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बाईसवाँ क्रियापद ]
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आरम्भिकी कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती है। अप्रमत्तसंयत के नहीं होती, शेष के होती है तथा जिसके आरम्भिकीक्रिया होती है, उसके अप्रत्याख्यानीक्रिया विकल्प से होती है। प्रमत्तसंयत और देशविरत के यह क्रिया नहीं होती, किन्तु अविरत सम्यग्दृष्टि आदि के होती है। जिसके अप्रत्याख्यानक्रिया होती है, उसके आरम्भिकीक्रिया का होना अवश्यम्भावी है। जिसके आरम्भिकी है, उसके मिथ्यादर्शनक्रिया विकल्प से होती है। अर्थात् मिथ्यादृष्टि को होती है, शेष के नहीं होती। जिसके मिथ्यादर्शनक्रिया होती है, उसके आरम्भिकी अवश्य होती है, क्योंकि मिथ्यादृष्टि अवश्य ही अविरत होता है। पारिग्रहिकी का आगे को तीन क्रियाओं के साथ, मायाप्रत्यया का आगे की दो क्रियाओं के साथ तथा अप्रत्याख्यानक्रिया का एक मिथ्यादर्शनप्रत्यया के साथ सहभाव होता है। पांच स्थावर और तीन विकलेन्द्रियों में पांचों क्रियाएँ होती हैं क्योंकि पृथ्वीकायिकादि में मिथ्यादर्शनप्रत्यया अवश्य होती है। अप्रत्याख्यानक्रिया अविरतसम्यग्दृष्टि के, मिथ्यादर्शनप्रत्यया मिथ्यादृष्टि के और प्रारम्भ की चारों क्रियाएँ देशविरत के होती हैं।' जीव आदि में पापस्थानों से विरति की प्ररूपणा
१६३७. अत्थि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवायवेरमणे कज्जति ? • हंता ! अस्थि ।
कम्हिं णं भंते ! जीवाणं पाणाइवायवेरमणे कजति ? गोयमा ! छसु जीवणिकाएसु।। [१६३७ प्र.] भगवन् ! क्या जीवों का प्राणातिपात से विरमण होता है ? [उ.] हाँ, होता है। [प्र.] भगवन् ! किस (विषय) में प्राणतिपातविरमण होता है ? [उ.] गौतम ! (वह) षड् जीवनिकायों (के विषय) में होता है। १६३८.[१] अस्थि णं भंते ! णेरइयाणं पाणाइवायवेरमणे कज्जति ? गोयमा ! णो इणट्ठा समढे। [१६३८-१ प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिकों का प्राणातिपात से विरमण होता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [२] एवं जाव वेमाणियाणं । णवरं मणूसाणं जहा जीवाणं (सु. १६३७) । [१६३८-२] इसी प्रकार का कथन वैमानिकों तक के प्राणातिपात से विरणामण के विषय में समझन
प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४४८