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इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान पद ]
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य । तत्थ णं जे से भवधारणिज्जे से णं समचउरंससंठाणसंठिए पण्णत्ते । तत्थ णं जे से उत्तरवेउव्विए से णं णाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते ।
[१५२६-१ प्र.] भगवन् ! असुरकुमार - भवनवासी- देव-पंचेन्द्रियों का वैक्रियशरीर किस संस्थान का कहा गया है ?
[उ.] गौतम ! असुरकुमार देवों का (वैक्रिय) शरीर दो प्रकार का कहा गया है- भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । उनमें से जो भवधारणीयशरीर है, वह समचतुरस्त्र संस्थान वाला होता है, तथा जो उत्तरवैक्रियशरीर है, वह अनेक प्रकार के संस्थान वाला होता है ।
[ २ ] एवं जाव थणियकुमारदेवपंचेंदियवेडव्वियसरीरे ।
[१५२६-२] इसी प्रकार (असुरकुमार देवों की भांति) नागकुमार से लेकर स्तनितकुमार पर्यन्त के भी वैक्रियशरीरों का संस्थान समझ लेना चाहिए ।
[ ३ ] एवं वाणमंतराण वि । णवरं ओहिया वाणमंतरा पुच्छिज्जंति ।
[१५२६-३] इसी प्रकार वाणवयन्तरदेवों के वैक्रियशरीर का संस्थान भी असुरकुमारादि की भांति भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय की अपेक्षा से क्रमशः समचतुरस्र तथा नाना संस्थान वाला कहना चाहिए । विशेषता यह है कि यहाँ प्रश्न ( इनके भेद - प्रभेदों के विषय में न कर) औघिक - (समुच्चय) वाणव्यन्तरदेवों (के वैक्रियशरीर के संस्थान के सम्बन्ध में करना चाहिए ।)
[ ४ ] एवं जोइसियाण वि ओहियाणं ।
[१५२६-४] इसी प्रकार ( वाणव्यन्तरों की तरह) औघिक (समुच्चय) ज्योतिष्कदेवों के वैक्रियशरीर (भवधारणीय और उत्तरवैद्रिय) के संस्थान के सम्बन्ध में समझना चाहिए ।
[ ५ ] एवं सोहम्म जाव अच्चुयदेवसरीरे ।
[१५२६-५] इसी प्रकार सौधर्म से लेकर अच्युत कल्प के ( कल्पोपपन्न वैमानिकों के भवधारणीय और उत्तर वैक्रियशरीर के संस्थानों का कथन करना चाहिए ।)
[ ६ ] गेवेज्जगकप्पातीयवेमाणियदेवपंचेंदियवेउव्वियसरीरे णं भंतें ! किसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! गेवेज्जगदेवाणं एगे भवधारणिजे सरीरए, से णं समचउरंससंठाणसंठिए पण्णत्ते । [१५२६-६ प्र.] भगवन् ! ग्रैवेयककल्पातीत वैमानिकदेव-पंचेन्द्रियों का वैक्रियशरीर किस संस्थान का कहा गया है ?
[उ.] गौतम ! ग्रैवेयकदेवों के एकमात्र भवधारणीय- (वैक्रिय) शरीर ही होता है और वह