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________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक] [१७९ चाहिए। ९९६. मणूसा णं भंते ! ते णिजरापोग्गले किं जाणंति पासंति आहारेंति ? उदाहु ण जाणंति ण पासंति ण आहारेंति ? गोयमा ! अत्थेगइया जाणंति पासंति आहारेंति, अत्थेगइया ण जाणंति ण पासंति आहारेंति । से केणद्वेण भंते ! एवं वुच्चइ अत्थेगइया जाणंति पासंति आहारेंति ? अत्थेगइया ण जाणंति ण पासंति आहारेंति ? गोयमा ! मणूसा दुविहा पण्णत्तां। तं जहा - सण्णिभूया य असण्णिभूया य। तत्थ णं जे ते असण्णिभूया ते णं ण जाणंति ण पासंति आहारेति । तत्थ णं जे ते सण्णीभूया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - उवउत्ता य अणुवउत्ता य । तत्थ णं जे ते अणुवउत्ता ते णं ण जाणंति ण पासंति आहारेंति, तत्थ णं जे ते उवउत्ता ते णं जाणंति पासंति आहारेंति, से एएणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ - अत्थेगइया ण जाणंति ण पासंति आहारेंति अत्थेगइया जाणंति पासंति आहारेंति । - [९९६ प्र.] भगवन् ! क्या मनुष्य उन निर्जरापुद्गलों को जानते-देखते हैं और (उनका) आहरण करते हैं ? अथवा (उन्हें) नहीं जानते, नहीं देखते और नहीं आहरण करते हैं ? [९९६ उ.] गौतम ! कोई-कोई मनुष्य (उनको) जानते-देखते हैं ओर (उनका) आहरण करते हैं और कोई-कोई मनुष्य नहीं जानते, नहीं देखते और (उनका) आहरण करते हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि कोई-कोई मनुष्य (उनको) जानते-देखते हैं और (उनका) आहार करते हैं और कोई-कोई मनुष्य नहीं जानते, नहीं देखते किन्तु आहरण करते हैं ? [उ.] गौतम ! मनुष्य दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा - संज्ञीभूत (विशिष्ट अवधिज्ञानी) और असंज्ञीभूत (विशिष्ट अवधिज्ञान से रहित)। उनमें से जो असंज्ञीभूत हैं, वे (उन चरमनिर्जरापुद्गलों को) नहीं जानते, नहीं देखते, आहार करते हैं। उनमें से जो संज्ञीभूत हैं, वे दो प्रकार के कहे गये हैं - उपयोग से युक्त और उपयोग से रहित (उनुपयुक्त)। उनमें से जो उपयोगरहित हैं, वे नहीं जानते, नहीं देखते, आहार करते हैं। उनमें से जो उपयोग से युक्त हैं, वे जानते हैं, देखते हैं और आहार करते हैं। इस हेतु से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कोई-कोई मनुष्य नहीं जानते, नहीं देखते (किन्तु) आहार करते हैं और कोई-कोई मनुष्य जानते हैं, देखते हैं, आहार करते हैं। ९९७. वाणमंतर-जोइसिया जहा णेरइया (सु. ९९५ [१])। [९९७] वाणव्यन्तर और ज्योतिष्क देवों से सम्बन्धित वक्तव्यता (सू. ९९५-१ में उल्लिखित) नैरयिकों १. ग्रन्थाग्रम् ४५००
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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