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________________ ग्यारहवाँ भाषापद ] [ ५७ है। अतएव जाति में भी त्रिलिंगता सम्भव है। इस कारण यह भाषा प्रज्ञापनी है और मृषा नहीं है । (६) सूत्र ८३७ में प्ररूपित प्रश्न का आशय इस प्रकार है कि जो भाषा जाति की अपेक्षा से स्त्री- आज्ञापनी (स्त्रीआदेशदायिनी) होती है, जैसे कि 'यह क्षत्रियाणी ऐसा करे' तथा जो भाषा जाति की अपेक्षा से पुरुषआज्ञापनी होती है, जैसे कि - ' यह क्षत्रिय ऐसा करे,' इसी प्रकार जो भाषा नपुसंक - आज्ञापनी (नपुंसक को आदेश देने वाली) है, क्या यह भाषा प्रज्ञापनी है ? यह भाषा मृषा तो नहीं है ? तात्पर्य यह है कि जिसके द्वारा किसी स्त्री आदि को कोई आज्ञा दी जाए, वह आज्ञापनी भाषा है । किन्तु जिसे आज्ञा दी जाए, वह उस आज्ञा के अनुसार क्रिया-सम्पादन करे ही, यह निश्चित नहीं है। अगर न करे तो वह आज्ञापनीभाषा अप्रज्ञापनी तथा मृषा कही जाए या नहीं ? इस शंका का निवारण करते हुए भगवान् कहते हैं - हाँ, गौतम ! जाति की अपेक्षा से स्त्री, पुरुष, नपुंसक को आज्ञादायिनी आज्ञापनी भाषा प्रज्ञापनी ही है और वह मृषा नहीं है। इसका तात्पर्य यह हे कि परलोकसम्बन्धी बाधा न पहुँचाने वाली जो आज्ञापनी भाषा स्वपरानुग्रह- बुद्धि से अभीष्ट कार्य को सम्पादन करने में समर्थ विनीत स्त्री आदि विनेय जनों का आज्ञा देने के लिए बोली जाती है, जैसे- 'हे साध्वी ! आज शुभनक्षत्र है, अतः अमुक अंग का या श्रुतस्कन्ध का अध्ययन करो ।' ऐसी आज्ञापनी भाषा प्रज्ञापनी है, निर्दोष है, सत्य है, किन्तु जो भाषा आज्ञापनी तो हो, किन्तु पूर्वोक्त तथ्य से विपरीत हो, अर्थात् स्वपरपीडाजनक हो तो वह भाषा अप्रज्ञापनी है और मृषा है । (७) सूत्र ८३८ में प्ररूपित प्रश्न का आशय यह है कि जो भाषा जाति की अपेक्षा स्त्रीप्रज्ञापनी हो, अर्थात् - स्त्री के लक्षण (स्वरूप) का प्रतिपादन करने वाली हो, जैसे कि- स्त्री स्वभाव से तुच्छ होती है, उसमें गौरव की बहुलता होती है, उसकी इन्द्रियां चंचल होती हैं, वह धैर्य रखने में दुर्बल होती है, तथा जो भाषा जाति की अपेक्षा से पुरुषप्रज्ञापनी यानी पुरुष के लक्षण (स्वरूप) का निरूपण करने वाली हो, यथा- पुरुष स्वाभाविक रूप से गंभीर आशयवाला, विपत्ति आ पड़ने पर भी कायरता धारण न करने वाला होता है तथा धैर्य का परित्याग नहीं करता इत्यादि । इसी प्रकार जो भाषा जाति की अपेक्षा से नपुंसक के स्वरूप का प्रतिपादन करने वाली होती है, जैसे- नपुंसक स्वभाव से क्लीब होता है और वह मोहरूपी वड़वानल की ज्वालाओं से जलता रहता है, इत्यादि । तात्पर्य यह है कि यद्यपि स्त्री, पुरुष और नपुंसक जाति के गुण नहीं होते है जो ऊपर बता आए हैं, तथापि कहीं किसी में अन्यथा भाव भी देखा जाता है। जैसे कोई स्त्री भी गंभीर आशयवाली और उत्कृष्ट सत्वशालिनी होती है, इसके विपरीत कोई पुरुष भी प्रकृति से तुच्छ, , चपलेन्द्रिय और जरा-सी विपत्ति आ पड़ने पर कायरता धारण करते देखे जाते हैं और कोई नपुंसक भी कम मोहवाला और सत्त्ववान् होता है। अतएव यह शंका उपस्थित होती है कि पूर्वोक्त प्रकार की भाषा प्रज्ञापनी समझी जाए या मृषा समझी जाए ? इसके उत्तर में भगवान् कहते हैं कि जो स्त्रीप्रज्ञापनी या नपुंसकप्रज्ञापनी भाषा है, वह प्रज्ञापनी अर्थात् सत्य भाषा है, मृषा नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि जातिगत गुणों का निरूपण बाहुल्य को लेकर किया जाता है, एक-एक व्यक्ति की अपेक्षा से नहीं। यही कारण है कि जब किसी समग्र १. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक २४९ से २५२ तक (ख) 'प्रज्ञाप्यतेऽर्थोऽनयेति प्रज्ञापनी, अर्थप्रतिपादनी, प्ररूपणीयेति यावत् (ग) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. ३. पृ. २४७ से २६० तक
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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