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[प्रज्ञापनासूत्र
पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकों में उत्पन्न होता है ?
[उ.] गौतम ! कोई उत्पन्न होता है और कोई उत्पन्न नहीं होता है । [२] जे णं भंते ! उववजेजा से णं केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए ? गोयमा ! अत्थेगइए लभेजा, अत्थेगइए णो लभेजा ।
[१४३२-२ प्र.] भगवन् ! जो (तेजस्कायिक, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में) उत्पन्न होता है, (क्या) वह केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त कर सकता है ?
[उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई (धर्मश्रवण) प्राप्त करता है (और) कोई प्राप्त नहीं करता है । [३] जे णं भंते ! केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए से णं केवलं बोहि बुझेजा? गोयमा ! णो इणढे समढे ।
[१४३२-३ प्र.] भगवन् ! जो (तेजस्कायिक) केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त करता है, (क्या) वह केवल (केवलिप्रज्ञप्त) बोधि (धर्म) को समझ पाता है ?
[उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। १४३३. मणूस-वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएसु पुच्छा । गोयमा ! णो इणढे समढे ।
[१४३३ प्र.] भगवन् ! (अब प्रश्न है कि तेजस्कायिक जीव, इन्हीं में से निकल कर सीधा) मनुष्य तथा वाणव्यन्तर-ज्योतिष्क-वैमानिकों में (उत्पन्न होता है ?)
[उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं हैं। १४३४. एवं जहेव तेउक्काइए णिरंतरं एवं वाउक्काइए वि ।
[१४३४] इसी प्रकार जैसे तेजस्कायिक जीव की अनन्तर उत्पत्ति आदि के विषय में कहा है, उसी प्रकार वायुकायिक के विषय में भी समझ लेना चाहिए ।
१४३५. बेइंदिए णं भंते ! वेइंदिएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता णेरइएसु उववजेजा? गोयमा ! जहा पुढविक्काए (सु. १४२७-२८)।णवरं मणूसेसुजाव मणपजवणाणं उप्पाडेजा।
[१४३५ प्र.] भगवन् ! (क्या) द्वीन्द्रिय जीव, द्वीन्द्रिय जीवों में से निकल कर सीधा नारकों में उत्पन्न होता है ?
[उ.] गौतम ! जैसे पृथ्वीकायिक जीवों के विषय में [१४२७-२८ में] कहा है, वैसा ही द्वीन्द्रिय