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[प्रज्ञापनासूत्र
[१०५९] इसी प्रकार असुरकुमारों की (भावेन्द्रियों के विषय में कहना चाहिए।) विशेष यह है कि पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ पांच, छह, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त हैं । ___इसी प्रकार स्तनितकुमार तक की (भावेन्द्रियों के विषय में समझ लेना चाहिए ।)
१०६०. एवं पुढविकाइय-आउकाइय-वणस्सइकाइयस्स वि, बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिदियस्स वि। तेउक्काइय-वाउक्काइयस्स वि एवं चेव, णवरं पुरेक्खडा छ वा सत्त वा संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा।
[१०६०] इसी प्रकार (एक-एक) पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय की तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय की, तेजस्कायिक एवं वायुकायिक की (अतीतादि भावेन्द्रियों के विषय में कहना चाहिए।) विशेष यह है कि (इनकी) पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ छह, सात, संख्यात, असंख्यात या अनन्त होती हैं ।
१०६१. पंचेंदियतिरिक्खजोणियस्स जाव ईसाणस्स जहा असुरकुमारस्स (सु. १०५९)।णवरं मणूसस्स पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि ति भाणियव्वं ।
[१०६१] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक से लेकर यावत् ईशानदेव की अतीतादि भावेन्द्रियों के विषय में (सू. १०५९ में उक्त) असुरकुमारों की भावेन्द्रियों की प्ररूपणा की तरह कहना चाहिए। विशेष यह कि मनुष्य की पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती हैं; इस प्रकार (सब पूर्ववत्) कहना चाहिए ।
१०६२. सणंकुमार जाव गेवेजगस्स जहा णेरइयस्स (सु. १०५७-५८)।
[१०६२] सनत्कुमार से लेकर ग्रैवेयकदेव तक की (अतीतादि भावेन्द्रियों का कथन) (सू. १०५७१०५८ में उक्त) नैरयिकों की वक्तव्यता के समान करना चाहिए ।
१०६३. विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियदेवस्स अतीता अणंता, बद्धेल्लगा पंच, पुरेक्खडा पंच वा दस वा पण्णरस वा संखेजा वा। सव्वट्ठसिद्धगदेवस्स अतीता अणंता, बद्धेल्लगा पंच।
केवतिया पुरेक्खडा? पंच।
[१०६३] विजय, वैजयन्त, जयन्त एवं अपराजित देव की अतीत भावेन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध पांच हैं और पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ पांच, दस, पन्द्रह या संख्यात हैं ।
सर्वार्थसिद्धदेव की अतीत भावेन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध पांच हैं। . [प्र.] पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] वे पांच हैं।