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________________ १७४] [प्रज्ञापनासूत्र हुए शब्द रूप में परिणमनयोग्य अन्य शब्दद्रव्यों को भी वासित कर लेते हैं। अतएव शब्दद्रव्य आत्मप्रदेशों के साथ स्पृष्ट होते ही निर्वृत्तीन्द्रिय में प्रवेश करके झटपट उपकरणेन्द्रिय (शब्द ग्रहण करने वाली शक्ति) को अभिव्यक्त करते है। इसके अतिरिक्त घ्राणेन्द्रिय आदि की अपेक्षा श्रोत्रेन्द्रिय अपने विषय को ग्रहण करने में अधिक पटु है: इसलिए श्रोत्रेन्द्रिय स्पृष्ट होने मात्र से ही शब्दों को ग्रहण कर लेती है, किन्तु अस्पृष्ट - आत्मप्रदेशों के साथ सर्वथा सम्बन्ध को अप्राप्त - विषयों (शब्दों) को ग्रहण नहीं करती, क्योंकि प्राप्यकारी होने से उसका स्वभाव प्राप्त-स्पृष्ट विषय को ग्रहण करने का है। यद्यपि मूलपाठ में कहा गया है कि घ्राणेन्द्रिय स्पृष्ट गन्धों को सूंघती है, इत्यादिः तथापि वह बद्ध-स्पृष्ट गन्धों को सूंघती है, ऐसा समझना चाहिए। आवश्यकनियुक्ति में कहा गया है कि श्रोत्रेन्द्रिय स्पृष्ट शब्द को सुनती है, किन्तु चक्षुरिन्द्रिय अस्पृष्ट रूप को देखती है तथा गन्ध, रस और स्पर्श को क्रमशः घ्राणेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय (अपने-अपने) बद्ध-स्पृष्ट विषय को ग्रहण करती है, ऐसा कहना चाहिए। स्पृष्ट का अर्थ - आत्मप्रदेशों के साथ सम्पर्कप्राप्त है, जबकि बद्ध का अर्थ है - आत्मप्रदेशों के द्वारा प्रगाढ़ संबंध को प्राप्त। विषय, स्पृष्ट तो स्पर्शमात्र से ही हो जाते हैं किन्तु बद्ध-स्पृष्ट तभी होते है, जब वे आत्मप्रदेशों के साथ एकमेक हो जाते हैं । गृहीत होने के लिए गन्धादि द्रव्यों का बद्ध और स्पृष्ट होना इसलिए आवश्यक है कि वे बादर हैं, अल्प हैं, वे अपने समकक्ष द्रव्यों को भावित नहीं करते तथा श्रोत्रेन्द्रिय की अपेक्षा घ्राणेन्द्रिय आदि इन्द्रियाँ मन्दशक्ति वाली भी हैं । चक्षुरिन्द्रिय अप्राप्यकारी होने से अस्पृष्ट रूपों को ग्रहण करती है। प्रविष्ट-अप्रविष्ट की व्याख्या - स्पृष्ट और प्रविष्ट में अन्तर यह है कि स्पर्श तो शरीर में रेत लगने की तरह होता है, किन्तु प्रवेश मुख में कौर (ग्रास) जाने की तरह है, इसलिए इन दोनों के शब्दार्थ भिन्न होने से दोनों को पृथक्-पृथक् प्रस्तुत किया है। इन्द्रियों द्वारा अपने अपने उपकरण में प्रविष्ट विषयों को ग्रहण करना प्रविष्ट कहलाता है। जैसे श्रोत्रेन्द्रिय प्रविष्ट अर्थात् - कर्णकुहर में प्राप्त शब्दों को सुनती हैं, अप्रविष्ट शब्दों को नहीं। चक्षुरिन्द्रिय चक्षु में अप्रविष्ट रूप को ग्रहण करती है। घ्राणेन्द्रिय रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय अपने-अपने उपकरण में बद्ध-प्रविष्ट विषय को ग्रहण करती हैं। नौवाँ विषय (-परिमाण) द्वार ९९२. [२] सोइंदियस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णत्ते? गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागाओ, उक्कोसेणं बारसहिं जोयणेहिंतो अच्छिण्ण १. पुढे सुणेइ सई, रूवं पुण पासइ अपुटुंतु । गंध रसं च फासं च बद्ध-पुढे वियागरे ॥ - आवश्यकनियुक्ति २. 'बद्धमप्पीकयं पएसेहिं' - प्रज्ञापना. म. वृ. पत्रांक २९८ में उद्धृत ३. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २९८-२९९
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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