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[प्रज्ञापनासूत्र
चाहिए। विशेष यह कि मनुष्यों का प्राणातिपातविरमण (सामान्य) जीवों के समान (सू. १६३७ के अनुसार कहना चाहिए।)
१६३९. एवं मुसावाएणं जाव मायामोसेणं जीवस्स य मणूसस्स य, सेसाणं णो इणढे समढे। णवरं अदिण्णादाणे गहण-धारणिज्जेसु दव्वेसु, मेहुणे रूवेसु वा रूवसहगएसु वा दव्वेसु, सेसाणं सव्वदव्वेसु।
[१६३९] इसी प्रकार मृषावाद से लेकर मायामृषा (पापस्थान तक से विरमण सामान्य जीवों का और मनुष्य का होता है, शेष में यह नहीं होता। विशेष यह है कि अदत्तादानविरमण ग्रहणधारण करने योग्य में, मैथुनविरमण रूपों में अथवा रूपसहगत (स्त्री आदि) द्रव्यों में होता है। शेष पापस्थानों से विरमण सर्वद्रव्यों के विषय में होता है।
१६४०. अत्थि णं भंते ! जीवाणं मिच्छादंसणसल्लवेरमणे कजति ? हंता ! अस्थि । कम्हि णं भंते ! जीवाणं मिच्छादंसणसल्लवेरमणे कज्जइ ? गोयमा ! सव्वदव्वेसु। [१६४० प्र.] भगवन् ! क्या जीवों का मिथ्यादर्शनशल्य से विरमण होता है ? [उ.] हाँ, होता है। [प्र.] भगवन् ! किस (विषय) में जीवों का मिथ्यादर्शनशल्य से विरमण होता है ? [उ.] गौतम ! (वह) सर्वद्रव्यों (के विषय) में होता है। १६४१. एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं । णवरं एगिंदिय-विगलिंदियाणं णो इणढे समटे।
[१६४१] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक के मिथ्यादर्शनशल्य से विरमण का कथन करना चाहिए। विशेष यह है कि एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों में यह नहीं होता।
विवेचन - अठारह पापस्थानों से विरमण की चर्चा - प्रस्तुत पंचसूत्री में (१६३७ से १६४१ तक में) क्रियाओं के सन्दर्भ में सामान्य जीवों की और चौबीस दण्डकवर्ती जीवों की प्राणातिपात आदि १८ पापस्थानों से विरति तथा उनके विषयों की चर्चा की गई है।
निष्कर्ष- मनुष्य के अतिरिक्त किसी भी जीव में प्राणातिपात आदि १८ पापस्थानों से उसके भवस्वभाव के कारण विरति नहीं हो सकती। समुच्चय जीवों में विरति बताई है, वह मनुष्य की अपेक्षा से बताई है तथा
१. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्रांक ४५०
(ख) पण्णवणासुत्तं (परिशिष्ट आदि) भा. २, पृ. १२४