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पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक]
[२२५ हैं: क्योंकि वनस्पतिकायिकों के औदारिकशरीर असंख्यात ही होते हैं।' बारहवाँ भावेन्द्रियद्वार
१०५६. कति णं भंते ! भाविंदिया पण्णत्ता? गोयमा ! पंच भाविंदिया पण्णत्ता । तं जहा- सोइंदिए जाव फासिदिए। [१०५६ प्र.] भगवन् ! भावेन्द्रियाँ कितनी कही गई हैं ? [१०४६ उ.] गौतम ! भावेन्द्रियाँ पांच कही हैं, वे इस प्रकार - श्रोत्रेन्द्रिय से (लेकर) स्पर्शेन्द्रिय तक। १०५७. णेइयाणं भंते ! कति भाविंदिया पण्णत्ता ?
गोयमा ! पंच भाविंदिया पण्णत्ता । तं जहा- सोइंदिए जाव फासेंदिए। एवं जस्स जति इंदिया तस्स तत्तिया भाणियव्वा जाव तेमाणियाणं।
[१०५७ प्र.] भगवन् ! नैरयिकों की कितनी भावेन्द्रियाँ कही गई हैं ? • [१०५७ उ.] गौतम ! भावेन्द्रियाँ पांच कही हैं, वे इस प्रकार- श्रोत्रेन्द्रिय से स्पर्शेन्द्रिय तक। इसी प्रकार जिसकी जितनी इन्द्रियाँ हों, उतनी वैमानिकों तक भावेन्द्रियाँ कह लेनी चाहिए।
१०५८. एगमेगस्स णं भंते ! णेरइयस्स केवतिया भाविंदिया अतीता ?
गोयमा ! अणंता। केवतिया बद्धेल्लगा? पंच । केवतिया पुरेक्खडा? पंच वा दस वा एक्कारस वा संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा । .
[१०५८ प्र.] भगवन् ! एक-एक नैरयिक के कितनी अतीत भावेन्द्रियाँ हैं ? [१०५८ उ.] गौतम ! वे अनन्त हैं । [प्र.] (उनकी) कितनी (भावेन्द्रियाँ) बद्ध हैं ? [उ.] (गौतम !) (वे) पांच हैं । [प्र.] (उनकी) पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ कितनी कही हैं ? [उ.] (गौतम !) वे पांच हैं, दस हैं, ग्यारह हैं, संख्यात हैं या असंख्यात हैं अथवा अनन्त हैं।
१०५९. एवं असुरकुमारस्स वि। णवरं पुरेक्खडा पंच वा छ वा संखेज्जा वा असंखेजा वा अणंता वा। एवं जाव थणियकुमारस्स ।
१. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ३१५-३१६