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अठारहवाँ कायस्थितिपद ]
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और त्याग का यह सिलसिला अन्तर्मुहूर्त तक लगातार चालू रहता है । उसके बाद अवश्य ही उसमें व्यवधान पड़ जाता है, क्योंकि जीव का स्वभाव ही ऐसा है। इसलिए यहाँ मनोयोग का अधिक अन्तर्मुहूर्त कहा गया है।
अधिक काल
वचनयोगी की कालस्थिति - वचनयोगी की भी कालस्थिति मनोयोगी के समान है । वह भी जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। जीव प्रथम समय में काययोग के द्वारा भाषायोग्य द्रव्यों को ग्रहण करता है, द्वितीय समय में उन्हीं को भाषारूप में परिणत करके त्यागता है और तृतीय समय में वह उपरत हो जाता है, या मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार वाग्योगी को एक समय लगता है। इसका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त हैं, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त तक वह भाषायोग्य पुद्गलों का ग्रहण- निसर्ग करता हुआ अवश्य उपरत हो ता है। जीव का स्वभाव ही ऐसा है ।
काययोगी की कालस्थिति - काययोगी जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक लगातार काययोगी बना रहता है। द्वीन्दियादि जीवों में वचनयोग भी पाया जाता है। जब वचनयोग या मनोयोग भी होता है, उस समय काययोग की प्रधानता नहीं होती। अत: वह सादि-सान्त होने से जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक काययोग में रहता है। उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक काययोग रहता है । वनस्पतिकाल का परिणाम पहले बताया जा चुका है। वनस्पतिकायिक जीवों में केवल काययोग ही पाया जाता है, वचनयोग और मनोयोग नहीं होता है । इस कारण अन्य योग का अभाव होने से उनमें तब तक निरन्तर काययोग ही रहता है, जब तक उन्हें त्रसपर्याय प्राप्त न हो जाए।
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१३२६. सवेदए णं भंते ! सवेदए त्ति ० ?
गोयमा ! सवेदए तिविहे पण्णत्ते । तं जहा- अणादीए वा अपज्जवसिए १ अणादी वा सपज्जवसिए २ सादीए वा सपज्जवसिए ३ । तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंत कालं, अनंताओ उस्सप्पिणी- ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अवड्ढं पोग्गलपरियहं ।
[१३२६ प्र.] भगवन् ! सवेद जीव कितने काल तक सवेदरूप में रहता है ?
[१३२६ उ.] गौतम ! सवेद जीव तीन प्रकार के कहे गए हैं। यथा- ( १ ) अनादि - अनन्त, (२) अनादि-सान्त और (३) सादि - सान्त । उनमें से जो सादि- सान्त है, वह जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्टतः अनन्तकाल तक ( निरन्तर सवेदकपर्याय से युक्त रहता है ।) (अर्थात् - उत्कृष्टतः) काल से अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियों तक यथा क्षेत्र की अपेक्षा से देशोन अपार्द्धपुद्गलपरावर्त्त तक (जीव सवेद रहता है।)
१. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३८२
२.
प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३८२-३८३