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________________ १७८] [प्रज्ञापनासूत्र इस प्रश्न के उत्थान का कारण - इसी प्रकरण में पहले कहा गया था कि श्रोत्रादि चार इन्द्रियाँ स्पृष्ट और प्रविष्ट शब्दादि द्रव्यों को ग्रहण करती हैं, ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि चरमनिर्जरापुद्गल तो सर्वलोकस्पर्शी हैं, क्या उनका श्रोत्रादि से स्पर्श एवं प्रवेश नहीं होता? दूसरी बात यह है कि यहाँ यह प्रश्न छद्मस्थ मनुष्य के लिए किया गया है, क्योंकि केवली को तो इन्द्रियों से जानना-देखना नहीं रहता, वह तो समस्त आत्मप्रदशों से सर्वत्र सब कुछ जानता-देखता है। छद्मस्थ मनुष्य अंगोपांगनामकर्मविशेष से संस्कृत इन्द्रियों के द्वारा जानता-देखता है। छद्मस्थ मनुष्य चरमनिर्जरापुद्गलों को जानने-देखने में असमर्थ क्यों ? - जो मनुष्य छद्मस्थ है, अर्थात् - विशिष्ट अवधिज्ञान एवं केवलज्ञान से विकल है, वह शैलेशी-अवस्था के अन्तिम समयसम्बन्धी कर्मपर्यायमुक्त उन निर्जरापुद्गलों (परमाणुओं) के अन्यत्व-अर्थात् ये निर्जरापुद्गल अमुक श्रमण के हैं, ये अमुक श्रमण के, इस प्रकार के भिन्नत्व को तथा एक पुद्गलगत वर्णादि के नाना भेदों (नानात्व) को तथा उनके हीनत्व, तुच्छत्व (निःसारत्व), गुरुत्व (भारीपन) एवं लघुत्व (हल्केपन) को जान-देख नहीं सकता। इसके दो मुख्य कारण बताए है - एक तो वे पुद्गल इतने सूक्ष्म हैं कि चक्षु आदि इन्द्रियपथ से अगोचर एवं अतीत हैं। दूसरा कारण यह है कि वे अत्यन्त सूक्ष्म परमाणुरूप पुद्गल समग्र लोक का अवगाहन करके रहे हुए हैं, वे बादर रूप नहीं हैं, इसलिए उन्हें ये इन्द्रियाँ ग्रहण नहीं कर सकतीं। इसी बात को पुष्ट करते हुए शास्त्रकार कहते है-देवों की इन्द्रियाँ तो मनुष्यों की अपेक्षा अपने विषय को ग्रहण करने में अत्यन्त पटुतर होती हैं। ऐसा कोई कर्मपुद्गल विषयक अवधिज्ञानविकल देव भी उन भावितात्मा अनगारों के चरमनिर्जरापुद्गलों के अन्यत्व आदि को किंचित् भी (जरा-सा भी) जान-देख नहीं सकता, तब छद्मस्थ मनुष्य की तो बात ही दूर रही। . ग्यारहवाँ आहारद्वार ९९५.[१] णेरड्या णं भंते ! ते णिजरापोग्गले किं जाणंति पासंति आहारेंति ? उदाह ण जाणंति ण पासंति ण आहारेंति ? गोयमा ! णेरड्या णं ते णिज्जरापोग्गले ण जाणंति ण पासंति, आहारेति । [९९५-१ प्र.] भगवन् ! क्या नारक उन (चरम-) निर्जरापुद्गलों को जानते-देखते हुए (उनका) आहार (ग्रहण) करते हैं अथवा (उन्हें) नहीं जानते-देखते और नहीं आहार करते हैं ? [९९५-१ उ.] गौतम ! नैरयिक उन निर्जरापुद्गलों को जानते नहीं, देखते नहीं किन्तु आहार (ग्रहण) करते हैं । [२] एवं जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणिया । [९९५-२] इसी प्रकार (असुरकुमारों से लेकर) यावत् पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों तक के विषय में कहना प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३०३
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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