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अठारहवाँ कायस्थितिपद]
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[१३३० प्र.] भगवन् ! अवेदक, अवेदकरूप में कितने काल तक रहता है ?
[१३३० उ.] गौतम ! अवेदक दो प्रकार के कहे गए हैं, वह इस प्रकार- (१) सादि-अनन्त और (२) सादि-सान्त । उनमें से जो सादि-सान्त है, वह जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक (निरन्तर अवेदकरूप में रहता है।)
छठा द्वार ॥ ५॥ विवेचन - छठा वेदद्वार - प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. १३२६ से १३३० तक) में सवेदक, अवेदक और स्त्री-पुरूष-नपुंसकवेदी की कायस्थिति का निरूपण किया गया है।
- त्रिविध सवेदक-(१) अनादि-अपर्यवसित - जो जीव कभी उपशमश्रेणी अथवा क्षपकश्रेणी को प्राप्त नहीं करेगा, वह अनादि-अपर्यवसित (अनन्त) कहलाता है, उसके वेद के उदय का कदापि विच्छेद नहीं होगा। (२) अनादि-सपर्यवसित- जिसकी आदि न हो, पर अन्त हो। जो जीव कभी न कभी उपशमश्रेणी अथवा क्षपकश्रेणी को प्राप्त करेगा, किन्तु जिसने अभी तक कभी प्राप्त नहीं की है, वह अनादि-सपर्यवसित सवेदक है। ऐसे जीव के उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणी प्राप्त कर लेने पर वेद का उदय हट जाता है। (३) सादि-सपर्यवसित- जो जीव उपशमश्रेणी को प्राप्त हो कर वेदातीत दशा प्राप्त कर चुकता है, किन्तु उपशमश्रेणी से गिर पुनः सवेद-अवस्था प्राप्त कर लेता है, वह सादि-सपर्यवसित सवेदक कहलाता है।
सादि-सपर्यवसित सवेदक की कालस्थिति - ऐसे सवेदक का कालमान जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट अनन्तकाल (मूलपाठोक्त कालिकपरिमाण) तक सवेदकपर्याय से युक्त निरन्तर बना रहता है। तात्पर्य यह है कि जब कोई जीव उपशमश्रेणी पर आरूढ़ हो कर तीनों वेदों का उपशम करके अवेदी बन जाता है, किन्तु उपशमश्रेणी से पतित हो कर फिर सवेदक अवस्था को प्राप्त करके पुनः झटपट उपशमश्रेणी को, अथवा कार्मग्रन्थिकों के मतानुसार क्षपकश्रेणी को प्राप्त करता है और फिर तीनों वेदों का अन्तर्मुहूर्त में ही उपशम या क्षय कर देता है, तब वह जीव अन्तर्मुहूर्त तक ही सवेद-अवस्था में रहता है। उत्कृष्ट देशोन अर्धपुद्गलपरावर्त तक जीव सवेद रहता है। क्योंकि उपशमश्रेणी से पतित हो कर वह जीव इतने काल तक ही संसार में परिभ्रमण करता है। इसलिए सादि-सान्त सवेदक जीव का पूर्वोक्त उत्कृष्ट कालमान सिद्ध हो जाता
स्त्रीवेदी की पांच अपेक्षाओं से कालस्थिति का स्पष्टीकरण - स्त्रीवेदी का जघन्य कालमान एक समय का है, वह इस प्रकार है- कोई स्त्री उपशमश्रेणी में तीनों वेदों का उपशम करके अवेदक पर्याय प्राप्त करके, तत्पश्चात् नीचे गिर कर एक समय तक स्त्रीवेदक का अनुभव करे, पुनः दूसरे समय में काल करके देवों में उत्पन्न हो जाए। वहाँ वह जीव पुरूषवेदी होता है, स्त्रीवेदी नहीं। इस प्रकार स्त्रीवेदी का जघन्यकाल एक समय मात्र सिद्ध हो जाता है।
प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३८३ २. वही, मलय. वृत्ति. पत्रांक ३८४