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पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक ]
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पोग्गले पुढे पविट्ठाई सद्दाइं सुणेति ।
[९९२-१ प्र.] भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय का विषय कितना कहा गया है ?
[९९२-१ उ.] गौतम ! (श्रोत्रेन्द्रिय) जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग (दूर शब्दों को) एवं उत्कृष्ट बारह योजनों से (१२ योजन दूर से) आए अविच्छिन्न (विच्छिन्न, विनष्ट या बिखरे न हुए) शब्दवर्गणा के पुद्गल के स्पृष्ट होने पर (निर्वृत्तीन्द्रिय में) प्रविष्ट शब्दों को सुनती है ।
[२] चक्खिदियस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णत्ते ?
गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स संखेजतिभागाओ, उक्कोसेणं सातिरेगाओ जोयणसयसहस्साओ अच्छिण्णे पोग्गले अपुढे अपविट्ठाई रूवाइं पासति ।
[९९२-२ प्र.] भगवन् ! चक्षुरिन्द्रिय का विषय कितना कहा गया है ?
[९९२-२ उ.] गौतम ! (चक्षुरिन्द्रिय) जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग (दूर स्थित रूपों को) एवं उत्कृष्ट एक लाख योजन से कुछ अधिक (दूर) के अविच्छिन्न (रूपवान) पुद्गलों के अस्पृष्ट एवं अप्रविष्ट रूपों को देखती है।
[३] घाणिंदियस्स पुच्छा ।
गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागातो, उक्कोसेणं णवहिं जोयणेहितो अच्छिण्णे पोग्गले पुढे पविट्ठाइं गंधाइं अग्घाति
[९९२-३ प्र.] भगवन् ! घ्राणेन्द्रिय का विषय कितना कहा गया है ? यह प्रश्न है।
[९९२-३ उ.] गौतम ! (घ्राणेन्द्रिय) जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग (दूर से आए गधों को) और उत्कृष्ट नौ योजनों से आए अविच्छिन्न (गन्ध-) पुद्गल के स्पृष्ट होने पर (निर्वृत्तीन्द्रिय में) प्रविष्ट गन्धों को सूंघ लेती है।
[४] एवं जिब्भिंदियस्स वि फासिंदियस्स वि ।।
[९९२-४] जैसे घ्राणेन्द्रिय के विषय (-परिमाण) का निरूपण किया है, वैसे ही जिह्वेन्द्रिय एवं स्पर्शनेन्द्रिय के विषय-परिणाम के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए ।
विवेचन - नौवाँ विषय (-परिमाण) द्वार - प्रस्तुत सूत्र (९९२) में क्रमशः बताया गया है कि कितनी दूर से पांचों इन्द्रियों में अपने-अपने विषय को ग्रहण करने की जघन्य और उत्कृष्ट क्षमता है ?
इन्द्रियों की विषय-ग्रहणक्षमता - (१) श्रोत्रेन्द्रिय जघन्यतः आत्मांगुल के असंख्यातवें भाग दूर से आए हुए शब्दों को सुन सकती है और उत्कृष्ट १२ योजन दूर से आए हुए शब्दों को सुनती है, बशर्ते कि वे