________________
२७८]
[ प्रज्ञापनासूत्र
मणूसा सव्वे णो समाहारा। सेसं जहा णेरइयाणं (सु. ११२४-३०)। णवरं किरियाहिं मणूसा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा - सम्मद्दिट्ठी मिच्छद्दिट्ठी सम्मामिच्छद्दिट्ठी। तत्थ णं जे ते सम्मद्दिट्ठी ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा- संजया असंजया संजयासंजया। तत्थ णं जे ते संजया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहासरागसंजया य वीयरागसंजया य, तत्थ णं जे ते वीयरागसंजया ते णं अकिरिया। तत्थ णं जे ते सरागसंजया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - पमत्तसंजया य अपमत्तसंजया य, तत्थ णं जे ते अपमत्तसंजया तेसिंएगा मायावत्तिया किरिया कजंति, तत्थ णं जे ते पमत्तसंजया तेसिंदो किरियाओ कजंति, तं जहा - आरंभिया मायावत्तिया य। तत्थ णं जे ते संजयासंजया तेसिं तिण्णि किरियाओ कजंति, तं जहा - आरंभिया १ परिग्गहिया २ मायावत्तिया ३। तत्थ णं जे ते असंजया तेसिं चत्तारि किरियाओ कजंति, तं जहा - आरंभिया १ परिग्गहिया २ मायावत्तिया ३ अपच्चक्खाणकिरिया ४। तत्थ णं जे ते मिच्छद्दिट्ठी जे य सम्मामिच्छद्दिट्ठी तेसिं णेयइयाओ पंच किरियाओ कज्जति, तं जहाआरंभिया १ परिग्गहिया २ मायावत्तिया ३ अपच्चक्खाणकिरिया ४ मिच्छादसणवत्तिया ५ । सेसं जहा णेरइयाणं।
[११४२ प्र.] भगवन् ! मनुष्य क्या सभी समान आहार वाले होते हैं ? [११४२ उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि सब मनुष्य समान आहार वाले नहीं है ?
[उ.] गौतम ! मनुष्य दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार - महाशरीर वाले और अल्प (छोटे-) शरीर वाले । उनमें जो महाशरीर वाले हैं, वे बहुत-से पुद्गलों का आहार करते हैं, यावत् बहुत-से पुद्गलों का निःश्वास लेते है तथा कदाचित् आहार करते हैं, यावत् कदाचित् निःश्वास लेते हैं। उनमें जो अल्पशरीर वाले हैं, वे अल्पतर पुद्गलों का आहार करते हैं, यावत् अल्पतर पुद्गलों का निःश्वास लेते हैं; बार-बार आहार लेते हैं; यावत् बार-बार निःश्वास लेते हैं। इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सभी मनुष्य समान आहार वाले नहीं है। शेष सब वर्णन (सू. ११२५ से ११३० तक में उक्त) नैरयिकों (के कर्मादि छह द्वारों के निरूपण) के अनुसार (समझ लेना चाहिए ।) किन्तु क्रियाओं की अपेक्षा से (नारकों से किञ्चित्) विशेषता है। (वह इस . प्रकार है -) मनुष्य तीन प्रकार के कहे गए हैं, यथा - सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि । इनमें जो समदृष्टि हैं, वे तीन प्रकार के कहे गए हैं, जैसे कि - संयत, असंयत और संयतासंयत । जो संयत हैं, वे दो प्रकार के कहे हैं - सरागसंयत और वीतरागसंयत । इनमें जो वीतरागसंयत हैं, वे अक्रिय (क्रियारहित) होते हैं। उनमें जो सरागसंयत होते हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा - प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत । इनमें जो अप्रमत्तसंयत होते हैं, उनमें एक मायाप्रत्यया क्रिया ही होती हैं। जो प्रमत्तसंयत होते हैं, उनमें दो क्रियाएँ होती हैं, आरम्भिकी और मायाप्रत्यया । उनमें जो संयतासंयत होते हैं, उनमें तीन क्रियाएँ पाई जाती हैं, यथा - १. आरम्भिकी, २. पारिग्रहकी और ३. मायाप्रत्यया। उनमें जो असंयत हैं, उनमें चार क्रियाएँ पाई जाती हैं, यथा- १. आरम्भिकी, २. पारिग्रहिकी, ३. मायाप्रत्यया और ४. अप्रत्याख्यानक्रिया; किन्तु उनमें जो मिथ्यादृष्टि हैं, अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं, उनमें निश्चितरूप से पांचों क्रियाएँ होती हैं, यथा- १. आरम्भिकी, २. पारिग्रहिकी,