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________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] [ ५१३ १०. अच्युतदेव की " " ऊपर स्वकीयविमान तक ११. ग्रैवेयक एवं अनुत्तर-विमान " ज.-विद्याधरश्रेणी तक, उत्कृष्ट नीचेअधोलौकिक देव की ग्राम तक, तिरछी मनुष्यक्षेत्र तक, ऊपर स्वविमान तक । लोगंताओ लोगंतो - लोकान्त से लोकान्त तक, अर्थात्-अधोलोक के चरमान्त से ऊर्ध्वलोक के चरमान्त तक, अथवा ऊर्ध्वलोक के चरमान्त से अधोलोक के चरमान्त तक । यह तैजसशरीरीय उत्कृष्ट अवगाहना सूक्ष्म या बादर एकेन्द्रिय के तैजसशरीर की अपेक्षा से समझनी चाहिए । क्योंकि सूक्ष्म और बादर एकेन्द्रिय ही यथायोग्य समस्त लोक में रहते हैं । अन्य जीव नहीं । इसलिए एकेन्द्रिय के सिवाय अन्य किसी जीव की इतनी अवगाहना नहीं हो सकती है । प्रस्तुत में तैजसशरीरीय अवगाहना मृत्यु के समय जीव को मरकर जिस गति या योनि में जाना होता है, वहाँ तक की लक्ष्य में रख कर बताई गई है । अतएव जब कोई एकेन्द्रिय जीव (सूक्ष्म या बादर) मृत्यु के समय अधोलोक के अन्तिम छोर में स्थित हो और ऊर्ध्वलोक के अन्तिम छोर में उत्पन्न होने वाला हो, अथवा वह मरणसमय में ऊर्ध्वलोक के अन्तिम छोर में स्थित हो और अधोलोक के अन्तिम छोर में उत्पन्न होने वाला हो और जब वह मारणान्तिक समुद्घात करता है, तब उसकी उत्कृष्ट अवगाहना लोकान्त से लोकान्त तक होती है । तिरियलोगाओलोगंतो-तिर्यक्लोक से लोकान्त तक अर्थात्-तिर्यग्लोक से अधोलोकान्त तक अथवा ऊर्ध्वलोकान्त तक । आशय यह है कि जब तिर्यग्लोक में स्थित कोई द्वीन्द्रिय जीव ऊर्ध्वलोकान्त या अधोलोकान्त में एकेन्द्रिय के रूप में उत्पन्न होने वाला हो और मारणान्तिकसमुद्घात करे, उस समय तैजसशरीर की पूर्वोक्त अवगाहना होती है । उड्ढं जाव पंडगवणे पुक्खरिणीओ - ऊपर-उ. अवगाहना पण्डकवन में स्थित पुष्करिणी तक की होती है । इसका आशय यह है कि सातवीं नरकपृथ्वी से लेकर तिरछी स्वयम्भूरमणसमुद्र-पर्यन्त और ऊपर पण्डकवन पुष्करिणी तक की अवगाहना तभी पाई जाती है जब सातवीं नरक का नारक स्वयम्भूरमणसमुद्र के पयार्यन्त-भाग में मत्स्यरूप में या पण्डकवन की पुष्करणियों में उत्पन्न होता है । तब उस सप्तमपृथ्वी के नारक की तैजसशरीरीय अवगाहना इतनी होती है । जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं - द्वीन्द्रिय के तैजसशरीर की अवगाहना आयाम की अपेक्षा से जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग की बताई गई है । इतनी अवगाहना द्वीन्द्रिय की तभी होती है, जब अंगुल के असंख्यातवें भाग वाला अपर्याप्त औदारिकशरीरी द्वीन्द्रिय अपने निकटवर्ती प्रदेश में एकेन्द्रिय रूप में उत्पन्न होता है अथवा जिस शरीर में स्थित होकर मारणान्तिकसमुद्घात करता है, उस शरीर से १. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. १, पृ. ३४५-३४६
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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