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________________ (३२५ सत्तरहवाँ लेश्यापद : चतुर्थ उद्देशक ] जव भुज भुजो परिणमति । [१२२२ प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या क्या नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर उन्हीं के स्वरूप में (उनमें से किसी भी लेश्या के रूप में), उन्हीं के वर्णरूप में, उन्हीं के गन्धरूप में, उन्हीं के रसरूप में, उन्हीं के स्पर्शरूप में पुन: पुन: परिणत होती है ? [१२२२ उ.] हाँ गौतम ! कृष्णलेश्या, नीललेश्या को यावत् शुक्ललेश्या को प्राप्त हो कर उन्हीं के स्वरूप में यावत् (उनमें से किसी भी लेश्या के वर्णादिरूप में) पुन: पुन: परिणत होती है ? [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से आप ऐसा कहते है कि कृष्णलेश्या, नीललेश्या को यावत् शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर उन्हीं के स्वरूप में यावत् (उन्हीं के वर्णादिरूप मे) पुन: पुन: परिणत हो जाती है ? [उ.] गौतम ! जैसे कोई वैडूर्यमणि काले सूत्र में या नीले सूत्र में, लाल सूत्र में या पीले सूत्र में अथवा श्वेत (शुक्ल) सूत्र में पिरोने पर वह उसी के रूप में यावत् (उसी के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के रूप मे) पुनः पुनः परिणत हो जाती है, इसी प्रकार हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि कृष्णलेश्या, नीललेश्या यावत् शुक्लेश्या को प्राप्त होकर उन्हीं के रूप में यावत् उन्हीं के वर्णादिरूप में पुन: पुन: परिणत हो जाती है । १२२३. से णूणं भंते ! णीललेस्सा किण्हलेस्सं जाव सुक्कलेस्सं पप्प तारूवत्ताए जाव भुजो भुजो परिणमति ? हंता गोयमा ! एवं चेव । [१२२३ प्र.] भगवन् ! क्या नीललेश्या, कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या को पाकर उन्हीं के स्वरूप में यावत् (उन्हीं के वर्णादिरूप मे) बार-बार परिणत होती है ? [१२२३ उ.] हाँ गौतम ! ऐसा ही है, (जैसा कि ऊपर कहा गया है।) १२२४. एवं काउलेस्सा कण्हलेस्सं णीललेस्सं तेउलेस्सं पम्हलेस्सं सुक्कलेस्सं, एवं तेउलेस्सा किण्हलेसं णीललेसं काउलेसं पम्हलेसं सुक्कलेसं, एवं पम्हलेस्सा कण्हलेसं णीललेसं काउलेसं तेउलेसं सुक्कलेस्सं । [१२२४] इसी प्रकार कापोतलेश्या, कृष्णलेश्या, नीललेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर, इसी प्रकार तेजोलेश्या, कृष्णलेश्या, कापोतलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्कललेश्या को प्राप्त होकर, इसी प्रकार पद्मलेश्या, कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या को प्राप्त होकर (उनके स्वरूप में तथा उनके वर्ण, गंध, रस और स्पर्श के रूप में परिणत हो जाती है ।) १२२५. सेणूणं भंते ! सुक्कलेस्सा किण्ह० णील० काउ० तेउ० पम्हलेस्सं पप्प जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति ? हंता गोयमा ! एवं चेव ।
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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