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________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक ] [१०२१-२ उ.] गौतम ! ( उनके केवल ) एक स्पर्शेन्द्रिय-व्यंजनावग्रह कहा गया है । [३] पुढविकाइयाणं भंते ! कतिविहे अत्थोग्गहे पण्णत्ते ? गोयमा ! एगे फासिंदियअत्थोग्गहे पण्णत्ते । [१९५ [१०२१ - ३ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के कितने अर्थावग्रह कहे गए हैं । [१०२१-३ उ.] गौतम ! ( उनके केवल ) एक स्पर्शेन्द्रिय- अर्थावग्रह कहा गया है । [ ४ ] एवं जाव वणप्फइकाइयाणं । [१०२१-४] (अप्कायिकों से लेकर) यावत् वनस्पतिकायिक ( के व्यंजनावग्रह एवं अर्थावग्रह के विषय में) इसी प्रकार कहना चाहिए । १०२२. [ १ ] एवं बेइंदियाण वि । णवरं बेइंदियाणं वंजणोग्गहे दुविहे पण्णत्ते, अत्थोग्गहे विपण । [१०२२ -१] इसी प्रकार द्वीन्द्रियों के अवग्रह के विषय में समझना चाहिए। विशेष यह है कि द्वीन्द्रियों व्यंजनावग्रह दो प्रकार के कहे गए हैं तथा (उनके) अर्थावग्रह भी दो प्रकार के कहे गए हैं । [ २ ] एवं तेइंदिय- चउरिंदियाण वि । णवरं इंदियपरिवुड्डी कायव्वा । चउरिं दियाणं वंजणोग्गहे तिविहे पण्णत्ते, अत्थोग्गहे चउव्विहे पण्णत्ते । [१०२२-२] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के ( व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह के ) विषय में भी समझना चाहिए। विशेष यह है कि ( उत्तरोत्तर एक-एक ) इन्द्रिय की परिवृद्धि होने से एक-एक व्यंजनावंग्रह एवं अर्थावग्रह की भी वृद्धि कहनी चाहिए । चतुरिन्द्रिय जीवों के व्यञ्जनावग्रह तीन प्रकार के कहे हैं और अर्थावग्रह चार प्रकार के कहे हैं । १०२३. सेसाणं जहा णेरइयाणं (सु. १०२० [१] ) जाव वेमाणियाणं ॥ १० ॥ [१०२३] वैमानिकों तक शेष समस्त जीवों के अवग्रह के विषय में जैसे (सू. १०२० - १ में) नैरयिकों के अवग्रह के विषय में कहा है, वैसे ही समझ लेना चाहिए ॥१०॥ विवेचन - सातवाँ, आठवाँ, नौवाँ और दसवाँ इन्द्रिय-अवाय- ईहा - अवग्रहद्वार - प्रस्तुत दस सूत्रों सू. १०१४ से १०२३ तक) में चार द्वारों के माध्यम से क्रमशः इन्द्रियों के अवग्रहण, अवाय, ईहा और अवग्रह के विषय में कहा गया है। इन्द्रियावग्रहण का अर्थ - इन्द्रियों द्वारा होने वाले सामान्य परिच्छेद (ज्ञान) को इन्द्रियावग्रह या इन्द्रियावग्रहण कहते हैं ।
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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