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[ प्रज्ञापनासूत्र
शब्द अच्छिन्न अर्थात् - अव्यवहित हों, उनका तांता टूटना या बिखरना नहीं चाहिए। दूसरे शब्दों या वायु आदि से उनकी शक्ति प्रतिहत न हो गई हो, साथ ही वे शब्द - पुद्गल स्पृष्ट होने चाहिए, अस्पृष्ट शब्दों को श्रोत्र ग्रहण नहीं कर सकते। इसके अतिरिक्त वे शब्द निर्वृत्तीन्द्रिय में प्रविष्ट भी होने चाहिए। इससे अधिक दूरी से आए हुए शब्दों का परिणमन मन्द हो जाता हैं, इसलिए वे श्रवण करने योग्य नहीं रह जाते । (२) चक्षुरिन्द्रिय जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग की दूरी पर स्थित रूप को तथा उत्कृष्ट एक लाख योजन दूरी पर स्थित रूप को देख सकती है। किन्तु वह रुप अच्छिन्न (दीवाल आदि के व्यवधान से रहित), अस्पृष्ट और अप्रविष्ट पुद्गलों को देख सकती है। इससे आगे के रूप को देखने की शक्ति नेत्र में नही है, चाहे व्यवधान न भी हो । निष्कर्ष यह है कि श्रोत्र आदि चार इन्द्रियाँ प्राप्यकारी होने से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग दूर के शब्द, गन्ध, रस और स्पर्श को ग्रहण कर सकती हैं, जबकि चक्षुरिन्द्रिय अप्राप्यकारी होने से जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग दूर स्थित अव्यवहित रूपी द्रव्य को देखती है, इससे अधिक निकटवर्ती रुप को वह नहीं जान सकती, क्योंकि अत्यन्त सन्निकृष्ट अंजन, रज, मस आदि को भी नहीं देख पाती। शेष सभी इन्द्रियों के द्वारा विषयग्रहण की क्षमता का प्रतिपादन स्पष्ट ही है।
दसवाँ अनगार-द्वार
९९३. अणगारस्स णं भंते ! भाविअप्पणो मारणंतियसमुग्धाएणं समोहयस्स जे चरिमा णिज्जरापोग्गला सुहुमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता समणाउसो ! सव्वलोगं पि य णं ते ओगाहित्ता णं चिट्ठति ?
हंता गोयमा ! अणगारस्स णं भाविअप्पणो मारणंतियसमुग्धाएणं समोहयस्स जे चरिमा णिज्जरापोग्गला सुहुमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता समणाउसो ! सव्वलोगं पि य णं ते ओगाहित्ता णं चिट्ठति ।
[९९३ प्र.] भगवन् ! मारणान्तिक समुद्घात से समवहत भावितात्मा अनगार के जो चरम निर्जरा- पुद्गल हैं, क्या वे पुद्गल सूक्ष्म कहे गए हैं ? हे आयुष्मन् श्रमण ! क्या व सर्वलोक को अवगाहन करके रहते है ?
[ ९९३ उ.] गौतम ! मारणान्तिक समुद्घात से समवहत भावितात्मा अनगार के जो चरमनिर्जरा- पुद्गल हैं, वे सूक्ष्म कहे हैं: हे आयुष्मन् श्रमण ! वे समग्र लोक को अवगाहन करके रहते हैं ।
९९४. छउमत्थे णं भंते ! मणूसे तेसिं णिज्जरापोग्गलाणं किं आणत्तं वा णाणत्तं वा ओमत्तं वा
१.
(क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २९९ से ३०२ तक
(ख) वारसहिंतो सोत्तं, सेसाण नवहि जोयणेहिंतो ।
गिण्हंति पत्तमत्थं एत्तो परतो न गिण्हंति ॥
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विशेषा. भाष्य