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बाईसवाँ क्रियापद ]
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भंग- ८, यों कुल मिलाकर २७ भंग हुए। - मनुष्यों के भी कर्मप्रकृतिबन्ध के इसी प्रकार २७ भंग होते हैं। ये सभी सूत्र क्रियाओं से सम्बन्धित हैं, क्योंकि क्रियाओं से ही कर्मबन्ध होता है। पापस्थानविरत जीवादि में क्रियाभेदनिरूपण
१६५०. पाणाइवायविरयस्स णं भंते ! जीवस्स किं आरंभिया किरिया कज्जति' [जाव मिच्छादंसणवतिया किरिया कजइ] ?
गोयमा ! पाणाइवायविरयस्स जीवस्स आरंभिया किरिया सिय कज्जइ सिय णो कज्जइ।
[१६५० प्र.] भगवन् ! प्राणातिपात से विरत जीव के क्या आरम्भिकीक्रिया होती है ? [यावत् क्या मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया होती है ?]
[उ.] गौतम ! प्राणातिपातविरत जीव के आरम्भिकीक्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती है। १६५१. पाणाइवायविरयस्स णं भंते ! जीवस्स पारिग्गहिया किरिया कजइ ? गोयमा ! णो इणढे समटे । [१६५१ प्र.] भगवन् ! प्राणातिपातविरत जीव के क्या पारिग्रहिकीक्रिया होती है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। १६५२. पाणाइवायविरयस्स णं भंते ! जीवस्स मायावत्तिया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! सिय कजति सिय णो कजति । [१६५२ प्र.] भंते ! प्राणातिपातविरत जीव के मायाप्रत्ययाक्रिया होती है ? [उ.] गौतम ! कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती। १६५३. पाणाइवायविरयस्स णं भंते ! जीवस्स अपच्चक्खाणवतिया किरिया कज्जति ? गोयमा ! णो इणटे समढे । [१६५३ प्र.] भगवन् ! प्राणातिपातविरत जीव के क्या अप्रत्याख्यानप्रत्ययाक्रिया होती है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है।
२. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४५१ २. [जाव मिच्दादंसणत्तिया किरिया कज्जइ ?], यह पाठ यहाँ असंगत है, क्योंकि आगे १६५४ सू. में इसके सम्बन्ध में प्रश्र किया गया
है जिसका उत्तर भगवान् ने 'णो इणढे समढे' दिया है, जबकि यहाँ उत्तर- आ. कि. सिय कज्जइ, सिय णो कज्जइ ।'