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________________ १०८ ] [प्रज्ञापनासूत्र के बराबर है, अर्थात्-उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालों के एक-एक समय में एक-एक मुक्त औदारिक शरीर का अपहरण किया जाए तो समस्त मुक्त औदारिकशरीरों का अपहरण करने में अनन्त उत्सर्पिणियां और अनन्त अवसर्पिणियाँ समाप्त हो जाएँ। संक्षेप में, इसे यों कह सकते हैं कि अनन्त उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों में जितने समय होते हैं, उतनी ही मुक्त औदारिकशरीरों की संख्या है। क्षेत्र की अपेक्षा सेवे अनन्त लोकप्रमाण हैं। इसका तात्पर्य यह है कि एक लोक में असंख्यातप्रदेश होते हैं। ऐसे-ऐसे अनन्त लोकों के जितने आकाशप्रदेश हों, उतने ही मुक्त औदारिक शरीर हैं। द्रव्य की अपेक्षा से- मुक्त औदारिकशरीर अभव्य जीवों से अनन्तगुणे होते हुए भी सिद्ध जीवों के अनन्तवें भाग मात्र ही हैं, अर्थात्-वे सिद्ध जीवराशि के बराबर नहीं है। इस सम्बन्ध में एक शंका है-यदि अविकल (ज्यों के त्यों) मुक्त औदारिकशरीरों की यह संख्या मानी जाए तो भी वे अनन्त नहीं हो सकते, क्योंकि नियमानुसार पुद्गलों की स्थिति अधिक से अधिक असंख्यातकाल तक की होने से वे मुक्त शरीर अविकल रूप से अनन्तकाल तक ठहर नहीं सकते। यदि यहाँ उन पुद्गलों को लिया जाए,जिन्हें जीव ने औदारिकशरीर के रूप में अतीतकाल में ग्रहण करके त्याग दिया है, तो सभी जीवों ने सभी पुद्गलों को औदारिकशरीर के रूप में ग्रहण करके त्यागा है, कोई पुद्गल शेष नहीं बचा है। ऐसी स्थिति में मुक्त औदारिकशरीर अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्ध जीवों के अनन्तवें भाग हैं, यह कथन कैसे संगत हो सकता है? इसका समाधान यह है कि यहाँ मुक्त औदारिक शरीरों से न तो केवल अविकल (अखंडित) शरीरों का ही ग्रहण किया जाता है, और न औदारिकशरीर के रूप में ग्रहण करके त्यागे हुए पुद्गलों का ग्रहण किया है अतः यहाँ पूर्वोक्त दोषापत्ति नहीं है। जिस औदारिक शरीर को जीव ने ग्रहण करके त्याग दिया है और वह विनष्ट होता हुआ अनन्त भेदों वाला होता है। वे अनन्त भेदों को प्राप्त होते हुए औदारिक पुद्गल जब तक औदारिक पर्याय का परित्याग नहीं करते, तब तक वे औदारिकशरीर कहलाते हैं। जिन पुद्गलों ने औदारिक पर्याय का परित्याग कर दिया, वे औदारिकशरीर नहीं कहलाते। इस प्रकार एक ही शरीर के अनन्त शरीर सम्भव हो जाते हैं । इस तरह एक-एक शरीर अनन्त-अनन्त भेदों वाला होने से एक ही समय में प्रचुर अनन्त शरीर पाए जाते हैं। वे असंख्यातकाल तक अवस्थित रहते हैं। उस असंख्यातकाल में जीवों द्वारा त्यागे हुए अन्य असंख्यात शरीर भी होते हैं। उन सबके भी प्रत्येक के अनन्त-अनन्त भेद होते हैं। उनमें से उस काल में जो औदारिकशरीरपर्याय का परित्याग कर देते हैं, उनकी गणना भी इनमें नहीं की जाती, शेष की गणना औदारिकशरीरों में होती है। अतएव मुक्त औदारिकशरीरों का जो परिमाण ऊपर बताया गया है, वह कथन संगत हो जाता है। जिस प्रकार लवणपरिणाम में परिणत लवण थोड़ा हो या ज्यादा, वह (विभिन्न लवणों का) पुद्गलसंघात लवण ही कहलाता है, इसी प्रकार औदारिक रूप से परिणत औदारिक शरीरयोग्य पुद्गलसंघात भी चाहे थोड़ा (आधा, पाव भाग या एक देश भी) हो, चाहे बहुत (पूर्ण औदारिकशरीर) हो, वह भी औदारिक शरीर ही कहलाता है। यहां तक कि शरीर का अनन्तवां भाग भी शरीर ही कहलाता अब प्रश्न यह है कि अनन्तानन्त लोकाकाशप्रदेश प्रमाण औदारिक शरीर एक ही लोक में कैसे अवगाढ़
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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