________________
बाईसवाँ क्रियापद ]
.. [५३५ णिरंतरं जाव वेमाणियाणं ति। एवं अट्ठारस एते दंडगा १८।
[१५८०] इसी प्रकर क्रोध से, मान से, माया से, लोभ से, राग (प्रेय) से, द्वेष से, कलह से, अभ्याख्यान. से, पैशुन्य से, परपरिवाद से, अरति-रति से, मायामृषा से एवं मिथ्यादर्शनशल्य (के अध्यवसाय) से (लगने वाली क्रोधादि क्रियाओं के विषय में पूर्ववत्) समस्त (समुच्चय) जीवों तथा नारकों के भेदों से (लेकर) लगातार वैमानिकों तक के (क्रीधादिक्रियाविषयक आलापक) कहने चाहिए। इस प्रकार ये (अठारह पापस्थानों के अध्यवसाय से लगने वाली क्रियाओं के) अठारह दण्डक (आलापक) हुए।
विवेचन - अठारह पापस्थानों से जीवों को लगने वाली क्रियाओं की प्ररूपणा - प्रस्तुत सात सूत्रों (१५७४ से १५८० तक) में प्राणतिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक के अध्यवसाय से समुच्चय जीवों तथा चौबीस दण्डकवर्ती जीवों को लगने वाली इन क्रियाओं तथा इन क्रियाओं के पृथक् पृथक् विषयों की प्ररूपणा की गई है।
प्राणतिपातक्रिया : कारण और विषय- सूत्र १५७४ गत प्रश्न का आशय यह है - जीवों के, प्राणातिपात से, अर्थात् प्राणातिपात के अध्यवसाय से प्राणातिपात क्रिया की जाती है, अर्थात्- होती है। इसका फलितार्थ यह है कि प्राणातिपात (हिंसा) की परिणति (अध्यवसाय- परिणाम) के काल में ही प्राणातिपात क्रिया हो जाती है, यह कथन ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से किया गया है। प्रत्येक क्रिया अध्यवसाय के अनुसार ही होती है। क्योंकि पुण्य और पाप कर्म का उपादान-अनुपादान अध्यवसाय पर ही निर्भर है; इसीलिए भगवान् ने भी इन सब प्रश्नों का उत्तर ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से दिया है कि प्राणातिपात के अध्यवसाय से प्राणातिपातक्रिया होती है। इसी प्रकार का आगमनवचन है- "परिणामिय पमाणं निच्छयमवलंबमाणाणं" इसी वचन के आधार पर आवश्श्यकसूत्र में भी कहा गया है- "आया चेव अहिंसा, आया हिंसत्ति निच्छओ एस" (आत्मा ही अहिंसा है, आत्मा ही हिंसा है, इस प्रकार का यह निश्यचनय का कथन है।) निष्कर्ष यह है कि प्राणातिपातक्रिया प्राणातिपात के आध्यवसाय से होती है। इसी प्रकार शेष १७ पापस्थानकों के अध्यवसाय से मृषावादादि क्रियाएँ होती हैं, यह समझ लेना चाहिए।
प्रस्तुत सुत्र के अन्तर्गत दूसरा प्रश्न है - वह प्राणातिपातक्रिया किस विषय में होती है ? अर्थात्प्राणातिपातक्रिया के कारणभूत अध्यवसाय का विषय षट्जीवनिकाय बताया गया है। क्योंकि मारने का अध्यवसाय जीवविषयक होता है, वह भी 'यह सांप है' इस बुद्धि से प्रवृत्ति होने से जीवविषयक ही है। इसीलिए कहा गया कि प्राणातिपातक्रिया षट्जीवनिकायों में होती है। इसी प्रकार मृषावाद आदि शेष १७ पापस्थानों के अध्यवसाय से होने वाली मृषावादादि क्रिया विभिन्न विषयों को लेकर होती है, यह मूलपाठ से ही समझ लेना चाहिए।
मृषावाद : स्वरूप और विषय - सत् का अपलाप और असत् का प्ररूपण करना मृषावाद है।
१. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४३७-४३८.