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सत्तरहवाँ लेश्यापद : द्वितीय उद्देशक]
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बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ?
[११७४ उ.] गौतम ! जिस प्रकार समुच्चय एकेनिद्रयों का (सू. ११७३ में) कथन किया है, उसी प्रकार पृथ्वीकायिकों (के अल्पबहुत्व) का कथन करना चाहिए । विशेषता इतनी है कि कापोतलेश्या वाले पृथ्वीकायिक असंख्यातगुणे हैं ।
११७५. एवं आउक्काइयाण वि ।
[११७५] इसी प्रकार कृष्णादिलेश्या वाले अप्कायिकों में अल्पबहुत्व का निरूपण भी समझ लेना चाहिए ।
११७६. एतेसि णं भंते ! तेउक्काइयाणं कण्हलेस्साणं णीललेस्साणं काउलेस्साण य कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा ४?
गोयमा ! सव्वत्थोवा तेउक्काइया काउलेस्सा,णीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया।
[११७६ प्र.] भवगन् ! इन कृष्णलेश्या वाले, नीललेश्या वाले और कापोतलेश्या वाले तेजस्कायिकों में कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ?
[११७६ उ.] गौतम ! सबसे कम कापोतलेश्या वाले तेजस्कायिक हैं, उनसे नीललेश्या वाले विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्णलेश्या वाले विशेषाधिक हैं ।
११७७. एवं वाउक्काइयाण वि। [११७७] इसी प्रकार (कृष्णादिलेश्याविशिष्ट) वायुकायिकों का भी अल्पबहुत्व (समझ लेना चाहिए)। ११७८. एतेसि णं भंते ! वणस्सइकाइयाणं कण्हलेस्साणं जाव तेउलेस्साण य.? जहा एगिंदियओहियाणं (सु. ११७३)।
[११७८ प्र.] भगवन् ! इन कृष्णलेश्या से लेकर तेजोलेश्या वाले वनस्पतिकायिकों में (कौन, किनसे अल्व, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ) ?
[११७८ उ.] गौतम ! जैसे (सू. ११७३ में) समुच्चय (औधिक) एकेन्द्रिय जीवों का अल्पबहुत्व कहा हैं, उसी प्रकार वनस्पतिकायिकों का अल्पबहुत्व समझ लेना चाहिए ।
११७९. बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिदियाणं जहा तेउक्काइयाणं (सु. ११७६)।
[११७९] द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों का अल्पबहुत्व (सू. ११७६ में उक्त) तेजस्कायिकों के समान है।
११८०.[१] एतेसि णं भंते ! पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं कण्हलेस्साणं जाव सुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा ४?