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तेरहवां परिणामपद]
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और न ही चारित्राचारित्री (देशचारित्री), वे अचारित्री ही रहते है । सम्पूर्ण चारित्र मनुष्यों के ही सम्भव है तथा देशचारित्र मनुष्य और तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय में ही हो सकता है, इसलिए नारकों में चारित्रपरिणाम बिलकुल नहीं होता ।
वेदपरिणाम से नारक नपुंसकवेदी ही क्यों ? - नारक न तो स्त्री और न पुरूष होते हैं; इसलिए . नारक सिर्फ नपुंसकवेदी होते हैं । तत्त्वार्थसूत्र में भी कहा है- 'नारक और सम्मूछिम जीव नपुंसक होते हैं।' असुरकुमारादि भवनवासियों की परीणामसम्बन्धी प्ररूपणा
९३९.[१] असुरकुमारा वि एवं चेव । नवरं देवगतिया, कण्हलेसा वि जाव तेउलेसा वि, वेदपरिणामेणं इत्थिवेयगा वि पुरिसवेयगा वि, णो णपुंसगवेयगा । सेसं तं चेव ।
__[९३९-१] असुरकुमारों की (परिणामसम्बन्धी वक्तव्यता) भी इसी प्रकार जाननी चाहिए । विशेषता यह है कि (वे गतिपरिणाम से) देवगतिक होते हैं; (लेश्यापरिणाम से) कृष्ण लेश्यावान् भी होते हैं तथा नील, कपोत एवं तेजोलेश्या वाले भी होते हैं; वेदपरिणाम से वे स्त्रीवेदक भी होते है, पुरुषवेदक भी होते है, किन्तु नपुंसकवेदक नहीं होते । (इसके अतिरिक्त) शेष (सब) कथन उसी तरह (पूर्ववत्) समझना चाहिए। • [२] एवं जाव थणियकुमारा ।
[९३९-२] इसी प्रकार (असुरकुमारों के समान नागकुमारों से लेकर) स्तनितकुमारों तक (की परिणामसम्बन्धो प्ररूपणा करनी चाहिए ।)
विवेचन - असुरकुमारादि भवनवासियों की परिणासम्बन्धी प्ररूपणा - प्रस्तुत सूत्र (९२९) में असुरकुमारों से लेकर स्तनितकुमारों तक दस प्रकार के भवनवासी देवों के दशविध परिणामों की प्ररूपणा कुछेक बातों को छोड़कर नारकों के अतिदेशपूर्वक की गई है ।
भवनवासी देवों का नारकों से कुछ परिणामों में अन्तर - भवनवासी देवों के अधिकतर परिणाम तो नैरयिकों के समान ही होते हैं, कुछ परिणामों में अन्तर है, जैसे कि वे गतिपरिणाम से देवगतिवाले होते हैं। लेश्यापरिणाम की अपेक्षा से नारको की तरह उनमें भी प्रारम्भ की तीन लेश्याएँ होती हैं, किन्तु महर्द्धिक भवनवासी देवों के चौथी तेजोलेश्या भी होती है। वेदपरिणाम की दृष्टि से वे नारकों की तरह नपुंसककवेदी नहीं होते, क्योंकि देव नपुंसक नहीं होते; अतः भवनवासियों में स्त्रीवेदी और पुरूषवेदी ही होते हैं । एकेन्द्रिय से तिर्यचपंचेन्द्रिय जीवों तक के परिणामों की प्ररूपणा
१. 'नारक-सम्मूर्छिनो नपुंसकानि' -तत्त्वार्थ. अ. २ सू. ५०
प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २८७ २. 'न देवाः' -तत्त्वार्थ. अ. २, सू. ५१ ३. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २८७