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[प्रज्ञापनासूत्र
है, वह भी हुंडकसंस्थान वाला होता है ।
[२] रयणप्पभापुढविणेरड्यपंचेंदियवेउव्वियसरीरे णं भंते ! किंसंठाणसंठिए पण्णत्ते ?
गोयमा ! रयणप्पभापुढविणेरइयाणं दुविहे सरीरे पण्णत्ते । तं जहा-भवधारणिजे य उत्तरवेउव्विए य । तत्थ णं जे से भवधारणिजे से वि हुंडे, जे वि उत्तरवेउव्विए से वि हुंडे । एवं जाव अहेसत्तमापुढविणेरइयवेउव्वियसरीरे ।
[१५२३-२ प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नारक-पंचेन्द्रियों का वैक्रियशरीर किस संस्थान का कहा गया है ?
[उ.] गौतम ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक-पंचेन्द्रियों का (वैक्रिय) शरीर दो प्रकार का कहा गया हैभवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । उनमें से जो भवधारणीय-वैक्रियशरीर है, वह हुंडकसंस्थान वाला है और उत्तरवैक्रिय भी हुंडक-संस्थान वाला होता है । इसी प्रकार (शर्कराप्रभापृथ्वी से लेकर) अधःसप्तमपृथ्वी के नारकों (तक के ये दोनों प्रकार के वैक्रियशरीर हुंडकसंस्थान वाले होते हैं ।)
१५२४.[१] तिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउब्वियसरीरे णं भंते ! किंसंठाणसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! णाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते । [१५२४-१ प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों का वैक्रियशरीर किस संस्थान का कहा गया है? [उ.] गौतम ! (वह) अनेक संस्थानों वाला कहा गया है ।
[२] एवं जलयर-थलयर-खहयराण वि । थलयराण चउप्पय-परिसप्पाण वि । परिसप्पाण उरपरिसप्प-भुयपरिसप्पाण वि । ___ [१५२४-२] इसी प्रकार (समुच्चय तिर्यञ्च-पंचेन्द्रियों की तरह,) जलचर, थलचर और खेचरों(के वैक्रियशरीरों) का संस्थान भी (नाना प्रकार का कहा गया है।) तथा स्थलचरों में चतुष्पद और परिसों का और परिसों में उर:परिसर्प और भुजपरिसॉ के (वैक्रियशरीर) का (संस्थान भी नाना प्रकार का समझना चाहिए ।)
१५२५. एवं मणूसपंचेंदियवेउव्विसरीरे वि ।
[१५२५] इसी (तिर्यञ्च-पंचेन्द्रियों की) तरह मनुष्य-पंचेन्द्रियों का (वैक्रियशरीर) भी (नाना संस्थानों वाला कहा गया है ।)
१५२६.[१] असुरकुमारभवणवासिदेवपंचेंदियवेउब्वियसरीरे णं भंते ! किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! असुरकुमाराणं देवाणं दुविहे सरीरे पण्णत्ते । तं जहा-भवधारणिजे य उत्तरवेउव्विए