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________________ ५६४] [प्रज्ञापनासूत्र [२] मणूसे जहा जीवे (सु. १६४६)। [१६४७-२] (एक) मनुष्य के सम्बन्ध में (कर्मप्रकृतिबन्धक का आलापक सू. १६४६ में उक्त सामान्य जीव के (आलापक के) समान (कहना चाहिए।) [३] वाणमंतर-जोइसिए-वेमाणिए जहा णेरइए। __ [१६४७-३] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक (के सम्बन्ध में कर्मप्रकृतिबन्ध का आलापक) एक नैरयिक (के कर्मप्रतिबन्ध सम्बन्धी सू. १६४७-१ में उक्त आलापक) के समान कहना चाहिए। १६४८. मिच्छादसणसल्लविरया णं भंते ! जीवा कति कम्मपगडीओ बंधंति ? गोयमा ! ते चेव सत्तावीस भंगा भाणियव्वा (सु. १६४३)। [१६४८ प्र.] भगवन् ! मिथ्यादर्शनशल्य से विरत (अनेक) जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं ? [उ.] गौतम ! (सू. १६४३ में उक्त) वे (पूर्वोक्त) ही २७ भंग (यहाँ) कहने चाहिए। १६७९.[१] मिच्छादसणसल्लविरया णं भंते ! णेरइया कति कम्मपगडीओ बंधति ? गोयमा ! सव्वे वि ताव होज सत्तविहबंधगा १ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगे य २ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य ३। [१६४९-१ प्र.] भगवन् ! मिथ्यादर्शनिशल्य से विरत (अनेक) नारक कितनी कर्मप्रकृतियां बांधते हैं ? . ___ [उ.] गौतम ! सभी (भंग इस प्रकार) होते हैं- (१) (अनेक) सप्तविधबन्धक होते हैं, (२) अथवा (अनेक) सप्तविधबन्धक होते हैं और (एक) अष्टविधबन्धक होता है, (३) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और अष्टविधबन्धक होते हैं। [२] एवं जाव वेमाणिया। णवरं मणूसाणं जहा जीवाणं (सु. १६४८)। [१६४९-२] इसी प्रकार (नैरयिकों के कर्मप्रकृतिबन्धक के आलापक के समान) यावत् (अनेक) वैमानिकों के (कर्मप्रकृतिबन्धक के आलापक कहने चाहिए।) विशेष यह है कि (अनेक) मनुष्यों के (कर्मप्रकृतिसम्बन्धी आलापक सू. १६४८ में उक्त समुच्चय अनेक) जीवों के (कर्मप्रकृति सम्बन्धी आलापक के) समान कहना चाहिए। विवेचन - अठारह पापस्थानविरत जीवों के कर्मप्रकृतिबन्ध का विचार - प्रस्तुत ८ सूत्रों (सू. १६४२ से १६४९ तक) में एक जीव, अनेक जीव, एक नैरयिक आदि और अनेक नैरयिक आदि की अपेक्षा से कर्मप्रकृतिबन्ध का विचार अनेक भंगों द्वारा प्रस्तुत किया गया है। अनेक जीवों की अपेक्षा से २७ भंग-कर्मप्रकृतिबन्ध के एकवचन और बहुवचन के कुल २७ भंग होते हैं, वे इस प्रकार हैं- द्विकसंयोगी भंग- १, त्रिकसंयोगी भंग-६, चतु:संयोगी भंग- १२, और पंचसंयोगी
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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