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________________ ५६ ] [ प्रज्ञापनासूत्र फल की सिद्धि के लिए अथवा किसी विशिष्ट इहलौकिक कार्यसिद्धि के लिए विनेय स्त्री, पुरुष, नपुंसक जनों के बोली जाती है, वह भाषा परलोकबाधिनी नहीं होती, यही साधुवर्ग के लिए प्रज्ञापनी भाषा है और सत्य है: किन्तु इससे भिन्न प्रकार की जो भाषा होती है, वह स्व-पर-संक्लेश उत्पन्न करती है, परलोकबाधिनी है, अतएव अप्रज्ञापनी है और मृषा है। (४) सू. ८३५ के प्रश्न का आशय यह है कि यह जो स्त्रीप्रज्ञापनी स्त्री के लक्षण बतलाने वाली, पुरुषप्रज्ञापनी पुरुष के लक्षण बतलाने वाली तथा नपुंसकप्रज्ञापनी - नपुंसक के लक्षण बतलाने वाली भाषा है, क्या यह प्रज्ञापनी भाषा है और सत्य है ? मृषा नहीं है ? इसका तात्पर्य यह है कि 'खट्वा', 'घटः' और 'वनम्' आदि क्रमशः स्त्रीलिंग, पुलिंग और नपुंसकलिंग के शब्द हैं। ये शब्द व्यवहारबल से अन्यत्र भी प्रयुक्त होते हैं। इनमें से खट्वा (खाट) में विशिष्ट स्तन और केश आदि के लक्षण घटित नहीं होते, इसी तरह 'घट : ' शब्द में पुरुष के लक्षण घटित नहीं होते और न 'वनम्' में नपुंसक के लक्षण घटित होते हैं, फिर भी इन तीनों में से स्त्रीलिंगी शब्द ' खट्वा' खट्वा पदार्थ का वाचक होता है, पुलिंगी शब्द ‘घटः' घट पदार्थ का वाचक होता है तथा नपुंसकलिंगी 'वनम्' शब्द वन पदार्थ का वाचक होता है। ऐसी स्थिति में स्त्री आदि के लक्षण न होने पर भी स्त्रीलक्षण आदि कथन करने वाली भाषा प्रज्ञापनी एवं सत्य है या नही ? यह संशय उत्पन्न होता है । - भगवान् का उत्तर यह है कि जो भाषा - स्त्रीप्रज्ञापनी है, पुरुषप्रज्ञापनी है या नपुंसकप्रज्ञापनी है, वह भाषा प्रज्ञापनी है, मृषा नहीं । इसका तात्पर्य यह है कि स्त्री आदि के लक्षण दो प्रकार के होते हैं - एक शाब्दिक व्यवहार के अनुसार, दूसरे वेद के अनुसार । शाब्दिक व्यवहार की अपेक्षा से किसी भी लिंग वाले शब्द का प्रयोग शब्दानुशासन के नियमानुसार या उस भाषा के व्यवहारानुसार करना प्रज्ञापनी भाषा है और वह सत्य है । इसी प्रकार वेद (रमणाभिलाषा) के अनुसार प्रतिपादन करना इष्ट हो, तब स्त्री आदि के लक्षणानुसार उस-उस लिंग के शब्द का प्रयोग करना, वास्तविक अर्थ का निरूपण करना है, ऐसी भाषा प्रज्ञापनी होती है, मृषा नहीं होती । (५) सूत्र ८३६ के प्रश्न का आशय यह है कि जो जाति (सामान्य) के अर्थ में स्त्रीवचन (स्त्रीलिंग शब्द) है, जैसे- सत्ता तथा जाति 'अर्थ में जो पुरुषवचन (पुल्लिंग शब्द) है, जैसे भावः एवं जाति के अर्थ में जो नपुंसकवचन है, जैसे सामान्यम्, क्या यह भाषा प्रज्ञापनी और सत्य है, मृषा नहीं है ? इसका तात्पर्य यह कि जाति का अर्थ यहाँ सामान्य है । सामान्य का न तो लिंग के साथ कोई सम्बन्ध है और न ही संख्या (एकवचन, बहुवचन आदि) के साथ । अन्यतीर्थिकों ने तो वस्तुओं का लिंग और संख्या के साथ सम्बन्ध स्वीकार किया है । अत: यदि केवल जाति में एकवचन और नपुंसकलिंग संगत हो तो उसमें त्रिलिंगता संभव नहीं है, किन्तु जातिवाचक शब्द तीनों लिंगों में प्रयुक्त होते हैं, जैसे सत्ता आदि । ऐसी स्थिति में शंका होती है कि इस प्रकार की जात्यात्मक त्रिलिंगी भाषा प्रज्ञापनी एवं सत्य है या नहीं? भगवान् का उत्तर है - जातिवाचक जो स्त्रीवचन, पुरुषवचन और नपुंसकवचन है, (जैसे - सत्ता, भाव: और सामान्यम्), यह भाषा प्रज्ञापनी है, मृषा नहीं है, क्योंकि यहाँ जाति शब्द सामान्य का वाचक है। वह अन्यतीर्थीय-परिकल्पित एकान्तरूप से एक, निरवयव और निष्किय नहीं है, क्योंकि ऐसा मानना प्रमाणबाधित है। वस्तुतः वस्तु का समान परिणमन ही सामान्य है और समानपरिणाम अनेकधर्मात्मक होता है । धर्म परस्पर भी और धर्मी से भी कथंचित् अभिन्न होते -
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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