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अठारहवाँ कायस्थितिपद
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गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तब्भइयाई। [१३४० प्र.] भगवन् ! पद्मलेश्यावान् जीव कितने काल तक पद्मलेश्या वाला रहता है ?
[१३४० उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक दस सागरोपम तक (पद्मलेश्या से युक्त रहता है)।
१३४१. सुक्कलेस्से णं भंते ! ० पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं अंतोमुहत्तब्भइयाई । [१३४१ प्र.] भगवन् ! शुक्ललेश्यावान् जीव कितने काल तक शुक्ललेश्या वाला रहता है ?
[१३४१ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम तक (शुक्ललेश्या वाला रहता है)।
१३४२. अलेस्से णं० पुच्छा? गोयमा ! सादीए अपज्जवसिए । दारं ८॥ [१३४२ प्र.] भगवन् ! अलेश्यी जीव कितने काल तक अलेश्यीरूप में रहता है ? [१३४२ उ.] गौतम ! (अलेश्य-अवस्था) सादि-अपर्यवसित है।
अष्टम द्वार ॥८॥ विवेचन - अष्टम लेश्याद्वार - प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. १३३५ से १३४२ तक) में सलेश्य, अलेश्य तथा कृष्णादि षट्लेश्या वाले जीवों का स्व-स्व-पर्याय में रहने का कालमान प्ररूपित किया गया है।
द्विविध सलेश्य जीवों की कालावस्थिति - जो लेश्या से युक्त हों, वे सलेश्य कहलाते हैं। वे दो प्रकार के हैं- (१) अनादि-अपर्यवसित - जो कदापि संसार का अन्त नहीं कर सकते, (२) अनादिसपर्यवसित- जो संसारपारगामी हों।
लेश्याओं का जघन्य एवं उत्कृष्ट काल - तिर्यञ्चों और मनुष्यों के लेश्याद्रव्य अन्तर्मुहूर्त तक रहते हैं, उसके बाद अवश्य ही बदल जाते हैं। किन्तु देवों और नारकों के लेश्याद्रव्य पूर्वभव सम्बन्धी अन्तिम अन्तर्मुहूर्त से प्रारम्भ होकर परभव के प्रथम अन्तर्मुहूर्त तक स्थायी रहते हैं। इसलिए लेश्याओं का जघन्यकाल (अन्तर्मुहूर्त) सर्वत्र मनुष्यों और तिर्यञ्चों की अपेक्षा से तथा उत्कृष्ट काल देवों और नारकों की अपेक्षा से जानना चाहिए। यहां उत्कृष्ट लेश्याकाल विभिन्न प्रकार का है। वह इस प्रकार है -
कृष्णलेश्यी का उत्कृष्टकाल - कृष्णलेश्या का उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम का कहा है, वह सातवीं नरकभूमि की अपेक्षा से जानना चाहिए। क्योंकि सप्तम नरकपृथ्वी के नारक कृष्णालेश्या वाले होते हैं और उनकी उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की होती है तथा पूर्वभव और उत्तरभव सम्बन्धी दो
१. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३८६