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[प्रज्ञापनासूत्र
मारणान्तिकसमुद्घातवश बाहर निकले हुए तैजसशरीर के आयाम-विष्कम्भ एवं विस्तार की अपेक्षा से अवगाहना का विचार किया जाता है, उस शरीरसहित का नहीं, अन्यथा भवनपति आदि का जो जघन्यतः आयाम अंगुल का असंख्यातवें भाग का कहा गया है उससे विरोध आएगा । क्योंकि भवनपति आदि का शरीर सात आदि हस्तप्रमाण है । अतः यही उचित तथ्य होता है कि महाकाय द्वीन्द्रिय जीव भी जब अपने निकटवर्ती प्रदेश में एकेन्द्रिय रूप में उत्पन्न होता है, तब भी अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण उसकी तैजसशरीरावगाहना होगी, ऐसा समझना चाहिए ।
सातिरेगं जोयणसहस्सं - नारक के तैजसशरीर की अवगाहना आयाम की दृष्टि से जघन्य सातिरेक सहस्रयोजन की कही गई है । वह इस प्रकार समझनी चाहिए - वलयामुख आदि चार पातालकलश लाख योजन के अवगाह वाले हैं । उनकी ठीकरी एक हजार योजन मोटी है । उन पातालकलशों के नीचे का त्रिभाग वायु से परिपूर्ण है, ऊपर का त्रिभाग जल से परिपूर्ण है तथा मध्य का त्रिभाग वायु तथा जल के अनुसरण और नि:स्सरण का मार्ग है । जब कोई सीमन्तक आदि नरकेन्द्रकों में विद्यमान पातालकलंश का निकटवर्ती नारक अपनी आयु का क्षय होने से मर कर पातालकलश की एक हजार योजन मोटी दीवार का भेदन करके पातालकलश के भीतर दूसरे या तीसरे त्रिभाग में मत्स्यरूप में उत्पन्न होता है, तब मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत उस नारक की जघन्य तैजसशरीरावगाहना एक हजार योजन से कुछ अधिक होती है ।
समयखेत्ताओ लोगंतो - मनुष्य के तैजसशरीर की अवगाहना उत्कृष्टतः समयक्षेत्र से लोकान्त तक की कही है, अर्थात्-मनुष्य की तैजसशरीरावगाहना मनुष्यक्षेत्र से अधोलोक के चरमान्त तक या ऊर्ध्वलोक के चरमान्त तक समझनी चाहिए, क्योंकि मनुष्य का भी एकेन्द्रिय में उत्पन्न होना सम्भव है। तात्पर्य यह है कि मनुष्य का जन्म या संहरण समय क्षेत्र से अन्यत्र सम्भव नहीं है । अतः इससे अधिक उसको तैजसशरीरावगाहना नहीं हो सकती । इसे समयक्षेत्र इसलिए कहते हैं कि यह ढाईद्वीपप्रमाणक्षेत्र ही ऐसा है, जहाँ सूर्य आदि के संचार के कारण समय (काल) का व्यक्त व्यवहार होने से समयप्रधान क्षेत्र है।
__वाणव्यन्तर से सौधर्म-ईशान तक के देवों की तैजसशरीरावगाहना - लम्बाई की अपेक्षा से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट नीचे तृतीय नरकपृथ्वी के अधस्तनचरमान्त तक की, तिरछी, स्वयम्भूरमणसमुद्र के बाह्य वेदिकान्त तक की और ऊपर ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी तक की कही गई है । इसका तात्पर्य यह है कि असुरकुमार आदि सभी भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क तथा सौधर्म-ईशानदेव एकेन्द्रियों में भी उत्पन्न होते है । जब वे च्यवन के समय अपने केयूर आदि आभूषणों में, कुण्डल आदि में या पद्मराग आदि माणियों में लुब्ध-मूछित होकर, उसी के अध्यवसाय में मग्न होकर अपने शरीर के उन्हीं निकटवर्ती आभूषणों में पृथ्वीकायिक के रूप में उत्पन्न होते हैं, तब उन देवों के तैजसशरीर की अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की होती है ।
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प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४२७-४२९ तक