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पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक]
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[९९०-३ प्र.] भगवन् ! (घ्राणेन्द्रिय) स्पृष्ट गन्धों को सूंघती है, अथवा अस्पृष्ट गन्धों को (सूंघती है)? [९९०-३ उ.] गौतम ! (वह) स्पृष्ट गन्धों को सूंघती है, अस्पृष्ट गन्धों को नहीं सूंघती ।
[४] एवं रसाणवि फासाणवि । णवरं रसाइं अस्साएइ फासाइं पडिसंवेदेति त्ति अभिलावो कायव्वो।
[९९०-४ प्र.] इस प्रकार (घ्राणेन्द्रिय की तरह जिहेन्द्रिय द्वारा) रसों के और (स्पर्शनेन्द्रिय द्वारा) स्पर्शों के ग्रहण करने के विषय में भी समझना चाहिए। विशेष यह है कि (जिह्वेन्द्रिय) रसों का आस्वादन करती (चखती) है और (स्पर्शनेन्द्रिय) स्पर्शों का प्रतिसंवेदन (अनुभव) करती है, ऐसा अभिलाप (शब्दप्रयोग) करना चाहिए।
९९१.[१] पविट्ठाई भंते ! सद्दाइं सुणेइ ? अपविट्ठाइं सद्दाइं सुणेइ ? गोयमा ! पविट्ठाई सद्दाइं सुणेइ, णो अपविट्ठाइं सद्दाई सुणेइ । [९९१-१ प्र.] भगवन् ! (श्रोत्रेन्द्रिय) प्रविष्ट शब्दों को सुनती है या अप्रविष्ट शब्दों को (सुनती है)? . [९९१-१ उ.] गौतम ! (वह) प्रविष्ट शब्दों को सुनती है, अप्रविष्ट शब्दों को नहीं सुनती । [२] एवं जहा पुट्ठाणि तहा पविट्ठाणि वि । [९९१-२] इसी प्रकार जैसे स्पृष्ट के विषय में कहा, उसी प्रकार प्रविष्ट के विषय में भी कहना चाहिए।
विवेचन - सप्तम-अष्टम स्पृष्ट एवं प्रविष्ट द्वार - प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. ९९०-९९१) में यह प्रतिपादन किया गया है कि कौन सी इन्द्रिय अपने स्पृष्ट विषय को ग्रहण करती है और कौन-सी अस्पृष्ट विषय को ? तथा कौन-सी इन्द्रिय प्रविष्ट विषय को ग्रहण करती है और कौन-सी अप्रविष्ट विषय को?
स्पृष्ट और अस्पृष्ट की व्याख्या - जैसे शरीर पर रेत लग जाती है, उसी तरह इन्द्रिय के साथ विषय का स्पर्श हो तो वह स्पृष्ट कहलाता है। जिस इन्द्रिय का अपने विषय के साथ स्पर्श नहीं होता , वह अस्पृष्ट विषय कहलाता है। जैसे - श्रोत्रेन्द्रिय के साथ जिनका स्पर्श हुआ हो, वे शब्द (विषय) स्पृष्ट कहलाते हैं, किन्तु चक्षुरिन्द्रिय के साथ जिनका स्पर्श न हुआ हो, ऐसे रूप (विषय) अस्पृष्ट कहलाते हैं।'
स्पृष्टसूत्र का विशेष स्पष्टीकरण - प्रस्तुत समाधान से एक विशिष्ट अर्थ भी ध्वनित होता है कि श्रोत्रेन्द्रिय स्पृष्टमात्र शब्दद्रव्यों को ही सुनती - ग्रहण कर लेती है। जैसे घ्राणेन्द्रियादि बद्ध और स्पृष्ट गन्धादि को ग्रहण करती है, वैसे श्रोत्रेन्द्रिय नहीं करती। इसका कारण यह है कि घ्राणेन्द्रियादि के विषयभूत द्रव्यों की अपेक्षा शब्द (भाषावर्गणा) के द्रव्य (पुद्गल) सूक्ष्म और बहुत होते हैं तथा शब्दद्रव्य उस-उस क्षेत्र में रहे
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प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २९७-२९८