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ग्यारहवाँ भाषापद]
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क्या यह भाषा प्रज्ञापनी है ? क्या यह भाषा मृषा नहीं है ?
[८५७ उ.] गौतम! स्त्रीवचन, पुरुषवचन, अथवा नपुंसकवचन बोलते हुए (व्यक्ति की) यह भाषा प्रज्ञापनी है, यह भाषा मृषा नहीं है।
विवेचन - एकवचनादि तथा स्त्रीवचनादि विशिष्ट भाषा की प्रज्ञापनिता का निर्णय - प्रस्तुत नौ सूत्रों (सू. ८४९ से ८५७ तक) में प्रज्ञापनी भाषा के विषय में वचन, लिंग, आज्ञापन, प्रज्ञापन आदि की अपेक्षा से निर्णयात्मक विचार प्रस्तुत किया गया है।
प्रस्तुत नौ सूत्रोक्त प्रश्नोत्तरों की व्याख्या - (१) सू. ८४९ में प्ररूपित प्रश्न का आशय यह है कि मनुष्य से चिल्ललक तक के तथा इसी प्रकार के अन्य शब्द एकत्ववाचक होने से क्या एकवचन हैं ? अर्थात्इस प्रकार की भाषा क्या एकत्वप्रतिपादिका भाषा है ? तात्पर्य यह है कि - वस्तु धर्मधर्मिसमुदायात्मक होती है, और प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म पाए जाते हैं। मनुष्य' कहने से धर्मधर्मिसमुदायात्मक सकल (अखण्ड), परिपूर्ण वस्तु की प्रतीति होती है, ऐसा ही व्यवहार भी देखा जाता है, किन्तु एक पदार्थ के लिए एकवचन का
और बहुत-से पदार्थों के लिए बहुवचन का प्रयोग होता है। इस दृष्टि से गहाँ 'मनुष्य,' इस प्रकार का एकवचन का प्रयोग किया गया है, जबकि एकत्वविशिष्ट मनुष्य से मनुष्यगत अनेक धर्मों का बोध होता है। लोक में तो एकवचन के द्वारा व्यवहार होता है। ऐसी स्थिति में क्या मनुष्य आदि के लिए एकत्वप्रतिपादिका भाषा के रूप में एकवचनान्त प्रयोग समीचीन है ?
भगवान् का उत्तर है - मनुष्य से लेकर चिल्ललक तक तथा इसी प्रकार के अन्य जितने भी शब्द हैं, वह सब एकत्ववाचक भाषा है। तात्पर्य यह है कि शब्दों की प्रवृत्ति विवक्षा के अधीन है और विवक्षा वक्ता के विभिन्न प्रयोजनों के अनुसार कभी और कहीं एक प्रकार की होती है, तो कभी और कहीं उससे भिन्न प्रकार की, अत: विवक्षां अनियत होती है। उदाहरणार्थ - किसी एक ही व्यक्ति को उसका पुत्र पिता के रूप में विवक्षित करता है, तब वह व्यक्ति पिता कहलाता है तथा वही पुत्र उसे अपने अध्यापक के रूप में विवक्षित करता है, तब वही व्यक्ति उपाध्याय' कहलाने लगता है। इसी प्रकार यहाँ भी जब धर्मों को गौण करके धर्मों की प्रधानरूप से विवक्षा की जाती है तब धर्मों होने से एकवचन का ही प्रयोग होता है। उस समय समस्त धर्म धर्मों के अन्तर्गत हो जाते हैं। इस कारण सम्पूर्ण वस्तु की प्रतीति हो जाती है। किन्तु जब धर्मो (मनुष्य) की गौणरूप में विवक्षा की जाती है और धर्मो की प्रधानरूप से विवक्षा की जाती है, तब धर्म बहुत होने के कारण धर्मो एक होने पर भी बहुवचन का प्रयोग होता है। निष्कर्ष यह है कि जब धर्मों से धर्मों को अभिन्न मान कर एकत्व की विवक्षा की जाती है तब एकवचन का प्रयोग होता है और जब धर्मों को गौण करके अनेक धर्मों की प्रधानता से विवक्षा की जाती है तब बहुवचन का प्रयोग होता है। यहाँ भी अनन्तधर्मात्मक वस्तु मनुष्य आदि भी धर्मो के एक होने से एकवचन द्वारा प्रतिपादित की जा सकती है। इसलिए यह भाषा एकत्वश्प्रतिपादिका है। (२) सूत्र ८४० में प्ररूपित प्रश्न का आशय यह है कि 'मनुष्या:' से 'चिल्ललकाः' तक तथा इसी प्रकार के अन्य