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________________ दसवाँ चरमपद] [४३ [८२९-१ उ.] गौतम ! (स्पर्शचरम की अपेक्षा से अनेक नैरयिक) चरम भी हैं। और अचरम भी हैं । [२] एवं निरंतरं जाव वेमाणिया । संगहणिगाहा - गति ठिति भवे य भासा आणापाणुचरिमे य बोद्धव्वे। आहारा भावचरिमे वण्ण रसे गंध फासे य ॥१९१॥ ॥पण्णवणाए भगवईए दसमं चरिमपयं समत्तं ॥ [८२९-२] इसी प्रकार (की प्ररुपणा) लगातार (अनेक) वैमानिक देवों तक (करनी चाहिए ।) [संग्रहणीगाथार्थ--] १. गति, २ स्थिति, ३. भव, ४. भाषा, ५. आनापान (श्वासोच्छ्वास), ६. आहार, ७. भाव, ८. वर्ण, ९. गन्ध, १०. रस और ११. स्पर्श, (इन ग्यारह द्वारों की अपेक्षा से जीवों की चरम-अचरम प्ररूपणा) समझनी चाहिए ॥१९१ ॥ विवेचन - गति आदि ग्यारह की अपेक्षा से जीवों के चरमाचरमत्व का निरूपण - प्रस्तुत २३ सूत्रों (सू. ८०७ से ८२९ तक) में गति आदि ग्यारह द्वारों की अपेक्षा से चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के चरमअचरम का निरूपण किया गया है । गतिचरम आदि पदों की व्याख्या - (१) गतिचरम-गतिअचरम - गतिपर्यायरूप चरम को गतिचरम कहते हैं। प्रश्न के समय जो जीव मनुष्यगति में विद्यमान है और उसके पश्चात् फिर कभी किसी गति में उत्पन्न नहीं होगा, अपितु मुक्ति प्राप्त कर लेगा, इस प्रकार उस जीव की वह मनुष्यगति चरम अर्थात् अन्तिम है, वह गतिचरम है, जो जीव पृच्छाकालिका गति के पश्चात् पुनः किसी गति में उत्पन्न होगा, वही गति जिसकी अन्तिम नहीं है, वह गति-अचरम है। सामान्यत: गतिचरम मनुष्य ही हो सकता है, क्योंकि मनुष्यगति से ही मुक्ति प्राप्त होती है। इस दृष्टि से तद्भवमोक्षगामी जीव गतिचरम है, शेष गति-अचरम हैं । विशेष की दृष्टि से विचार किया जाय तो जो जीव जिस गति में अन्तिम वार है, वह उस गति की अपेक्षा से गतिचरम है। जैसेपृच्छा के समय कोई जीव नरकगति में विद्यमान है, किन्तु नरक से निकलने के बाद फिर कभी नरकगति में उत्पन्न नहीं होगा, उसे (विशेषापेक्षया) नरकगतिचरम कहा जा सकता है, किन्तु सामान्यत: उसे गतिचरम नहीं कहा जा सकता, क्योंकि नरकगति से निकलने पर उसे दूसरी गति में जन्म लेना ही पड़ेगा। अतएव सामान्य गतिचरम मनुष्य ही होता है। सामान्य जीव विषयक जो गतिचरम सूत्र है, वहाँ सामान्यदृष्टि से मनुष्य को ही कथंचित् गतिचरम समझना चाहिए। परन्तु यहाँ आगे के जितने भी सूत्र हैं, वे विशेषदृष्टि को लेकर हैं, इसलिए गतिचरम का अर्थ हुआ - जो जीव जिस गतिपर्याय से निकल कर पुन: उसमें उत्पन्न नहीं होगा, वह उस गति की अपेक्षा से गतिचरम है और जो पुनः उसमें उत्पन्न होगा, वह उस गति की अपेक्षा से गतिअचरम है।' १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति., पत्रांक २४५
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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