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________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक ] [१८१ करते हैं, अथवा नहीं जानते, नहीं देखते हुए आहार करते हैं ? भगवान् के द्वारा प्रदत्त उत्तर का आशय भी इसी प्रकार का है - वे नहीं जानते, नहीं देखते हुए आहार करते हैं, क्योंकि वे पुद्गल (परमाणु) अत्यन्त सूक्ष्म होने चक्षु आदि इन्द्रियपथ से अगोचर होते हैं और नैरयिक कार्मणशरीरपुद्गलों को जान सकने योग्य अवधिज्ञान से रहित होते हैं । इसी प्रकार का प्रश्न और उत्तर का आशय सर्वत्र समझना चाहिए ।' संज्ञीभूत असंभीभूत मनुष्य जो संज्ञी हों, वे संज्ञीभूत और जो असंज्ञी हों वे असंज्ञीभूत कहलाते हैं । यहाँ संज्ञी का अर्थ है - वे अवधिज्ञानी मनुष्य, जिनका अवधिज्ञान कार्मणपुद्गलों को जान सकता है। जो मनुष्य इस प्रकार के अवधिज्ञान से रहित हों, वे असंज्ञीभूत कहलाते हैं। इन दोनों प्रकार के मनुष्यों में जो संज्ञीभूत हैं, उनमें भी जो उपयोग लगाये हुए होते हैं, वे ही उन पुद्गलों को जानते-देखते हुए उनका आहार करते हैं, शेष असंज्ञीभूत तथा उपयोगशून्य संज्ञीभूत मनुष्य उन पुद्गलों को जान-देख नहीं पाते, केवल उनका आहार करते हैं । मायि-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायि - सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक माया तृतीय कषाय है, उसके ग्रहण द्वारा उपलक्षण से अन्य सभी कषायों का ग्रहण कर लेना चाहिये। जिनमें मायाकषाय विद्यमान हो, उसे मी अर्थात् - उत्कृट राग-द्वेषयुक्त कहते हैं । मायी ( सकषाय) होने के साथ-साथ जो मिथ्यादृष्टि हों वे मायी-मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं। जो ( वैमानिक देव) मायि - मिथ्यादृष्टि रूप में उत्पन्न ( उपपन्न) हुए हों, वे मायि-मिथ्यादृष्टि- - उपपन्नक कहलाते हैं। इनसे विपरीत जो हों वे अमायिसम्यग्दृष्टि-उपपन्नक हैं । सिद्धान्तानुसार मायि - मिथ्यादृष्टि - उपपन्नक नौवें ग्रैवेयक - पर्यन्त देवों में पाये जा सकते हैं। यद्यपि ग्रैवेयकों में और उनसे पहले के कल्पों में सम्यग्दृष्टि देव होते हैं, किन्तु उनका अवधिज्ञान इतना उत्कट नहीं होता कि वे उन निर्जरापुद्गलों को जान देख सकें। इसलिए वे भी मायिमिथ्यादृष्टि-उपपन्नकों के अन्तर्गत ही कहे जाते हैं । जो अमायिसम्यग्दृष्टि-- - उपपन्नक हैं, वे अनुत्तरविमान वासी देव हैं । अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपन्नक- जिनको उत्पन्न हुए पहला ही समय हुआ हो, वे अनन्तरोपपन्नक देव कहलाते हैं और जिन्हें उत्पन्न हुए एक समय से अधिक हो चुका हो, उन्हें परम्परोपपन्नक देव कहते हैं । इन दोनों प्रकार के अमायि - सम्यग्दृष्टि-उपपन्न देवों में से अनन्तरोपपन्नक देव तो निर्जरापुद्गलों को जान देख नहीं सकते, केवल परम्परोपपन्नक और उनमें भी अपर्याप्त और पर्याप्तकों में भी उपयोगयुक्त देव ही निर्जरापुद्गलों को जान - देखे सकते हैं। जो अपर्याप्तक और उपयोगरहित होते हैं, वे उन्हें जान-देख नहीं सकते, केवल उनका आहार करते हैं । 'आहार करते हैं' का अर्थ - यहाँ सर्वत्र ' आहार करते हैं' का अर्थ 'लोमाहार करते हैं' ऐसा १. २. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३०४ (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ३०४ (ख) संखेज्ज कम्मदव्वे लोगे, थोवूणगं पलियं, संभिन्नलोगनालिं पासंति अणुत्तरा देवा । - प्रज्ञापना म. वृ., पत्रांक ३०४ में उद्धृत
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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