SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 438
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद] [ ४१७ विवेचन - अन्तक्रिया : अनन्तरागत या परम्परागत ? - अन्तक्रिया (मुक्ति) केवल मनुष्यभव में ही हो सकती है, इसलिए द्वितीय द्वार में नारक से लेकर वैमानिक तक के सभी जीवों के विषय में प्रश्न है कि वे नारक आदि के जीव जो अन्तक्रिया करते है, वे नारकादिभव में से मर कर व्यवधानरहित सीधे मनुष्यभव में आकर (अनन्तरागत ) अन्तक्रिया (मोक्षप्राप्ति) करते हैं, या नारकादिभव के बाद एक या अनेक भव करके फिर मनुष्यभव में आकर (परम्परागत) अन्तक्रिया करते हैं ? यह इन सभी प्रश्नों का आशय है ।' जीवों की अनन्तरागत और परम्परागत अन्तक्रिया का निर्णय - समुच्चयरूप से नारक जीव दोनों प्रकार से अन्तक्रिया करते हैं । अर्थात् नरक से सीधे मनुष्यभव में आ कर भो अन्तक्रिया करते हैं और नरक से निकल कर तिर्यञ्च आदि के भव करके फिर मनुष्यभव में आ कर भो अन्तक्रिया करते हैं। किन्तु विशेषरूप से रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रथा और पंकप्रभा, इन चारों नरकभूमियों के नारक अनन्तरागत अन्तक्रिया करते हैं और परम्परागत भी । किन्तु शेष तीन (धूमप्रभा, तमःप्रभा और तमस्तम:प्रभा) नरकभूमियों के नारक केवल परम्परागत अन्तक्रिया करते हैं । इसका कारण पूर्वोक्त ही समझना चाहिए। असुरकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक १० प्रकार के भवनपति देव तथा पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक, ये तीन प्रकार के एकेन्द्रिय जीव अनन्तरागत और परम्परागत दोनों प्रकार से अन्तक्रिया करते हैं । तेजस्कायिक, वायुकायिक जीव मर कर मनुष्य होते ही नहीं, इस कारण और तीन विकलेन्द्रिय जीव भवस्वभाव के कारण परम्परागत अन्तक्रिया ही करते हैं । ये जीव सीधे मनुष्यभव में आकर अन्तक्रिया नहीं कर सकते, ये अपने-अपने भव से निकल कर तिर्यञ्चादिभव करके फिर मनुष्यभव में आ कर अन्तक्रिया करते हैं । इनके अतिरिक्त पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य, , वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों में से जिनकी योग्यता होती, वे अनन्तरागत अन्तक्रिया करते हैं और जिनकी योग्यता नहीं होतो, वे परम्परागत अन्तक्रिया करते हैं । इन सम्बन्ध में पूर्वोक्त युक्ति ही समझनी चाहिए। तृतीय : एकसमयद्वार १४१४.[१] अणंतरागया णं भंते ! णेरइया एगसमएणं केवतिया अंतकिरियं पकरेंति ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं दस । [१४१४-१ प्र.] भगवन् ! अनन्तरागत कितने नारक एक समय में अन्तक्रिया करते हैं ? [उ.] गोतम ! (वे एक समय में) जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट दस (अन्तक्रिया करते हैं ।) [२] रयणप्पभापुढविणेरइया वि एवं चेव जाव वालुयप्पभापुढविणेरइया । (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्र ३९७ (क) प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्र ३९७ (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी. भा. ४. पृ. ४९२ (ख) पण्णवण्णासुत्तं (परिशिष्ट) भा. २, पृ. ११२
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy