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[ प्रज्ञापनासूत्र
[१६३५-४] पञ्चेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक को प्रारम्भ की तीन क्रियाएँ परस्पर नियम से होती हैं। जिसको ये (तीनों क्रियाएँ) होती हैं, उसको आगे की दो क्रियाएँ (अप्रत्याख्यानिकी एवं मिथ्यादर्शनप्रत्यया) विकल्प (भजना) से होती हैं। जिसको, आगे की दोनों क्रियाएँ होती हैं, उसको ये (प्रारम्भ की) तीनों (क्रियाएँ) नियम से होती हैं। जिसको अप्रत्याख्यानक्रिया होती है, उसको मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती है। (किन्तु) जिसको मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया होती है, उसको अप्रत्याख्यानक्रिया अवश्यमेव (नियम से) होती है।
[५] मणूसस्स जहा जीवस्स।
[१६३५-५] मनुष्य में (पूर्वोक्त क्रियाओं के सहभाव का कथन) सामान्य जीव में (क्रियाओं के सहभाव के कथन की) तरह समझना चाहिए।
[६] वाणमंतर-ज्योतिसिय-वेमाणियस्स जहा णेरइयस्सं।
[१६३५-६] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव में (क्रियाओं के परस्पर सहभाव का कथन) नैरयिक (में क्रियाओं के सहभाव-कथन) के समान समझना चाहिए।
१६३६. जं समयं णं भंते ! जीवस्स आरंभिया किरिया कजति तं समयं पारिग्गहिया किरिया कजति ?
एवं एते जस्स १ जं समयं २ जं देसं ३ जं पदेसं णं ४ चत्तारि दंडगा णेयव्वा । णेरइयाणं तहा . सव्वदेवाणं णेयव्वं जाव वेमाणियाणं।
[१६३६ प्र.] भगवन् ! जिस समय जीव के प्रारम्भिकीक्रिया होती है, (क्या) उस समय पारिग्रहिकीक्रिया होती है ?
[उ.] क्रियाओं के परस्पर सहभाव के (सम्बन्ध में)
इस प्रकार- (१) जिस जीव के, (२) जिस समय में, (३) जिस देश में और (४) जिस प्रदेश में- यों चार दण्डकों के आलापक कहने चाहिए। जैसे नैरयिकों के विषय में ये चारों दण्डक कहे उसी प्रकार वैमानिकों तक समस्त देवों के विषय में कहने चाहिए।
विवेचन - जीव आदि में आरम्भिकी आदि क्रियाओं का सहभाव - प्रस्तुत ९ सूत्रों (सू. १६२८ से १६३६ तक) में समुच्चय जीव में तथा नारकादि चौवीस दण्डकों में आरम्भिकी आदि ५ क्रियाओं के परस्पर सहभाव की चर्चा की गई है। ____क्रियाओं का सहभाव : क्यों अथवा क्यों नहीं ? - जिसके आरम्भिकी क्रिया होती है, उसके पारिग्रहिकी विकल्प से होती है, क्योंकि पारिग्रहिकी प्रमत्तसंयत के नहीं होती, शेष के होती है। जिसके आरम्भिकी होती है, उसके मायाप्रत्यया नियम से होती है (किन्तु जिसके मायाप्रत्यया होती है, उसके