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अठारहवाँ कायस्थितिपद ]
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कषायद्वार में सकषाय, अकषाय और क्रोधदिकषाययुक्त जीवों की कायस्थिति का विचार हैं । अष्टम लेश्याद्वार में विविध लेश्या वाले जीवों को स्वपर्याय में रहने को कालस्थिति बताई है। नव सम्यक्त्वद्वार
सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि वाले जीवों की पर्यायस्थिति का विचार है। इसके पश्चात् क्रमश: ज्ञान, दर्शन, संयत, उपयोग आहार का काल बताया है। इसके पश्चात् भाषक, परीत, पर्याप्त, सूक्ष्म, संज्ञी, भवसिद्धिक एवं चरम आदि द्वारों के माध्यम से तद्विशिष्ट जीव स्व-स्वपर्याय में निरन्तर कितने काल रहते हैं ? इसका चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। इक्कीसवे अस्तिकाय द्वार में धर्मास्तिकाय आदि अजीवों की कायस्थिति का विचार किया गया है।
जन्म-मरण की मरम्परा से मुक्ति चाहने वाले मुमुक्षु जीवों के लिए कायस्थिति का यह चिन्तन अतीव उपयोगी है।
१. पण्णवणासुत्तं (मू. पा.) भा. १, पृ. ३०४ से ३१७ तक