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[प्रज्ञापनासूत्र
वे विशुद्धतर लेश्या वाले होते हैं, जबकि पश्चादुत्पन्न नारक अप्रशस्त लेश्याद्रव्यों के अल्पतम भाग की ही निर्जरा कर पाते हैं, उनके बहुत-से अप्रशस्त लेश्याद्रव्य शेष बने रहते हैं।
संज्ञीभूत और असंज्ञीभूत नारकों की वेदना में अन्तर - जो जीव पहले (अतीत में) संज्ञीपंचेन्द्रिय थे और फिर नरक में उत्पन्न हुए हैं, वे संज्ञीभूत नारक कहलाते हैं और जो उनसे विपरीत हों, वे असंज्ञीभूत कहलाते हैं, वे अपेक्षाकृत महावेदना वाले होते हैं, क्योंकि जो (भूतकाल में) संज्ञी थे, उन्होंने उत्कट अशुभ अध्यवसाय के कारण उत्कट अशुभ कर्मों का बन्ध किया है तथा वे महानारकों में उत्पन्न हुए हैं। इसके विपरीत जो नारक असंज्ञीभूत हैं, वे अल्पतर वेदना वाले होते हैं। असंज्ञी जीव नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगति में से किसी भी गति का बन्ध कर सकते हैं। अतएव वे नरकायु का बन्ध करके नरक में उत्पन्न होते हैं, किन्तु अति तीव्र अध्यवसाय न होने से रत्नप्रभापृथ्वी के अन्तर्गत अति तीव्रवेदना न हो ऐसे नारकावासों में ही उत्पन्न होते हैं। अथवा संज्ञी का तात्पर्य यहाँ सम्यग्दृष्टि है। संज्ञीभूत अर्थात् सम्यग्दृष्टि नारक पूर्वकृत अशुभ कर्मों के लिए मानसिक दुःख-परिताप का अनुभव करने के कारण अधिक वेदना वाले होते हैं । असंज्ञीभूत (मिथ्यादृष्टि) नारक को ऐसा परिताप नहीं होता, अतएव वह अल्पवेदना वाला होता है।
आरम्भिकी आदि क्रियाओं के लक्षण - आरम्भिकी- जीव-हिंसाकारी प्रवृत्ति (व्यापार) आरम्भ कहलाती है। आरम्भ से होने वाली कर्मबंधकारणभूत क्रिया आरम्भिकी है। धर्मोपकरणों से भिन्न पदार्थों का ममत्ववश स्वीकार करना अथवा धर्मोपकरणों के प्रति मूर्छा होना परिग्रह है, उसके कारण होने वाली क्रिया पारिग्रहिकी क्रिया है। माया, उपलक्षण से क्रोधादि के निमित्त से होने वाली क्रिया। मायाप्रत्यया है। अप्रत्याख्यान क्रिया - अप्रत्याख्यान - पापों से अनिवृत्ति के कारण होने वाली क्रिया। मिथ्यादर्शनप्रत्ययामिथ्यात्व के कारण होने वाली क्रिया।शंका-समाधान- यद्यपि मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चार कर्मबन्ध के कारण बताए गए हैं, जबकि यहाँ आरम्भिकी आदि क्रियाएँ कर्मबन्ध की कारण बताई गई हैं, अतः दोनों में विरोध है, ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यहाँ आरम्भ और परिग्रह शब्द से 'योग' को ग्रहण किया गया है क्योंकि योग आरम्भ-परिग्रहरूप होता है, अतएव इनमें कोई विरोध नहीं है। असुरकुमारादि भवनपतियों में समाहारादि सप्त प्ररूपणा
११३१. असुरकुमारा णं भंते ! सव्वे समाहारा ? सच्चेव पुच्छा । गोयमा ! णो इणढे समढ़े, जहा णेरइया (सु. ११२४)। [११३१ प्र.] भगवन् ! सभी असुरकुमार क्या समान आहार वाले हैं ? इत्यादि पृच्छा (पूर्ववत्) । [११३१ उ.] यह अर्थ समर्थ नहीं है । (शेष सब निरूपण) (सू. ११२४ के अनुसार) नैरयिकों (की
१. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक ३३३ २. वही, मलय. वृत्ति. पत्रांक ३३४ ३. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक ३३५