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पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक ]]
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समझ सकते हैं। इसी हेतु से अर्थावग्रह का कथन पहले किया गया है। इसके अतिरिक्त अर्थावग्रह सभी इन्द्रियों और मन से होता है, इस कारण भी उसका उल्लेख पहले किया गया है। व्यञ्जनावग्रह ऐसा नहीं है, वह चक्षु और मन से नहीं होता तथा अतीव अस्पष्ट स्वरूप वाला होने के कारण सबके संवेदन में नहीं आता, इसलिए उसका कथन बाद में किया गया है।' ग्यारहवाँ द्रव्येन्द्रियद्वार
१०२४. कतिविहा णं भंते ! इंदिया पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता । तं जहा - दव्विंदिया य भाविंदिया य । [१०२४ प्र.] भगवन् ! इन्द्रियाँ कितने प्रकार की कही हैं ? [१०२४ उ.] गौतम ! इन्द्रियाँ दो प्रकार की कही गई हैं, वे इस प्रकार - द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय । १०२५. कति णं भंते ! दव्विंदिया पण्णत्ता ?
गोयमा ! अट्ठ दव्विंदिया पण्णत्ता । तं जहा - दो सोया २ दो णेत्ता ४ दो घाणा ६ जीहा ७ फासे ८।
[१०२५ प्र.] भगवन् ! द्रव्येन्द्रियाँ कितनी कही गई हैं ?
[१०२५ उ.] गौतम ! द्रव्येन्द्रियाँ आठ प्रकार की कही गई हैं, वे इस प्रकार - दो श्रोत्र, दो नेत्र, दो घ्राण (नाक), जिह्वा और स्पर्शन ।
१०२६.[१] णेरइयाणं भंते ! कति दव्विंदिया पण्णत्ता ? गोयमा ! अट्ठ, एते चेव । [१०२६-१ प्र.] भगवन् ! नैरयिकों के कितनी द्रव्येन्द्रियाँ कही गई हैं ? [१०२६-१ उ.] गौतम ! (उनके) ये ही आठ द्रव्येन्द्रियाँ हैं । [२] एवं असुरकुमाराणं जाव थणियकुमाराणं वि । [१०२६-२] इसी प्रकार असुरकुमारों से स्तनितकुमारों तक (ये ही आठ द्रव्येन्द्रियाँ) समझनी चाहिए।
१. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ३१०-३११ (ख) वंजिज्जइ जेणत्थो घडोव्व दीवेण वंजणं तं च ।
उवगरणिंदिय सद्दाइपरिणयदव्वसंबन्धो ॥१॥
- विशेषा. भाष्य - प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्र ३११ में उद्धृत