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पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक ]
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असंख्यात हैं । सर्वार्थसिद्धदेवत्व रूप में अतीत नहीं हैं, बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ भी नहीं हैं, किन्तु पुरस्कृत द्रव्येन्दियाँ असंख्यात हैं।
१०५३. एवं जाव गेवेजगदेवाणं ।
[१०५३] (बहुत-से) (ईशानदेवों से लेकर) यावत् ग्रैवेयक देवों की (अतीत, बद्ध, पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता भी) इसी प्रकार (समझनी चाहिए) ।
१०५४. [४] विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियदेवाणं भंते ! णेरइयत्ते केवतिया दव्वेंदिया अतीता?
गोयमा ! अणंता। केवतिया बद्धेल्लगा?
णत्थि । . केवतिया पुरेक्खडा?
णत्थि ।
[१०५४-१ प्र.] भगवन् ! विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवों की नैररिकत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ?
[१०५४-१ उ.] गौतम ! (वे) अनन्त हैं ? [प्र..] (उनकी) बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] (गौतम !) नहीं हैं। [प्र.] (उनकी) पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] (गौतम !) नहीं है।
[२] एवं जाव जोइसियत्ते । णवरमेसिं मणूसत्ते अतीया अणंता; केवतिया बद्धेल्लगा ? णत्थि; पुरेक्खडा असंखेजा।
[१०५४-२] इसी प्रकार यावत् ज्योतिष्कदेवत्वरूप में भी (अतीत, बद्ध, पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में कहना चाहिए।) विशेष यह है कि इनकी मनुष्यत्वरूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं।
[प्र.] (इनकी) बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं । [उ.] (गौतम !) नहीं हैं।