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________________ १९६] [प्रज्ञापनासूत्र इन्द्रियावाय की व्याख्या - अवग्रहज्ञान से गृहीत और ईहाज्ञान से ईहित अर्थ का निर्णयरूप जो अध्यवसाय होता है, वह अवाय या 'अपाय' कहलाता है । जैसे - यह शंख का ही शब्द है, अथवा यह सारंगी का ही स्वर है, इत्यादि रूप अवधारणात्मक (निश्चयात्मक) निर्णय होना। तात्पर्य यह है कि ज्ञानोपयोग में सर्वप्रथम अवग्रहज्ञान होता है: जो अपर सामान्य को विषय करता है। तत्पश्चात् ईहाज्ञान की उत्पत्ति होती है, जिसके द्वारा ज्ञानोपयोग सामान्यधर्म से आगे बढ़कर विशेषधर्म को ग्रहण करने के लिए अभिमुख होता है। ईहा के पश्चात् अवायज्ञान होता है, जो वस्तु के विशेषधर्म का निश्चय करता है। अवग्रहादि ज्ञान मन से भी होते हैं और इन्द्रियों से भी, किन्तु यहां इन्द्रियों से होने वाले अवग्रहादि के सम्बन्ध में ही प्रश्न और उत्तर हैं । ईहाज्ञान की व्याख्या - सद्भूत पदार्थ की पर्यालोचनरूप चेष्टा ईहा कहलाती है। ईहाज्ञान अवग्रह के पश्चात् और अवाय से पूर्व होता है। यह (ईहाज्ञान) पदार्थ के सद्भूत धर्मविशेष को ग्रहण करने और असद्भूत अर्थविशेष को त्यागने के अभिमुख होता है। जैसे-यहाँ मधुरता आदि शंखादिशब्द के धर्म उपलब्ध हो रहे हैं, सारंग आदि के कर्कशता-निष्ठुरता आदि शब्द के धर्म नहीं, अतएव यह शब्द शंख का होना चाहिए। इस . प्रकार की मतिविशेष ईहा कहलाती है। अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह - अर्थ का अवग्रह अर्थावग्रह कहलाता है। अर्थात् – शब्द द्वारा नहीं कहे जा सकने योग्य अर्थ के सामान्यधर्म को ग्रहण करना अर्थावग्रह है। कहा भी है - रूपादि विशेष से रहित अनिर्देश्य सामान्यरूप अर्थ का ग्रहण, अर्थावग्रह है। जैसे तिनके का स्पर्श होते ही सर्वप्रथम होने वाला - 'यह कुछ है' इस प्रकार का ज्ञान । दीपक के द्वारा जैसे घट व्यक्त किया जाता है, वैसे ही जिसके द्वारा अर्थ व्यक्त किया जाए, उसे व्यंजन कहते हैं । तात्पर्य यह है कि उपकरणरूप द्रव्येन्द्रिय और शब्दादिरूप में परिणत द्रव्यों के परस्पर सम्बन्ध होने पर ही श्रोत्रेन्द्रिय आदि इन्द्रियाँ शब्दादिविषयों को व्यक्त करने में समर्थ होती हैं, अन्यथा नहीं। अत: इन्द्रिय और उसके विषय का सम्बन्ध व्यंजन कहलाता है। यों व्यंजनावग्रह का निर्वचन तीन प्रकार से होता है - उपकरणेन्द्रिय और उसके विषय का सम्बन्ध व्यंजन कहलाता है। उपकरणेन्द्रिय भी व्यंजन कहलाती हैं और व्यक्त होने योग्य शब्दादि विषय भी व्यंजन कहलाते हैं। तात्पर्य यह है कि दर्शनोपयोग के पश्चात् अत्यन्त अव्यक्तरूप परिच्छेद (ज्ञान) व्यञ्जनावग्रह है । पहले कहा जा चुका है कि उपकरण द्रव्येन्द्रिय और शब्दादि के रूप में परिणत द्रव्यों का परस्पर जो सम्बन्ध होता है, वह व्यञ्जनावग्रह है, इस दृष्टि से चार प्राप्यकारी इन्द्रियाँ ही ऐसी हैं, जिनका अपने विषय के साथ सम्बन्ध होता है: चक्षु और मन ये दोनों अप्राप्यकारी हैं, इसलिए इन का अपने विषय के साथ सम्बन्ध नहीं होता। इसी कारण व्यञ्जनावग्रह चार प्रकार का बताया गया है, जबकि अर्थावग्रह छह प्रकार का निर्दिष्ट है। व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह में व्युत्क्रम क्यों ? - व्यञ्जनावग्रह पहले उत्पन्न होता है, और अर्थावग्रह बाद में; ऐसी स्थिति में बाद में होने वाले अर्थावग्रह का कथन पहले क्यों किया गया ? इसका समाधान यह कि अर्थावग्रह अपेक्षाकृत स्पष्टस्वरूप वाला होता है तथा स्पष्टस्वरूप वाला होने से सभी उसे
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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