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[प्रज्ञापनासूत्र होने) वाले होते हैं, ३. कई विषम (असमान) आयु वाले और एक साथ उत्पत्ति वाले होते हैं तथा ४. कई विषम आयु वाले और विषम ही उत्पत्ति वाले होते हैं। इस कारण से हे गौतम ! सभी नारक न तो समान आयु वाले होते हैं और न ही समान उत्पत्ति (एक साथ उत्पन्न होने) वाले होते हैं।
विवेचन - नैरयिकों में समाहारादि सप्त द्वारों की प्ररूपणा - प्रस्तुत सात सूत्रों में नैरयिकों में आहार आदि पूर्वोक्त सात द्वारों से सम्बन्धित समानता-असमानता की चर्चा की गई है।
महाशरीर-अल्पशरीर - जिन नारकों को शरीर अपेक्षाकृत विशाल होता है, वे महाशरीर और जिनका शरीर अपेक्षाकृत छोटा होता है, वे अल्पशरीर कहलाते हैं। नारक जीव का शरीर छोटे से छोटा (जघन्य) अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण होता है और बड़े से बड़ा (उत्कृष्ट) शरीर पांच सौ धनुष का होता है। यह प्रमाण भवधारणीय शरीर की अपेक्षा से है, उत्तरवैक्रिय शरीर की अपेक्षा से जघन्य अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट एक हजार धनुष-प्रमाण होता है।
शंका-समाधान - नारकों की आहारसम्बन्धी विषमता पहले न बतलाकर पहले शरीरसम्बन्धी विषमता क्यों बतलाई गई है ? इसका कारण यह है कि शरीरों की विषमता बतला देने पर आहार, उच्छ्वास आदि की विषमता शीघ्र समझ में आ जाती है। इस आशय से दूसरे स्थान में प्रतिपाद्य शरीर-सम्बन्धी प्रश्न का समाधान पहले किया गया है।
महाशरीरादिविशिष्ट नारकों में विसदृशता क्यों ? - जो नारक महाशरीर होते हैं, वे अपने से अल्प शरीर वाले नारकों की अपेक्षा बहुत पुद्गलों का आहार करते हैं, क्योंकि उनका शरीर बड़ा होता है। लोक में । यह प्रसिद्ध है कि महान् शरीर वाले हाथी आदि अपने से छोटे शरीर वाले खरगोश आदि से अधिक आहार करते हैं। किन्तु यह कथन बाहुल्य की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि कोई-कोई तथाविध मनुष्य के समान बड़े शरीर वाला होकर भी अल्पाहारी होता है और कोई-कोई छोटे शरीर वाला होकर भी अतिभोजी होता है। यहाँ अल्पता और महत्ता भी सापेक्ष समझनी चाहिए ।
नारक जीव सातावेदनीय के अनुभव के विपरीत असातावेदनीय का उदय होने से ज्यों-त्यों महाशरीर वाले, अत्यन्त दुःखी एवं तीव्र आहाराभिलाषा वाले होते हैं, त्यों-त्यों वे बहुत अधिक पुद्गलों का आहार करते हैं तथा बहुत अधिक पुद्गलों को परिणत करते हैं। परिणमन आहार किये हुए पुद्गलों के अनुसार होता है। यहाँ परिणाम के विषय में प्रश्न न होने पर भी उसका प्रतिपादन कर दिया गया है, क्योंकि वह आहार का कार्य है। इसी प्रकार महाशरीर वाले होने से वे बहुत अधिक पुद्गलों की उच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते हैं और निःश्वास के रूप में छोड़ते हैं। जो बड़े शरीर वाले होते हैं तथा दुःखित भी अधिक होते हैं, इसलिए ऐसे नारक दुःखित भी अधिक कहे गए हैं।
आहारादि की कालकृत विषमता - अपेक्षाकृत महाशरीर वाले अपनी अपेक्षा लघुशरीर वालों से शीघ्र और शीघ्रतर तथा पुनः पुनः आहार ग्रहण करते देखे जाते हैं। जब आहार बार-बार करते हैं तो उसका परिणमन भी बार-बार करते हैं तथा वे बार-बार उच्छ्वास ग्रहण करते और नि:श्वास छोड़ते हैं। आशय यह है