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________________ ११० ] [ प्रज्ञापनासूत्र मुक्त वैक्रियशरीर भी मुक्त औदारिकशरीरों के समान अनन्त हैं। अत: उनकी अनन्तता भी पूर्वोक्त मुक्त औदारिकों के समान समझ लेनी चाहिए। बद्ध-मुक्त आहारकशरीरों का परिमाण - बद्ध आहारकशरीर कदाचित् होते हैं, कदाचित् नही होते, क्योंकि आहारकशरीर का अन्तर (विरहकाल) जद्यन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक का है। यदि आहारकशरीर होते हैं तो उनकी संख्या जद्यन्य एक दो या तीन होती है, और उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) सहस्रपृथक्त्व अर्थात् दो हजार से लेकर नौ हजार तक होती है। मुक्त आहारकशरीर का परिमाण मुक्त औदारिकशरीरों की तरह समझना चाहिये । बद्ध-मुक्त तैजसशरीरों का परिमाण - बद्ध तैजसशरीर अनन्त हैं क्योंकि साधारणशरीरी निगोदिया जीवों के तैजसशरीर अलग-अलग होते हैं, औदारिक की तरह एक नहीं । उसकी अनन्तता का कालतः परिमाण (पूर्ववत्) अनन्त उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों के समयों के बराबर है। क्षेत्रत:- अनन्त लोकप्रमाण है। अर्थात्-अनन्त लोकाकाशों में जितने प्रदेश हों, उतने ही बद्ध तैजसशरीर हैं । द्रव्य की अपेक्षा से बद्ध तैजसशरीर सिद्धों से अनन्तगुणे हैं, क्योंकि तैजसशरीर समस्त संसारी जीवों के होते हैं और संसारी सिद्धों से अनन्तगुणे हैं। इसलिए तैजसशरीर भी सिद्धों से अनन्तगुणे हैं । किन्तु सम्पूर्ण जीवराशि की दृष्टि से विचार किया जाए तो वे समस्त जीवों से अनन्तवें भाग कम हैं, क्योंकि सिद्धों के तैजसशरीर नही होता और सिद्ध सर्व जीवराशि से अनन्तवें भाग हैं, अत: उन्हे कम कर देने से तैजसशरीर सर्वजीवों के अनन्तवें भाग न्यून हो गए। मुक्त तैजसशरीर भी अनन्त हैं। काल और क्षेत्र की अपेक्षा उसकी अनन्तता पूर्ववत् समझ लेनी चाहिए । द्रव्य की अपेक्षा से मुक्त तैजसशरीर समस्त जीवों से अनन्तगुणे हैं, क्योंकि प्रत्येक जीव का एक तैजसशरीर होता है। जीवों द्वारा जब उनका परित्याग कर दिया जाता है तो वे पूर्वोक्त प्रकार से अनन्त भेदों वाले हो जाते हैं और उनका असंख्यातकालपर्यन्त उस पर्याय में अवस्थान रहता है, इतने समय में जीवों द्वारा परित्यक्त (मुक्त) अन्य तैजसशरीर प्रतिजीव असंख्यात पाए जातें हैं, और वे सभी पूर्वोक्त प्रकार से अनन्त भेदों वाले हो जाते हैं। अत: उन सबकी संख्या समस्त जीवों से अनन्तगुणी कही गई है। क्या समस्त मुक्त तैजसशरीरों की संख्या जीववर्गप्रमाण होती है ? इस शंका का समाधान करते हुए शास्त्रकार कहते हैं - वे जीववर्ग के अनन्तभागप्रमाण होते हैं वे समस्त मुक्ततैजसशरीर जीववर्ग प्रमाण तो तब हो पाते, जबकि एक-एक जीव के तैजसशरीर सर्वतीवरशिप्रमाण होते, या उससे कुछ अधिक होते और उनके साथ सिद्धजीवों के अनन्त भाग की पूर्ति होती । उसी राशि का उसी राशि से गुणा करने पर वर्ग होता है। जैसे ४ को ४ से गुणा करने पर (४ x ४ = १६) सोलह संख्या वाला वर्ग होता है । किन्तु एक-एक जीव मुक्त तैजसशरीर सर्वजीवराशि - प्रमाण या उससे कुछ अधिक नही हो सकते, अपितु उससे बहुत कम ही १. आहारगाई लोए छम्मासे जा न होंति वि कयाइं । उक्कोसेणं नियमा, एकं समयं जहन्त्रेणं ॥ - प्रज्ञापना. म. वृ. प. २७३ में उद्धृत
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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