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________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : चतुर्थ उद्देशक [३२७ ____ पूर्व-पूर्व लेश्या का उत्तरोत्तर लेश्या के रूप में परिणमन - सूत्र १२२०-१२२१ में यह बताया गया है कि पूर्व-पूर्व लेश्या उत्तर-उत्तर लेश्या को प्राप्त होकर उसी के वर्णादि रूप में परिणत हो जाती है। किसी भी एक लेश्या का अन्य समस्त लेश्याओं के रूप के परिणमन - सू. १२२२ से १२२५ तक यह बताया गया है कि कोई भी एक लेश्या क्रम से या व्युत्क्रम से किसी भी अन्य लेश्या के वर्णगन्धादिरूप में परिणत हो सकती है। किन्तु यहाँ यह ध्यान रखना है कि कोई भी एक लेश्या परस्पर विरूद्ध होने से एक ही साथ अनेक लेश्याओं में परिणत नहीं होती। एक लेश्या का अन्य सभी लेश्याओं में से किसी एक लेश्या के रूप में परिणमन कैसे हो जाता है ? इस सम्बन्ध में दृष्टान्त यह है कि जैसे एक ही वैडूर्यमणि उन-उन उपाधिद्रव्यों के सम्पर्क से उस-उस रूप में परिणत हो जाती है, इसी प्रकार एक लेश्याद्रव्य भी कृष्ण, नील आदि रूपों में परिणत हो जाते हैं। इसी अंश में दृष्टान्त की समानता समझनी चाहिए, अन्य अनिष्ट अंशों में नहीं । द्वितीय वर्णाधिकार १२२६. कण्हलेस्सा णं भंते ! वण्णेणं केरिसिया पण्णत्ता ? गोयमा ! से जहाणामए जीमूए इ वा अंजणे इ वा खंजणे इ वा कजले इ वा गवले इ वा गवलवलए इ वा जंबूफलए इ वा अद्दारिट्ठए इ वा परपुढे इ वा भमरे इ वा भमरावली इ वा गयकलभे इवा किण्हकेसे इ वा आगासथिग्गले इ वा किण्हासोए इ वा किण्हकणवीरए इ वा किण्हबंधुजीवए इवा। भवेतारूवा? गोयमा ! णो इणढे समढे, किण्हलेस्सा णं एत्तो अणिद्रुतरिया चेव अकंततरिया चेव अप्पियतरिया चेव अमणुण्णतरिया चेव अमणामतरिया चेव वण्णेणं पण्णत्ता । [१२२६ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वर्ण से कैसी है ? __ [१२२६ उ.] गौतम ! जैसे कोई जीमूत (वर्षारम्भकालिक मेघ) हो, अथवा (आँखों में आंजने का सौवीरादि) अंजन (काला सुरमा अथवा अंजन नामक रत्न) हो, अथवा खंजन (गाड़ी की धुरी में लगा हुआ कीट-औंघन, अथवा दीवट के लगा मैल (कालमल) हो, कज्जल (काजल) हो, गवल (भैंस का सींग) हो, अथवा गवलवृन्द (भैंस के सींगो का समूह) हो, अथवा जामुन का फल हो, या गीला अरीठा (या अरीठे का फूल) हो, या परपुष्ट (कोयल) हो, भ्रमर हो, या भ्रमरों की पंक्ति हो, अथवा हाथी का बच्चा हो या काले केश हों, अथवा आकाशथिग्गल (शरद्ऋतु के मेघों के बीच का आकाशखण्ड) हो, या काला अशोक हो, काला कनेर हो, अथवा काला बन्धुजीवक (विशिष्ट वृक्ष) हो, (इनके समान कृष्णलेश्या काले वर्ण की है।) [प्र.] (भगवन् !) क्या कृष्णलेश्या (वास्तव में) इसी रूप की होती है ? १. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक ३५९-३६०
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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