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________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : प्रथम उद्देशक [२७१ कि महाकाय नारक महाशरीर वाले होने से अत्यन्त दुःखित होने के कारण निरन्तर उच्छ्वासदि क्रिया करते रहते हैं । जो नारक अपेक्षाकृत लघुकाय होते हैं, वे महाकाय नारकों की अपेक्षा अल्पतर पुद्गलों का आहार करते हैं, अल्पतर पुद्गलों को ही परिणत करते हैं। तथा अल्पतर पुद्गलो को ही उच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते हैं और निःश्वास के रूप में छोड़ते हैं। वे कदाचित् आहार करते हैं, सदैव नहीं। तात्पर्य यह है कि महाकाय नारकों के आहार का जितना व्यवधनकाल है, उसकी अपेक्षा लघुकाय नारकों के आहार का व्यवधानकाल (अन्तर) अधिक है। कदाचित् आहार करने के कारण वे (अल्पाहारी) उसका परिणणमन भी कदाचित् करते हैं, सदा नहीं। इसी प्रकार वे कदाचित् उच्छ्वास लेते हैं और कदाचित् ही नि:श्वास छोड़ते हैं। क्योंकि लघुकाय नारक महाकाय नारकों की अपेक्षा अल्प दुःख वाले होने से निरन्तर उच्छ्वास-निःश्वास क्रिया नहीं करते, किन्तु बीच में व्यवधान डालकर करते हैं । अथवा अपर्याप्तिकाल में अल्पशरीर वाले होने से लोमाहार की अपेक्षा से वे आहार नहीं करते तथा श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति पूर्ण न होने से उच्छ्वास नहीं लेते; अन्य काल (पर्याप्तिकाल) में आहार और उच्छ्वास लेते हैं । पूर्वोत्पन्न और पश्चादुत्पन्न नारकों में कर्म, वर्ण लेश्या का अन्तर - जो नारक पहले उत्पन्न हो चुके हैं, वे अल्पकर्म वाले होते हैं, क्योंकि पूर्वोत्पन्न नारकों को उत्पन्न हुए अपेक्षाकृत अधिक समय व्यतीत हो चुका है, वे नरकायु, नरकगति और असातावेदनीय आदि कर्मों की बहुत निर्जरा कर चुके होते हैं, उनके ये कर्म थोड़े ही शेष रहे होते हैं। इस कारण पूर्वोत्पन्न नारक अल्पकर्म वाले कहे गए हैं। किन्तु जो नारक बाद में उत्पन्न हुए हैं, वे महाकर्म वाले होते हैं, क्योंकि उनकी नरकायु, नरकगति तथा असातावेदनीय आदि कर्म थोड़े ही निर्जीर्ण हुए हैं, बहुत-से कर्म अभी शेष हैं। इस कारण वे अपेक्षाकृत महाकर्म वाले हैं । यह कथन समान स्थिति वाले नारकों की अपेक्षा से समझना चाहिए, अन्यथा रत्नप्रभापृथ्वी में किसी उत्कृष्ट आयु वाले नारक की आयु का बहुत-सा भाग निर्जीर्ण हो चुका हो, वह सिर्फ एक पल्योपम ही शेष रह गया हो, दूसरी ओर उस समय कोई जघन्य दस हजार वर्षों की स्थिति वाला नारक पश्चात् उत्पन्न हुआ हो तो भी इस पश्चादुत्पन्न नारक की अपेक्षा उक्त पूर्वोत्पन्न नारक भी महान् कर्म वाला ही होता है। इसी प्रकार जिन्हें उत्पन्न हुए अपेक्षाकृत अधिक समय व्यतीत हो चुका है, वे विशुद्धतर वर्ण वाले होते हैं। नारकों में अप्रशस्त (अशुभ) वर्णनामकर्म के उत्कट अनुभाग का उदय होता है, किन्तु पूर्वोत्पन्न नारकों के उस अशुभ अनुभाग का बहुत-सा भाग निर्जीर्ण हो चुकता है, स्वल्प भाग शेष रहता है। वर्णनामकर्म पुद्गलविपाकी प्रकृति है। अतएव पूर्वोत्पन्न नारक विशुद्धतर वर्ण वाले होते हैं, जब कि पश्चादुत्पन्न नारक अविशुद्धतर वर्ण वाले होते हैं, क्योंकि भव के कारण होने वाले उनके अशुभ नामकर्म का अधिकाशं अशुभ तीव्र अनुभाग निर्जीर्ण नहीं होता, सिर्फ थोड़े-से भाग की ही निर्जरा हो पाती है। इस कारण बाद में उत्पन्न नारक अविशुद्धतर वर्ण वाले होते हैं । यह कथन भी समान स्थिति वाले नारकों की अपेक्षा से समझना चाहिए। इसी प्रकार पूर्वोत्पन्न नारक अप्रशस्त लेश्याद्रव्यों के बहुत-से भाग को निर्जीर्ण कर चुकते हैं, इस कारण १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३३२-३३३
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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