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________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : प्रथम उद्देशक ] - विवेचन- पृथ्वीकायिकों से लेकर तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों तक की समाहारादि सप्तद्वार प्ररूपणा - प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. ११३७ से ११४१ तक) में पृथ्वीकायिकों से लेकर तिर्यचपंचेन्द्रियों तक आहाराद सप्तद्वारों की प्ररूपणा की गई हैं । 1 पृथ्वीकायिकों के अल्पशरीर - महाशरीर- यद्यपि सभी पृथ्वीकायिकों का शरीर अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र होता है, तथापि आगम में बताया है कि एक पृथ्वीकायिक दूसरे पृथ्वीकायिक से अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, इत्यादि; तदनुसार वे अपेक्षाकृत महाशरीर और अल्पशरीर सिद्ध होते हैं । जो पृथ्वीकायिक महाशरीर होते है, वे महाशरीर होने के कारण लोमाहार से प्रभूत पुद्गलों का आहार करते हैं, उच्छ्वास लेते है तथा बार-बार आहार करते हैं और श्वासोच्छ्वास लेते हैं। जो अल्पशरीर होते हैं, वे लघुशरीरी होने से अल्प आहार और अल्प श्वासोच्छ्वास लेते हैं, आहार और उच्छ्वास भी कदाचित् लेते हैं, वह पर्याप्तअपर्याप्त अवस्था की अपेक्षा से समझना चाहिए। - पृथ्वीकायिकादि समवेदना वाले क्यों ? - सभी पृथ्वीकायिक असंज्ञी अर्थात् मिथ्यादृष्टि अथवा अमनस्क होते हैं। वे असंज्ञीभूत और अनियत वेदना का वेदन करते हैं। तात्पर्य यह है कि मत्त - मूर्च्छित आदि की तरह तेदना का अनुभव करते हुए भी वे नहीं समझ पाते कि यह मेरे पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मों का परिणाम हैं, क्योंकि वे असंज्ञी और मिथ्यादृष्टि होते हैं । मायी का अर्थ - यहां माया का अर्थ केवल मायाकषाय नहीं, किन्तु अपलक्षण से अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्टय है । अत: मायी का अर्थ यहाँ अनन्तानुबन्धी कषायोदयवान् होने से मिथ्यादृष्टि हैं । मनुष्य में समाहारादि सप्त द्वारों की प्ररूपणा ११४२. मणूसाणं भंते ! सव्वे समाहारा ? गोमा ! णो इट्टे समट्ठे । २. [२७७ सेकेणट्टेणं ? गोमा ! मणूसा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- महासरीरा य अप्पसरीरा य । तत्थ णं जे ते महासरीरा ते णं बहुतराए पोग्गले आहारेंति जाव बहुतराए पोग्गले णीससंति, आहच्च आहारेंति आहच्च णीससंति । तत्थ णं जे ते अप्पसरीरा ते णं अप्पतराए पोग्गले आहारेंति जाव अप्पतराए पोग्गले णीससंति, अभिक्खणं आहारेंति जाव अभिक्खणं नीससंति, एएणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ १. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ३३९ . (ख) 'पुढविकाइए पुढविकाइयस्स ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिए ।' प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३३९ - प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ३३९ में उद्धृत
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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