SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बारहवाँ शरीरपद [११९ आहारक शरीर मुक्त ही होते हैं, बद्ध नहीं, क्योंकि उनमें वैक्रियलब्धि तथा आहारकलब्धि नहीं होती। द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तिर्यचों तक के बद्ध-मुक्त शरीरों का परिमाण ९१८.[१] बेइंदियाणं भंते ! केवतिया ओरालियसरीरा पण्णता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता तं जहा - बद्धेल्लगा य मुक्केल्लगा य । तत्थ णं जे ते बद्धल्लगा ते णं असंखेजा,असंखेजाहिं उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीहि अवहीरंति कालओ,खेत्तओ असंखेजाओ सेढीओ पयरस्स असंखेजइभागो, तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई असंखेजाओ जोयणकोडाकोडीओअसंखेज्जाइं सेढिवग्गमूलाई।बेइंदियाणं ओरालियसरीरेहिं बद्धेल्लगेहिं पयरं अवहीरति, असंखेजाहिं उस्सप्पिणिओसपिपणीहिं कालओ, खेत्तओ अंगुलपयरस्स आवलियाए य असंखेज्जइभागपलिभागेणं। तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते जहा ओहिया ओरालिया मुक्केल्लगा (सु. ९१० [१])। [९१८-१ प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रियजीवों के कितने औदारिकशरीर कहे गए हैं ? [९१८-१ उ.] गौतम ! (वे) दो प्रकार के कहे गए हैं - बद्ध और मुक्त । उनमें जो बद्ध औदारिकशरीर हैं, वे असंख्यात हैं । कालतः - (वे) असंख्यात उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं । क्षेत्रत:- असंख्यात श्रेणी-प्रमाण हैं । (वे श्रेणियाँ) प्रतर के असंख्यात भाग (प्रमाण) हैं । उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची, असंख्यात कोटा कोटी योजन प्रमाण है । (अथवा) असंख्यात श्रेणि वर्गमूल के समान होती है । द्वीन्द्रियों के बद्ध ओदारिक शरीरों से प्रतर अपहृत किया जाता है । काल की अपेक्षा से - असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी-कालों से (अपहार होता है)। क्षेत्र की अपेक्षा से अंगुल-मात्र प्रतर और आवलिका के असंख्यात भाग प्रतिभाग-(प्रमाण खण्ड) से (अपहार होता है) उनमें जो मुक्त औदारिक शरीर हैं, (उनके विषय में) जैसे (सू. ९१०-१ में) औधिक मुक्त औदारिक शरीरों के (विषय में कहा है), वैसे (कहना चाहिए)। [२] वेउव्विया आहारगा य बद्धेल्लगा णत्थि, मुक्केल्लगा जहा ओहिया ओरालिया मुक्केल्लया (सु.९१० [१])। [९१८-२ प्र.] (इनके) वैक्रिय शरीर और आहारकशरीर बद्ध नहीं होते । मुक्त (वैक्रिय और आहारक शरीरों का कथन) (सू. ९१०-१ में उल्लिखित) औधिक मुक्त औदारिकशरीरों के समान कहना चाहिए। १. (क) प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक २७७ (ख) तिण्हं ताव रासीणं वेउव्वियलद्धी चेव नत्थि । बायरपज्जत्ताणं पिसंखेजइभागमेत्ताण लद्धी अस्थि ॥ -प्रज्ञापना चूर्णि, प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक २७७ में उद्धृत
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy