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________________ ३२६] [प्रज्ञापनासूत्र . [१२२५ प्र.] भगवन् ! क्या शुक्ललेश्या, कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या और पद्मलेश्या को प्राप्त होकर यावत् (उन्हीं के स्वरूप में तथा उन्हीं के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के रूप में) बारबार परिणत होती है ? [१२२५ उ.] हाँ गौतम ! ऐसा ही है, (जैसा कि ऊपर कहा गया है।) विवेचन- प्रथम परिणामाधिकार - प्रस्तुत छह सूत्रों (सू. १२२० से १२२५) में कृष्णादि लेश्याओं की विभिन्न वर्णादिरूप में परिणत होने की प्ररूपणा की गई है। लेश्याओं के परिणाम की व्याख्या - परिणाम का अर्थ यहाँ परिवर्तन है। अर्थात्- एक लेश्या का दूसरी लेश्या के रूप में तथा उसी के वर्णादि के रूप में परिणत हो जाना लेश्यापरिणाम है। कृष्णलेश्या का नीललेश्या के रूप में परिणमन - प्रस्तुत में कृष्णलेश्या अर्थात्- कृष्णलेश्या के द्रव्य, नीललेश्या को अर्थात्- नीललेश्या के द्रव्यों को प्राप्त होकर, यानी परस्पर एक दूसरे के अवयवों के संस्पर्श को पाकर उसी के- नीललेश्या के रूप में अर्थात् नीललेश्या के स्वभाव के रूप में बार-बार परिणत होती है। तात्पर्य यह है कि कृष्णलेश्या का स्वभाव नीललेश्या के स्वभाव के रूप में बदल जाता है। स्वभाव का किस प्रकार परिवर्तन होता है ? इसे विशद रूप में बताते हैं - कृष्णलेश्या नीललेश्या के वर्ण के रूप में, गन्ध के रूप में, रस के रूप में और स्पर्श के रूप में परिणत- परिवर्तित हो जाती है। यह परिणमन अनेकों बार होता है। इसका आशय यह है कि जब कोई कृष्णलेश्या के परिणमन वाला मनुष्य या विर्यञ्च भवान्तर में जाने वाला होता है और वह नीललेश्या के योग्य द्रव्यों को ग्रहण करता है, तब नीललेश्या के द्रव्यों के सम्पर्क से वे कृष्णलेश्यायोग्य द्रव्य तथारूप जीव-परिणामरूप सहकारी कारण को पाकर नीललेश्या के द्रव्य रूप के परिणत हो जाते है; क्योंकि पुद्गलों के विविध प्रकार से परिणत- परिवर्तित होने का स्वभाव है। तत्पश्चात् वह जीव केवल नीललेश्या के योग्य द्रव्यों के सम्पर्क से नीललेश्या के परिणमन से युक्त होकर काल करके भवान्तर में उत्पन्न होता है। यह सिद्धान्तवचन है कि' 'जीव जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके काल करता (मरता) है, उसी लेश्या वाला होकर उत्पन्न होता', तथा वही तिर्यच अथवा मनुष्य उसी भव में विद्यमान रहता हुआ जब कृष्णलेश्या में परिणत होकर नीललेश्या के रूप- स्वभाव में परिणत होता है, तब भी कृष्णलेश्या के द्रव्य तत्काल ग्रहण किए हुए नीललेश्या के द्रव्यों के सम्पर्क से नीललेश्या के द्रव्यों के रूप में परिणत (परिवर्तित) हो जाते हैं। इसी तथ्य को दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं- जैसे छाछ आदि किसी खट्टी वस्तु के संयोग से दूध के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श में परिवर्तन हो जाता है, वह तक्र (छाछ) आदि के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के रूप में पलट जाता है। इसी प्रकार कृष्णलेश्यायोग्य द्रव्यों का स्वरूप तथा उसके वर्ण-गन्धादि नीललेश्यायोग्य द्रव्यों के सम्पर्क से नीललेश्या के वर्णादिरूप में परिवर्तित हो जाते हैं । यहाँ तिर्यंचों और मनुष्यों के लेश्याद्रव्यों का पूर्णरूप से वद्रूप में परिणमन माना गया है। देवों और नारकों के लेश्याद्रव्य भवपर्यन्त स्थायी रहते हैं। जल्लेसाई दव्वाइं परियाइत्ता कालं करेइ, तल्लेसे उववज्जइ । - प्रज्ञा. म. वृ., प. ३५९ " २. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३५९-३६०
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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