है उसके क्या औदारिकशरीर होता है ? [उ.] गौतम ! जिसके औदारिकशरीर होता है, उसके आहारकशरीर कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं भी होता है । किन्तु जिस जीव के आहारकशरीर होता है, उसके नियम से औदारिकशरीर होता है। १५६१. जस्स णं भंते ! ओरालियसरीरं तस्स तेयगसरीरं ? जस्स तेयगसरीरं तस्स ओरालियसरीरं ? गोयमा ! जस्स ओरालियसरीरं तस्स तेयगसरीरं णियमा अत्थि, जस्स पुण तेयगसरीरं तस्स ओरालियसरीरं सिय अस्थि सिय णत्थि । • [१५६१ प्र.] भगवन् ! जिसके औदारिकशरीर होता है, क्या उसके तैजसशरीर होता है ? तथा जिसके तैजसशरीर होता है, क्या उसके औदारिकशरीर होता है ? [उ.] गौतम ! जिसके औदारिकशरीर होता है, उसके नियम से तैजसशरीर होता है, और जिसके तैजसशरीर होता है, उसके औदारिकशरीर कदाचित् नहीं (भी) होता है । १५६२. एवं कम्मगसरीरं पि । ___ [१५६२] (औदारिकशरीर के साथ तैजसशरीर के संयोग के समान, औदारिकशरीर के साथ) कार्मणशरीर का संयोग भी समझ लेना चाहिए । १५६३. [१] जस्स णं भंते ! वेउव्वियसरीरं तस्स आहारगसरीरं ? जस्स आहारगसरीरं तस्स वेउव्वियसरीरं? ___ गोयमा ! जस्स वेउव्वियसरीरं तस्साहारगसरीरं ‘णत्थि, जस्स वि य आहारगसरीरं तस्स वि वेउब्वियसरीरं णत्थि । [१५६३-१ प्र.] भगवन् ! जिसके वैक्रियशरीर होता है, क्या उसके आहारकशरीर होता है ? तथा जिसके आहारकशरीर होता है, उसके क्या वैक्रियशरीर भी होता है ? [उ.] गौतम ! जिस जीव के वैक्रियशरीर होता है, उसके आहारकशरीर नहीं होता, तथा जिसके आहारकशरीर होता है, उसके वैक्रियशरीर नहीं होता है । Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० ] [प्रज्ञापनासूत्र [२] तेया-कम्माइं जहा ओरालिएण समं (सू. १५६१-६२) तहेव आहारगसरीरेण वि समं तेया-कम्माई चारेयव्वाणि । [१५६३-२] जैसे (सू. १५६१-१५६२ में) औदारिक के साथ तैजस एवं कार्मण (शरीर के संयोग) का कथन किया है, उसी प्रकार आहारकशरीर के साथ भी तैजस-कार्मणशरीर (के संयोग) का कथन करना चाहिए। १५६४. जस्स णं भंते ! तेयगसरीरं तस्स कम्मगसरीरं ? जस्स कम्मगसरीरं तस्स तेयगसरीरं? - गोयमा ! जस्स तेयगसरीरं तस्स कम्मगसरीरं नियमा अस्थि, जस्स वि कम्मगसरीरं तस्स वि तेवगसरीरं णियमा अस्थि । [१५६४ प्र.] भगवन् ! जिसके तैजसशरीर होता है, क्या उसके कार्मणशरीर होता है ? (तथा) जिसके कार्मणशरीर होता है, क्या उसके तैजसशरीर भी होता है ? [उ.] गौतम ! जिसके तैजसशरीर होता है, उसके कार्मणशरीर अवश्य ही (नियम से) होता है और जिसके कार्मणशरीर होता है, उसके तैजसशरीर भी होता है। विवेचन - शरीरों के परस्पर संयोग की विचारणा - संयोगद्वार के प्रस्तुत ६ सूत्रों (१५५९ से १५६४ तक) में एक जीव में औदारिकशरीर आदि पांच शरीरों में से कितने शरीर एक साथ संभव हैं? इसका विचार किया गया है। फलितार्थ - इन सब सूत्रों का फलितार्थ इस प्रकार है१. औदारिक के साथ-वैक्रिय आहारक, तैजस, कार्मण संभव हैं । २. वैक्रिय के साथ-औदारिक, तैजस, कार्मण, शरीर संभव हैं । ३. आहारक के साथ-औदारिक, तैजस, कार्मण शरीर संभव हैं । ४. तैजस के साथ-औदारिक, वैक्रिय, आहारक कार्मण शरीर संभव हैं । ५. कार्मण के साथ-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस शरीर संभव है । स्पष्टीकरण-(१) जिसके औदारिकशरीर होता है, उसके वैक्रियशरीर विकल्प से होता है । क्योंकि । वैक्रियलब्धिसम्पन्न कोई औदारिकशरीरी जीव यदि वैक्रियशरीर बनाता है, तो उसके वैक्रियशरीर होता है । जो जीव वैक्रियलब्धिसम्पन्न नहीं है, अथवा वैक्रियलब्धियुक्त होकर भी वैक्रियशरीर नहीं बनाता, उसके १. पण्णवणासुत्तं (प्रस्तावनादि) भा. २, पृ. ११८ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] [५२१ वैक्रियशरीर नहीं होता । देव और नारक वैक्रियशरीरधारी होते हैं, उनके औदारिकशरीर नहीं होता, किन्तु जो तिर्यञ्च या मनुष्य वैक्रियशरीर वाले होते हैं, उनके औदारिकशरीर होता है । (२) जिनके औदारिकशरीर होता है, उनके आहारकशरीर होता भी है, नहीं भी होता है । जो चतुर्दशपूर्वधारी आहारकलब्धिसम्पन्न मुनि है, उसके आहारकशरीर होता है, शेष औदारिकशरीरधारी मनुष्यों को नहीं होता । इसी प्रकार जिसके आहारकशरीर होता है उसके औदारिकशरीर अवश्य होता है, क्योंकि औदारिकशरीर के बिना आहारकलब्धि नहीं होती है । वैक्रियशरीर के साथ आहारकशरीर या आहारकशरीर के साथ वैक्रिशरीर कदापि संभव नहीं है । (३) जिसके औदारिक होता है, उसके तैजस-कार्मणशरीरों का होना अवश्यम्भावी है, किन्तु जिसके तैजस-कार्मणशरीर होते हैं उसके औदारिकशरीर होता भी है, नहीं भी होता है, क्योंकि देवों और नारकों के तैजस-कार्मणशरीर होते हुए भी औदारिकशरीर नहीं होता। इसी प्रकार जिस जीव के वैक्रियशरीर होता है, उसके तैजस-कार्मणशरीर अवश्य होते हैं, किन्तु जिस जीव के तैजस-कार्मणशरीर होते हैं उसके वैकिय शरीर होता भी हैं, नहीं भी होता, क्योंकि देव-नारकों के तैजसकार्मणशरीर होते हैं और वैक्रियशरीर भी प्रत्येक देव नाटक को होता है किन्तु तिर्यञ्चों और मनुष्यों के वैक्रियशरीर जन्म से नहीं होता, मगर तैजसकार्मणशरीर तो अवश्य होते हैं। (४) तैजसशरीर जिसके होता है उसके औदारिक होता भी है, नहीं भी होता, क्योंकि मनुष्य-तिर्यञ्च के औदारिकशरीर होता है, तैजसशरीर भी, जबकि वैक्रियशरीरी देवों नारकों के तैजसशरीर तो होता ही है, किन्तु औदारिक नहीं होता । इसी प्रकार जिसके औदारिकशरीर होता है, उसके तैजस-कार्मणशरीर अवश्यम्भावी होते हैं, क्योकि तैजस-कार्मणशरीर के बिना औदारिकशरीर असम्भव है । इसी प्रकार तैजस और कार्मण दोनों परस्पर अविनाभावी हैं । जिसके तैजसशरीर होगा, उसके कार्मणशरीर अवश्य होगा । जिसके कार्मणशरीर होगा, उसके तैजस अवश्य होगा । द्रव्य-प्रदेश-अल्पबहुत्वद्वार १५६५. एतेसि णं भंते ! ओरालिय-वेउव्विय-आहारग-तेया-कम्मगसरीराणं दव्वट्ठयाए पएसट्ठयाए दव्वट्ठपएसट्टयाए कतरे कतरेहितो अप्पा वा ४ ? गोयमा ! सव्वत्थोवा आहारगसरीरा दव्वट्ठयाए वेउव्वियसरीरा दव्वट्ठायाए असंखेजगुणा, ओरालियसरीरा दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा, तेया-कम्ममसरीरा दो वि तुल्ला दव्वट्ठयाए अणंतगुणा; पएसट्टयाए-सव्वत्थोवा आहारगसरीरा पएसट्टयाए, वेउव्वियसरीरा पदेसट्ठयाए असंखेजगुणा, ओरालियसरीरा पदेसट्टयाए असंखेजगुणा, तेयगसरीरा पदेसट्टयाए अणंतगुणा, कम्मगसरीरा पदेसट्टयाए अणंतगुणा; दव्वट्ठपदेसट्टयाए-सव्वत्थोवा आहारगसरीरा दव्वट्ठयाए, वेउव्वियसरीरा दव्वट्ठयाए १. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४३२ (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनीटीका भा.४, पृ.८१२-८१३ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ ] [ प्रज्ञापनासूत्र असंखेज्जगुणा, ओरालियसरीरा दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा, ओरालियसरीरेहिंतो दव्वट्टयाए आहारगसरीरा परसट्टयाए अनंतगुणा, वेडव्वियसरीरा पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा, ओरालियसरीरा पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा, तेया- कम्मगसरीरा दो वि तुल्ला दव्वट्टयाए अनंतगुणा, तेयगसरीरा पदेसट्टयाए अनंतगुणा, कम्मगसरीरा पदेसट्टयाए अनंतगुणा । [ १५६५ प्र.] भगवन् ! औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण, इन पांच शरीरों में से, द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से तथा द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से, कौन, किससे अल्प, बहुत तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? [उ.] गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से - सबसे अल्प आहारकशरीर हैं । (उनसे) वैक्रियशरीर, द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगुणा हैं । (उनसे) औदारिकशरीर द्रव्य की अपेक्षा से, असंख्यातगुणा हैं । तैजस और कार्मण शरीर दोनों तुल्य (बराबर) हैं, (किन्तु औदारिकशरीर से) द्रव्य की अपेक्षा से अनन्तगुणा हैं । प्रदेशों की अपेक्षा से - सबसे कम प्रदेशों की अपेक्षा से आहारकशरीर हैं । ( उनसे ) प्रदेशों की अपेक्षा से वैक्रियशरीर असंख्यातगुणा हैं । (उनसे) प्रदेशों की अपेक्षा से औदारिकशरीर असंख्यातगुणा हैं । (उनसे) तैजसशरीर प्रदेशों की अपेक्षा से अनन्तगुणा हैं । (उनसे ) कार्मणशरीर प्रदेशों की अपेक्ष अनन्तगुणा हैं । द्रव्य एवं प्रदेशों की अपेक्षा से - द्रव्य की अपेक्षा से, आहारकशरीर सबसे अल्प हैं- (उनसे) वैक्रियशरीर द्रव्यों की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं । (उनसे) औदारिकशरीर, द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं । औदारिकशरीरों से द्रव्य की दृष्टि से आहारकशरीर प्रदेशों की अपेक्षा से अनन्तगुणा हैं । (उनसे) वैक्रियशरीर प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणा हैं (उनसे) औदारिकशरीर प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणा हैं । तैजस और कार्मण, दोनों शरीर द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य (बराबर-बराबर ) हैं तथा द्रव्य की अपेक्षा से अनन्तगुणे हैं । (उनसे) तैजसशरीर प्रदेशों की अपेक्षा से अनन्तगुणा हैं । (उनसे ) कार्मणशरीर प्रदेशों की अपेक्षा से अनन्तगुणा हैं । - विवेचन - शरीरों की अल्पबहुत्वविचारणा : द्रव्य, प्रदेश तथा द्रव्य और प्रदेश की दृष्टि से प्रस्तुत सूत्र (१५६५) मकें पूर्वोक्त पांचों शरीरों के अल्पबहुत्व की विचारणा की गई है । स्पष्टीकरण - द्रव्यापेक्षया अर्थात् - शरीरमात्र द्रव्य की संख्या की दृष्टि से सबसे अल्प आहारकशरीर इसलिए है कि आहारकशरीर उत्कृष्ट संख्यात हों तो भी सहस्रपृथक्त्व (दो हजार से नौ हजार तक) ही होते हैं । समस्त आहारकशरीरों की अपेक्षा वैक्रियशरीर द्रव्यदृष्टि से असंख्यातगुणा अधिक होते हैं, क्योंकि सभी नारकों, सभी देवों, कतिपय तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों, कतिपय मनुष्यों एवं बादर वायुकायिकों के वैक्रियशरीर होते. हैं । समस्त वैक्रियशरीरों की अपेक्षा औदारिकशरीर द्रव्यदृष्टि से (शरीरों की संख्या की दृष्टि से) असंख्यातगुणा अधिक होते हैं, क्योंकि औदारिकशरीर समस्त पंच स्थावरों, तीन विकलेन्द्रियों, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों और Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] [ ५२३ मनुष्यों के होते हैं और फिर पृथ्वी-अप्-तेज-वायु-वनस्पतिकायिकों में से प्रत्येक असंख्यात लोकाकाशप्रमाण हैं । तैजस और कार्मण दोनों शरीर संख्या में समान हैं, फिर भी वे औदारिकशरीरों की अपेक्षा से · अनन्तगुणे हैं, क्योंकि औदारिकशरीरधारियों के उपरान्त वैक्रियशरीरधारियों के भी तैजस-कार्मणशरीर होते हैं तथा सूक्ष्म एवं बादर निगोद जीव अनन्तानन्त हैं, उनके औदारिकशरीर एक होता है किन्तु तैजसकार्मणशरीर पृथक्-पृथक् होते हैं ।' प्रदेशों (शरीर के प्रदेशों-परमाणुओं) की दृष्टि से विचार किया जाए तो सबसे कम आहारकशरीर हैं, क्योंकि सहस्रपृथक्त्व संख्या वाले आहारकशरीरों के प्रदेश अन्य सभी शरीरों के प्रदेशों की अपेक्षा कम ही होते हैं । यद्यपि वैक्रियवर्गणाओं की अपेक्षा आहारकवर्गणा परमाणुओं की अपेक्षा से अनन्तगुणी होती है, तथापि आहारकशरीरों से वैक्रियशरीरों के प्रदेश असंख्यातगुणा इसलिए कहे गए हैं कि एक तो आहारकशरीर केवल एक हाथ का ही होता है, जबकि बहुत वर्गणाओं से निर्मित वैक्रियशरीर उत्कृष्टतः एक लाख योजन से भी अधिक प्रमाण का हो सकता है । दूसरे, आहारकशरीर संख्या में भी कम, सिर्फ सहस्रपृथक्त्व होते हैं, जबकि वैक्रियशरीर असंख्यात-श्रेणीगत आकाशप्रदेशों के बराबर होते हैं । इस कारण आहारकशरीरों की अपेक्षा वैक्रियशरीर प्रदेशों की दृष्टि से असंख्यातगुणे कहे गए हैं । उनसे औदारिकशरीर प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणे इसलिए कहे गए हैं कि वे असंख्यात लोकाकाशों के बराबर पाए जाते हैं, इस कारण उनके प्रदेश अति प्रचुर होते हैं । उनसे तैजसशरीर प्रदेशों की दृष्टि से अनन्तगुणा अधिक होते हैं, क्योंकि वे द्रव्यदृष्टि से औदारिकशरीरों से अनन्तगुणा हैं । तैजसशरीरों की अपेक्षा कार्मणशरीर प्रदेशों की दृष्टि से अनन्तगुणा हैं, क्योंकि कार्मणवर्गणाएँ तैजसवर्गणाओं की अपेक्षा परमाणुओं की दृष्टि से अनन्तगुणी होती हैं।' ____ द्रव्य और प्रदेश-दोनों की दृष्टि से विचार करने पर भी द्रव्यापेक्षया सबसे कम आहारकशरीर हैं, वैक्रियशरीर द्रव्यापेक्षया असंख्यातगुणा अधिक हैं, उनसे भी औदारिकशरीर द्रव्यतः असंख्यातगुणे हैं, यहाँ भी वही पूर्वोक्त युक्ति है । द्रव्यतः औदारिकशरीरों की अपेक्षा प्रदेशतः आहारकशरीर अनन्तगुणे हैं, क्योंकि औदारिकशरीर सब मिल कर भी असंख्यात लोकाकाश प्रदेशों के बराबर हैं, जबकि प्रत्येक आहारकशरीरयोग्य वर्गणा में अभव्यों से अनन्तगुणा परमाणु होते हैं । उनकी अपेक्षा भी वैक्रियशरीर प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं । उनसे भी औदारिकशरीर प्रदेशतः असंख्यातगुणे हैं, इस विषय में युक्ति पूर्ववत् है । उनसे भी तैजसकार्मणशरीर द्रव्यापेक्षया अनन्तगुणे हैं, क्योंकि वे अतिप्रचुर अनन्त संख्या से युक्त हैं । उनसे भी तैजसशरीर प्रदेशतः अनन्तगुणे अधिक हैं, क्योंकि अनन्त-परमाण्वात्मक अनन्तवर्गणाओं से प्रत्येक तैजसशरीर १. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४३३-४३४ (ख) प्रज्ञापना, प्रमेयबोधिनी टीका भा. ४, पृ. ८२२-८२३ प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४३४ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ ] [प्रज्ञापनासूत्र निष्पन्न होता है । उनसे भी कार्मणशरीर प्रदशतः अनन्तगुणे हैं । इस विषय में युक्ति पूर्ववत् समझ लेनी चाहिए । शरीरावगाहना-अल्पबहुत्व-द्वार १५६६. एतेसि णं भंते ! ओरालिय-वेउव्विय-आहारग-तेया-कम्मगसरीराणं जहणियाए ओगाहणाए उक्कोसियाए ओगाहणाए जहण्णुक्कोसियाए ओगाहणाए कतरे कतरेहितो अप्पा वा४? गोयमा ! सव्वत्थोवा ओरालियसरीरस्स जहणिया ओगाहणा, तेया-कम्मगाणं दोण्ह वितुल्ला जहणिया ओगाहणा विसेसाहिया, वेउव्वियसरीरस्स जहणिया ओगाहणा असंखेजगुणा, आहारगसरीरस्स जहणिया ओगाहणा असंखेजगुणा; उक्कोसियाए ओगाहणाए-सव्वत्थोवा आहारगसरीरस्स उक्कोसिया ओगाहणा, ओरालियसरीरस्स उक्कोसिया ओगाहणा संखेजगुणा, वेउव्वियसरीरस्स उक्कोसिया ओगाहणा असंखेजगुणा, तेया-कम्मगाणं दोण्ह वितुल्ला उक्कोसिया ओगाहणा असंखेजगुणा; जहण्णुक्कोसियाए ओगाहणाए-सव्वत्थोवा ओरालियसरीरस्स जहणिया ओगाहणा, तेया-कम्मगाणं दोण्ह वि तुल्ला जहणिया ओगाहणा विसेसाहिया, वेउव्वियसरीरस्स जहण्णिया ओगाहणा असंखेजगुणा, आहारगसरीरस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज़गुणा, आहारगसरीरस्स जहणियाहिंतो ओगाहणाहिंतो तस्स चेव उक्कोसिया ओगाहणा विसेसाहिया, ओरालियसरीरस्स उक्कोसिया ओगाहणा संखेजगुणा, वेउव्वियसरीरस्स णं उक्कोसिया ओगाहणा संखेजगुणा, तेया-कम्मगाणं दोण्ह वि तुल्ला उक्कोसिया ओगाहणा असंखेजगुणा। ॥पण्णवणाए भगवतीए एगवीसइमं ओगाहणसंठाणपयं समत्तं ॥ । [१५६६ प्र.] भगवन् ! औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण, इन पांच शरीरों में से, जघन्य-अवगाहना, उत्कृष्ट-अवगाहना एवं जघन्योत्कृष्ट-अवगाहना की दृष्टि से, कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [उ.] गौतम ! सबसे कम औदारिकशरीर की जघन्य अवगाहना है । तैजस और कार्मण, दोनों शरीरों की अवगाहना परस्पर तुल्य है, (किन्तु औदारिकशरीर की) जघन्य अवगाहना से विशेषाधिक है । (उससे) वैक्रियशरीर की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । (उससे) आहारकशरीर की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । उत्कृष्ट अवगाहना की दृष्टि से- सबसे कम आहारकशरीर की उत्कृष्ट अवगाहना होती है । (उससे) औदारिकशरीर की उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है । उसकी अपेक्षा वैक्रियशरीर की उत्कृष्ट अवगाहना असंख्यातगुणी है । तैजस और कार्मण, दोनों की उत्कृष्ट अवगाहना परस्पर तुल्य है, (किन्तु वैक्रियशरीर ३. वही, पत्र ४३४ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहमा-संस्थान-पद] [५२५ की) उत्कृष्ट अवगाहना से असंख्यातगुणी है । ___ जघन्योत्कृष्ट अवगाहना की दृष्टि से- सबसे कम औदारिकशरीर की जघन्य अवगाहना है । तैजस और कार्मण, दोनों शरीरों की जघन्य अवगाहना एक समान है, किन्तु औदारिकशरीर की जघन्य अवगाहना की अपेक्षा विशेषाधिक है । (उससे) वैक्रियशरीर की जघन्य अवगाहना असंख्यात गुणी है । (उससे) आहारकशरीर की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । आहारकशरीर की जघन्य अवगाहना से उसी की उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक है । (उससे) औदारिकशरीर की उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है । (उससे) वैक्रियशरीर की उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है । तैजस और कार्मण दोनों शरीरों की उत्कृष्ट अवगाहना समान है, परन्तु वह वैक्रियशरीर की उत्कृष्ट अवगाहना से असंख्यातगुणी है । विवेचन - पांचों शरीरों की अवगाहनाओं का अल्पबहुत्व- प्रस्तुत सूत्र (१५६६) में सप्तम द्वार के सन्दर्भ में पांचों शरीरों की जघन्य-उत्कृष्ट अवगाहनाओं के अल्पबहुत्व की विचारणा की गई है । __ अवगाहनाओं के अल्पबहुत्व का आशय - औदारिकशरीर की जघन्य अवगाहना सबसे कम है क्योंकि वह अंगुल के असंख्यातवें भागमात्रप्रमाण होती है । तैजस और कार्मण की जघन्यावगाहना परस्पर तुल्य होते हुए भी औदारिक की जघन्यावगाहना से विशेषाधिक इसलिए है कि मारणानितकसमुद्घात से समवहत जीव जब पूर्वशरीर से बाहर निकले हुए तैजसशरीर की अवगाहना की आयाम (ऊँचाई), बाहल्य (मोटाई) और विस्तार (चौड़ाई) से विचारणा की जाती है, ऐसी स्थिति में जिस प्रदेश में वे जीव उत्पन्न होंगे वह प्रदेश औदारिकशरीर की अवगाहना से प्रमित अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण, व्याप्त होता है और अतीव अल्प बीच का प्रदेश भी व्याप्त होता है । इसलिए औदारिक की जघन्य अवगाहना से तैजसकार्मणशरीर की जघन्य अवगाहना विशेषाधिक हुई । आहारकशरीर की जघन्य अवगाहना देशोन हस्तप्रमाण और उत्कृष्ट अवगाहना भी एक हाथ की है । उससे औदारिकशरीर की उत्कृष्टावगाहना संख्यातगुणी है, क्योंकि वह सातिरेक सहस्रयोजन प्रमाण है। वैक्रियशरीर की उत्कृष्ट अवगाहना सातिरेक लक्षयोजन होने से वह इससे संख्यातगुणी अधिक है । तैजस-कार्मणशरीर की उत्कृष्ट अवगाहना समान होने पर भी वैक्रियशरीर की उत्कृष्ट अवगाहना से असंख्यातगुणी अधिक है, क्योंकि वह १४ रज्जुप्रमाण है । शेष स्पष्ट है । ॥ प्रज्ञापना भगवती का इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद सम्पूर्ण ॥ १. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४३४-४३५ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावीसइमं : किरियापयं बाईसवाँ क्रियापद प्राथमिक . यह प्रज्ञापना सूत्र का बाईसवाँ क्रियापद है । इसमें विविध दृष्टियों से क्रियाओं के सम्बन्ध में गम्भीर चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। + क्रिया सम्बन्धी विचार भारत के प्राचीन दार्शनिकों में होता आया हैं। क्रियाविचारकों में ऐसे भी लोग थे, जो क्रिया से पृथक् किसी कर्मरूप आवरण को मानते ही नहीं थे। उनके ज्ञान को विभंगज्ञान कहा गया भारतवर्ष में प्राचीनकाल से 'कर्म' अर्थात्- वासना या संस्कार को माना जाता था, जिसके कारण पुनर्जन्म होता है। आत्मा के जन्म-जमान्तर की अथवा संसारचक्र-परिवर्तन की कल्पना के साथ कर्म की विचारणा अनिवार्य थी। किन्तु प्राचीन उपनिषदों में यह विचारणा क्वचित् ही पाई जाती है, जबकि जैन और बौद्ध साहित्य में, विशेषतः जैन-आगमों में कर्म' की विचारणा विस्तृत रूप से पाई जाती है। + प्रस्तुत प्रज्ञापनासूत्र का क्रियाविचार क्रिया के सम्बन्ध में अनेक पहलुओं से हुई विचारणा का संग्रह है। यहाँ क्रियाविचार का क्रम इस प्रकार है - सर्वप्रथम क्रिया के कायिकी आदि पांच भेद और प्रभेद, सिर्फ हिंसा-अहिंसा के विचार को लक्ष्य में रख कर बताए गए हैं। . उसके पश्चात् क्रिया को कर्मबन्ध का कारण परिलक्षित करके जीवों की सक्रियता-अक्रियता के सम्बन्ध में प्रश्न किया गया है। अक्रिय अर्थात् क्रियाओं से सर्वथा रहित को ही कर्मों से सर्वथा मुक्त सिद्ध और सर्वश्रेष्ठ माना गया है। . उसके बाद अठारह पापस्थानों से होने वाली क्रियाओं (प्रकारान्तर से कर्मों) तथा उनके विषयों का १. देखिये स्थानांगसूत्र ५४२ २. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. १, पृ. ३५० ३. वही, पृ. ३५० Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ क्रियापद ] [५२७ निरूपण किया गया है । इसीलिए प्राणातिपात आदि के अध्यवसाय से सात या आठ कर्मों के बन्ध का उल्लेख किया गया है। फिर जीव के ज्ञानावरणीयादि कर्मबन्ध करते समय कितनी क्रियाएँ होती हैं ? इसका विचार प्रस्तुत किया गया है। यहाँ १८ पापस्थान की क्रियाओं को ध्यान में न लेकर सिर्फ पूर्वोक्त ५ क्रियाएँ ही ध्यान में रखी हैं। परन्तु वृत्तिकार ने स्पष्टीकरण किया है कि इन प्रश्नों का आशय यह है कि जीव जब प्राणातिपात द्वारा कर्म बाँधता हो, तब उस प्राणातिपात की समाप्ति कितनी क्रियाओं से होती है। वृत्तिकार यह भी स्पष्ट किया है कि कायिकी आदि क्रम से तीन, चार या पांच क्रियाएँ समझनी चाहिए । तत्पश्चात् एक जीव, एक या अनेक जीवों की अपेक्षा से तथा अनेक जीव, एक या अनेक जीवों की अपेक्षा से कायिकी आदि क्रियाओं में से कितनी क्रियाओं वाला होता है ? दूसरे जीव की अपेक्षा से कायिकी आदि क्रियाएँ कैसे लग जाती हैं, इसका स्पष्टीकरण वृत्तिकार यों करते हैं कि केवल वर्तमान जन्म में होने वाली कायिकी आदि क्रियाएँ यहाँ अभिप्रेत नहीं हैं, किन्तु अतीत जन्म के शरीररादि से अन्य जीवों द्वारा होने वाली क्रिया भी यहाँ विवक्षित है, क्योंकि जिस जीव ने भूतकालीन काया आदि की विरति नहीं स्वीकारी, अथवा शरीरादि का प्रत्याख्यान ( व्युत्सर्ग या ममत्वत्याग) नहीं किया, उस शरीरादि से जो कुछ निर्माण होगा या उसके द्वारा अन्य जीव जो कुछ क्रिया करेंगे, उसके लिए वह जिम्मेवार होगा, क्योंकि उसने शरीरादि का ममत्व त्याग नहीं किया। + इसके बाद चौबीसदण्डकवर्ती जीवों में पांचों क्रियाओं की प्राप्ति बताई है। इसके बाद पश्चात् २४ दण्डकों में कायिकी आदि पांचों क्रियाओं के सहभाव की चर्चा की गई है। साथ ही कायिकी आदि पांचों क्रियाओं को आयोजिका (संसारचक्र में जोड़ने वाली) के रूप में बताकर इनके सहभाव की चर्चा की गई है। + + इसके पश्चात् एक जीव में एक जीव की अपेक्षा से पांचों क्रियाओं में से स्पृष्ट- अस्पृष्ट रहने की चर्चा की गई है। इसके अनन्तर क्रियाओं के प्रकारान्तर से आरम्भिकी आदि ५ भेंद बताकर किस जीव में कौन-सी क्रिया पाई जाती है ? इसका उल्लेख किया है। इसके पश्चात् चौबीसदण्डकों में इन्हीं क्रियाओ की प्ररूपणा की गई है। फिर जीवों में इन्हीं पांच क्रियाओं के सहभाव की चर्चा की गई है। अन्त में समय, देशप्रदेश को लेकर भी इनके सहभाव की चर्चा की गई हैं। १. पण्णवणासुत्तं मूलपाठटिप्पण, पृ. ३५१-३५२ २. वही, पृ. ३५३ - ३५४ ३. वही, पृ. ३५५ - ३५६ ४. वही, पृ. ३५६- ३५७ वही, पृ. ३५७, ३५८, ३५९ ५. Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ ] [ प्रज्ञापनासूत्र इसके पश्चात् प्राणतिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक १८ पापस्थानों से कौन-सा जीव विरत हो सकता है ? तथा प्राणातिपातादि से विरमण किस विषय में होता है ? इत्यादि विचारणा की गई है । इसके बाद यह विचारणा एकवचन और बहुवचन के रूप में की गई है कि प्राणातिपात आदि १८ पापस्थानों से विरत जीव कितनी - कितनी कर्मप्रकृतियों का बंध कर सकता है ? इसमें बंध के अनेक भंग (विकल्प) बताए हैं। ४. तत्पश्चात् यह चर्चा प्रस्तुत की गई है कि प्राणातिपात आदि पापस्थानों से विरत सामान्य जीव में या चौबीसदण्डक के किस जीव में ५ क्रियाओं में से कौन-कौनसी क्रियाएँ होती हैं ? ५. अन्त में, आरम्भिकी आदि पांचों क्रियाओं के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है। इस अल्पबहुत्व का आधार यह है कि कौन-सी क्रिया कम अथवा अधिक प्राणियों के है ? मिथ्यादृष्टि के तो प्रथम मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया होती है जबकि अप्रत्याख्यानक्रिया अविरत सम्यग्दृष्टि एवं मिथ्यादृष्टि दोनों के होती है। इसी दृष्टि से आगे की क्रियाएँ उत्तरोत्तर अधिक बताई गई हैं। इस समस्त क्रियाविवरण से इतना स्पष्ट है कि कायिकी आदि पांच, १८ पापस्थानों से निष्पन्न क्रियाएँ तथा आरम्भिकी आदि पांच क्रियाएँ प्रत्येक जीव के आत्मविकास में अवरोधरूप हैं, इनका त्याग आत्मा को मुक्त एवं स्वतन्त्र करने के लिए आवश्यक है । भगवतीसूत्र में स्पष्ट बताया गया है, श्रमण को भी जब प्रमाद और योग है, तब तक क्रिया लगती है। जहाँ तक क्रिया है, वहाँ तक मुक्ति नहीं है । परन्तु इस समग्र क्रियाविवरण में ईर्यापथिक और साम्परायिक ये जो क्रिया के दो भेद बाद में प्रचलित हुए हैं, उन्हें स्थान नहीं मिला। यह क्रियाविचार की प्राचीनता सूचित करता है। ९. २. ३. वही, पृ. ३६१-३६२ इसके अतिरिक्त स्थानांगसूत्र में सूचित २५ क्रियाएँ अथवा सूत्रकृतांग में वर्णित २३ क्रियास्थानों का प्रज्ञापना के क्रियापद में उक्त प्राणातिपात आदि २८ पापस्थानजन्य क्रियाओं में समावेश हो जाता है। कुछ का समावेश कायिकी आदि ५ में तथा आरम्भिकी आदि ५ में हो जाता है ।" वही, पृ. ३५९ पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ - टिप्पण), पृ. ३६० भगवती० ३।३, सू. १५१, १५२, १५३ (क) स्थानांग, स्थान ५, सू. ४१९ (ख) सूत्रकृतांग २ |२ ++ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावीसइमं : किरियापयं बाईसवाँ क्रियापद क्रिया- भेद-प्रभेदप्ररूपणा १५६७. कति णं भंते ! किरियाओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! पंच किरियाओ पण्णत्ताओ । तं जहा- काइया १ आहिगरणिया २ पादोसिया ३ पारियावणिया ४ पाणाइवातकिरिया ५ । [१५६७ प्र.] भगवन् ! क्रियाएँ कितनी कही गई हैं ? [उ.] गौतम ! क्रियाएँ पांच कही गई हैं, यथा- (१) कायिकी, (२) आधिकरणिकी, (३) प्राद्वेषिकी, (४) पारितापनिकी और (५) प्राणतिपातक्रिया । १५६८. काइया णं भंते ! किरिया कतिविहा पण्णत्ता ? गोमा ! दुविहा पण्णत्ता । तं जहा- अणुवरयकाइया य दुप्पउत्तकाइया य । [१५६८ प्र.] भगवन् ! कायिकी क्रिया कितने प्रकार की कही गई है ? - [उ.] गौतम ! (वह) दो प्रकार की कही गई है। यथा अनुपरतकायिकी और दुष्प्रयुक्तकायिकी । १५६९. आहिगरणिया णं भंते! किरिया कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता । तं जहा- संजोयणाहिकरणिया य निव्वत्तणाहिकरणिया य । [१५६९ प्र.] भगवन् ! आधिकरणिकीक्रिया कितने प्रकार की कही गई है ? [उ.] गौतम ! ( वह) दो प्रकार की कही गई है, वह इस प्रकार - संयोजनाधिकरणिकी और निर्वर्त्तनाधिकरणिकी। १५७०. पादोसिया णं भंते ! किरिया कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता । तं जहा जेणं अप्पणो वा परस्स वा तदुभयस्स वा असुर्भ मणं पहारेसि । से त्तं पादोसिया किरिया । [ १५७० प्र.] भगवन् ! प्राद्वेषिकीक्रिया कितने प्रकार की कही गई है ? - Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० ] [ प्रज्ञापनासूत्र [उ.] गौतम (वह) तीन प्रकार की कही गई है, वह इस प्रकार जिससे स्व का, पर का अथवा स्वपर दोनों का मन अशुभ कर दिया जाता है, वह (त्रिविध) प्राद्वेषिकी क्रिया है । १५७१. पारियावणिया णं भंते ! किरिया कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता । तं जहा- जेणं अप्पणो वा परस्स वा तदुभयस्स वा असायं वेदणं उदीरेति । से तं पारियावणिया किरिया । - [१५७१ प्र.] भगवन् ! पारितापनिकी क्रिया कितने प्रकार की कही गई है ? [उ.] गौतम ! ( वह) तीन प्रकार की कही गई है, जैसे- जिस प्रकार से स्व के लिए, पर के लिए या स्व-पर दोनों के लिए असाता (दुःखरूप) वेदना उत्पन्न की जाती है, वह है- (त्रिविध) पारितापनिकी क्रिया । १५७२. पाणातिवातकिरिया णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता । तं जहा- जेणं अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा जीवियाओ ववरोवे । सेत्तं पाणाइवायकिरिया । [१५७२ प्र.] भगवन् ! प्राणातिपातक्रिया कितने प्रकार की कही गई है ? [उ.] गौतम ! (वह) तीन प्रकार की कही गई है, यथा- ( ऐसी क्रिया) जिससे स्वयं को दूसरे को, अथवा स्व-पर दोनों को जीवन से रहित कर दिया जाता है, वह (त्रिविध) प्राणातिपातक्रिया है । विवेचन - हिंसा की दृष्टि से क्रियाओं के भेद-प्रभेद - प्रस्तुत ६ सूत्रों ( १५६७ से १५७२ तक) में क्रियाओं के मूल ५ भेद और उनके उत्तरभेदों का निरूपण हिंसा-अहिंसा की दृष्टि से किया गया है। क्रियाओं का विशेषार्थ - क्रिया : दो अर्थ- (१) करना, (२) कर्मबन्ध की कारणभूत चेष्टा । कायिकी - काया से निष्पन्न होने वाली। आधिकरणिकी- जिससे आत्मा नरकादि दुर्गतियों में अधिकृतस्थापित की जाए, वह अधिकरण- एक प्रकार का दूषित अनुष्ठानविशेष । अथवा तलवार, चक्र आदि बाह्य हिंसक उपकरण । अधिकरण से निष्पन्न होने वाली क्रिया आधिकरणिकी। प्राद्वेषिकी- प्रद्वेष- यानी मत्सर, कर्मबन्ध का कारण जीव का अकुशल परिणाम - विशेष । प्रद्वेष से होने वाली प्राद्वेषिकी । पारितापनिकीपरितापना अर्थात् पीड़ा देना। परितापना से या परितापना में होने वाली प्राद्वेषिकी । प्राणतिपातिकी - इन्द्रियादि १० प्राणों में से किसी प्राण का अतिपात - विनाश, प्राणातिपात । प्राणातिपात - विषयक क्रिया । अनुपरतकायिकीदेशत: या सर्वतः सावद्ययोगों से जो विरत हो वह उपरत। जो उपरत - विरत न हो, वह अनुपरत । अर्थात् काया से प्राणातिपातादि से देशत: या सर्वतः विरत न होना अनुपरतकायिकी । यह क्रिया अविरत को लगती है । दुष्प्रयुक्तकायिकी - काया आदि का दुष्ट प्रयोग करना । यह क्रिया, प्रमत्तसंयत को लगती है, क्योंकि प्रमत्त होने पर काया का दुष्प्रयोग सम्भव है। संयोजनाधिकरणिकी- पूर्व निष्पादित हल, मूसल, शस्त्र, विष आदि हिंसा के कारणभूत उपकरणों का संयोग मिलाना संयोजना है। वही संसार की कारणभूत होने से संयोजनाधिकरणिकी है। यह क्रिया पूर्व निर्मित हलादि हिंसोपकरणों के संयोग मिलाने वाले को लगती है। Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ क्रियापद ] [ ५३१ निर्वर्त्तनाधिकरणिकी- खङ्ग, भाला आदि हिंसक शस्त्रों का मूल से निर्माण करना निर्वर्त्तना है । यह संसार को वृद्धिरूप होने से निर्वर्त्तनाधिकरणिकी कहलाती है। प्राणातिपातक्रिया- किसी प्रकार से आत्महत्या करना, अथवा प्रद्वेषादिवश दूसरों को या दोनों को प्राण से रहित करना, यह त्रिविध प्राणातिपातक्रिया है । पारितापनिकी क्रिया : शंका-समाधान - जो तप या अन्य अनुष्ठान अशक्य हो, जिस तप के करने मन में दुर्ध्यान पैदा होता हो, इन्द्रियों की हानि हो, मन-वचन-काया के योग उत्पथ पर चलें या एकदम क्षीण हो जाएँ, वह तपश्चरण या कायकष्ट पारितापनिकी क्रिया में है । परन्तु जिससे दुर्ध्यान न हो, जिसका परिणाम आत्महितकर हो, कर्मक्षय करने की उमंग हो, उन्नत भावना हो, वहाँ पारितापनिकीक्रिया नहीं होती। जीवों के सक्रियत्व अक्रियित्व की प्ररूपणा १५७३. जीवा णं भंते ! किं सकिरिया अकिरिया ? गोयमा ! जीवा सकिरिया वि अकिरिया वि । . से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चति जीवा सकिरिया वि अकिरिया वि ? गोमा ! जीवा दुविहा पण्णत्ता । तं जहा संसारसमावण्णगा य असंसारसमावण्णगा य । तत्थ णं जे ते असंसारसमावण्णगा ते णं सिद्धा, सिद्धा णं अकिरिया । तत्थ णं जे ते संसारसमावण्णगा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- सेलेसिपडिवण्णगा य असेलेसिपडिवण्णगा य । तत्थ णं जे ते सेलेसिपडिवण्णगा ते णं अकिरिया । तत्थ णं जे ते असेलेसिपडिवण्णग़ा ते णं सकिरिया । से एतेणट्टेणं गोयमा । एवं वुच्चति जीवा सकिरिया वि अकिरिया वि। - [ १५७३ प्र.] भगवन् ! जीव सक्रिय होते हैं, अथवा अक्रिय (क्रियारहित ) होते हैं ? [उ.] गौतम ! जीव सक्रिय (क्रिया - युक्त) भी होते हैं और अक्रिय (क्रियारहित) भी होते हैं । [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा गया है कि जीव सक्रिय भी होते हैं और अक्रिय भी होते हैं? [उ.] गौतम ! जीव दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा- संसारसमापन्नक और असंसारसमापन्नक । उनमें से जो असंसारसमापन्नक हैं, वे सिद्ध जीव हैं। सिद्ध (मुक्त) अक्रिय ( क्रियारहित) होते हैं और उनमें से जो संसारसमापन्नक हैं, वे भी दो प्रकार के हैं - शैलेशीप्रतिपन्नक और अशैलेशीप्रतिपन्नक। उनमें से जो शैलेशीप्रतिपन्नक होते हैं, वे अक्रिय हैं और जो अशैलेशी - प्रतिपन्नक होते हैं, वे सक्रिय होते हैं । हे गौतम ! इसी कारण १. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४३६, २. वही, पत्र ४३६ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२] [प्रज्ञापनासूत्र ऐसा कहा जाता है कि जीव सक्रिय भी हैं और अक्रिय भी हैं। - विवेचन - जीवों की सक्रियता-अक्रियता का निर्धारणता - प्रस्तुत सूत्र (१५७३) में जीवों को सक्रिय और अक्रिय दोनों प्रकार का बताकर उनका विश्लेषणपूर्वक निर्धारण किया गया है। पारिभाषिक शब्दों के अर्थ - सक्रिय- पूर्वोक्त क्रियाओं से युक्त, या क्रियाओं में रत। अक्रियसमस्त क्रियाओं से रहित। संसारसमापनक - चतुर्गति भ्रमणरूप संसार को प्राप्त- युक्त। असंसारसमापनक - उससे विपरीतमुक्त। सिद्धों की अक्रियता- सिद्ध देह एवं मनोवृत्ति आदि से रहित होने से पूर्वोक्त क्रिया से रहित हैं, इसलिए वे अक्रिय हैं। शैलेशीप्रतिपन्नक- अयोगी-अवस्था को प्राप्त । शैलेशीप्रतिपन्नकों के सूक्ष्म-बादर काय, वचन और मन के योगों का निरोध हो जाता है, इस कारण वे अक्रिय हैं। अशैलेशीप्रतिपन्नक-शैलेशी-अवस्था से रहित समस्त संसारी प्राणीगण, जिनके मन, वचन, काया के योगों का निरोध नहीं हुआ है। वे सक्रिय हैं।' जीवों की प्राणातिपातादिक्रिया तथा विषय की प्ररूपणा १५७४. अत्थि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कजति ? . हंता गोयमा ! अस्थि । कम्हि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कजति ? गोयमा ! छसु जीवणिकाएसु। [१५७४ प्र.] भगवन् ! क्या जीवों को प्राणातिपात (के अध्यवासय) से प्राणातिपातक्रिया लगती है ? [उ.] हाँ, गौतम ! (प्राणतिपातक्रिया संलग्न) होती है। [प्र.] भगवन् ! किस (विषय) में जीवों को प्राणातिपात (के अध्यवसाय) से प्राणातिपातक्रिया लगती [उ.] गौतम ! छह जीवनिकायों (के विषय) (में लगती है।) १५७५.[१] अस्थि णं भंते ! णेरइयाणं पाणाइवाएणं किरिया कज्जति ? गोयमा ! एवं चेव। [१५७५-१ प्र.] भगवन् ! क्या नारकों को प्राणातिपात (के अध्यवसाय) से प्राणातिपात क्रिया लगती हैं? [उ.] (हाँ) गौतम ! ऐसा (पूर्ववत्) ही है। १. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४६७ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ क्रियापद ] [५३३ [२] एवं जाव निरंतरं वेमाणियाणं । [१५७५-२] इसी प्रकार (नारकों के आलाप के समान) (नारकों से लेकर) निरन्तर वैमानिकों तक का (आलाप कहना चाहिए।) १५७६. [१] अस्थि णं भंते ! जीवाणं मुसावाएणं किरिया कजति ? हंता! अस्थि । कम्हि णं भंते ! जीवाणं मुसावाएणं किरिया कजति ? गोयमा ! सव्वदव्वेसु। [१५७६-१] भगवन् ! क्या जीवों को मृषा (के अध्यवसाय) से (मृषावाद-) क्रिया लगती है? [उ.] हाँ, गौतम ! मुषावादक्रिया संलग्न होती है। [प्र.] भगवन् ! किस विषय में मृषावाद के अध्यवसाय से मृषावाद-क्रिया लगती है ? [उ.] गौतम ! सर्वद्रव्यों के (विषय) में (मृषा० क्रिया लगती है।) [२] एवं णिरंतरं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं । [१५७३-२] इसी प्रकार (पूर्वोक्त कथन के समान) नैरयिकों से लेकर लगातार वैमानिकों (तक) का (कथन करना चाहिए।) १५७७. [१] अस्थि णं भंते ! जीवाणं अदिण्णादाणेणं किरिया कजति ? हंता अत्थि। कम्हि णं भंते ! जीवाणं अदिण्णादाणेणं किरिया कजति ? गोयमा ! गहण-धारणिज्जेसु दव्वेसु। [१५७७-१ प्र.] भगवन् ! क्या जीवों को अदत्तादान (के अध्यवसाय) से अदत्तादान- (क्रिया) लगती है ? [उ.] हाँ, गौतम ! (अदत्तादान-क्रिया संलग्न) होती है। [प्र.] भगवन् ! किस (विषय) में जीवों को अदत्तादान (के अध्यवसाय) से (अदत्तादान-) क्रिया लगती हैं ? [उ.] गौतम ! ग्रहण और धारण करने योग्य द्रव्यों (के विषय) में (यह क्रिया होती है।) [२] एवं णेरइयाणं णिरंतरं जाव वेमाणियाणं । [१५७७-२] इसी प्रकार (समुच्चय जीवों के आलापक के समान) नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४] [प्रज्ञापनासूत्र की (अदत्तादानक्रिया का कथन करना चाहिए।) १५७८.[१] अस्थि णं भंते ! जीवाणं मेहुणेणं किरिया कजति ? हंता ! अस्थि । कम्हि णं भंते ! जीवाणं मेहुणेणं किरिया कजति ? गोयमा ! रूवेसु वा रूवसहगतेसु वा दव्वेसु । [१५७८-१ प्र.] भगवन् ! क्या जीवों को मैथुन (के अध्यवसाय) से (मैथुन-) क्रिया लगती है? [उ.] हाँ, ! (गौतम !) (मैथुनक्रिया संलग्न) होती है । [प्र.] भगवन् ! किस (विषय) में जीवों के मैथुन (के अध्यवसाय) से (मैथुन-) क्रिया लगती है ? [उ.] गौतम ! रूपों अथवा रूपसहगत (स्त्री आदि) द्रव्यों (के विषय) में (यह क्रिया लगती है ।) [२] एवं णेरइयाणं णिरंतरं जाव वेमाणियाणं । [१५७८-२] इसी प्रकार (समुच्चय जीवों के मैथुनक्रियाविषयक आलापकों के समान नैरयिकों से लेकर निरन्तर (लगातार) वैमानिकों तक (मैथुनक्रिया के आलापक कहने चाहिए।) १५७९.[१] अत्थि णं भंते ! जीवाणं परिग्गहेणं किरिया कजइ ? हंता ! अस्थि । कम्हि णं भंते ! जीवाणं परिग्गहेणं किरिया कजति ? गोयमा ! सव्वदव्वेसु। [१५७९-१ प्र.] भगवन् ! क्या जीवों के परिग्रह (के अध्यवसाय) से (परिग्रह-) क्रिया लगती है ? [उ.] हाँ, गौतम ! (परिग्रहक्रिया लगती) है। [प्र.] भगवन् ! किस (विषय) में जीवों के परिग्रह (के अध्यवसाय) से (परिग्रह-) क्रिया लगती है? [उ.] गौतम ! समस्त द्रव्यों (के विषय) में (यह क्रिया लगती है।) [२] एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं । [१४७९-२] इसी तरह (समुच्चय जीवों के परिग्रह-क्रियाविषयक आलापकों के समान) नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक (परिग्रह-क्रिया-विषयक आलापक कहने चाहिए।) १५८०. एवं कोहेणं माणेणं मायाए लोभेणं पेजेणं दोसेणं कलहेणं अब्भक्खाणेणं पेसुण्णेणं परपरिवाएणं अरतिरतीए मायामोसेणं मिच्छादसणसल्लेणं सव्वेसु जीव-णेरइयभेदेसु भाणियव्वं Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ क्रियापद ] .. [५३५ णिरंतरं जाव वेमाणियाणं ति। एवं अट्ठारस एते दंडगा १८। [१५८०] इसी प्रकर क्रोध से, मान से, माया से, लोभ से, राग (प्रेय) से, द्वेष से, कलह से, अभ्याख्यान. से, पैशुन्य से, परपरिवाद से, अरति-रति से, मायामृषा से एवं मिथ्यादर्शनशल्य (के अध्यवसाय) से (लगने वाली क्रोधादि क्रियाओं के विषय में पूर्ववत्) समस्त (समुच्चय) जीवों तथा नारकों के भेदों से (लेकर) लगातार वैमानिकों तक के (क्रीधादिक्रियाविषयक आलापक) कहने चाहिए। इस प्रकार ये (अठारह पापस्थानों के अध्यवसाय से लगने वाली क्रियाओं के) अठारह दण्डक (आलापक) हुए। विवेचन - अठारह पापस्थानों से जीवों को लगने वाली क्रियाओं की प्ररूपणा - प्रस्तुत सात सूत्रों (१५७४ से १५८० तक) में प्राणतिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक के अध्यवसाय से समुच्चय जीवों तथा चौबीस दण्डकवर्ती जीवों को लगने वाली इन क्रियाओं तथा इन क्रियाओं के पृथक् पृथक् विषयों की प्ररूपणा की गई है। प्राणतिपातक्रिया : कारण और विषय- सूत्र १५७४ गत प्रश्न का आशय यह है - जीवों के, प्राणातिपात से, अर्थात् प्राणातिपात के अध्यवसाय से प्राणातिपात क्रिया की जाती है, अर्थात्- होती है। इसका फलितार्थ यह है कि प्राणातिपात (हिंसा) की परिणति (अध्यवसाय- परिणाम) के काल में ही प्राणातिपात क्रिया हो जाती है, यह कथन ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से किया गया है। प्रत्येक क्रिया अध्यवसाय के अनुसार ही होती है। क्योंकि पुण्य और पाप कर्म का उपादान-अनुपादान अध्यवसाय पर ही निर्भर है; इसीलिए भगवान् ने भी इन सब प्रश्नों का उत्तर ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से दिया है कि प्राणातिपात के अध्यवसाय से प्राणातिपातक्रिया होती है। इसी प्रकार का आगमनवचन है- "परिणामिय पमाणं निच्छयमवलंबमाणाणं" इसी वचन के आधार पर आवश्श्यकसूत्र में भी कहा गया है- "आया चेव अहिंसा, आया हिंसत्ति निच्छओ एस" (आत्मा ही अहिंसा है, आत्मा ही हिंसा है, इस प्रकार का यह निश्यचनय का कथन है।) निष्कर्ष यह है कि प्राणातिपातक्रिया प्राणातिपात के आध्यवसाय से होती है। इसी प्रकार शेष १७ पापस्थानकों के अध्यवसाय से मृषावादादि क्रियाएँ होती हैं, यह समझ लेना चाहिए। प्रस्तुत सुत्र के अन्तर्गत दूसरा प्रश्न है - वह प्राणातिपातक्रिया किस विषय में होती है ? अर्थात्प्राणातिपातक्रिया के कारणभूत अध्यवसाय का विषय षट्जीवनिकाय बताया गया है। क्योंकि मारने का अध्यवसाय जीवविषयक होता है, वह भी 'यह सांप है' इस बुद्धि से प्रवृत्ति होने से जीवविषयक ही है। इसीलिए कहा गया कि प्राणातिपातक्रिया षट्जीवनिकायों में होती है। इसी प्रकार मृषावाद आदि शेष १७ पापस्थानों के अध्यवसाय से होने वाली मृषावादादि क्रिया विभिन्न विषयों को लेकर होती है, यह मूलपाठ से ही समझ लेना चाहिए। मृषावाद : स्वरूप और विषय - सत् का अपलाप और असत् का प्ररूपण करना मृषावाद है। १. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४३७-४३८. Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र मृषावाद का अध्यवसाय लोकगत और अलोकगत समस्त-वस्तु-विषयक होना सम्भव है। इसलिए कहा गया है- 'सव्वदव्वेसु' सर्वद्रव्यों के विषय में मृषावादक्रिया का कारणभूत अध्यवसाय होता है। द्रव्य ग्रहण के उपलक्षण से 'सर्वपर्यायों' के विषय में भी समझ लेना चाहिए। अदत्तादान आदि क्रिया के विषय - अदत्तादान उसी वस्तु का हो सकता है, जो वस्तु ग्रहण या धारण की जा सकती है; इसलिए अदत्तादानक्रिया अन्य वस्तुविषयक नहीं होती, अतः कहा गया है'गहणधारणिज्जेसु दव्वेसु।' मैथुनक्रिया का कारणभूत मैथुनाध्यवसाय भी चित्र, काष्ठ, भित्ति, मूर्ति, पुतला आदि के रूपों या रूपसहगत स्त्री आदि विषयों में होता है। परिग्रह का अर्थ है- स्वत्व या स्वामित्व भाव से मूर्छा । वह प्राणियों के अन्तर में स्थित लोभवश समस्तवस्तुविषयक हो सकती है। इसीलिए कहा गया हैसव्वदव्वेसु । अभ्याख्यानादि के अर्थ एवं विषय- अभ्याख्यान- असद् दोषारोपण; यथा- अचोर को तू चोर है' कहना। पैशुन्य- किसी के परोक्ष में झूठे या सच्चे दोष प्रकट करना, चुगली खाना। परपरिवाद- अनेक लोगों के समक्ष दूसरे के दोषों का कथन करना। मायामृषा- मायासहित झूठ बोलना। यह महाकर्मबन्ध का हेतु है। मिथ्यादर्शनशल्य-मिथ्यात्वरूप तीक्ष्ण कांटा। अठारह पापस्थानकों में ५ महाव्रतों के अविरति रूप पांच पापस्थानक हैं। शेष पापस्थानों का इन्हीं पांचों में समावेश हो जाता है। ___ अट्ठारस एए दंडगा- ये (पूर्वोक्त पदों में उल्लिखित) दण्डक (आलापक) अठारह हैं। प्राणातिपादादि पापस्थान १८ होने से अठारह पापस्थानों को लेकर जीवों की क्रिया और उसके विषयों का यहां निर्देश किया गया है। क्रियाहेतुक कर्मप्रकृतिबन्ध की प्ररूपणा . १५८१.[१] जीवे णं भंते ! पाणाइवाएणं कति कम्मपगडीओ बंधति ? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंधए वा। [१५८१-१ प्र.] भगवन् ! (एक) जीव (प्राणातिपातक्रिया के कारणभूत) प्राणातिपात (के अध्यवसाय) से कितनी कर्मप्रकृतियाँ बाँधता है ? [उ.] गौतम ! सात अथवा आठ कर्मप्रकृतियाँ बाँधता है। [२] एवं णेरइए जाव णिरंतरं वेमाणिए। १. वही, मलयवृत्ति, पत्र ४३८ २. वही, मलयवृत्ति, पत्र ४३८ ३. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४३८ ४. वही, मलयवृत्ति, पत्र ४३८ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ क्रियापद ] [ ५३७ [१५८१-२] इसी प्रकारि (सामान्य जीव के प्राणातिपात से बंधने वाली कर्मप्रकृतियों के निरूपण के समान) एक नैरयिक से लेकर एक वैमानिक देव तक के ( प्राणातिपात के अध्यवसाय से होने वाली कर्मप्रकृतियों के बन्ध का कथन करना चाहिए।) १५८२. जीवा णं भंते ! पाणाइवाएणं कति कम्मपगडीओ बंधंति ? गोमा ! सत्तत्तविहबंधधगा वि अट्ठविहबंधगा वि । [१५८२ प्र.] भगवन् ! (अनेक) जीव प्राणतिपात से कितनी कर्मप्रकृ तियाँ बांधते हैं ? [उ.]. गौतम ! वे सप्तविध (कर्मप्रकृतियाँ) बाँधते हैं या अष्टविध (कर्मप्रकृतियाँ) बाँधते हैं। १५८३. [ १ ] णेरइया णं भंते ! पाणाइवाएणं कति कम्मपगडीओ बंधंति ? गोयमा ! सव्वे वि ताव होज्जा सत्तविहबंधगा, अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगे य, अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य । [१५८३-१ प्र.] भगवन् ! (अनेक) नारक प्राणातिपात से कितनी कर्मप्रकृतियाँ बाँधते हैं ? [उ.] गौतम ! वे नारक सप्तविध ( कर्मप्रकृतियाँ) बांधते हैं अथवा (अनेक नारक) सप्तप्तविध (कर्मप्रकृतियों के) बन्धक होते हैं और (एक नारक) अष्टतिवध (कर्म - ) बन्धक होता है, अथवा (अनेक नारक) सप्तविध कर्मबन्धक होते हैं और ( अनेक) अष्टविध कर्मबन्धक भी । [२] एवं असुरकुमारा वि जाव थणियकुमारा । [१५८३-२] इसी प्रकार (पूर्वोक्त सूत्र के कथन के अनुसार) असुरकुमारों से लेकर स्तनिकुमार तक (के प्राणातिपात के अध्यवसाय से होने वाले कर्म-प्रकृतिबन्ध के तीन-तीन भंग समझने चाहिए।) [ ३ ] पुढवि-आड-तेउ - वाउ - वणस्सइकाइया य, एते सव्वे वि जहा ओहिया जीवा (सु. १५८२ ) । [१५८३-३] पृथ्वी-अप्-तेजो-वायु-वनस्पतिकायिक जीवों के (प्राणतिपात से होने वाले कर्मप्रकृतिबन्ध) के विषय में (सू. १५८२ में उक्त) औधिक (सामान्य- अनेक) जीवों के (कर्मप्रकृतिबन्ध के) समान ( कहना चाहिए।) [४] अवसेसा जहा णेरड्या । [१५८३-४] अवशिष्ट समस्त जीवों (वैमानिकों तक के, प्रणातिपात से होने वाले कर्म-प्रकृतिबन्ध विषय में) नैरयिकों के समान ( कहना चाहिए । ) १५८४. [ १ ] एवं एते जीवेगिंदियवज्जा तिण्णि तिणि भंगा सव्वत्थ भाणियव्व त्ति जाव मिच्छादंसणसल्लेणं । Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ ] प्रज्ञापनासूत्र [१५८४-१] इस प्रकार समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर (शेष दण्डकों के जीवों के प्रत्येक के) तीन-तीन भंग सर्वत्र कहने चाहिए तथा (मृषावाद से लेकर) मिथ्यादर्शनशल्य तक (के अध्यवसायों) से ( होने वाले कर्मबन्ध का भी कथन करना चाहिए ।) [२] एवं एगत्त- पोहत्तिया छत्तीसं दंडगा होंति । [१५८४-२] इस प्रकार एकत्व और पृथक्त्व को लेकर छत्तीस दण्डक होते हैं । विवेचन - प्राणातिपातादि से होने वाले कर्मबन्ध की प्ररूपणा प्रस्तुत चार सूत्रों ( १५८१ से १५८४ तक) में प्राणातिपादि क्रियाओं के कारणभूत प्राणातिपातादि के अध्यवसाय से होने वाले कर्मप्रकृतिबन्ध की प्ररूपणा की गई है। सप्तविध बन्ध और अष्टविध बन्ध कब और क्यों ? एक जीव सप्तविधकर्मबन्ध करता है या अष्टविध कर्मबन्ध करता है। इसका कारण यह है कि जब आयुष्यकर्म-बन्ध नहीं होता तब सात कर्मप्रकृतियों का और आयुष्यकर्मबन्धकाल में आठ कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है । यह एकत्व की दृष्टि से विचार किया गया है। पृथक्त्व की दृष्टि से विचार करने पर सामान्य बहुत-से जीव या सप्तविधबन्धक पाए जाते हैं या अष्टविधबन्ध। ये दोनों जगह सदैव अधिक संख्या में मिलते हैं। नैरयिकसूत्र में सप्तविध बन्धक हैं ही; क्योंकि हिंसादि परिणामों से युक्त नारक सदैव बहुत संख्या में उपलब्ध होते हैं। इसलिए उनके सप्तविधबन्धकत्व में कोई सन्देह नहीं है। जब एक भी आयुष्यबन्धक नहीं होता, तब सभी सप्तविधबन्धक होते हैं। जब एक आयुष्यबन्धक होता है, तब दोनों में उभयगत बहुवचन का रूप होता हैं। जब अष्टविधबन्धक बहुत-से मिल हैं, तब दोनों में उभयगत बहुवचन का रूप होता है। अर्थात् अनेक सप्तविधबन्धक और अनेक अष्टविधबन्धक । इस प्रकार तीन भंगों से असुरकुमार आदि दस प्रकार के भवनपति तक का कथन करना चाहिए। पृथ्वीकायिकादि पांच स्थावर प्राय: हिंसा के परिणामों में परिणत होते हैं, इसलिए सदैव अनेक पाए जाते हैं तथा वे सप्तविधबन्धक या अष्टविधबन्धक होते हैं। शेष द्वि- त्रि- चतुरिन्द्रिय, तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय, मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिकों का कथन भंगत्रिक के साथ नैरयिकों की तरह करना चाहिए ।' - एगत्तपोहत्तिया छत्तीस दंडगा० - प्राणातिपात से मिथ्यादर्शनशल्य तक १८ पापस्थानकों के एकत्व पृथक् के भेद से प्रत्येक के दो-दो दण्डक होने से १८ ही पापस्थानकों के कुल ३६ दण्डक होते हैं। जीवादि के कर्मबन्ध को लेकर क्रियाप्ररूपणा १. २. १५८५. [ १ ] जीवे णं भंते ! णाणावरणिज्जं कम्मं बंधमाणे कतिकिरिए ? गोमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए। प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४४० वही, पत्र ४४० Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ क्रियापद ] (५३९ [१५८५-१ प्र.] भगवन् ! (एक जीव ज्ञानावरणीय कर्म को बांधता हुआ (कायिकी आदि पांच क्रियाओं में से) कितनी क्रियाओं वाला होता है ? [उ.] गौतम ! (वह) कदाचित् तीन क्रियाओं वाला, कदाचित् चार क्रियाओं वाला और कदाचित् पांच क्रियाओं वाला होता है। [२] एवं णेरइए जाव वेमाणिए। [१५८५-२] इसी प्रकार एक नैरयिक से लेकर (एक) वैमानिक (तक के आलापक कहने चाहिए।) १५८६.[१] जीवा णं भंते ! णाणावरणिज्ज कम्मं बंधमाणा कतिकिरिया ? गोयमा ! तिकिरिया वि चउकिरिया वि पंचकिरिया वि। [१५८६-१ प्र.] भगवन् ! (अनेक) जीव ज्ञानावरणीय कर्म को बांधते हुए, कितनी क्रियाओं वाले होते [उ.] गौतम ! (वे) कदाचित् तीन क्रियाओं वाले, कदाचित् चार क्रियाओं वाले और कदाचित् पांच क्रियाओं वाले भी होते हैं। [२] एवं णेरइया निरंतरं जाव वेमाणिया। [१५८६-२] इस प्रकार (सामान्य अनेक जीवों के आलापक के समान) नैरयिकों से (लेकर) लगातार वैमानिकों तक (के आलापक कहने चाहिए।) १५८७. [१] एवं दरिसणावरणिजं वेयणिज्जं मोहणिजं आउयं णामं गोयं अंतराइयं च अट्ठविहकम्मपगडीओ भाणियव्वाओ। ___ [१५८७-१] इस प्रकार (ज्ञानावरणीय कर्म के समान) दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तरायिक, इन आठों प्रकार की कर्मप्रकृतियों को (बांधता हुआ एक जीव या एक नैरयिक से यावत् वैमानिक, अथवा बांधते हुए अनेक जीवों या अनेक नैरयिकों से यावत् वैमानिकों को लगने वाली क्रियाओं के आलापक कहने चाहिए।) [२] एगत्त-पोहत्तिया सोलस दंडगा। [१५८७-२] एकत्व और पृथक्त्व के (आश्रयी कुल) सोलह दण्डक होते हैं। विवेचन - अष्टविध कर्मबन्धाश्रित क्रियाप्ररूपणा - प्रस्तुत त्रिसूत्री (सू. १५८५ से १५८७ तक) में जीवों के द्वारा प्राणातिपातादि के कारण ज्ञानावरणीयादि कर्म बांधते हुए क्रियाओं के लगने की संख्या की प्ररूपणा की गई है। प्रस्तुत प्रश्न का आशय - इसी पद में पहले कहा गया था कि जीव प्राणातिपात आदि पापस्थानों के Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४०] [प्रज्ञापनासूत्र अध्यवसाय से सात या आठ कर्मों को बांधता है; प्रस्तुत में यह बताया गया है कि वह ज्ञानावरणीयादि कर्म बांधता हुआ कायिकी आदि कितनी क्रियाओं से प्राणातिपात को समाप्त करता है ? तथा यहाँ ज्ञानावरणीय नाम कर्मरूप कार्य से प्राणातिपात नामक कारण का निवृत्तिभेद भी बताया गया है। उस भेद से बन्धविशेष भी प्रकट किया गया है। कहा भी है- तीन, चार या पांच क्रियाओं से क्रमशः हिंसा समाप्त (पूर्ण) की जाती है, किन्तु यदि योग और प्रद्वेष का साम्य हो तो इसका विशिष्ट बन्ध होता है। उत्तर का आशय- उसी प्राणातिपात का निवृत्तिभेद बताते हुए उत्तर में कहा गया है- कदाचित् वह तीन क्रियाओं वाला होता है, इत्यादि। जब तीन क्रियाओं वाला होता है, तब कायिकी आधिकरणिकी और प्राद्वेषिकी क्रियाओं से प्राणतिपात को समाप्त करता है। कायिकी से हाथ पैर आदि का प्रयोग (प्रवृत्ति या व्यापार) करता है, आधिकरणिकी से तलवार आदि को जुटाता है या तेज या ठीक करता है, तथा प्राद्वेषिकी से 'उसे मारू' इस प्रकार का मन में अशुभ सम्प्रधारण (विचार) करता है। जब वह चार क्रियाओं से युक्त होता है, तब कायिकी, आधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी क्रियाओं के उपरान्त चौथी 'पारितापनिकी' क्रिया से युक्त भी हो जाता है, अर्थात्-खङ्ग आदि के प्रहार (घात) से पीडा पहँचा कर पारितापनिकी क्रिया से भी युक्त हो जाता है। जब वह पांच क्रियाओं से युक्त होता है, तब पूर्वोक्त चार क्रियाओं के अतिरिक्त पांचवीं प्राणातिपातिकी क्रिया से भी युक्त हो जाता है। अर्थात् उसे जीवन से रहित करके प्राणातिपातक्रिया वाला भी हो जाता है।' . "तिकिरिए' आदि पदों का आशय - जीव ज्ञानावरणीय कर्म को बांधते हुए सदैव बहुत-से होते हैं, इस कारण तीन क्रियाओं वाले भी होते हैं, चार क्रियाओं वाले भी और पांच क्रियाओं वाले भी होते हैं। इस प्रकार एक जीव, एक नैरयिकादि, तथा अनेक जीव या अनेक नैरयिकादि चौवीस दण्डककर्ती जीवों को लेकर क्रियाओं की चर्चा की गई है। सोलह दण्डक- ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों (कर्मप्रकृतियों) के बन्ध को लेकर प्रत्येक कर्म के आश्रयी एकत्व और पृथक्त्व के भेद से दो-दो दण्डक कहने चाहिए। इस प्रकार सब दण्डकों की संख्या १६ होती हैं। जीवादि में एकत्व और पृथक्त्व से क्रियाप्ररूपणा १५८८. जीवे णं भंते ! जीवाओ कतिकिरिए ? १. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४४० २. तिसृभिश्चतसृभिरथ पञ्चभिश्च (क्रियाभिः) हिंसा सामाप्यते क्रमशः । बन्धोऽस्य विशिष्टः स्याद्, योग-प्रद्वेषसाम्यं चेत्॥ - प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पं. ४४० ३. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४४० ४. वही, मलयवृत्ति पत्र ४४० ५. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४४१ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ क्रियापद ] [५४१ गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए सिय अकिरिए। [१५८८ प्र.] भगवन् ! (एक) जीव, (एक) जीव की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाला होता है ? [उ.] गौतम ! (वह) कदाचित् तीन क्रियाओं वाला, कदाचित् चार क्रियाओं वाला, कदाचित् पांच क्रियाओं वाला और कदाचित् अक्रिय (क्रियारहित) होता है। १५८९.[१] जीवे णं भंते ! णेरइयाओ कतिकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चतुकिरिए सिय अकिरिए । [१५८९-१ प्र.] भगवन् ! (एक) जीव, (एक) नारक की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाला होता . [उ.] गौतम ! (वह) कदाचित् तीन क्रियाओं वाला, कदाचित् चार क्रियाओं वाला और कदाचित् अक्रिय होता है। [२] एवं जाव थणियकुमाराओ। . [१५८९-२] इसी प्रकार (पूर्वोक्त एक जीव की एक नारक की अपेक्षा से क्रिया सम्बन्धी आलापक के समान) एक जीव की, एक असुरकुमार से लेकर (एक) स्तनितकुमार की अपेक्षा से (क्रिया सम्बन्धी आलापक कहने चाहिए।) [३] पुढविक्काइय-आउक्काइय-तेउक्काइय-वाउक्काइय-वणस्सइकाइय-बेइंदिय-तेइंदियचउरिदिय-पंचिंदियतिरिक्खजोणिय-मणूसाओ जहा जीवाओ (सु. १५८८)। [१५८९-३] (एक जीव का एक पृथ्वीकायिक, अप्कायिक तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक एवं एक मनुष्य की अपेक्षा से (क्रियासम्बन्धी आलापक सू. १५८८ में उक्त एक जीव की अपेक्षा से क्रियासम्बन्धी आलापक के समान कहने चाहिए।) [४] वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियाओ जहा णेरइयाओ (सु. १५८९)। [१५८९-४] (इसी तरह एक जीव का एक वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक की अपेक्षा क्रियासम्बन्धी आलापक (सू. १५८९-१ में उक्त) (एक) नैरयिक की अपेक्षा से क्रियासम्बन्धी आलापक के समान कहने चाहिए। १५९०. जीवे णं भंते ! जीवेहिंतो कतिकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए सिय अकिरिए। [१५९० प्र.] भगवन् ! (एक) जीव, (अनेक) जीवों की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाला होता है ? [उ.] गौतम ! (वह) कदाचित् तीन क्रियाओं वाला, कदाचित् चार क्रियाओं वाला, कदाचित् पांच Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२] [ प्रज्ञापनासूत्र क्रियाओं वाला और कदाचित् अक्रिय होता है। १५९१. जीवे णं भंते ! णेरइहितो कतिकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय अकिरिए। एवं जहेव पढमो दंडओ तहा एसो वि वितिओ भाणियव्वो। [१५९१ प्र.] भगवन् ! (एक) जीव, (अनेक) नैरयिकों की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाला होता [उ.] गौतम ! कदाचित् तीन क्रियाओं वाला, कदाचित् चार क्रियाओं वाला और कदाचित् अक्रिय होता है। इस प्रकार जैसा प्रथम दंडक है वैसे ही यह द्वितीय दंडक भी कहना चाहिये। १५९२. जीवा णं भंते ! जीवाओ कतिकिरिया ? गोयमा ! सिय तिकिरिया वि सिय चउकिरिया वि सिय पंचकिरिया वि सिय अकिरिया वि। [१५९२ प्र.] भगवन् ! (अनेक) जीव, (एक) जीव की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाले होते हैं ? [उ.] गौतम ! कदाचित् तीन क्रियाओं वाले, कदाचित् चार क्रियाओं वाले, कदाचित् पांच क्रियाओं वाले भी और कदाचित् अक्रिय होते हैं। १५९३. जीवा णं भंते ! णेरइयाओ कतिकिरिया ? गोयमा ! जहेव आइल्लदंडओ तहेव भाणियव्वो जाव वेमाणिय त्ति। [१५९३ प्र.] भगवन् ! (अनेक) जीव, (एक) नैरयिक की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाले होते हैं ? [उ.] गौतम ! जिस प्रकार प्रारम्भिक दण्डक (सू. १५८९-१) में (कहा गया था,) उसी प्रकार से, (यह दण्डक भी) वैमानिक तक कहना चाहिए। १५९४. जीवा णं भंते ! जीवेहिंतो कतिकिरिया ? गोयमा ! तिकिरिया वि चउकिरिया वि पंचकिरिया वि अकिरिया वि। [१५९४ प्र.] भगवन् ! (अनेक) जीव, (अनेक) जीवों की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाले होते हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) तीन क्रियाओं वाले भी होते हैं, चार क्रियाओं वाले भी, पांच क्रियाओं वाले भी और अक्रिय भी होते हैं। १५९५ [१] जीवा णं भंते ! णेरइएहितो कतिकिरिया ? गोयमा ! तिकिरिया वि चउकिरिया वि अकिरिया वि। [१५९५-१ प्र.] भगवन् ! (अनेक) जीव, (अनेक) नारकों की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ क्रियापद ] |५४३ वाले होते हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) तीन क्रियाओं वाले भी होते हैं, चार क्रियाओं वाले भी और अक्रिय भी होते हैं। [२] असुरकुमारेहितो वि एवं चेव जाव वेमाणिएहितो ।[णवरं] ओरालियसरीरेहिंतो जहा जीवेहितो (सु. १५९४)। [१५९५-२ प्र.] इसी प्रकार (पूर्वोक्त आलापक के समान) अनेक जीवों के अनेक असुरकुमारों से (ले कर) यावत् (अनेक) वैमानिकों की अपेक्षा से (क्रियासम्बन्धी आलापक कहने चाहिए।) विशेष यह है कि (अनेक) औदारिकशरीरधारकों (पृथ्वीकायिकादि पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय एवं मनुष्यों) की अपेक्षा से (जब क्रियासम्बन्धी आलापक कहने हों, तब सू. १५९४ में उक्त अनेक) जीवों की अपेक्षा से क्रियासम्बन्धी आलापक के समान (कहने चाहिए।) १५९६. णेरइए णं भंते ! जीवाओ कतिकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए। [१५९६ प्र.] भगवन् ! (एक) नैरयिक, (एक) जीव की अपेक्षा से कितनी क्रिया वाला होता है ? [उ.] गौतम ! (वह) कदाचित् तीन क्रियाओं वाला, कदाचित् चार क्रियाओं वाला और कदाचित् पांच क्रियाओं वाला होता है। १५९७. [१] णेरइए णं भंते ! णेरइयाओ कतिकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए । [१५९७-१ प्र.] भगवन् ! (एक) नैरयिक (एक) नैरयिक की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाला होता [उ.] गौतम ! (वह) कदाचित् तीन क्रियाओं वाला और कदाचित् चार क्रियाओं वाला होता है। [२] एवं जाव वेमाणियाओ ! णवरं ओरालियसरीराओ जहा जीवाओ (सु. १५९६)। [१५९७-२] इसी प्रकार (पूर्वोक्त आलापक के समान एक असुरकुमार से लेकर) यावत् एक वैमानिक की अपेक्षा से (क्रियासम्बन्धी आलापक कहने चाहिए।) विशेष यह है कि (एक) औदारिकशरीरधारक जीव की अपेक्षा से (जब क्रियासम्बन्धी आलापक कहने हों, तब सू. १५९६ में कथित एक) जीव की अपेक्षा से (क्रियासम्बन्धी आलापक) के समान (कहने चाहिए।) .. १५९८. णेरइए णं भंते ! जीवेहिंतो कइकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिएि सिय पंचकिरिए। [१५९८ प्र.] भगवन् ! (एक) नारक, (अनेक) जीवों की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाला होता है? . Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४] [प्रज्ञापनासूत्र ___[उ.] गौतम ! (वह) कदाचित् तीन क्रियाओं वाला, कदाचित् चार क्रियाओं वाला और कदाचित् पांच क्रियाओं वाला होता है। १५९९.[१] णेरइए णं भंते ! णेरइएहितो कइकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए। एवं जहेव पढमो दंडओ तहा एसो वि बितिओ भाणियव्यो। [१५९९-१ प्र.] भगवन् ! एक नैरयिक, अनेक नैरयिकों की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाला होता है? [उ.] गौतम ! (वह) कदाचित् तीन क्रियाओं वाला और कदाचित् चार क्रियाओं वाला होता है। इस प्रकार जैसे प्रथम दण्डक कहा है उसी प्रकार यह द्वितीय दण्डक भी कहना चाहिए। __ [२] एवं जाव वेमाणिएहितो । णवरं णेरइयस्स णेरइएहिंतो देवेहिंतो य पंचमा किरिया णत्थि । [१५९९-२] इसी प्रकार (पूर्वोक्त आलापक के समान) यावत् अनेक वैमानिकों की अपेक्षा से (क्रियासम्बन्धी आलापक कहने चाहिए।) विशेष यह है कि (एक) नैरयिक के (अनेक) नैरयिकों की अपेक्षा से (क्रिया सम्बन्धी आलापक में) पंचम क्रिया नहीं होती है। १६००. णेरइया णं भंते ! जीवाओ कतिकिरिया ? गोयमा ! सिय तिकिरिया सिय चउकिरिया सिय पंचकिरिया। [१६०० प्र.] भगवन् ! (अनेक) नैरयिक, (एक) जीव की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाले होते हैं ? [उ.] गौतम ! कदाचित् तीन क्रियाओं वाले, कदाचित् चार क्रियाओं वाले और कदाचित् पांच क्रियाओं वाले होते हैं। । १६०१. एवं जाव वेमाणियाओ। णवरं णेरइयाओ देवाओ य पंचमा किरिया णत्थि। । [१६०१] इसी प्रकार (पूर्वोक्त आलापक के समान एक असुरकुमार से ले कर) यावत् एक वैमानिक की अपेक्षा से (क्रियासम्बन्धी आलापक कहने चाहिए।) विशेष यह है कि (एक) नैरयिक या (एक) देव की अपेक्षा से (क्रियासम्बन्धी आलापक में) पंचम क्रिया नहीं होती। १६०२. णेरइया णं भंते। जीवेहिंतो कतिकिरिया ? " गोयमा ! तिकिरिया वि चउकिरिया वि पंचकिरिया वि। [१६०२ प्र.] भगवन् ! (अनेक) नारक, (अनेक) जीवों की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाले होते हैं? [उ.] गौतम ! (वे) तीन क्रियाओं वाले भी होते हैं, चार क्रियाओं वाले भी और पांच क्रियाओं वाले भी होते हैं। Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ क्रियापद ] १६०३. [१ ∫णंरइया ण भतं : गरइएहिता' कातीकरिया ? गोयमा ! तिकिरिया वि चउकिरिया वि । [५४५ [१६०३-१ प्र.] भगवन् ! (अनेक) नैरयिक, (अनेक) नैरयिकों की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाले होते हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) तीन क्रियाओं वाले भी होते हैं और चार क्रियाओं वाले भी होते हैं। [२] एवं जाव वेमाणिएहिंतो । णवरं ओरालियसरीरेहिंतो जहा जीवेहिंतो (सु. १६०२ ) । [१६०३-२] इसी प्रकार (अनेक असुरकुमारों से लेकर) अनेक वैमानिकों की अपेक्षा से, क्रियासम्बन्धी आलापक कहने चाहिए। विशेष यह है कि अनेक औदारिकशरीरधारी जीवों की अपेक्षा से, (क्रियासम्बन्धी आलापक सू. १६०२ मे कथित अनेक) जीवों के क्रियासम्बन्धी आलापक के समान ( कहने चाहिए।) १६०४. [ १ ] असुरकुमारे णं भंते ! जीवातो कतिकिरिए ? गोयमा ! जहेव णेरइएणं चत्तारि दंडगा (सु. १५९६ - ९९ ) तहेव असुरकुमारेण वि चत्तारि दंडगा भाणियव्वा । एवं उवउज्जिऊण भावेयव्वं ति - जीवे मणूसे य अकिरिए वुच्चति, सेसा अकिरिया णं वुच्छंति, सव्वे जीवा ओरालियसरीरेहिंतो पंचकिरिया, णेरइय-देवेहिंतो य पंचकिरिया प्रण वुच्चति । [१६०४-१ प्र.] भगवन् ! (एक) असुरकुमार, एक जीव की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाला होता है ? [उ.] गौतम ! जैसे (सू. १५९६ से १५९९ तक में एक) नारक की अपेक्षा से क्रियासम्बन्धी) चार दण्डक (कहे गए) हैं, वैसे ही (एक) असुरकुमार की अपेक्षा से भी (क्रियासम्बन्धी) चार दण्डक कहने चाहिए। इस प्रकार का उपयोग लगाकर विचार कर लेना चाहिए कि एक जीव और एक मनुष्य ही अक्रिय कहा जाता है, शेष सभी जीव अक्रिय नहीं कहे जाते । सर्व जीव, औदारिक शरीरधारी अनेक जीवों की अपेक्षा सेपांच क्रिया वाले होते हैं। नारकों और देवों की अपेक्षा से पांच क्रियाओं वाले नहीं कहे जाते । T [ २ ] एवं एक्क्कजीवपए चत्तारि चत्तारि दंडगा भाणियव्वा । एवं एयं दंडगसयं । सव्वे वि य जीवादीया दंडगा । [१६०४-२] इस प्रकार एक-एक जीव के पद में चार-चार दण्डक कहने चाहिए । यों कुल मिलाकर सडक होते हैं। ये सब एक जीव आदि से सम्बन्धित दण्डक हैं। विवेचन - जीवों को दूसरे जीवों की अपेक्षा से लगने वाली क्रियाओं की प्ररूपणा - प्रस्तुत Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६] [प्रज्ञापनासूत्र १७ सूत्रों (१५८८ से १६०४) में जीवों के, दूसरे जीवों की अपेक्षा से लगने वाली क्रियाओं की प्ररूपणा की गई है। प्रस्तुत सूत्रावली में पूर्वोक्त कायिकी आदि पांच क्रियाओं का ही विचार किया गया है। वृत्तिकार के अनुसार- यहाँ केवल वर्तमान भव में होने वाली कायिकी आदि क्रियाएँ अभिप्रेत नहीं, किन्तु अतीतजन्म के काय-शरीरादि से अन्य जीवों द्वारा होने वाली क्रियाएँ भी यहाँ अभिप्रेत हैं; क्योंकि अतीतजन्म के शरीरादि का उसके स्वामी ने प्रत्याख्यान (व्युत्सर्ग) नहीं किया। इसलिए उन शरीरादि में से जो कुछ भी निर्माण हो अथवा उससे शस्त्रदि बनाकर किसी को परितापना दी गई या किसी की हिंसा की गई हो अर्थात्- उक्त भूतकाल के शरीरादि से अन्यजीव जो कुछ भी क्रिया करें, उन सबके लिए उस शरीरादि का भूतपूर्व स्वामी जिम्मेदार है, क्योंकि उस जीव ने अपने स्वामित्व के शरीरादि का व्युत्सर्ग (परित्याग) नहीं किया; उसके प्रति जो ममत्व था, उसका विसर्जन (त्याग) नहीं किया। जब तक उस भूतपूर्व शरीरादि का व्युत्सर्ग जीव नहीं करता, तब तक उससे सम्बन्धित क्रियाएँ लगती रहती हैं। हाँ, अगर पूर्वजन्म के शरीर का ममत्व विसर्जन कर देता है, तो उससे कोई क्रिया नहीं लगती, क्योंकि वह उससे सर्वथा निवृत्त हो चुका है। व्याख्या- एक जीव की अपेक्षा से एक जीव को जो क्रियाएँ (३,४ या ५) लगती हैं, वे वर्तमान जन्म को लेकर लगती हैं। अतीतभव को लेकर कायिकी आदि तीन, चार या पांच क्रियाएँ एक जीव को इस प्रकार लगती हैं- कायिकी तब लगती है जब उसके पूर्वजन्म से सम्बन्धित अविसर्जित शरीर या शरीर के एक देश का प्रयोग किया जाता है। आधिकरणिकी तब लगती है, जब उसके पूर्वजन्म के शरीर से संयोजित हल, मूसल, खड्ग आदि अधिकरणों का दूसरों के घात के लिए उपयोग किया जात है। प्राद्वेषिकी तब लगती है, जब पूर्वजन्मगत शरीरादि का ममत्व विसर्जन (प्रत्याख्यान) न किया हो और तद्विषयक बुरे परिणाम में कोई प्रवृत्त हो रहा हो। पारितापनिकी तब होती है, जब अव्युत्सृष्ट काया से या काया के एकदेश से कोई व्यक्ति दूसरों को परिताप (आप) दे रहा हो और प्राणातिपातक्रिया तब होती है, जब उस अव्युत्सृष्ट काय से दूसरे का घात कर दिया जाए। अक्रिय तब होता है, जब कोई व्यक्ति पूर्वजन्म के शरीर या शरीर के सम्बद्ध साधन का तीन करण तीन योग से व्युत्सर्ग कर देता है। तब उस जन्मभावी शरीर से कुछ भी क्रिया नहीं करता या की जाती। यह अक्रियता मनुष्य की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि मनुष्य ही सर्वविरत हो सकता है। देवों और नारकों के जीवन का घात असम्भव है, क्योंकि देव और नारक अनपवर्त्य (निरुपक्रम) आयुवाले होते हैं। उनकी अकालमृत्यु कदापि नहीं होती। अतएव उनके विषय में पंचम क्रिया नहीं हो सकती। द्वीन्द्रियादि की अपेक्षा से नारक को कायिकी आदि क्रियाएँ - जिस नारक ने पूर्वभव के शरीर का जब तक विसर्जन नहीं किया, उस नारक का शरीर तब तक पूर्वभावप्रज्ञापना से रिक्त घी के घड़े की तरह १. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४४२ (ख) पण्णवणासुत्तं (प्रस्तावनादि) भा. २, पृ. १२३ प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४४२ २. Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ क्रियापद ] 'उसका' कहलाता है। उस शरीर के हड्डी आदि एक देश से भी कोई दूसरा किसी का प्राणातिपात (घात) करता है तो पूर्वजन्मगत उस शरीर का स्वामी जीव भी कायिकी आदि क्रियाओं से संलग्न हो जाता है, क्योंकि उसने उस शरीर का व्युत्सर्ग नहीं किया था। जब उस जीव के शरीर के एकदेश को अभिघात (प्रहार) आदि में समर्थ जान कर कोई व्यक्ति प्राणातिपात के लिए उद्यत हो, उसे देख कर द्वीन्द्रियादि नात्य जीव पर क्रोधादि उत्पन्न होने से मारने के लिए यह शस्त्र शक्तिशाली है, ऐसा चिन्तन करता हुआ अत्यन्त क्रोध आदि का परिणाम करता है, पीड़ा पहुँचता है, प्राणनाश करता है, तो प्राद्वेषिकी आदि तीनों क्रियाएँ होती हैं।' ___ सौ दण्डक- सामान्यतया जीवपद में एक दण्डक और नैरयिक आदि के २४ दण्डक, ये दोनों मिलाकर २५ दण्डक हुए। फिर एक-एक पद के चार-चार- (एक जीव, अनेक जीव, एक नारक, अनेक नारक) दण्डक हुए। इस प्रकार २५४४=१०० दण्डक हुए। चौवीस दण्डकों में क्रियाप्ररूपणा १६०५. कतिहि णं भंते ! किरियाओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! पंच किरियाओ पण्णत्ताओ। तं जहा- काइया जाव पाणाइवायकिरिया। . [१६०५ प्र.] भगवन् ! क्रियाएँ कितनी कही गई हैं ? [उ.] गौतम ! क्रियाएँ पांच कही गई हैं, वे इस प्रकार - कायिकी यावत् प्राणातिपातक्रिया। १६०६.[१] णेरइयाणं भंते ! कति किरियाओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! पंच किरियाओ पण्णत्ताओ । तं जहा- काइया जाव पाणाइवायकिरिया। [१६०६-१ प्र.] भगवन् ! नारकों के कितनी क्रियाएँ कही गई हैं ? । [उ.] गौतम ! (उनके) पांच क्रियाएँ कही गई हैं, यथा - कायिकी यावत् प्राणतिपातक्रिया। [२] एवं जाव वेमाणियाणं। [१६०६-२] इसी प्रकार (का क्रियासम्बन्धी कथन असुरकुमार से लेकर) वैमानिकों के (सम्बन्ध में करना चाहिए।) विवेचन - क्रिया : प्रकार और चौवीस दण्डकव्याप्ति - प्रस्तुत दो सूत्रों (१६०५-१६०६) में क्रिया के पूर्वोक्त पांच प्रकार बताकर उनकी चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में व्याप्ति की प्ररूपणा की गई है। जीवादि में क्रियाओं के सहभाव की प्ररूपणा १६०७. जस्स णं भंते ! जीवस्स काइया किरिया कजइ तस्स आहिगरणिया किरिया १. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४४३ २. वही, पत्र ४४३ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८॥ [प्रज्ञापनासूत्र कजति? जस्स आहिगरणिया किरिया कजति तस्स काइया किरिया कजति ? गोयमा ! जस्स णं जीवस्स काइया किरिया कजति तस्स आहिगरणी णियमा कजति, जस्स आहिगरणी किरिया कजति तस्स वि काइया किरिया णियमा कज्जति। ____ [१६०७ प्र.] भगवन् ! जिस जीव के कायिकीक्रिया होती है, क्या उसके आधिकरणिकीक्रिया होती है ? (तथा) जिस जीव के आधिकरणिक्रिया होती है, क्या उसके कायिकीक्रिया होती है ? [सं.] गौतम ! जिस जीव के कायिकीक्रिया होती है, उसके नियम से आधिकरणिकीक्रिया होती है और जिसके आधिकरणिकीक्रिया होती है, उसके भी नियम से कायिकीक्रिया होती है। १६०८. जस्स णं भंते ! जीवस्स काइया किरिया कजति तस्स पाओसिया किरिया कजति ? जस्स पाओसिया किरिया कजति तस्स काइया किरिया कजति ? गोयमा ! एवं चेव। [१६०८ प्र.] भगवन् ! जिस जीव के कायिकी क्रिया होती है क्या उसके प्राद्वेषिकीक्रिया होती है? और जिसके प्राद्वेषिकी क्रिया होती है, क्या उसके कायिकीक्रिया होती है ? [उ.] गौतम ! इसी प्रकार (पूर्ववत् दोनों परस्पर नियम से समझना चाहिए।) १६०९. जस्सणं भंते ! जीवस्स काइया किरिया कजति तस्स पारियावणिया किरिया कजति, जस्स पारियावणिया किरिया कजति तस्स काइया किरिया कजति ? ___ गोयमा ! जस्स णं जीवस्स काइया किरिया कज्जति तस्स पारियावणिया किरिया सिय कज्जति. सिय णो कज्जति, जस्स पुण पारियावणिया किरिया कज्जति तस्स काइया नियमा कज्जति। । [१६०९ प्र.] भगवन् ! जिस जीव के कायिकीक्रिया होती है, क्या उसके पारितापनिकी क्रिया होती है ? तथा जिसके पारितापनिकी क्रिया होती है, क्या उसके कायिकीक्रिया होती है ? [उ.] गौतम ! जिस जीव के कायिकीक्रिया होती है, उसके पारितापनिकी क्रिया कदाचित् होती है और कदाचित् नहीं होती है, किन्तु जिसके पारितापनिकीक्रिया होती है, उसके कायिकीक्रिया नियम से होती है। १६१०. एवं पाणाइवायकिरिया वि। [१६१०] इसी प्रकार (पारितापनिकी और कायिकीक्रिया के परस्पर सहभाव-कथन के समान) प्राणातिपातक्रिया (और कायिकीक्रिया) का (परस्पर सहभाव-कथन भी करना चाहिए।) १६११. एवं आदिल्लाओ परोप्परं नियमा तिण्णि कजंति।जस्स आदिल्लाओ तिण्णि कजंति तस्स उवरिल्लाओ दोण्णि सिय कजति सिय णो कज्जति। जस्स उवरिल्लाओ दोण्णि कजति तस्स आइल्लाओ तिण्णि नियमा कजंति। Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ क्रियापद ] [५४९ [१६११] इस प्रकार प्रारम्भ की तीन क्रियाओं का परस्पर सहभाव नियम से होता है। जिसके प्रारम्भ की तीन क्रियाएँ होती हैं, उसके आगे की दो क्रियाएँ (पारितापनिकी और प्राणातिपात क्रिया) कदाचित् होती हैं, कदाचित् नहीं होती हैं (परन्तु) जिसके आगे की दो क्रियाएँ होती हैं, उसके प्रारम्भ की तीन क्रियाएँ (कायिकी, आधिकरणिकी और प्राद्वेषिकी) नियम से होती हैं। १६१२. तस्स णं भंते ! जीवस्स पारियावणिया किरिया कज्जति तस्स पाणाइवायकिरिया कजति ? जस्स पाणाइवायकिरिया कजति तस्स पारियावणिया किरिया कंजंति ? गोयमा ! जस्स णं जीवस्स पारियावणिया किरिया कजति तस्स पाणाइवायकिरिया सिय कजति सिय णो कज्जति, जस्स पुण पाणाइवायकिरिया कजति तस्स पारियावणिया किरिया नियमा कज्जति। [१६१२ प्र.] भगवन् ! जिसके पारितापनिकीक्रिया होती है, क्या उसके प्राणातिपातक्रिया होती है ? (तथा) जिसके प्राणातिपातक्रिया होती है, क्या उसके पारितापनिकीक्रिया होती है ? . ___ [उ.] गौतम ! जिस जीव के पारितापनिकीक्रिया होती है, उसके प्राणातिपातक्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं भी होती है; किन्तु जिस जीव के प्राणातिपातक्रिया होती है, उसके पारितापनिकीक्रिया नियम से होती है। १६१३.[१] जस्स णं भंति ! णेरइयस्स काइया किरिया कजति तस्स आहिगरणिया किरिया कजति ? गोयमा ! जहेव जीवस्स (सु. १६०७-१२ ) तहेव णेरइयस्स वि। [१६१३-१ प्र.] भगवन् ! जिस नैरयिक के कायिकीक्रिया होती है क्या उसके आधिकरणिकीक्रिया होती है ? [उ.] गौतम ! जिस प्रकार (सू. १६०७ से १६१२ तक में) जीव (सामान्य) में (कायिकी आदि क्रियाओं के परस्पर सहभाव की चर्चा की है) उसी प्रकार नैरयिक के सम्बन्ध में भी (समझ लेनी चाहिए।) [२] एवं निरंतरं जाव वेमाणियस्स। [१६१३-२] इसी प्रकार (नारक के समान) वैमानिक तक (क्रियाओं के परस्पर सहभाव का कथन करना चाहिए।) १६१४. जं समयं णं भंते ! जीवस्स काइया किरिया कजति तं समयं आहिगरणिया किरिया कजति ? जं समयं आहिगरणिया किरिया कजति तं समयं काइया किरिया कजति ? एवं जहेव आइल्लओ दंडओ भणिओ (सु. १६०७-१३) तहेव भाणियव्वो जाव वेमाणियस्स। [१६१४ प्र.] भगवन् ! जिस समय जीव के कायिकीक्रिया होती है, क्या उस समय उसके Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५०] [प्रज्ञापनासूत्र आधिकरणिकीक्रिया होती है ? (तथा) जिस समय उसके आधिकरणिकीक्रिया होती है, क्या उस समय कायिकीक्रिया होती है ? [उ.] (गौतम !) जिस प्रकार (सू. १६०७ से १६१३ तक में) क्रियाओं के परस्पर सहभाव के सम्बन्ध में प्रारम्भिक दण्डक कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी वैमानिक तक कहना चाहिए। १६१५. जं देसं णं भंते ! जीवस्स काइया किरिया कजति तं देसं णं आहिगरणिया किरिया कजति ? तहेव जाव वेमाणियस्स। [१६१५ प्र.] (भगवन् !) जिस देश में जीव के कायिकीक्रिया होती है, क्या उस देश में आधिकरणिकीक्रिया होती है ? [उ.] (यहाँ भी) उसी (पूर्वोक्त सूत्रों की) तरह वैमानिक तक (कहना चाहिए।) १६१६. [१] जं पएसं णं भंते ! जीवस्स काइया किरिया कजति तं पएसं आहिगरणिया किरिया कजति ? एवं तहेव जाव वेमाणियस्स। [१६१६-१ प्र.] (भगवन् !) जिस प्रदेश में जीव के कायिकीक्रिया होती है, क्या उस प्रदेश में . आधिकरणिकीक्रिया होती है ? [उ.] (गौतम !) (यहाँ भी) उसी (पूर्वोक्त सूत्रों की) तरह वैमानिक तक (कहना चाहिए।) [२] एवं एते जस्स १, जं समयं २, जं देसं ३, जं पएसं णं ४ चत्तारि दंडगा होति। [१६१६-२] इस प्रकार (१) जिस जीव के (२) जिस समय में (३) जिस देश में और (४) जिस प्रदेश में ये चार दण्डक होते हैं। - विवेचन - क्रियाओं के परस्पर सहभाव की विचारणा - प्रस्तुत १०. सूत्रों (सू. २६०७ से १६१६ तक) में पूर्वोक्त पांच क्रियाओं के १. जीव, २. समय, ३. देश और ४. प्रदेश की दृष्टि से, परस्पर सहभाव की विचारणा की गई हैं। निष्कर्ष - प्रारम्भ की तीन क्रियाएँ जीव में नियम से, परस्पर सहभाव के रूप में रहती हैं, किन्तु इन प्रारम्भिक तीन क्रियाओं के साथ आगे की दो क्रियाएँ कदाचित् रहती हैं, कदाचित् नहीं रहती हैं। मगर जिस जीव में आगे की दो क्रियाएँ होती हैं, उसमें प्रारम्भ की तीन क्रियाएँ अवश्य रहती हैं। प्राणातिपात और पारितापनिकी क्रिया एक जीव में कदाचित् एक साथ होती हैं, कदाचित् नहीं भी होती हैं। सामान्य जीव की तरह चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में इन क्रियाओं के सहभाव के ये ही नियम हैं । जीव में क्रिया-सहभाव सम्बन्धी Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ क्रियापद ] आलापक के समान देश और प्रदेश में क्रिया-सहभाव सम्बन्धी आलापक कहने चाहिए ।" कायिकी आदि का परस्पर सहभाव : नियम से या विकल्प से ?- काय एक प्रकार का अधिकरण भी हो जाता है, इसलिए कायिकीक्रिया होने पर आधिकरणिकी अवश्यमेव होती है और आधिकरणिकी होने पर कायिकी भी अवश्य होती है और वह विशिष्ट कायिकीक्रिया प्रद्वेष के बिना नहीं होती, इसलिए प्राद्वेषिकीक्रिया के साथ भी कायिकी का अविनाभावसम्बन्ध है । वैसी क्रिया के समय शरीर पर प्रद्वेष के चिह्न ( वक्रता, रूक्षता, कठोरता आदि) स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं । इसलिए कायिकी के साथ प्राद्वेषिकी प्रत्यक्षतः उपलब्ध होती है। प्रारम्भ की तीन क्रियाओं का सहभाव होने पर भी परितापन और प्राणातिपात इन दोनों के सहभाव का कोई नियम नहीं होता; क्योंकि जब कोई घातक वध्य मृगदि को धनुष खींच कर वाणादि से बींध देता है, उसके पश्चात् उसका परितापन या मरण होता है, अन्यथा नहीं। अतः इन दोनों का सहभाव नियम से नहीं होता । अर्थात् पारितापनिकी क्रिया के होने पर भी प्राणातिपातक्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती। जब बाण आदि के प्रहार से जीव को प्राणरहित कर दिया जाता है, तब प्राणातिपातक्रिया होती है, शेष समय में नहीं होती, किन्तु जिसके प्राणातिपातक्रिया होती है, उसके नियम से पारितापनिकीक्रिया होती है, क्योंकि परितापना के बिना प्राणघात असम्भव है । ३ जीव आदि में आयोजिताक्रिया की प्ररूपणा १६१७. कति णं भंते! आजोजिताओ किरियाओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! पंच आजोजिताओ किरियाओ पण्णत्ताओ । तं जहा किरिया । [५५१ १. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ - टिप्पणयुक्त) भा. १, पृ. ३५५- ३५६ २. ३. - [१६१७ प्र.] भगवन् ! आयोजिता ( जीव को संसार में आयोजित करने - जोड़ने वाली ) क्रियाएँ कितनी कही गई हैं ? . [उ.] गौतम ! आयोजिताक्रियाएँ पांच कही गई हैं, यथा- कायिकी यावत् प्राणातिपात क्रिया । १६१८. एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं । [१६१८] नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक (इन पांचों आयोजिताक्रियाओं का ) इसी प्रकार (कथन करना चाहिए।) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४४४-४४५ प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४४५ काइया जाव पाणाइवाय Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र १६१९. जस्स णं भंते ! जीवस्स काइया आयोजित किरिया अस्थि तस्स आहिरकरणिया आओजिया किरिया अत्थि ? जस्स आहिगरणिया आओजिया किरिया अत्थि तस्स काइया आओजिया किरिया अत्थि ? ५५२ ] एवं एतेणं अभिलावेणं ते चेव चत्तारि दंडगा भाणियव्वा जस्स १ जं समयं २ जं देसं ३ जं पदेसं ४ जाव वेमाणियाणं । [१६१९] भगवन् ! जिस जीव के कायिकी - आयोजिताक्रिया होती है, यथा उसके आधिकरणिकीआयोजित क्रिया होती है ? (और) जिसके आधिकरणिकी- आयोजिताक्रिया होती है, क्या उसके कायिकीआयोजिताक्रिया होती है ? [उ.] इस प्रकार (सू. १६०७ से १६१६ में उक्त आलापकों के समान यहाँ भी) इस (तथा अन्य अभिलाप के साथ (१) जिस जीव में, (२) जिस समय में, (३) जिस देश में और (४) जिस प्रदेश में- ये चारों दण्डक यावत् वैमानिकों तक कहने चाहिए । विवेचन - आयोजिताक्रियाएँ और उसका सहभाव - प्रस्तुत त्रिसूत्री (१६१७ से १६१९ तक) में पांच आयोजिताक्रियाओं का तथा जीव, समय, देश, प्रदेश के उसके परस्पर सहभाव का कथन अतिदेशपूर्वक किया गया है। आयोजिताक्रिया : विशेषार्थ जो क्रियाएँ जीव को संसार में आयोजित करने - जोड़ने वाली हैं अर्थात्- जो संसारपरिभ्रमण की कारणभूत हैं, वे आयोजिताक्रियाएँ कहलाती हैं। यद्यपि क्रियाएँ साक्षात् कर्मबन्धन की हेतु हैं, किन्तु परम्परा से वे संसार की कारण भी हैं। क्योंकि ज्ञानावरणीयादि कर्मबन्ध संसार का कारण है। इसीलिए उपचार से या परम्परा से ये क्रियाएँ भी संसार की कारण कही गई हैं। जीव में क्रियाओं के स्पृष्ट- अस्पृष्ट की चर्चा १६२०. जीवे णं भंते ! जं समयं काइयाए आहिगरणियाए पाओसियाए किरियाए पुट्ठे तं समयं पारियावणियाए किरियाए पुट्ठे ? पाणाइवायकिरियाए पुट्ठे ? गोमा ! अत्थेगइए जीव एगइयाओ जीवाओ जं समयं काइयाए आहिगरणियाए पाओसिया ए किरियाए पुट्ठे तं समयं पारियावणियाए किरियाए पुट्ठे पाणाइवायकिरियाए पुट्ठे १, अत्थेइए जीवे एगइयाओ जीवाओ जं समयं काइयाए आहिगरणियाए पादोसियाएं किरियाए पुट्ठे तं समयं पारियावणियाए किरियाए पुट्ठे पाणाड़वायकिरियाए अपुट्ठे २, अत्थेगइए जीवे एगइयाओ जीवाओ जं समयं काइयाए आहिगरणियाए पाओसियाए किरियाए पुट्ठे तं समयं पारियावणियाए किरियाए अपुट्ठे पाणाइवायकिरियाए अपुट्ठे ३, अत्थेगइए जीवे एगइयाओ जीवाओ जं समयं काइयाए आहिगरणियाए १. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४४५ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ क्रियापद ] [५५३ पाओसियाएय किरियाए अपुढे तं समयं पारियावणियाए किरियाए अपुढे पाणाइवायकिरियाए अपुढे ४। __[१६२०] भगवन् ! जिस समय जीव कायिकी, आधिकरणिकी और प्राद्वेषिकी क्रिया से स्पृष्ट होता है, क्या उस समय पारितापनिकी क्रिया से स्पृष्ट होता है अथवा प्राणातिपातिकी क्रिया से स्पृष्ट होता है। [उ.] गौतम ! (१) कोई जीव, एक जीव की अपेक्षा से जिस समय कायिकी, आधिकारणिकी और प्राद्वेषिकी क्रिया से स्पृष्ट होता है, उस समय पारितापनिकीक्रिया से स्पृष्ट होता है और प्राणातिपातक्रिया से (भी) स्पृष्ट होता है, (२) कोई जीव, एक जीव की अपेक्षा से जिस समय कायिकी, आधिकरणिकी और प्राद्वेषिकी क्रिया से स्पृष्ट नहीं होता, उस समय पारितापनिकीक्रिया से स्पृष्ट होता है, किन्तु प्राणातिपातक्रिया से स्पृष्ट नहीं होता, (३) कोई जीव, एक जीव की अपेक्षा से जिस समय कायिकी, आधिकरणिकी और प्राद्वेषिकी क्रिया से स्पृष्ट होता है, उस समय पारितापनिकीक्रिया से अस्पृष्ट होता है और प्राणातिपातक्रिया से (भी) अस्पृष्ट होता है तथा (४) कोई जीव, एक जीव की अपेक्षा से जिस समय कायिकी, आधिकरणिकी और प्राद्वेषिकी क्रिया से अस्पृष्ट होता है, उस समय पारितापनिकीक्रिया से भी अस्पृष्ट होता है और प्राणातिपातक्रिया से भी अस्पृष्ट होता है। विवेचन - क्रियाओं से स्पृष्ट-अस्पृष्ट की चतुर्भंगी - प्रस्तुत में पांच क्रियाओं में से एक जीव में एक ही समय कितनी क्रियाएँ स्पृष्ट और कितनी क्रियाएँ अस्पृष्ट होती हैं, इसका विचार किया गया है। प्रकारान्तर से क्रियाओं के भेद और उनके स्वपामित्व की प्ररूपणा १६२१. कइ णं भंते ! किरियाओ पण्णत्तओ? गोयमा ! पंच किरियाओ पण्णत्ताओ । तं जहा- आरंभिया १ पारिग्गहिया २ मायावत्तिया ३ अपच्चंक्खाणकिरिया ४ मिच्छादसणवत्तिया ५। [१६२१ प्र.] भगवन् ! क्रियाएँ कितनी कही गई हैं ? [उ.] गौतम ! क्रियाएँ पांच कही गई हैं, वे इस प्रकार - (१) आरम्भिकी, (२) पारिग्रहिकी, (३) मायाप्रत्यया, (४) अप्रत्याख्यानक्रिया और (५) मिथ्यादर्शनप्रत्यया। १६२२. आरंभिया णं भंते ! किरिया कस्स कजति ? गोयमा ! अण्णयरस्सावि पमत्तसंजयस्स। [१६२२ प्र.] भगवन् ! आरम्भिकीक्रिया किसके होती है ? [उ.] गौतम ! किसी प्रमत्तसंयत के होती हैं। १. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४४६ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४] । प्रज्ञापनासूत्र १६२३. पारिग्गहिया णं भंते ! किरिया कस्स कजति ? गोयमा ! अण्णयरस्सावि संजयासंजयस्स। [१६२३ प्र.] भगवन् ! पारिग्रहिकीक्रिया किसके होती है ? [उ.] गौतम ! किसी संयतासंयत के होती है। १६२४. मायावत्तिया णं भंते ! किरिया कस्स कजति ? गोयमा ! अण्णयरस्सावि अपमत्तसंजयस्स। [१६२४ प्र.] भगवन् ! मायाप्रत्ययाक्रिया किसके होती है ? [उ.] गौतम ! किसी अप्रमत्तसंयत के होती है। १६२५. अपच्चक्खाणकिरिया णं भंते ! कस्स कजति ? गोयमा ! अण्णयरस्सावि अपच्चक्खाणिस्स। [१६२५ प्र.] भगवन् ! अप्रत्याख्यानक्रिया किसके होती है? [उ.] गौतम ! किसी अप्रत्याख्यानी के होती है । १६२६. मिच्छादसणवत्तिया णं भंते ! किरिया कस्स कजति ? गोयमा ! अण्णयरस्सावि मिच्छादंसणिस्स। [१६२६ प्र.] भगवन् ! मिथ्यादर्शनप्रतययाक्रिया किसके होती है ? [उ.] गौतम ! किसी मिथ्यादर्शनी के होती है। विवेचन - प्रकारान्तर से पंचविध क्रियाएँ और उनके अधिकारी - प्रस्तुत ६ सूत्रों (सू. १६२१ से १६२६) में प्रकारान्तर से ५ प्रकार की क्रियाओं का नामोल्लेख तथा उनके अधिकारी का निरूपण किया गया है। आरम्भिकी आदि पांच क्रियाओं की परिभाषा-सचि पृथ्वी, जल, अग्नि आदि का उपमर्दन करना आरम्भ कहलाता है। आरम्भ से पहले दो क्रम होते है- संरम्भ और समारम्भ का। संरम्भ कहते हैं - संकल्प को, समारम्भ कहते है- परिताप क्रिया को। जिसका प्रयोजना या कारण आरम्भ हो, वह आरम्भिकीक्रिया कहलाती हैं- पारिग्रहिकी- धर्मोपकरण को छोड़ कर वस्तुओं को स्वीकार और उन पर मूर्छा परिग्रह है। परिग्रह से निष्पन्न पारिग्रहिकी। मायाप्रत्यया- माया- कपट-अनार्जव। माया जिसका प्रत्यय- कारण हो, वह मायाप्रत्यया। अप्रत्याख्यान- प्रत्याख्यान कहते हैं - त्याग, नियम या हिंसादि आस्रवों से विरति को। विरति या त्याग के परिणामोंका अभाव- अप्रत्याख्यान है। अप्रत्याख्यानजनित क्रिया- अप्रत्याख्यानक्रिया है। Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ क्रियापद ] [५५५ मिथ्यादर्शनप्रत्यया- मिथ्यादर्शन- विपरीत श्रद्धान जिसका कारण हो, उसे मिथ्यादर्शनप्रत्यया कहते हैं । इन क्रियाओं में से किस क्रिया का कौन स्वामी या अधिकारी होता है, यह सू. १६२२ से १६२६ तक में बताया गया है। आरम्भिकीक्रिया प्रमत्तसंयतों में से किसी को उस समय होती है जब वह प्रमाद होने से कायदुष्प्रयोगवश पृथ्वी आदि का उपमर्दन करता है । पारिग्रहिकीक्रिया देशविरत को होती है, क्योंकि वह परिग्रह धारण करके रखता है । अप्रत्याख्यानीक्रिया सब को नहीं, उस व्यक्ति को होती है, जो कुछ प्रत्याख्यान नहीं करता। मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया उस को होती है, जो देव, गुरु, धर्म और शास्त्र के प्रति अश्रद्धा, अभक्ति, अविनय करता है । चौबीस दण्डकों में क्रियाओं की प्ररूपणा १६२७. [ १ ] णेरइयाणं भंते ! कति किरियाओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! पंच किरियाओ पण्णत्ताओ । तं जहा- आरंभिया जाव मिच्छादंसणवत्तियां । [१६२७-१ प्र.] भगवन् ! नैरयिकों को कितनी क्रियाएँ कही गई हैं ? [उ.] गौतम ! (उनके) पांच क्रियाएँ कही गई हैं, वे इस प्रकार - आरम्भिकी- यावत् मिथ्यादर्शनप्रत्यया । [२] एवं जाव वेमाणियाणं । [१६२७-२] इसी प्रकार (नैरयिकों के समान) वैमानिकों तक (प्रत्येक में पांच क्रियाएँ समझनी चाहिए ।) विवेचन - समस्त संसारी जीवों में पांच क्रियाओं की प्ररूपणा प्रस्तुत सूत्र (१६२७) में चौबीस दण्डकवर्ती जीवों में आरम्भिकी आदि पांचों क्रियाओं की प्ररूपणा की गई है। जीवों में क्रियाओं के सहभाव की प्ररूपणा १६२८. जस्स णं भंते ! जीवस्स आरंभिया किरिया कज्जति तस्स पारिग्गहिया किरिया कज्जति ? जस्स पारिग्गहिया किरिया कज्जइ तस्स आरंभिया किरिया कज्जति ? - गोयमा ! जस्स णं जीवस्स आरंभिया किरिया कज्जति तस्स पारिग्गहिया किरिया सिय कज्जति सियोकज्जति, जस्स पुण पारिग्गहिया किरिया कज्जति तस्स आरंभिया किरिया नियमा कज्जति । [ १६२८ प्र.] भगवन् ! जिस जीव के आरम्भिकीक्रिया होती है क्या उसके पारिग्रहिकीक्रिया होती है ? .(तथा) जिसके पारिग्रहिकीक्रिया होती है, क्या उसके आरम्भिकीक्रिया होती है ? १. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४४७ २. वही, म. वृत्ति, पत्र ४४७ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६] [प्रज्ञापनासूत्र ___ [उ.] गौतम ! जिस जीव के आरम्भिकीक्रिया होती है, उसके पारिग्रहिकीक्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती; जिसके पारिग्रहिकी क्रिया होती है, उसके आरम्भिकी क्रिया नियम से होती है। १६२९. जस्स णं भंते ! जीवस्स आरंभिया किरिया कज्जति तस्स मायावत्तिया किरिया कजति ? ० पुच्छा। गोयमा ! जस्स णं जीवस्स आरंभिया किरिया कजति तस्स मायावत्तिया किरिया णियमा कज्जति, जस्स पुण मायावत्तिया किरिया कज्जति तस्स आरंभिया किरिया सिय कजति सिय णो कज्जति । [१६२९ प्र.] भगवन् ! जिस जीव को आरम्भिकीक्रिया होती है, क्या उसको मायाप्रत्यया क्रिया होती है ? (तथा) जिसके मायाप्रत्ययाक्रिया होती है क्या उसके आरम्भिकीक्रिया होती है ? [उ.] गौतम ! जिस जीव के आरम्भिकीक्रिया होती है, उसके नियम से मायाप्रत्ययाक्रिया होती है (और) जिसकी मायाप्रत्ययाक्रिया होती है, उसके आरम्भिकीक्रिया कदाचित् होती है और कदाचित् नहीं होती १६३०. जस्स णं भंते ! जीवस्स आरंभिया किरिया कजति तस्स अपच्चक्खाणकिरिया क-जति ? ० पुच्छा। - गोयमा ! जस्स णं जीवस्स आरंभिया किरिया कजति तस्स अप्पच्चक्खाणकिरिया सिय . कज्जति सिय णो कज्जति, जस्स पुण अपच्चक्खाणकिरिया कजति तस्स आरंभिया किरिया णियमा कज्जति। ___[१६३० प्र.] भगवन् ! जिस जीव को आरम्भिकीक्रिया होती है, क्या उसको अप्रत्ययाख्यानकीक्रिया होती है, (तथा) जिसको अप्रत्याख्यानिकीक्रिया होती है, क्या उसको आरम्भिकीक्रिया होती है ? [उ.] गौतम ! जिस जीव को आरम्भिकीक्रिया होती है. उसको अप्रत्याख्यानिकी क्रिया कदाचित होती है, कदाचित् नहीं होती है, किन्तु जिस जीव को अप्रत्याख्यानिकी क्रिया होती है, उसके आरम्भिकीक्रिया नियम से होती है। १६३१. एवं मिच्छादसणवत्तियाए वि समं। [१६३१] इसी प्रकार (आरम्भिकीक्रिया के साथ अप्रत्याख्यानीक्रिया के सहभाव के कथन के समान आरम्भिकीक्रिया के साथ) मिथ्यादर्शनप्रत्यया (के सहभाव का) (कथन करना चाहिए।) १६३२. एवं पारिग्गहिया वि तिहिं उवरिल्लाहिं समं चारेयव्वा। [१६३२] इसी प्रकार (आरम्भिकीक्रिया के साथ जैसे पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया और अप्रत्याख्यानी क्रिया के सहभाव का प्रश्नोत्तर है, उसी प्रकार) आगे की तीन क्रियाओं (मायाप्रत्यया, अप्रत्याख्यानी एवं Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ क्रियापद ] [५५७ मिथ्यादर्शनप्रत्यया) के साथ सहभाव-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर समझ लेना चाहिए। १६३३. जस्स मायावत्तिया किरिया कज्जति तस्स उवरिल्लाओ दो वि सिय कजंति सिय णो कजंति, जस्स उवरिल्लाओ दो कज्जति तस्स मायावत्तिया णियमा कज्जति। [१६३३] जिसके मायाप्रत्ययाक्रिया होती है, उसके आगे की दो क्रियाएँ (अप्रत्याख्यानिकी और मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया) कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती हैं, (किन्तु) जिसके आगे की दो क्रियाएँ (अप्रत्याख्यानिकी एवं मिथ्यादर्शनप्रत्यया) होती हैं, उसके मायाप्रत्ययाक्रिया नियम से होती है। १६३४. जस्स अपच्चक्खाणकिरिया कजति तस्स मिच्छादसणवत्तिया किरिया सिय कजति सिय णो कज्जति, जस्स पुण मिच्छादसणवत्तिया किरिया कजति तस्स अपच्चक्खाणकिरिया णियमा कजति। ___ [१६३४] जिसको अप्रत्याख्यानक्रिया होती है, उसको मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती, (किन्तु) जिसको मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया होती है, उसके अप्रत्याख्यानक्रिया नियम से होती है। . १६३५. [१] णेरइस्स आइल्लियाओ चत्तारि परोप्परं णियमा कजंति, जस्स एताओ चत्तारि कजंति तस्स मिच्छादसणवत्तिया किरिया भइजति, जस्स पुण मिच्छादसणवत्तिया किरिया कजति तस्स एयाओ चत्तारि णियमा कजंति। [१६३५-१] नारक को प्रारम्भ की चार क्रियाएँ (आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया और अप्रत्याख्यान क्रिया) नियम से होती है। जिसके ये चार क्रियाएं होती हैं, उसको मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया भजना (विकल्प) से होती है, (किन्तु) जिसके मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया होती है, उसके ये चारों क्रियाएँ नियम से होती हैं। . [२] एवं जाव थणियकुमारस्स। [१६३५-२] इसी प्रकार (नैरयिकों में क्रियाओं के परस्पर सहभाव के कथन के समान असुरकुमार से) स्तनितकुमार तक (दसों भवनवासी देवों) में क्रियाओं के सहभाव का कथन करना चाहिए। _[३] पुढविक्काइयस्स जाव चउर दियस्स पंच वि परोप्परं णियमा कजंति। - [१६३५-३] पृथ्वीकायिक से लेकर चतुरिन्द्रिय तक (के जीवों के) पांचों ही (क्रियाएँ) परस्पर नियम से होती हैं। [४] पंचेंदियतिरिक्खजोणियस्स आइल्लियाओ तिण्णि वि परोप्परं णियमा कजंति, जस्स एयाओ कजंति तस्स उवरिल्लाओ दो भइजंति, जस्स उवरिल्लाओ दोण्णि कजति तस्स एयाओ तिण्णि वि णियमा कजंति, जस्स अपच्चक्खाणकिरिया तस्स मिच्छादसणवत्तिया सिय कजति सिय णो कजति, जस्स पुण मिच्छादसणवत्तिया किरिया कजति तस्स अपच्चक्खाणकिरिया णियमा कज्जति। [१ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८] [ प्रज्ञापनासूत्र [१६३५-४] पञ्चेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक को प्रारम्भ की तीन क्रियाएँ परस्पर नियम से होती हैं। जिसको ये (तीनों क्रियाएँ) होती हैं, उसको आगे की दो क्रियाएँ (अप्रत्याख्यानिकी एवं मिथ्यादर्शनप्रत्यया) विकल्प (भजना) से होती हैं। जिसको, आगे की दोनों क्रियाएँ होती हैं, उसको ये (प्रारम्भ की) तीनों (क्रियाएँ) नियम से होती हैं। जिसको अप्रत्याख्यानक्रिया होती है, उसको मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती है। (किन्तु) जिसको मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया होती है, उसको अप्रत्याख्यानक्रिया अवश्यमेव (नियम से) होती है। [५] मणूसस्स जहा जीवस्स। [१६३५-५] मनुष्य में (पूर्वोक्त क्रियाओं के सहभाव का कथन) सामान्य जीव में (क्रियाओं के सहभाव के कथन की) तरह समझना चाहिए। [६] वाणमंतर-ज्योतिसिय-वेमाणियस्स जहा णेरइयस्सं। [१६३५-६] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव में (क्रियाओं के परस्पर सहभाव का कथन) नैरयिक (में क्रियाओं के सहभाव-कथन) के समान समझना चाहिए। १६३६. जं समयं णं भंते ! जीवस्स आरंभिया किरिया कजति तं समयं पारिग्गहिया किरिया कजति ? एवं एते जस्स १ जं समयं २ जं देसं ३ जं पदेसं णं ४ चत्तारि दंडगा णेयव्वा । णेरइयाणं तहा . सव्वदेवाणं णेयव्वं जाव वेमाणियाणं। [१६३६ प्र.] भगवन् ! जिस समय जीव के प्रारम्भिकीक्रिया होती है, (क्या) उस समय पारिग्रहिकीक्रिया होती है ? [उ.] क्रियाओं के परस्पर सहभाव के (सम्बन्ध में) इस प्रकार- (१) जिस जीव के, (२) जिस समय में, (३) जिस देश में और (४) जिस प्रदेश में- यों चार दण्डकों के आलापक कहने चाहिए। जैसे नैरयिकों के विषय में ये चारों दण्डक कहे उसी प्रकार वैमानिकों तक समस्त देवों के विषय में कहने चाहिए। विवेचन - जीव आदि में आरम्भिकी आदि क्रियाओं का सहभाव - प्रस्तुत ९ सूत्रों (सू. १६२८ से १६३६ तक) में समुच्चय जीव में तथा नारकादि चौवीस दण्डकों में आरम्भिकी आदि ५ क्रियाओं के परस्पर सहभाव की चर्चा की गई है। ____क्रियाओं का सहभाव : क्यों अथवा क्यों नहीं ? - जिसके आरम्भिकी क्रिया होती है, उसके पारिग्रहिकी विकल्प से होती है, क्योंकि पारिग्रहिकी प्रमत्तसंयत के नहीं होती, शेष के होती है। जिसके आरम्भिकी होती है, उसके मायाप्रत्यया नियम से होती है (किन्तु जिसके मायाप्रत्यया होती है, उसके Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ क्रियापद ] [५५९ आरम्भिकी कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती है। अप्रमत्तसंयत के नहीं होती, शेष के होती है तथा जिसके आरम्भिकीक्रिया होती है, उसके अप्रत्याख्यानीक्रिया विकल्प से होती है। प्रमत्तसंयत और देशविरत के यह क्रिया नहीं होती, किन्तु अविरत सम्यग्दृष्टि आदि के होती है। जिसके अप्रत्याख्यानक्रिया होती है, उसके आरम्भिकीक्रिया का होना अवश्यम्भावी है। जिसके आरम्भिकी है, उसके मिथ्यादर्शनक्रिया विकल्प से होती है। अर्थात् मिथ्यादृष्टि को होती है, शेष के नहीं होती। जिसके मिथ्यादर्शनक्रिया होती है, उसके आरम्भिकी अवश्य होती है, क्योंकि मिथ्यादृष्टि अवश्य ही अविरत होता है। पारिग्रहिकी का आगे को तीन क्रियाओं के साथ, मायाप्रत्यया का आगे की दो क्रियाओं के साथ तथा अप्रत्याख्यानक्रिया का एक मिथ्यादर्शनप्रत्यया के साथ सहभाव होता है। पांच स्थावर और तीन विकलेन्द्रियों में पांचों क्रियाएँ होती हैं क्योंकि पृथ्वीकायिकादि में मिथ्यादर्शनप्रत्यया अवश्य होती है। अप्रत्याख्यानक्रिया अविरतसम्यग्दृष्टि के, मिथ्यादर्शनप्रत्यया मिथ्यादृष्टि के और प्रारम्भ की चारों क्रियाएँ देशविरत के होती हैं।' जीव आदि में पापस्थानों से विरति की प्ररूपणा १६३७. अत्थि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवायवेरमणे कज्जति ? • हंता ! अस्थि । कम्हिं णं भंते ! जीवाणं पाणाइवायवेरमणे कजति ? गोयमा ! छसु जीवणिकाएसु।। [१६३७ प्र.] भगवन् ! क्या जीवों का प्राणातिपात से विरमण होता है ? [उ.] हाँ, होता है। [प्र.] भगवन् ! किस (विषय) में प्राणतिपातविरमण होता है ? [उ.] गौतम ! (वह) षड् जीवनिकायों (के विषय) में होता है। १६३८.[१] अस्थि णं भंते ! णेरइयाणं पाणाइवायवेरमणे कज्जति ? गोयमा ! णो इणट्ठा समढे। [१६३८-१ प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिकों का प्राणातिपात से विरमण होता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [२] एवं जाव वेमाणियाणं । णवरं मणूसाणं जहा जीवाणं (सु. १६३७) । [१६३८-२] इसी प्रकार का कथन वैमानिकों तक के प्राणातिपात से विरणामण के विषय में समझन प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४४८ Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६०] [प्रज्ञापनासूत्र चाहिए। विशेष यह कि मनुष्यों का प्राणातिपातविरमण (सामान्य) जीवों के समान (सू. १६३७ के अनुसार कहना चाहिए।) १६३९. एवं मुसावाएणं जाव मायामोसेणं जीवस्स य मणूसस्स य, सेसाणं णो इणढे समढे। णवरं अदिण्णादाणे गहण-धारणिज्जेसु दव्वेसु, मेहुणे रूवेसु वा रूवसहगएसु वा दव्वेसु, सेसाणं सव्वदव्वेसु। [१६३९] इसी प्रकार मृषावाद से लेकर मायामृषा (पापस्थान तक से विरमण सामान्य जीवों का और मनुष्य का होता है, शेष में यह नहीं होता। विशेष यह है कि अदत्तादानविरमण ग्रहणधारण करने योग्य में, मैथुनविरमण रूपों में अथवा रूपसहगत (स्त्री आदि) द्रव्यों में होता है। शेष पापस्थानों से विरमण सर्वद्रव्यों के विषय में होता है। १६४०. अत्थि णं भंते ! जीवाणं मिच्छादंसणसल्लवेरमणे कजति ? हंता ! अस्थि । कम्हि णं भंते ! जीवाणं मिच्छादंसणसल्लवेरमणे कज्जइ ? गोयमा ! सव्वदव्वेसु। [१६४० प्र.] भगवन् ! क्या जीवों का मिथ्यादर्शनशल्य से विरमण होता है ? [उ.] हाँ, होता है। [प्र.] भगवन् ! किस (विषय) में जीवों का मिथ्यादर्शनशल्य से विरमण होता है ? [उ.] गौतम ! (वह) सर्वद्रव्यों (के विषय) में होता है। १६४१. एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं । णवरं एगिंदिय-विगलिंदियाणं णो इणढे समटे। [१६४१] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक के मिथ्यादर्शनशल्य से विरमण का कथन करना चाहिए। विशेष यह है कि एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों में यह नहीं होता। विवेचन - अठारह पापस्थानों से विरमण की चर्चा - प्रस्तुत पंचसूत्री में (१६३७ से १६४१ तक में) क्रियाओं के सन्दर्भ में सामान्य जीवों की और चौबीस दण्डकवर्ती जीवों की प्राणातिपात आदि १८ पापस्थानों से विरति तथा उनके विषयों की चर्चा की गई है। निष्कर्ष- मनुष्य के अतिरिक्त किसी भी जीव में प्राणातिपात आदि १८ पापस्थानों से उसके भवस्वभाव के कारण विरति नहीं हो सकती। समुच्चय जीवों में विरति बताई है, वह मनुष्य की अपेक्षा से बताई है तथा १. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्रांक ४५० (ख) पण्णवणासुत्तं (परिशिष्ट आदि) भा. २, पृ. १२४ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ क्रियापद ] [५६१ मिथ्यादर्शनविरमण एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय में नहीं हो सकता, यद्यपि किन्हीं द्वीन्द्रियादि को करण की अपर्याप्तावस्था में सास्वादनसम्यक्त्व होता है, तथापि मिथ्यात्व अभिमुख द्वीन्द्रियादि को होता है । इसलिए मिथ्यात्वविरमण उनमें सम्भव नहीं है । शेष सर्व जीवों में सम्भव है। इसके अतिरिक्त प्राणातिपातविरमण षट्जीवनिकायों के विषय में, अदत्तादानविरमण ग्रहण - धारण- योग्य द्रव्यों के विषय में, मैथुनविरमण रूपों या रूपसह द्रव्यों के विषय में होता है। शेष पापस्थानों से विरमण सर्वद्रव्यों के विषय में होता है । पापस्थानविरत जीवों के कर्मप्रकृतिबन्ध की प्ररूपणा १६४२. पाणाइवायविरए णं भंते ! जीवे कति कम्मपगडीओ बंधति ? गोयमा ! सत्तविहबंधगे वा अट्ठविहबंधगे या छव्विहबंधगे वा एगविहबंधगे वा अबंधगे वा । एवं मणूसे विभाणियव्वे । [१६४२ प्र.] भगवन् ! प्राणातिपात से विरत (एक) जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है ? [उ.] गौतम ! वह सप्तविध (कर्म) बन्धक होता है, अथवा अष्टविध (कर्म) बन्धक होता है, अथवा षट्विधबन्धक, एकविधबन्धक या अबन्धक होता है। इसी प्रकार मनुष्य के ( द्वारा कर्मप्रकृतियों के बन्ध के) विषय में भी कथन करना चाहिए। १६४३. पाणाइवायविरया णं भंते ! जीवा कति कम्मपगडीओ बंधंति ? गोमा ! सव्वे वि ताव होज्जा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य १ । अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधगे य १ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य २ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य छव्विहबंधगे य ३ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य छव्विहबंधगा य ४ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा अबंध ५ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अबंधगा य ६ । अहवा सत्तविहबंधगा या एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधगे य छव्विबंधगे य १ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधगे य छव्विहबंधगा य २ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य छव्विहबंधगे य ३ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधगाय छव्विहबंधगा य ४, अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधगे य अबंधए य १ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधगे य अबंधगा य २ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंध अविबंधगाय अबंधगे य ३ अहवा सत्तविहबधगा य एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य अबंधगा य ४, अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य छव्विहबंधगे य अबंधगे य १ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य छव्विहबंधगे य अबंधगा य २ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य १. पण्णवणासुत्तं ( मूलपाठ - टिप्पण) भा. १, पृ. ३५९ Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२] [ प्रज्ञापनासूत्र छव्विहबंधगा य अबंधए य ३ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य छव्विहबंधगा य अबंधगा य ४। ___ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधगे य छव्विहबंधगे य अबंधगे य १ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधगे य अबंधगा य २ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य छव्विहबंधगा य अबंधगे य ३ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधगेय छव्विहबंधगा य अबंधगाय ४ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य छव्विहबंधगेय अबंधगेय ५ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य छव्विहबंधगे य अबंधगा य ६ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य छव्विहबंधगा य अबंधगे य ७ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य छव्विहबंधगा य अबंधगा य ८ एते अट्ठ भंगा। सव्वे वि मिलिया सत्तावीसं भंगा भवंति। [१६४३ प्र.] भगवन् ! प्राणातिपात से विरत (अनेक) जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं ? [उ.] गौतम ! (१) समस्त जीव सप्तविधबन्धक और एकबिधबन्धक होते हैं। (१) अथवा अनेक सप्तविध-बन्धक अनेक एकविधबन्धक होते हैं और एक अष्टविधबन्धक होता है। (२) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक, अनेक एकविधबन्धक और अनेक अष्टविधबन्धक होते हैं । (३) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और एकविधबन्धक होते हैं और एक षड्विधबन्धक होता है। (४) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक, एकविधबन्धक तथा षड्विधबन्धक होते हैं। (५) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और एकविधबन्धक होते हैं और एक अबन्धक होता है, (६) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक, एकविधबन्धक और अबन्धक होते हैं। (१) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक अनेक एकविधबन्धक और एक अष्टविधबन्धक और एक षड्विधबन्धक होता है। (२) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और एकविधबन्धक तथा एक अष्टविधबन्धक और अनेक षड्विधबन्धक होते हैं। (३) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक, एकविधबन्धक, और अष्टविधबन्धक होते हैं और एक षड्विधबन्ध होता है। (४) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक, एकविधबन्धक, अष्टविधबन्धक और षड्विधबन्धक होते हैं। (१) अथवा अनेक सप्तविधबन्धप और एकविधबन्धक होते हैं तथा एक अष्टविधबन्धक और एक अबन्धक होता है। (२) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और एकविधबन्धक होते हैं, तथा एक अष्टविधबन्धक एवं अनेक अबन्धक होते हैं। (३) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक, एकविधबन्धक और अष्टविधबन्धक होते हैं और एक अबन्धक होता है (४) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक, एकविधबन्धक, अष्टविधबन्धक और अबन्धक होते हैं । (१) अथवा अनेक सप्तविध-बन्धक और एकविधबन्धक होते हैं तथा एक षड्विधबन्ध एवं अबन्धक होता है। (२) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और एकविधबन्धक होते हैं तथा एक षड्विधबन्धक एवं अनेक अबन्धक होते हैं। (३) अनेक सप्तविधबन्ध, एकविधबन्धक और षड्विधबन्धक होते हैं और एक अबन्धक होता है। (४) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक, एकविधबन्धक, षड्विधबन्धक और Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ क्रियापद ] [५६३ बन्धक होते हैं। (१) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और एकविबधन्धक होते हैं तथा एक अष्टविधबन्धक, षड्विधबन्धक और अबन्धक होता है। (२) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और एकविधबन्धक होते हैं तथा एक अष्टविधबन्धक और षड्विधबन्धक होता है एवं अनेक अबन्धक होते हैं। (३) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और एकविधबन्धक होते हैं तथा एक अष्टविधबन्धक, अनेक षविधबन्धक और एक अबन्धक होता है। (४) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक एवं एकविधबन्धक होते हैं तथा एक अष्टविधबन्धक होता है, और अनेक षड्विधबन्धक एवं अबन्धक होते हैं। (५) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक, एकविधबन्धक और अष्टविधबन्धक होते हैं तथा एक षड्विधबन्धक और अबन्धक होता है। (६) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक, एकविधबन्धक और अष्टविधबन्धक होते हैं तथा एक षड्विधबन्धक एवं अनेक अबन्धक होते हैं। (७) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक, एकविधबन्धक, अष्टविधबन्धक और षड्विधबन्धक होते हैं तथा एक अबन्धक होता है। (८) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक, एकविधबन्धक, अष्टविधबन्धक, षड्विधबन्धक और अबन्धक होते हैं। ये कुल आठ भंग हुए। सब मिलाकर कुल २७ भंग होते हैं। __१६४४. एवं मणूसाण वि एते चेव सत्तावीसं भंगा भाणियव्वा। ___ [१६४४] इसी प्रकार (उपर्युक्त प्रकार से) (प्राणातिपातविरत) मनुष्यों के भी (कर्मप्रकृतिबन्धसम्बन्धी) यही २७ भंग कहने चाहिए। १६४५. एवं मुसावायविरयस्स जाव मायामोसविरयस्स जीवस्स य मणूस्स य। [१६४५] इसी प्रकार (प्राणतिपातविरत एक जीव और एक मनुष्य के समान) मृषावादविरत यावत् मायामृषाविरत एक जीव तथा एक मनुष्य के भी कर्मप्रकृतिबन्ध का कथन करना चाहिए। १६४६. मिच्छादसणसल्लविरए णं भंते ! जीवे कति कम्मपिगडीओ बंधति ? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंधए वा छव्विहबंधए वा एगविहबंधए वा अबंधए वा। [१६४६ प्र.] भगवन् ! मिथ्यादर्शनशल्यविरत (एक) जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधता है ? [उ.] गौतम ! (वह) सप्तविधबन्धक, अष्टविधबन्धक, षड्विधबन्धक, एकविधबन्धक अथवा अबन्धक होता है। १६४७. [१] मिच्छादसणसल्लविरए णं भंते ! णेरइए कति कम्मपगडीओ बंधति ? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंधए वा, जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणिए। [१६४७-१ प्र.] भगवन् ! मिथ्यादर्शनशल्य से विरत (एक) नैरयिक कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधता हैं ? [उ.] गौतम ! (वह) सप्तविधबन्धक अथवा अष्टविधबन्धक होता है; (यह कथन) पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक तक (समझना चाहिए।) Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४] [प्रज्ञापनासूत्र [२] मणूसे जहा जीवे (सु. १६४६)। [१६४७-२] (एक) मनुष्य के सम्बन्ध में (कर्मप्रकृतिबन्धक का आलापक सू. १६४६ में उक्त सामान्य जीव के (आलापक के) समान (कहना चाहिए।) [३] वाणमंतर-जोइसिए-वेमाणिए जहा णेरइए। __ [१६४७-३] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक (के सम्बन्ध में कर्मप्रकृतिबन्ध का आलापक) एक नैरयिक (के कर्मप्रतिबन्ध सम्बन्धी सू. १६४७-१ में उक्त आलापक) के समान कहना चाहिए। १६४८. मिच्छादसणसल्लविरया णं भंते ! जीवा कति कम्मपगडीओ बंधंति ? गोयमा ! ते चेव सत्तावीस भंगा भाणियव्वा (सु. १६४३)। [१६४८ प्र.] भगवन् ! मिथ्यादर्शनशल्य से विरत (अनेक) जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं ? [उ.] गौतम ! (सू. १६४३ में उक्त) वे (पूर्वोक्त) ही २७ भंग (यहाँ) कहने चाहिए। १६७९.[१] मिच्छादसणसल्लविरया णं भंते ! णेरइया कति कम्मपगडीओ बंधति ? गोयमा ! सव्वे वि ताव होज सत्तविहबंधगा १ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगे य २ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य ३। [१६४९-१ प्र.] भगवन् ! मिथ्यादर्शनिशल्य से विरत (अनेक) नारक कितनी कर्मप्रकृतियां बांधते हैं ? . ___ [उ.] गौतम ! सभी (भंग इस प्रकार) होते हैं- (१) (अनेक) सप्तविधबन्धक होते हैं, (२) अथवा (अनेक) सप्तविधबन्धक होते हैं और (एक) अष्टविधबन्धक होता है, (३) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और अष्टविधबन्धक होते हैं। [२] एवं जाव वेमाणिया। णवरं मणूसाणं जहा जीवाणं (सु. १६४८)। [१६४९-२] इसी प्रकार (नैरयिकों के कर्मप्रकृतिबन्धक के आलापक के समान) यावत् (अनेक) वैमानिकों के (कर्मप्रकृतिबन्धक के आलापक कहने चाहिए।) विशेष यह है कि (अनेक) मनुष्यों के (कर्मप्रकृतिसम्बन्धी आलापक सू. १६४८ में उक्त समुच्चय अनेक) जीवों के (कर्मप्रकृति सम्बन्धी आलापक के) समान कहना चाहिए। विवेचन - अठारह पापस्थानविरत जीवों के कर्मप्रकृतिबन्ध का विचार - प्रस्तुत ८ सूत्रों (सू. १६४२ से १६४९ तक) में एक जीव, अनेक जीव, एक नैरयिक आदि और अनेक नैरयिक आदि की अपेक्षा से कर्मप्रकृतिबन्ध का विचार अनेक भंगों द्वारा प्रस्तुत किया गया है। अनेक जीवों की अपेक्षा से २७ भंग-कर्मप्रकृतिबन्ध के एकवचन और बहुवचन के कुल २७ भंग होते हैं, वे इस प्रकार हैं- द्विकसंयोगी भंग- १, त्रिकसंयोगी भंग-६, चतु:संयोगी भंग- १२, और पंचसंयोगी Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ क्रियापद ] [५६५ भंग- ८, यों कुल मिलाकर २७ भंग हुए। - मनुष्यों के भी कर्मप्रकृतिबन्ध के इसी प्रकार २७ भंग होते हैं। ये सभी सूत्र क्रियाओं से सम्बन्धित हैं, क्योंकि क्रियाओं से ही कर्मबन्ध होता है। पापस्थानविरत जीवादि में क्रियाभेदनिरूपण १६५०. पाणाइवायविरयस्स णं भंते ! जीवस्स किं आरंभिया किरिया कज्जति' [जाव मिच्छादंसणवतिया किरिया कजइ] ? गोयमा ! पाणाइवायविरयस्स जीवस्स आरंभिया किरिया सिय कज्जइ सिय णो कज्जइ। [१६५० प्र.] भगवन् ! प्राणातिपात से विरत जीव के क्या आरम्भिकीक्रिया होती है ? [यावत् क्या मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया होती है ?] [उ.] गौतम ! प्राणातिपातविरत जीव के आरम्भिकीक्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती है। १६५१. पाणाइवायविरयस्स णं भंते ! जीवस्स पारिग्गहिया किरिया कजइ ? गोयमा ! णो इणढे समटे । [१६५१ प्र.] भगवन् ! प्राणातिपातविरत जीव के क्या पारिग्रहिकीक्रिया होती है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। १६५२. पाणाइवायविरयस्स णं भंते ! जीवस्स मायावत्तिया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! सिय कजति सिय णो कजति । [१६५२ प्र.] भंते ! प्राणातिपातविरत जीव के मायाप्रत्ययाक्रिया होती है ? [उ.] गौतम ! कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती। १६५३. पाणाइवायविरयस्स णं भंते ! जीवस्स अपच्चक्खाणवतिया किरिया कज्जति ? गोयमा ! णो इणटे समढे । [१६५३ प्र.] भगवन् ! प्राणातिपातविरत जीव के क्या अप्रत्याख्यानप्रत्ययाक्रिया होती है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। २. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४५१ २. [जाव मिच्दादंसणत्तिया किरिया कज्जइ ?], यह पाठ यहाँ असंगत है, क्योंकि आगे १६५४ सू. में इसके सम्बन्ध में प्रश्र किया गया है जिसका उत्तर भगवान् ने 'णो इणढे समढे' दिया है, जबकि यहाँ उत्तर- आ. कि. सिय कज्जइ, सिय णो कज्जइ ।' Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ ] १६५४. मिच्छादंसणवत्तियाए पुच्छा । गोयमा ! नो इणट्ठे समट्ठे । [१६५४] (इसी प्रकार की) पृच्छा मिथ्यादर्शनप्रत्यया के सम्बन्ध में करनी चाहिए। [3.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [ प्रज्ञापनासूत्र १६५५. एवं पाणावायविरयस्स मणूसस्स वि । [१६५५] इसी प्रकार प्राणातिपातविरत मनुष्य का भी (आलापक कहना चाहिए । ) १६५६. एवं जाव मायामोसविरयस्स जीवस्स मणूसस्स य । [ १६५६] इसी प्रकार मायामृषाविरत जीव और मनुष्य के सम्बन्ध में भी पूर्ववत् कहना चाहिए। १६५७. मिच्छादंसणसल्लविरयस्स णं भंते ! जीवस्स किं आरंभिया किरिया कज्जति जाव मिच्छादंसणवत्तिया किरिया कज्जति ? गोयमा ! मिच्छादंसणसल्लविरयस्स जीवस्स आरंभिया किरिया सिय कज्जति सिय नो कज्जति । एवं जाव अपच्चक्खाणकिरिया । मिच्छादंसणवत्तिया किरिया नो कज्जति । [१६५७ प्र.] भगवन् ! मिथ्यादर्शनशल्य से विरत जीव के क्या आरम्भिकीक्रिया होती है, यावत् मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया होती है ? [उ.] गौतम ! मिथ्यादर्शनशल्य से विरत जीव के आरम्भिकीक्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती है। इसी प्रकार अप्रत्याख्यानक्रिया तक (कदाचित् होती है और कदाचित् नहीं होती है । किन्तु) मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया नहीं होती। १६५८. मिच्छादंसणसल्लविरयस्स णं भंते ! णेरइयस्स किं आरंभिया किरिया कज्जति जाव मिच्छादंसणवत्तिया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! आरंभिया वि किरिया कज्जति जाव अपच्चक्खाणकिरिया वि कज्जति, मिच्छादंसणवत्तिया किरिया णो कज्जइ । [१६५८ प्र.] भगवन् ! मिथ्यादर्शनशल्यविरत नैरयिक के क्या आरम्भिकीक्रिया होती है, यावत् मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया होती है ? [उ.] गौतम ! (उसके) आरम्भिकीक्रिया भी होती है, यावत् अप्रत्याख्यानक्रिया भी होती है, (किन्तु) मिथ्यादर्शनप्रत्याक्रिया नहीं होती । १६५९. एवं जाव थणियकुमारस्स । [१६५९] इसी प्रकार (मिथ्यादर्शनविरत नैरयिक के क्रिया सम्बन्धी आलापक के समान) असुरकुमार Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ क्रियापद ] से लेकर स्तनितकुमार तक (के क्रियासम्बन्धी आलापक कहने चाहिए। ) १६६०. मिच्छादंसणसल्लविरयस्स णं भंते! पंचेंदियतिरिक्खजोणियस्स एवमेव पुच्छा । गोयमा ! आरंभिया किरिया कज्जइ जाव मायावत्तिया किरिया कज्जइ, अपच्चक्खाणकिरिया सिय णो कज्जइ, मिच्छादंसणवत्तिया किरिया णो कज्जति । [१६६० प्र.] इसी प्रकार की पृच्छा मिथ्यादर्शनशल्यविरत पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक की (क्रियासम्बन्धी है ।) [उ.] गौतम ! ( उसके आरम्भिकीक्रिया होती है, यावत् मायाप्रत्ययाक्रिया होती है । अप्रत्याख्यानक्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती है, (किन्तु) मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया नहीं होती है। [ ५६७ १६६१. मणूसस्स जहा जीवस्स (सु. १६५७ ) । [१६६१] (मिथ्यादर्शनशल्यविरत) मनुष्य का क्रियासम्बन्धी प्ररूपण (सू. १६५७ में उक्त सामान्य ) जीव (के क्रियासम्बन्धी प्ररूपण) के समान (समझना चाहिए।) १६६२. वाणमंतर - जोइसिय-वेमाणियाणं जहा णेरइयस्स (सु. १६५८ ) । [१६६२] (मिथ्यादर्शनशल्यविरत) वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों का (क्रियासम्बन्धी कथन सू. १६५८ में उक्त) नैरयिक ( के क्रियासम्बन्धी कथन) के समान (समझना चाहिए।) विवेचन - अष्टादशपापस्थानविरत जीवादि में क्रियासम्बन्धी प्ररूपणा - प्रस्तुत १३ सूत्रों (१६५० से १६६२ तक) में प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य से विरत सामान्य जीव तथा चौवीसदण्डकवर्ती जीवों को लगने वाली आरम्भिकी आदि क्रियाओं की प्ररूपणा की गई है। - स्पष्टीकरण-प्राणातिपात से लेकर मायामृषा से विरत ( औधिक) जीव तथा मनुष्य के आरम्भिकीऔर मायाप्रत्यया क्रिया विकल्प से लगती है, शेष तीन पारिग्रहिकी, अप्रत्याख्यानप्रत्यया एवं मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया नहीं लगती, क्योंकि जो जीव या मनुष्य प्राणातिपात से विरत होता है, वह सर्वविरत होता है, इसलिए सम्यक्त्वपूर्वक ही महाव्रत ग्रहण करता है, हिंसादि का प्रत्याख्यान करता है तथा अपरिग्रहमहाव्रत को भी ग्रहण करता है, इसलिए मिथ्यादर्शनप्रत्यया, अप्रत्याख्यानप्रत्यया और पारिग्रहिकी क्रिया उसे नहीं लगती। प्राणातिपातविरत प्रमत्तसंयत के आरम्भिकी क्रिया होती है, शेष सर्वविरत को नहीं होती। अप्रमत्तसंयत को मायाप्रत्यया क्रिया कदाचित् प्रवचनमालिन्य के रक्षणार्थ (उस अवसर पर) लगती है, शेष समय में नहीं । उसी मिथ्यादर्शनशल्यविरत जीव को आरम्भिकीक्रिया लगती है, जो प्रमत्तसंयत हो, पारिग्रहिकीक्रिया देशविरत तक होती है, आगे नहीं । मायाप्रत्यया भी अनिवृत्तबादरसम्पराय तक होती है, आगे नहीं होती। अप्रत्याख्यानक्रिया भी अविरतसम्यग्दृष्टि तक होती है, आगे नहीं। इसलिए मिथ्यादर्शनशल्यविरत के लिए इन क्रियाओं के सम्बन्ध में विकल्पसूचक प्ररूपणा है। मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया मिथ्यादर्शनविरत में सर्वथा Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८] [प्रज्ञापनासूत्र असम्भव है। आगे चौवीसदण्डक को लेकर विचार किया गया है। मिथ्यादर्शनविरत नैरयिक से लेकर स्तनितकुमार पर्यन्त चार क्रियाएँ होती हैं, मिथ्यादर्शनप्रत्यया नहीं होती। तिर्यञ्च-पंचेन्द्रिय में प्रारम्भ की तीन क्रियाएँ नियम से होती है, अप्रत्याख्यानक्रिया विकल्प से होती है, जो देशविरत होता है, उसके नहीं होती, शेष के होती है। मिथ्यादर्शनप्रत्यया नहीं होती। मनुष्य में सामान्य जीव के समान तथा व्यन्तरादि देवों में नारक के समान क्रियाएँ समझनी चाहिए।' आरम्भिकी आदि क्रियाओं का अल्पबहुत्व १६६३. एयासि णं भंते ! आरंभियाणं जाव मिच्छादसणवत्तियाण य कमरे कयरेहितो अप्पा वा' ४? गोयमा ! सव्वत्थोवाओ मिच्छादसणवत्तियाओ किरियाओ, अपच्चक्खाणकिरियाओ विसेसाहियाओ, पारिग्गहियाओ विसेसाहियाओ, आरंभियाओ किरियाओ विसेसाहियाओ, मायावत्तियाओ विसेसाहियाओ। ॥पण्णवणाए भगवईए बावीसइमं किरियापयं समत्तं॥ ___ [१६६३ प्र.] भगवन् ! इन आरम्भिकी से लेकर मिथ्यादर्शनप्रत्यया तक की क्रियाओं में कौन किससे अल्प है, बहुत है, तुल्य है अथवा विशेषाधिक है ? __ [उ.] गौतम ! सबसे कम मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रियाएँ हैं। (उनसे) अप्रत्याख्यानक्रियाएँ विशेषाधिक हैं। (उनसे) पारिग्रहिकीक्रियाएँ विशेषाधिक हैं। (उनसे) आरम्भिकीक्रियाएँ विशेषाधिक हैं; (और इन सबसे) मायाप्रत्ययाक्रियाएँ विशेषाधिक हैं। विवेचन - क्रियाओं का अल्पबहुत्व : क्यों और कैसे ? - सबसे कम मिथ्यादर्शप्रत्ययाक्रियाएँ हैं, क्योंकि वे मिथ्यादृष्टियों के ही होती हैं। उनसे अप्रत्याख्यानक्रिया विशेषाधिक इसलिए हैं कि वे अविरत सम्यग्दृष्टियों एवं मिथ्यादृष्टियों के होती हैं, उनसे पारिग्रहिकीक्रियाएँ विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे देशविरतों तथा उनसे पूर्व श्रेणी के प्राणियों के भी होती हैं, आरम्भिकीक्रियाएँ उनसे विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रमत्तसंयतों तथा इनसे पूर्व के गुणस्थानों में होती हैं। उनसे भी मायापत्यया विशेषाधिक हैं, क्योंकि अन्य सब संसारी जीवों के उपरान्त अप्रमत्तसंयतों में भी पाई जाती हैं। ॥ प्रज्ञापना भगवती का बाईसवाँ क्रियापद सम्पूर्ण॥ १. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४५२ २. 'अप्पा' के आगे अंकित ४ का अंक शेष "बहू वा तुल्ला वा, विसेसाहिया वा" इन तीन पदों का सूचक है। ३. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४५२ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल [स्व. आचार्यप्रवर श्री आत्मारामजी म. द्वारा सम्पादित नन्दीसूत्र से उद्धृत]. स्वाध्याय के लिए आगमों में जो समय बताया गया है, उसी समय शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए। अनध्यायकाल में स्वाध्याय वर्जित है। मनुस्मृति आदि स्मृतियों में भी अनध्यायकाल का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। वैदिक लोग भी वेद के अनध्यायों का उल्लेख करते हैं। इसी प्रकार अन्य आर्ष ग्रन्थों का भी अनध्याय माना जाता है। जैनागम भी सर्वज्ञोक्तदेवाधिष्ठित तथा स्वरविद्या संयुक्त होने के कारण, इनका भी आगमों में अनध्यायकाल वर्णित किया गया है,जैसे कि दसविधे अंतलिक्खिते असण्झाए पण्णत्ते, तं जहा - उक्कावाते, दिसिदाधे, गजिते, विजुते, निग्घाते, जुवते, जक्खालित्ते, धूमिता, महिता, रयउग्घाते। दसविहे ओरालिते असज्झातिते, तं जहा- अट्ठी, मंसं, सोणिते, असुचिसामंते, सुसाणसामंते, चंदोवराते, सूरोवराते, पडने, रायवुग्गहे, उवस्सयस्स अंतो ओरालिए सरीरगे। -स्थानाङ्गसूत्र, स्थान १० नोकप्पति निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा चउहिं महापाडिवएहिं सज्झायं करित्तए,तं जहा-आसाढपाडिवए, इंदमहपाडिवए कत्तिअपाडिवए सुगिम्हपाडिवए। नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा, चउहिं संझाहिं सज्झायं करेत्तए,तं जहाः-पढिमाते, पच्छिमाते, मज्झण्हे अङ्करते। कप्पई निग्गंथाणवा, निग्गंथीण वा, चाउक्कालं सज्झायं करेत्तए, तं जहा-पुव्वण्हे अवरण्हे, पओसे, पच्चूसे। -स्थानाङ्गसूत्र, स्थान ४, उद्देश २ . उपरोक्त सूत्रपाठ के अनुसार दस आकाश से सम्बन्धित, दस औदारिक शरीर से सम्बन्धित, चार महाप्रतिपदा, चार महाप्रतिपदा की पूर्णिमा और चार सन्ध्या, इस प्रकार बत्तीस अनध्याय माने गए हैं, जिनका संक्षेप में निम्न प्रकार से वर्णन है, जैसेआकाश सम्बन्धी दस अनध्याय १. उल्कापात-तारापतन-यदि महत् तारापतन हुआ है तो एक प्रहर पर्यन्त शास्त्र स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। २.दिग्दाह-जब तक दिशा रक्तवर्ण की हों अर्थात् ऐसा मालूम पड़े कि दिशा में आग सी लगी है, तब भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। ३.गर्जित-बादलों के गर्जन पर एक प्रहर पर त स्वाध्याय न करे। ४. विद्युत-बिजली चमकने पर एक प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय न करे। किन्तु गर्जन और विद्युत का अस्वाध्याय चातुर्मास में नहीं मानना चाहिए। क्योंकि वह गर्जन और विद्युत प्रायः ऋतु स्वभाव से ही होता है। अत: आर्द्रा से स्वाति नक्षत्र पर्यन्त अनध्याय नहीं माना जाता। ५.निर्घात-बिना बादल के आकाश में व्यन्तरादिकृत घोर गर्जन होने पर, या बादलों सहित आकाश में कड़कने पर दो प्रहर तक अस्वाध्याय काल है। ६.यूपक-शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया की सन्ध्या, चन्द्रप्रभा के मिलने को यूपक कहा जाता है। इन दिनों प्रहर रात्रि पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। ७. यक्षादीत-कभी किसी दिशा में बिजली चमकने जैसा, थोड़े-थोड़े समय पीछे जो प्रकाश होता है वह यक्षादीप्त कहलाता है। अतः आकाश में जब तक यक्षाकार दीखता रहे तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८.धूमिका-कृष्ण-कार्तिक से लेकर माघ तक का समय मेघों का गर्भमास होता है। इसमें धूम्र वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुंध पड़ती है। वह धूमिका-कृष्ण कहलाती है। जब तक यह धुंध पड़ती रहे, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। ९. मिहिकाश्वेत- शीतकाल में श्वेत वर्ण का सूक्ष्म जलरूप धुन्ध मिहिका कहलाती है। जब तक यह गिरती रहे, तब तक अस्वाध्याय काल है। १०. रज-उद्घात- वायु के कारण आकाश में चारों ओर धूलि छा जाती है। जब तक यह धूलि फैली रहती है, स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। उपरोक्त दस कारण आकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय के हैं। औदारिक सम्बन्धी दस अनध्याय ११-१२-१३. हड्डी, मांस और रुधिर-पंचेन्द्रिय तिर्यच की हड्डी, मांस और रुधिर यदि सामने दिखाई दें, तो जब तक वहाँ से वह वस्तुएँ उठाई न जाएं, तब तक अस्वाध्याय है। वृत्तिकार आस-पास के ६० हाथ तक इन वस्तुओं के होने पर अस्वाध्याय मानते हैं। इसी प्रकार मनुष्य सम्बन्धी अस्थि, मांस और रुधिर का भी अनध्याय माना जाता है। विशेषता इतनी है कि इनका अस्वाध्याय सौ हाथ तक तथा एक दिन-रात का होता है। स्त्री के मासिक धर्म का अस्वाध्याय तीन दिन तक। बालक एवं बालिका के जन्म का अस्वाध्याय क्रमशः साव एवं आठ दिन पर्यन्त का माना जाता है। १४.अशुचि- मल-मूत्र सामने दिखाई देने तक अस्वाध्याय है। १५.श्मशान-श्मशानभूमि के चारों ओर सौ-सौ हाथ पर्यन्त अस्वाध्याय माना जाता है। १६. चन्द्रग्रहण-चन्द्रग्रहण होने पर जघन्य आठ, मध्यम बारह और उत्कृष्ट सोलह प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। १७. सूर्यग्रहण-सूर्यग्रहण होने पर भी क्रमशः आठ, बारह और सोलह प्रहर पर्यन्त अस्वाध्यायकाल माना गया है। १८.पतन-किसी बड़े मान्य राजा अथवा राष्ट्रपुरुष का निधन होने पर जब तक उसका दाहसंस्कार न हो तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। अथवा जब तक दूसरा अधिकारी सत्तारूढ न हो तब तक शनैः शनैः स्वाध्याय करना चाहिए। १९. राजव्युद्ग्रह-समीपस्थ राजाओं में परस्पर युद्ध होने पर जब तक शान्ति न हो जाए, तब तक उसके पश्चात् भी एक दिन-रात्रि स्वाध्याय नहीं करें। २०.औदारिक शरीर- उपाश्रय के भीतर पंचेन्द्रिय जीव का वध हो जाने पर जब तक कलेवर पड़ा रहे, तब तक तथा १०० हाथ तक यदि निर्जीव कलेवर पड़ा हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। . अस्वाध्याय के उपरोक्त १० कारण औदारिक शरीर सम्बन्धी कहे गये हैं। २१-२८. चार महोत्सव और चार महाप्रतिपदा-आषाढपूर्णिमा, आश्विनपूर्णिमा, कार्तिकपूर्णिमा और चैत्रपूर्णिमा ये चार महोत्सव हैं। इन पूर्णिमाओं के पश्चात् आने वाली प्रतिपदा को महाप्रतिपदा कहते हैं। इनमें स्वाध्याय करने का निषेध है। २९-३२.प्रातः सायं मध्याह्न और अर्धरात्रि-प्रातः सूर्य उगने से एक घड़ी पहिले तथा एक घड़ी पीछे। सूर्यास्त होने से एक घड़ी पहिले तथा एक घड़ी पीछे। मध्याह्न अर्थात् दोपहर में एक घड़ी आगे और एक घड़ी पीछे एवं अर्धरात्रि में भी एक घड़ी आगे तथा एक घड़ी पीछे स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सदस्थ-सूची/ श्री आगमप्रकाशन-समिति, ब्यावर अर्थसहयोगी सदस्यों की शुभ नामावली महास्न १. श्री सेठ मोहनमलजी चोरड़िया, मद्रास १. श्री बिरदीचंदजी प्रकाशचंदजी तलेसरा, पाली २. श्री गुलाबचन्दजी मांगीलालजी सुराणा, २. श्री ज्ञानराजजी केवलचन्दजी मूथा, पाली सिकन्दराबाद ३. श्री प्रेमराजजी जतनराजजी मेहता, मेड़ता सिटी ३. श्री पुखराजजी शिशोदिया, ब्यावर ४. श्री श. जड़ावमलजी माणकचन्दजी बेताला, ४. श्री सायरमलजी जेठमलजी चोरड़िया, बैंगलोर बागलकोट ५. श्री प्रेमराजजी भंवरलालजी श्रीश्रीमाल, दुर्ग ५. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, ब्यावर ६. श्री एस. किशनचन्दजी चोरड़िया, मद्रास ६. श्री मोहनलालजी नेमीचन्दजी ललवाणी, ७. श्री कंवरलालजी बैताला, गोहाटी ___चांगाटोला ८. श्री सेठ खींवराजजी चोरड़िया मद्रास ७. श्री दीपचंदजी चन्दनमलजी चोरड़िया, मद्रास ९. श्री गुमानमलजी चोरड़िया, मद्रास ८. श्री पन्नालालजी भागचन्दजी बोथरा, चांगाटोला १०. श्री एस. बादलचन्दजी चोरड़िया, मद्रास ९. श्रीमती सिरेकुंवर बाई धर्मपत्नी स्व. श्री ११. श्री जे. दुलीचन्दजी चोरड़िया, मद्रास सुगनचन्दजी झामड़, मदुरान्तकम् १ १२. श्री एस. रतनचन्दजी चोरडिया, मद्रास १०. श्री बस्तीमलजी मोहनलालजी बोहरा (KGF) १३. श्री जे. अन्नराजजी चोरड़िया, मद्रास जाड़न १४. श्री एस. सायरचन्दजी चोरड़िया, मद्रास ११. श्री थानचन्दजी मेहता, जोधपुर १५. श्री आर. शान्तिलालजी .उत्तमचन्दजी चोरड़िया, १२. श्री भैरूदानजी लाभचन्दजी सुराणा, नागौर मद्रास १३. श्री खूबचन्दजी गादिया, ब्यावर १६. श्री सिरेमलजी हीराचन्दजी चोरड़िया, मद्रास १४. श्री मिश्रीलालजी धनराजजी विनायकिया, १७. श्री जे. हुक्मीचन्दजी चोरड़िया, मद्रास ब्यावर . १५. श्री इन्द्रचन्दजी बैद, राजनांदगांव ' १. श्री अगरचन्दजी फतेचन्दजी पारख, जोधपुर १६. श्री रावतमलजी भीकमचन्दजी पगारिया, . २. श्री जसराजजी गणेशमलजी संचेती, जोधपुर बालाघाट ३. श्री तिलोकचंदजी सागरमलजी संचेती, मद्रास · १७. श्री गणेशमलजी धर्मीचन्दजी कांकरिया, टंगला ४. श्री पूसालालजी किस्तूरचंदजी सुराणा, कटंगी १८. श्री सुगनचन्दजी बोकड़िया, इन्दौर ५. श्री आर. प्रसन्नचन्दजी चोरड़िया, मद्रास १९. श्री हरकचन्दजी सागरमलजी बेताला, इन्दौर ६. श्री दीपचन्दजी चोरड़िया, मद्रास २०. श्री रघुनाथमलजी लिखमीचन्दजी लोढ़ा, ७. श्री मूलचन्दजी चोरड़िया, कटंगी चांगाटोला ८. श्री वर्धमान इण्डस्ट्रीज, कानपुर २१. श्री सिद्धकरणजी शिखरचन्दजी बैद, ९. श्री मांगीलालजी मिश्रीलालजी संचेती, दुर्ग चांगाटोला POR००१२०२२ Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदस्थ-सूची/. २२. श्री सागरमलजी नोरतमलजी पींचा, मद्रास ७. श्री बी. गजराजजी बोकडिया, सेलम २३. श्री मोहनराजजी मुकनचन्दजी बालिया, ८. श्री फूलचन्दजी गौतमचन्दजी कांटेड, पाली अहमदाबाद ९. श्री के. पुखराजजी बाफणा, मद्रास २४. श्री केशरीमलजी जंवरीलालजी तलेसरा, पाली १०. श्री रूपराजजी जोधराजजी मूथा, दिल्ली २५. श्री रतनचन्दजी उत्तमचन्दजी मोदी, ब्यावर ११. श्री मोहनलालजी मंगलचंदजी पगारिया, २६. श्री धर्मीचन्दजी भागचन्दजी बोहरा, झूठा - रायपुर २७. श्री छोगामलजी हेमराजजी लोढ़ा डोंडीलोहारा १२. श्री नथमलजी मोहनलालजी लूणिया, २८. श्री गुणचंदजी दलीचंदजी कटारिया, बेल्लारी चण्डावल २९. श्री मूलचन्दजी सुजानमलजी संचेती, जोधपुर १३. श्री भंवरलालजी गौतमचन्दजी पगारिया, ३०. श्री सी. अमरचन्दजी बोथरा, मद्रास कुशालपुरा ३१. श्री भंवरलालजी मूलचन्दजी सुराणा, मद्रास १४. श्री उत्तमचंदजी मांगीलालजी, जोधपुर ३२. श्री बादलचंदजी जुगराजजी मेहता, इन्दौर १५. श्री मूलचन्दजी पारख, जोधपुर ३३. श्री लालचंदजी मोहनलालजी कोठारी, गोठन १६. श्री सुमेरमलजी मेड़तिया, जोधपुर ३४. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, अजमेर १७. श्री गणेशमलजी नेमीचन्दजी टांटिया, जोधपुर ३५. श्री मोहनलालजी पारसमलजी पगारिया, १८. श्री उदयराजजी पुखराजजी संचेती, जोधपुर _____ बैंगलोर १९. श्री बादरमलजी पुखराजजी बंट, कानपुर । ३६. श्री भंवरीमलजी चोरड़िया, मद्रास २०. श्रीमती सुन्दरबाई गोठी धर्मपत्नी श्री ताराचंदजी ३७. श्री भंवरलालजी गोठी, मद्रास ___गोठी, जोधपुर ३८. श्री जालमचंदजी रिखबचंदजी बाफना, आगरा २१. श्री रायचन्दजी मोहनलालजी, जोधपुर ३९. श्री घेवरचंदजी पुखराजजी भुरट, गोहाटी २२. श्री घेवरचन्दजी रूपराजजी, जोधपुर ४०. श्री जबरचन्दजी गेलड़ा, मद्रास . २३. श्री भंवरलालजी माणकचंदजी सुराणा, मद्रास ४१. श्री जड़ावमलजी सुगनचन्दजी, मद्रास २४. श्री जंवरीलालजी अमरचन्दजी कोठारी, ४२. श्री पुखराजजी विजयराजजी, मद्रास ४३. श्री चेनमलजी सुराणा ट्रस्ट, मद्रास २५. श्री माणकचंदजी किशनलालजी, मेड़तासिटी ४४. श्री लूणकरणजी रिखबचंदजी लोढ़ा, मद्रास २६. श्री मोहनलालजी गुलाबचन्दजी चतर, ब्यावर ४५. श्री सूरजमलजी सजनराजजी महेता, कोप्पल २७. श्री जसराजजी जंवरीलालजी धारीवाल, सहयोगी सदस्य जोधपुर . १. श्री देवकरणजी श्रीचन्दजी डोसी, मेड़तासिटी २८. श्री मोहनलालजी चम्पालालजी गोठी, जोधपुर २. श्रीमती छगनीबाई विनायकिया, ब्यावर २९. श्री नेमीचंदजी डाकलिया मेहता, जोधपुर ३. श्री पूनमचन्दजी नाहटा, जोधपुर ३०. श्री ताराचंदजी केवलचंदजी कर्णावट, जोधपुर ४. श्री भंवरलालजी विजयराजजी कांकरिया, ३१. श्री आसूमल एण्ड कं. , जोधपुर ३२. श्री पुखराजजी लोढा, जोधपुर ५. श्री भंवरलालजी चौपड़ा, ब्यावर ३३. श्रीमती सुगनीबाई धर्मपत्नी श्री मिश्रीलालजी ६. श्री विजयराजजी रतनलालजी चतर, ब्यावर सांड, जोधपुर ब्यावर चिल्लीपुरम् Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोधपुर -सदस्थ-सूची/ ३४. श्री बच्छराजजी सुराणा, जोधपुर ६३. श्री चन्दनमलजी प्रेमचंदजी मोदी, भिलाई ३५. श्री हरकचन्दजी मेहता, जोधपुर ६४. श्री भीवराजजी बाघमार, कुचेरा ३६. श्री देवराजजी लाभचंदजी मेड़तिया, जोधपुर ६५. श्री तिलोकचंदजी प्रेमप्रकाशजी, अजमेर ३७. श्री कनकराजजी मदनराजजी गोलिया, जोधपुर ६६. श्री विजयलालजी प्रेमचंदजी गुलेच्छा ३८. श्री घेवरचन्दजी पारसमलजी टांटिया, जोधपुर राजनांदगांव ३९. श्री मांगीलालजी चोरड़िया, कुचेरा ६७. श्री रावतमलजी छाजेड़, भिलाई ४०. श्री सरदारमलजी सुराणा, भिलाई ६८. श्री भंवरलालजी डूंगरमलजी कांकरिया, ४१. श्री ओकचंदजी हेमराजजी सोनी, दुर्ग भिलाई . ४२. श्री सूरजकरणजी सुराणा, मद्रास ६९. श्री हीरालालजी हस्तीमलजी देशलहरा. ४३. श्री घीसूलालजी लालचंदजी पारख, दुर्ग भिलाई ४४. श्री पुखराजजी बोहरा,(जैन ट्रान्सपोर्ट कं.)- ६०. श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ, ५ दल्ली-राजहरा ४५. श्री चम्पालालजी सकलेचा, जालना ७१. श्री चम्पालालजी बुद्धराजजी बाफणा, ब्यावर ४६. श्री प्रेमराजजी मीठालालजी कामदार, बैंगलोर .. ७२. श्री गंगारामजी इन्द्रचंदजी बोहरा, कुचेरा ४७. श्री भंवरलालजी मूथा एण्ड सन्स, जयपुर ७३. श्री फतेहराजजी नेमीचंदजी कर्णावट, कलकत्ता ४८. श्री लालचंदजी मोतीलालजी गादिया, बैंगलोर ७४. श्री बालचंदजी थानचन्दजी भुरट, कलकत्ता ४९. श्री भंवरलालजी नवरत्नमलजी सांखला, ७५. श्री सम्पतराजजी कटारिया, जोधपुर मेटूपलियम ७६. श्री जवरीलालजी शांतिलालजी सुराणा, बोलारम ५०. श्री पुखराजजी छल्लाणी, करणगुल्ली ७७. श्री कानमलजी कोठारी, दादिया ५१. श्री आसकरणजी जसराजजी पारख, दुर्ग ७५. श्री पन्नालालजी मोतीलालजी सुराणा, पाली ५२. श्री गणेशमलजी हेमराजजी सोनी, भिलाई ७९. श्री माणकचंदजी रतनलालजी मुणोत, टंगला ५३. श्री अमृतराजजी जसवन्तराजजी मेहता, ८०. श्री चिम्मनसिंहजी मोहनसिंहजी लोढा, ब्यावर . मेड़तासिटी ८१. श्री रिद्धकरणजी रावतमलजी भुरट, गौहाटी ५४. श्री षेवरचंदजी किशोरमलजी पारख, जोधपुर ८२. श्री पारसमलजी महावीरचंदजी बाफना, गोठन ५५ श्री मांगीलालजी रेखचंदजी पारख, जोधपुर ८३. श्री फकीरचंदजी कमलचंदजी श्रीश्रीमाल, ५६. श्री मुन्नीलालजी मूलचंदजी गुलेच्छा, जोधपुर कुचेरा ५७. श्री रतनलालजी लखपतराजजी, जोधपुर ८४. श्री मांगीलालजी मदनलालजी चोरडिया, ५८. श्री जीवराजजी पारसमलजी कोठारी, मेड़ता- भैरूंदा ८५. श्री सोहनलालजी लूणकरणजी सुराणा, कुचेरा ५९. श्री भंवरलालजी रिखबचंदजी नाहटा, नागौर ८६. श्री घीसूलालजी, पारसमलजी, जंवरीलालजी ६०. श्री मांगीलालजी प्रकाशचन्दजी रूणवाल, कोठारी, गोठन ८७. श्री सरदारमलजी एण्ड कम्पनी, जोधपुर ६१. श्री पुखराजजी बोहरा, पीपलिया कलां ८८. श्री चम्पालालजी हीरालालजी बागरेचा, ६२. श्री हरकचंदजी जुगराजजी बाफना, बैंगलोर . जोधपुर सिटी मैसूर Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९. श्री पुखराजजी कटारिया, जोधपुर ११२. श्री चांदमलजी धनराजजी मोदी, अजमेर ९०. श्री इन्द्रचन्दजी मुकनचन्दजी, इन्दौर ११३. श्री रामप्रसन्न ज्ञानप्रसार केन्द्र, चन्द्रपुर ९१. श्री भंवरलालजी बाफणा, इन्दौर ११४. श्री भूरमलजी दुलीचंदजी बोकड़िया, मेड़ता९२. श्री जेठमलजी मोदी, इन्दौर सिटी ९३. श्री बालचन्दजी अमरचन्दजी मोदी, ब्यावर ११५. श्री मोहनलालजी धारीवाल, पाली ९४. श्री कुन्दनमलजी पारसमलजी भंडारी, बैंगलोर ११६. श्रीमती रामकुंवरबाई धर्मपत्नी श्री चांदमलजी ९५. श्रीमती कमलाकंवर ललवाणी धर्मपत्नी स्व. लोढा, बम्बई श्री पारसमलजी ललवाणी, गोठन ११७. श्री मांगीलालजी उत्तमचंदजी बाफणा, बैंगलोर ९६. श्री अखेचन्दजी लूणकरणजी भण्डारी, ११८. श्री सांचालालजी बाफणा, औरंगाबाद कलकत्ता ११९. श्री भीखमचन्दजी माणकचन्दजी खाबिया, ९७. श्री सुगनचन्दजी संचेती, राजनांदगांव (कुडालोर)मद्रास ९८. श्री प्रकाशचंदजी जैन, नागौर १२०. श्रीमती अनोपकुंवर धर्मपत्नी श्री चम्पालालजी ९९. श्री कुशालचंदजी रिखबचन्दजी सुराणा, संघवी, कुचेरा बोलारम १२१. श्री सोहनलालजी सोजतिया, थांवला १००. श्री लक्ष्मीचंदजी अशोककुमारजी श्रीश्रीमाल, १२२. श्री चम्पालालजी भण्डारी, कलकत्ता . कुचेरा १२३. श्री भीखमचन्दजी गणेशमलजी चौधरी, १०१. श्री गूदड़मलजी चम्पालालजी, गोठन धूलिया १०२. श्री तेजराजजी कोठारी, मांगलियावास १२४. श्री पुखराजजी किशनलालजी तातेड़, १०३. श्री सम्पतराजजी चोरडिया, मद्रास सिकन्दराबाद १०४. श्री अमरचंदजी छाजेड़, पादु बड़ी १२५. श्री मिश्रीलालजी सज्जनलालजी कटारिया १०५. श्री जुगराजजी धनराजजी बरमेचा, मद्रास सिकन्दराबाद १०६. श्री पुखराजजी नाहरमलजी ललवाणी, मद्रास १२६. श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, १०७. श्रीमती कंचनदेवी व निर्मला देवी, मद्रास बगड़ीनगर १०८. श्री दुलेराजजी भंवरलालजी कोठारी, कुशाल- १२७. श्री पुखराजजी पारसमलजी ललवाणी, पुरा बिलाड़ा १०९. श्री भंवरलालजी मांगीलालजी बेताला, डेह १२८. श्री टी. पारसमलजी चोरडिया, मद्रास ११०. श्री जीवराजजी भंवरलालजी चोरड़िया, भैरूंदा १२९. श्री मोतीलालजी आसूलालजी बोहरा एण्ड १११. श्री मांगीलालजी शांतिलालजी रूणवाल, कं., बैंगलोर । हरसोलाव १३०. श्री सम्पतराजजी सुराणा, मनमाड़ Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी म.सा. 'मधुकर' मुनि का जीवन परिचय माता जन्म तिथि वि.सं. 1970 मार्गशीर्ष शुक्ला चतुर्दशी जन्म-स्थान तिंवरी नगर, जिला-जोधपुर (राज.) श्रीमती तुलसीबाई पिता श्री जमनालालजी धाड़ीवाल दीक्षा तिथि वैशाख शुक्ला 10 वि.सं. 1980 दीक्षा-स्थान भिणाय ग्राम, जिला-अजमेर दीक्षागुरु श्री जोरावरमलजी म.सा. शिक्षागुरु (गुरुभ्राता) श्री हजारीमलजी म.सा. आचार्य परम्परा पूज्य आचार्य श्री जयमल्लजी म.सा. आचार्य पद जय गच्छ-वि.सं. 2004 श्रमण संघ की एकता हेतु आचार्य पद का त्याग वि.सं.२००९ उपाध्याय पद वि.सं. 2033 नागौर (वर्षावास) युवाचार्य पद की घोषणा श्रावण शुक्ला 1 वि.स. 2036 दिनांक 25 जुलाई 1979 (हैदराबाद) युवाचार्य पद-चादर महोत्सव वि.सं. 2037 चैत्र शुक्ला 10 दिनांक 23-3-80, जोधपुर स्वर्गवास वि.सं. 2040 मिगसर वद 7 दिनांक 26-11-1983, नासिक (महाराष्ट्र) आपका व्यक्तित्व एवं ज्ञान : गौरवपूर्ण भव्य तेजस्वी ललाट, चमकदार बड़ी आँखें, मुख पर स्मित की खिलती आभा और स्नेह तथा सौजन्य वर्षाति कोमल वाणी, आध्यात्मिक तेज का निखार, गुरुजनों के प्रति अगाध श्रद्धा, विद्या के साथ विनय, अधिकार के साथ विवेक और अनुशासित श्रमण थे। 2. प्राकृत, संस्कृत, व्याकरण, प्राकृत व्याकरण, जैन आगम, न्याय दर्शन आदि का प्रौढ़ ज्ञान मुनिश्री को प्राप्त था। आप उच्चकोटि के प्रवचनकार, उपन्यासकार, कथाकार एवं व्याख्याकार थे। आपके प्रकाशित साहित्य की नामावली प्रवचन संग्रह : 1. अन्तर की ओर, भाग 1 व 2, 2. साधना के सूत्र, 3. पर्युषण पर्व प्रवचन, 4. अनेकान्त दर्शन, 5. जैन-कर्मसिद्धान्त, 6. जैनतत्त्व-दर्शन, 7. जैन संस्कृत-एक विश्लेषण, 8. गृहस्थधर्म, 9. अपरिग्रह दर्शन, 10. अहिंसा दर्शन, 11. तप एक विश्लेषण, 12. आध्यात्म-विकास की भूमिका। कथा साहित्य : जैन कथा माला, भाग 1 से 51 तक उपन्यास : 1. पिंजरे का पंछी, 2. अहिंसा की विजय, 3. तलाश, 4. छाया, 5. आन पर बलिदान। अन्य पुस्तकें : 1. आगम परिचय, 2. जैनधर्म की हजार शिक्षाएँ, ३.जियो तो ऐसे जियो। विशेष : आगम बत्तीसी के संयोजक व प्रधान सम्पादक। शिष्य : आपके एक शिष्य हैं- 1. मुनि श्री विनयकुमारजी 'भीम'