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________________ बारहवाँ शरीरपद] [१०९ होकर रहे (समाए) हुए हैं ? इसका समाधान यह है कि दीपक के प्रकाश के समान उनका भी एक लोक में समावेश हो जाता है । जैसे- एक दीपक का प्रकाश समग्र भवन में व्याप्त होकर रहता है और अन्य अनेक दीपकों का प्रकाश भी उस भवन में परस्पर विरोध न होने से रह सकता है, वैसे ही अनन्तानन्त मुक्त औदारिक शरीर भी एक ही लोकाकाश में समाविष्ट होकर रहते हैं। बद्ध-मुक्त वैक्रियशरीरों का परिमाण - बद्ध वैक्रियशरीर असंख्यात होते हैं । कालतः असंख्यात की प्ररूपणा - अगर उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के एक-एक समय में एक-एक वैक्रिय शरीर का अपहरण किया जाए तो समस्त वैक्रियशरीरों का अपहरण करने में असंख्यात उत्सर्पिणियाँ और अवसर्पिणियाँ व्यतीत हो जाएं । संक्षेप में यों कहा जा सकता है - असंख्यात उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों के जितने समय होते हैं, उतने ही बद्ध वैक्रियशरीर हैं । क्षेत्र की अपेक्षा से बद्ध वैक्रियशरीर असंख्यात श्रेणी प्रमाण हैं और उन श्रेणियों का परिमाण प्रतर का असंख्यातवाँ भाग है । इसका तात्पर्य यह है कि प्रतर के असंख्यातवें भाग में जितनी श्रेणियाँ हैं और उन श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश होते हैं उतने ही बद्ध वैक्रियशरीर हैं। ___. श्रेणी का परिमाण यों है - घनीकृत लोक सब ओर से ७ रज्जु प्रमाण होता है । ऐसे लोक की लम्बाई में सात रज्जु एवं मुक्तावली के समान एक आकाश प्रदेश की पंक्ति श्रेणी कहलाती है। घनीकृत लोक का सप्त रज्जुप्रमाण इस प्रकार होता है -समग्र लोक ऊपर से नीचे तक चौदह रज्जु प्रमाण हैं । उसका विस्तार नीचे कुछ कम सात रज्जु का है । मध्य में एक रज्जु है । ब्रह्मलोक नामक पंचम देवलोक के बिल्कुल मध्य में पांच रज्जु है और ऊपर एक रज्जु विस्तार पर लोक का अन्त होता है ।रज्जु का परिमाण स्वयम्भूरमणसमुद्र की पूर्व तटवर्ती वेदिका के अन्त से लेकर उसकी परवेदिका के अंत तक समझना चाहिए । इतनी लम्बाई-चौड़ाई वाले लोक की आकृति दोनों हाथ कमर पर रख कर नाचते हुए पुरुष के समान है । इस कल्पना से त्रसनाडी के दक्षिणभागवर्ती अधोलोकखण्ड को (जो कि कुछ कम तीन रज्जु विस्तृत है, और सात रज्जु से कुछ अधिक ऊंचा है) लेकर त्रसनाडी के उत्तर पार्श्व से, ऊपर का भाग नीचे और नीचे का भाग ऊपर करके इकट्ठा रख दिया जाय, फिर ऊर्ध्वलोक में सनाडी के दक्षिण भागवर्ती कूर्पर (कोहनी) के आकार के जो दो खण्ड हैं, जोकि प्रत्येक कुछ कम साढ़े तीन रज्जु ऊंचे होते हैं, उन्हें कल्पना में लेकर विपरीत रूप में उत्तर पार्श्व में इकट्ठा रख दिया जाए । ऐसा करने से नीचे का लोकार्ध कुछकम चार रज्जु विस्तृत और ऊपर का अर्ध भाग तीन रज्जु विस्तृत एवं कुछ कम सात रज्जु ऊंचा हो जाता है । तत्पश्चात ऊपर के अर्ध भाग को कल्पना में लेकर नीचे के अर्ध भाग के उत्तरपार्श्व में रख दिया जाए। ऐसा करने से कछ अधिक सात रज्ज ऊंचा और कछ कम सात रज्जु विस्तार वाना घन बन जाता है । सात रज्जु से ऊपर जो अधिक है, उसे ऊपर-नीचे के आयत (लम्बे) भाग को उत्तरपार्श्व में मिला दिया जाता है। इसमें विस्तार में भी पूरे सात रजु हो जाते हैं। इस प्रकार लोक को घनीकृत किया जाता है। जहाँ कहीं घनत्व से सात रज्जुप्रमाण की पूर्ति न हो सके, वहाँ कल्पना से पूर्ति कर लेनी चाहिए । सिद्धान्त (शास्त्र) में जहाँ कहीं भी श्रेणी अथवा प्रतर का ग्रहण हो, वहां सर्वत्र इसी प्रकार घनीकृत सात रज्जुप्रमाण लोक की श्रेणी अथवा प्रतर समझना चाहिए।
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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